/ "ईश्वर के साथ हमारा संबंध: सरल ज्ञान और अनुभव: श्रीमद् भागवत गीता हिंदी में अध्याय 3

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मंगलवार, 24 जुलाई 2018

श्रीमद् भागवत गीता हिंदी में अध्याय 3

                 श्रीमद् भागवत गीता हिंदी में अध्याय 3

                              अर्जुन ने कहा
अर्जुन बोले-हे जनार्दन! यदि आपको कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है तो फिर यह केशव! मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं?॥१॥
आप मिले हुए - से वचनों से मेरी बुद्धि को मानव मोहित कर रहे हैं।इसलिए उस एक बात को निश्चित करके कहिए जिससे मैं कल्याण प्राप्त हो जाऊं ॥२॥
                             श्रीभगवानुवाच
श्री भगवान बोले- हे निष्पाप! इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गई है उनमें से शाम के योगियों की निष्ठा * साधन के परिपक्व अवस्था अथार्थ पराकाष्ठा का नाम निष्ठा है) ज्ञानयोग से*( माया से उत्पन्न हुए संपूर्ण गुणों के गुण में बरतते हैं, ऐसे समझकर तथा मन इंद्रियों और शरीर द्वारा होने वाली संपूर्ण क्रियाओं में कर्तापन के अभिमान से रहित होकर सर्वव्यापी  परमात्मा में एक ही भाव से स्थित रहने का नाम ज्ञान योग है। इसी को सन्यास, सांख्ययोग आदि नामों से कहा गया है।) योगियों की निष्ठा कर्मयोग से( फल और आसक्ति को त्यागकर भगवत आज्ञा अनुसार केवल भगवदर्थ समत्व बुद्धिसे कर्म करने का नाम निष्काम कर्म योग है। इसी को बुद्धि योग, कर्म योग  मत कर्रम आदि नामो से कहा गया है ।)) होती है ॥३॥
मनुष्य ना तो कर्मों का आरंभ किए बिना निष्कर्मता को यानी योग निष्ठा को प्राप्त होता है। और ना कर्मों के केवल त्याग मात्र से सिद्धि यानी सांख्नियनिष्ठा को प्राप्त होता है॥४॥
निसंदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षण मात्र भी बि
ना कर्म किए नहीं रहता ;क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा प्रवेश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है ॥५॥
जो मूढ़बुद्धि मनुष्य समस्त इंद्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोक कर मन से मन इंद्रियों के विषयों का चिंतन करता रहता है वह मिथ्याचारी अथार्त दम्भी भी कहा जाता है॥६॥
 किन्तु हे अर्जुन !जो पुरुष मन से इंद्रियों को वश में करके अनास्क्त हुआ समस्त इंद्रियों द्वारा कर्मों का आचरण करता है वही श्रेष्ठ है॥७॥
 तू शास्त्रविहित कर्तव्य कर्म कर ;क्योंकि कर्म ना करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म ना करने से तेरा शरीर - निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा॥८॥
 यज्ञ के निर्मित्त किए हुए जाने वाले कर्मों से अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मनुष्य समुदाय कर्मों से बंथता है। इसलिए हे अर्जुन! तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भली भांति कर्तव्य कर्म कर ॥९॥
प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजाओं को रच कर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ के द्वारा वृर्द्धि को प्राप्त हो और यह यज्ञ तुम लोगों की इच्छित भोग प्रदान करने वाला हों॥१०॥
तुम लोग इस यज्ञ के द्वारा देवताओं को उन्नत करो और वे देवता तुम लोगों का उन्नत करें  इस प्रकार निस्वार्थ भाव से एक दूसरे को उन्नत करते हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे॥११॥
यज्ञ के द्वारा बढाए हुए देवता तुम लोगों को बिना मांगे ही इच्छितभोग तो निश्चय ही देते रहेंगे इस प्रकार उन देवताओं के द्वारा दिए हुए भोगों को जो पुरुष उनको बिना दिए स्वयं भोगता है वह चोर ही है॥१२॥
 यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं और जो  पापी लोग अपना शरीर पोषण करने के लिए ही अन्ना पकाते हैं, वह तो पाप को ही खाते हैं ॥१३॥संपूर्ण प्राणी अन्य से उत्पन्न होते हैं, अन्न की उत्पत्ति वृष्टि से होती है, वृष्टि यज्ञ से होती है और यज्ञ विहित कर्म से उत्पन्न होने वाले हैं। कर्म समुदाय को तू वेद से उत्पन्न और वेद को अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ जान। इससे सिद्ध होता है कि सर्वव्यापी परम अक्षर ब्रह्म परमात्मा सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है॥१४-१५॥
 हे पार्थ! जो पुरुष इस लोक में इस प्रकार परंपरा से प्रचलित सृष्टि चक्र के अनुकूल नहीं बरतता अथार्त अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता, वह इंद्रियों के द्वारा भोगों में रमण करने वाला पापायू पुरुष व्यर्थ ही जीता है ॥१६॥
परंतु जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करने वाला और आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही संतुष्ट हो, उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं है ॥१७॥
उस महापुरुष को इस विश्व में ना तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और ना कर्मों के ना करने से ही कोई प्रयोजन रहता है। तथा संपूर्ण प्राणियों में भी इसका किंचित मात्र भी स्वार्थ का संबंध नहीं रहता ॥१८॥
इसलिए तू निरंतर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्तव्य कर्म को भलीभांति करता रह। क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को ही प्राप्त हो जाता है॥१९॥
 जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्ति रहित करम द्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए थे। इसलिए तथा लोकसंग्रह को देखते हुए भी तू कर्म करने के योग्य है अर्थात तुझे कर्म करना ही उचित है॥२०॥
शेष कल:
जय श्री राधे

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जय श्री राधे

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