/ "ईश्वर के साथ हमारा संबंध: सरल ज्ञान और अनुभव: अगस्त 2019

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सोमवार, 19 अगस्त 2019

जिसे आप हर ढूंढ रहे हो वह तो आपके अंदर है।

            *कस्तूरी कूंडल बसे**मृग ढूढें वन माहीं*

एक बहुत बड़े महानगर में एक भिक्षु मर गया था। वह जिस जमीन पर तीस वर्षों से भीख मांगता रहा बैठ कर, जहां उसने अपने गंदे चीथड़े फैला रखे थे, और तीस वर्षों की गंदगी फैला रखी थी।

वह मर गया, तो पड़ोस के लोगों ने उसकी लाश को तो फिंकवा दिया। और चूंकि उस भिखारी ने तीस वर्षों तक गंदगी की थी उस जमीन पर, उन्होंने सोचा, इसे थोड़ा खोद कर जरा इसकी जमीन साफ करवा दें।

वे हैरान रह गए।
जहां उन्होंने खोदा वहां खजाने गड़े थे। और वह भिखारी उन्हीं के ऊपर बैठ कर जीवन भर भिक्षा का पात्र फैलाए बैठा रहा और भीख मांगता रहा।

क्या अर्थ था उस खजाने का जो नीचे गड़ा था? कोई भी नहीं। वह न होने के बराबर था। वह भिखारी और हममें बहुत भेद नहीं।

जिस जमीन पर हम खड़े हैं वहीं बहुत कुछ गड़ा है। जहां हम हैं वहां बहुत कुछ है। ऐसे खजाने हैं जिन्हें पाकर आदमी परम आनंद को उपलब्ध हो जाता है। ऐसा सौंदर्य है, ऐसा सत्य है, ऐसा संगीत है कि जिसमें डूब कर जीवन का अर्थ उपलब्ध हो जाता है।

लेकिन उस तरफ आंख उठनी चाहिए।लेकिन उसके होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। वह दिखाई पड़ना चाहिए,मगर वह दिखाई नहीं पड़ता,अगर वह दिखाई नही पड़ता, तो हम  भिखमंगे भीख मांगे चले जाएंगे और हम भीख मांगते हुए समाप्त भी हो सकते हैं।

लेकिन उस तरफ आंख तभी उठ सकती है, जब बाहर की तरफ से आंख का धोखा टूट जाए, उसके पहले उसकी तरफ आंख नहीं उठ सकती।

कौन सी चीज है जो रोके हुए है उस तरफ आंख उठने से? कौन सी बात है जो अटकाए हुए है?

एक बात, और केवल एक ही बात, और वह यह कि शायद यह आशा कि बाहर मैं कुछ पा लूं--संपत्ति, शक्ति, पद, वैभव--कुछ पा लूं बाहर तो तृप्ति हो जाएगी मेरी। यह आशा और यह भ्रम भीतर आंख नहीं उठने देता।

चौबीस घंटे, चौबीस घंटे आंख अटकी रहती है कहीं बाहर। फिर यह आंख बाहर भटकते-भटकते परेशान हो जाती है, थक जाती है, बुढ़ापा आ जाता है।

तो हम देखते हैं बूढ़े आदमियों को मंदिरों में जाते, संन्यासियों की बातें सुनते, शास्त्र पढ़ते। थक जाती है आंख, बाहर से ऊब जाती है, परेशान हो जाती है, तो फिर हम सोचते हैं अब धर्म की शरण, क्योंकि मौत आती है करीब और वह जीवन तो हमने गंवा दिया।

लेकिन तब भी हम बाहर ही खोजते हैं। जीवन भर की गलत आदत पीछा नहीं छोड़ती। तब भी हम किसी मंदिर में खोजते हैं जो बाहर है। और किसी गुरु के चरणों में खोजते हैं, वह भी बाहर है। और किसी शास्त्र में खोजते हैं, वह भी बाहर है। और हिमालय पर चले जाएं और संन्यासी हो जाएं, वह सब होना बाहर है।

वह जीवन भर की जो गलत आदत थी बाहर खोजने की, यद्यपि यह दिखाई पड़ गया कि बाहर नहीं मिलता,

लेकिन फिर भी धर्म के नाम पर भी हम बाहर ही खोजते हैं। पहला भ्रम टूट जाता है तो दूसरा भ्रम उसकी जगह खड़ा हो जाता है।
सवाल यह नहीं है कि बाहर आप धन खोजते हैं, अगर आप धर्म भी बाहर खोजते हैं तो बात वही है, कोई फर्क न हुआ।

सवाल यह नहीं है कि बाहर आप शक्ति खोजते हैं, पद खोजते हैं, राज्य खोजते हैं, अगर ईश्वर को भी बाहर खोजते हैं कोई फर्क न हुआ, बात वहीं की वहीं है।

जो बाहर खोजता है उसकी आंख भीतर नहीं पहुंच पाती, फिर चाहे बाहर वह कुछ भी खोजता हो। एक संन्यासी मोक्ष खोज रहा है कि मरने के बाद मोक्ष चला जाएगा, बाहर खोज रहा है।

एक आदमी परमात्मा को खोज रहा है जगह-जगह, जगह-जगह, बाहर खोज रहा है। बाहर की खोज संसार है। फिर चाहे वह खोज किसी भी चीज की क्यों न हो। भीतर की खोज धर्म है।
भीतर क्या खोजेंगे? भीतर का तो हमें कोई पता ही नहीं, खोजेंगे क्या? ईश्वर को खोजेंगे? धन को खोजेंगे? क्या खोजेंगे भीतर? भीतर तो unknown है, अज्ञात है, क्या खोजेंगे? भीतर का हमें कोई पता नहीं, इसलिए हम क्या खोजेंगे?

बस एक ही बात हो सकती है, बाहर की खोज व्यर्थ दिखाई पड़ जाए तो बाहर से आंख अपने आप भीतर लौटनी शुरू हो जाएगी। जहां हमें सार्थकता दिखाई पड़ती है वहां हमारी आंख अटकी रहती है। वहीं हमारी आंख लगी रहती है जहां हमें अर्थ दिखाई पड़ता है, मीनिंग दिखाई पड़ता है। अगर वह मीनिंग दिखाई पड़ना बंद हो जाए कि वहां नहीं है अर्थ, आंख बदल जाएगी, फौरन बदल जाएगी। जहां हमें दिखाई पड़ता है कि अर्थ है वहीं हम बंधे रह जाते हैं।

-ओशो

मंगलवार, 6 अगस्त 2019

सन्तान के रूप में कौन आता है?

                            कर्म - भोग


 पूर्व जन्मों के कर्मों से ही हमें इस जन्म में माता - पिता , भाई - बहन , पति - पत्नि , प्रेमी - प्रेमिका , मित्र - शत्रु , सगे - सम्बन्धी इत्यादि संसार के जितने भी रिश्ते नाते हैं , सब मिलते हैं । क्योंकि इन सबको हमें या तो कुछ देना होता है या इनसे कुछ लेना होता है ।

                 *सन्तान के रुप में कौन आता है ?*

 वेसे ही सन्तान के रुप में हमारा कोई पूर्वजन्म का 'सम्बन्धी' ही आकर जन्म लेता है । जिसे शास्त्रों में चार प्रकार से बताया गया है --

  *ऋणानुबन्ध  :-* पूर्व जन्म का कोई ऐसा जीव जिससे आपने ऋण लिया हो या उसका किसी भी प्रकार से धन नष्ट किया हो , वह आपके घर में सन्तान बनकर जन्म लेगा और आपका धन बीमारी में या व्यर्थ के कार्यों में तब तक नष्ट करेगा , जब तक उसका हिसाब पूरा ना हो जाये ।

 *शत्रु पुत्र  :-* पूर्व जन्म का कोई दुश्मन आपसे बदला लेने के लिये आपके घर में सन्तान बनकर आयेगा और बड़ा होने पर माता - पिता से मारपीट , झगड़ा या उन्हें सारी जिन्दगी किसी भी प्रकार से सताता ही रहेगा । हमेशा कड़वा बोलकर उनकी बेइज्जती करेगा व उन्हें दुःखी रखकर खुश होगा ।

*उदासीन पुत्र  :-* इस प्रकार की सन्तान ना तो माता - पिता की सेवा करती है और ना ही कोई सुख देती है । बस , उनको उनके हाल पर मरने के लिए छोड़ देती है । विवाह होने पर यह माता - पिता से अलग हो जाते हैं ।

 *सेवक पुत्र  :-* पूर्व जन्म में यदि आपने किसी की खूब सेवा की है तो वह अपनी की हुई सेवा का ऋण उतारने के लिए आपका पुत्र या पुत्री बनकर आता है और आपकी सेवा करता है । जो  बोया है , वही तो काटोगे । अपने माँ - बाप की सेवा की है तो ही आपकी औलाद बुढ़ापे में आपकी सेवा करेगी , वर्ना कोई पानी पिलाने वाला भी पास नहीं होगा ।

आप यह ना समझें कि यह सब बातें केवल मनुष्य पर ही लागू होती हैं । इन चार प्रकार में कोई सा भी जीव आ सकता है । जैसे आपने किसी गाय कि निःस्वार्थ भाव से सेवा की है तो वह भी पुत्र या पुत्री बनकर आ सकती है । यदि आपने गाय को स्वार्थ वश पालकर उसको दूध देना बन्द करने के पश्चात घर से निकाल दिया तो वह ऋणानुबन्ध पुत्र या पुत्री बनकर जन्म लेगी । यदि आपने किसी निरपराध जीव को सताया है तो वह आपके जीवन में शत्रु बनकर आयेगा और आपसे बदला लेगा ।

इसलिये जीवन में कभी किसी का बुरा ना करें । क्योंकि प्रकृति का नियम है कि आप जो भी करोगे , उसे वह आपको इस जन्म में या अगले जन्म में सौ गुना वापिस करके देगी । यदि आपने किसी को एक रुपया दिया है तो समझो आपके खाते में सौ रुपये जमा हो गये हैं । यदि आपने किसी का एक रुपया छीना है तो समझो आपकी जमा राशि से सौ रुपये निकल गये ।

ज़रा सोचिये , "आप कौन सा धन साथ लेकर आये थे और कितना साथ लेकर जाओगे ? जो चले गये , वो कितना सोना - चाँदी साथ ले गये ? मरने पर जो सोना - चाँदी , धन - दौलत बैंक में पड़ा रह गया , समझो वो व्यर्थ ही कमाया । औलाद अगर अच्छी और लायक है तो उसके लिए कुछ भी छोड़कर जाने की जरुरत नहीं है , खुद ही खा - कमा लेगी और औलाद अगर बिगड़ी या नालायक है तो उसके लिए जितना मर्ज़ी धन छोड़कर जाओ , वह चंद दिनों में सब बरबाद करके ही चैन लेगी ।"

  मैं , मेरा , तेरा और सारा धन यहीं का यहीं धरा रह जायेगा , कुछ भी साथ नहीं जायेगा । साथ यदि कुछ जायेगा भी तो सिर्फ *नेकियाँ* ही साथ जायेंगी । इसलिए जितना हो सके *नेकी* करो *सतकर्म* करो ।

                     *📙 श्रीमद्भभगवतगीता।*

Contact & connection( संपर्क और संजोग)

             *CONTACT &     CONNECTION*
                      *(संपर्क और संजोग)


रामकृष्ण मिशन के एक साधु का न्यूयार्क का बड़ा पत्रकार इंटरव्यू ले रहा था

पत्रकार ने जैसा प्लान किया था वैसे ही इंटरव्यू लेना शुरू किया।

*पत्रकार*– सर, आपने अपने लास्ट लेक्चर में संपर्क (Contact) और संजोग (Connection) पर स्पीच दिया लेकिन यह बहुत कन्फ्यूज करने वाला था। क्या आप इसे समझा सकते हैं????

साधु ने मुस्कराये और उन्होंने उल्टा प्रश्न से कुछ अलग पत्रकार से ही पूछना शुरू कर दिया।

"आप न्यूयॉर्क से है???"

*पत्रकार*: "Yep..."

*सन्यासी*: "आपके घर मे कौन कौन हैं???"

पत्रकार को लगा कि साधु उनका सवाल टालने की कोशिश कर रहा है क्योंकि उनका सवाल बहुत व्यक्तिगत और उसके सवाल के जवाब से अलग था।

फिर भी पत्रकार बोला: मेरी "माँ अब नही हैं, पिता हैं तथा 3 भाई और एक बहिन हैं जो सब शादीशुदा हैं".

साधू ने चेहरे पे एक मुसकान के साथ पूछा: "आप अपने पिता से बात करते हैं???"

पत्रकार चेहरे से गुस्से में लगने लगा...

साधू ने पूछा, "आपने अपने फादर से last कब बात की???"

पत्रकार ने अपना गुस्सा दबाते हुए जवाब दिया : "शायद एक महीने पहले".

साधू ने पूछा: "क्या आप भाई-बहिन अक़्सर मिलते हैं??? लास्ट आप सब कब मिले एक परिवार की तरह???"

इस सवाल पर पत्रकार के माथे पर पसीना आ गया कि इंटरव्यू मैं ले रहा हूँ या ये साधु???  ऐसा लगा साधु, पत्रकार का इंटरव्यू ले रहा है???

एक आह के साथ पत्रकार बोला: "क्रिसमस पर 2 साल पहले".

साधू ने पूछा: "कितने दिन आप सब साथ में रहे???"

पत्रकार अपनी आँखों से निकले आँसुओं को पोंछते हुये बोला: "3 दिन..."

साधु: "कितना वक्त आप भाई बहनों ने अपने पिता के बिल्कुल करीब बैठ कर गुजारा???

पत्रकार हैरान और शर्मिंदा दिखा और एक कागज़ पर कुछ लिखने लगा...

साधु ने पूछा: " क्या आपने पिता के साथ नाश्ता, लंच या डिनर लिया??? क्या आपने अपने पिता से पूछा के वो कैसे हैँ??? माता की मृत्यु के बाद उनका वक्त कैसे गुज़र रहा है?? ?

पत्रकार की आंखों से आंसू छलकने लगे।

साधु ने  पत्रकार का हाथ पकड़ा और कहा: " शर्मिंदा, परेशान या दुखी मत होना। मुझे खेद है अगर मैंने आपको अनजाने में चोट पहुंचाई है ... लेकिन ये ही आपके सवाल का जवाब है "संपर्क और संजोग (Contact and Connection)

आप अपने पिता के सिर्फ संपर्क (Contact) में हैं  पर आपका उनसे कोई 'Connection'  (संजोग) नही है. You are not connected to him.. आप अपने father से संपर्क में हैं जुड़े नही है

Connection हमेश आत्मा से आत्मा का होता है। heart से heart होता है...
एक साथ बैठना, भोजन साझा करना और एक दूसरे की देखभाल करना, स्पर्श करना, हाथ मिलाना, आँखों का संपर्क होना, कुछ समय एक साथ बिताना ...

आप अपने  पिता, भाई और बहनों  के संपर्क ('Contact') में हैं लेकिन आपका आपस मे कोई'संजोग'(Connection) नहीं है".

पत्रकार ने आंखें पोंछी और बोला: "मुझे एक अच्छा और अविस्मरणीय सबक सिखाने के लिए धन्यवाद".

वो तब का न्यूयार्क था पर आज ये भारत की भी सच्चाई हो चली है, at home और society में सबके हज़ारो संपर्क (contacts) हैं पर कोई connection नही. कोई विचार-विमर्श  नहीं... हर आदमी अपनी नकली दुनिया में खोया हुआ है।

हमें केवल "संपर्क" नहीं बनाए रखना चाहिए अपितु "कनेक्टेड" भी रहन चाहिये। हमें हमारे सभी प्रियजनों की देखभाल करना, उनके सुख-दुख को साझा करना और साथ में समय व्यतीत करना चाहिए।

वो साधु और कोई नहीं *"पूज्य स्वामी विवेकानंद"* थे।

So , please don't keep in *contact* but also  keep *connected* with your family, friends, relatives and all those who care about you and deserve to be cared by you also.

क्या आप जानते है?

कुछ एसी महत्वपुर्ण जानकारियाँ जिसका आप सब को जानना जरुरी है:-
दो लिंग : नर और नारी ।
दो पक्ष : शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष।
दो पूजा : वैदिकी और तांत्रिकी (पुराणोक्त)।
दो अयन : उत्तरायन और दक्षिणायन।

तीन देव : ब्रह्मा, विष्णु, शंकर।
तीन देवियाँ : महा सरस्वती, महा लक्ष्मी, महा गौरी।
तीन लोक : पृथ्वी, आकाश, पाताल।
तीन गुण : सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण।
तीन स्थिति : ठोस, द्रव, वायु।
तीन स्तर : प्रारंभ, मध्य, अंत।
तीन पड़ाव : बचपन, जवानी, बुढ़ापा।
तीन रचनाएँ : देव, दानव, मानव।
तीन अवस्था : जागृत, मृत, बेहोशी।
तीन काल : भूत, भविष्य, वर्तमान।
तीन नाड़ी : इडा, पिंगला, सुषुम्ना।
तीन संध्या : प्रात:, मध्याह्न, सायं।
तीन शक्ति : इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति।

चार धाम : बद्रीनाथ, जगन्नाथ पुरी, रामेश्वरम्, द्वारका।
चार मुनि : सनत, सनातन, सनंद, सनत कुमार।
चार वर्ण : ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र।
चार निति : साम, दाम, दंड, भेद।
चार वेद : सामवेद, ॠग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद।
चार स्त्री : माता, पत्नी, बहन, पुत्री।
चार युग : सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग, कलयुग।
चार समय : सुबह, शाम, दिन, रात।
चार अप्सरा : उर्वशी, रंभा, मेनका, तिलोत्तमा।
चार गुरु : माता, पिता, शिक्षक, आध्यात्मिक गुरु।
चार प्राणी : जलचर, थलचर, नभचर, उभयचर।
चार जीव : अण्डज, पिंडज, स्वेदज, उद्भिज।
चार वाणी : ओम्कार्, अकार्, उकार, मकार्।
चार आश्रम : ब्रह्मचर्य, ग्राहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास।
चार भोज्य : खाद्य, पेय, लेह्य, चोष्य।
चार पुरुषार्थ : धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष।
चार वाद्य : तत्, सुषिर, अवनद्व, घन।

पाँच तत्व : पृथ्वी, आकाश, अग्नि, जल, वायु।
पाँच देवता : गणेश, दुर्गा, विष्णु, शंकर, सुर्य।
पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ : आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा।
पाँच कर्म : रस, रुप, गंध, स्पर्श, ध्वनि।
पाँच  उंगलियां : अँगूठा, तर्जनी, मध्यमा, अनामिका, कनिष्ठा।
पाँच पूजा उपचार : गंध, पुष्प, धुप, दीप, नैवेद्य।
पाँच अमृत : दूध, दही, घी, शहद, शक्कर।
पाँच प्रेत : भूत, पिशाच, वैताल, कुष्मांड, ब्रह्मराक्षस।
पाँच स्वाद : मीठा, चर्खा, खट्टा, खारा, कड़वा।
पाँच वायु : प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान।
पाँच इन्द्रियाँ : आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा, मन।
पाँच वटवृक्ष : सिद्धवट (उज्जैन), अक्षयवट (Prayagraj), बोधिवट (बोधगया), वंशीवट (वृंदावन), साक्षीवट (गया)।
पाँच पत्ते : आम, पीपल, बरगद, गुलर, अशोक।
पाँच कन्या : अहिल्या, तारा, मंदोदरी, कुंती, द्रौपदी।

छ: ॠतु : शीत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, बसंत, शिशिर।
छ: ज्ञान के अंग : शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष।
छ: कर्म : देवपूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप, दान।
छ: दोष : काम, क्रोध, मद (घमंड), लोभ (लालच),  मोह, आलस्य।

सात छंद : गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप, वृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप, जगती।
सात स्वर : सा, रे, ग, म, प, ध, नि।
सात सुर : षडज्, ॠषभ्, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत, निषाद।
सात चक्र : सहस्त्रार, आज्ञा, विशुद्ध, अनाहत, मणिपुर, स्वाधिष्ठान, मुलाधार।
सात वार : रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि।
सात मिट्टी : गौशाला, घुड़साल, हाथीसाल, राजद्वार, बाम्बी की मिट्टी, नदी संगम, तालाब।
सात महाद्वीप : जम्बुद्वीप (एशिया), प्लक्षद्वीप, शाल्मलीद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंचद्वीप, शाकद्वीप, पुष्करद्वीप।
सात ॠषि : वशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भारद्वाज, अत्रि, वामदेव, शौनक।
सात ॠषि : वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र, भारद्वाज।
सात धातु (शारीरिक) : रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, वीर्य।
सात रंग : बैंगनी, जामुनी, नीला, हरा, पीला, नारंगी, लाल।
सात पाताल : अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल, पाताल।
सात पुरी : मथुरा, हरिद्वार, काशी, अयोध्या, उज्जैन, द्वारका, काञ्ची।
सात धान्य : उड़द, गेहूँ, चना, चांवल, जौ, मूँग, बाजरा।

आठ मातृका : ब्राह्मी, वैष्णवी, माहेश्वरी, कौमारी, ऐन्द्री, वाराही, नारसिंही, चामुंडा।
आठ लक्ष्मी : आदिलक्ष्मी, धनलक्ष्मी, धान्यलक्ष्मी, गजलक्ष्मी, संतानलक्ष्मी, वीरलक्ष्मी, विजयलक्ष्मी, विद्यालक्ष्मी।
आठ वसु : अप (अह:/अयज), ध्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्युष, प्रभास।
आठ सिद्धि : अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व।
आठ धातु : सोना, चांदी, ताम्बा, सीसा जस्ता, टिन, लोहा, पारा।

नवदुर्गा : शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघंटा, कुष्मांडा, स्कन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री।
नवग्रह : सुर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु, केतु।
नवरत्न : हीरा, पन्ना, मोती, माणिक, मूंगा, पुखराज, नीलम, गोमेद, लहसुनिया।
नवनिधि : पद्मनिधि, महापद्मनिधि, नीलनिधि, मुकुंदनिधि, नंदनिधि, मकरनिधि, कच्छपनिधि, शंखनिधि, खर्व/मिश्र निधि।

दस महाविद्या : काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्तिका, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी, कमला।
दस दिशाएँ : पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, आग्नेय, नैॠत्य, वायव्य, ईशान, ऊपर, नीचे।
दस दिक्पाल : इन्द्र, अग्नि, यमराज, नैॠिति, वरुण, वायुदेव, कुबेर, ईशान, ब्रह्मा, अनंत।
दस अवतार (विष्णुजी) : मत्स्य, कच्छप, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध, कल्कि।
दस सति : सावित्री, अनुसुइया, मंदोदरी, तुलसी, द्रौपदी, गांधारी, सीता, दमयन्ती, सुलक्षणा, अरुंधती।

उक्त जानकारी शास्त्रोक्त आधार पर... हैं ।

सोमवार, 5 अगस्त 2019

परमात्मा की प्राप्ति के लिए निराश नहीं होना चाहिए

     परमात्मा की प्राप्ति के लिए निराश नहीं होना चाहिए



     ( ब्रह्मलीन परम श्रद्धेय श्री जय दयाल जी गोयन्दका)
बहुत से भाई परमात्मा की प्राप्ति के लिए  यथा साध्य , साधन( पूजा,व्रत,नाम-जप,आदि) करते हैं पर बहुत समय तक साधन करने पर भी जब परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती ,तब निराश हो जाते हैं, पर वे सज्जन निराश ना होकर यदि परमात्मा की प्राप्ति ना होने का कारण जान जाए, तो उन्हें पता लगेगा कि श्रद्धा प्रेम तथा आदर पूर्वक और तत्परता के साथ साधना करना ही इसमें प्रधान कारण है। जिस प्रकार लोभी मनुष्य धन की प्राप्ति के लिए पूरी तत्परता के साथ साधन करता है ,अपना सारा समय समस्त बुद्धि कौशल धन की प्राप्ति के प्राप्ति में ही लगाता है तथा नित्य सावधानी के साथ कोई ऐसा भी काम नहीं करता जिससे धन की तनिक भी क्षति हो ,इसी प्रकार यदि श्रद्धा, प्रेम तथा आदर के साथ पूर्ण तत्परता से साधन किया जाए, तो इस युग में परमात्मा की प्राप्ति बहुत शीघ्र हो सकती है। आत्मा के उद्धार या परमात्मा की प्राप्ति में अब तक जो विलंब हुआ उसे देखकर कभी निराश नहीं होना चाहिए, बल्कि भगवान के विविध आश्वासनों पर ध्यान देकर विशेष रूप से साधन में प्रवृत्त होना चाहिए। भगवान ने कहा है कि यदि मरते समय भी मनुष्य मुझे स्मरण कर ले, तो उसे मेरी प्राप्ति हो सकती है।-
 जो पुरुष अंत काल में भी भगवान को ही  ध्यान करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है। वह मेरे साथ रूप को प्राप्त कर लेता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं। (गीता8/5)



एक पल,एक क्षण,एक घडी़ का वास्तविक अर्थ-

               विश्व का सबसे बड़ा और वैज्ञानिक समय गणना तन्त्र


                            (ऋषि मुनियो का अनुसंधान )               आप जिज्ञासुओं के व अपने आने वाली पीढ़ी के लिये ये बहुत काम का संकलन है,कृपया बच्चों को यह भी सिखाए-रमक झमक

■ क्रति = सैकन्ड का  34000 वाँ भाग
■ 1 त्रुति = सैकन्ड का 300 वाँ भाग
■ 2 त्रुति = 1 लव ,
■ 1 लव = 1 क्षण
■ 30 क्षण = 1 विपल ,
■ 60 विपल = 1 पल
■ 60 पल = 1 घड़ी (24 मिनट ) ,
■ 2.5 घड़ी = 1 होरा (घन्टा )
■ 24 होरा = 1 दिवस (दिन या वार) ,
■ 7 दिवस = 1 सप्ताह
■ 4 सप्ताह = 1 माह ,
■ 2 माह = 1 ऋतू
■ 6 ऋतू = 1 वर्ष ,
■ 100 वर्ष = 1 शताब्दी
■ 10 शताब्दी = 1 सहस्राब्दी ,
■ 432 सहस्राब्दी = 1 युग
■ 2 युग = 1 द्वापर युग ,
■ 3 युग = 1 त्रैता युग ,
■ 4 युग = सतयुग
■ सतयुग + त्रेतायुग + द्वापरयुग + कलियुग = 1 महायुग
■ 76 महायुग = मनवन्तर ,
■ 1000 महायुग = 1 कल्प
■ 1 नित्य प्रलय = 1 महायुग (धरती पर जीवन अन्त और फिर आरम्भ )
■ 1 नैमितिका प्रलय = 1 कल्प ।(देवों का अन्त और जन्म )
■ महाकाल = 730 कल्प ।(ब्राह्मा का अन्त और जन्म )
" जय सियाराम"


क्या आप जानते हैं हमारे शब्द भी हमारे कर्म बन जाते हैं।

                  हमारी शब्द हमारे कर्म बन जाते हैं


18 दिन के युद्ध ने, 

द्रोपदी की उम्र को
80 वर्ष जैसा कर दिया था...

शारीरिक रूप से भी
और मानसिक रूप से भी

शहर में चारों तरफ़
विधवाओं का बाहुल्य था..

पुरुष इक्का-दुक्का ही दिखाई पड़ता था

अनाथ बच्चे घूमते दिखाई पड़ते थे और उन सबकी वह महारानी
द्रौपदी हस्तिनापुर के महल में
निश्चेष्ट बैठी हुई शून्य को निहार रही थी ।

तभी,

*श्रीकृष्ण*
कक्ष में दाखिल होते हैं

द्रौपदी
कृष्ण को देखते ही
दौड़कर उनसे लिपट जाती है ...
कृष्ण उसके सिर को सहलाते रहते हैं और रोने देते हैं

थोड़ी देर में,
उसे खुद से अलग करके
समीप के पलंग पर बैठा देते हैं ।

*द्रोपदी* : यह क्या हो गया सखा ??

ऐसा तो मैंने नहीं सोचा था ।

*कृष्ण* : नियति बहुत क्रूर होती है पांचाली..
वह हमारे सोचने के अनुरूप नहीं चलती !

वह हमारे कर्मों को
परिणामों में बदल देती है..

तुम प्रतिशोध लेना चाहती थी और, तुम सफल हुई, द्रौपदी !

तुम्हारा प्रतिशोध पूरा हुआ... सिर्फ दुर्योधन और दुशासन ही नहीं,
सारे कौरव समाप्त हो गए

तुम्हें तो प्रसन्न होना चाहिए !

*द्रोपदी*: सखा,
तुम मेरे घावों को सहलाने आए हो या उन पर नमक छिड़कने के लिए ?

*कृष्ण* : नहीं द्रौपदी,
मैं तो तुम्हें वास्तविकता से अवगत कराने के लिए आया हूँ
हमारे कर्मों के परिणाम को
हम, दूर तक नहीं देख पाते हैं और जब वे समक्ष होते हैं..
तो, हमारे हाथ में कुछ नहीं रहता।

*द्रोपदी* : तो क्या,
इस युद्ध के लिए पूर्ण रूप से मैं ही उत्तरदायी हूँ कृष्ण ?

*कृष्ण* : नहीं, द्रौपदी
तुम स्वयं को इतना महत्वपूर्ण मत समझो...

लेकिन,

तुम अपने कर्मों में थोड़ी सी दूरदर्शिता रखती तो, स्वयं इतना कष्ट कभी नहीं पाती।

*द्रोपदी* : मैं क्या कर सकती थी कृष्ण ?

*तुम बहुत कुछ कर सकती थी*

*कृष्ण*:- जब तुम्हारा स्वयंवर हुआ...
तब तुम कर्ण को अपमानित नहीं करती और उसे प्रतियोगिता में भाग लेने का एक अवसर देती
तो, शायद परिणाम
कुछ और होते !

इसके बाद जब कुंती ने तुम्हें पाँच पतियों की पत्नी बनने का आदेश दिया...
तब तुम उसे स्वीकार नहीं करती तो भी, परिणाम कुछ और होते ।

और

उसके बाद
तुमने अपने महल में दुर्योधन को अपमानित किया...
कि अंधों के पुत्र अंधे होते हैं।

वह नहीं कहती तो, तुम्हारा चीर हरण नहीं होता...

तब भी शायद, परिस्थितियाँ कुछ और होती ।

हमारे  *शब्द* भी
हमारे *कर्म* होते हैं द्रोपदी...

और, हमें

अपने हर शब्द को बोलने से पहले तोलना बहुत ज़रूरी होता है...
अन्यथा,
उसके *दुष्परिणाम* सिर्फ़ स्वयं को ही नहीं... अपने पूरे परिवेश को दुखी करते रहते हैं ।

संसार में केवल मनुष्य ही एकमात्र ऐसा प्राणी है...
 जिसका
"ज़हर"
उसके
"दाँतों" में नहीं,
"शब्दों " में है...

आरती " जय शिव ओंकारा का अर्थ "

                             *"त्रिगुणास्वामी"

*"ॐ जय शिव ओंकारा", यह वह प्रसिद्ध आरती है जो देश भर में शिव-भक्त नियमित गाते हैं..*
*लेकिन, बहुत कम लोग का ही ध्यान इस तथ्य पर जाता है कि, इस आरती के पदों में ब्रम्हा-विष्णु-महेश तीनो की स्तुति है..*
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*एकानन (एकमुखी, विष्णु) चतुरानन (चतुर्मुखी, ब्रम्हा) पंचानन (पंचमुखी, शिव) राजे..*
*हंसासन(ब्रम्हा) गरुड़ासन(विष्णु ) वृषवाहन (शिव) साजे..*

*दो भुज (विष्णु) चार चतुर्भुज (ब्रम्हा) दसभुज (शिव) ते सोहे..*

*अक्षमाला (रुद्राक्ष माला, ब्रम्हाजी ) वनमाला (विष्णु ) रुण्डमाला (शिव) धारी..*
*चंदन (ब्रम्हा ) मृगमद (कस्तूरी , विष्णु ) चंदा (शिव) भाले शुभकारी (मस्तष्क पर शोभा पाते है)..*

*श्वेताम्बर (सफेदवस्त्र, ब्रम्हा) पीताम्बर (पीले वस्त्र, विष्णु) बाघाम्बर (बाघ चर्म ,शिव) अगें..*

*ब्रम्हादिक (ब्राम्हण, ब्रम्हा ) सनकादिक (सनक आदि, विष्णु ) भूतादिक (शिव ) सगें (साथ रहते है)..*

*कर के मध्य कमंडल (ब्रम्हा) चक्र (विष्णु) त्रिशूल (शिव) धर्ता..*
*जगकर्ता (ब्रम्हा) जगहर्ता (शिव ) जग पालनकर्ता (विष्णु)..*

*ब्रह्मा विष्णु सदाशिव जानत अविवेका (अविवेकी लोग इन तीनो को अलग अलग जानते है)*

*प्रणवाक्षर के मध्ये ये तीनो एका (सृष्टि के निर्माण के मूल ओंकार नाद में ये तीनो एक रूप रहते है, आगे सृष्टि निर्माण, पालन और संहार हेतु त्रिदेव का रूप लेते है...)*

*ॐ नमः शिवाय "

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