/ "ईश्वर के साथ हमारा संबंध: सरल ज्ञान और अनुभव: अक्तूबर 2021

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रविवार, 10 अक्तूबर 2021

लक्ष्मीजी कई प्रकार की होती है,आप कौनसी लक्ष्मी की पूजा करते है?

 आठ प्रकार की हैं लक्ष्मी, आपको किस लक्ष्मी की आराधना करनी चाहिए?



आठ प्रकार के धन एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं. प्रत्येक व्यक्ति में अष्ट लक्ष्मी या आठ प्रकार के धन होते हैं, अधिक या कम मात्रा में लेकिन होते हैं. हम उनका कितना सम्मान करते हैं, उनका उपयोग करते हैं, हमारे ऊपर निर्भर है।

इन अष्ट लक्ष्मी की अनुपस्थिति को- अष्ट दरिद्रता कहा जाता है. लक्ष्मी से मिलाने वाले नारायण हैं. लक्ष्मी को प्राप्त करने के माध्मय हैं। किसी व्यक्ति के चाहे लक्ष्मी हों या न हों, पर नारायण को वह प्राप्त कर सकता है। नारायण दोनों के हैं- वे लक्ष्मी नारायण भी और दरिद्र नारायण भी!

दरिद्र नारायण को कोसा जाता है, लक्ष्मी नारायण को पूजा जाता है. पूरे जीवन का प्रवाह दरिद्र नारायण से लक्ष्मी नारायण तक यानी दुख से समृद्धि तक चलता है।

अष्ट लक्ष्मी को निम्न नामों से जाना जाता है:

आदि लक्ष्मी

धन लक्ष्मी

विद्या लक्ष्मी

धान्य लक्ष्मी

धैर्य लक्ष्मी

संतान लक्ष्मी

विजय लक्ष्मी

राज लक्ष्मी या भाग्य लक्ष्मी।

आदि लक्ष्मी 

अष्टलक्ष्मी, आदि लक्ष्मी या महालक्ष्मी का एक प्राचीन रूप हैं जो ऋषि भृगु की बेटी के रूप में भूलोक पर अवतार लेने वाली लक्ष्मी का स्वरूप हैं. आदि लक्ष्मी केवल ज्ञानियों के पास होती है. आदि लक्ष्मी देवी कभी न खत्म होने वाली प्रकृति का प्रतीक हैं जिसकी न कोई शुरुआत है और न ही कोई अंत. वह निरंतर है. इसलिए धन का प्रवाह भी निरंतर होना चाहिए. यह भी हमेशा रहा है और हमेशा रहेगा

श्री नारायण की सेवा करने वाली आदि लक्ष्मी या राम लक्ष्मी पूरी सृष्टि की सेवा करने का प्रतीक हैं. आदि लक्ष्मी और नारायण अलग-अलग नहीं हैं, बल्कि एक ही हैं. लक्ष्मी शक्ति हैं और नारायण की शक्ति हैं. नारायण की साथ ये पृथ्वी लोक के धर्म परायण जीवों के लिए लक्ष्मी नारायण हैं. आदि लक्ष्मी चार भुजाओं वाली हैं, कमल और श्वेत ध्वज धारण करती हैं, अन्य दो हाथ अभय मुद्रा और वरद. मुद्रा में हैं. जिस व्यक्ति को स्रोत का ज्ञान हो जाता है, वह सभी भय से मुक्त हो जाता है और संतोष और आनंद प्राप्त करता है. वह आदि लक्ष्मी की कृपा प्राप्त करता है. और जिनके पास आदिलक्ष्मी हुई समझ लो उनको भी ज्ञान हो गया।

धन लक्ष्मी 

धन लक्ष्मी धन और स्वर्ण की देवी हैं. इन्हें वैभव लक्ष्मी के नाम से भी जाना जाता है. धन लक्ष्मी लाल वस्त्रों में सजी अपनी भुजाओं में चक्र, शंख, अमृत कलश, धनुष-बाण, अभय मुद्रा और एक कमल से युक्त हैं।

सूर्य और चंद्रमा, अग्नि और तारे, बारिश और प्रकृति, महासागर और पहाड़, नदी और नाले, ये सभी हमारे धन हैं. इसलिए संतान, हमारी आंतरिक इच्छा शक्ति, हमारा चरित्र और हमारे गुण हैं. मां धन लक्ष्मी की कृपा से हमें ये सभी प्रचुर मात्रा में मिलते हैं।

विद्या लक्ष्मी 

यदि आप लक्ष्मी और सरस्वती के चित्र देखते हैं तो आप देखेंगे कि लक्ष्मी को ज्यादातर कमल में पानी के उपर रखा है. पानी अस्थिर है यानी लक्ष्मी भी पानी की तरह चंचल है. विद्या की देवी सरस्वती को एक पत्थर पर स्थिर स्थान पर रखा है. विद्या जब आती है तो जीवन में स्थिरता आती है. विद्या का भी हम दुरुपयोग कर सकते हैं और सिर्फ पढ़ना ही किसीका लक्ष्य हो जाए तब भी वह विद्या लक्ष्मी नहीं बनती. पढ़ना है, फिर जो पढ़ा है उसका उपयोग करना है तब वह विद्या लक्ष्मी है।

धान्य लक्ष्मी  

धान्य लक्ष्मी कृषि धन प्रदान करने वाली हैं. “धान्य” का अर्थ है अनाज. भोजन हमारा सबसे बुनियादी और सबसे महत्वपूर्ण धन है. हमें जीवन को बनाए रखने के लिए भोजन की आवश्यकता है. धनवान होने का मतलब है कि हमारे पास प्रचुर मात्रा में भोजन है जो हमें पोषित और स्वस्थ रखता है. वह फसल की देवी हैं जो फसल में बहुतायत और सफलता के साथ आशीर्वाद देती हैं. कहा जाता है कि हम वही बनते हैं जो हम खाते हैं. सही मात्रा और सही प्रकार का भोजन, सही समय और स्थान पर खाया हमारे शरीर और दिमाग को सकारात्मक रूप से प्रभावित करता है. माँ धान्य लक्ष्मी की कृपा से व्यक्ति को सभी आवश्यक पोषक तत्व अनाज, फल, सब्जियाँ और अन्य खाद्य पदार्थ मिलते हैं।


देवी धान्य लक्ष्मी हरे वस्त्र में सुशोभित, दो कमल, गदा, धान की फसल, गन्ना, केला, अन्य दो हाथ में अभय मुद्रा और वरमुद्रा धारण करती हैं।

धैर्य लक्ष्मी 

अष्ट लक्ष्मी की स्वरूप धैर्य लक्ष्मी हमें अपने धन के प्रबंध, उसके उपयोग की रणनीति, योजना बनाने की शक्ति देती है. यह धन हमें समान आसानी के साथ अच्छे और बुरे समय का सामना करने की आध्यात्मिक शक्ति देता है. यह हमारे सभी कार्यों में योजना और रणनीति के महत्व को दर्शाता है ताकि हम सावधानी से आगे बढ़ सकें और हर बार अपने लक्ष्य तक पहुंच सकें. माँ लक्ष्मी का यह रूप असीम साहस और शक्ति का वरदान देता है. वे, जो अनंत आंतरिक शक्ति के साथ हैं, उनकी हमेशा जीत होती है. जो लोग माँ धैर्य लक्ष्मी की पूजा करते हैं, वे बहुत धैर्य और आंतरिक स्थिरता के साथ जीवन जीते हैं।

धैर्य लक्ष्मी होने से ही जीवन में प्रगति हो सकती है नहीं तो नहीं हो सकती. जिस मात्रा में धैर्य लक्ष्मी होती है उस मात्रा में प्रगति होती है. चाहे बिजनेस में हो चाहे नौकरी में हो, धैर्य लक्ष्मी की आवश्यकता होती ही है।

संतान लक्ष्मी

संतान के रूप में जो लक्ष्मी मनुष्य को प्राप्त है वह संतान लक्ष्मी है. ऐसे बच्चे जो प्यार की पूंजी हों, प्यार का संबंध हों, भाव हों, तब वो संतान लक्ष्मी हुई. जिस संतान से तनाव कम होता है या नहीं होता है वह संतान लक्ष्मी है. जिस संतान से सुख, समृद्धि, शांति होती है वह है संतान लक्ष्मी. और जिस संतान से झगड़ा, तनाव, परेशानी, दुःख, दर्द, पीड़ा हुआ वह संतान संतान लक्ष्मी नहीं होती. देवी संतान लक्ष्मी छः-सशस्त्र हैं, दो कलशों, तलवार, ढाल, उनकी गोद में एक बच्चा, अभय मुद्रा में एक हाथ और दूसरा बच्चा पकड़े हुए हैं. बच्चा कमल धारण किये हुए है।

विजय लक्ष्मी 

विजय लक्ष्मी या जय लक्ष्मी सफलता के रास्ते में आने वाली बाधाओं को दूर करके विजय का मार्ग खोलती हैं. कुछ लोगों के पास सब साधन, सुविधाएं होती है फिर भी किसी भी काम में उनको सफलता नहीं मिलती. सब-कुछ होने के बाद भी किसी भी काम में वो हाथ लगाये वो चौपट हो जाता है, काम होगा ही नहीं, ये विजय लक्ष्मी की कमी है. यह देवी साहस, आत्मविश्वास, निडरता और जीत के धन का प्रतीक है। यह धन हमारे चरित्र को मजबूत करता है और हमें अपने जीवन पथ पर सफलतापूर्वक आगे बढ़ाता है।

राज लक्ष्मी 

पौराणिक कथाओं के अनुसार, इंद्र ने जब दुर्वासा के शाप से सारा राजपाट गंवा दिया. भाग्य विमुख हो गया तो राजलक्ष्मी की आराधना से उन्हें सबकुछ वापस मिला. राज लक्ष्मी कहे चाहे भाग्य लक्ष्मी कहे दोनों एक ही हैं. देवी राज लक्ष्मी चार भुजाओं वाली, लाल वस्त्रों में, दो कमल धारण करती हैं, अभय मुद्रा और वरदा मुद्रा में अन्य दो भुजाओं से घिरी हुई हैं, दो हाथी जल के कलश लिए हुए होते हैं।

सभी अष्ट लक्ष्मी से युक्त होना ही संसार में सुख का रास्ता खोलता है. अष्ट लक्ष्मी में से किसी न किसी स्वरूप का हमारे अंदर प्रवेश अधिक होता है, किसी का कम. उसी के अनुसार होता है हमारा जीवन।

अष्ट लक्ष्मी की कृपा हम सब पर बनी रहे.

शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2021

महाभारत के श्री कृष्ण, पांडव, कौरव सब हमारे अंदर ही हैं

            क्या आप महाभारत का अर्थ जानते हैं? महाभारत में पांच पांडव कौरव श्री कृष्ण सब हमारे अंदर ही हैं।


शास्त्र कहते हैं कि अठारह दिनों के महाभारत युद्ध में उस समय की पुरुष जनसंख्या का 80% सफाया हो गया था। युद्ध के अंत में, संजय कुरुक्षेत्र के उस स्थान पर गए जहां संसार का सबसे महानतम युद्ध हुआ था।

उसने इधर-उधर देखा और सोचने लगा कि क्या वास्तव में यहीं युद्ध हुआ था? यदि यहां युद्ध हुआ था तो जहां वो खड़ा है, वहां की जमीन रक्त से सराबोर होनी चाहिए। क्या वो आज उसी जगह पर खड़ा है जहां महान पांडव और कृष्ण खड़े थे?

तभी एक वृद्ध व्यक्ति ने वहां आकर धीमे और शांत स्वर में कहा, "आप उस बारे में सच्चाई कभी नहीं जान पाएंगे!"

संजय ने धूल के बड़े से गुबार के बीच दिखाई देने वाले भगवा वस्त्रधारी एक वृद्ध व्यक्ति को देखने के लिए उस ओर सिर को घुमाया।

"मुझे पता है कि आप कुरुक्षेत्र युद्ध के बारे में पता लगाने के लिए यहां हैं, लेकिन आप उस युद्ध के बारे में तब तक नहीं जान सकते, जब तक आप ये नहीं जान लेते हैं कि असली युद्ध है क्या?" बूढ़े आदमी ने रहस्यमय ढंग से कहा।

"तुम महाभारत का क्या अर्थ जानते हो?" तब संजय ने उस रहस्यमय व्यक्ति से पूछा।

वह कहने लगा, "महाभारत एक महाकाव्य है, एक गाथा है, एक वास्तविकता भी है, लेकिन निश्चित रूप से एक दर्शन भी है।"

वृद्ध व्यक्ति संजय को और अधिक सवालों के चक्कर में फसा कर मुस्कुरा रहा था।"क्या आप मुझे बता सकते हैं कि दर्शन क्या है?" संजय ने निवेदन किया।

अवश्य जानता हूं, बूढ़े आदमी ने कहना शुरू किया। पांडव कुछ और नहीं, बल्कि आपकी पाँच इंद्रियाँ हैं - दृष्टि, गंध, स्वाद, स्पर्श और श्रवण - और क्या आप जानते हैं कि कौरव क्या हैं? उसने अपनी आँखें संकीर्ण करते हुए पूछा।

कौरव ऐसे सौ तरह के विकार हैं, जो आपकी इंद्रियों पर प्रतिदिन हमला करते हैं लेकिन आप उनसे लड़ सकते हैं और जीत भी सकते है।पर क्या आप जानते हैं कैसे?

संजय ने फिर से न में सर हिला दिया।

"जब कृष्ण आपके रथ की सवारी करते हैं!" यह कह वह वृद्ध व्यक्ति बड़े प्यार से मुस्कुराया और संजय अंतर्दृष्टि खुलने पर जो नवीन रत्न प्राप्त हुआ उस पर विचार करने लगा..

"कृष्ण आपकी आंतरिक आवाज, आपकी आत्मा, आपका मार्गदर्शक प्रकाश हैं और यदि आप अपने जीवन को उनके हाथों में सौप देते हैं तो आपको फिर चिंता करने की कोई आवश्कता नहीं है।" वृद्ध आदमी ने कहा।

संजय अब तक लगभग चेतन अवस्था में पहुंच गया था, लेकिन जल्दी से एक और सवाल लेकर आया।

फिर कौरवों के लिए द्रोणाचार्य और भीष्म क्यों लड़ रहे हैं?

भीष्म हमारे अहंकार का प्रतीक हैं, अश्वत्थामा हमारी वासनाएं, इच्छाएं हैं, जो कि जल्दी नहीं मरतीं। दुर्योधन हमारी सांसारिक वासनाओं, इच्छाओं का प्रतीक है। द्रोणाचार्य हमारे संस्कार हैं। जयद्रथ हमारे शरीर के प्रति राग का प्रतीक है कि 'मैं ये देह हूं' का भाव। द्रुपद वैराग्य का प्रतीक हैं। अर्जुन मेरी आत्मा हैं, मैं ही अर्जुन हूं और  स्वनियंत्रित भी हूं। कृष्ण हमारे परमात्मा हैं। पांच पांडव पांच नीचे वाले चक्र भी हैं, मूलाधार से विशुद्ध चक्र तक। द्रोपदी कुंडलिनी शक्ति है, वह जागृत शक्ति है, जिसके ५ पति ५ चक्र हैं। ओम शब्द ही कृष्ण का पांचजन्य शंखनाद है, जो मुझ और आप आत्मा को ढ़ाढ़स बंधाता है कि चिंता मत कर मैं तेरे साथ हूं, अपनी बुराइयों पर विजय पा, अपने निम्न विचारों, निम्न इच्छाओं, सांसारिक इच्छाओं, अपने आंतरिक शत्रुओं यानि कौरवों से लड़ाई कर अर्थात अपनी मेटेरियलिस्टिक वासनाओं को त्याग कर और चैतन्य  पाठ पर आरूढ़ हो जा, विकार रूपी कौरव अधर्मी एवं दुष्ट प्रकृति के हैं।

श्री कृष्ण का साथ होते ही ७२००० नाड़ियों में भगवान की चैतन्य शक्ति भर जाती है, और हमें पता चल जाता है कि मैं चैतन्यता, आत्मा, जागृति हूं, मैं अन्न से बना शरीर नहीं हूं, इसलिए उठो जागो और अपने आपको, अपनी आत्मा को, अपने स्वयं सच को जानो, भगवान को पाओ, यही भगवद प्राप्ति या आत्म साक्षात्कार है, यही इस मानव जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य है।

ये शरीर ही धर्म क्षेत्र, कुरुक्षेत्र है। धृतराष्ट्र अज्ञान से अंधा हुआ मन है। अर्जुन आप हो, संजय आपके आध्यात्मिक गुरु हैं।

वृद्ध आदमी ने दुःखी भाव के साथ सिर हिलाया और कहा, "जैसे-जैसे आप बड़े होते हैं, अपने बड़ों के प्रति आपकी धारणा बदल जाती है। जिन बुजुर्गों के बारे में आपने सोचा था कि आपके बढ़ते वर्षों में वे संपूर्ण थे, अब आपको लगता है वे सभी परिपूर्ण नहीं हैं। उनमें दोष हैं। और एक दिन आपको यह तय करना होगा कि उनका व्यवहार आपके लिए अच्छा या बुरा है। तब आपको यह भी अहसास हो सकता है कि आपको अपनी भलाई के लिए उनका विरोध करना या लड़ना भी पड़ सकता है। यह बड़ा होने का सबसे कठिन हिस्सा है और यही वजह है कि गीता महत्वपूर्ण है।"

संजय धरती पर बैठ गया, इसलिए नहीं कि वह थका हुआ था, तक गया था, बल्कि इसलिए कि वह जो समझ लेकर यहां आया था, वो एक-एक कर धराशाई हो रही थी। लेकिन फिर भी उसने लगभग फुसफुसाते हुए एक और प्रश्न पूछा, तब कर्ण के बारे में आपका क्या कहना है?

"आह!" वृद्ध ने कहा। आपने अंत के लिए सबसे अच्छा प्रश्न बचाकर रखा हुआ है।

"कर्ण आपकी इंद्रियों का भाई है। वह इच्छा है। वह सांसारिक सुख के प्रति आपके राग का प्रतीक है। वह आप का ही एक हिस्सा है, लेकिन वह अपने प्रति अन्याय महसूस करता है और आपके विरोधी विकारों के साथ खड़ा दिखता है। और हर समय विकारों के विचारों के साथ खड़े रहने के कोई न कोई कारण और बहाना बनाता रहता है।"

"क्या आपकी इच्छा; आपको विकारों के वशीभूत होकर उनमें बह जाने या अपनाने के लिए प्रेरित नहीं करती रहती है?" वृद्ध ने संजय से पूछा।

संजय ने स्वीकारोक्ति में सिर हिलाया और भूमि की तरफ सिर करके सारी विचार श्रंखलाओं को क्रमबद्ध कर मस्तिष्क में बैठाने का प्रयास करने लगा। और जब उसने अपने सिर को ऊपर उठाया, वह वृद्ध व्यक्ति धूल के गुबारों के मध्य कहीं विलीन हो चुका था। लेकिन जाने से पहले वह जीवन की वो दिशा एवं दर्शन दे गया था, जिसे आत्मसात करने के अतिरिक्त संजय के सामने अब कोई अन्य मार्ग नहीं बचा था।

।।ओम नमो भगवते वासुदेवाय।।

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