/ "ईश्वर के साथ हमारा संबंध: सरल ज्ञान और अनुभव: जुलाई 2021

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सोमवार, 26 जुलाई 2021

जिस किसी से भी आपको कुछ भी सीखने को मिल जाए वह आपका गुरु

                                 गुरु पूर्णिमा



 भगवान वेदव्यास की जयंती गुरु पूर्णिमा है इस दिन व्यास, संत गुरु जन पूज्य है। नित्य ही पूजा होती है,पर गुरु पूर्णिमा की पूजा विशेष होनी चाहिए। इस अवसर पर गो,संत सेवा की जानी चाहिएं। गुरु तत्व से परे कोई तत्व नहीं है। नास्ति तत्वं गुरो: परम्  बताया गया है कि इश्वर तत्व ही गुरु तत्व है। विद्या, बुद्धि,आयु में श्रेष्ठ सभी गुरु हैं। जो लोग अपनी दीनता से सभी जीवो को अपने से श्रेष्ठ मानते हैं, उनके लिए गुरु तत्व सर्वव्यापक है। जिस से भी कुछ सीखने को मिल जाए वही गुरु हैं। प्रथम जिन्होंने मंत्र दीक्षा दी, फिर जिन्होंने उपदेश दिया। कर्म कर्म से सभी में गुरु भावना पुष्ट होती है।सभी जगह गुरु तत्व का बोध हो जाएगा। संसार की सभी प्राणी, वस्तुएं शिक्षाप्रद है। जो प्रभु से मिलन का मार्ग दिखलाए वही गुरु है। जिसके वचनों में श्रद्धा विश्वास है, वही गुरु है। झालीरानी को रैदास जी में गुरु तत्व दिखाई पड़ा, रानी रत्नावती ने अपनी दासी से शिक्षा ग्रहण की।

अनुकूल आचरण से तथा प्रतिकूल आचरण से दोनों से दत्तक दत्तात्रेय जी ने शिक्षा ली मधुमक्खी संग्रह से नष्ट होती है।

कृष्णम वंदे जगदगुरूम। गुरु के गुरु भगवान कृष्ण है। कृष्ण ने अर्जुन को श्रोता बनाकर गीता में, उद्धव जी को श्रोता बनाकर श्री कृष्ण जी ने श्री भागवत में सभी मनुष्य को उपदेश दिए हैं। सारे जगत का कल्याण करने वाले हैं उपदेश है।

 श्री सीताराम दादा गुरु महाराज के श्री मुख से परमार्थ के पत्र पुष्प में से

समझो! कि हम किस कैटेगरी में आते हैं

                                          समझो




संसार में दो प्रकार के पेड़- पौधे होते हैं

प्रथम : अपना फल स्वयं दे देते हैं,

जैसे - आम, अमरुद, केला इत्यादि ।

द्वितीय : अपना फल छिपाकर रखते हैं,

जैसे - आलू, अदरक, प्याज इत्यादि ।

जो फल अपने आप दे देते हैं, उन वृक्षों को सभी खाद-पानी देकर सुरक्षित रखते हैं, और  ऐसे वृक्ष फिर से फल देने के लिए तैयार हो जाते हैं ।

किन्तु जो अपना फल छिपाकर रखते है, वे जड़ सहित खोद लिए जाते हैं, उनका वजूद ही खत्म हो जाता हैं।*

ठीक इसी प्रकार...

जो व्यक्ति अपनी विद्या, धन, शक्ति स्वयं ही समाज सेवा में समाज के उत्थान में लगा देते हैं, उनका सभी ध्यान रखते हैं और वे मान-सम्मान पाते है।

वही दूसरी ओर

 जो अपनी विद्या, धन, शक्ति स्वार्थवश छिपाकर रखते हैं, किसी की सहायता से मुख मोड़े रखते है, वे जड़ सहित खोद लिए जाते है, अर्थात् समय रहते ही भुला दिये जाते है।

प्रकृति कितना महत्वपूर्ण संदेश देती है, बस समझने, सोचने  की बात है।

।।जय श्री राधे।।

शुक्रवार, 23 जुलाई 2021

कागभुसुंडि जी कौन थे?

कागभुसुंडि जी कौन है?


 जब भोले बाबा मां गोरा को श्री रामचरितमानस की कथा सुना रहे थे तब अंत में गौरा मां ने प्रश्न किया कि मैं यह जानना चाहती हूं कि यह काग भुसुंडि जी कौन थे? जिनसे आपने कथा सुनी। हे कृपालु ! बताइए उसको इन्हीं प्रभु का यह पवित्र सुंदर चरित्र कहां पाया और हे कामदेव के शत्रु यह भी बताइए आपने इसे किस प्रकार सुना? मुझे बड़ा भारी कौतूहल हो रहा है।

 तब महादेव ने प्रसंग सुनाया। महादेव बोले हे सुमुखी! है सुलोचना ! प्रसंग सुनो, पहले तुम्हारा अवतार दक्ष के घर में हुआ था, तब तुम्हारा नाम सती था। दक्ष के यज्ञ में तुम्हारा अपमान हुआ। तब तुम ने अत्यंत विरोध करके प्राण त्याग दिए और फिर मेरे से सेवकों ने यज्ञ विध्वंस कर दिया।यह सब तुम जानती हो। तब मेरे मन में बड़ा सोच हुआ और हे प्रिय! मैं तुम्हारी वियोग से दुखी हो गया,मैं विरक्त भाव से सुंदरवन पर्वत नदी और तालाबों का दृश्य देखता फिरता था। सुमेरु पर्वत की उत्तर दिशा में और भी दूर एक बहुत ही सुंदर नील पर्वत है। उसकी सुंदर स्वर्ण में शिखर है। उनमें से चार सुंदर शिखर मेरे मन को बहुत ही अच्छे लगे। उनमें से एक बरगद, पीपल, पाकर और आम का एक एक विशाल वृक्ष है। पर्वत के ऊपर एक सुंदर तालाब शोभित है; जिसकी मणियों की सीढ़ियां देखकर मेरा मन मोहित हो जाता है। उसका जल निर्मल और मीठा है। उसमें रंग-बिरंगे कमल खिले हुए हैं। संगम मधुर स्वर से बोल रहे हैं और भौंरे सुन्दर गुंजार कर रहे हैं। उस सुंदर पर्वत पर वही पक्षी का भूसुंडी बसता है उसका नाश के कल्प के अंत में भी नहीं होता। माया रचित अनेक गुण ,दोषों मुकाम आदि  अविवेक जो सारे जगत में जा रहे हैं। उस पर्वत के पास भी नहीं फटकते।वहां बस कर जिस प्रकार वह काक हरि को  भजता है।हे उमा!उसे प्रेम से सुनो। पीपल के वृक्ष के नीचे ध्यान करता है। पाकर के नीचे जप यज्ञ करता है, आम की छाया के नीचे मानसिक पूजा करता है। श्री हरि के भजन को छोड़करउसे कोई दूसरा काम नहीं है। बरगद के नीचे वह श्री हरि की कथाओं के प्रसंग कहता है वहां अनेकों पक्षी आते हैं और कथा सुनते हैं। वह विचित्र रामचरित्र को अनेक प्रकार से प्रेम सहित आदर पूर्वक गान करता है। सब निर्मल बुद्धि वाले हंस जो सदा उस तालाब पर बसत हैं, उसे सुनते हैं। जब मैंने वहां जाकर यह दृश्य देखा तब मेरे हृदय में विशेष आनंद उत्पन्न हुआ ।तब मैंने हंस का शरीर धारण कर कुछ समय वहां निवास किया और श्री रघुनाथ जी के गुणों का आदर सहित सुनकर फिर कैलाश को लौट आया।

श्री राम जी के द्वारा भक्तों के जन्म मरण को मिटाने वाले वचन

 श्री राम जी के द्वारा भक्तों के जन्म मरण को मिटाने वाले वचन

एक बार श्री राम जी ने अयोध्या में अपने समस्त नगरवासियों को बुलाया और उनको अपने हृदय की बात सुनाई और सब को कहा कि आप मेरी बातों को सुन लो और यह जो तुम्हें अच्छी लगे तो उसके अनुसार ही करो। वही मेरा सेवक है और वही मेरा प्रियतम है, जो मेरी आज्ञा माने।

 बड़े भाग्य से मनुष्य शरीर मिला है सब ग्रंथों में यही कहा है कि यह शरीर देवताओं के लिए भी दुर्लभ है। कठिनाई से मिलता है। यह साधन का धाम और मोक्ष का दरवाजा है। इसे पा कर भी जिसने पढ़ लो ना बना लिया वह परलोक में दुख पाता है सिर पीट पीटकर पछताता है तथा अपने दोष ना समझ कर काल पर,कर्म पर और ईश्वर पर मिथ्या दोष लगाता है। हे भाई इस शरीर के प्राप्त होने का फल विषय भोग नहीं है, इस जगत के लोगों की तो बात ही क्या, स्वर्ग का भोग भी बहुत थोड़ा है और अंत में दुख देने वाला है। जो लोग मनुष्य शरीर पाकर विषय में मन लगा देते हैं। वह मूर्ख अमृत को बदलकर विष ले लेते हैं। जो पारस मणि को खोकर बदले में घुं धनघची ले लेता है। उसको कभी कोई  बुद्धिमान नहीं कहता। यह अविनाशी जीव चार खानों और 8400000 योनियों में चक्कर लगाता रहता है। माया की प्रेरणा से काल, कर्म, स्वभाव और उन से घिरा हुआ वह सदा भटकता रहता है।बिना ही कारण स्नेह करने वाले ईश्वर कभी विरले ही दया करके मनुष्य का शरीर देते हैं। यह मनुष्य का शरीर भवसागर के लिए बड़ा जहाज है, पार करने वाला है। मेरी कृपा ही अनुकूल वायु है सतगुरु इस जहाज के मजबूत कर्णधार हैं। इस प्रकार दुर्लभ साधन सुलभ हो कर भी उसे प्राप्त हो जाती है। जो मनुष्य ऐसे साधन को पाकर भी भवसागर ना करें वह कृतघ्न और मंदबुद्धि है । 

यदि परलोक में और यहां दोनों जगह सुख चाहते हो तो मेरे वचन सुनकर उन्हें हृदय में दृढ़ता से पकड़ कर रखो, यह मेरी भक्ति का मार्ग सुलभ और सुख दायक है। पुराणों और वेदों ने इसे गाया है। भक्ति स्वतंत्र और सब सुखों की खान है।परंतु संतो के संग के बिना प्राणी इसे नहीं पा सकते और पुण्य समूह के बिना संत नहीं मिलते। सत्संगति जन्म मरण के चक्र का अंत करती है। मैं सबसे हाथ जोड़कर कहता हूं कि शंकर जी के भजन के बिना मनुष्य मेरी भक्ति नहीं पाता।

मंगलवार, 13 जुलाई 2021

क्या आपको अपने सभी काम सफल करने हैं तो

         क्या आपको अपने सभी काम सफल करने हैं? तो


आदत डाल ले, जब भी कहीं जाए तो 4 बार नारायण, नारायण बोल कर ही निकले। आपके सब काम सफल होंगे और कुछ खराब होने भी होंगे, तो वह भी ठीक हो जाएंगे। खराब काम होने से बच जाएगा। आपका सत्संग सफल हो जाएगा। खराब काम से बचना और अच्छे काम में सफल होना, यह दोनों बातें ही नारायण– नारायण कहने से हो जाएंगे। भगवान का जो भी नाम प्रिय हो वह ले। अगर आप कोई भी काम प्रारंभ करने से पहले भगवान का नाम लेंगे और यही बातें अपने बच्चों को भी सिखा देंगे, तो हमारा बहुत बड़ा काम हो जाएगा। मैं अपने ऊपर आपकी बहुत बड़ी कृपा मानूंगा।

 परम पूज्य श्रद्धेय श्री रामसुखदास जी के श्री मुख से।

श्री कृष्ण लीलामृत

                               श्री कृष्ण लीलामृत

जब भगवान श्री कृष्ण द्वारिका के राजा थे. उस समय की बात है। भगवान श्री कृष्ण  से मिलने अनेक देवता आया करते थे।

       एक बार विधाता ब्रह्मा जी उनसे मिलने आए, और दरबान तुरंत ब्रह्मा जी के आगमन को भगवान श्री कृष्ण को सूचित किया। तब श्री भगवान ने दरबान, से पूछा क्या  तुम्हे पता है वो जो ब्रह्मा जी है वो कहा से आए है उनका परिचय क्या है ?दरबान लौट कर विधाता ब्रह्मा जी से पूछा की हे ब्रह्मा जी आप कौन से वाले ब्रह्मा जी है। भगवान ने पूछा है?

 कौन से  ब्रह्मा ? विधाता ब्रह्मा आश्चर्यचकित थे। उन्होंने कहा कि दरबान तुम `कृपया भगवान श्रीकृष्ण को सूचित करो कि मैं चतुर्मुख ब्रह्मा ,संतकुमारो का पिता ब्रह्मा ,और श्री भगवान की ही आज्ञा से इस सृष्टि रचना करने वाला ब्रह्मा हूँ ।

दरबान तब ब्रह्मा जी के विवरण को श्री भगवान को सुनाया और प्रभु श्री कृष्ण ने उन्हें आदर सहित प्रवेश करने की अनुमति दे दी, दरबान जब ब्रह्मा जी को ले जा रहा था तो परम पिता ब्रम्हा जी के मस्तिष्क में एक सवाल घूमने लगा की आखिर भगवान ने ये  पूछा ही क्यों कि कौन से ब्रह्म जी ? ब्रह्मा तो एक ही है,

लेकिन अगर उन्होंने पूछा है तो जरूर कोई कारण होगा।

 अब ब्रह्माजी ने परम भगवान कृष्ण को देखा, वो उनके  कमल चरणों में दण्डवत प्रणाम किया और स्तुति और पूजन किया।भगवान श्री  कृष्ण ने भी उपयुक्त शब्दों के साथ उनको सम्मानित किया।

 भगवान श्री कृष्ण ने उनसे कुशलक्षेम पूछा,और उनके आने का कारण पूछा, तत्पश्चात ब्रह्मा जी ने तुरंत जवाब दिया  हे नाथ मैं आपसे अपने आने का कारण बाद में बताऊंगा पहले आप मेरे मन में एक संदेह है ,आप कृपया उसका निवारण करिए।

सभी जीवों के हृदय में परमात्मा रूप से रहने वाले अंतर्यामी श्री भगवान मुस्कुराते हुए ब्रह्मा जी से बोले कैसा संदेह है ?

ब्रह्मा जी बोले स्वामी जब हम आपसे मिलने आए तो द्वारपाल का ये सन्देश की आप कौन से वाले ब्रह्मा जी हो ?

 क्या कोई अन्य ब्रह्मा इस ब्रह्मांड के भीतर मेरे अलावा  भी है ? 

यह सुनकर भगवान श्री कृष्ण मुस्कराए और तुरंत ध्यान किया। असीमित संख्या में वहां अनेको ब्रह्मा उपस्थित हो गए।  कुछ दस सिर, कुछ बीस, कुछ एक सौ, कुछ एक हजार, कुछ दस हजार, कुछ एक सौ हजार, कुछ दस लाख और कई दूसरों के एक सौ करोड़ सिर भी है।

 कोई कोई ब्रह्मा तो थे जिनके चेहरे की संख्या गिन ही नहीं सकते है। फिर वहां शिव जी, और देवराज इन्द्र भी उपस्थित हो गए। जब इस ब्रह्मांड के विधाता ब्रह्मा ने ये सब  देखा, तो वह बहुत घबराए उनको लगा जैसे अनगिनत  हाथियों के बीच में मैं एक खरगोश।

सभी प्रकट ब्रह्मा भगवान श्री कृष्ण के कमल चरणों में अपनी श्रद्धांजलि दिए अनेको विधि से उनकी स्तुति की , चरण कमल वंदना किये। अब ये समझ में आ गया की कोई भी भगवान श्री कृष्ण की शक्ति का अनुमान नहीं लगा सकता स्वयं ब्रह्मा जी भी नहीं।

  हाथ जोड़कर, सभी ब्रह्मा बोले `हे प्रभु, हे कमलनयन हे पुराण पुरुष हमारे लिए क्या आज्ञा है यह हम सब के लिए महान भाग्य, है  कि आप ने अपने सेवको को याद किया है। आपके श्री चरण कमल का दर्शन करके हम सेवक बहुत आनन्दित है। हे नाथ आज्ञा करे। तत्पश्चात भगवान श्री कृष्ण ने कहा, मैं आप सभी को एक साथ देखना चाहता था, इसलिए  आप सभी का आह्वान किया है। आप सभी को खुश होना चाहिए। अब इस ग्रह पे राक्षसों का डर नहीं रहा और समय समय पर बाकी लोको में मैं प्रकट होकर अधर्मियों का विनाश और सज्जनों की रक्षा करता रहूँगा । अब आप सभी अपने लोको को प्रस्थान करे।

 भगवान कृष्ण ने  सभी ब्रह्मा को विदाई दी.......सभी ब्रह्मा उनको दण्डवत प्रणाम करके वे सब अपने-अपने लोको को लौट गए। अब इस लोक के ब्रह्मा जी अत्यन्त चकित होकर भगवान श्री कृष्ण से बोले, हे कृष्ण आपको वो ही जान सकता है जिसे आप स्वयं जनावों प्रभु आपका न आदि है ना अन्त। और जो `लोग  ये कहते रहे हैं कि , हमें श्री कृष्ण के बारे में सब कुछ पता है। "उन्हें भी कुछ नहीं पता हैं। वास्तव में आपका आदि अंत कोई जान नहीं सकता।

हे मेरे प्रभु,मेरे अपराध क्षमा करें।

श्री भगवान ने ब्रह्म जी के ऊपर कृपा की और बोले, ब्रह्मा जी ये ब्रह्माण्ड बाकी सब ब्रह्मांडों में सबसे छोटा है। इसलिए आप के केवल चार सिर है। ब्रह्मांडों में से कुछ बहुत विशाल और असीमित हैं। और ब्रह्मांड के आकार के अनुसार, ही उन ब्रह्मा के शरीर पर उतने  सारे सिर हैं। इस तरह असंख्य ब्रह्मांड और ब्रह्मा है।

ओम नमो भगवते वासुदेवाय

( श्री चैतन्य चरितामृत अध्याय 21 से )

हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे

रे राम, हरे राम, राम राम हरे हरे।...  

..ये महामंत्र जप करें और खुश रहें ।

                                                                                              

English translation

                       Shri Krishna Leelamrit

 When Lord Krishna was the king of Dwarka.  It's about that time.  Many deities used to come to meet Lord Shri Krishna.

 Once the creator Brahma ji came to meet him, and the concierge immediately informed Lord Shri Krishna about the arrival of Brahma ji.  Then Shri Bhagwan asked the concierge, do you know from where he who is Brahma ji, what is his introduction? Returning to the concierge, he asked the creator Brahma ji, oh Brahma ji, which one you are Brahma ji.  God asked

 Which one is Brahma?  The creator Brahma was astonished.  He said that you, the concierge, please inform Lord Krishna that I am the four-headed Brahma, the father of the saints, Brahma, and the creator of this universe by the orders of Shri God.

 The concierge then narrated the details of Brahma ji to Shri Bhagwan and Lord Shri Krishna allowed him to enter with respect, when the concierge was taking Brahma ji, a question started swirling in the mind of the Supreme Father Brahma ji that finally God  He asked why, which Brahm ji?  Brahma is only one

 But if they have asked, there must be some reason.

 Now Brahmaji saw the Supreme Lord Krishna, he bowed down at his lotus feet and offered praise and worship. Lord Shri Krishna also honored him with suitable words.

 Lord Shri Krishna asked him for his well being, and asked the reason for his coming, after that Brahma ji immediately replied, Oh Nath, I will tell you the reason for my coming later, first you have a doubt in my mind, you please solve it.

 What kind of doubt is there in the heart of all living beings, the Antaryami Shri Bhagwan smilingly said to Brahma ji?

 Lord Brahma said when we came to meet you, this message of the gatekeeper, which one are you Brahma ji?

 Is there any other Brahma within this universe other than me?

 Hearing this Lord Krishna smiled and immediately meditated.  Many Brahmas appeared there in unlimited numbers.  Some ten heads, some twenty, some one hundred, some one thousand, some ten thousand, some one hundred thousand, some ten million and many others even one hundred million heads.

 There was some Brahma whose face the number of faces cannot be counted.  Then Shiva ji, and Devraj Indra also appeared there.  When Brahma, the creator of this universe, saw all this, he was very frightened and felt as if I was a rabbit among countless elephants.

 All manifested Brahma paid his homage at the lotus feet of Lord Shri Krishna, praised him in many ways, worshiped the lotus feet.  Now it is understood that no one can estimate the power of Lord Shri Krishna, not even Brahma himself.

 With folded hands, all Brahma said, 'O Lord, O Kamalnayan, O Puran Purush, what is the command for us, it is a great fortune for all of us, that you have remembered your servants.  We servants are very happy to see your lotus feet.  O Lord, please order.  Thereafter Lord Shri Krishna said, I wanted to see all of you together, so I have called upon all of you.  You all should be happy.  There is no longer any fear of demons on this planet and I will appear in the rest of the worlds from time to time to destroy the unrighteous and protect the gentlemen.  Now all of you leave your loco.

 Lord Krishna bid farewell to all Brahmas…..All Brahmas bowed down to him and they all returned to their respective lokas.  Now Brahma ji of this world was very surprised and said to Lord Shri Krishna, O Krishna, you can only know that which you yourself, the Lord, is neither your beginning nor your end.  And the 'people' who have been saying that, we know everything about Shri Krishna.  "They also don't know anything. In fact no one can know your beginning and end.

 O my lord, forgive my transgressions.

 Shri Bhagwan showered blessings on Brahma ji and said, Brahma ji, this universe is the smallest of all the other universes.  So you have only four heads.  Some of the universes are very vast and limitless.  And according to the size of the universe, that Brahma has so many heads on his body.  In this way there are innumerable universes and Brahma.

 Om Namo Bhagwate Vasudevaya

 (from Sri Chaitanya Charitamrita Chapter 21)

 Hare Krishna, Hare Krishna, Krishna Krishna Hare Hare

 Hare Rama, Hare Rama, Rama Rama Hare Hare.

 Chant this Mahamantra and be happy.

तू ही तू

                            ॥ सन्तवाणी ॥

          –श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज        

                                    


                                 तू-ही-तू

जैसे बालक मिट्टीका खिलौना चाहता है तो पिताजी रुपये खर्च करके भी उसके लिये मिट्टीका खिलौना लाकर देते हैं । ऐसे ही हम संसार को चाहते हैं तो भगवान्‌ संसार रूपमें हमारे सामने आ जाते हैं । हम शरीर बनते हैं तो भगवान्‌ विश्व बन जाते हैं । शरीर बननेके बाद फिर विश्वसे भिन्न कुछ भी जाननेमें नहीं आता‒यह नियम है ।

सब कुछ भगवान्‌ हैं‒इसका चिन्तन नहीं करना है, प्रत्युत इसको स्वयंसे स्वीकार करना है । स्वीकार करते ही हमारी दृष्टि बदल जायगी । दृष्टिमें ही सृष्टि है । हमारी दृष्टि बदलेगी तो सारी सृष्टि बदल जायगी ! इसलिये अपनी दृष्टि ऐसी बनाओ कि सब रूपोंमें भगवान्‌ ही दीखने लग जायँ । यही सच्ची आस्तिकता है ।

भक्तराज ध्रुव कहते हैं‒

भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो  बुद्धिरेव च ।

भूतादिरादिप्रकृतिर्यस्य रूपं नतोऽस्मि तम् ॥

(विष्णुपुराण १/१२/५१)

‘पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि, अहंकार और मूल प्रकृति‒ये सब जिनके रूप हैं, उन भगवान्‌को मैं नमस्कार करता हूँ ।’

अगर हमारे भीतर राग-द्वेष होते हैं तो हमने ‘सब कुछ भगवान्‌ हैं’‒यह बुद्धिसे सीखा है, स्वयंसे स्वीकार नहीं किया है । बुद्धिसे सीखनेपर कल्याण नहीं होता, प्रत्युत स्वयंसे स्वीकार करनेपर कल्याण होता है । जब सब कुछ भगवान्‌ ही हैं तो फिर राग-द्वेष कौन करे और किससे करे ?

निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध ॥

(मानस, उत्तर॰ ११२ ख)

(५) शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिसे जो भी सात्त्विक, राजस और तामस भाव, क्रिया, पदार्थ आदि ग्रहण किये जाते हैं, वे सब भगवान्‌ ही हैं । मनकी स्फुरणामात्र भगवान्‌ ही हैं । संसारमें अच्छा-बुरा, शुद्ध-अशुद्ध, शत्रु-मित्र, दुष्ट-सज्जन, पापात्मा-पुण्यात्मा आदि जो कुछ भी देखने, सुनने, कहने, सोचने, समझने आदिमें आता है, वह सब-का-सब केवल भगवान्‌ ही हैं । शरीर-शरीरी, क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ, अपरा-परा, क्षर-अक्षर आदि सब केवल भगवान्‌ ही हैं तो फिर उसमें ‘मैं’ कहाँसे आये ? ‘मैं’ है ही नहीं, केवल तू-ही-तू है।

(संत श्री रामसुखदास जी के श्री मुख से)

तू तू करता तू भया,   मुझमें  रही न हूँ ।

वारी फेरी बलि गई, जित देखूँ तित तू ॥

अब भगवान्‌की प्राप्ति में देरी किस बातकी है ? भगवत्प्राप्ति तत्काल होनेवाली वस्तु है । मान लो कि हम एक नदीको देख रहे हैं । किसी जानकार व्यक्तिने हमारेसे कहा कि यह नदी गंगाजी हैं । यह सुनते ही हमारी भावना बदल गयी, दृष्टि बदल गयी । इसमें देरी क्या लगी ? परिश्रम (अभ्यास) क्या करना पड़ा ? किस क्रिया और पदार्थकी आवश्यकता पडी़।


.  Santavani


 Revered Swamiji Shri Ramsukhdasji Maharaj


                           you and only you


 Just as a child wants a clay toy, the father brings a clay toy for him even after spending Rs.  Similarly, if we want the world, then God appears before us in the form of the world.  When we become bodies, God becomes the world.  After the formation of the body, nothing comes in the way of knowing anything other than the world, this is the rule.


 Everything is God, don't think about it, but accept it yourself.  Our vision will change as soon as we accept it.  There is creation in sight.  If our vision changes, then the whole world will change.  Therefore, make your vision such that only God can be seen in all forms.  This is true theism.


 Bhaktaraj Dhruva says:

 भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो  बुद्धिरेव च ।

भूतादिरादिप्रकृतिर्यस्य रूपं नतोऽस्मि तम् ॥

 (Vishnupuran 1/12/51)


 'Earth, water, fire, air, sky, mind, intellect, ego and original nature, all these forms, I bow to the Lord.'


 If we have attachment and aversion within us, then we have learned from the intellect that 'everything is God', not accepted from ourselves.  Learning from the intellect does not bring welfare, but accepting it from oneself leads to well-being.  When everything is God, then who should do it and with whom?

 Seeing my Lord, I do not oppose the world.

 (Manas, Answer: 112 b)

 (5) Whatever sattvik, rajas and tamas feelings, actions, substances etc. are accepted by the body-senses-mind-intellect, they are all God.  Only God is the spark of the mind.  Whatever comes in the world, good and bad, pure and impure, enemy-friend, wicked-gentleman, sinful-virtuous soul, etc., in seeing, hearing, saying, thinking, understanding, etc., all of that is only the Supreme Personality of Godhead.  Body-Body, Kshetra-Kshetrajna, Apara-para, Kshar-Akshar etc. are all Gods only, then from where did 'I' come in that?  There is no 'I', there is only you-you.

 (from the mouth of Sant Shri Ramsukhdas ji)

 You do you fear, I have not lived in me.

 War pheri was sacrificed, I see everything you see.

 Now what is the delay in attaining God?  Realization of God is an immediate thing.  Suppose we are looking at a river.  Some knowledgeable person told us that this river is Gangaji.  On hearing this, our feeling changed, our vision changed.  What was the delay?  What did the hard work (practice) have to do?  What action and substance was needed?

सोमवार, 12 जुलाई 2021

बेलपत्र की उत्पत्ति कैसे हुई?

       बेलपत्र की उत्पत्ति कैसे हुई, इसके प्रकार , और उसकी पूजा करने से लाभ


स्कंद पुराण के अनुसार, एक बार माता पार्वती के पसीने की बूंद मंदराचल पर्वत पर गिर गई और उससे बेल का पेड़ निकल आया। चुंकि माता पार्वती के पसीने से बेल के पेड़ का उद्भव हुआ। अत: इसमें माता पार्वती के सभी रूप बसते हैं। वे पेड़ की जड़ में गिरिजा के स्वरूप में, इसके तनों में माहेश्वरी के स्वरूप में और शाखाओं में दक्षिणायनी व पत्तियों में पार्वती के रूप में रहती हैं।


फलों में कात्यायनी स्वरूप व फूलों में गौरी स्वरूप निवास करता है। इस सभी रूपों के अलावा, मां लक्ष्मी का रूप समस्त वृक्ष में निवास करता है। बेलपत्र में माता पार्वती का प्रतिबिंब होने के कारण इसे भगवान शिव पर चढ़ाया जाता है। भगवान शिव पर बेल पत्र चढ़ाने से वे प्रसन्न होते हैं और भक्त की मनोकामना पूर्ण करते हैं। जो व्यक्ति किसी तीर्थस्थान पर नहीं जा सकता है अगर वह श्रावण मास में बिल्व के पेड़ के मूल भाग की पूजा करके उसमें जल अर्पित करे तो उसे सभी तीर्थों के दर्शन का पुण्य मिलता है।


बेल वृक्ष का महत्व- 

1. बिल्व वृक्ष के आसपास सांप नहीं आते।

2. अगर किसी की शवयात्रा बिल्व वृक्ष की छाया से होकर गुजरे तो उसका मोक्ष हो जाता है।

3. वायुमंडल में व्याप्त अशुद्धियों को सोखने की क्षमता सबसे ज्यादा बिल्व वृक्ष में होती है।

4. 4, 5, 6 या 7 पत्तों वाले बिल्व पत्रक पाने वाला परम भाग्यशाली और शिव को अर्पण करने से अनंत गुना फल मिलता है।

5. बेल वृक्ष को काटने से वंश का नाश होता है और बेल वृक्ष लगाने से वंश की वृद्धि होती है।

6. सुबह-शाम बेल वृक्ष के दर्शन मात्र से पापों का नाश होता है।

7. बेल वृक्ष को सींचने से पितर तृप्त होते हैं।

8. बेल वृक्ष और सफेद आक को जोड़े से लगाने पर अटूट लक्ष्मी की प्राप्ति होती है।

9. बेलपत्र और ताम्र धातु के एक विशेष प्रयोग से ऋषि मुनि स्वर्ण धातु का उत्पादन करते थे।

10. जीवन में सिर्फ 1 बार और वह भी यदि भूल से भी शिवलिंग पर बेलपत्र चढ़ा दिया हो तो भी उसके सारे पाप मुक्त हो जाते हैं।

11. बेल वृक्ष का रोपण, पोषण और संवर्द्धन करने से महादेव से साक्षात्कार करने का अवश्य लाभ मिलता है।

कृपया बिल्व पत्र का पेड़ जरूर लगाएं। बिल्व पत्र के लिए पेड़ को क्षति न पहुचाएं।

शुक्रवार, 9 जुलाई 2021

कर्माबाई का खिचड़ी भोग (सत्य घटना)

                            कर्मा बाई का खिचड़ी भोग




भगवान श्रीकृष्ण की परम उपासक कर्मा बाई जी जगन्नाथ पुरी में रहती थी और भगवान को बचपन से ही पुत्र रुप में भजती थीं । ठाकुर जी के बाल रुप से वह रोज ऐसे बातें करतीं जैसे ठाकुर जी उनके पुत्र हों और उनके घर में ही वास करते हों। 

एक दिन कर्मा बाई की इच्छा हुई कि ठाकुर जी को फल-मेवे की जगह अपने हाथ से कुछ बनाकर खिलाऊँ । उन्होंने जगन्नाथ प्रभु को अपनी इच्छा बतलायी । भगवान तो भक्तों के लिए सर्वथा प्रस्तुत हैं । प्रभु जी बोले - "माँ ! जो भी बनाया हो वही खिला दो, बहुत भूख लगी है ।"

कर्मा बाई ने खिचड़ी बनाई थी । ठाकुर जी को खिचड़ी खाने को दे दी । प्रभु बड़े चाव से खिचड़ी खाने लगे और कर्मा बाई ये सोचकर भगवान को पंखा झलने लगीं कि कहीं गर्म खिचड़ी से मेरे ठाकुर जी का मुँह ना जल जाये । संसार को अपने मुख में समाने वाले भगवान को कर्मा बाई एक माता की तरह पंखा कर रही हैं और भगवान भक्त की भावना में भाव विभोर हो रहे हैं ।

भक्त वत्सल भगवान ने कहा - "माँ ! मुझे तो खिचड़ी बहुत अच्छी लगी । मेरे लिए आप रोज खिचड़ी ही पकाया करें । मैं तो यही आकर खाऊँगा ।"

अब तो कर्मा बाई जी रोज सुबह उठतीं और सबसे पहले खिचड़ी बनातीं, बाकि सब कुछ बाद में करती थी । भगवान भी सुबह-सवेरे दौड़े आते । आते ही कहते - माँ ! जल्दी से मेरी प्रिय खिचड़ी लाओ ।" प्रतिदिन का यही क्रम बन गया । भगवान सुबह-सुबह आते, भोग लगाते और फिर चले जाते ।

एक बार एक महात्मा कर्मा बाई के पास आया । महात्मा ने उन्हें सुबह-सुबह खिचड़ी बनाते देखा तो नाराज होकर कहा - "माता जी, आप यह क्या कर रही हो ? सबसे पहले नहा धोकर पूजा-पाठ करनी चाहिए । लेकिन आपको तो पेट की चिन्ता सताने लगती है ।"

कर्मा बाई बोलीं - "क्या करुँ ? महाराज जी ! संसार जिस भगवान की पूजा-अर्चना कर रहा होता है, वही सुबह-सुबह भूखे आ जाते हैं । उनके लिए ही तो सब काम छोड़कर पहले खिचड़ी बनाती हूँ ।"

महात्मा ने सोचा कि शायद कर्मा बाई की बुद्धि फिर गई है । यह तो ऐसे बोल रही है जैसे भगवान इसकी बनाई खिचड़ी के ही भूखे बैठे हुए हों ।

 महात्मा कर्मा बाई को समझाने लगे - "माता जी, तुम भगवान को अशुद्ध कर रही हो। सुबह स्नान के बाद पहले रसोई की सफाई करो। फिर भगवान के लिए भोग बनाओ "। 

 अगले दिन कर्मा बाई ने ऐसा ही किया । जैसे ही सुबह हुई भगवान आये और बोले - "माँ ! मैं आ गया हूँ, खिचड़ी लाओ ।"

कर्मा बाई ने कहा - "प्रभु ! अभी में स्नान कर रही हूँ, थोड़ा रुको । थोड़ी देर बाद भगवान ने फिर आवाज लगाई । जल्दी करो, माँ ! मेरे मन्दिर के पट खुल जायेंगे, मुझे जाना है ।"

वह फिर बोलीं - "अभी मैं रसोई की सफाई कर रही हूँ, प्रभु !" भगवान सोचने लगे कि आज माँ को क्या हो गया है ? ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ । फिर जब कर्मा बाई ने खिचड़ी परोसी तब भगवान ने झटपट करके जल्दी-जल्दी खिचड़ी खायी ।

 परंतु आज खिचड़ी में भी रोज वाले भाव का स्वाद भगवान को नहीं लगा था । फिर जल्दी-जल्दी में भगवान बिना पानी पिये ही मंदिर में भागे ।

भगवान ने बाहर महात्मा को देखा तो समझ गये - "अच्छा, तो यह बात है । मेरी माँ को यह पट्टी इसी ने पढ़ायी है ।"

अब यहां ठाकुर जी के मन्दिर के पुजारी ने जैसे ही मंदिर के पट खोले तो देखा भगवान के मुख पर खिचड़ी लगी हुई है । पुजारी बोले - "प्रभु जी ! ये खिचड़ी आप के मुख पर कैसे लग गयी है ?"

भगवान ने कहा - "पुजारी जी, मैं रोज मेरी कर्मा बाई के घर पर खिचड़ी खाकर आता हूँ। आप माँ कर्मा बाई जी के घर जाओ और जो महात्मा उनके यहाँ ठहरे हुए हैं, उनको समझाओ । उसने मेरी माँ को गलत कैसी पट्टी पढाई है ?"

पुजारी ने महात्मा जी से जाकर सारी बात कही कि भगवान भाव के भुखे है । यह सुनकर महात्मा जी घबराए और तुरन्त कर्मा बाई के पास जाकर कहा - "माता जी ! माफ़ करो, ये नियम धर्म तो हम सन्तों के लिये हैं । आप तो जैसे पहले खिचड़ी बनाती हो, वैसे ही बनायें । आपके भाव से ही ठाकुर जी खिचड़ी खाते रहेंगे ।"

 फिर एक दिन आया , जब कर्मा बाई के प्राण छूट गए । उस दिन पुजारी ने मंदिर के पट खोले तो देखा - भगवान की आँखों में आँसूं हैं ।और प्रभु रो रहे हैं ।

 पुजारी ने रोने का कारण पूछा तो भगवान बोले - "पुजारी जी, आज मेरी माँ कर्मा बाई इस लोक को छोड़कर मेरे निज लोक को विदा हो गई है । अब मुझे कौन खिचड़ी बनाकर खिलाएगा ?"

 पुजारी ने कहा - "प्रभु जी ! आपको माँ की कमी महसूस नहीं होने देंगे । आज के बाद आपको सबसे पहले खिचड़ी का भोग ही लगेगा ।" इस तरह आज भी जगन्नाथ भगवान को खिचड़ी का भोग लगाया जाता है ।

*भगवान और उनके भक्तों की ये अमर कथायें अटूट आस्था और विश्वास का प्रतीक हैं । ये कथायें प्रभु प्रेम के स्नेह को दरसाने के लिए अस्तित्व में आयीं हैं कि प्रभु सिर्फ सच्चे और पवित्र भाव के भुखे है । आप भी इन कथाओं के माध्यम से भक्ति के रस को चखते हुए आनन्द के सरोवर में डुबकी लगाएं । ईश्वर की शक्ति के आगे तर्कशीलता भी नतमस्तक हो जाती है । तभी तो चिकित्सा विज्ञान के लोग भी कहते हैं - "दवा से ज्यादा, दुआ काम आएगी ।"


प्रेम से बोलिये जय जगन्नाथ जी

मंगलवार, 6 जुलाई 2021

भक्ति के 9 प्रकार हैं,आप की कौन सी भक्ति हैं?

               भक्ति के 9 प्रकार हैं,आप की कौन सी भक्ति हैं?



प्राचीन शास्त्रों में भक्ति के 9 प्रकार के बताए गए हैं जिसे नवधा भक्ति कहते हैं।

श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।

अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्॥

इन्हें ही नवधा भक्ति के नाम से जाना जाता है ।

( १ ) -- श्रवण

           ईश्वर की लीला, कथा,स्त्रोत इत्यादि को परम श्रद्धा सहित मन से निरंतर सुनना।

( २ ) --कीर्तन

            ईश्वर के गुण,चरित्र,नाम,पराक्रम आदि का आनंद एवं उत्साह के साथ कीर्तन करना।

( ३ ) --स्मरण:

              निरंतर अनन्य भाव से परमेश्वर का स्मरण करना, उनके

महात्म्य और शक्ति का स्मरण कर उस पर मुग्ध होना।

( ४ ) -पाद सेवन:

                ईश्वर के चरणों का आश्रय लेना और उन्हीं को अपना सर्वस्य समझना।

( ५ ) -अर्चन:

                 मन, वचन और कर्म द्वारा पवित्र सामग्री से ईश्वर के चरणों का पूजन करना।

( ६ ) -- वंदन

                 भगवान की मूर्ति को अथवा भगवान के अंश रूपमें व्याप्त भक्तजन,आचार्य,ब्राह्मण,गुरूजन,माता-पिता आदि को परम आदर सत्कार के साथ पवित्र भाव से नमस्कार करना या उनकी सेवा करना।

( ७ ) --दास्य

                ईश्वर को स्वामी और अपने को दास समझकर परम श्रद्धा के साथ सेवा करना।

( ८ ) -- सख्य:

              ईश्वर को ही अपना परममित्र समझकर अपना सर्वस्व उसे

समर्पण कर देना तथा सच्चे भाव से अपने पाप पुण्य का निवेदन

करना।

( ९ ) -- आत्म निवेदन: 

                अपने आपको भगवान के चरणों में सदा के लिए

समर्पण कर देना और कुछ भी अपनी स्वतंत्र सत्ता न रखना।

           यह भक्ति की सबसे उत्तम अवस्था मानी गई हैं।

।।श्री राधे।।

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