/ "ईश्वर के साथ हमारा संबंध: सरल ज्ञान और अनुभव: मई 2023

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गुरुवार, 18 मई 2023

भगवान श्रीकृष्ण ने अपने माता-पिता के लिए बनाये थे - ब्रज में चार धाम

भगवान श्रीकृष्ण ने अपने माता-पिता के लिए बनाये थे - ब्रज में चार धाम


भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी माता यशोधा और पिता नंद बाबा के लिए ब्रज की धरती पर ही चार धाम का निर्माण किया था। वैसे ये चार धार - यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ भारत के राज्य उत्तराखंड में स्थित है। भगवान श्रीकृष्ण ने अपने माता-पिता को चार धाम की यात्रा पर जाते देख और चार धाम यात्रा कठनाईयों को देखते हुए ब्रज की धरती पर ही चार धाम का आह्वान करके बुलाया था। इसके बाद एक-एक करके सारे तीर्थ ब्रज में आ गए। ये भी माना जाता है कि इन चार धाम के दर्शन से ही लोगों की मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं।

नंद बाबा और यशोदा को आई चार धाम यात्रा की याद

नंद बाबा और यशोदा वृद्धा वस्था में भी कोई संतान ने होने पर यह संकल्प लिया था कि अगर उनको संतान की प्राप्ती होगी तो चार धाम की यात्रा करेगें।

श्रीकृष्ण की गौचरण लीला के बाद नंद बाबा और यशोदा को चारधाम की यात्रा का संकल्प याद आया। इसके बाद उन्होंने तीर्थ यात्रा पर जाने की तैयारी शुरू कर दी। श्रीकृष्ण जब गायों को चराकर घर लौटे तो देखा कि घर में तैयारियां हो रही हैं। बैलगाड़ी को सजाया जा रहा है। इस पर श्रीकृष्ण ने यशोदा से पूछा कि मैया, ये क्या हो रहा है। इस पर यशोदा ने कहा भगवान श्रीकृष्ण से अपने संकल्प के बारे में बताया और इसलिए नंद बाबा और यशोदा तीर्थ करने जा रहे हैं।

श्रीकृष्ण ने चारों धामों को ब्रज में बुला लिया

इस पर श्रीकृष्ण ने कहा, मैया, बुढ़ापे में तीर्थ जा रहे हो। मैं सब तीर्थ ब्रज में बुला देता हूं। इसके बाद श्री श्रीकृष्ण ने अपनी माया से चारों धामों का आह्वान कर उन्हें ब्रज में बुला लिया और एक-एक करके सारे तीर्थ ब्रज में आकर उपस्थित हो गए। सभी तीर्थ विद्यमान हैं जिनमें चारों धाम केदारनाथ, बद्रीनाथ, यमुनोत्री और गंगोत्री भी ब्रज 84 कोस में ही मौजूद हैं।

बद्रीनाथ धाम

ब्रज की 84 कोस की परिक्रमा में आदिबद्रीनाथ के नाम से एक मंदिर है जो कि काम्यवन के अन्तर्गत आता है। भगवान श्रीकृष्ण के अनुरोध पर नंद बाबा और यशोदा मैया के साथ ब्रजवासियों को दर्शन देने भगवान बद्रीनारायण प्रकट हुए थे और इनका नाम बूढ़ा बद्री पड़ गया। डीग से कामां के रास्ते पर चलने पर बूढ़ा बद्री मंदिर के समीप ही अलकनंदा कुंड बना हुआ है जहां श्रद्धालु स्नान करते हैं।

वहीं गोवर्धन से करीब 36 किलोमीटर की दूरी पर डीग क्षेत्र के पास आदिबद्री धाम है। भगवान बद्रीनाथ ने देवसरोवर का भी स्वयं निर्माण किया। नर-नारायण पर्वत भी यहीं आमने-सामने मौजूद है।

यमुनोत्री और गंगोत्री

आदिबद्री धाम से कुछ दुरी पर, एक पहाड़ी पर यमुनोत्री और गंगोत्री धाम है। ये दोनों मंदिरों एक साथ देखा जा सकता है।

केदारनाथ धाम

कामां से करीब 10 किलोमीटर दूरी पर गांव विलोंद के समीप एक पर्वत पर भगवान केदारनाथ शेषनाग रूपी विशाल शिला के नीचे एक छोटी से गुफा में विराजमान हैं। जिस पर्वत पर केदारनाथ मंदिर है उसकी तलहटी में ही गौरीकुंड स्थित है। मंदिर करीब 500 फ़ीट की ऊंचाई पर है और करीब 450 सीढि़यां चढ़कर मंदिर तक पहुंचा जाता हैं। इस पहाड़ी पर नंदी, गणेश और शेषनाग की छवि दिखाई पड़ती है।


गुरुवार, 11 मई 2023

करूणा मयी श्री राधे

                            करूणा मयी श्री राधे 


एक  बार वृन्दावन में एक संत हुए कदम्खंडी जी महाराज। उनकी बड़ी बड़ी जटाएं थी। वो वृन्दावन के सघन वन में जाके भजन करते थे।

एक दिन जा रहे थे तो रास्ते में उनकी बड़ी बड़ी जटाए झाडियो में उलझ गई। उन्होंने खूब प्रयत्न किया किन्तु सफल नहीं हो पाए।

और थक के वही बैठ गए और बैठे बैठे गुनगुनाने लगे।

"हे मुरलीधर छलिया मोहन

हम भी तुमको दिल दे बैठे,

गम पहले से ही कम तो ना थे,

एक और मुसीबत ले बैठे "

बहोत से ब्रजवासी जन आये और बोले बाबा हम सुलझा देवे तेरी जटाए तो बाबा ने सबको डांट के भगा दिया और कहा की जिसने उलझाई वोही आएगा अब तो सुलझाने।

बहोत समय हो गया बाबा को बैठे बैठे......

"तुम आते नहीं मनमोहन क्यों

इतना हमको तडपाते हो क्यों ।

प्राण पखेरू लगे उड़ने,

तुम हाय अभी शर्माते हो क्यों।"

तभी सामने से 15-16 वर्ष का सुन्दर किशोर हाथ में लकुटी लिए आता हुआ दिखा। जिसकी मतवाली चाल देखकर करोडो काम लजा जाएँ। मुखमंडल करोडो सूर्यो के जितना चमक रहा था। और चेहरे पे प्रेमिओ के हिर्दय को चीर देने वाली मुस्कान थी।

आते ही बाबा से बोले बाबा हमहूँ सुलझा दें तेरी जटा।

बाबा बोले आप कोन हैं श्रीमान जी?

तो ठाकुर जी बोले हम है आपके कुञ्ज बिहारी।

तो बाबा बोले हम तो किसी कुञ्ज बिहारी को नहीं जानते।

तो भगवान् फिर आये थोड़ी देर में और बोले बाबा अब सुलझा दें।

तो बाबा बोले अब कोन है श्रीमान जी ।

तो ठाकुर बोले हम हैं निकुंज बिहारी।

तो बाबा बोले हम तो किसी निकुंज बिहारी को नहीं जानते।

तो ठाकुर जी बोले तो बाबा किसको जानते हो बताओ?

तो बाबा बोले हम तो निभृत निकुंज बिहारी को जानते हैं।

तो भगवान् ने तुरंत निभृत निकुंज बिहारी का स्वरुप बना लिया। ले बाबा अब सुलझा दूँ।

तब बाबा बोले च्यों रे लाला हमहूँ पागल बनावे लग्यो!

निभृत निकुंज बिहारी तो बिना श्री राधा जू के एक पल भी ना रह पावे और एक तू है अकेलो सोटा सो खड्यो है।

तभी पीछे से मधुर रसीली आवाज आई बाबा हम यही हैं। ये थी हमारी श्री जी।

और श्री जी बोली अब सुलझा देवे बाबा आपकी जटा।

तो बाबा मस्ती में आके बोले लाडली जू आपका दर्शन पा लिया अब ये जीवन ही सुलझ गया जटा की क्या बात है।

     लाडली जी की जय हो 

मंगलवार, 9 मई 2023

भगवान के होकर भगवान का नाम जप करो।

                                    ॥श्री हरिः॥

           भगवान के होकर भगवान का नाम जप करो।

                                    परम वचन

                       श्री रामसुखदासजी महाराज 

       जैसे आदमी दूर विदेशमें चला जाता है,  ऐसे आप खास भगवानके बेटे होते हुए भी दूर चले गये हैं। इसलिये सभी भाई-बहनोंसे मेरी प्रार्थना है कि आप कृपा करके स्वीकार कर ले कि हम भगवानके बेटा--बेटी है।  हम कपूत--सपूत, अच्छे--मन्दे, भले-- -बुरे जैसे भी हैं, भगवानके हैं। अब केवल भगवान की तरफ चलना ही हमारा काम है। भगवत्प्राप्तिके समान दूसरा कोई काम है ही नहीं। इसलिये भगवानके भजनमें लग जाओ। चलते--फिरते, 

 उठते--बैठते हर समय भगवानको याद रखो। भगवानका होकर भगवानके नामका जप करो ।

   बिगरी जनम अनेक की,  सुधरै अबहीं आजु   ।

   होहि राम को नाम जपु, तुलसी तजि कुसमाजु ।।

                                                 ( दोहावली 22 )

       इसमें तीन बातें बतायी है---कुसंग छोड़ दो, भगवानके हो जाओ, और भगवानके नामका जप करो। जैसे सत्संगसे महान लाभ होता है, ऐसे ही कुसंगसे महान हानि होती है। सांसारिक भोग और संग्रहको श्रेष्ठ माननेवाले और उनमें आसक्त पुरुषों का संग कुसंग है। भगवानकी चर्चा हो, भगवानका चिन्तन हो,  वह सत्संग है। आजकल कुसंग बहुत मिलता है, उससे सावधान रहो, अपनेको बचाओ।

( सीमा के भीतर असीम प्रकाश----205 )

सोमवार, 8 मई 2023

वैष्णव सदाचार का प्रतीक है तिलक

              वैष्णव सदाचार का प्रतीक है  तिलक


ऐसा कहा जाता है कि तिलक लगाते समय यदि भक्त दर्पण अथवा पानी मे अपना प्रतिबिम्ब ध्यानपूर्वक देखता है तो वह भगवान के धाम को जाता है

तिलक लगाना इस बात का प्रतिक है की आप सनातनी है और वैष्णव तिलक लगाना कृष्ण भक्ति का प्रतीक है।

जिस प्रकार स्त्री अपने स्वामी की प्रसन्नता के लिये श्रृँगार करती है उसी प्रकार वैष्णव अपने स्वामी(श्री कृष्ण)की प्रसन्नता के लिये श्रृँगार करते है जिसमे तिलक मुख्य है।

तिलक अनेक प्रकार के होते है 

चार मुख्य सम्प्रदायो के अपने अपने तिलक होते है जो जिस सम्प्रदाय से दीक्षित हो, वे उसका तिलक धारण करे अथवा जो दीक्षित ना हो वे श्री चैतन्य महाप्रभु को गुरू मान  कर उनका तिलक धारण करे। 

तिलक लगाने के लिये सिन्दूर,सफेद चन्दन,पीला चन्दन,लाल चन्दन,गोपी चन्दन और शिव भक्त सम्प्रदाय के भक्त भस्म का तिलक धारण करते है।कृष्ण भक्त वैष्णवो के लिये सबसे उत्तम तिलक है, गोपी चन्दन का इसलिये गोपी चन्दन का तिलक धारण करे।

-अपने हाथ मे गोपी चन्दन घिसते समय नीचे ना गिराएँ यदि वह नीचे गिर जाय तो तुरन्त साफ करे क्यूँकि गोपी चन्दन अत्यन्त मूल्यवान है यह साधारण चन्दन नही है कृष्ण भक्ति का आशिर्वाद है।

बाएँ हाथ मे तिलक बनाते हुए एवं मस्तक पर लगाते समय नामोच्चारण करेँ।

पुण्यं यशस्यमायुष्यं तिलकं मे प्रसीदतु ।। कान्ति लक्ष्मीं धृतिं सौख्यं सौभाग्यमतुलं बलम् । ददातु चन्दनं नित्यं सततं धारयाम्यहम् ।।

तिलक लगाने मे जो शर्म महसूस करे, वह कभी वैष्णव बनने योग्य नही हो सकता। तिलक लगा कर मन एवं आत्मा मे शान्ति और भक्ति और गर्व का अनुभव जो करे वही वैष्णव है।

।।जय श्री राधे।।

रविवार, 7 मई 2023

देवों में सबसे सुंदरतम भगवान श्री कृष्ण के जीवन की कई बातें अनजानी और रहस्यमयी है आइए जानें 24 अनजाने तथ्य.

देवों में सबसे सुंदरतम भगवान श्री कृष्ण के जीवन की कई बातें अनजानी और रहस्यमयी है आइए जानें 24 अनजाने तथ्य.


1. भगवान् श्री कृष्ण के खड्ग का नाम नंदक, गदा का नाम कौमौदकी और शंख का नाम पांचजन्य था जो गुलाबी रंग का था।

 2. भगवान् श्री कृष्ण के परमधामगमन के समय ना तो उनका एक भी केश श्वेत था और ना ही उनके शरीर पर कोई झुर्री थीं।

3.भगवान् श्री कृष्ण के धनुष का नाम शारंग व मुख्य आयुध चक्र का नाम सुदर्शन था। वह लौकिक, दिव्यास्त्र व देवास्त्र तीनों रूपों में कार्य कर सकता था उसकी बराबरी के विध्वंसक केवल दो अस्त्र और थे पाशुपतास्त्र ( शिव, कॄष्ण और अर्जुन के पास थे) और प्रस्वपास्त्र ( शिव, वसुगण, भीष्म और कृष्ण के पास थे)।

4. भगवान् श्री कृष्ण की परदादी 'मारिषा' व सौतेली मां रोहिणी (बलराम की मां) 'नाग' जनजाति की थीं।

5. भगवान श्री कृष्ण से जेल में बदली गई यशोदापुत्री का नाम एकानंशा था, जो आज विंध्यवासिनी देवी के नाम से पूजी जातीं हैं।

6. भगवान् श्रीकृष्ण की प्रेमिका राधा का वर्णन महाभारत, हरिवंशपुराण, विष्णुपुराण व भागवतपुराण में नहीं है। उनका उल्लेख ब्रह्मवैवर्त पुराण, गीत गोविंद व प्रचलित जनश्रुतियों में रहा है।

7. जैन परंपरा के मुताबिक, भगवान श्री कॄष्ण के चचेरे भाई तीर्थंकर नेमिनाथ थे जो हिंदू परंपरा में घोर अंगिरस के नाम से प्रसिद्ध हैं।

8. भगवान् श्री कृष्ण अंतिम वर्षों को छोड़कर कभी भी द्वारिका में 6 महीने से अधिक नहीं रहे।

9. भगवान श्री कृष्ण ने अपनी औपचारिक शिक्षा उज्जैन के संदीपनी आश्रम में मात्र कुछ महीनों में पूरी कर ली थी।

10. ऐसा माना जाता है कि घोर अंगिरस अर्थात नेमिनाथ के यहां रहकर भी उन्होंने साधना की थी।

11. प्रचलित अनुश्रुतियों के अनुसार, भगवान श्री कृष्ण ने मार्शल आर्ट का विकास ब्रज क्षेत्र के वनों में किया था। डांडिया रास का आरंभ भी उन्हीं ने किया था।

12. कलारीपट्टु का प्रथम आचार्य कृष्ण को माना जाता है। इसी कारण नारायणी सेना भारत की सबसे भयंकर प्रहारक सेना बन गई थी।

13. भगवान श्रीकृष्ण के रथ का नाम जैत्र था और उनके सारथी का नाम दारुक/ बाहुक था। उनके घोड़ों (अश्वों) के नाम थे शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक।

14. भगवान श्री कृष्ण की त्वचा का रंग मेघश्यामल था और उनके शरीर से एक मादक गंध निकलती थी।

15. भगवान श्री कृष्ण की मांसपेशियां मृदु परंतु युद्ध के समय विस्तॄत हो जातीं थीं, इसलिए सामान्यतः लड़कियों के समान दिखने वाला उनका लावण्यमय शरीर युद्ध के समय अत्यंत कठोर दिखाई देने लगता था ठीक ऐसे ही लक्ष्ण कर्ण व द्रौपदी के शरीर में देखने को मिलते थे।

16. जनसामान्य में यह भ्रांति स्थापित है कि अर्जुन सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर थे, परंतु वास्तव में कृष्ण इस विधा में भी सर्वश्रेष्ठ थे और ऐसा सिद्ध हुआ मद्र राजकुमारी लक्ष्मणा के स्वयंवर में जिसकी प्रतियोगिता द्रौपदी स्वयंवर के ही समान परंतु और कठिन थी।

17. यहां कर्ण व अर्जुन दोंनों असफल हो गए और तब श्री कॄष्ण ने लक्ष्यवेध कर लक्ष्मणा की इच्छा पूरी की, जो पहले से ही उन्हें अपना पति मान चुकीं थीं।

18. भगवान् श्री युद्ध कृष्ण ने कई अभियान और युद्धों का संचालन किया था, परंतु इनमे तीन सर्वाधिक भयंकर थे। 1- महाभारत, 2- जरासंध और कालयवन के विरुद्ध 3- नरकासुर के विरुद्ध

19. भगवान् श्री कृष्ण ने केवल 16 वर्ष की आयु में विश्वप्रसिद्ध चाणूर और मुष्टिक जैसे मल्लों का वध किया। मथुरा में दुष्ट रजक के सिर को हथेली के प्रहार से काट दिया।

20. भगवान् श्री कृष्ण ने असम में बाणासुर से युद्ध के समय भगवान शिव से युद्ध के समय माहेश्वर ज्वर के विरुद्ध वैष्णव ज्वर का प्रयोग कर विश्व का प्रथम जीवाणु युद्ध किया था।

21. भगवान् श्री कृष्ण के जीवन का सबसे भयानक द्वंद्व युद्ध सुभुद्रा की प्रतिज्ञा के कारण अर्जुन के साथ हुआ था, जिसमें दोनों ने अपने अपने सबसे विनाशक शस्त्र क्रमशः सुदर्शन चक्र और पाशुपतास्त्र निकाल लिए थे। बाद में देवताओं के हस्तक्षेप से दोनों शांत हुए।

22. भगवान् श्री कृष्ण ने 2 नगरों की स्थापना की थी द्वारिका (पूर्व में कुशावती) और पांडव पुत्रों के द्वारा इंद्रप्रस्थ (पूर्व में खांडवप्रस्थ)।

23. भगवान् श्री कृष्ण ने कलारिपट्टू की नींव रखी जो बाद में बोधिधर्मन से होते हुए आधुनिक मार्शल आर्ट में विकसित हुई।

24. भगवान् श्री कृष्ण ने श्रीमद्भगवतगीता के रूप में आध्यात्मिकता की वैज्ञानिक व्याख्या दी, जो मानवता के लिए आशा का सबसे बड़ा संदेश थी, है और सदैव रहे।

बुधवार, 3 मई 2023

महादेव-पार्वती संग झूमे

                           महादेव-पार्वती संग झूमे


रावण के वध के बाद अयोध्या पति श्री राम ने राजपाट संभाल लिया था और प्रजा राम राज्य से प्रसन्न थी. एक दिन भगवान महादेव की इच्छा श्री राम से मिलने की हुई।

पार्वती जी को संग लेकर महादेव कैलाश पर्वत से अयोध्या नगरी के लिए चल पड़े. भगवान शिव और मां पार्वती को अयोध्या आया देखकर श्री सीता राम जी बहुत खुश हुए।

माता जानकी ने उनका उचित आदर सत्कार किया और स्वयं भोजन बनाने के लिए रसोई में चली गईं. भगवान शिव ने श्री राम से पूछा- हनुमान जी दिखाई नहीं पड़ रहे हैं, कहां हैं ?

श्री राम बोले- वह बगीचे में होंगे. शिव जी ने श्री राम जी से बगीचे में जाने की अनुमति मांगी और पार्वती जी के साथ बगीचे में आ गए. बगीचे की खूबसूरती देखकर उनका मन मोहित हो गया।

आम के एक घने वृक्ष के नीचे हनुमान जी दीन-दुनिया से बेखबर गहरी नींद में सोए थे और एक लय में खर्राटों से राम नाम की ध्वनि उठ रही थी. चकित होकर शिव जी और माता पार्वती एक दूसरे की ओर देखने लगे।

माता पार्वती मुस्करा उठी और वृक्ष की डालियों की ओर इशारा किया. राम नाम सुनकर पेड़ की डालियां भी झूम रही थीं. उनके बीच से भी राम नाम उच्चारित हो रहा था।

शिव जी इस राम नाम की धुन में मस्त मगन होकर खुद भी राम राम कहकर नाचने लगे. माता पार्वती जी ने भी अपने पति का अनुसरण किया. भक्ति में भरकर उनके पांव भी थिरकने लगे।

शिव जी और पार्वती जी के नृत्य से ऐसी झनकार उठी कि स्वर्गलोक के देवतागण भी आकर्षित होकर बगीचे में आ गए और राम नाम की धुन में सभी मस्त हो गए।

माता जानकी भोजन तैयार करके प्रतीक्षारत थीं परंतु संध्या घिरने तक भी अतिथि नहीं पधारे तब अपने देवर लक्ष्मण जी को बगीचे में भेजा।

लक्ष्मण जी ने तो अवतार ही लिया था श्री राम की सेवा के लिए. अतः बगीचे में आकर जब उन्होंने धरती पर स्वर्ग का नजारा देखा तो खुद भी राम नाम की धुन में झूम उठे।

महल में माता जानकी परेशान हो रही थीं कि अभी तक भोजन ग्रहण करने कोई भी क्यों नहीं आया. उन्होंने श्री राम से कहा भोजन ठंडा हो रहा है चलिए हम ही जाकर बगीचे में से सभी को बुला लाएं।

जब सीता राम जी बगीचे में गए तो वहां राम नाम की धूम मची हुई थी. हुनमान जी गहरी नींद में सोए हुए थे और उनके खर्राटों से अभी तक राम नाम निकल रहा था।

श्री सिया राम भाव विह्वल हो उठे. श्री राम जी ने हनुमान जी को नींद से जगाया और प्रेम से उनकी तरफ निहारने लगे. प्रभु को आया देख हनुमान जी शीघ्रता से उठ खड़े हुए. नृत्य का माहौल भंग हो गया।

शिव जी खुले कंठ से हनुमान जी की राम भक्ति की सराहना करने लगे. हनुमान जी सकुचाए लेकिन मन ही मन खुश हो रहे थे. श्री सीया राम जी ने भोजन करने का आग्रह भगवान शिव से किया।

सभी लोग महल में भोजन करने के लिए चल पड़े. माता जानकी भोजन परोसने लगीं. हुनमान जी को भी श्री राम जी ने पंक्ति में बैठने का आदेश दिया।

हनुमान जी बैठ तो गए परंतु आदत ऐसी थी की श्री राम के भोजन के उपरांत ही सभी भोजन करते थे।

आज श्री राम के आदेश से पहले भोजन करना पड़ रहा था. माता जानकी हनुमान जी को भोजन परोसती जा रही थी पर हनुमान का पेट ही नहीं भर रहा था. कुछ समय तक तो उन्हें भोजन परोसती रहीं फिर समझ गईं इस तरह से हनुमान जी का पेट नहीं भरने वाला।

उन्होंने तुलसी के एक पत्ते पर राम नाम लिखा और भोजन के साथ हनुमान जी को परोस दिया. तुलसी पत्र खाते ही हनुमान जी को संतुष्टि मिली और वह भोजन पूर्ण मानकर उठ खड़े हुए।

भगवान शिव शंकर ने प्रसन्न होकर हनुमान जी को आशीर्वाद दिया कि आप की राम भक्ति युगों-युगों तक याद की जाएगी और आप संकट मोचन कहलाएंगे।

( आध्यात्म रामायण की कथा )

आपको क्या नही पता!

                          आपको क्या नहीं पता!

एक जिज्ञासु किसी प्रसिद्ध संत के पास पहुंचा तथा विनती की, 'महात्मा जी ऐसा ज्ञान दीजिए जीवन सफल हो जाए। महात्मा ने पूछा ’अच्छा बताइए, क्या चोरी करना पुण्य है? जिज्ञासु बोला, कदापि नहीं महात्मा जी!

 माता पिता की सेवा करनी चाहिए?

’ जी बिल्कुल। जीव जगत के प्रति दया रखनी चाहिए?’

 जी हां । किसी से छल कपट नहीं करना चाहिए?

 ’कभी नहीं।’

 ’संकट में किसी की सहायता करनी चाहिए? जी, अवश्य करनी चाहिए। जिज्ञासु ने सभी प्रश्नों के सटीक उत्तर दिए।

 तो महात्मा जी बोले तू ही बता तुझे क्या पता नहीं! इस पृथ्वी पर निवास कर रहे सभी मनुष्य को यह सब कुछ पता है। हर कोई अच्छा बुरा समझता है। समस्या तो ज्ञान को व्यवहार में उतारने की है। जो मनुष्य ज्ञान के अनुरूप आचरण करने लगेगा, उसका जीवन सफल हो जाएगा।

।। जय जय श्री राधे।।

मंगलवार, 2 मई 2023

दान व पुण्य

 दान व पुण्य वही है जो एक हाथ से करें तो दुसरे हाथ को भी पता न हो कि दान किया है |

एक गांव मे एक बहुत गरीब सेठ रहता था जो कि किसी जमाने बहुत बड़ा धनवान था जब सेठ धनी था उस समय सेठ ने बहुत पुण्य किए,गउशाला बनवाई, गरीबों को खाना खिलाया,अनाथ आश्रम बनवाए और भी बहुत से पुण्य किए थे लेकिन जैसे जैसे समय गुजरा सेठ निर्धन हो गया 

एक समय ऐसा आया कि राजा ने ऐलान कर दिया कि यदि किसी व्यक्ति ने कोई पुण्य किए हैं तो वह अपने पुण्य बताएं और अपने पुण्य का जो भी उचित फल है ले जाए

यह बात जब सेठानी ने सुनी तो सेठानी सेठ को कहती है कि हमने तो बहुत पुण्य किए हैं तुम राजा के पास जाओ और अपने पुण्य बताकर उनका जो भी फल मिले ले आओ

सेठ इस बात के लिए सहमत हो गया और दुसरे दिन राजा के महल जाने के लिए तैयार हो गया

जब सेठ महल जाने लगा तो सेठानी ने सेठ के लिए चार रोटी बनाकर बांध दी कि रास्ते मे जब भूख लगी तो रोटी खा लेना 

सेठ राजा के महल को रवाना हो गया

गर्मी का समय दोपहर हो गई,सेठ ने सोचा सामने पानी की कुंड भी है वृक्ष की छाया भी है क्यों ना बैठकर थोड़ा आराम किया जाए व रोटी भी खा लूंगा 

सेठ वृक्ष के नीचे रोटी रखकर पानी से हाथ मुंह धोने लगा 

तभी वहां पर एक कुतिया अपने चार पांच छोटे छोटे बच्चों के साथ पहुंच गई और सेठ के सामने प्रेम से दुम हिलाने लगी क्योंकि कुतिया को सेठ के पास के अनाज की खुशबु आ रही थी 

कुतिया को देखकर सेठ को दया आई सेठ ने दो रोटी निकाल कुतिया को डाल दी अब कुतिया भूखी थी और बिना समय लगाए कुतिया दोनो रोटी खा गई और फिर से सेठ की तरफ देखने लगी 

सेठ ने सोचा कि कुतिया के चार पांच बच्चे इसका दूध भी पीते है दो रोटी से इसकी भूख नही मिट सकती और फिर सेठ ने बची हुई दोनो रोटी भी कुतिया को डाल कर पानी पीकर अपने रास्ते चल दिया

सेठ राजा के दरबार मे हाजिर हो गया और अपने किए गए पुण्य के कामों की गिनती करने लगा

और सेठ ने अपने द्वारा किए गए सभी पुण्य कर्म विस्तार पुर्वक राजा को बता दिए और अपने द्वारा किए गए पुण्य का फल देने बात कही 

तब राजा ने कहा कि आपके इन पुण्य का कोई फल नही है यदि आपने कोई और पुण्य किया है तो वह भी बताएं शायद उसका कोई फल मै आपको दे पाउं 

सेठ कुछ नही बोला और यह कहकर बापिस चल दिया कि यदि मेरे इतने पुण्य का कोई फल नही है तो और पुण्य गिनती करना बेकार है अब मुझे यहां से चलना चाहिए

जब सेठ बापिस जाने लगा तो राजा ने सेठ को आवाज लगाई कि सेठ जी आपने एक पुण्य कल भी किया था वह तो आपने बताया ही नही 

सेठ ने सोचा कि कल तो मैनें कोई पुण्य किया ही नही राजा किस पुण्य की बात कर रहा है क्योंकि सेठ भुल चुका था कि कल उसने कोई पुण्य किया था 

सेठ ने कहा कि राजा जी कल मैनें कोई पुण्य नहीं किया 

तो राजा ने सेठ को कहा कि कल तुमने एक कुतिया को चार रोटी खिलाई और तुम उस पुण्य कर्म को भूल गए

कल किए गए तेरे पुण्य के बदले तुम जो भी मांगना चाहते हो मांग लो वह तुझे मिल जाएगा

सेठ ने पुछा कि राजा जी ऐसा क्यों?

मेरे किए पिछले सभी कर्म का कोई मूल्य नही है और एक कुतिया को डाली गई चार रोटी का इनका मोल क्यों?

राजा के कहा–हे सेठ जो पुण्य करके तुमने याद रखे और गिनकर लोंगों को बता दिए वह सब बेकार है क्यों कि तेरे अन्दर मै बोल रही है कि यह मैनें किया 

तेरा सब कर्म व्यर्थ है जो तु करता है और लोगों को सुना रहा है।

जो सेवा कल तुमने रास्ते मे कुतिया को चार रोटी पुण्य करके की वह तेरी सबसे बड़ी सेवा है उसके बदले तुम मेरा सारा राज्य भी ले लो वह भी बहुत कम हैं।

इंद्रपुत्र जयंत को श्रीराम से पहले नृसिंह भगवान ने भी दिया था दंड

इंद्रपुत्र जयंत को श्रीराम से पहले नृसिंह भगवान ने भी दिया था दंड


आपने रामायण में पढ़ा होगा कि जब भगवान् श्रीराम सीता और लक्ष्मण के संग चित्रकूट में निवास कर रहे थे, तब एक दिन इंद्र का पुत्र जयंत भगवान श्रीराम के बल की परीक्षा लेने के लिए कौए का रूप धरकर आया और सीता जी के चरण में चोंच मारकर भागा। सीता जी के चरण से रक्त की धारा बहते देख भगवान् श्रीराम ने एक सींक को अभिमंत्रित कर जयंत की ओर छोड़ा। जयंत की रक्षा करने के लिए कोई भी आगे नहीं आया। अंततः नारद जी के कहने पर वह राम के पास आकर क्षमा माँगने लगा। सीताजी ने उस कौए का शीश श्रीराम के चरणों में रख करुणानिधान श्रीराम से उस दुष्ट जयंत को क्षमा करने की प्रार्थना की। अतः श्रीराम ने दया कर मात्र एक नेत्र से अँधा कर उसे छोड़ दिया।

किंतु क्या आप जानते हैं कि इंद्र का यह पुत्र अपने कुकर्मों के कारण इससे पूर्व भी नृसिंह भगवान् के हाथों दंड पा चुका था?

प्राचीन काल में अंतर्वेदी नामक नगरी में रवि नाम का एक माली रहता था। उसने अपने घर के अंदर 'वृंदावन' नाम का तुलसी का एक बगीचा लगा रखा था। उस बगीचे में उसने तुलसी के साथ-साथ मल्लिका, मालती, जाती, वकुल आदि के सुंदर वृक्ष लगाए थे, जिनके पुष्पों की सुगंध से चारों दिशाएँ सुवासित रहती थीं। रवि माली ने उस बगीचे की चारदीवारी बहुत ऊँची और चौड़ी बनवाई थी, जिससे कि कोई भी व्यक्ति, पशु-पक्षी उसके अंदर प्रवेश न कर सके।

रवि माली प्रतिदिन प्रातःकाल में अपनी पत्नी के संग पुष्प चुनकर मालाएँ बनाता था, जिनमें से कुछ मालाएँ वह सर्वप्रथम अपने इष्टदेव नृसिंह भगवान् को अर्पित करता था। इसके पश्चात कुछ मालाएँ ब्राह्मणों को दे देता था और शेष मालाएँ बेचकर वह अपने परिवार का पालन-पोषण करता था।

एक बार इंद्र का पुत्र जयंत रात्रि में स्वर्ग से पृथ्वीलोक पर घूमने आया। उसके रथ पर स्वर्ग की सुंदर अप्सराएँ भी उपस्थित थीं। रवि माली द्वारा लगाए गए बगीचे के पुष्पों की मधुर सुगंध जब जयंत और अप्सराओं की नासिका में गईं तो वे सब उस बगीचे की ओर खिंचे चले आए। उन पुष्पों की सुगंध इतनी मधुर और भीनी-भीनी थी कि जयंत ने उस बगीचे के सारे पुष्प तोड़ लिए और उन्हें लेकर चला गया। जब प्रातःकाल रवि माली अपनी पत्नी के संग बगीचे में आए तो वहाँ एक भी पुष्प न देखकर चकित और दुःखी हुए। वे सोचने लगे कि हाय! आज अपने नृसिंह भगवान् और ब्राह्मणों को पुष्प अर्पित करने के नियम को कैसे पूर्ण करूँगा।

इधर जयंत का लोभ और दुष्टता बढ़ती ही गई। अब वह प्रतिदिन रात्रि में अप्सराओं के संग उस बगीचे में आता और सारे पुष्प चोरी कर चला जाता। जब पुष्प प्रतिदिन चोरी होने लगे तो माली अत्यंत चिंतित हुआ और उसने इस रहस्य का पता लगाने के लिए रात्रि भर बगीचे में ही रखवाली करने का निश्चय किया।

रात्रि होने पर जयंत प्रतिदिन की भाँति आया और पुष्प लेकर रथ पर बैठकर अप्सराओं के संग हास्य-विनोद करता हुआ चला गया। यह देखकर रवि माली अत्यंत दुःखी हुआ और नृसिंह भगवान् से बगीचे की रक्षा करने की प्रार्थना करते हुए सो गया।

अपने भक्त की व्यथा देखकर नृसिंह भगवान् ने स्वप्न में उसे दर्शन देते हुआ कहा, "पुत्र! तुम बगीचे के समीप मेरा निर्माल्य लाकर छिड़क दो।"

रवि माली स्वप्न टूटते ही चकित और आनंदित होकर उठ बैठा। उसने अपने इष्टदेव की आज्ञा के अनुसार बगीचे में निर्माल्य छिड़क दिया। अगली रात्रि को जयंत आया और रथ से उतरकर पुष्प तोड़ने लगा। अचानक उसने नृसिंह भगवान् के निर्माल्य को लाँघ दिया। जब वह बगीचे के सारे पुष्प बटोरकर रथ की ओर बढ़ा, तो वह रथ पर चढ़ नहीं पाया। जयंत अत्यंत चकित हुआ। तब बुद्धिमान सारथि ने उसे बताया कि नृसिंह भगवान् के निर्माल्य को लाँघने के कारण उसकी रथ पर चढ़ने की शक्ति लुप्त हो गई है। ऐसा कहकर वह रथ चलाने लगा। जयंत ने गिड़गिड़ाते हुए सारथि से इस पाप के निवारण का उपाय पूछा। सारथि ने कहा कि यदि वह कुरुक्षेत्र में सरस्वती नदी के तट पर 12 वर्ष से चल रहे तथा कुछ दिन में समाप्त होने वाले परशुराम जी के यज्ञ में प्रतिदिन ब्राह्मणों की जूठन साफ करे तो उसे उसके पाप से मुक्ति मिल सकती है। ऐसा कहकर सारथि अप्सराओं के संग रथ लेकर चला गया।

जयंत को अपनी दुष्टता पर अत्यंत पश्चाताप हुआ। वह कुरुक्षेत्र में सरस्वती नदी के तट पर आया और वहाँ यज्ञभूमि में ब्राह्मणों की जूठन साफ करने लगा। 12वाँ वर्ष पूरा होने पर ब्राह्मणों ने संदेहयुक्त होकर जयंत से उनकी जूठन साफ करने किंतु यज्ञ में भोजन न करने का कारण पूछा। तब जयंत को अपनी दुष्टता की सारी घटना सत्य-सत्य उन्हें बतानी पड़ी। इस प्रकार ब्राह्मणों की जूठन साफ करने और उनके समक्ष अपने पाप का कथन करने से जयंत के पाप की निवृत्ति हो गई। वह रथ पर चढ़कर स्वर्गलोक चला गया। यह कथा नृसिंह पुराण के 28वें अध्याय से ली गई है।

।।जय सियाराम।।

प्रभु का स्मरण किसी भी तरह लिया जाए शुभ ही होता है।

प्रभु का स्मरण किसी भी तरह लिया जाए शुभ ही होता है।



एक बार गौ लोक धाम में कृष्णप्रिया श्री राधा रानी जी ने श्री गोविन्द से पुछा..

हे माधव !!! कंस आपका सगा मामा होते हुए भी आपके माता पिता को घोर पीड़ा देता था और  निरंतर आपका अपमान करता था l आपका संतों का उपहास करता था l 

आपको मार देने के कई बार प्रयास करता रहा l

कभी किसी को भेजता कभी किसी को, हत्या के प्रयत्न करता रहता था l

फिर भी उस महापापी के ऐसे कौन से पुण्य थे की उसे आपके हाथों मृत्यु यानि परम मोक्ष प्राप्त हुआ..... ??


य़ह सुनकर मोहन ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया कि राधे!!! कंस कुछ भी करता, कुछ सोचता तो मेरे ही बारे में चाहे द्वेष और क्रोध अथवा भय के कारण,,,,,, परन्तु मेरा स्मरण उसे हर पल रहता था, और जो व्यक्ति हर समय मेरा सुमिरण करेगा उसे में मोक्ष ही दूंगा चाहे वो मेरा विरोधी ही क्यों न हो।

इसलिए श्रीमद्भगवत के अंत में एक सबसे मत्वपूर्ण श्लोक आता है।,,,,,


नाम संकीर्तनं यस्य सर्व पाप प्रणाशनम् ।

प्रणामो दुःख शमनः तं नमामि हरिं परम्॥


(मैं उन 'हरि' को प्रणाम करता हूँ जिनका नाम संकीर्तन सभी पापों को समाप्त करता है और जिन्हें प्रणाम करने मात्र से सारे दुःखों का नाश हो जाता है। )


 श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारी 

  हे नाथ नारायण वासुदेवा  



सोमवार, 1 मई 2023

रुद्राष्टकम : हिंदी भावार्थ के साथ

                      रुद्राष्टकम : हिंदी भावार्थ के साथ



     नमामीशमीशान निर्वाणरूपं

      विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम

      निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं

      चिदाकाशमाकाशवासं भजेहम


हे भगवन ईशान को मेरा प्रणाम ऐसे भगवान जो कि निर्वाण रूप हैं जो कि महान ॐ के दाता हैं जो सम्पूर्ण ब्रह्मान्द में व्यापत हैं जो अपने आपको धारण किये हुए हैं जिनके सामने गुण अवगुण का कोई महत्व नहीं, जिनका कोई विकल्प नहीं, जो निष्पक्ष हैं जिनका आकार आकाश के सामान हैं जिसे मापा नहीं जा सकता, उनकी मैं उपासना करता हूँ |


      निराकारमोङ्करमूल* तुरीयं

      गिराज्ञानगोतीतमीशं* गिरीशम् ।

      करालं महाकालकालं कृपालं

     गुणागारसंसारपारं* नतोहम


जिनका कोई आकार नहीं, जो ॐ के मूल हैं, जिनका कोई राज्य नहीं, जो गिरी यानि पर्वत के वासी हैं, जो कि सभी ज्ञान, शब्द से परे हैं, जो कि कैलाश के स्वामी हैं, जिनका रूप भयावह हैं, जो कि काल के स्वामी हैं, जो उदार एवम् दयालु हैं, जो गुणों का खजाना हैं, जो पूरे संसार के परे हैं उनके सामने मैं नत्मस्तक हूँ।


      तुषाराद्रिसंकाशगौरं गभिरं

      मनोभूतकोटिप्रभाश्री शरीरम् ।

      स्फुरन्मौलिकल्लोलिनी चारुगङ्गा

      लसद्भालबालेन्दु कण्ठे भुजङ्गा


जो कि बर्फ के समान शील हैं, जिनका मुख सुंदर हैं, जो गौर रंग के हैं जो गहन चिंतन में हैं, जो सभी प्राणियों के मन में हैं, जिनका वैभव अपार हैं, जिनकी देह सुंदर हैं, जिनके मस्तक पर तेज हैं जिनकी जटाओ में लहलहाती गंगा हैं, जिनके चमकते हुए मस्तक पर चाँद हैं, और जिनके कंठ पर सर्प का वास हैं |


      चलत्कुण्डलं भ्रूसुनेत्रं विशालं

      प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम् ।

      मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं

     प्रियं शङ्करं सर्वनाथं भजामि


जिनके कानों में बालियाँ हैं, जिनकी सुन्दर भोहे और बड़ी-बड़ी आँखे हैं, जिनके चेहरे पर सुख का भाव हैं, जिनके कंठ में विष का वास हैं, जो दयालु हैं, जिनके वस्त्र शेर की खाल हैं, जिनके गले में मुंड की माला हैं, ऐसे प्रिय शंकर पूरे संसार के नाथ हैं उनको मैं पूजता हूँ |


      प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं

      अखण्डं अजं भानुकोटिप्रकाशं ।

      त्र्यःशूलनिर्मूलनं शूलपाणिं

      भजेहं भवानीपतिं भावगम्यम

जो भयंकर हैं, जो परिपक्व साहसी हैं, जो श्रेष्ठ हैं अखंड है जो अजन्मे हैं जो सहस्त्र सूर्य के सामान प्रकाशवान हैं जिनके पास त्रिशूल हैं जिनका कोई मूल नहीं हैं जिनमे किसी भी मूल का नाश करने की शक्ति हैं, ऐसे त्रिशूल धारी, माँ भगवती के पति जो प्रेम से जीते जा सकते हैं, उन्हें मैं वन्दन करता हूँ |

      कलातीतकल्याण कल्पान्तकारी

      सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी ।

      चिदानन्दसंदोह मोहापहारी

      प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी

जो काल के बंधे नहीं हैं, जो कल्याणकारी हैं, जो विनाशक भी हैं,जो हमेशा आशीर्वाद देते है और धर्म का साथ देते हैं , जो अधर्मी का नाश करते हैं, जो चित्त का आनंद हैं, जो जूनून हैं जो मुझसे खुश रहे ऐसे भगवान जो कामदेव नाशी हैं उन्हें मेरा प्रणाम |

      न यावद्उ मानाथपादारविन्दं

      भजन्तीह लोके परे वा नराणाम।

     न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं

      प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं

जो यथावत नहीं हैं, ऐसे उमा पति के चरणों में कमल वन्दन करता हूं ऐसे भगवान को पूरे लोक के नर नारी पूजते हैं, जो सुख हैं, शांति हैं, जो सारे दुखो का नाश करते हैं जो सभी जगह वास करते हैं |

      न जानामि योगं जपं नैव पूजां

      नतोहं सदा सर्वदा शम्भुतुभ्यम्।

      जराजन्मदुःखौघ तातप्यमानंॐ 

      प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो

मैं कुछ नहीं जानता, ना योग , ना ध्यान,  देव के सामने मेरा मस्तक झुकता हैं, सभी संसारिक कष्टों, दुःख दर्द से मेरी रक्षा करे. मेरी बुढ़ापे के कष्टों से से रक्षा करें | मैं सदा ऐसे शिव शम्भु को प्रणाम करता हूँ |

।।ॐ नमः शिवाय ।।

दादा गुरु भक्तमाली जी को जब लड्डू गोपाल जी

                दादा गुरु भक्तमालीजी को जब लड्डू गोपाल जी ने दर्शन दिए



         पण्ड़ित श्री जगन्नाथ प्रसाद जी 'भक्तमाली' के भक्तिभाव के कारण वृंदावन के सभी संत उनसे बहुत प्रभावित थे और उनके ऊपर कृपा रखते थे। सन्तों की कौन कहे स्वयं 'श्रीकृष्ण' उनसे आकृष्ट होकर जब तब किसी न किसी छल से उनके ऊपर कृपा कर जाया करते थे।

        एक बार श्री जगन्नाथ प्रसाद जी 'भक्तमाली' अपने घर में बैठे हारमोनियम पर भजन गा रहे थे। उसी समय एक बहुत ही सुन्दर बालक आकर उनके सामने बैठ गया, और तन्मय होकर भजन सुनने लगा।

 'भक्तमाली' जी ने बालक का श्रृंगार देखकर समझा कि वह किसी रासमण्डली का बालक है जो उनके भजन से आकृष्ट होकर चला आया है। भक्तमाली जी ने भजन समाप्त करने के बाद बालक से पूछा -"बेटा तुम कहाँ रहते हो ?" 

बालक ने कहा - "अक्रूर घाट पर भतरोड़ मन्दिर में रहता हूँ।" 

भक्तमाली जी - "तुम्हारा नाम क्या है ?" 

बालक - "लड्डू गोपाल।"

 'भक्तमाली' जी - "तो तुम लड्डू खाओगे या पेड़ा खाओगे ?" 

उस समय 'भक्तमाली' जी के पास लड्डू नहीं पेड़े ही थे। इसलिए उन्होंने प्रकार पूछा। 

बालक ने भी हँसकर कहा - "बाबा मैं तो पेड़ा खाऊँगा।" 

भक्तमाली जी ने बालक को पेडे लाकर दिये। वह बालक पेडे खाता हुआ और भक्तमाली जी की ओर हँसकर देखता हुआ चला गया। 

पर 'ठाकुर' जी बालक के रूप मे जाते-जाते अपनी जादू भरी मुस्कान और चितवन की अपूर्व छवि 'भक्तमाली' जी के ह्रदय पर अंकित कर गये।

अब उस बालक की वह छवि 'भक्तमाली' जी को सारा दिन और सारी रात व्यग्र किये रही। भक्तमाली जी के मन मे तरह तरह के विचार उठते रहे। "ऐसा सुंदर बालक तो मैंने आज तक कभी नहीं देखा। वह रासमण्डली का बालक ही था या कोई और ? 

घर मे ऐसे आकर बैठ गया जैसे यह घर उसी का हो कोई भय नहीं संकोच नहीं। छोटा सा बालक भजन तो ऐसे तन्मय होकर सुन रहा था जैसे उसे भजन मे न जाने कितना रस मिल रहा हो। नहीं-नहीं वह कोई साधारण बालक नहीं हो सकता। कहीं वह स्वयं 'भक्तवत्सल भगवान' ही तो नहीं थे जो नारद जी के प्रति कहे गये अपने इन वचनों को चरितार्थ करने आये थे :-

                                    

               नाहं तिष्ठामि  वैकुंठे  योगिनां  हृदयेषु वा। 

               तत्र तिष्ठामी नारद यत्र गायन्ति मद्भक्ताः।।

                                                       (पद्मपुराण)

         "हे नारद ! न तो मैं अपने निवास वैकुंठ में रहता हूँ, न योगियों के ह्रदय में रहता हूँ। मैं तो उस स्थान में वास करता हूँ जहाँ मेरे भक्त मेरे पवित्र नाम का कीर्तन करते हैं और मेरे रूप, लीलाओं और गुणों की चर्चा चलाते हैं।"                                   

जो भी हो वह बालक अपना नाम और पता तो बता ही गया है कल उसकी खोज करनी होगी।"

 'भक्तमाली' जी बालक के विषय मे तरह-तरह के विचार करते हुए सो गये।

        श्री जगन्नाथ प्रसाद जी 'भक्तमाली' दूसरे दिन प्रातः होते ही भतरोड़ में अक्रुर मन्दिर पहुँचे। 'भक्तमाली' जी ने वहाँ सेवारत पुजारी जी से पूछा - "क्या यहाँ लड्डू गोपाल नाम का कोई बालक रहता हैं ?" 

पुजारी जी ने कहा - 'लड्डू गोपाल तो हमारे मन्दिर के ठाकुर जी का नाम है। और यहाँ कोई बालक नहीं रहता।' 

यह सुनते ही भक्तमाल जी सिहर उठे, उनके नेत्र डबडबा आये। 

अपने आँसू पोंछते हुए उन्होंने पुजारी जी से कहा - "कल एक बहुत खूबसूरत बालक मेरे पास आया था। उस बालक ने अपना नाम लड्डू गोपाल बताया था और निवास-स्थान अक्रुर मन्दिर। मैंने उसे पेड़े खाने को दिये थे, पेड़े खाकर वह बहुत प्रसन्न हुआ था। पुजारी जी कहीं आपके ठाकुर जी ने ही तो यह लीला नहीं की थी ?"

 पुजारी जी ने कहा - "भक्तमाली जी ! आप धन्य हैं। हमारे ठाकुर ने ही आप पर कृपा की, इसमें कोई सन्देह नहीं है। हमारे ठाकुर जी को पेड़े बहुत प्रिय हैं। कई दिन से मैं बाजार नहीं जा पाया था, इसलिए पेड़ों का भोग नहीं लगा सका था।"

 भक्तमाली जी ने मन्दिर के भीतर जाकर लड्डू गोपाल जी के दिव्य श्री विगृह के दर्शन किये।

 दण्डवत् प्रणाम् कर प्रार्थना की - "हे ठाकुर जी इसी प्रकार अपनी कृपा बनाये रखना, बार-बार इसी आकर दर्शन देते रहना।" 

         पता नहीं भक्तमाली जी को फिर कभी लड्डू गोपाल ने उसी रूप में उन पर कृपा की या नहीं, लेकिन एक बार भक्तमाली जी अयोध्या गये थे। देर रात्रि में अयोध्या पहुँचे थे, इसलिए स्टेशन के बाहर खुले मे सो गये। प्रातः उठते ही किसी आवश्यक कार्य के लिए कहीं जाना था, पर सबेरा हो आया था उनकी नींद नहीं खुल रहीं थी। लड्डू गोपाल जैसा ही एक सुन्दर बालक आया और उनके तलुओं में गुलगुली मचाते हुए बोला - "बाबा उठो सबेरा हो गया जाना नहीं है क्या ?" भक्तमाली जी हड़बड़ा कर उठे, उस बालक की एक ही झलक देख पाये थे कि वह बालक अदृश्य हो गया।

।।श्री राधे।।

रसखान जी कन्हैया के भक्त

                      रसखान जी कन्हैया के भक्त



एक मुसलमान था जो रोज पान की दुकान पर पान खाने जाता था। एक दिन उसकी नजर वहां लगी हुई कन्हैया की तस्वीर पर पड़ी तो उसने पान वाले से पूछा भाई ये बालक किसका है और इसका क्या नाम है। पान वाला बोला ये श्याम है । खान साहब बोले ये बालक बहुत सुंदर है घुंघराले बाल हैं हाथ में मुरली भी मनोहर लगती है मगर ये जिस जमीन पर खड़ा है वो खुरदरी है इसके पैरों में छाले पड़ जायेंगे, इसको चप्पल क्यों नहीं पहनाते हो। पान वाला बोला तुझे दया आ रही है तो तू ही पहनादे। अब ये बात खान भाई के दिल में उतर गई और दूसरे दिन कन्हैया के लिए चप्पल खरीदकर ले आया और बोला लो भाई में चप्पल ले आया बुलाओ बालक को। पान वाला बोला कि ये बालक यहां नहीं रहता है ये वृंदावन रहता है वृंदावन ही जाओ। खान साहब ने पूछा की इसका पता तो बताओ कि वृंदावन में कहां रहता है पान वाला बोला इसका नाम श्याम है और वृंदावन के बांके बिहारी मंदिर में रहता है। खान साहब वृंदावन के लिए चल दिए वृंदावन में बांके बिहारी मंदिर में जैसे ही प्रवेश करने लगा तो मंदिर के पुजारी ने बाहर ही रोक दिया और कहा कि तुम दूसरे समाज के हो इसलिए मंदिर में तुम्हारा प्रवेश करना वर्जित है। खान भाई यह सोचकर कि मेरा श्याम कभी तो घर से बाहर आयेगा मंदिर के गेट पर ही बैठकर इंतजार करने लग गया। उसे इंतजार करते-करते पूरा दिन निकल गया रात भी निकल गई भोर का समय था तो उसके कानों में घुंघरू ओं की आवाज आई उसने खड़ा होकर चारों तरफ देखा कुछ दिखाई नहीं दिया फिर उसने अपने चरणों की तरफ देखा तो श्याम उसके चरणों में बैठा हुआ दिखता है श्याम को देखकर खान भाई की खुशी का ठिकाना नहीं रहा मगर उसे बहुत दुःख हुआ जब कन्हैया के चरणों से खून निकलता हुआ देखा। खान भाई नें कन्हैया को गोद में उठाकर प्यार से उसके चरणों से खून पूंछते हुए पूछा बेटे तेरा क्या नाम है कन्हैया बोला श्याम, खान भाई बोला तुम तो मंदिर से आये हो फिर ये खून क्यों निकल रहे हैं। कन्हैया बोला नहीं मैं मंदिर से नहीं गोकुल से पैदल चलकर आया हूं क्योंकि तुमने मेरी जैसी मूरत दिल में बसाई में उसी मूरत में तुम्हारे पास आया हूं इसलिए मुझे गोकुल से पैदल आना पड़ा है और पैरों में कांटे लग गये है। खान भाई भगवान को पहचान गया और वादा किया कि हे कन्हैया हे मेरे मालिक में तेरा हूं और तेरे गुण गाया करुंगा और तेरे ही पद लिखा करुंगा इस तरह एक मुसलमान खान भाई से रसखान बनकर भगवान का पक्का भक्त बना। 

।।जय श्री राधे कृष्णा।।

शुभ-अशुभ शकुन विचार कौन से होते है

                       श्री तुलसी दास जी के अनुसार शुभ-अशुभ शकुन विचार -



बाबा तुलसीदास जी ने भी रामचरितमानस में राम विवाह के समय कुछ शुभसंकेत बतायें है,

हम मनुष्यों के जीवन में नित्य ऐसी बहुत सी घटनाएँ होती है जो हम पर अपना व्यापक प्रभाव डालती है । हम सभी अपने किसी भी अच्छे कार्य के लिए निकलते समय जो शुभ-अशुभ संकेत होते हैं अथवा घटनाएँ घटती है, उससे अपने कार्य की सफलता-असफलता का पूर्व अनुमान लगा सकते है ।

यदि शुभ शकुन है तो बहुत ही अच्छा है लेकिन यदि अशुभ शकुन लगे तो उसका त्वरित आसान उपाय कर सकते है जिससे हमें निर्विवाद रूप से अपने कार्य में सफलता प्राप्त हो सके।

शकुन हमारे भविष्य में होने वाली घटना का संकेत देते हैं। प्राचीन काल से ही इनकी बहुत ही मान्यता रही है । बहुत से लोग इन शकुनों को अंधविश्वास मानते हैं लेकिन अधिकतर लोग इन शकुनों की उपेक्षा बिलकुल भी नहीं करते है । हम सभी मनुष्य कभी-कभी किसी ना किसी रूप में इन शकुनों को अवश्य ही मानते है।

शकुनों का इतिहास मनुष्य जाति जितने ही प्राचीन है । भारत में ही नहीं अपितु पुरे विश्व भर में ये शकुन प्रचलित हैं।

शकुन का उल्लेख्य हमारे वेदों, पुराणों व बहुत से धार्मिक ग्रंथों में भी मिलता है। ज्योतिष शास्त्र में भी शकुनों पर विशेष विचार किया जाता है। ज्योतिष शास्त्र के संहिता विभाग में शुभाशुभ शकुनों का विस्तृत वर्णन मिलता है |


बृहत संहिता में शाकुनाध्याय में लिखा है –

 अन्य जन्मांतर कृतं कर्म पुंसां शुभाशुभं 

 यत्तस्य शकुन: पाकं निवेदयति गच्छ्ताम ||

 अर्थात मनुष्य ने अपने पूर्व जन्म में जो भी शुभाशुभ कर्म किये हैं शकुन उनके शुभाशुभ फल को दर्शाते है | यहाँ पर हम आपको कुछ शुभ – अशुभ शकुन और उनके फल बता रहे है


शुभ शकुन-

1. प्रातः काल जागते ही यदि शंख, घंटा, भक्ति संगीत आदि का स्वर सुनाई दे तो अत्यंत शुभ होता है।आपका पूरा दिन हर्षपूर्ण बीतेगा।

2. यदि जागने पर सबसे पहले दही या दूध से भरे पात्र पर निगाह पड़े तो भी शुभ समझा जाता है।

3. यदि सुबह सुबहघर में कोई भिखारी माँगने आ जाए तो यह समझिये कि आपका फंसा हुआ या उधार दिया हुआ धन आपको शीघ्र ही वापस मिलेगा ।

4. यदि घर से किसी कार्य से बाहर जाते हुए तो आपके सामने सुहागन स्त्री अथवा गाय आ जाए तो कार्य में पूर्ण सफलता मिले का योग बनता है ।

5. किसी कार्य से जाते हुए आपके सामने कोई व्यक्ति गुड़ ले जाता हुआ दिखे तो बहुत अधिक लाभ होता है।

6. यदि रास्ते में कोई प्राणी सुन्दर फूल या हरी घास लेकर जाता मिले या आपको किसी दुकान में यह नज़र आ जाये तो बहुत शुभ होता है ।

7. यदि जाते समय मार्ग में कोई भी स्त्री/पुरुष दूध या पानी से भरा बर्तन लेकर दिख जाये तो यह बहुत ही शुभ शकुन होता है ।

8. यात्रा में जाते समय यदि प्रभु की आरती ,भजन आदि सुनाई दे तो यह बहुत ही शुभ माना जाता है , आपकी यात्रा के सफल होने के पुरे योग है ।

9. यदि मार्ग में हसंता खेलता हुआ बालक और फल फूल बेचने वाला कोई नज़र आ जाये तो आपको निसंदेह लाभ की प्राप्ति होगी ।

10. किसी भी कार्य के लिए जाते समय जब आप कपड़े पहने और आपकी जेब से पैसे गिर जाएँ तो यह धन प्राप्ति का संकेत है। और यदि कपड़े उतारते समय भी ऐसा ही हो तो भी यह शुभ शकुन होता है।

11. यदि आपके शरीर पर चिड़िया बीट कर दे तो यह समझिये की आपकी दरिद्रता दूर होने वाली है। ये बहुत ही शुभ शकुन हैं ।

12. यदि घर से बाहर निकलते ही आप वर्षा से भीग जाएँ तो यह बहुत ही शुभ शकुन है।

13. यदि घर से बाहर किसी भी कार्य के लिए जाते समय आपको राह में साधू,सन्यासी आदि दिखाई पद जाएँ तो यह भी आपकी यात्रा के लिए अति शुभ शकुन होता है ।

14. ब्राह्मण, घोड़ा, हाथी, नेवला , बाज, मोर, दूध, दही, फल, फूल, कमल, भक्ति संगीत, अन्न, जल से भरा कलश, बंधा हुआ एक पशु, मछली, प्रज्वलित अग्नि, छाता, वैश्या, कोई भी शस्त्र, कोई भी रत्न, स्त्री, कन्या, धुले हुए वस्त्र सहित धोबी, घी, मिट्टी, सरसों, गन्ना, शव यात्रा, पालकी, ध्वजा, बकरा, अपना प्रिय मित्र, बच्चे के सहित स्त्री, गाय बछड़ा सहित, सफेद बैल, साधु, कल्पवृक्ष, शहद, शराब, या कूड़े से भरी टोकरी,सामान से लदा वाहन यदि यात्रा के वक्त यह कुछ भी राह में पड़ जाए तो निश्चय ही आपको सफलता प्राप्त होगी।

बाबा तुलसीदासजी ने भी रामचरितमानस में राम विवाह के समय कुछ शुभसंकेत बतायें हैं-

बनइ न बरनत बनी बराता।

होहिं सगुन सुंदर सुभदाता॥

चारा चाषु बाम दिसि लेई।

मनहुँ सकल मंगल कहि देई॥

भावार्थ:-बारात ऐसी बनी है कि उसका वर्णन करते नहीं बनता। सुंदर शुभदायक शकुन हो रहे हैं। नीलकंठ पक्षी बाईं ओर चारा ले रहा है, मानो सम्पूर्ण मंगलों की सूचना दे रहा हो॥।

दाहिन काग सुखेत सुहावा।

नकुल दरसु सब काहूँ पावा॥

सानुकूल बह त्रिबिध बयारी।

सघट सबाल आव बर नारी॥

भावार्थ:-दाहिनी ओर कौआ सुंदर खेत में शोभा पा रहा है। नेवले का दर्शन भी सब किसी ने पाया। तीनों प्रकार की (शीतल, मंद, सुगंधित) हवा अनुकूल दिशा में चल रही है। श्रेष्ठ (सुहागिनी) स्त्रियाँ भरे हुए घड़े और गोद में बालक लिए आ रही हैं॥

लोवा फिरि फिरि दरसु देखावा।

सुरभी सनमुख सिसुहि पिआवा॥

मृगमाला फिरि दाहिनि आई।

मंगल गन जनु दीन्हि देखाई॥

भावार्थ:-लोमड़ी फिर-फिरकर (बार-बार) दिखाई दे जाती है। गायें सामने खड़ी बछड़ों को दूध पिलाती हैं। हरिनों की टोली (बाईं ओर से) घूमकर दाहिनी ओर को आई, मानो सभी मंगलों का समूह दिखाई दिया॥

छेमकरी कह छेम बिसेषी।

स्यामा बाम सुतरु पर देखी॥

सनमुख आयउ दधि अरु मीना।

कर पुस्तक दुइ बिप्र प्रबीना॥

भावार्थ:-क्षेमकरी (सफेद सिरवाली चील) विशेष रूप से क्षेम (कल्याण) कह रही है। श्यामा बाईं ओर सुंदर पेड़ पर दिखाई पड़ी। दही, मछली और दो विद्वान ब्राह्मण हाथ में पुस्तक लिए हुए सामने आए॥

।।जय श्री राधे।।


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