/ "ईश्वर के साथ हमारा संबंध: सरल ज्ञान और अनुभव: 2016

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शनिवार, 26 नवंबर 2016

प्रभु का स्वभाव कैसा होता है?

                                                                                                             प्रभु का स्वभाव




भगवान श्री राम का कथन हैं कि कोई भी मुझसे मित्रता के लिए हाथ बढ़ाये तो मैं इंकार नहीं कर सकता हूँ , फिर चाहे  उसमे दोष ही क्यों न हो। मैं जब जीवों को अपनाता हूँ , जीव जब पूर्ण रूप से आत्मसमर्पण कर  देता हैं तब वह निर्दोष हो जाता हैं। शरणागत को प्रभु के सन्मुख रहना चाहिए। हर समय प्रभु के श्री  मुख को भक्त देखा करता हैं और प्रभु भक्त को देखते रहते हैं। इस प्रकार के भक्त को सन्मुख कहते हैं। सन्मुख भक्त के सभी पाप -ताप नष्ट हो जाते हैं। विमुख प्राणी ईश्वर से पीठ करके रहता हैं , तो प्रभु भी उससे पीठ कर लेते हैं।
                भक्तो के साथ भगवान छाया की तरह घूमते हैं। हम लोग भगवान की इच्छा शक्ति के आधीन रहकर के कार्य कर रहे हैं। जँहा -जँहा का अन्न जल भाग्य में  हैं , वँहा -वँहा जाना होगा। महत्वपूर्ण और प्रसन्नता की बात यह हैं कि सत्संग मिलता रहे।  इसी में हमे सब कुछ की प्राप्ति हैं। भक्त हृदय में प्रभु शुभ प्रेरणा करते हैं। दुष्ट जन चोरी आदि करके यदि यह कहे कि उसने ईश्वर की प्रेरणा से पाप किया वो दण्ड का भागी नहीं हैं। ऐसा कहने से राजा उसे दंड से मुक्त नहीं करेगा। पापियों के हृदय में पाप करने की प्रेरणा पाप ही करवाता हैं। पुण्यवानों के ह्रदय में पूण्य करने की प्रेरणा होती हैं। अपने मन को हम जब प्रभु से मिलाकर  रखेंगे तो भगवान प्रेरणा करेंगे , और मंगल ही मंगल होगा।
                                                                       
।। श्री राधे।।

शुक्रवार, 25 नवंबर 2016

वेद शास्त्रों की विस्तृत जानकारियाँ








वेद शास्त्रो की विस्त्तृत जानकारी      

                                    


प्र.1- वेद किसे कहते है ?
उत्तर- ईश्वरीय ज्ञान की पुस्तक को वेद कहते है।

प्र.2- वेद-ज्ञान किसने दिया ?
उत्तर- ईश्वर ने दिया।

प्र.3- ईश्वर ने वेद-ज्ञान कब दिया ?
उत्तर- ईश्वर ने सृष्टि के आरंभ में वेद-ज्ञान दिया।

प्र.4- ईश्वर ने वेद ज्ञान क्यों दिया ?
उत्तर- मनुष्य-मात्र के कल्याण के लिए।

प्र.5- वेद कितने है ?

उत्तर- चार प्रकार के ।

1-ऋग्वेद
2 - यजुर्वेद
3- सामवेद
4 - अथर्ववेद

प्र.6- वेदों के ब्राह्मण ।

वेद ब्राह्मण

1 - ऋग्वेद - ऐतरेय
2 - यजुर्वेद - शतपथ
3 - सामवेद - तांड्य
4 - अथर्ववेद - गोपथ

प्र.7- वेदों के उपवेद कितने है।

उत्तर - वेदों के चार उप वेद है ।

वेद उपवेद

1- ऋग्वेद - आयुर्वेद
2- यजुर्वेद - धनुर्वेद
3 -सामवेद - गंधर्ववेद
4- अथर्ववेद - अर्थवेद

प्र 8- वेदों के अंग हैं कितने होते है ।

उत्तर - वेदों के छः अंग होते है ।

1 - शिक्षा
2 - कल्प
3 - निरूक्त
4 - व्याकरण
5 - छंद
6 - ज्योतिष

प्र.9- वेदों का ज्ञान ईश्वर ने किन किन ऋषियो को दिया ?

उत्तर- वेदों का ज्ञान चार ऋषियों को दिया ।

वेद ऋषि

1- ऋग्वेद - अग्नि
2 - यजुर्वेद - वायु
3 - सामवेद - आदित्य
4 - अथर्ववेद - अंगिरा

प्र.10- वेदों का ज्ञान ईश्वर ने ऋषियों को कैसे दिया ?

उत्तर- वेदों का ज्ञान ऋषियों को समाधि की अवस्था में दिया ।

प्र.11- वेदों में कैसे ज्ञान है ?

उत्तर- वेदों मै सब सत्य विद्याओं का ज्ञान-विज्ञान है ।

प्र.12- वेदो के विषय कौन-कौन से हैं ?

उत्तर- वेदों के चार विषय है।

ऋषि विषय

1- ऋग्वेद - ज्ञान
2- यजुर्वेद - कर्म
3- सामवेद - उपासना
4- अथर्ववेद - विज्ञान

प्र.13- किस वेद में क्या है।

ऋग्वेद में।

1- मंडल - 10
2 - अष्टक - 08
3 - सूक्त - 1028
4 - अनुवाक - 85
5 - ऋचाएं - 10589

यजुर्वेद में।

1- अध्याय - 40
2- मंत्र - 1975

सामवेद में।

1- आरचिक - 06
2 - अध्याय - 06
3- ऋचाएं - 1875

अथर्ववेद में।

1- कांड - 20
2- सूक्त - 731
3 - मंत्र - 5977

प्र.14- वेद पढ़ने का अधिकार किसको है ?

उत्तर- मनुष्य-मात्र को वेद पढ़ने का अधिकार है।

प्र.15- क्या वेदों में मूर्तिपूजा का विधान है ?

उत्तर- वेदों में मूर्ति पूजा का विधान बिलकुल भी नहीं।

प्र.16- क्या वेदों में अवतारवाद का प्रमाण है ?

उत्तर- वेदों मै अवतारवाद का प्रमाण नहीं है।

प्र.17- सबसे बड़ा वेद कौन-सा है ?

उत्तर- सबसे बड़ा वेद ऋग्वेद है।

प्र.18- वेदों की उत्पत्ति कब हुई ?

उत्तर- वेदो की उत्पत्ति सृष्टि के आदि से परमात्मा द्वारा हुई । अर्थात 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख 43 हजार वर्ष पूर्व ।

प्र.19- वेद-ज्ञान के सहायक दर्शन-शास्त्र ( उपअंग ) कितने हैं और उनके लेखकों का क्या नाम है ?

उत्तर-

1- न्याय दर्शन - गौतम मुनि।
2- वैशेषिक दर्शन - कणाद मुनि।
3- योगदर्शन - पतंजलि मुनि।
4- मीमांसा दर्शन - जैमिनी मुनि।
5- सांख्य दर्शन - कपिल मुनि।
6- वेदांत दर्शन - व्यास मुनि।

प्र.20- शास्त्रों के विषय क्या है ?

उत्तर- आत्मा, परमात्मा, प्रकृति, जगत की उत्पत्ति, मुक्ति अर्थात सब प्रकार का भौतिक व आध्यात्मिक ज्ञान-विज्ञान आदि।

प्र.21- प्रामाणिक उपनिषदे कितनी है ?

उत्तर- प्रामाणिक उपनिषदे केवल ग्यारह है।

प्र.22- उपनिषदों के नाम बतावे ?

उत्तर-

1-ईश ( ईशावास्य ) 2- केन 3-कठ 4-प्रश्न 5-मुंडक 6-मांडू 7-ऐतरेय 8-तैत्तिरीय 9- छांदोग्य
10-वृहदारण्यक 11- श्वेताश्वतर ।

प्र.23- उपनिषदों के विषय कहाँ से लिए गए है ?

उत्तर- उपनिषदों के विषय वेदों से लिए गए है !

प्र.24- चार वर्ण कोन कोन से होते हैं।

उत्तर-

1- ब्राह्मण
2- क्षत्रिय
3- वैश्य
4- शूद्र

प्र.25- चार युग कोन -कोन से होते है और कितने वर्षों के ।

उत्तर-

1- सतयुग - 17,28000 वर्षों का नाम ( सतयुग ) रखा है।
2- त्रेतायुग- 12,96000 वर्षों का नाम ( त्रेतायुग ) रखा है।
3- द्वापरयुग- 8,64000 वर्षों का नाम है।
4- कलयुग- 4,32000 वर्षों का नाम है।

कलयुग के 4,976 वर्षों का भोग हो चुका है अभी तक।

4,27024 वर्षों का भोग होना बाकी है।

प्र. पंच महायज्ञ कोन -कोन से होते है !

उत्तर-

1- ब्रह्मयज्ञ
2- देवयज्ञ
3- पितृयज्ञ
4- बलिवैश्वदेवयज्ञ
5- अतिथियज्ञ

स्वर्ग - जहाँ सुख है।
नरक - जहाँ दुःख है।


मंगलवार, 22 नवंबर 2016

भजन- गोवर्धन वासी सांवरे तुम बिन रहा न जाए-------


श्री कृष्ण प्रेमियों के लिए बहुत ही काम की बात:-)
तुम्हारे इस पद का कम से कम एक वर्ष तक भाव से नित्य पाठ व गायन करने वाले को मेरे दर्शन अवश्य होंगे ही :- हमारे प्यारे श्री कृष्ण का अष्ट छाप के कवियों मे चर्तुभुज दास जी को ये वचन दिया है ऐसा नाभा जी ने इनकी जीवनी मे लिखा है क्यों न लाभ लिया जाय !   "जय श्री राधे"

गोवर्धनवासी सांवरे तुम बिन रह्यो न जाये ।
— हे गोवर्धनवासी श्री कृष्ण, अब मैं आपके बिना नही रह सकता

बंकचिते मुसकाय के सुंदर वदन दिखाय ।
लोचन तलफें मीन ज्यों पलछिन कल्प विहाय ॥१॥

— आपकी इस सुन्दर छवि ने मेरा मन मोह लिया है औ र आपकी मुस्कान में मेरा चित्त अटक गया है । जैसे मछली बिना पानी के तडपती है वैसे ही मेरी आँखौ को आपसे बिछडने की तडपन हो रही है र मेरा एक एक पल कल्प के समान बीत रहा है ।

सप्तक स्वर बंधान सों मोहन वेणु बजाय ।
सुरत सुहाई बांधि के मधुरे मधुर गाय ॥२॥

— हे मोहन आपकी वंशी की धुन सेकडौ संगीत स्वरौ से अोतप्रोत मधुर गीत गा रही है।

रसिक रसीली बोलनी गिरि चढ गाय बुलाय ।
गाय बुलाई धूमरी ऊंची टेर सुनाय ॥३॥

— आप जब पर्वत पर चढकर गायौं को बुलाते हो,औ र उस धूमल गाय को ऊचे स्वर से बुलाते हो, वह छवि मेरे हृदय में बस गयी है ।

दृष्टि परी जा दिवस तें तबतें रुचे नही आन ।
रजनी नींद न आवही विसर्यो भोजन पान ॥४।।

— औ र जिस दिन से मैंने आपकी इन छवियौं का दर्शन किया है, मुझे किसी भी अन्य वस्तु में रुचि नही रही औ र नाही मुझे रात को नीद आती है, यहाँ तक कि मैं खाना पीना भी भूल गया हूँ ।

दरसन को नयना तपे वचनन को सुन कान ।
मिलवे को हियरा तपे जिय के जीवन प्रान ॥५॥

— हे साँवरे, मेरे जीवनप्राण, तेरे नित्य दर्शन के लिये मेरे नयन, तेरी बोली के लिये मेरे कान एंव तुझसे मिलने के लिये मेरा हृदय तडपता रहता है ।

मन अभिलाखा यह रहे लगें ना नयन निमेष ।
इक टक देखौ आवतो नटवर नागर भेष ॥६॥

— अब मेरे मन की यही अभिलाषा है कि मेरे नयन एक क्षण के लिये भी बन्द न हौं औ र तुम्हारे नटवर नागर रूप का ही एकटक दर्शन करते रहैं ।

पूरण शशि मुख देिख के चित चोट्यो वाहि ओर ।
रूप सुधारस पान को जैसे चन्द चकोर ॥७॥

— जैसे चकोर पक्षी पूर्णमासी के चन्द्रमा को एकचित होकर देखता रहता है वैसे ही आपके दिव्य स्वरूप का अम्रतमयी पान करने को मेरा चित्त व्याकुल रहता है ।

लोक लाज कुळ वेद की छांड्यो सकल विवेक ।
कमल कली रवि ज्यों बढे छिन छिन प्रीति विशेष ॥८॥

— मैं समाज, परिवार अौर शास्त्र की लाज नही कर पा रहा हूँ अौर मेरा पूरा विवेक नष्ट ही हो गया है । हर क्षण मेरी व्याकुलता अापके प्रति विषेश प्रेम को एसे ही बढा रही है जैसे कि सूर्य के उगते ही कमल की कलियाँ बढने लगती हैं ।

मन्मथ कोटिक वारने निरखत डगमगी चाल ।
युवति जन मन फंदना अंबुज नयन विशाल ॥९॥

— जैसे युवतिया अपने विशाल नैनौ से साधारण जन के मन को फँसा देती हैं वैसे ही आपकी डगमगाती चाल को देखकर मेरा मन बंध गया है औ र इस चाल पर मैं करोडौं मन्मथ (कामदेव) न्यौछावर कर दू ।

कुंज भवन क्रीडा करो सुखनिधि मदन गोपाल ।
हम श्री वृंदावन मालती तुम भोगी भ्रमर भुवाल ॥११॥

— हे सुखौं के भण्डार, मदन गोपाल, आ प कुन्ज भवन में वैसी ही क्रीडा करो जैसे वृन्दावन की पुष्प लताऔ  पर हर पुष्प का भोग करते हैं ।

यह रट लागी लाडिले जैसे चातक मोर ।
प्रेमनीर वरखा करो नव घन नंद किशोर ॥१०॥

— जैसे चातक अौर मोर वर्षा के लिये व्याकुल होकर रट लगाते रहते हैं वैसे ही लाडले मुझे ये रट लग गयी है तो हे नंद किशोर आप नये नये रूप में प्रेम रूपी जल की वर्षा करो ।

युग युग अविचल राखिये यह सुख शैल निवास ।
गोवर्धनधर रूप पर बलिहारी चतुर्भुज दास ॥१२॥

— हे गोवर्धन नाथ, अगर मुझे युगौं युगौं तक भी पृथ्वी पर जन्म मिले तो गोवर्धन पर्वत ही मेरा निवास हो क्यौंकि आपके गोवर्धनधारी रूप पर चतुर्भुजदास हमेशा बलिहारी है ।🙏🙏🌹🙏🙏👣🌿


बुधवार, 26 अक्तूबर 2016

पवित्र जीवन जीने के साधन कौन-कौन से हैं


                                                                                                        पवित्र जीवन का जीने की कला



विचारो की पवित्रता -
                              मालिक तेरी रजा रहे और तू ही तू रहे
                               बाकी न मैं रहूँ न मेरी आरजू रहे।
                        जब तक कि तन में जान रंगों में लहू रहे ,
                        तेरा  ही जिक्र हो और तेरी जुस्तजू रहे।।

हमारा कर्तव्य है कि हम प्रत्येक कार्य को प्रभु की  इच्छा समझ कर करें। इस प्रकार की भावना करते करते हम देखेंगे कि हमारा  सारा जीवन प्रभुसेवा मय हो रहा हैं।इस भावना से हमारे सारे कार्य पवित्र होते जायेंगे। उस आनन्द का तो कहना  क्या ? मालिक की मर्जी  को अपनी मर्जी बना लेने वाला सत्पुरुष कहलाता हैं। कितना सूंदर  होगा वो समय जब हमारी विचार धारा  ऐसी हो जाएगी।
       पशु किसी कार्य के परिणाम को नहीं जानता , मनुष्य जान लेता हैं। जो मनुष्य शुभ परिणाम वाले कार्य करता हैं वह सत्पुरुष कहलाता हैं और विपरीत  कार्य करने वाले को असत -पुरुष कहते हैं । भले और बुरे में यही फर्क हैं। दो व्यक्ति प्रार्थना करते हैं। एक को शांति प्राप्त होती  हैं , दूसरे को नहीं। कारण हैं एक सच्चे दिल से प्रार्थना करता हैं जबकि दूसरा प्रार्थना तो कर रहा हैं लकिन उसका मन बाहर न जाने   कहाँ -कहाँ घूम रहा हैं। उसकी प्रार्थना में कोई दिलचस्पी नहीं हैं वह केवल दिखावा कर रहा हैं तो उसे शांति कैसे मिलेगी। नाटकों में झूठे आंसुओं से भी कभी ह्र्दय  द्रवित होता हैं ? हम जानते हैं कि वो कल्पित हैं।

 वह तो चींटी की भी आवाज सुनता हैं फिर चिल्लाने की क्या आवश्यकता हैं? तुम सच्चे हृदय से पुकारो वो जरूर सुनेगा , क्यों नहीं सुनेगा। घबराने की आवश्यकता नहीं हैं।

      पर उसके दरबार में ढोंग के लिए स्थान नहीं हैं। तुम्हारी पुकार पहुँचने की देर हैं वो दौड़ा चला आएगा। तुम उसे सच्चे हृदय से पुकारो तो सही। वो तुम्हारे पास हैं , आस पास ही हैं। 

गुरुवार, 6 अक्तूबर 2016

भगवान के नाम की क्या महिमा है भाग 2


एक व्यक्ति वृन्दावन जा रहा था दूसरे ने पैसे देकर  उससे कहा  कि मेरे लिए एक तुलसी की माला लेते आना। अभी माला आई नहीं, नाम का जप शुरू नहीं किया केवल विचार मात्र ही किया था कि इतने से ही यमराज ने कहा  चित्रगुप्त  उस माला मांगने वाले के खाते को ख़त्म कर दो। महाराज उसे तो बहुत कर्मो के फल भोगने हैं , यमराज बोले नहीं क्योंकि उसने नाम जप का संकल्प ले लिया हैं , उसपर कृपा हो गयी हैं। उस जीव के कर्म बंधन समाप्त हो गए हैं। यही हैं कलयुग में नाम का महत्व। 

दुष्ट चित्त से स्मरण किया गया भी भगवन्नाम भी पापो का नाश करता हैं। जैसे अनजाने में भी अग्नि को स्पर्श करने पर हाथ जल जाता हैं। अतः 'हरि 'यह नाम हैं। जो सभी के पाप तापो को हर लेते हैं। हरि नाम के संबोधन में हरे ऐसा रूप होता हैं जो मन को हर लेता हैं। 
हरे राम हरे राम , राम राम हरे हरे। 
हरे कृष्ण हरे कृष्ण , कृष्ण कृष्ण हरे हरे।।
मन्त्र का अर्थ हैं हरे मतलब हे राधे। कृष आकर्षण करने वाला 'ण 'आनन्ददायक। सबको आकृष्ट करके आनन्द देने वाले का नाम कृष्ण हैं। 
'रा 'का उच्चारण करने से पाप बाहर निकल जाते हैं फिर 'म 'का उच्चारण करने पर कपाट बंद हो जाते हैं फिर मुख के बंद होने पर पाप प्रवेश नहीं करते हैं। अतः हरे राम यह महामंत्र, विधि -अविधि जैसे भी जपा जाये जप करें यह कलियुग में विशेष फलप्रद हैं। 
( दादा गुरु भक्त माली जी के श्री मुख से )
वृन्दावन 

मंगलवार, 4 अक्तूबर 2016

भगवान के नाम की महिमा क्या होती है भाग एक

               परमार्थ के पत्र -पुष्प (भगवान  के नाम  महिमा )



एक सेठ अपने घर की दुकान के कार्य में इतना व्यस्त था कि उन्हें नाम लेने की फुरसत नहीं मिलती थी। जब वह toilet में जाता तो उसे फुरसत मिलती थी और वह राम राम रटते। श्री हनुमानजी को क्रोध आया कि कामों को छोड़ नहीं सकता हैं और टॉयलेटमें राम राम करता हैं। हनुमानजी ने उसकी पीठ पर एक लात मारी। रात्रि के समय श्री हनुमानजी , श्री रामजी की सेवा करने लगे तो , जब श्री राम जी की पीठ पर हाथ लगाया तो श्री रामजी करहाने लगे , पीठ में बहुत पीड़ा हैं। बहुत पूछने पर श्री रामजी ने बताया जब मेरा भक्त कीर्तन कर रहा था तो तुमने मारा  था , अगर उस मार को मैं अपने ऊपर न लेता तो तुम्हारी मार से वो बेचारा मेरा भक्त तो मर ही जाता। अतः मेने उसकी रक्षा की। उसकी मार को अपने ऊपर ले लिया। हनुमानजी ने भूल स्वीकार करके क्षमा याचना की। सेठ को राम नाम का उपासक माना , आदर किया। तात्पर्य यह हैं कि राम जप पवित्र -अपवित्र सभी अवस्था में लिया जा सकता हैं। पर दुःख इसी बात का हैं कि फिर भी हम नाम जप का आश्रय नहीं लेते हैं।


(दादा  गुरु श्री भक्तमाली जी महाराज )

सोमवार, 1 अगस्त 2016

क्या आप वृंदावन से दूर रहकर भी वृंदावन वास चाहते हैं?

                                                                                                                  वृन्दावन वास

'आशा जाकी जँह बसी तँह ताहि को वास '


मन श्री वृन्दावन में रहे। प्रारब्धवश शरीर बाहर हैं, तो यह वृन्दावन वास ही हैं और यदि शरीर वृन्दावन में हैं ,मन बाहर हैं तो यह उत्तम धाम वास नहीं कहा जायेगा। धाम से बाहर रहने से मन में प्रभु का ध्यान बना हुआ हैं तो प्रभु आपके पास ही हैं। आनन्दमय भगवदधाम में भगवान के नाम , रूप , लीला के सर्वत्र दर्शन होते हैं। अनन्य भक्त अपने घर में रहकर नाम , रूप , लीला का अनुभव करते हैं। उनका घर का निवास , धाम निवास के तुल्य हैं।
                    अनंत गुण संपन्न परमात्मा आप सबका कल्याण करे। भगवदभक्तों के दोनों लोक सुखमय होते हैं। जब तक यहाँ रहते हैं , शास्त्र मर्यादा के अनुकूल सुखों को भोगते हैं। अंत में शरीर त्यागकर भगवद्धाम में जाते हैं। भक्त के लिए यह लोक भी वैकुंठ के तुल्य हैं क्योंकि यहाँ नित्य भगवत सेवा में रहता हैं।
अपने प्रभु के निकट जाने के लिए -
इसके लिए प्रथम अपने इष्ट देव के नाम , रूप , चरित्र , धाम के कीर्तन में अपनी जिह्नवा को और मन को लगा  देना चाहिए। अपने निवास में प्रभु का चित्र विराजमान  करें वही भगवतधाम बन जायेगा। हम धाम में ही हैं यही मान कर सेवा में लग जाना चाहिए। कृष्ण कृष्ण कहने से कृष्ण का सानिध्य मिलता हैं।
धाम की उपासना का रहस्य यहीहैं कि मै   धाम में हूँ और धाम मुझमे हैं। मै श्री धाम का हूँ श्री धाम हमारा हैं। मै श्री कृष्ण का हूँ और श्री कृष्ण मेरे हैं। ऐसा स्वीकार कर लेना चाहिए तो उसे अंतिम कल्याण की प्राप्ति हो जाती हैं। श्री राधा रानी आप सबका कल्याण करें। (सौजन्य परमार्थ के पत्र -पुष्प मलूक पीठ वृन्दावन)

शनिवार, 30 जुलाई 2016

भगवत भक्ति

                                                                                                                                भगवद्भक्ति

                         परमार्थ के पत्र पुष्प )




भक्ति की महिमा  का वर्णन करते हुए श्री कृष्ण ने उद्धव से कहा -जो साधक भक्त हैं अभी सिद्ध नहीं हुए हैं,अपनी ईन्द्रियों को जीतकर अपने वश में नहीं कर सके हैं , उसे संसार के विषय , काम , क्रोध बाधा पहुँचातI हैं। वह साधक अपने आप को इन सबसे अलग करता हैं , क्षण क्षण नाम जप , संकीर्तन  अभ्यास करता हैं। भक्ति के प्रताप से वह भक्त इन विषयों के वश  में नहीं होता हैं , विषयों से कभी हारता नहीं हैं। भगवान  की भक्ति पाप राशि को जला डालती हैं। भगवत का आश्रय लेने पर पापों का होना संभव नहीं होता , फिर भी कदाचित कोई दोष बन जाता हैं तो उसे भगवान स्वयं ही नष्ट कर देते हैं भक्ति को त्याग कर अन्य यज्ञ , तप आदि उस प्रकार की सुख शांति भक्ति की प्राप्ति नहीं होती हैं जैसे कि  शुद्ध प्रेम से होती हैं।

                                 
                            भक्तिमय आचरण से जब तक शरीर पुलकित न हो , आंखों से आंसू की धारा न बहे , कंठ गदगद न हो, तब तक हृदय के शुद्ध होने की सम्भावना नहीं रहती हैं। हृदय में भगवत प्रेम प्राप्त करने की इच्छा बलवती रहनी चाहिए , धीरे धीरे भगवान की कृपा अति शीघ्र सुलभ हो जाएगी।
(सौजन्य -परमार्थ के पत्र पुष्प )
मलूकपीठ वृन्दावन. 

गुरुवार, 21 जुलाई 2016

प्रभु का नाम जपने से क्या लाभ होता है?

                                                                                                     राम -नाम का अखूट ख़जाना



राम -नाम कुछ खास लोगो के लिये  नहीं हैं , वह सबके लिए हैं। जो राम नाम लेता हैं , वह अपने लिए भारी ख़जाना जमा करतI जाता हैं और यह तो एक ऐसा खज़ाना हैं , जो कभी कम नहीं होता हैं। जितना इसमें से निकालो , उतना बढ़ता जाता हैं। इसका अंत नहीं हैं। जैसा कि उपनिषद कहता हैं -पूर्ण मे से पूर्ण निकालो , तो पूर्ण ही बाकी रह जाता हैं , वैसे ही  राम नाम हैं। यह त माम बिमारियों का एक मात्र इलाज हैं फिर चाहे वह बीमारी शारीरिक हो या मानसिक हो या आध्यात्मिक। राम नाम ईश्वर के कई नामों में से एक हैं। आप राम की जगह कृष्ण कहे या ईश्वर के अनगिनित नामों में से कोई और नाम ले लें, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। लड़कपन में मुझे भूतो से डर लगता था तो मेरी आया ने मुझसे कहा था -'अगर तुम राम नाम लोगे तो तमाम भूत -प्रेत भाग जायेंगे। 'मैं बच्चा ही था लकिन आया पर मुझे पूरा विश्वास था। मेने उसकी सलाह पर पूरा पूरा अमल किया। इससे मेरा डर भाग गया। अगर एक बच्चे का यह अनुभव था तो बड़े आदमियों के बुद्धि और श्रद्धा के साथ राम नाम लेने से उन्हें कितना फायदा हो सकता हैं लकिन शर्त यह हैं कि राम नाम दिल से निकले। क्या बुरे विचार दिल में आते हैं ?क्या काम या लोभ आपको सताते हैं ? यदि ऐसा हैं तो इन्हें मिटाने के लिए राम नाम से अच्छा  कोई जादू नहीं। 
फर्ज कीजिये आपके मन में यह लालच आया की बिना मेहनत किये बईमानी से आप लाखो कमा सकते हैं लकिन आपके अंदर का राम आपको इसके नुकसान से अवगत कराएगा और आपको यह गलती करने नहीं देगा। जब आपका राम नाम का निरन्तर जप चलता रहेगा तो एक दिन वह आपके कण्ठ  से ह्रदय में उतर आएगा। और आपके अंदर उठने वाले अज्ञानता को मिटाता चला जायेगा। हर समस्या का हल अपने आप होता चला जायेगा। यहाँ मेने बार बार राम नाम का जिक्र इसलिए किया हैं क्योंकि मैं हर पल राम नाम का जाप करता हूँ आप वही जपिये जिसमे आपकी श्रद्धा हो। 

राम नाम का खजाना( महात्मा गांधी)

                                                                                           राम -नाम का अखूट ख़जाना (महात्मा गाँधी )



राम -नाम कुछ खास लोगो के लिये  नहीं हैं , वह सबके लिए हैं। जो राम नाम लेता हैं , वह अपने लिए भारी ख़जाना जमा करतI जाता हैं और यह तो एक ऐसा खज़ाना हैं , जो कभी कम नहीं होता हैं। जितना इसमें से निकालो , उतना बढ़ता जाता हैं। इसका अंत नहीं हैं। जैसा कि उपनिषद कहता हैं -पूर्ण मे से पूर्ण निकालो , तो पूर्ण ही बाकी रह जाता हैं , वैसे ही  राम नाम हैं। यह त माम बिमारियों का एक मात्र इलाज हैं फिर चाहे वह बीमारी शारीरिक हो या मानसिक हो या आध्यात्मिक। राम नाम ईश्वर के कई नामों में से एक हैं। आप राम की जगह कृष्ण कहे या ईश्वर के अनगिनित नामों में से कोई और नाम ले लें, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। लड़कपन में मुझे भूतो से डर लगता था तो मेरी आया ने मुझसे कहा था -'अगर तुम राम नाम लोगे तो तमाम भूत -प्रेत भाग जायेंगे। 'मैं बच्चा ही था लकिन आया पर मुझे पूरा विश्वास था। मेने उसकी सलाह पर पूरा पूरा अमल किया। इससे मेरा डर भाग गया। अगर एक बच्चे का यह अनुभव था तो बड़े आदमियों के बुद्धि और श्रद्धा के साथ राम नाम लेने से उन्हें कितना फायदा हो सकता हैं लकिन शर्त यह हैं कि राम नाम दिल से निकले। क्या बुरे विचार दिल में आते हैं ?क्या काम या लोभ आपको सताते हैं ? यदि ऐसा हैं तो इन्हें मिटाने के लिए राम नाम से अच्छा  कोई जादू नहीं। 
फर्ज कीजिये आपके मन में यह लालच आया की बिना मेहनत किये बईमानी से आप लाखो कमा सकते हैं लकिन आपके अंदर का राम आपको इसके नुकसान से अवगत कराएगा और आपको यह गलती करने नहीं देगा। जब आपका राम नाम का निरन्तर जप चलता रहेगा तो एक दिन वह आपके कण्ठ  से ह्रदय में उतर आएगा। और आपके अंदर उठने वाले अज्ञानता को मिटाता चला जायेगा। हर समस्या का हल अपने आप होता चला जायेगा। यहाँ मेने बार बार राम नाम का जिक्र इसलिए किया हैं क्योंकि मैं हर पल राम नाम का जाप करता हूँ आप वही जपिये जिसमे आपकी श्रद्धा हो। 

मंगलवार, 12 जुलाई 2016

क्या आप जानना चाहते हैं कि भगवान का भजन करने से क्या होगा?

 

            भगवान का भजन करने से कल्याण होगा।


एक संत थे। वे एक सेठ के पास गए। सेठ ने आकर नमस्कार किया.संत ने भी किया। वह संत के पैरों में पड़ा तो संत ने भी ऐसे ही  किया , तो सेठ बोला कि , आप कैसे पैरों पड़ते हैं , आप त्यागी है , आपने अपने स्त्री , बच्चों धन , जमीन , जायदाद , मकान  आदि का त्याग कर दिया हैं। आप महान  हैं। तो संत ने कहा मुझसे बड़ा त्यागी तो तू हैं । मैने तो छोटी चीजों का त्याग किया हैं पर तुम तो संसार के भरोसे भगवान  का त्याग करके बैठे हो।  तो बड़ा त्यागी कौन हुआ मैं  कि  तुम। जो बड़ा त्याग करे वो ही तो बड़ा त्यागी हुआ। तो सज्जनो ऐसा मत करना , ऐसे त्यागी मत बनना। जरा सोचो एक पलक मारते  ही प्राण चले जाएँगे तो उस समय धन , सम्पत्ति , वैभव क्या काम आएगा ? अगर भगवान  का भजन किया हैं तो वह जरूर काम आएगा। धन कमाने में तो  हर कोई लखपति बन सकता हैं। पर जिसने राम नाम लाख बार जपने का विचार कर लिया असली धन तो वह कमा  रहा हैं। यहा आप को यह नहीं कहा जा रहा कि  आप धन दौलत न कमाए बल्कि धन कमाने के साथ साथ राम नाम या जिसमे आपकी आस्था हैं उसके नाम की दौलत भी कमाओ ,बाहर से दुनिया के लिए जिओ और अंदर सिर्फ और सिर्फ अपने प्रभु के लिए जिओ। जैसे ऑफिस में कोई पेपर work कर रहे हो तो सोचो यह मेरे प्रभु के लिये कर रहा हूँ जब compleat  हो जाये तो अपने राम जी को बोल दो कि लो प्रभु कर दिया आपका काम। ऐसे काम चाहे घर में हो या ऑफिस में सब प्रभु को समर्पित करते चलो ये सोच लो कि मेरा सारा कार्य मेरे प्रभु का, प्रभु के लिए हैं। तो आप महसूस करोगे कि धीरे धीरे आप अंदर से पूर्ण रूप से प्रभु को समर्पित हो।  फिर आपको अलग से मंदिर में बैठकर पूजा करने की जरुरत नहीं हैं। आपका कल्याण तो  संसार में रहकर कार्य करते करते ही हो जायेगा। पर अंदर ही अंदर भजन चलते रहना चाहिए जो भी आपको पसंद हो। 

सोमवार, 11 जुलाई 2016

जब आप अपना व्यवहार अच्छा रखोगे तो आप सबके बन के रह सकते हो

                                                                                                                   याद रखो


प्रेम , सहानुभूति , सम्मान , मधुर वचन , सहायता के लिए हर समय तैयार , त्याग और सच के व्यवहार से ही तुम किसी को अपना बना सकते हो। तुम्हारा ऐसा व्यवहार होगा तो लोग तुम्हारे लिए बड़ा से बड़ा त्याग करने को तैयार रहेंगें। तुम्हारी लोकप्रियता मौखिक नहीं होगी। लोगो के हृदय में बड़ा मधुर और प्रिय स्थान तुम्हारे लिए सुरक्षित हो जायेगा। तुम भी सुखी हो जाओगे और तुम्हारे सम्पर्क में जो आएगा , उनको भी सुख शांति मिलेगी।
इसलिए हमेशा सबके साथ मुस्कुराकर पेश आएं ,आपने अनुभव किया होगा कि आप जब किसी का हर समय मुस्कुराता चेहरा देखते हैं, तो आप को वह अच्छा लगने लगता है और आप हमेशा उसकी प्रशंसा करते हैं कि वह हमेशा मुस्कुराता रहता है। तो आप क्यों नहीं ? कोशिश कीजिए कि हर समय मुस्कुराते हुए हर परिस्थिति का सामना करें फिर कितनी भी कठिन परिस्थिति हो ,आप उसको बड़ी सुगमता के साथ सामना कर सकते हैं। बल्कि जब आप सबके साथ मुस्कुराते हुए बातचीत करेंगे और ना चाहते हुए भी अगर किसी समस्या में  घिर जाते हैं और आप किसी को पुकारते हैं तो हर ,आपके आसपास वाला व्यक्ति आपकी सहायता के लिए दौड़ते हुए आएगा। अनुभव करके जरूर देखें ।
।।जय श्री राधे।।




मंगलवार, 21 जून 2016

शांति और परम आंनद चाहते हो तो?

                                                       अगर जीवन में शांति और परम आंनद चाहते हो तो क्या करो ?



उन मनुष्यो का संग करो , अधिक से अधिक उनके साथ रहने और उनके निकट होकर उनकी सेवा करने  में बिताओ जिनका हृदय परम शांति और परम आनंद के सागर रूपी भगवान  में डूबा हुआ हैं। उनके संग से , लगातार के सत्संग से तुम्हारे ह्रदय से भगवान का सम्बन्ध जुड़ जायेगा। फिर तुम्हारे ह्रदय के द्वार भी परम शांति और आनंद के लिए खुल जायेंगे। अगर ऐसे महापुरुष  से मिलना संभव न हो तो उनके द्वारा लिखे पुस्तक और लेख को पढो। चैनल  द्वारा सत्संग को अपनाओ। जो भी बात अच्छी लगे उसे जीवन में उतारने  का प्रत्यन करो। जरुरी नहीं कि  महापुरषो के द्वारा कही गयी सभी बातों को अपनाओ किसी भी एक विचार को अपनाने की कोशिश में लग जाओ। ऐसे महापुरुष जगत में सर्वत्र शांति और आनंद का प्रवाह ही बहाया करते हैं। उनको कोई लोभ नहीं होता, कोई लालच नहीं होता , स्वार्थ नहीं  होता। जब  ऐसे महापुरषो का आपको संग मिल जाता हैं तो फिर जहाँ शोक , अशांति , विषाद और भय होता हैं उसकी जगह शांति और आनंद  पहुंच जाने से अंधकार का नाश हो जाता हैं अत्युज्जवल आनंद और शांति की चांदनी फैल जाती हैं। 
पर यह निर्णय आपको करना होगा कि ऐसा महापुरुष कौन हैं जो आपको सही मार्ग दिखा सकता हैं। 

जय श्री राधे।।

शनिवार, 23 अप्रैल 2016

भक्तराज केवट


                              भक्तराज केवट 


क्षीर सागर में भगवान विष्णु शेष शैय्या पर विश्राम कर रहे हैं और लक्ष्मीजी उनके पैर दबा रही हैं। विष्णुजी के एक पैर  का अंगूठा शैय्या के बाहर आ गया और लहरें उससे खिलवाड़ करने लगीं।

क्षीरसागर के एक कछुवे ने इस दृश्य को देखा और मन में यह विचार किया कि मैं यदि भगवान विष्णु के अंगूठे को अपनी जिह्वा से स्पर्श कर लूं तो मेरा मोक्ष हो जायेगा, यह सोच कर वह उनकी ओर बढ़ा। 

उसे भगवान विष्णु की ओर आते हुये शेषनाग ने देख लिया और कछुवे को भगाने के लिये जोर से फुंफकारा, फुंफकार सुन कर कछुवा भाग कर छुप गया।
कुछ समय पश्चात् जब शेषनाग जी का ध्यान हट गया तो उसने पुनः प्रयास किया। इस बार लक्ष्मीदेवी की दृष्टि उस पर पड़ गई और उन्होंने उसे भगा दिया।
इस प्रकार उस कछुवे ने अनेकों बार प्रयास किया पर शेष नाग और लक्ष्मी माता जी के कारण उसे  सफलता नहीं मिली। यहां तक कि सृष्टि की रचना हो गई और सतयुग बीत जाने के बाद त्रेतायुग आ गया।
इस मध्य उस कछुवे ने अनेक बार अनेक योनियों में जन्म लिया और प्रत्येक जन्म में भगवान की प्राप्ति का प्रयत्न करता रहा। अपने तपोबल से उसने दिव्य दृष्टि प्राप्त कर लिया था।

कछुवे को पता था कि त्रेता युग में वही क्षीरसागर में शयन करने वाले विष्णु राम का और वही शेषनाग लक्ष्मण का व वही लक्ष्मी देवी सीता के रूप में अवतरित होंगे तथा वनवास के समय उन्हें गंगा पार उतरने की आवश्यकता पड़ेगी। इसीलिये वह भी केवट बनकर वहां आ गया।

एक युग से भी अधिक काल तक तपस्या करने के कारण उसने प्रभु के सारे मर्म जान लिये थे, इसीलिये उसने रामजी से कहा था कि मैं आपका मर्म (भेद) जानता हूं।
सन्त श्री तुलसीदासजी भी इस तथ्य को जानते थे, इसीलिये अपनी चौपाई में केवट के मुख से कहलवाया है कि 

"कहहि तुम्हार मरमु मैं जाना”।

केवल इतना ही नहीं, इस बार केवट इस अवसर को किसी भी प्रकार हाथ से जाने नहीं देना चाहता था। उसे याद था कि शेषनाग क्रोध करके फुंफकारते थे और मैं डर जाता था।

अबकी बार वे लक्ष्मण के रूप में मुझ पर अपना बाण भी चला सकते हैं, पर इस बार उसने अपने भय को त्याग दिया था, लक्ष्मण के तीर से मर जाना उसे स्वीकार था पर इस अवसर को खो देना नहीं। 

इसीलिये विद्वान सन्त श्री तुलसीदासजी ने लिखा है-

(हे नाथ! मैं चरणकमल धोकर आप लोगों को नाव पर चढ़ा लूंगा; मैं आपसे उतराई भी नहीं चाहता। हे राम! मुझे आपकी दुहाई और दशरथजी की सौगन्ध है, मैं आपसे बिल्कुल सच कह रहा हूं। भले ही लक्ष्मणजी मुझे तीर मार दें, पर जब तक मैं आपके पैरों को पखार नहीं लूंगा, तब तक हे तुलसीदास के नाथ! हे कृपालु! मैं पार नहीं उतारूंगा)।

तुलसीदासजी आगे और लिखते हैं -

केवट के प्रेम से लपेटे हुये अटपटे बचन को सुन कर करुणा के धाम श्री रामचन्द्रजी जानकी और लक्ष्मण की ओर देख कर हंसे। जैसे वे उनसे पूछ रहे हैं- कहो, अब क्या करूं, उस समय तो केवल अंगूठे को स्पर्श करना चाहता था और तुम लोग इसे भगा देते थे पर अब तो यह दोनों पैर मांग रहा है!

केवट बहुत चतुर था। उसने अपने साथ ही साथ अपने परिवार और पितरों को भी मोक्ष प्रदान करवा दिया। तुलसीदासजी लिखते हैं-

चरणों को धोकर पूरे परिवार सहित उस चरणामृत का पान करके उसी जल से पितरों का तर्पण करके अपने पितरों को भवसागर से पार कर फिर आनन्दपूर्वक प्रभु श्री रामचन्द्र को गंगा के पार ले गया।

उस समय का प्रसंग है... जब केवट भगवान् के चरण धो रहे हैं।

बड़ा प्यारा दृश्य है, भगवान् का एक पैर धोकर उसे निकालकर कठौती से बाहर रख देते हैं, और जब दूसरा धोने लगते हैं तो पहला वाला पैर गीला होने से जमीन पर रखने से धूल भरा हो जाता है

केवट दूसरा पैर बाहर रखते हैं, फिर पहले वाले को धोते हैं, एक-एक पैर को सात-सात बार धोते हैं।

फिर ये सब देखकर कहते हैं, प्रभु, एक पैर कठौती में रखिये दूसरा मेरे हाथ पर रखिये, ताकि मैला ना हो।

जब भगवान् ऐसा ही करते हैं तो जरा सोचिये ... क्या स्थिति होगी, यदि एक पैर कठौती में है और दूसरा केवट के हाथों में

भगवान् दोनों पैरों से खड़े नहीं हो पाते बोले- केवट मैं गिर जाऊंगा?केवट बोला- चिन्ता क्यों करते हो भगवन्!

दोनों हाथों को मेरे सिर पर रखकर खड़े हो जाइए, फिर नहीं गिरेंगे।
जैसे कोई छोटा बच्चा है जब उसकी मां उसे स्नान कराती है तो बच्चा मां के सिर पर हाथ रखकर खड़ा हो जाता है, भगवान् भी आज वैसे ही खड़े हैं।

भगवान् केवट से बोले- भइया  केवट! मेरे अन्दर का अभिमान आज टूट गया।

केवट बोला- प्रभु! क्या कह रहे हैं?

भगवान् बोले- सच कह रहा हूं केवट, अभी तक मेरे अन्दर अभिमान था, कि.... मैं भक्तों को गिरने से बचाता हूं पर आज पता चला कि, भक्त भी भगवान् को गिरने से बचाता है।

          

Parmatma Aur Jivan: जीवन में सफलता के सूत्र (भाग 1)

Parmatma Aur Jivan: जीवन में सफलता के सूत्र (भाग 1): जीवन में सफलता के सूत्र  1 . जीवन का उद्देश्य निर्धारित करें - उद्दे श्य के बिना व्यक्ति  के  जीवन का कोई  महत्व नहीं रखता ।मनुष्...

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2016

जीवन की कीमत

                                                                                                             कीमती जीवन



एक दीन हीन  लकड़हारे को राजा ने देखा तो उसके मन में दया आ गयी। उसने लकड़हारे को चन्दन का बगीचा दे दिया। सोचा कि  चन्दन बेच कर धनी हो जायेगा और सुखी हो जायेगा। परन्तु उस लकड़हारे ने चन्दन की महिमा को नहीं जाना और उसको जलाकर कोयला बना कर बेचने लगा। बगीचे के तीन भाग उसने इसी तरह बेच दिए। सयोगवश एक दिन उसे राजा मिला ,उस दिन लकड़हारा कोयला बेचने जा रहा था तो उसे राजा ने देखा वो पहले की तरह दुखी और गरीब था। राजा ने हैरान  हो कर पूछा कि मेने तुम्हे इतना कीमती चन्दन का बगीचा दिया था तुमने उसे जला कर कोयला क्यों कर दिया ,तो उसने माफ़ी मांगी और बोला  की उसे चन्दन के महत्व का पता ही नहीं था इसीलिए उसने ऐसा कर दिया तो राजा ने  चन्दन के महत्व को बताया और शेष बचे बगीचे  का सदुपयोग  करने  को कहा।

हम भी अक्सर लकड़हारे की तरह गलती करते हैं और इस शरीर  रूपी चन्दन को व्यर्थ के कामनाओं ,इच्छाओं को पूरा करने के लिए जला कर कोयला कर देते हैं और फिर दुखी रहते हैं। किस्मत से राजा रूपी संत आकर इस जीवन की कीमत बता दे तो हम पहले सम्भल सकते हैं और इसका सदुपयोग  हो जाता हैं।

उसे मानकर बची हुई जो आयु हैं उसमे हम ईश्वर का भजन करे दुखियों की सहायता करे तो मनुष्य  जीवन सफल हो सकता हैं जिसमे हम प्रसन्न रहे और दूसरों को भी प्रसन्न रख सके इसी में मनुष्य जीवन की सफलता हैं। बुरे कर्म करके मन कभी प्रसन्न नहीं रह सकता। 

सोमवार, 15 फ़रवरी 2016

संत भक्त महिमा एंव सत्संग

                                                    संत भक्त महिमा एंव सत्संग

                                                     



सत्संग का लाभ मिलता हैं तो धीरे धीरे मन में शांति आती  हैं अन्यथा प्रत्येक प्राणी तन ,मन ,धन और जन से दुखी दिखाई पड़ता हैं। संसार के सारे कार्य किसी के भी अनुकूल नहीं होते हैं। एक न एक प्रतिकूलता रहती हैं। अपने इष्ट देव में दृढ़ विश्वास रखने वाला जो शरण में हैं और जो सन्मुख हैं वही निश्चिन्त हैं और सुखी हैं। सत्य ,दया ,क्षमा और चोरी न करना आदि धर्म सभी वर्णो के धर्म हैं। जो दुसरो के व्यवहार से परेशान नहीं होते और अपने व्यवहार से किसी को परेशान  नहीं 
करते हैं वही संत हैं। तन ,मन ,धन से उपकार क र ने  वाले गृहस्थ जन महान हैं। मन की शुद्धि और लोगो के साथ व्यवहार में शुद्धि होने से लोक परलोक में पूर्ण निर्भयता प्राप्त होती हैं। 

रविवार, 14 फ़रवरी 2016

वृंदावन भाव..... वृंदावन वास चाहूं और कुछ ना चाहूं।

               वृंदावन भाव..... वृंदावन वास चाहूं और कुछ ना चाहूं।



ब्रज की महिमा का बखान कैसे संभव है? प्रभु कृपा से ऐसा कोई तीर्थ नहीं; जो ब्रज में नहीं है। 

अपने बाबा और मैया यशोदा की इच्छापूर्ति हेतु कन्हैया ने सभी तीर्थों को ब्रज में ही बुला लिया और उन्हें ब्रज चौरासी कोस में सभी तीर्थों के दर्शन कराये। यही कारण है कि "ब्रजवासी" जावे तो कहाँ ?

 ब्रज-चौरासी कोस की एक परिक्रमा 84 लाख योनियों के पाप-कर्मों के फ़ल से मुक्ति प्रदान कर श्रीश्यामा-श्याम के श्रीचरणों की भक्ति प्रदान करती है। 

एक बार अयोध्या जाओ, दो बार द्वारिका, तीन बार जाके त्रिवेणी में नहाओगे।  
चार बार चित्रकूट, नौ बार नासिक, बार-बार जाके बद्रीनाथ घूम आओगे॥  
कोटि बार काशी, केदारनाथ, रामेश्वर, गया-जगन्नाथ, चाहे जहाँ जाओगे।  
होंगे प्रत्यक्ष जहाँ दर्शन श्याम-श्यामा के, वृन्दावन सा कहीं आनन्द नहीं पाओगे॥ 
वृन्दावन सा कहीं आनन्द नहीं पाओगे..........

 बस, यहीं पड़ी रहूँ, कभी गिरिराज गोवर्धन की तलहटी में, कभी राधाकुन्ड और श्यामकुन्ड के मध्य, कभी श्रीलाड़लीजू के बरसाने और कभी कन्हैया के नन्दगाँव, कभी गोकुल, कभी मानसरोवर, बिहारवन, गहवरवन, मोरकुटि, चरण-पहाड़ी, कुन्ज-निकुन्जों में, यमुना पुलिन पर, वृन्दावन की कुन्ज गलियों में विचरती रहूँ। 

श्रीकिशोरीजू की कृपा से जिहवा पर, अंतर में राधे-राधे का उच्चारण हो रहा हो, कभी विरह में आर्तनाद हो तो कभी खिलखिलाकर अट्टाहास हो, नेत्रों के सामने श्रीयुगलकिशोर की लीलायें चल रही हों,

 यमुना पुलिन पर कभी उन्हें खेलते देखूँ तो कभी कुन्जों में श्रीजी का पुष्पों से श्रंगार करते अपने प्राणधन मोहन की अमृतमयी लीलाओं को निहारुँ, कभी श्रीजी के श्रीचरणों में बैठे नन्दनन्दन को मनुहार करते देखूँ।

 यह देखते-देखते दृष्टि ऐसी हो जाये कि एक श्रीयुगलकिशोर के अतिरिक्त इस संसार में कुछ भी न दिखाई दे। ब्रज हो, ब्रजवासी हों, प्रिय वृन्दावन हो और श्रीयुगलकिशोर ! 

और क्या चाहूँ, क्या माँगू ? हे किशोरीजी, इस दासी का ऐसा सौभाग्य कब होगा ! जब मुझे वृन्दावन बसाओगी, यह कृपा कब करोगी ! ये भी आपकी ही अहैतु की कृपा है जो आपके चरणों में चित्त लगा, यह कृपा भी तो कम नहीं तो ।

।। श्रीराधे ।।

शनिवार, 13 फ़रवरी 2016

कुमार्ग पर पैर रखते हीं शरीर में तेज, बुद्धि एवं बल का लेश भी नहीं रह जाता है।

कुमार्ग पर पैर रखते हीं शरीर में तेज, बुद्धि एवं बल का लेश भी नहीं रह जाता है। 



                  इमि कुपंथ पग देत खगेसा।
                 रह न तेज तन बुधि बल लेसा।।

कुमार्ग़ पर पैर रखते ही बल और तेज़ जाता रहता हैं,

बात बिल्कुल सही है। कोई कितना भी बलवान एवं बुद्धिमान हो या फिर विद्वान ही क्यों न हो, जैसे ही उसकी प्रवृत्ति स्वयं को गर्हित कार्य में नियोजित करने की होती है सबसे पहले उसकी विवेकशक्ति का नाश हो जाता है। विवेकशून्य व्यक्ति जल्द ही काम, क्रोध और लोभ के अधीन कार्य कर अपना हीं अनिष्ट कर डालता है चाहे वह दशानन ही क्यों न हो। 

प्रसंग उसी दशानन रावण का ही लेते हैं जिसके पदचाप से धरती डोलती थी, जो अपने भुजाओं में स्थित बल को तौलने हेतु कौतुक से कैलाश पर्वत तक को तौल आनंदित होता था वही रावण जब सीताहरण जैसे गर्हित कर्म में प्रवृत्त हुआ तो उसका सारा तेज जाता रहा। 
राक्षस होते हुए भी जो कुल परम्परा से न केवल ब्राह्मण था बल्कि प्रकांड पंडित भी था तथा जिसके अतुलनीय बल से समस्त देव एवं मुनि समाज भयकम्पित रहता था, जिसने खेल खेल में हीं कुबेर को जीत लिया हो और जिसने अपने बन्दीखाने में लोकपाल तक को कैद कर रखा हो वही रावण जब पंचवटी के पवित्र आश्रम में चौरकर्म जैसे उद्देश्य लेकर पहुंचता है तो उसकी मनोदशा का वर्णन गोस्वामी तुलसीदासजी ने मात्र दो चौपाई में जो किया है,वह अत्यंत रोचक होने के साथ ज्ञानवर्धक भी है। 

गोस्वामीजी ने तो ऐसे रावण की तुलना कुत्ते तक से कर डाली है~

चौपाई देखिये - 

सून बीच दसकंधर देखा। 
आवा निकट जती कें बेषा।। 
जाकें डर सुर असुर डेराहीं। 
निसि न नीद दिन अन्न न खाहीं।। 
सो दससीस स्वान की नाईं। 
इत उत चितइ चला भड़िहाईं।।
इमि कुपंथ पग देत खगेसा। 
रह न तेज तन बुधि बल लेसा।। 

तुलसीदासजी कह रहे हैं - 

रावण सूना मौका देखकर यति(संन्यासी) के वेष में श्रीसीताजी के समीप आया। जिस रावण के डर से देवता और दैत्य तक इतना डरते हैं कि वे रात को सो नहीं पाते और दिन में डर के मारे भरपेट अन्न नहीं खा पाते वही दस सिर वाला रावण आज कुत्ते की तरह इधर उधर ताकता हुआ भड़िहाई(चोरी) के लिये चला। (सूना पाकर कुत्ता जब चुपके से बर्तन-भांडों में मुंह डालकर कुछ चुरा ले जाता है तो उसे 'भड़िहाई' कहते हैं।)

पंचवटी में श्रीसीताजी को अकेला एवं सूना देख रावण आ तो रहा था संन्यासी वेष में किन्तु उसकी मनोदशा एक कुत्ते की सी हो गई थी जो चोरी-छिपे इधर उधर शंका से ताकता हुआ घर में रखे बर्तन-भांड में मुंह डालकर कुछ चुरा कर भागना चाहता है। 

देखिये प्रतापी रावण की दशा जिसकी तुलना भी की गई तो एक कुत्ते से। इसमें कवि का कोई दोष नहीं;दोष है तो उस कर्म का जिसने एक क्षण में दसकंधर जैसे की श्री एवं कीर्ति का नाश कर उसे स्वान बना डाला।
यह अतुलित बलशाली रावण का गर्हित कर्मजन्य दुर्भाग्य ही कहिये कि भरी सभा में उसे एक दूत से अपमानित होना पड़ा जब भगवान् राम के दूत बनकर दशानन की सभा में उपस्थित बालिकुमार अंगद ने उससे कहा-

रे त्रियचोर कुमारग गामी। 
खल मल रासि मंदमति कामी।। 

यदि कोई राजा एक दूत से सभा मध्य ऐसे वचन सुने और सहे तो वह निश्चय हीं श्रीहत एवं आत्मबलविहीन है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि  बल होते हुए भी रावण आत्मबल से उसी क्षण हीन हो गया था जिस क्षण उसने कुमार्ग पर चलने का निर्णय लिया। उसके बाद जो भी उसमें बलरूप में दिखा वह केवल और केवल उसका दम्भमात्र था। 
यह है कुमार्ग पर कदम रखने का परिणाम! यह ध्रुव सत्य है कि कुमार्गी अंततोगत्वा नाश को प्राप्त होता है; समय जो लगे। अनैतिक बल का आश्रय लेने का परिणाम कभी सुखमय नहीं हो सकता है। 

अस्तु:-

इसीलिए काकभुशुण्डिजी कहते हैं - हे गरूड़जी! इस प्रकार कुमार्ग पर पैर रखते हीं शरीर में तेज, बुद्धि एवं बल का लेश भी नहीं रह जाता है। 

।।श्रीराम जय राम जय जय राम।।

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2016

माता के 9 अवतारों का सरल वर्णन

          माता के 9 अवतारों का सरल वर्णन

                    ये हैं सती_पार्वती के 9 अवतार

कैलाश पर्वत के ध्यानी की अर्धांगिनी मां सती पार्वती को ही शैलपुत्री‍, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री आदि नामों से जाना जाता है।

इसके अलावा भी मां के अनेक नाम हैं जैसे दुर्गा, जगदम्बा, अम्बे, शेरांवाली आदि। इनके दो पुत्र हैं गणेश और कार्तिकेय।

प्रथम स्वरूप –शैलपुत्री
   
 प्रजापति दक्ष ने अपने यज्ञ में उन्होंने सारे देवताओं को निमंत्रित किया। उनके यज्ञ-भाग भी उन्हें समर्पित किए हैं, किन्तु अपनी पुत्री सती और शिव को जान-बूझकर नहीं बुलाया। कोई सूचना तक नहीं भेजी है। ऐसी स्थिति में शिवजी ने उन्हें समझाया कि तुम्हारा वहाँ जाना किसी प्रकार भी श्रेयस्कर नहीं होगा।'
शंकरजी के इस उपदेश से सती का प्रबोध नहीं हुआ। पिता का यज्ञ देखने, वहाँ जाकर माता और बहनों से मिलने की उनकी व्यग्रता किसी प्रकार भी कम न हो सकी। उनका प्रबल आग्रह देखकर भगवान शंकरजी ने उन्हें वहाँ जाने की अनुमति दे दी।सती ने पिता के घर पहुँचकर देखा कि कोई भी उनसे आदर और प्रेम के साथ बातचीत नहीं कर रहा है। सारे लोग मुँह फेरे हुए हैं। केवल उनकी माता ने स्नेह से उन्हें गले लगाया। बहनों की बातों में व्यंग्य और उपहास के भाव भरे हुए थे।परिजनों के इस व्यवहार से उनके मन को बहुत क्लेश पहुँचा। उन्होंने यह भी देखा कि वहाँ चतुर्दिक भगवान शंकरजी के प्रति तिरस्कार का भाव भरा हुआ है। दक्ष ने उनके प्रति कुछ अपमानजनक वचन भी कहे। यह सब देखकर सती का हृदय क्षोभ, ग्लानि और क्रोध से संतप्त हो उठा। उन्होंने सोचा भगवान शंकरजी की बात न मान, यहाँ आकर मैंने बहुत बड़ी गलती की है।
वे अपने पति भगवान शंकर के इस अपमान को सह न सकीं। उन्होंने अपने उस रूप को तत्क्षण वहीं योगाग्नि द्वारा जलाकर भस्म कर दिया। वज्रपात के समान इस दारुण-दुःखद घटना को सुनकर शंकरजी ने क्रुद्ध होअपने गणों को भेजकर दक्ष के उस यज्ञ का पूर्णतः विध्वंस करा दिया।सती ने योगाग्नि द्वारा अपने शरीर को भस्म कर अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया। इस बार वे 'शैलपुत्री' नाम से विख्यात हुर्ईं। पार्वती, हैमवती भी उन्हीं के नाम हैं। उपनिषद् की एक कथा के अनुसार इन्हीं ने हैमवती स्वरूप से देवताओं का गर्व-भंजन किया था।
'शैलपुत्री' देवी का विवाह भी शंकरजी से ही हुआ। पूर्वजन्म की भाँति इस जन्म में भी वे शिवजी की ही अर्द्धांगिनी बनीं। नवदुर्गाओं में प्रथम शैलपुत्री दुर्गा का महत्व और शक्तियाँ अनंत हैं।

नवशक्ति का दूसरा स्वरूप 
ब्रह्मचारिणी

मां दुर्गा की नवशक्ति का दूसरा स्वरूप ब्रह्मचारिणी का है। भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या की थी। इस कठिन तपस्या के कारण इस देवी को तपश्चारिणी अर्थात् ब्रह्मचारिणी नाम से अभिहित किया।

यहां ब्रह्म का अर्थ तपस्या से है। मां दुर्गा का यह स्वरूप भक्तों और सिद्धों को अनंत फल देने वाला है। इनकी उपासना से तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार और संयम की वृद्धि होती है। 

दधाना करपद्माभ्यामक्षमालाकमण्डलू। 
देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा॥ 

ब्रह्मचारिणी का अर्थ तप की चारिणी यानी तप का आचरण करने वाली। देवी का यह रूप पूर्ण ज्योतिर्मय और अत्यंत भव्य है। इस देवी के दाएं हाथ में जप की माला है और बाएं हाथ में यह कमण्डल धारण किए हैं।

पूर्व जन्म में इस देवी ने हिमालय के घर पुत्री रूप में जन्म लिया था और नारदजी के उपदेश से भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या की थी। इस कठिन तपस्या के कारण इन्हें तपश्चारिणी अर्थात् ब्रह्मचारिणी नाम से अभिहित किया गया। एक हजार वर्ष तक इन्होंने केवल फल-फूल खाकर बिताए और सौ वर्षों तक केवल जमीन पर रहकर शाक पर निर्वाह किया। 

कुछ दिनों तक कठिन उपवास रखे और खुले आकाश के नीचे वर्षा और धूप के घोर कष्ट सहे। तीन हजार वर्षों तक टूटे हुए बिल्व पत्र खाए और भगवान शंकर की आराधना करती रहीं। इसके बाद तो उन्होंने सूखे बिल्व पत्र खाना भी छोड़ दिए। कई हजार वर्षों तक निर्जल और निराहार रह कर तपस्या करती रहीं। पत्तों को खाना छोड़ देने के कारण ही इनका नाम अपर्णा नाम पड़ गया। 

कठिन तपस्या के कारण देवी का शरीर एकदम क्षीण हो गया। देवता, ऋषि, सिद्धगण, मुनि सभी ने ब्रह्मचारिणी की तपस्या को अभूतपूर्व पुण्य कृत्य बताया, सराहना की और कहा- हे देवी आज तक किसी ने इस तरह की कठोर तपस्या नहीं की। यह तुम्हीं से ही संभव थी। तुम्हारी मनोकामना परिपूर्ण होगी और भगवान चंद्रमौलि शिवजी तुम्हें पति रूप में प्राप्त होंगे। अब तपस्या छोड़कर घर लौट जाओ। जल्द ही तुम्हारे पिता तुम्हें बुलाने आ रहे हैं। 

दुर्गा पूजा के दूसरे दिन देवी के इसी स्वरूप की उपासना की जाती है। इस देवी की कथा का सार यह है कि जीवन के कठिन संघर्षों में भी मन विचलित नहीं होना चाहिए। मां ब्रह्मचारिणी देवी की कृपा से सर्व सिद्धि प्राप्त होती है।

चंद्रघंटा

चंद्र घंटा अर्थात् जिनके मस्तक पर चंद्र के आकार का तिलक है।
मां दुर्गा की तीसरी शक्ति देवी चंद्रघंटा
मां दुर्गा की तीसरी शक्ति हैं चंद्रघंटा। नवरात्रि में तीसरे दिन इसी देवी की पूजा-आराधना की जाती है। देवी का यह स्वरूप परम शांतिदायक और कल्याणकारी है। इस देवी की कृपा से साधक को अलौकिक वस्तुओं के दर्शन होते हैं। दिव्य सुगंधियों का अनुभव होता है और कई तरह की ध्वनियां सुनाई देने लगती हैं। 

पिण्डजप्रवरारूढ़ा चण्डकोपास्त्रकेर्युता। 
प्रसादं तनुते मह्यं चंद्रघण्टेति विश्रुता॥

इस देवी के मस्तक पर घंटे के आकार का आधा चंद्र है। इसीलिए इस देवी को चंद्रघंटा कहा गया है। इनके शरीर का रंग सोने के समान बहुत चमकीला है। इस देवी के दस हाथ हैं। वे खड्ग और अन्य अस्त्र-शस्त्र से विभूषित हैं।

सिंह पर सवार इस देवी की मुद्रा युद्ध के लिए उद्धत रहने की है। इसके घंटे सी भयानक ध्वनि से अत्याचारी दानव-दैत्य और राक्षस काँपते रहते हैं। नवरात्रि में तीसरे दिन इसी देवी की पूजा का महत्व है। इस देवी की कृपा से साधक को अलौकिक वस्तुओं के दर्शन होते हैं। दिव्य सुगंधियों का अनुभव होता है और कई तरह की ध्वनियां सुनाईं देने लगती हैं। इन क्षणों में साधक को बहुत सावधान रहना चाहिए। 

इस देवी की आराधना से साधक में वीरता और निर्भयता के साथ ही सौम्यता और विनम्रता का विकास होता है। यह देवी कल्याणकारी है। इसलिए हमें चाहिए कि मन, वचन और कर्म के साथ ही काया को विहित विधि-विधान के अनुसार परिशुद्ध-पवित्र करके चंद्रघंटा के शरणागत होकर उनकी उपासना-आराधना करना चाहिए। इससे सारे कष्टों से मुक्त होकर सहज ही परम पद के अधिकारी बन सकते हैं। 

नवरात्रि में तीसरे दिन इसी देवी की पूजा का महत्व है। इसीलिए कहा जाता है कि हमें निरंतर उनके पवित्र विग्रह को ध्यान में रखकर साधना करना चाहिए। उनका ध्यान हमारे इहलोक और परलोक दोनों के लिए कल्याणकारी और सद्गति देने वाला है।

कूष्मांडा

ब्रह्मांड को उत्पन्न करने की शक्ति प्राप्त करने के बाद उन्हें कूष्मांड कहा जाने लगा। उदर से अंड तक वह अपने भीतर ब्रह्मांड को समेटे हुए है, इसीलिए कूष्मां डा कहलाती है।
। माँ कूष्मांडा देवी ।।

चतुर्थी के दिन माँ कूष्मांडा की आराधना की जाती है। इनकी उपासना से सिद्धियों में निधियों को प्राप्त कर समस्त रोग-शोक दूर होकर आयु-यश में वृद्धि होती है। प्रत्येक सर्वसाधारण के लिए आराधना योग्य यह श्लोक सरल और स्पष्ट है। माँ जगदम्बे की भक्ति पाने के लिए इसे कंठस्थ कर नवरात्रि में चतुर्थ दिन इसका जाप करना चाहिए।

या देवी सर्वभू‍तेषु माँ कूष्माण्डा रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।

अर्थ : हे माँ! सर्वत्र विराजमान और कूष्माण्डा के रूप में प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है। या मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूँ। हे माँ, मुझे सब पापों से मुक्ति प्रदान करें।

अपनी मंद, हल्की हँसी द्वारा अंड अर्थात ब्रह्मांड को उत्पन्न करने के कारण इन्हें कूष्माण्डा देवी के रूप में पूजा जाता है। संस्कृत भाषा में कूष्माण्डा को कुम्हड़ कहते हैं। बलियों में कुम्हड़े की बलि इन्हें सर्वाधिक प्रिय है। इस कारण से भी माँ कूष्माण्डा कहलाती हैं।

चतुर्थी के दिन माँ कूष्मांडा की आराधना की जाती है। इनकी उपासना से सिद्धियों में निधियों को प्राप्त कर समस्त रोग-शोक दूर होकर आयु-यश में वृद्धि होती है। प्रत्येक सर्वसाधारण के लिए आराधना योग्य यह श्लोक सरल और स्पष्ट है। 

नवरात्र-पूजन के चौथे दिन कूष्माण्डा देवी के स्वरूप की ही उपासना की जाती है। इस दिन साधक का मन 'अदाहत' चक्र में अवस्थित होता है। अतः इस दिन उसे अत्यंत पवित्र और अचंचल मन से कूष्माण्डा देवी के स्वरूप को ध्यान में रखकर पूजा-उपासना के कार्य में लगना चाहिए।
जब सृष्टि का अस्तित्व नहीं था, तब इन्हीं देवी ने ब्रह्मांड की रचना की थी। अतः ये ही सृष्टि की आदि-स्वरूपा, आदिशक्ति हैं। इनका निवास सूर्यमंडल के भीतर के लोक में है। वहाँ निवास कर सकने की क्षमता और शक्ति केवल इन्हीं में है। इनके शरीर की कांति और प्रभा भी सूर्य के समान ही दैदीप्यमान हैं।
इनके तेज और प्रकाश से दसों दिशाएँ प्रकाशित हो रही हैं। ब्रह्मांड की सभी वस्तुओं और प्राणियों में अवस्थित तेज इन्हीं की छाया है। माँ की आठ भुजाएँ हैं। अतः ये अष्टभुजा देवी के नाम से भी विख्यात हैं। इनके सात हाथों में क्रमशः कमंडल, धनुष, बाण, कमल-पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र तथा गदा है। आठवें हाथ में सभी सिद्धियों और निधियों को देने वाली जपमाला है। इनका वाहन सिंह है।
माँ कूष्माण्डा की उपासना से भक्तों के समस्त रोग-शोक मिट जाते हैं। इनकी भक्ति से आयु, यश, बल और आरोग्य की वृद्धि होती है। माँ कूष्माण्डा अत्यल्प सेवा और भक्ति से प्रसन्न होने वाली हैं। यदि मनुष्य सच्चे हृदय से इनका शरणागत बन जाए तो फिर उसे अत्यन्त सुगमता से परम पद की प्राप्ति हो सकती है।

विधि-विधान से माँ के भक्ति-मार्ग पर कुछ ही कदम आगे बढ़ने पर भक्त साधक को उनकी कृपा का सूक्ष्म अनुभव होने लगता है। यह दुःख स्वरूप संसार उसके लिए अत्यंत सुखद और सुगम बन जाता है। माँ की उपासना मनुष्य को सहज भाव से भवसागर से पार उतारने के लिए सर्वाधिक सुगम और श्रेयस्कर मार्ग है।

माँ कूष्माण्डा की उपासना मनुष्य को आधियों-व्याधियों से सर्वथा विमुक्त करके उसे सुख, समृद्धि और उन्नति की ओर ले जाने वाली है। अतः अपनी लौकिक, पारलौकिक उन्नति चाहने वालों को इनकी उपासना में सदैव तत्पर रहना चाहिए।

इस दिन जहाँ तक संभव हो बड़े माथे वाली तेजस्वी विवाहित महिला का पूजन करना चाहिए। उन्हें भोजन में दही, हलवा खिलाना श्रेयस्कर है। इसके बाद फल, सूखे मेवे और सौभाग्य का सामान भेंट करना चाहिए। जिससे माताजी प्रसन्न होती हैं। और मनवांछित फलों की प्राप्ति होती है।

स्कंदमाता

उनके पुत्र कार्तिकेय का नाम स्कंद भी है इसीलिए वह स्कंद की माता कहलाती है।
शेष कल:

बुधवार, 3 फ़रवरी 2016

आज का शुभ विचार




                   अपने  गुरुजनों ,पिता ,माता से  डरना चाहिए। यदि जीवन से भय निकल जाय तो वह व्यक्ति उद्दंड ,उन्मत  और उच्छ्रखंल  हो सकता हैं। 

भक्ति प्राप्ति के आठ सरल साधन


भक्ति प्राप्ति के आठ सरल साधन 

१. स्वभाव में सरलता। मन से कुटिलता का हटाना। दूसरे का अनिष्ट करके अपने स्वार्थ की सिद्धि मन की कुटिलता हैं। 
२.जो कुछ भगवान ने घर ,परिवार दिया हैं उसमे संतुष्ट रहना। अनुचित उपायों से संसारी वस्तु को करने  की इच्छा न करना संतुष्ट रहना। 
३.भगवान का दास कहला कर दूसरे धनी मानियों  की आशा व चापलूसी नहीं करना। 
४. अकारण किसी से वैर विग्रह न करना। 
५.सत्संग से प्रेम ,संसारी लोगो से घनिष्ठता न रखकर प्रयोजन भर का संबंध रखना। . 
६.भक्ति की श्रेष्ठता को मानना ,दुष्ट से तर्क न करना। 
७.स्वर्ग मोक्ष के सुखों की भी  इच्छा न करना। 
८.भगवत् गुणानुवाद का गान  करना। 

इन उपदेशो को श्री राम ने दिया। सभी संत भी यही कहते हैं। एक एक  बात को ध्यान में लाकर उस पर विचार करना ,फिर उस पर दृढ निश्चय करना। इसलिए थोड़ा ही सही जितना भी समय मिले मन में पूजा व लीला चिंतन अवश्य करना चाहिए। 

शनिवार, 30 जनवरी 2016

मन्त्र प्रयोग के द्वारा रोग और गृह क्लेश को दूर करने के उपाय

मंत्र प्रयोग के द्वारा रोग  व क्लेश को दूर करने के उपाय





(ब्रह्मलीन अन्नत श्री विभू षित गोवर्धन पी ठा धीश्वर जगदगुरु स्वामी श्री निरंजनदेव तीर्थ जी   महाराज )

अच्युताय नमः ,अनन्त्ताय नमः ,गोविन्दाय नमः -

इस मंत्र का निरंतर जप करने से हर प्रकार के रोग दूर हो जाते हैं। जब तक रोग न मिटे ,श्रद्धा पूर्वक जप करते रहे। यह अनुभूत प्रयोग हैं। 

वाराणस्यां दक्षिणे तु  कुक्कुटो नाम वै द्विजः। 
तस्य स्मरणमात्रेण दुःस्वप्नह सुखदो भवेत्।।

यदि किसी को बुरे स्वप्न आते हैं तो रात्रि में हाथ पैर धोकर शांत चित्त से पूर्वमुख आसन पर बैठकर प्रतिदिन इस मन्त्र का 108बार जप करे ,दुःस्वप्न बंद हो जायेंगे तथा उनके फल  भी अच्छे होंगे। 

या देवी सर्व भूतेषु शांति रूपेण संस्थिता। 
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।

इस मंत्र का प्रतिदिन 108 बार जप करने से पारिवारिक कलह की निवृत्ति होगी। 

गुरुवार, 28 जनवरी 2016

संसार में कैसे रहे




मनुष्य का प्रथम कर्तव्य हैं कि  किसी भी कार्य को करने  से पहले अच्छी तरह से विचार कर ले। बिना  सोचे विचार किसी भी काम को न करे। कर्म का फल क्या मिलेगा यह पहले ही विचार  कर  लेना चाहिए। हम जो भी कार्य या कर्म करते हैं उसका  सिंह अवलोकन करना चाहिए। सिंह का स्वभाव होता हैं कि वह कुछ दूर चलता हैं फिर पीछे घूम कर देखता हैं। इसी प्रकार अब तक इतने दिनों तक हम  जो करते  आ रहें हैं  उससे मुझे क्या लाभ मिला या क्या हानि हुई इस पर विचार कर ,जहाँ  अपने व्यवहार में विचार में त्रुटि हो उसे सुधार लेना चाहिए। अपने परिवार का पालन करने के लिए यदि हम झूठ ,पाप ,हिंसा का सहारा नहीं लेते तो ईश्वर हमारा हर समय ध्यान रखता हैं ,वो हमे कभी भी अकेला नहीं पड़ने देता। 

आज का शुभ विचार




आप अपनी सारी आशायें  
भगवान पर  छो ड़  दें ,तब किसी भी व्यक्ति से कोई  भी निराशा नही मिलेगी । 
।।जय सियाराम।।

गुरुवार, 21 जनवरी 2016

इस कलयुग में केवल भगवान का नाम ही बचा सकता है।

                                                                                                                     इस कलयुग में भगवन्न नाम महिमा


संसार में अनेक रोग हैं ,और उनकी अलग -अलग औषधियाँ हैं ,परन्तु राम नाम तो सभी रोगों की रामबाण औषधि हैं। शोक ,मोह ,लोभ आदि सभी रोगों के लिए एक राम नाम ही महा औषधि हैं।
कलियुग में नाम स्मरण करके ही दोषो से बचा जा सकता हैं। अन्यथा समय के प्रभाव से बचना कठिन हैं।
भगवान  के नाम , रूप , लीला और धाम ये चारों सच्चिंदानन्दमय हैं। एक को पकड़ने से चारों पकड़ में आ जाते हैं। सुलभ एवं शक्तिमान होने से नाम ही चारों में श्रेष्ठ हैं। नाम में लीला भरी हैं। राम में रामायण , कृष्ण नाम में भागवत पुराण स्थित हैं। नाम को पुकारने से रूप का आकर्षण होता हैं। नाम में धाम =तेज और धाम =लीला भूमि ये व्याप्त हैं। बट बीज में जैसे विशाल वृक्ष व्याप्त
उसी प्रकार नाम में सब कुछ हैं। नाम का आश्रय लेने से रूप , लीला , और धाम का आश्रय हो जाता हैं।
जन्म -जन्म के अशुभ संस्कारों को मिटाने के लिए निरन्तर नाम जप आदि साधन आवश्यक हैं। श्रेष्ठ नाम स्मरण  ही हैं। दूसरे साधन के योग्य हम नहीं हैं। आवश्यक काम करने के बाद या काम करते करते भी नाम जप का अभ्यास करते रहना चाहिए। 
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
 हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।।

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