/ "ईश्वर के साथ हमारा संबंध: सरल ज्ञान और अनुभव: जुलाई 2018

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मंगलवार, 31 जुलाई 2018

कर्म योग का जीवन में महत्व

                                    कर्मयोग


समतापूर्वक कर्तव्यकर्मोंका आचरण करना ही कर्मयोग कहलाता है। कर्मयोगमें खास निष्कामभावकी मुख्यता है। निष्कामभाव न रहनेपर कर्म केवल ‘कर्म’ होते हैं; कर्मयोग नहीं होता। शास्त्रविहित कर्तव्यकर्म करनेपर भी यदि निष्कामभाव नहीं है तो उन्हें कर्म ही कहा जाता है, ऐसी क्रियाओंसे मुक्ति सम्भव नहीं; क्योंकि मुक्तिमें भावकी ही प्रधानता है। निष्कामभाव सिद्ध होनेमें राग-द्वेष ही बाधक हैं— ‘तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ’ (गीता ३। ३४); वे इसके मार्गमें लुटेरे हैं। अत: राग-द्वेषके वशमें नहीं होना चाहिये। तो फिर क्या करना चाहिये ?—

श्रेयान् स्वधर्मो विगुण: परधर्मात् स्वनुष्ठितात्।

स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह: ॥

(गीता ३। ३५)

—इस श्लोकमें बहुत विलक्षण बातें बतायी गयी हैं। इस एक श्लोकमें चार चरण हैं। भगवान्ने इस श्लोककी रचना कैसी सुन्दर की है ! थोड़े-से शब्दोंमें कितने गम्भीर भाव भर दिये हैं। कर्मोंके विषयमें कहा है—

‘श्रेयान् स्वधर्मो विगुण:’

यहाँ ‘श्रेयान्’ क्यों कहा ? इसलिये कि अर्जुनने दूसरे अध्यायमें गुरुजनोंको मारनेकी अपेक्षा भीख माँगना ‘श्रेय’ कहा था— ‘श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके’ (२। ५); कतु

‘यच्छ्रेय: स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे’ (२। ७) में अपने लिये निश्चित ‘श्रेय’ भी पूछा और तीसरे अध्यायमें भी पुन: निश्चित ‘श्रेय’ ही पूछा— ‘तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्’शेष कल:

एक संत की अमृत वाणी

                         एक संत की अमृत वाणी(आत्म - दर्शन )
संत श्री रामसुखदास जी ने कल्याण मैगजीन में अपने श्री मुख से आत्मदर्शन के ऊपर प्रवचन दिए-

उस परमात्मा का बहुत-बहुत शुक्रिया अदा करना है जिसने हमें यह बहुमूल्य मानव शरीर दिया है। वरना पशु-पक्षी की योनि मिलने पर किसी अन्य के सहारे को स्वीकारना पड़ता। इस शुभ अवसर को पाकर कितना अच्छा होगा कि हम अपनी   पहचान कर लें। वैसे तो दुनिया में मनुष्य के लिए जानने और मानने में कोई कमी नहीं है। बहुत विस्तार से वह ना जाने कितनी खोजकर्ता जा रहा है किसी ने हवाई जहाज उड़ा दिया तो किसी ने रेडियो-टीवी, कंप्यूटर जैसी आश्चर्यजनक चीजें जुटा डाली हैं फिर भी उसकी समझ का अंत नहीं आया, उसे स्वर को तो जाना समझा ही नहीं कि आखिर मेरा लक्ष्य क्या है? मनुष्य को सबसे बड़ा डर है वह मौत का! जो जन्म के बाद क्रमशः हर पल प्रत्येक सांस पर हो रही है चाहे ब्रह्माजी ही क्यों ना हो। अतः इस बहते हुए जीवन से कुछ ऐसा प्राप्त कर लें, जिसका कभी विनाश ना हो। प्रत्येक व्यक्ति अपने आप को बहुत हल्का बनाए रखना चाहता है। फिर भी वह जीवन पर्यंत ना जाने कितने अलौकिक कूड़े कचरे को समेटता रहता है बिना किसी समझकर, व्यर्थ में बोझ के  भार से मर रहा है, सभी रो रहे हैं पर इसका कचरे के भार को कोई भी फेकने को तैयार नहीं है जब जीवन की सारी शक्ति उसी शक्तिमान के आश्रित है तो फिर किसी और का सहारा क्यों लेना। चाहे जितने जन्म भी जाए एक दिन शक्तिमान के आश्रित होना ही होगा तभी अपना काम पूरा होगा। सारा सौंदर्य हमारे अंदर ही समाया हुआ है कहीं बाहर की वस्तु - पुस्तक में नहीं, उस सुंदरता का ना तो वाणी द्वारा ही बखान हो सकता है , और ना लिखने के द्वारा लेखन। प्रकृति की बाहरी छटा निहार निहार कर अनंयंत्र  मन पहुंच जाएगा, परंतु जहां सौंदर्य का सौंदर्य स्वता ही विराजमान है उसके बाद तो देखना सुनना सब खत्म हो जाता है। जो जितने दिनों के लिए आया है वह उतनी ही क्षण टिकेगा इसका एक पल भी ज्यादा नहीं, हीं फिर चाहे कोई सारी दुनिया का धन वैभव सब एक दाव पर लगा दे, पर एक पल भी यहां रुका नहीं जा सकता। यहां अधिक रुके रहने की जरूरत भी नहीं है, जरूरत तो है जल्द से जल्द अपना काम निपटा लें। 

मन में अच्छे विचार कैसे लाने चाहिए

                       मन में अच्छे विचार कैसे लाने चाहिए


मन तो चंचल है यह बात सभी जानते हैं , परंतु हमें चाहिए कि हम सदैव अपने मन में केवल सकारात्मक विचार ही लाएं। सकारात्मक सोच जब आपकी रहेगी तो मन प्रसन्न रहेगा और जब मन प्रसन्न रहेगा तो सेहत पर इसका सीधा असर पड़ेगा और सेहत अच्छी रहेगी। इसके विपरीत अगर हम नकारात्मक विचारों को ही सोचते रहेंगे, तो बेचारा दुखी मन सेहत पर भी प्रभाव डालेगा और सेहत खराब होने लगेगी। अनेक प्रकार की बीमारियों से ग्रस्त हो जाएंगे और उसका सीधा असर यह होगा कि आपको अपनी जिंदगी रोचक नहीं लगेगी, भार लगने लगेगी, साथ ही साथ अधिक बीमारियां के घेरे में आप कैद हो जायेंगे। डॉक्टर, दवाई का साथ मजबूत हो जाएगा और अंत में जीवन जीने की ललक नहीं रहेगी। अतः आप कम से कम अपने स्वंय के स्वार्थ के लिए ही केवल प्रतिफल सकारात्मक सोच को अपने पवित्र मन में स्थान दें। इस बात पर जरा भी संदेह नहीं है कि आपके विचारों का प्रभाव आपके मन पर पड़ता है। इस मानव जीवन को अच्छा व्यतीत करने के लिए प्रतिफल केवल अच्छे-अच्छे विचार मन में सोचे, अच्छे विचार सोचने में आपकी जीवन शक्ति बढ़ेगी और साथ में प्रतिपल स्फूर्ति आप महसूस कर सकेंगे। अगर सोचते समय कोई नकारात्मक विचार आते हैं और तुरंत उसे जाने भी दे और फिर केवल सकारात्मक विचारों की ओर ही अपना मुंह मोड़ ले। इससे आपको आपकी जिंदगी कुछ ज्यादा रोचक लगने लगेगी और आप ज्यादा गतिशील व्यक्तित्व वाले व्यक्ति बन जाएंगे। 
कल्याण पत्रिका के सौजन्य से। 

रविवार, 29 जुलाई 2018

शत्रुता खत्म करने के लिए नरसिंह स्तुति का जाप करें

                         श्री नरसिंह स्तुति
(इस मंत्र का नित्य जप करने से शत्रु का नाश होता है व दुष्ट की दुष्टता खत्म हो जाती है,)

स्वस्त्यस्तु विश्वस्य खल: प्रसीदतां ध्यायन्तु भुतानि शिवं मिथो धिया।
मनश्च भद्रं भजतादधोक्षजे आवेश्यतां नो मतिरप्यहैतुकी॥

अथार्त्- समग्र विश्व का कल्याण हो, दुष्ट भी प्रसन्न हो जाएं (दुष्टों की दुष्टता समाप्त होकर उनमें साधुता का उदय हो, क्योंकि जब तक वह दुष्टता की आग में जलते रहेंगे तब तक प्रसन्न कैसे रह सकते हैं?) सभी प्राणी परस्पर एक दूसरे के कल्याण का चिंतन करें। हमारा मन शुभ संकल्प करने वाला हो और हे इंद्रियातीत भगवान नृसिंह! हमारी निष्काम बुद्धि निरंतर आप में ही लगी रहे।

अगर आप संस्कृत में इसका जाप नहीं कर सकते, तो आप हिंदी में अनुवाद के द्वारा भी स्तुतिं  भी कर सकते हैं। आपकी भाषा कोई भी हो ईश्वर सब समझ जाते हैं इसलिए केवल हृदय से प्रार्थना कीजिए।

गुरुवार, 26 जुलाई 2018

श्रीमद् भागवत गीता हिंदी में अध्याय-3 का शेष

            श्रीमद् भागवत गीता (हिंदी में अध्याय 3 का शेष)
श्रेष्ठ पुरुष जो जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा- वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, , समस्त मनुष्य समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है॥२१॥
 हे अर्जुन! मुझे इन तीनों लोकों में ना तो कुछ कर्तव्य है और ना कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है । तो भी मैं क्रम में ही बरतता हूं॥२२॥
 क्योंकि हे पार्थ! यदि कदाचित् में सावधान हो कर कर्मों में न बरतूँ तो बड़ी हानि हो जाए; क्योंकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं॥२३॥
इसलिए यदि मैं कर्म ना करूं, तो यह सब मनुष्य नष्ट भ्रष्ट हो जाएं और मैं सडंक्रता का करने वाला होंऊँ तथा इस समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूँ॥२४॥
 हे भारत! कर्म में आसक्त से अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं आसक्ति रहित विद्वान भी लोकसंग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म करें॥२५॥
 परमात्मा के स्वरुप में अटल स्थित हुए ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि वह शास्त्र विहित कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अथार्त कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न ना करें । किंतु स्वंय शास्त्रविहित समस्त कर्म भलीभांति करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवाएं॥२६॥
 वास्तव में संपूर्ण करम सब प्रकार से प्रकृति के गुणों के द्वारा किए जाते हैं तो भी जिसका अंत:करण अंहकार से मोहित हो रहा है, ऐसा अज्ञानी 'मैं करता हूं' ऐसा मानता है॥२७॥
 परंतु हे महाबाहो! गुण विभाग और कर्म विभाग( त्रिगुणात्मक माया के कार्यरूप पांच महाभूत और मन, बुद्धि  अहंकार तथा पांच ज्ञानेंद्रियां, पांच कर्मेंद्रियां और शब्द आदि पांच विषय इन सबके समुदाय का नाम' गुण विभाग' है और इनकी परंपरा  की चेष्टाओं का नाम 'कर्म विभाग' है) के तत्वों को जानने वाला ज्ञान योगी संपूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा समझ कर उनमें आसक्त नहीं होता॥२८॥
प्रकृति के गुणों से अत्यंत मोहित हुए मनुष्य गुणों में और कर्मों में आसक्त रहते हैं, उन पूर्णतया न समझने वाले मंदबुद्धि, अज्ञानियों को पूर्णतया जानने वाला ज्ञानी विचलित ना करें ॥२९॥
मुझ अंतर्यामी परमात्मा में लगे हुए चित्तद्वारा संपूर्ण कर्मों को मुझ में अर्पण करके आशारहित, ममता रहित और संताप रहित होकर युद्ध कर ॥३०॥
जो कोई मनुष्य दोषदृष्टि से रहित और श्रद्धा युक्त होकर मेरे इस मत का सदा अनुसरण करते हैं, वे भी संपूर्ण कर्मों से छूट जाते हैं॥३१॥
 परंतु जो मनुष्य मुझ में दोषारोपण करते हुए मेरी इस मत के अनुसार नहीं चलते हैं उन मूर्खों को तो तू संपूर्ण ज्ञानों में मोहित और नष्ट हुए ही समझ॥३२॥
 सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात अपने स्वभाव के परवश हुए कर्म करते हैं। ज्ञानवान भी और प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है। फिर इसमें किसी का हठ क्या करेगा? ॥३३॥
इंद्रिय- इंद्रिय के अर्थ में अर्थात प्रत्येक इंद्रिय के विषय में राग और द्वेष छिपी हुई स्थित है। मनुष्य को उन दोनों के वश में नहीं होना चाहिए, क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्याण मार्ग में विघ्न करने वाले महान शत्रु है॥३४॥
 अच्छी प्रकार आचरण में लाए हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म को देने वाला है॥३५॥
                          अर्जुन ने कहा
अर्जुन बोले - हे कृष्ण! तो फिर यह मनुष्य स्वयं चाहता हुआ भी बलात् लगाये हुए की भांति किस से प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है ॥३६॥
                                श्रीभगवानुवाच
श्री भगवान बोले- रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है, यह बहुत खाने वाला अथार्त   भोगों से कभी ना अघाने वाला और बड़ा पापी है, इसको ही तू इस विषय में वैरी जान ॥३७॥
जिस प्रकार धुएँ से अग्नि और मेल से दर्पण ढका हुआ होता है तथा जिस प्रकार जेर से गर्भ ढका रहता है ,वैसे ही उस काम के द्वारा यह ज्ञान ढका  रहता है॥३८॥
 और यह अर्जुन! इस अग्नि के समान कभी न पूर्ण होने वाले कामरूप ज्ञानियों के नित्य वेरी के द्वारा मनुष्य का ज्ञान ढका हुआ है॥३९॥
 इंद्रियां, मन और बुद्धि यह सब इसके वास स्थान  कहे जाते हैं। यह काम इन मन, बुद्धि और इंद्रियों के द्वारा ही ज्ञान को आच्छादित करके जीवात्मा को मोहित करता है ॥४०॥इसलिए हे अर्जुन! तू पहले इंद्रियों को वश में करके इस ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाले महान पापी काम को अवश्य ही बलपूर्वक मार डाल॥४१॥
 इंद्रियों को स्थूल शरीर से पर यानि श्रेष्ठ, बलवान और सुक्षम कहते हैं; इन इंद्रियों पर मन है, मन से भी पर बुद्धि है और बुद्धि से भी अत्यंत पर है वह आत्मा है॥४२॥
 इस प्रकार बुद्धि से पर अर्थात  सुक्ष्म, बलवान और अत्यंत श्रेष्ठ आत्मा को जानकर और बुद्धि के द्वारा मन को वश करके हे महाबाहो! तू इस कामरूप दुर्जय शत्रु को मार डाला॥४३॥
ऊँ तत्सत श्रीकृष्ण अर्जुन संवाद तृतीय अध्याय 

बुधवार, 25 जुलाई 2018

सूर्य देव की उपासना -आदित्य हृदय स्त्रोत हिंदी में

                     सूर्य देव की उपासना -आदित्य हृदय स्त्रोत हिंदी में

                                  ॥श्री हरि॥


२१जून को सूर्य गृहण है इस दिन इसका पाठ करना चाहिए।इसके बाद ॐ आदित्याय विदमहे दिवाकराय धीमहि तन्न: सूर्य: प्रचोदयात"का जाप करना चाहिए।
'उधर श्री रामचंद्र जी युद्ध से थक कर चिंता करते हुए रणभूमि में खड़े हुए थे । इतने में रावण भी युद्ध के लिए उनके सामने उपस्थित हो गया। यह देख भगवान अगस्त्य मुनि, जो देवताओं के साथ युद्ध देखने के लिए आए थे श्री राम के पास जाकर बोले' ॥१-२॥
'सबके हृदय में रमण करने वाले महाबाहो राम! यह सनातन गोपनीय स्त्रोत सुनो। वत्स इसके जप से तुम युद्ध में अपने समस्त शत्रुओं पर विजय पा जाओगे। इस गोपनीय स्त्रोत का नाम है 'आदित्यहृदय'। यह परम पवित्र और संपूर्ण शत्रुओं का नाश करने वाला है। इसके जप से सदा विजय की प्राप्ति होती है। यह नित्य अक्षय और परम कल्याणमय स्त्रोत है। संपूर्ण मंगलों का भी मंगल है। इससे सब पापों का नाश हो जाता है। यह चिंता और शोक को मिटाने तथा आयु को बढ़ाने वाला उत्तम साधन है'॥३-५॥
' भगवान सूर्य अपनी अनंत किरणों से सुशोभित (रश्मिमान् )है। यह नित्य उदय होने वाले (समुधन) देवता और असुरों से नमस्कृत, विवस्वान नाम से प्रसिद्ध, प्रभा का विस्तार करने वाले (भास्कर) और संसार के स्वामी (भुवनेश्वर) हैं। तुम इनका [रश्मिमते नमः, समुधते नम:,देवासुर नमस्कृताय
नमः, वैवस्वते नमः, भास्कराय नमः, भुवनेश्वराय नमः इन मंत्रों के द्वारा] पूजन करो। 'संपूर्ण देवता इन्हीं के स्वरूप हैं। यह तेज की राशि तथा अपनी किरणों से जगत को सत्ता एवं स्फूर्ति प्रदान करने वाले हैं। यह ही अपनी रश्मियों का प्रसार करके देवता और असुरों सहित संपूर्ण लोकों का पालन करते हैं। यही ब्रह्मा, विष्णु, शिव, स्कंध, प्रजापति, इंद्र, कुबेर, काल, यम, चन्द्रमा, वरुण, पितर, वसु, साध्य, अश्विनी कुमार, मरुद्गण, मनु, वायु, अग्नि, प्रजा, प्राण  ऋतुओको प्रकट करने वाले तथा प्रभा के पुंज है। इन्हीं के नाम आदित्य (अदिति पुत्र) सविता, (जगत को उत्पन्न करने वाले), सूर्य (सर्वव्यापक), खग (आकाश में विचरण वाले)  पूषा( पोषण करने वाले ), गभस्तिमान (प्रकाशमान)  सुव्रणसदृश, भानु, (प्रकाशक) हिरण्यरेता, (ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के बीच), दिवाकर( रात्रि का अंधकार दूर करके दिन का प्रकाश फैलाने वाले) हरिदश्व( दिशाओं में व्यापक अथवा हरे रंग के घोड़े वाले), सहस्त्राची (हजारों किरणों से सुशोभित), सप्तसप्ति(सात घोड़े वाले), मरीचमान्( किरणों से सुशोभित), तिम्रोमंथन (अंधकार का नाश करने वाले), शंभू (कल्याण के उद्गम स्थान)  त्वष्टा( भक्तों का दुख दूर करने वाले अथवा जगत का सहार करने वाले), मार्तण्डक (ब्रह्मांड को जीवन प्रदान करने वाले)  अंशुमान (किरण धारण करने वाले)  हिरण्यगर्भ (ब्रह्मा), शिशिर (स्वभाव से ही सुख देने वाले), तपन (गर्मी पैदा करनेवाले), अहस्कर (दिनकर), रवि (सब की स्तुति के पात्र), अग्निगर्भ (अग्नि को गर्भ में धारण करने वाले)  अदिति पुत्र, शंख (आनंदस्वरूप एंव व्यापक), शिशिरनाशन (शीत का नाश करने वाले), व्योमनाथ (आकाश के स्वामी), तमोभेदी  (अंधकार को दूर करने वाले), ऋग, यजु, और सामवेद के पार गामी, घनवृष्टी( घनी वृष्टि के कारण) , अपां मित्र( जल को उत्पन्न करने वाले), विंध्यवीथी प्लवंगम( आकाश में तीव्र वेग से चलने वाले), आतपी( घाम उत्पन्न करने वाले), मंडली (किरण समूह को धारण करने वाले), मृत्यु (मौत के कारण), पिंगल( भूरे रंग वाले)  सर्वतापन( सबको ताप देने वाले), कवि (त्रिकालदर्शी), विश्व (सर्व सरूप), महातेजस्वी, रक्त (लाल रंग), वाले सर्वभवोद्भव (सब की उत्पत्ति के कारण) नक्षत्र, ग्रह, और तारों के स्वामी, विश्वभावन (जगत की रक्षा करने वाले)  तेजस्वी में भी अति तेजस्वी तथा  द्वादशात्मा(बारह स्वरूपों में अभिव्यक्त) हैं। इन सभी नामों से प्रसिद्ध सूर्य देव! आपको नमस्कार है। '॥६-१५
' पूर्णागिरि- उदयाचल तथा पश्चिमगिरी - अस्ताचल के रूप में आपको नमस्कार है। ज्योतिर्गणो ( ग्रहों और तारों) - के स्वामी तथा दिन के अधिपति आपको प्रणाम है। आप जय स्वरूप तथा विजय और कल्याण के दाता हैं । आपके रथ में हरे रंग के घोड़े जूते रहते हैं। आप को बारंबार नमस्कार हैं। सहस्त्रों किरणों से सुशोभित भगवान सूर्य आपको बारंबार प्रणाम है। आप अदिति के पुत्र होने के कारण आदित्य नाम से प्रसिद्ध है आपको नमस्कार हैं। उग्र(अभक्तों के लिए भयंकर), वीर (शक्ति संपन्न) और सारंग (शीघ्रगामी) सूर्यदेव को नमस्कार है। कमलो को विकसित करने वाले, प्रचंड तेज धारी मार्तंड को प्रणाम है। (परात्पर रूप में) आप ब्रह्मा, शिव और विष्णु के भी स्वामी हैं। सूर आपकी संज्ञा है, यह सूर्य मंडल आपका ही तेज हैं, आप प्रकाश से परिपूर्ण हैं, सबको स्वाहा कर देने वाला अग्नि आप का ही स्वरुप है, आप रौद्र रूप धारण करने वाले हैं, आपको नमस्कार है। आप अज्ञान और अंधकार के नाशक, जडता एवं शीत के निवारक तथा शत्रु का नाश करने वाले हैं, आपका स्वरूप अप्रमेय  है। आप कृतघ्नों का नाश करने वाले  संपूर्ण जोतियों के स्वामी और देव स्वरूपं हैं ;आपको नमस्कार है। आपकी प्रभा तपाये हुए स्वर्ण के समान हैं, आप हरी (अज्ञान का हरण करने वाले) और विश्वकर्मा (संसार की सृष्टि करने वाले) हैं ;तम के नाशक, प्रकाश स्वरूप और जगतं के साक्षी हैं; आपको नमस्कार है`॥१६-२१
'रघुनंदन! यह भगवान सूर्य ही संपूर्ण भूतों का संहार, सृष्टि और पालन करते हैं। यह ही अपनी किरणों से गर्मी पहुंचाते और वर्षा करते हैं। यह सब भूतों में अंतर्यामी रूप से स्थित होकर उनके सो जाने पर भी जागते रहते हैं। यह ही अग्निहोत्र तथा अग्निहोत्री पुरुषों को मिलने वाले फल हैं। (यज्ञ में भाग ग्रहण करने वाले) देवता  यज्ञ और यज्ञों के फल भी यही है। संपूर्ण लोकों में जितनी क्रियाएं होती हैं, उन सब का फल देने में यही पूर्ण समर्थ है। राघव! विपत्ति में, कष्ट में, दुर्गम मार्ग में तथा और किसी भय के अवसर पर जो कोई पुरुष इन सूर्य देव का कीर्तन करता है  , उसे दुख नहीं भोगना पड़ता । इसलिए तुम एकाग्रचित होकर इस देवाधिदेव जगदीश्वर की पूजा करो। इस आदित्य हृदय का 3 बार जप करने से कोई भी युद्ध में विजय प्राप्त कर सकता है। महाबाहो  तुम इसी क्षण रावण का वध कर सकोगे । यह कहकर अगस्त जी जैसे आए थे, उसी प्रकार चले गए ॥२२-२७॥
'उनका उपदेश सुनकर महा तेजस्वी श्री रामचंद्र जी का शौक दूर हो गया उन्होंने प्रसन्न होकर शुद्ध चित्त से आदित्य हृदय को धारण किया और तीन बार आचमन करके शुद्ध हो भगवान सूर्य की ओर देखते हुए इसका तीन बार जप किया इससे उन्हें बड़ा हर्ष हुआ । फिर परम पराक्रमी रघुनाथ जी ने धनुष उठा कर रावण की ओर देखा और उत्साह पूर्वक विजय पाने के लिए वे आगे बढ़े। उन्होंने पूरा प्रयत्न्न करके रावण के वध का निश्चय किया। उस समय देवताओं के मध्य में खड़े हुए भगवान सूर्य ने प्रसन्न होकर श्री रामचंद्र जी की ओर देखा और निशाचराज रावण के विनाश का समय निकट जानकर हर्ष पूर्वक कहा- रघुनंदन! अब जल्दी करो '॥२८-३१॥
वाल्मीकि रामायण से प्रस्तुत
गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित

मंगलवार, 24 जुलाई 2018

श्रीमद् भागवत गीता हिंदी में अध्याय 3

                 श्रीमद् भागवत गीता हिंदी में अध्याय 3

                              अर्जुन ने कहा
अर्जुन बोले-हे जनार्दन! यदि आपको कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है तो फिर यह केशव! मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं?॥१॥
आप मिले हुए - से वचनों से मेरी बुद्धि को मानव मोहित कर रहे हैं।इसलिए उस एक बात को निश्चित करके कहिए जिससे मैं कल्याण प्राप्त हो जाऊं ॥२॥
                             श्रीभगवानुवाच
श्री भगवान बोले- हे निष्पाप! इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गई है उनमें से शाम के योगियों की निष्ठा * साधन के परिपक्व अवस्था अथार्थ पराकाष्ठा का नाम निष्ठा है) ज्ञानयोग से*( माया से उत्पन्न हुए संपूर्ण गुणों के गुण में बरतते हैं, ऐसे समझकर तथा मन इंद्रियों और शरीर द्वारा होने वाली संपूर्ण क्रियाओं में कर्तापन के अभिमान से रहित होकर सर्वव्यापी  परमात्मा में एक ही भाव से स्थित रहने का नाम ज्ञान योग है। इसी को सन्यास, सांख्ययोग आदि नामों से कहा गया है।) योगियों की निष्ठा कर्मयोग से( फल और आसक्ति को त्यागकर भगवत आज्ञा अनुसार केवल भगवदर्थ समत्व बुद्धिसे कर्म करने का नाम निष्काम कर्म योग है। इसी को बुद्धि योग, कर्म योग  मत कर्रम आदि नामो से कहा गया है ।)) होती है ॥३॥
मनुष्य ना तो कर्मों का आरंभ किए बिना निष्कर्मता को यानी योग निष्ठा को प्राप्त होता है। और ना कर्मों के केवल त्याग मात्र से सिद्धि यानी सांख्नियनिष्ठा को प्राप्त होता है॥४॥
निसंदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षण मात्र भी बि
ना कर्म किए नहीं रहता ;क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा प्रवेश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है ॥५॥
जो मूढ़बुद्धि मनुष्य समस्त इंद्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोक कर मन से मन इंद्रियों के विषयों का चिंतन करता रहता है वह मिथ्याचारी अथार्त दम्भी भी कहा जाता है॥६॥
 किन्तु हे अर्जुन !जो पुरुष मन से इंद्रियों को वश में करके अनास्क्त हुआ समस्त इंद्रियों द्वारा कर्मों का आचरण करता है वही श्रेष्ठ है॥७॥
 तू शास्त्रविहित कर्तव्य कर्म कर ;क्योंकि कर्म ना करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म ना करने से तेरा शरीर - निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा॥८॥
 यज्ञ के निर्मित्त किए हुए जाने वाले कर्मों से अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मनुष्य समुदाय कर्मों से बंथता है। इसलिए हे अर्जुन! तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भली भांति कर्तव्य कर्म कर ॥९॥
प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजाओं को रच कर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ के द्वारा वृर्द्धि को प्राप्त हो और यह यज्ञ तुम लोगों की इच्छित भोग प्रदान करने वाला हों॥१०॥
तुम लोग इस यज्ञ के द्वारा देवताओं को उन्नत करो और वे देवता तुम लोगों का उन्नत करें  इस प्रकार निस्वार्थ भाव से एक दूसरे को उन्नत करते हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे॥११॥
यज्ञ के द्वारा बढाए हुए देवता तुम लोगों को बिना मांगे ही इच्छितभोग तो निश्चय ही देते रहेंगे इस प्रकार उन देवताओं के द्वारा दिए हुए भोगों को जो पुरुष उनको बिना दिए स्वयं भोगता है वह चोर ही है॥१२॥
 यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं और जो  पापी लोग अपना शरीर पोषण करने के लिए ही अन्ना पकाते हैं, वह तो पाप को ही खाते हैं ॥१३॥संपूर्ण प्राणी अन्य से उत्पन्न होते हैं, अन्न की उत्पत्ति वृष्टि से होती है, वृष्टि यज्ञ से होती है और यज्ञ विहित कर्म से उत्पन्न होने वाले हैं। कर्म समुदाय को तू वेद से उत्पन्न और वेद को अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ जान। इससे सिद्ध होता है कि सर्वव्यापी परम अक्षर ब्रह्म परमात्मा सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है॥१४-१५॥
 हे पार्थ! जो पुरुष इस लोक में इस प्रकार परंपरा से प्रचलित सृष्टि चक्र के अनुकूल नहीं बरतता अथार्त अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता, वह इंद्रियों के द्वारा भोगों में रमण करने वाला पापायू पुरुष व्यर्थ ही जीता है ॥१६॥
परंतु जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करने वाला और आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही संतुष्ट हो, उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं है ॥१७॥
उस महापुरुष को इस विश्व में ना तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और ना कर्मों के ना करने से ही कोई प्रयोजन रहता है। तथा संपूर्ण प्राणियों में भी इसका किंचित मात्र भी स्वार्थ का संबंध नहीं रहता ॥१८॥
इसलिए तू निरंतर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्तव्य कर्म को भलीभांति करता रह। क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को ही प्राप्त हो जाता है॥१९॥
 जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्ति रहित करम द्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए थे। इसलिए तथा लोकसंग्रह को देखते हुए भी तू कर्म करने के योग्य है अर्थात तुझे कर्म करना ही उचित है॥२०॥
शेष कल:
जय श्री राधे

सोमवार, 23 जुलाई 2018

क्रोध करने से अपने आप को कैसे रोकें

                             क्रोध करने से बचे
                                    अक्रोध

प्रभु कृपा से बुद्धि शुद्ध सात्विक रहे। परस्पर प्रेम बनाए रहें। किसी से कोई भूल हो तो उसे क्षमा करें। हम जानते हैं कि यह थोड़ा मुश्किल है, पर असम्भव नहीं, जिस पर भी क्रोध आ रहा है, उसके पास से कुछ समय के लिए दूर हो जाए, एक लम्बी  गहरी साँस ले, फिर अपने आप को समझा दे, क्रोध ना करें। जिसके ऊपर क्रोध किया जाता है, उसकी हानि नहीं होती है । जो क्रोध करता है उसी का रक्त जलता है। क्रोध करने से बुद्धि का नाश होता है ।विकास की गति मंद हो जाती है। क्रोध से हिंसा के और बदला लेने के भावों का उदय होता है। भाव से कर्म बनता है,कर्म को भोगने के लिए और फिर जन्म । बार-बार जन्म मरण होता है। जन्म लेना है, सत्संग भजन के लिए , बदला चुकाने के लिए नहीं। इसलिए शांत रहे। जब आप भजन कीर्तन में रम जाएंगे तो धीरे - धीरे मन शांत होने लगेगा, बस कोशिश करो कि हमेशा मन में प्रभु का स्मरण चलता रहें। जय श्री राधे

प्रभु की कृपा कैसे बरसती है ,और कब बरसती हैं

                  प्रभु की कृपा सभी पर हमेशा बरसती रहती है


  दयामय प्रभु की कृपा सभी पर सदा बरसती रहती है। अन्यथा जीव - मनुष्य सुख की सांस नहीं ले सकता है। तीर्थ में सब की कामनाएं पूर्ण होती हैं। प्रभु एक ना एक कष्ट चिंता इसलिए देते हैं कि प्राणी हमारा स्मरण करें। भक्तों का जीवन चरित्र प्रेरणादायक रहता है। हर भक्त ने भगवान का चिंतन और विश्वास करके भगवान को पाया और सद्बुद्धि प्राप्त की। सद्बुद्धि बनी रहे इसी बात की तो आवश्यकता है। इससे प्राणियों के प्रति प्रेम बना रहता है। अपने वर्णाश्रम के कर्तव्य को यदि सच्चाई के साथ पालन किया जाए तो इसी से प्रभु संतुष्ट हो जाते हैं। मन की प्रसन्नता, प्रभु की कृपा का अनुभव कराती है
( दादा गुरु महाराज जी मलूक पीठ वृंदावन के मुख से

शुक्रवार, 20 जुलाई 2018

श्रीमद्भागवत गीता हिंदी में(अध्याय 2 का शेष)

                 श्रीमद् भागवत गीता हिंदी में अध्याय 2


या तो तू युद्ध में मारा जाकर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम में जीतकर पृथ्वी का राज्य भोगेगा। इस कारण हे अर्जुन! तू युद्ध के लिए निश्चय करके खड़ा हो जा ॥३७॥

जय -पराजय, लाभ लाभ-हानि और सुख-दुख को समान समझ कर, उसके बाद युद्ध के लिए तैयार हो जा ;इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा॥३८॥

 हे पार्थ !यह बुद्धि तेरे लिए ज्ञान योग के विषय में कही गई और अब तू इसको कर्म योग के विषय में सुन - जिस बुद्धि से युक्त हुआ तू कर्मों के बंधन को भलीभांति त्याग देगा अथाार्त सर्वथा नष्ट कर डालेगा॥ ३९॥

 इस कर्मयोग में आरंभ का अथार्त बीज का नाश नहीं है और उल्टा फल स्वरुप दोष भी नहीं है, बल्कि इस कर्म योग रूप धर्म का थोड़ा सा भी साधन जन्म मृत्युरूप महान भय से रक्षा कर लेता है॥४०॥

 हे अर्जुन! इस कर्म योग में निश्चयात्मक बुद्धि एक ही होती है ;किंतु अस्थिर विचार वाले विवेकहीन सकाम मनुष्य की बुद्धियाँ निश्चय ही बहुत भेदों वाली और अनंत होती है॥४१॥

 हे अर्जुन! जो भोगों में तन्मय में हो रहे हैं, जो कर्फमल के प्रशंसक वेद वाक्यों में ही प्रीति रखते हैं, जिनकी बुद्धि में स्वर्ग ही परम प्राप्य वस्तु है और जो स्वर्ग से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु ही नहीं है- ऐसा कहने वाले हैं, वह अविवेकीजन इस प्रकार की जिस पुष्पित अथार्त दिखाऊ शोभायुक्त वाणी को कहा करते हैं जो कि जन्म रूप कर्म फल देने वाली तथा भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए नाना प्रकार की बहुत सी क्रियाओं का वर्णन करने वाली है,उस वाणी द्वारा जिन का चित्त हर लिया गया है, जो भोग और ऐश्वर्या में अत्यंत आसक्त है, उन पुरुषों की परमात्मा में निश्चयात्कामिका बुध्दि नहीं होती॥४२॥

 हे अर्जुन! वेद उपयुक्त प्रकार से तीनों गुणों के कार्यरूप समस्त भोगों एवं उनके साधनों का प्रतिपादन करने वाले हैं; इसलिए तू उन भोगों एवं उनके साधनों में आसक्तिहीन, हर्ष शोक आदि द्वन्दों से रहित, नित्य वस्तु परमात्मा में स्थित, योग - क्षेमको न चाहने वाला और स्वाधीन अंतकरण वाला हो॥४५॥
सब ओर से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त हो जाने पर छोटे जलाशय में मनुष्य का जितना प्रयोजन रहता है, ब्रह्म को तत्व से जानने वाले ब्राह्मण का समस्त वेदों में उतना ही प्रयोजन रहता है ॥४६॥

तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल का हेतु मत हो तथा तेरी कर्म ना करने में भी आसक्ति ना हो ॥४७॥

हे धनंजय! आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धि वाला होकर योग में स्थित हुआ कर्तव्य कर्मों को कर, समत्व ही योग कहलाता है॥४८॥

 इस समत्व रूप बुद्धि योग से सकाम कर्म अत्यंत ही निम्न श्रेणी का है। इसलिए हे धनञ्जय! तू सम बुद्धि में ही रक्षा का उपाय ढूंढ आथार्त बुद्धियोग का ही आश्रय ग्रहण कर ;क्योंकि फल के हेतु बनने वाले अत्यंत दीन है॥४९॥

समबुद्धियुक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है अथार्त उन से मुक्त हो जाता है। इससे तू समत्व रूप योग में लग जा; यह समत्व रूप योग ही कर्मों में कुशलता है अथार्त कर्म बंधन से छूटने का उपाय है ॥५०॥
क्योंकि सम बुद्धि से युक्त ज्ञानी जन कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल को त्याग कर, जन्म रूप बंधन से मुक्त हो, निर्विकार परम पद को प्राप्त हो जाते हैं ॥५१॥

जिस काल में तेरी बुद्धि मोहरूप दलदल को भलीभांति पार कर जाएगी, उस समय तू सुने हुए और सुनने में आने वाले इस लोक और परलोक संबंधी सभी भागों से वैराग्य को प्राप्त हो जाएगा ॥५२॥

भांति- भांति के वचनों को सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्धि जब परमात्मा में अचल और स्थिर  ठहर जाएगी, तब तू योग को प्राप्त हो जाएगा अथार्त तेरा परमात्मा से नित्य संयोग हो जाएगा ॥५३॥
                                अर्जुन उवाच
 अर्जुन बोले- हे केशव! समाधि में स्थित परमात्मा को प्राप्त हुए स्थिर बुद्धि पुरुष का क्या लक्षण है? वह स्थिर बुद्धि पुरुष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है? ॥५४॥
                               श्रीभगवानुवाच
 श्री भगवान बोले - हे अर्जुन! जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित संपूर्ण कामनाओं को भलीभांति त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है,उस काल में वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है ॥५५॥

दुखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता,ष सुखों की प्राप्ति में जो सर्वथा निस्पृह है तथा जिसके राग,भय और क्रोध नष्ट हो गए हैं, ऐसा मुनि स्थिर बुद्धि कहा जाता है॥५६॥
 जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त हो कर ना प्रसन्न होता है ,और ना द्वेष करता है उसकी बुद्धि स्थिर है ॥५७॥

और कछुआ सब ओर से अपने अंगों को जैसे समेट लेता है वैसे ही जब वह पुरुष इंद्रियों के विषयों से इंद्रियों को सब प्रकार से हटा लेता है तब उसकी बुद्धि स्थिर है (ऐसा समझना चाहिए)॥५८॥
इंद्रियों के द्वारा विषयों को ग्रहण न करने वाले पुरुष के भी केवल विषय तो निवृत हो जाते हैं परंतु उनमें रहने वाली आसक्ति निवृत्त नहीं होती। इस स्थिति प्रज्ञ पुरुष की तो आस्क्ति भी परमात्मा का साक्षात्कार करके निवृत हो जाती है॥५९॥
हे अर्जुन! आसक्ति का नाश ना होने के कारण यह प्रमथन स्वभाव वाली इंद्रियां यत्न करते हुए बुद्धिमान पुरुष के मन को भी बलात् हर लेती हैं ।॥६०॥
इसलिए साधक को चाहिए कि वह उन संपूर्ण इंद्रियों को वश में करके समाहित चित्त हुआ, मेरे परायण होकर ध्यान में बैठे, क्योंकि जिस पुरुष की इंद्रियां वश में होती है, उसी की बुद्धि स्थिर हो जाती है॥६१॥
 विषयों का चिंतन करने वाले पुरुष की उस विषयों में आ सक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में  विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है ॥६२॥
क्रोध से अत्यंत मूढ़भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है ,स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अथार्त ज्ञान शक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है॥६३॥
 परंतु अपने अधीन किए हुए अंतःकरण वाला साधक अपने वश में की हुई, राग द्वेष रहित इंद्रियों द्वारा विश्व में विचरण करता हुआ अंतकरण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है॥६४॥ अंत:करण की प्रसन्नता होने पर इसके संपूर्ण दुखों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्नचित्त वाले कर्म योगी की बुद्धि शीघ्र ही सब और से हटकर एक परमात्मा में ही भलीभांति स्थिर हो जाती है॥६५॥
 न जीते हुए मन और इंद्रियां वाले पुरुष में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती और उस आयुक्त मनुष्य के अंत:करण में भावना भी नहीं होती तथा भावनाहीन मनुष्य को शांति नहीं मिलती और शांति रहित मनुष्य को सुख कैसे मिल सकता है॥६६॥
 क्योंकि जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है ,वैसे ही विषयों में विचरती हुई इंद्रियों में से मन इन्द्रिय के साथ रहता है वह एक ही इंद्रिय इस अयुक्त पुरुष की बुद्धि को हर लेती है॥६७॥
 इसलिए हे महाबाहों! जिस पुरुष की इंद्रियां, इंद्रियों के विषयों से सब प्रकार निग्रह की हुई हैं, उसी की बुद्धि स्थिर है ॥६८॥संपूर्ण प्राणियों के लिए जो रात्रि के समान हैं ,उस नित्य ज्ञानस्वरूप परमानंद की प्राप्ति में स्थितप्रज्ञ योगी जागता है और जिस सांसारिक सुख की प्राप्ति में सब प्राणी जागते हैं, परमात्मा के तत्वों को जानने वाले मुनि के लिए वह रात्रि के समान हैं ॥६९॥
जैसे नाना नदियों के जल सब और से परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठा वाले समुंद्र में उसको विचलित ना करते हुए ही समा जाते हैं, वैसे ही सब लोग जिस स्थिति प्रज्ञ पुरुष में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किए बिना ही समा जाते हैं, वही पुरुष परम शांति को प्राप्त होता है, भोगों को चाहने वाला नहीं॥७०॥
जो पुरुष संपूर्ण कामनाओं को त्याग कर ममतारहित ,अहंकार रहित और स्पृहारहित हुआ विचरता  है, वही शांति को प्राप्त होता है, अथार्त वह शांति को प्राप्त है॥७१॥
 हे अर्जुन! यह ब्रह्म को प्राप्त हुए पुरुष की स्थिति है, इसको प्राप्त होकर योगी कभी मोहित नहीं होता और अंत काल में भी इस ब्राह्मी स्थिति में स्थित होकर ब्रह्मानंद को प्राप्त हो जाता है॥७२॥
 ओम तत्सत श्रीमद् भागवत गीता  श्री कृष्ण अर्जुन संवाद द्वितीय अध्याय पूर्ण

गुरुवार, 19 जुलाई 2018

श्रीमद् भागवत गीता हिंदी में अध्याय 2

                           ॐ परमातम्ने नम:



कल्याण की इच्छा करने वाले मनुष्य को जीवन में एक बार गीताजी का पाठ जरूर करना चाहिए और अगर वह सरल भाषा में उपलब्ध हो तो उसका लाभ जरूर उठाना चाहिए
                      अथ द्वितीय अध्याय
                        संजय उवाच
संजय बोले- उस प्रकार करुणा से व्याप्त और आसुओं से पूर्ण तथा व्याकुल नेत्र वाले शोक युक्त उस अर्जुन के प्रति भगवान मधुसूदन ने यह वचन कहा।।१॥
                  श्रीभगवानुवाच
श्री भगवान बोले- हे अर्जुन! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ? क्योंकि ना तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है, ना स्वर्ग को देने वाला है, और ना कीर्तन को करने वाला है ॥२॥
इसलिए हे अर्जुन! नपुंसकता को मत प्राप्त हो ,तुझ में यह उचित नहीं जान पड़ती ।हे परंतु! हृदय की दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए खड़ा हो जा॥३॥
                       अर्जुन उवाच
 अर्जुन बोले - हे मधुसूदन! मैं रणभूमि में किस प्रकार बाणों से भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य के विरुद्ध लड़ूँगा? क्योंकि हेअरिसूदन!वे दोनों ही पूजनीय हैं ॥४॥
इसलिए इन महानुभाव गुरुजनों को ना मार कर मैं इस लोक में भिक्षा का अन्न भी खाना कल्याणकारक समझता हूं; क्योंकि गुरुजनों को मारकर भी इस लोक में रुधिर से सने हुए अर्थ और काम रूप भोगों को ही तो भोगूँगा॥५॥
हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिए युद्ध करना और ना करना - इन दोनों में से कौन-सा श्रेष्ठ है, अथवा यह भी नहीं जानते कि उन्हें हम जीतेंगे या हमको वह जीतेंगे और जिन को मारकर हम जीना भी नहीं चाहते वह ही हमारे आत्मीय धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे मुकाबले में खड़े हैं ॥६॥
इसलिए कायरता रूप दोष से उपहत हुए स्वभाव वाला तथा धर्म के विषय में मोहित चित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूं कि जो साधन निश्चित कल्याणकारक हो, वह मेरे लिए कहिए ;क्योंकि मैं आपका शिष्य हूं, इसलिए आपके शरण हुए मुझ को शिक्षा दीजिए॥७॥
 क्योंकि भूमि में निष्कंटक, धन-धान्य संपन्न राज्य को और देवताओं के स्वामी बने को प्राप्त हो कर भी मैं इस उपाय को नहीं देखता हूं ,जो मेरी इंद्रियों के सुखाने वाले शौक को दूर कर सकें॥८॥
                                   संजय उवाच
संजय बोले - हे राजन! निद्रा को जीतने वाले अर्जुन अंतर्यामी श्री कृष्ण महाराज के प्रति इस प्रकार कहकर फिर श्री गोविंद भगवान से' युद्ध नहीं करूंगा' यह स्पष्ट कह कर चुप हो गए॥९॥
 हे भरतवंशी धृतराष्ट्र! अंतर्यामी श्री कृष्ण महाराज दोनों सेनाओं के बीच में शोक करते हुए उस अर्जुन को हंसते हुए- से यह वचन बोले ॥१०॥
                         श्री भगवानुवाच
श्री भगवान बोले- हे अर्जुन! तू न शोक करने योग्य मनुष्य के लिए शोक करता है और पंडितों के से वचन को कहता है ;परंतु जिन के प्राण चले गए हैं, उनके लिए और जिन के प्राण नहीं गए हैं उनके लिए भी पंडित जन शौक नहीं करते॥११॥
 न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था, तू नहीं था अथवा यह राजा लोग नहीं थे और ना ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे ॥१२॥
जैसे जीवात्मा को इस देह में बालकपन ,जवानी और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है; उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता ॥१३॥
हे कुंतीपुत्र! सर्दी ,गर्मी और सुख -दुख को देने वाले इंद्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति विनाशील और अनित्य है, इसलिए हे भारत! उनको तू सहन कर ॥१४॥
क्योंकि हे पूरूश्रेष्ठ! दुख- सुख को समान समझने वाले जिस स्त्री - पुरुष को यह इंद्रिय और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते वह मोक्ष के योग्य होता है॥१५॥
असत् वस्तु की तो सत्ता नहीं है और सत्य का अभाव नहीं है इस प्रकार इन दोनों का ही तत्व तत्व ज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है॥१६॥
 नाशरहित तो तू उसको जान, जिससे यह संपूर्ण जगत - दृश्य वर्ग व्याप्त है। इस अविनाशी का विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है ॥१७॥
इस नाश रहित, अप्रमेय, नित्य स्वरूप जीवात्मा के यह सब शरीर नाशवान कहे गए हैं, इसलिए हे भरतवंशी अर्जुन! तू युद्ध कर॥१८॥
जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते ;क्योंकि यह आत्मा वास्तव में ना तो किसी को मारता है और ना किसी के द्वारा मारा जाता है ॥१९॥
यह आत्मा किसी काल में भी ना तो जन्मता है और ना मरता ही है तथा ना यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है; क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है; शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता॥२०॥
 हे पृथापुत्र अर्जुन! जो पुरुष आत्मा को नाश रहित, नित्य, अजन्मा और अव्यय जानता है, वह पुरुष कैसे किसको मरवाता है और कैसे किस को मारता है? ॥२१॥
जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है वैसे ही जीवात्मा पुरानी शरीरों को त्याग कर दूसरे नहीं शरीरों को प्राप्त होता है॥२२॥
इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकती॥२३॥
 क्योंकि यह आत्मा अच्छेध है ,यह आत्मा अदाह्य, अक्लेध निसंदेह अशोष्य है तथा यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, अचल स्थिर रहने वाला और सनातन है ॥२४॥
यह आत्मा अव्यक्त है यह आत्मा अचिन्त्य है और यह आत्मा विकार रहित कहा जाता है। इससे है अर्जुन! इस आत्मा को उपयुक्त प्रकार से जानकर तुम शौक करने को योग्य नहीं होअथार्त तुझे शौक करना उचित नही हैं॥२५॥
 किंतु यदि तू इस आत्मा को सदा जन्मने वाला तथा सदा मरने वाला मानता हो, तो भी हे महाबाहो! तू इस प्रकार शोक करने को योग्य नहीं है ॥२६॥
क्योंकि इस मान्यता के अनुसार जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म निश्चित है। इस से भी इस बिना उपाय वाले विषय में तू शोक करने योग्य नहीं है॥२७॥
 हे अर्जुन! संपूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो जाने वाले हैं ।केवल बीच में ही प्रकट हैं फिर ऐसी स्थिति में क्यों शोक करना है ?॥२८॥
कोई एक महापुरुष ही इस आत्मा को आश्चर्य की भांति देखता है और वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष है इसके तत्व का आश्चर्य की भांति वर्णन करता है तथा दूसरा कोई अधिकारी पुरुष ही इसे आश्चर्य की भांति सुनता है और कोई कोई तो सुनकर भी इसको नहीं जानता॥२९॥
 हे अर्जुन !यह आत्मा सब के शरीर में सदा ही अवध्य
( जिसका वध नहीं किया जा सके) है इस कारण संपूर्ण प्राणियों के लिए तू शोक करने के योग्य नहीं है ॥३०॥
तथा अपने धर्म को देख कर भी तू भय करने योग्य नहीं है अथार्त तूझे भय नहीं करना चाहिए ;क्योंकि क्षत्रियों के लिए धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई भी कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है॥३१॥
 हे पार्थ! अपने आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वाररूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान क्षत्रिय लोग ही पाते हैं ॥३२॥
किंतु यदि तू इस धर्म युद्ध  को नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पापको प्राप्त होगा ॥३३॥
तथा सब लोग तेरी बहुत काल तक रहने वाली अपकीर्ति का भी कथन करेंगे और माननीय पुरुष के लिए अपकीर्ति मरण से भी बढ़कर है ॥३४॥
और जिन की दृष्टि में तू पहले बहुत सम्मानित होकर अब लघुता को प्राप्त होगा, वे महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से हटा हुआ मानेंगे ॥३५॥
तेरे वेरी लोग तेरे सामर्थ्य की निंदा करते हुए तुझे बहुत से ना कहने योग्य वचन भी कहेंगे उससे अधिक दु:ख और क्या होगा?॥३६॥
शेष कल-

बुधवार, 18 जुलाई 2018

श्रीमद भगवत गीता हिंदी में अध्याय 1 का शेष( पार्ट 2)

                           श्रीमद्भागवत गीता(प्रथम अध्याय)

अर्जुन ने कहा- हे राजन! इसके बाद कपिध्वज अर्जुन ने मोर्चा बांधकर डटे हुए धृतराष्ट्र संबंधियों को देखकर,उस शस्त्र चलने की तैयारी के समय धनुष उठा कर हृषीकेश श्री कृष्ण महाराज से यह वचन कहा - हे अच्युत! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कीजिए।। 20-21।।
 और जब तक कि मैं युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इन विपक्षी योद्धाओं को भली प्रकार देख लूं कि इस युद्ध रूप व्यापार में मुझे किन किन के साथ युद्ध करना योग्य है तब तक उसे खड़ा रखिए ।।22।।
दुर्बुद्धि दुर्योधन का युद्ध में हित चाहने वाले जो जो यह राजा लोग इस सेना में आए हैं, इन युद्ध करने वालों को मैं देखूंगा।। 23।।
संजय ने कहा
 संजय बोले- हे धृतराष्ट्र! अर्जुन द्वारा इस प्रकार कहे हुए महाराज श्री कृष्ण चंद्र ने दोनों सेनाओं के बीच में भीष्म और द्रोणाचार्य के सामने तथा संपूर्ण राजाओं के सामने उत्तम रथ को खड़ा करके इस प्रकार का कि हे पार्थ! युद्ध के लिए जुटे हुए इन कोंरवों देख।। 24-25।।
 इसके बाद पृथापुत्र अर्जुन ने उन दोनों ही सेनाओं में स्थित ताऊ- चाचा को, दादा- परदादा को, गुरु को  मामा को, भाइयों को, पुत्रों को, पोत्रों को तथा मित्रों को, ससुर  को भी देखा।। 26-27
उन उपस्थित संपूर्ण बंधुओं को देखकर वह कुंती पुत्र अर्जुन अत्यंत करुणा से युक्त होकर शोक करते हुए यह वचन बोले।। 27
अर्जुन बोले- हे कृष्ण !युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इस स्वजन समुदाय को देखकर मेरे अंग शिथिल हुए जा रहे हैं और मुंह सुखा जा रहा है तथा मेरे शरीर में कंपन एवं रोमांच हो रहा है।। 28-29
हाथ से गांडीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा मन भ्रमित सा हो रहा है इसलिए मैं खड़ा रहने को भी समर्थ नहीं हूं।।30
हे केशव! मैं लक्षणों को भी विपरीत ही देख रहा हूं तथा युद्ध में स्वजन समुदाय को मारकर कल्याण भी नहीं देखता।। 31।।
 हे कृष्ण! मैं ना तो विजय चाहता हूं ना राज्य तथा सुखों को ही। हे गोविंद! हमें ऐसे राज्य से क्या प्रयोजन है अथवा ऐसे लोगों से और जीवन से भी क्या लाभ है?।।32।।
 हमें जिनके लिए राज्य, भोग  सुखआदि अभीष्ट हैं, वे ही यह सब धन और जीवन की आशा को त्याग कर युद्ध में खड़े हैं।  33।।
गुरुजन, ताऊ, चाचा, लड़के और उसी प्रकार दादा, मामा,  ससुर, पुत्र, साले तथा और भी संबंधी लोग हैं।। 34।।
 हे मधुसूदन! मुझे मारने पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के लिए भी मैं इन सब को मारना नहीं चाहता.; फिर पृथ्वी के लिए तो कहना ही क्या है?।।35।।
 यह जनार्दन! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी ?इन आतताइयों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा ।।36।।
अतएव हे माधव !अपने ही बांधव धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के लिए हम योग्य नहीं हैं; क्योंकि अपने ही कुटुंब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे?।। 37।।
यद्यपि लोभ से भ्रष्टचित हुए यह लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोस्तों और मित्रों से विरोध करने में पाप को नहीं देखते तो भी हे जनार्दन! कुल के नाश से उत्पन्न दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से हटने के लिए क्यों नहीं विचार करना चाहिए?।। 38-39
 कुल के नाश से सनातन कुल धर्म नष्ट हो जाते हैं, धर्म के नाश हो जाने पर संपूर्ण कुल में पाप भी बहुत फैल जाता है।। 40।।
 हे कृष्ण! पाप के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियां अत्यंत दूषित हो जाती हैं और हे वार्ष्णेय!  स्त्रियों के दूषित हो जाने पर वर्णसंकर उत्पन्न होता है।। 41।।
वर्णसं‍कर कुलघाटियों को और कुल को नर्क में ले जाने के लिए ही होता है।लुप्त हुई पिंड और जल की क्रिया वाले अथार्थ श्राद्ध और तर्पण से वंचित इनके पितरलोग भी अधोगति को प्राप्त होते हैं।। 42।।
इन वर्णसंकर कारक दोषों से कुल घाटियों के सनातन कुल धर्म और जाति धर्म नष्ट हो जाते हैं ।।43।।
यह जनार्दन! जिनका कुल धर्म नष्ट हो गया है, ऐसे मनुष्य का अनिश्चित काल तक नर्क में वास होता है ऐसा हम सुनते आए हैं ।। 44।।
हां !शोक! हम लोग बुद्धिमान होकर भी महान पाप करने को तैयार हो गए हैं, जो राज्य और सुख के लोभ से स्वजनों को मारने के लिए उद्यत हो गए हैं।। 45।।
यदि मुझ शस्त्र रहित एवं सामना ना करने वाले को शस्त्र हाथ में लिए हुए धृतराष्ट्र के पुत्र रण में मार डाले तो वह मारना भी मेरे लिए अधिक कल्याणकारक होगा।। 46।।
संजय बोले -रणभूमि में शोक से उदास मन वाले अर्जुन इस प्रकार कहकर बाण सहित धनुष को त्यागकर रथ के पिछले भाग में बैठ गए।। 47।।
ॐ तत्सत श्री कृष्ण अर्जुन संवाद का प्रथम अध्याय सम्पूर्ण 
( यह श्रीमद्भागवत गीता श्लोक अर्थ सहित महातम्य हिंदी अनुवाद मैं गीता प्रेस गोरखपुर द्वारा रचित में से पढ़कर आप सबके समक्ष लिख रही हूं) जय श्री राधे

मंगलवार, 17 जुलाई 2018

श्रीमद्भागवत गीता (हिन्दी में) अध्याय 1

                         श्री गीता जी की महिमा


वास्तव में श्रीमद्भागवत गीता का महात्म्य वाणी द्वारा वर्णन करने के लिए किसी की भी सामर्थ्य नहीं है क्योंकि यह एक परम रहस्यमय ग्रंथ है। इस में संपूर्ण वेदों का सार संग्रह किया गया है। इसकी संस्कृत इतनी सुंदर और सरल है कि थोड़ा अभ्यास करने से मनुष्य उसको सहज ही समझ सकता है, परंतु उसका आशय इतना गंभीर है कि आजीवन निरंतर अभ्यास करते रहने पर भी उसका अंत नहीं आता है प्रतिदिन नए-नए भाव उत्पन्न होते रहते हैं। भगवान ने श्रीमद्भगवद्गीता रूप एक ऐसा अनूपमेय शास्त्र कहा है जिसमें एक भी शब्द  सदुपदेश से खाली नहीं है। श्री वेदव्यास जी ने महाभारत में गीता जी का वर्णन करने के उपरांत कहा है कि गीता सुगीता करने योग्य है। अतः श्री गीता जी को भली प्रकार पढ़कर अर्थ और भाव सहित अंतकरण में धारण कर लेना मुख्य कर्तव्य है जो कि स्वयं भगवान विष्णु के मुखारविंद से निकली हुई है
                      प्रथम अध्याय
धृतराष्ट्र कह रहे हैं - हे संजय धर्म भूमि कुरुक्षेत्र में एकत्रित युद्ध की इच्छा वाले मेरे और पांडु के पुत्रों ने क्या किया?।।1

संजय ने कहा - उस समय राजा दुर्योधन ने व्यू रचना युक्त पांडवों की सेना को देखकर और द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन कहा।  2
 हे आचार्य आपकी बुद्धिमान शिष्य द्रुपद पुत्र धृष्टद्युम्न द्वारा व्यूहाकार खड़ी की हुई पांडू पुत्रों की इस बड़ी भारी सेना को देखिए।। 3
इस सेना में बड़े-बड़े धनुष वाले तथा युद्ध में भीम और अर्जुन के समान शूरवीर सत्यकि और विराट तथा महा रथी राजा द्रुपद, धृष्टकेतु और चेकितान तथा बलवान काशी राज पुरूजित, कुंतिभोज और मनुष्य में श्रेष्ठ शेब्‍य, पराक्रमी युद्धा मन्यु तथा बलवान उत्तमोजा, सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु एवं द्रोपदी के पांचों पुत्र, यह सभी महारथी हैं।। 4-6।।
हे ब्राह्मण श्रेष्ठ! अपने पक्ष में भी जो प्रधान है, उनको आप समझ लीजिए। आपकी जानकारी के लिए मेरी सेना के जो जो सेनापति हैं उन को बतलाता हूँ।। 7।।
आप - द्रोणाचार्य और पितामह भीष्म तथा कर्ण और संग्राम विजय कृपाचार्य तथा वैसे ही अश्वत्थामा विकर्ण और सोम दत्त का पुत्र भूरिश्रवा।। 8।।
और भी मेरे लिए जीवन की आशा त्याग देने वाला बहुत से शूरवीर अनेक प्रकार के शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित और सब के सब युद्ध में चतुर है।।9।।
भीष्म पितामह द्वारा रचित हमारी वह सेना सब प्रकार से अजय है और भीम द्वारा रचित इन लोगों की यह सेना जीतने में सुगम है।। 10।।
 इसलिए सब मोर्चों पर अपनी-अपनी जगह स्थित रहते हुए आप लोग सभी निसंदेह भीष्म पितामह की ही सब ओर से रक्षा करें।। 11।।
कोरवा में वृद्ध बड़े प्रतापी पितामह भीष्म ने दुर्योधन के हृदय में हर्ष उत्पन्न करते हुए उच्च स्वर से सिंह की दहाड़ के समान गरजकर शंख बजाया।।12।।
इसके पश्चात शंख और नगाड़े तथा ढोल, मृदंग और नर्सिंघे आदि बाजे एक साथ ही बज उठे उनका वह शब्द बड़ा भयंकर हुआ।। 13।।
इसके अनंतर सफेद घोड़ों से युक्त उत्तम रथ में बैठे हुए श्री कृष्ण महाराज और अर्जुन ने भी अलौकिक शंख बजाये।। 14।.
श्री कृष्ण महाराज ने पाञ्चजन्य नामक ,अर्जुन ने देवदत्त नामक और भयानक कर्म वाले भीमसेन ने पोणडर्म नामक महा शंख बजाया। ।15।।
कुंती पुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनंत विजय नामक और नकुल तथा सहदेव ने सुघोष और मणिपुष्पक नामक शंख बजाय।। 16।।
श्रेष्ठ धनुष वाले काशीराज और महारथी शिखंडी एवं धृष्टद्युम्न तथा राजा विराट और अजय सात्यकि, राजा द्रुपद और द्रोपदी के पांचों पुत्र और बड़ी भुजा वाले सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु इन सभी ने, हे राजन् ! सब ओर से अलग-अलग शंख बजाय।। 17-18।।
और उन भयानक शब्द ने आकाश और पृथ्वी को भी गुंजाते हुए धृतराष्ट्रअर्थात आपके पक्ष वालों के हृदय विदीर्ण कर दिए। ।19।।
 शेष कल:

सोमवार, 16 जुलाई 2018

भक्ति करने से भक्तों को क्या लाभ मिलता है

                                भक्ति की महिमा


एक गृहस्थ कुम्हार भक्त था। एक संत ने उन्हें नाम दिया वह भजन करने लगे  सीधे सरल स्वभाव में भक्ति प्रकट हो गई अपने घर का काम करते हुए , भजन करते हुए वह सिद्ध हो गए, पर उन्हें पता ही नहीं कि मुझ में कुछ प्रभाव है। उन के समीप जो भी कोई जिस कामना से आता, उस की कामना पूर्ण हो जाती, उसका कष्ट मिट जाता। धीरे-धीरे उसकी प्रसिद्धि हो गई। गांव के राजा ने सुना तो वह फल फूल लेकर आया दर्शन कर भेट दे कर उन के समीप बैठे राजा ने पूछा भक्ति की क्या महिमा है। भक्त कुमार ने कहा राजन मैं पढ़ा लिखा नहीं हूं अतः शास्त्रों का मुझे ज्ञान नहीं है पर अपने प्रत्यक्ष अनुभव की बात बतलाता हूं मैं मिट्टी के बर्तन बनाता हूं। व मेरी स्त्री व बच्चे भी इसी काम में लगे रहते हैं, मिट्टी में मिलाने के लिए घोड़े की लीद की जरूरत पड़ती है। घोड़े के लीद से खाद भी नहीं बनती, सुखाकर उसे जलाने के काम में भी नहीं लाया जाता है, आपके बहुत से घोड़े हैं। ढेरों लीद पड़ी रहती है। मेरी बीवी, बच्चों उ से उठाने जाते हैं, तो आप के नौकर  गाली देते हैं कभी-कभी बच्चों को मारते हैं, इतने पर भी हमारे बच्चे लेने जाते हैं । मार गाली सहकर भी लेकर आते हैं  क्योंकि उसके बिना हमारा काम नहीं चलता है। अब आप ही देखें मुझ जैसे तुच्छ व्यक्ति के घर आप स्वयं आए हैं और मुझे प्रणाम करके भेट दे रहे हैं , ऐसा क्यों विचार कर देखें तो यह भक्ति का प्रभाव है उसके प्रभाव से नीच ऊँचा हो जाता है, वंदनीय हो जाता है। अभक्तो का व भक्तों का अंतर, आदर, अनादर इसी से समझ लीजिए कि भक्ति की कितनी महिमा है  राजा बहुत प्रभावित हुआ। शास्त्रों के ज्ञाता भी तर्क और अविश्वासों में फंस जाते हैं। उन्हें सरल श्रद्धा और भावुकता प्राप्त नहीं होती, इसी से सच्ची भक्ति का प्राकट्य नहीं होता। 

भक्ति करने के लिए क्या करें

                           भक्ति कैसे करें

हम सब का मानना यह है कि सब प्रकार के अनुकूलता अथार्त (आसपास का वातावरण मेरे अनुसार हो।) प्राप्त हो तो मैं भक्ति करूं, परंतु सारी अनुकूलता किसी को इस संसार में नहीं मिलती है। भगवान जी मनुष्य को अनेक प्रकार से अपनी ओर आकर्षित करते हैं, कभी सुख देकर और कभी दुख देकर कुछ लोग कहते हैं कि परमात्मा का कोई रुप नहीं है परंतु वैष्णव लोग जो भी रूप सामने आता है उसे भगवान का ही रूप मानते हैं, सम्मुख का यही लक्षण है। विमुख को कहीं भी भगवान नहीं दिखते। विमुखता, दुष्टता क्षणिक है। थोड़ी देर के लिए हैं सदा नहीं रहेंगे। काम क्रोध भी थोड़ी देर के लिए ही होता है। शांति, दया  क्षमा आदि हमेशा रहते हैं, यह सर्वदा रह सकते हैं। हिरण्यकश्यप की दुष्टता थोड़ी देर की थी, प्रह्लाद की भक्ति नित्य है, सदा रहेगी.
भगवान के नाम रूप लीला यह सच्चे साथी हैं सत्संग के लिए जब भी कोई ना मिले, कहने वाला या सुनने वाला ना हो, तब सबसे बड़े संत भगवान का नाम हैं। इनको साथ रखो अर्थात भगवान  का नाम जपो। जो प्रभु के प्रेम को पाने की इच्छा रखता है उसे प्रभु कभी निराश नहीं करते हैं। प्रभु प्रेम की प्यास सबसे बड़ी शांति का साधन है। अतः भगवान का बल रखना चाहिए। यह सबसे बड़ा बल है।
जब हमारी इच्छा पूरी नहीं होती है तो हमें क्रोध आता है पर उससे अपना या दूसरों का कोई लाभ नहीं होता। विचार कर क्रोध की अग्नि को शांत कर,  शांति प्राप्त करना ही अधिक श्रेष्ठ है।
जय श्री राधे
(दादा गुरु के श्री मुख से) 

शुक्रवार, 13 जुलाई 2018

असली पूजा है सबके काम आना

असहाय की सेवा ही असली भगवान की पूजा है



निष्काम भाव से की गई सेवा कभी-कभी भजन से विशिष्ट बन जाती है.। संकट में पड़े व्यक्ति को जल वस्त्र, औषधि आदि के दांन से उस में विराजमान भगवान प्रसन्न हो जाते हैं। इसलिए प्राणी मात्र की सेवा करने वाले का भी उद्धार हो जाता है। भूले भटके को रास्ता बता देना, बुरे मार्ग  से बचाकर सन्मार्ग पर चलाना, हरि भक्ति के पथ पर जी वो को पहुंचाना, यह सब ईश्वर को प्रसन्न करने के उत्तम साधन है। सच बात तो यह है कि इन शुभ कार्य के लिए ही यह मनुष्य शरीर मिला है इसलिए सब की उन्नति में अपनी उन्नति मानना, दूसरों के विनाश में अपना विनाश समझना, यही संत का लक्षण है ।मनुष्य के शरीर के भोगों को भोगने के लिए ईश्वर ने नहीं दिया है। खान-पान, निद्रा, संतान उत्पन्न करना आदि जानवरों आदि  की योनियों में भी सुलभ है। केवल विवेक, ज्ञान, भक्ति पशुओं में नहीं है। अतः मनुष्य शरीर से विवेक प्रेम प्राप्त कर ईश्वर की आराधना करनी चाहिए  यही उद्देश्य दूसरों को भी देना चाहिए। 
जय श्री राधे (परमार्थ के पत्र मैं हमारे पूजनीय दादा गुरु के श्री मुख से) 

कैसे कर्म करने चाहिए

   श्रीराम सब जगह हैं। धर्मशील अथार्त धर्मपाल के पास सभी प्रकार की सुख संपत्तियां बिना बुलाए ही आ जाती हैं। संपत्तियां रूप गुणों पर रहती हैं, विवेकपूर्वक कर्म करने वाले संकट से बच जाते हैं, बिना सोचे विचारे जो कर्म करता है उस पर अनेक आपत्तियां आती हैं कर्म के आरंभ में परिणाम पर विचार करना चाहिए। मेरे करम का क्या फल मिलेगा, मुझे तथा दूसरों को सुख होगा या दुख होगा, इस कर्म की लोक में प्रशंसा या निंदा होगी, यह करम भजन में बाधक है या साधक है, इस पर विचार करके ही कोई काम करना चाहिए इसी प्रकार संत भगवान के शुभ आशीर्वाद भी सज्जनों को बिना मांगे मिल जाते हैं। भक्ति का आचरण करने वाले साधु संतों के स्वय श्री हनुमान जी रक्षक हैं, असुर निकंदन है  दुष्टता  करके फिर हनुमान जी का शुभ आशीर्वाद मिलना कठिन है। प्रभु दीन दयालु हैं, आप सब पर दया करें, सत्संग सेवा में रुचि बड़े जब तक मन प्रभु में तल्लीन ना हो जाए, तब तक अपने कर्म को करते रहना चाहिए कर्म करने का उद्देश्य प्रभु की प्रसन्नता ही होनी चाहिए। जिस प्रकार प्रभु प्रसन्न हो वही कार्य करना चाहिए हम जब भगवान के अनुकूल रहेंगे तो भगवान हमारे अनुकूल रहेंगे।
जय श्री राधे
परमार्थ के पत्र पुष्प के कुछ अंश

संसार के सभी प्राणियों में परमात्मा सूक्ष्म रुप से विराजमान है अतः किसी भी प्राणी का अपमान ईश्वर का अपमान है प्राणियों का सम्मान ईश्वर पूजा है। पिता माता आदि का , गुरुजनों का अपमान उनके वध के समान है। अपने मुंह अपनी बड़ाई करना आत्महत्या के समान है । अपने द्वारा हुए गुणों का वर्णन तथा अपनी प्रशंसा आत्महत्या के समान है। अपने शरीर के आराम के लिए अत्यधिक धन का, समय का खर्च नहीं करना चाहिए। संसारी कामों में आमदनी के अनुसार खर्च करना चाहिए। अपने से छोटों को शिक्षा देने के लिए अपने आचरण को सुधारना चाहिए। जब तक मन प्रभु में तल्लीन हो ना हो जाए, तब तक अपने कर्म को करते रहना चाहिए कर्म करने का उद्देश्य प्रभु की प्रसन्नता ही होनी चाहिए जिस प्रकार प्रभु प्रसन्न हो, वही कार्य करना चाहिए। भगवान के अनुकूल रहेंगे तो भगवान हमारे अनुकूल रहेंगे      
जय श्री राधे



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