> परमात्मा और जीवन"ईश्वर के साथ हमारा संबंध: सरल ज्ञान और अनुभव: लघु गीता

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शुक्रवार, 8 अगस्त 2025

लघु गीता अध्याय 3

                                     लघु गीता 

                        अध्याय 3

कर्मों को प्रारंभ न करने से कोई निष्काम नहीं हो सकता और कर्म त्याग से न कोई संन्यासी हैं और न कोई सिद्धि प्राप्त कर सकता है।

प्रकृति के गुण सब मनुष्यों को कुछ न कुछ कर्म करवातें है।इसलिए मन ,बुद्धि व कर्म इंद्रियों को वश में करके अपने नियमित काम को करते रहना ही करम यज्ञ है। व फल की इच्छा ना करना ही संन्यास है और इसी तरह वश में करके प्रभु चिंतन करना चाहिए और यदि मन, बुद्धि, और ज्ञान इंद्रियां चिंतन करते समय वश में ना हो और विषयों का चिंतन करता है, वह पापी, मिथ्याचारी कहलाता है।

           सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्मा जी ने यज्ञ सहित उत्पन्न करके कहा कि यज्ञ से ही बुद्धि,सुख और कल्याण को प्राप्त होंगे। जो स्वयं सामग्री भोग से पहले, इस का भाग, दान आदि नहीं करता है। वह पापी और देवताओं का चोर है।

       राजा जनक आदि ने भी फल की इच्छा को छोड़ कर कर्म किया और मोक्ष प्राप्त किया। श्रेष्ठ मनुष्य जिस कर्म को करते है दूसरे लोग भी उसे प्रमाणिक मान कर उसे करते है और उत्तम मानते है। कृष्ण जी कहते है कि मुझे सब वस्तुएं प्राप्त हैं और फिर भी मैं कर्म करता रहता हूं अन्यथा आलस में आकर मैं कर्म न करूं तो अन्य लोग भी काम नहीं करेंगे और वे नष्ट हो जाएंगे और इससे वर्णशंकर उत्पत्ति हो जाएगी ,जो अपने पूर्वजों को नष्ट भी करेंगे और नर्क में भेजेंगे। अज्ञानी लोगों को प्रेम पूर्वक कर्म करवातें हुए धीरे धीरे ज्ञान उत्पन्न करने की चेष्टा करें।सब कर्म प्रकृति के गुणों को समझ करके होते है –परंतु कुछ मूर्ख लोग स्वयं को ही कर्ता समझ कर अभियान को प्राप्त होते हैं। परंतु जो गुण व कर्म के रहस्य को समझता है कि यह प्रकृति का ही खेल है वह ज्ञानी हैं। मनुष्य मात्र अपनी प्रकृति के अनुसार चलता है परंतु अन्य जीवों को स्वभाव अनुसार रहना पड़ता है। स्वयं विषयों को वश में करके रखना ही पुण्य है और विषय के वश में होना पाप है। रजोगुण ही मनुष्य का काम क्रोध उत्पन्न करता है और गलत कार्य की भावना की ओर ले जाता हैं। यह शत्रु है और कभी तृप्त नहीं होता और ज्ञान विज्ञान को नाश करता है मन व बुद्धि इसके आश्रय स्थल है– इसलिए इस काम को सर्वप्रथम इस दुर्धर शत्रु को जितना आवश्यक है।

😊🙏

रविवार, 3 अगस्त 2025

लघु गीता: श्रीमद्भगवद्गीता का संक्षिप्त और सारगर्भित ज्ञान"

                       लघु गीता: श्रीमद्भगवद्गीता का संक्षिप्त और सारगर्भित ज्ञान"


लघु गीता – भगवद गीता का सार हिंदी में | Geeta Saar in Hindi

श्रीमद्भगवद्गीता का सार संक्षेप में पढ़ें। लघु गीता के माध्यम से जानिए जीवन, कर्म, भक्ति और आत्मा का शाश्वत ज्ञान, सरल और सुंदर भाषा में।

लघु गीता – जीवन का सार, श्रीकृष्ण के श्रीमुख से


श्रीमद्भगवद्गीता केवल एक धार्मिक ग्रंथ नहीं है, यह जीवन का मार्गदर्शक है। इसमें अर्जुन और श्रीकृष्ण के संवाद के माध्यम से जीवन, धर्म, आत्मा और कर्म का ऐसा ज्ञान दिया गया है, जो आज भी उतना ही प्रासंगिक है।


🌿 क्यों पढ़ें 'लघु गीता'?

समय की कमी या सरलता की चाह रखने वालों के लिए लघु गीता में भगवद्गीता का सार संक्षेप में दिया जाता है, जिससे हम जीवन के मूल तत्वों को आसानी से समझ सकें।

लघु गीता (सरल रूप)

अध्याय 1
हे भगवान जो अर्जुन को ज्ञान दिया वह ज्ञान मुझे भी मिले, मैं आपकी शरण में आया हूं।जब कौरव व पांडव युद्ध करने के लिए कुरुक्षेत्र गए तब धृतराष्ट्र ने हस्तिनापुर में ही युद्ध देखने का संजय से आग्रह किया। तब श्री वेदव्यास जी की कृपा से संजय को दिव्या दृष्टि मिली, व दिव्या बुद्धि प्रदान हुई और उसी से वह युद्ध में एकत्र सेना का वृतांत सुनाने लगे। कृष्ण जी अर्जुन के साथ रथ पर युद्ध में आए और प्रतिद्वंद्वी दल में सभी सगे संबंधियों को पाया और कृष्णा जी से कहा कि स्वजनों को मार कर राज्य कमाना तो पाप है और हम कुल नाश के दोषी बनेंगे। प्राचीन धर्म नष्ट होंगे, कुल में पाप बढ़ेंगे, कुल की स्त्रियां व्यभिचार होगी, वर्णसंकर संताने होगी और वे  संताने कुल को नाश करने वाले हम पुरुषों को नर्क में पहुंचाएंगी। ऐसे कुल का नाश करके राज्य प्राप्ति करना घोर पाप है ,और इससे अत्यंत दुखी होकर अर्जुन ,भगवान श्री कृष्ण के सामने हथियार डालकर दुखी होकर बैठ गए।

अध्याय 2

जब अर्जुन ने पितामह व गुरु मोह में अपने को निर्बल पाया, कि युद्ध में अपने सगे संबंधियों पर कैसे प्रहार करू, तो कृष्ण जी ने कहा यह शरीर सब नाशवान है, परंतु आत्मा अमर है जो केवल पुराने कपड़ों की भांति चोला बदलता है और ना घटती है ना बढ़ती है, ना सूखती है न गीली होती है, ना जन्मती है न मरती है। न शस्त्र इसे काट सकत है ना आग इसे जला सकती है। इसलिए हे अर्जुन धर्म पूर्वक युद्ध करो क्योंकि ये दुष्ट है दुष्ट का साथ दे रहे हैं, और इनका नाश करना क्षत्रिय धर्म ही है और इसी में तुम्हारी बढ़ाई है। अन्यथा तुम्हारी निंदा होगी और लोग  तुम्हें  कायर कहेंगे, यश और कीर्ति खो बैठोगे ,जो जीते हुए भी मृत्यु के समान है। धर्म युद्ध करना तुम्हारा कर्म यज्ञ है। जिसमें लाभ हानि, जय पराजय, सुख-दुख को समान समझ कर परम धर्म प्राप्त करो, फल की इच्छा छोड कर कर्म करना ही ज्ञान है। निष्काम बुद्धि ही ज्ञान प्राप्त कराती है, निश्चय या स्थिर बुद्धि वही है जो प्रसन्नचित निष्काम हो दुख में दुखी न हो और सुख में डूब ना जाए। तथा प्रति, भय, क्रोध जिसके वश में  है वह महात्मा है।


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