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शनिवार, 11 मई 2024

कलयुग के दोषों से बचा जा सकता है।

                कलयुग के दोषों से बचा जा सकता है।


कलयुग– के– दोषों– से –बचा– जा– सकता– है।


राम नाम का आश्रय लेने वाले ही कलयुग के दोषों से बचते हैं अन्यथा बड़े से बडा भी कोई बच नहीं सकता है। एक संत सुदामा कुटी में रहते हैं उन्होंने बताया कि मेरे सामने कलयुग आया और उसने यह बात कही। इस दिन से अब मैं समय से राम मंत्र जपता हूं भगवान का नाम, रूप, लीला, धाम यह चारों समान है। इनमें एकता रहती है। इनमें से एक का भी आश्रय यदि कोई लेता है तो उसका कल्याण हो जाता है। इन चारों में से नाम सबसे ज्यादा सुलभ है। नाम लेने में कोई विधि विधान नहीं, अपवित्रता पवित्रता की भी आवश्यकता नहीं। यदि छल,कपट, ईर्ष्या, द्वेष आदि को छोड़कर नाम लेता है तो उसका अवश्य कल्याण हो जाता है। प्रभु के नाम में विश्वास रखकर उसके अभ्यास को बढ़ाना चाहिए। उसके बदले में दूसरी कामना नहीं करनी चाहिए। हमारे भीतर बाहर की सारी बातों को परमात्मा जानता है। हमारे ऊपर प्रभु कृपा है स्वयं अनुभव करना चाहिए।

।।जय श्री राधे।।

दादा गुरु भक्तमाली श्री गणेशदास जी महाराज के श्री मुख से, परमार्थ के पुत्र पुष्प से लिया गया।

जन्म जन्मांतर के अशुभ संस्कारों को मिटाने के लिए

          जन्म जन्मांतर के अशुभ संस्कारों को मिटाने के लिए


जन्म जन्मांतर- के- अशुभ- संस्कारों- को- मिटाने- के- लिए

जन्म जन्मांतर के अशुभ संस्कारों को मिटाने के लिए निरंतर नाम जप आदि साधन आवश्यक है। श्रेष्ठ नाम स्मरण ही है। दूसरे साधनों की योग्य हम नहीं हैं। आवश्यक कामकाज करने के बाद या करते-करते भी नाम जप का अभ्यास बढ़ाना चाहिए। नाम में प्रेम होना और भगवान में प्रेम होना एक ही बात है। नाम जप के साथ ही यह नहीं सोचना चाहिए कि हमें सिद्धि नही मिली, कोई अनुभव नहीं हो रहे हैं   नाम जप में एकाग्रता के बढ़ जाने पर विषयों से वैराग्य हो जाएगा, अंत:करण यानी मन, बुद्धि, चित् अहंकार की शुद्ध हो जाएगी। तब स्वयं दिव्य अनुभव होने लग जाएंगे। नाम जप को ध्यानपूर्वक करना चाहिए या बिना ध्यान के? ऐसा कोई प्रश्न करें तो उसका उत्तर यह है कि ध्यान सहित नाम का जप अतिश्रेष्ठ है, परंतु आरंभ में यदि ध्यान सहित नाम जप नहीं बने तो बिना ध्यान के भी नाम जप करना चाहिए पर जप करते समय मन को इधर-उधर अनिष्ट विषयों में नहीं जाना चाहिए। जाए तो रोकना चाहिए। लीला चिंतन या रूप चिंतन, शोभा चिंतन, धाम चिंतन जो भी संभव हो करना चाहिए। उसे नाम जप के साथ करना चाहिए। कीर्तन करते समय गाने में मन को एकाग्र करना चाहिए। नाम के अर्थ अथवा लिखे हुए नाम में भी मन लगाना चाहिए। कृपा करके जीव के ऊपर भगवान ही नाम के रुप में प्रकट होते हैं। अपने नाम जप का प्रचार ना करके उसे गुप्त रखना चाहिए।किसी साधक को नाम जप में लगाने के लिए अपना नाम जप भजन कहा, बताया जा सकता है। अहंकार ना हो, बड़प्पन ना आवे, इसका ध्यान रखना चाहिए।

।। जय श्री राधे।।

दादा गुरु भक्त माली श्री गणेश दास जी महाराज के श्री मुख से परमार्थ के पत्र पुष्प में से लिया गया।

गुरुवार, 9 मई 2024

रवि पंचक जाके नहीं , ताहि चतुर्थी नाहिं। का अर्थ

 गोस्वामी तुलसीदासजी ने एक बड़े मजे की बात कही है -

रवि- पंचक- जाके- नहीं , ताहि- चतुर्थी- नाहिं। का अर्थ


कृपया बहुत ध्यान से पढ़े एवं इन लाइनों का भावार्थ समझने की कोशिश करे-


" रवि पंचक जाके नहीं , ताहि चतुर्थी नाहिं।

तेहि सप्तक घेरे रहे , कबहुँ तृतीया नाहिं।।"


गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं कि जिसको रवि पंचक नहीं है , उसको चतुर्थी नहीं आयेगी। उसको सप्तक घेरकर रखेगा और उसके जीवन में तृतीया नहीं आयेगी। मतलब क्या हुआ ? 

रवि -पंचक का अर्थ होता है - रवि से पाँचवाँ यानि गुरुवार ( रवि , सोम , मंगल , बुद्ध , गुरु ) अर्थात् जिनको गुरु नहीं है , तो सन्त सद्गुरु के अभाव में उसको चतुर्थी नहीं होगी।चतुर्थी यानी बुध ( रवि , सोम , मंगल, बुध ) अर्थात् सुबुद्धि नहीं आयेगी। सुबुद्धि नहीं होने के कारण वह सन्मार्ग पर चल नहीं सकता है। सन्मार्ग पर नहीं चलनेवाले का परिणाम क्या होगा ? ' तेहि सप्तक घेरे रहे ' सप्तक क्या होता है ? शनि ( रवि , सोम मंगल , बुध , बृहस्पति , शुक्र , शनि ) अर्थात् उसको शनि घेरकर रखेगा और ' कबहुँ तृतीया नाहिं।' तृतीया यानी मंगल ( रवि , सोम , मंगल )। उसके जीवन में मंगल नहीं आवेगा । इसलिए अपने जीवन में मंगल चाहते हो , तो संत सद्गुरु की शरण में जाओ ।

।।जय श्री राधे।।

श्रीकृष्ण को "दामोदर" क्यों कहते हैं?

                श्रीकृष्ण को "दामोदर" क्यों कहते हैं?   


श्रीकृष्ण की लीलाओं की भांति उनके नाम भी अनंत हैं। उनमें से ही एक नाम "दामोदर" है जो उन्हें बचपन में दिखाई गयी एक लीला के कारण मिला था। 

ये नाम इसीलिए भी विशिष्ट है क्यूंकि इस बार उन्होंने अपनी माया का प्रयोग असुर पर नहीं अपितु अपनी माता पर ही किया था।

एक बार गोकुल में माता यशोदा दूध को मथ कर माखन निकाल रही थी। उसी समय श्रीकृष्ण वहां आये और दूध पीने की जिद करने लगे। 

उनका मनोहर मुख देखकर वैसे ही माता यशोदा सब कुछ भूल जाती थी। उन्होंने सारा काम छोड़ा और श्रीकृष्ण को स्तनपान करने लगी। वो ये भूल गयी कि उन्होंने अंगीठी पर दूध गर्म करने रखा है।

दूध पिलाते हुए अचानक उन्हें याद आया कि अंगीठी पर रखा दूध तो उबल गया होगा। ये सोच कर उन्होंने श्रीकृष्ण को वही छोड़ा और दौड़ कर रसोई में गयी। 

उधर श्रीकृष्ण बड़े क्रोधित हुए। माता और पुत्र के मध्य किसी का भी आना उनसे सहन नहीं हुआ। उसी क्रोध में उन्होंने वहां पड़े माखन के सारे घड़ों को फोड़ दिया और प्रेमपूर्वक माखन खाने लगे।

उधर जब यशोदा मैया वापस आयी तो देखा कि सारा घर माखन से भरा हुआ है। जहाँ देखो वही माखन गिरा हुआ दिखाई देता था। 

अब क्रोधित होने की बारी यशोदा मैया की थी। उन्होंने सारा दिन श्रम कर उस माखन को निकला था और श्रीकृष्ण ने उनकी सारी मेहनत पर पानी फेर दिया, ये सोच कर उन्हें भी बड़ा क्रोध आया।

फिर क्या था। उन्होंने एक छड़ी उठाई और श्रीकृष्ण को मारने दौड़ी। तीनों लोकों के स्वामी श्रीकृष्ण उनसे बचने के लिए भागे। 

सभी देवता स्वर्ग में उनकी इस लीला के दर्शन कर रहे थे। माता बड़ी थी और श्रीकृष्ण छोटे, फिर भी वे उन्हें पकड़ नहीं पायी। 

भला प्रभु की इच्छा के बिना उन्हें कौन पकड़ सका है? अंत में वे थक कर वही भूमि पर बैठ गयी।

जब श्रीकृष्ण ने देखा कि लीला कुछ अधिक ही हो गयी है और माता थक चुकी है तो वे स्वयं उनके पास पहुंचे। उन्होंने प्रेम पूर्वक मैया का पसीना पोंछा। 

किन्तु इतना श्रम करने के कारण यशोदा का क्रोध और बढ़ गया था। उन्होंने झट से कन्हैया को पकड़ लिया। 

इसे प्रभु की ही लीला कहेंगे कि उन्होंने समझा कि मैंने कान्हा को पकड़ लिया। वे क्या जानती थी कि उनकी इच्छा के बिना उन्हें कोई पकड़ नहीं सका है।

अब उन्हें दंड क्या दें? उन्होंने सोचा कि कृष्ण को इस ओखली से बांध कर घर का सारा काम निपटा लें। पर श्रीकृष्ण को भला कोई बांध सका है? 

उनकी एक और लीला आरम्भ हुई। यशोदा ने एक रस्सी उठाई और जब उससे श्रीकृष्ण को बांधना चाहा तो वो रस्सी उनके पेट से दो अंगुल छोटी पड़ गयी।

उन्होंने दूसरी रस्सी पहली रस्सी के साथ जोड़ी लेकिन रस्सी फिर दो अंगुल छोटी पड़ गयी। 

अब तो यशोदा ने एक के बाद एक रस्सी जोड़ना आरम्भ किया किन्तु हर बार रस्सी दो अंगुल कम ही पड़ती रही। 

मैया खीजती रही और श्रीकृष्ण हँसते रहे। उनकी ये लीला इसी प्रकार बहुत देर तक चलती रही।

श्रीकृष्ण को ना बंधना था, ना वे बंधे। अंत में यशोदा पुनः थक कर चूर हो गयी किन्तु श्रीकृष्ण के लिए रस्सी दो अंगुल छोटी ही रही। 

अब तो कान्हा ने देखा कि मैया थक गयी हैं। उनका वात्सल्य जागा और उन्होंने अंततः स्वयं ही स्वयं को बांध लिया। यशोदा ने चैन की साँस ली और घर के काम में लग गयी।

श्रीकृष्ण ने सोचा कि माता अपने कर्तव्यपालन में व्यस्त है तो मैं स्वयं के कर्तव्य का वहन कर लूँ। 

वे ओखली को घसीटते हुए आंगन में पहुंचे। वहां अर्जुन के दो विशाल पेड़ लगे हुए थे जो वास्तव में नलकुबेर एवं मणिग्रीव नामक दो गन्धर्व थे जो नारद जी के श्राप के कारण वृक्ष बन गए थे। 

नारद जी ने कहा था कि जब श्रीकृष्ण अवतार होगा तो वे ही उनका उद्धार करेंगे।

आज अंततः उनके उद्धार की बारी आयी। श्रीकृष्ण घुटने के बल चलते हुए दोनों वृक्ष के बीच से निकल गए पर ओखली फंस गयी। 

कन्हैया ने आगे बढ़ने के लिए थोड़ा जोर लगाया और दोनों वृक्ष जड़ सहित उखड कर नीचे आ गिरे। इससे नलकुबेर और मणिग्रीव श्रापमुक्त हो उनके समक्ष करवद्ध खड़े हो गए। 

श्रीकृष्ण ने उन्हें आशीर्वाद दिया और वे अपने धाम पधारे।

उधर वृक्षों के गिरने से धरती डोल उठी थी। माता यशोदा किसी अनिष्ट की आशंका से दौड़ती हुई आंगन में तो देखती है कि दोनो वृक्ष गिरे पड़े हैं और कन्हैया उनके बीच खेल रहे हैं। 

उनकी जान में जान आई। वे दौड़ती हुई गयी और तत्काल कन्हैया की रस्सी को खोल कर उन्हें मुक्त किया। श्रीकृष्ण की एक और लीला का अंत हुआ।

संस्कृत में रस्सी को "दाम" और पेट को "उदर" कहते हैं। इसी कारण रस्सी से पेट द्वारा बंधे होने के कारण श्रीकृष्ण का एक नाम "दामोदर" पड़ गया।

इसी विषय में एक और कथा हमें भविष्य पुराण में मिलती है। एक बार राधा जी उद्यान में बैठी श्रीकृष्ण की प्रतीक्षा कर रही थी। 

श्रीकृष्ण को आने में बड़ा विलम्ब हो गया जिससे राधा की व्यग्रता बहुत बढ़ गयी। खैर बहुत देर के बाद श्रीकृष्ण आये। 

राधा क्रोध में बैठी ही थी। कही श्रीकृष्ण शीघ्र ना चले जाएँ, ये सोच कर उन्होंने उन्हें लताओं की रस्सी से बांध दिया।

उन बांधने के बाद उन्होंने उनसे विलम्ब का कारण पूछा। तब श्रीकृष्ण ने बताया कि आज कार्तिक पर्व के कारण यशोदा मैया ने उन्हें बिना पूजा के आने नहीं दिया, इसी कारण उन्हें विलम्ब हो गया। 

ये सुनकर राधा जी को बड़ा पश्चाताप हुआ। उन्होंने तत्काल उनकी रस्सी खोली और उनसे क्षमा याचना की।

तब श्रीकृष्ण ने हँसते हुए कहा कि "क्षमा याचना कैसी? मैं तो पहले ही तुम्हारे प्रेम से बंधा हुआ हूँ।" 

उनकी ये बात सुनकर राधा जी बड़ी प्रसन्न हुई और रस्सी (दाम) द्वारा पेट (उदर) से बांधने के कारण उन्होंने श्रीकृष्ण को "दामोदर" नाम से सम्बोधित किया। 

तभी से श्रीकृष्ण का एक नाम दामोदर पड़ा। 

जय श्री दामोदर।

सोमवार, 6 मई 2024

भक्ति का क्या प्रभाव होता है?

                       भक्ति का क्या प्रभाव होता है?


एक गृहस्थ कुमार भक्त थे। एक संत ने उन्हें नाम दिया वे भजन करने लगे, सीधे सरल चित् में भक्ति प्रकट हो गई अपने घर का काम करते हुए भजन करते हुए वह सिद्ध हो गए पर उन्हें पता नहीं कि मुझ में कुछ प्रभाव है। उनके समीप जो भी कोई जिस कामना से आता उसकी कामना पूर्ण हो जाती उसका कष्ट मिट जाता। धीरे-धीरे उसकी प्रसिद्ध हो गई, गांव के राजा ने सुना, तो वह फल फूल लेकर आया दर्शन कर भेट देकर उनके समीप बैठा। राजा ने पूछा की भक्ति की क्या महिमा है? भक्त कुम्हार ने कहां  राजन मैं पढ़ा लिखा नहीं हूं, अतः शास्त्रों का मुझे ज्ञान नहीं है। पर अपनी प्रत्यक्ष अनुभव की बात बतलाता हूं। मैं मिट्टी के बर्तन बनाता हूं मेरी स्त्री और बच्चे भी इसी काम में लगे रहते हैं, मिट्टी में मिलाने के लिए घोड़े की लीद की जरूरत पड़ती है। घोड़े की लीद से खाद भी नहीं बनती है, सुखाकर उसे जलाने के काम भी नहीं लिया जाता। आपके यहां बहुत से घोड़े हैं ढेरों लीद पड़ी रहती है। मेरी स्त्री बच्चे उसे उठाने जाते हैं तो आपका नौकर उनको गाली देते हैं, कभी-कभी बच्चों को मारते हैं। इतने पर भी हमारी स्त्री बच्चे लीद लेने जाते हैं, मार गाली सहकर लाते हैं क्योंकि उसके बिना काम नहीं चलता है।अब आप ही देखें कि तुच्छ वस्तु के लिए तिरस्कार सहना पड़ता है और आप स्वयं राजा होकर मेरे घर आए, मुझको प्रणाम करते हैं, भेट दे रहे हैं ,ऐसा क्यों? विचार कर देखें तो यह भक्ति का प्रभाव है।उसके प्रभाव से नीच ऊंचा हो जाता है वंदनीय हो जाता है। मेरे स्त्री पुत्र भक्त नहीं है तो उन्हें तुच्छ लीद के लिए नित्य तिरस्कार सहना पड़ता है। भक्त और अभक्त का अंतर, आदर अनादर इसी में समझ लीजिए की भक्ति की कितनी महिमा है। राजा बहुत प्रभावित हुआ वस्तुत: शास्त्रों के ज्ञाता भी तर्क और अविश्वास में फंस जाते हैं। उन्हें सरल हृदय और भावुकता प्राप्त नहीं होती है इसी से उनमें सच्ची भक्ति का प्रकट नहीं होता है।

जय श्री राधे 

परमार्थ के पत्र पुष्प पुस्तक में से दादा गुरु भक्तमाली जी महाराज के श्री वचन में से एक प्रवचन।

शनिवार, 4 मई 2024

एक श्लोकी रामायण - एक श्लोकी रामायण

 


एक श्लोकी रामायण - एक श्लोकी रामायण

आदौ राम तपोवनादि गमनं, हत्वा मृगं कांचनम् ||

वैधिहरणं जटायुमरणं, सुग्रीवसंभाषणम् || ||

बालिनिर्दलानं समुद्रतरणं, लंकापुरीदाहनम् ||

पश्चाद रावण कुंभकर्ण हननम्, एतद्धि रामायणम् || ||

भावार्थ: -श्रीराम वनवास गये, वहां पर स्वर्ण मृग का वध किया गया || रावण ने सीताजी का हरण किया, जटायु ने रावण के हाथ मारे || श्रीराम और सुग्रीव की मित्रता हुई || श्रीराम ने बालि का वध किया || समुद्र पार किया || लंका का दहन || इसके बाद रावण और कुंभकर्ण का वध हुआ ||


श्री राम वन्दना श्लोक - श्री राम वन्दना श्लोक

लोकाभिरामं रंगरंगधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम् ||

करुण्यरूपं करुणाकरं तं श्रीरामचंद्रं शरणं प्रपद्ये || ||

भावार्थ:- मैं संपूर्ण लोकों में सुंदर तथा रंकक्रीड़ा में धीर, कमलनेत्र, रघुवंश नायक, करुणा के भक्त और करुणा के भंडार रूपी श्रीराम के शरण में हूं ||


श्रीराम गायत्री मंत्र - श्री राम गायत्री मंत्र

ॐ दाशरथये विद्महे जानकी वल्लभाय धी माही || तन्नो रामः प्रचोदयात् ||

भावार्थ:- ॐ, दिसंबर के पुत्र का ध्यान करें, माता सीता की आज्ञा, आज्ञा से मुझे उच्च बुद्धि और शक्ति प्रदान करें, भगवान श्री राम मेरे मस्तिस्क को बुद्धि और शीघ्र से प्रकाशित करें, बुद्धि और तेज प्रदान करें ||

श्रीराम ध्यान मंत्र - श्री राम ध्यान मंत्र

ॐ आपदामप हरतरं दातारं सर्व सम्पदाम, लोकाभिरामं श्री रामं भूयो भूयो नामाम्यहम् ||

श्री रामाय रामभद्राय रामचन्द्राय वेधसे, रघुनाथाय नाथाय पतये नमः || ||


श्रीरामाष्टक - संस्कृत में श्री राम मंत्र

हे रामा पुरूषोत्तम नरहरे नारायणा केशवा ||

गोविंदा गरुड़ध्वजा गुणनिधि दामोदरा माधवा || ||

हे कृष्ण कमलापते यदुपते सीतापते श्रीपते ||

बैकुण्ठाधिपते चराचरपते लक्ष्मीपते पाहिमाम् || ||


श्रीराम मंत्र, राम मंत्र

श्री राम का पाठ करने वाले हर साधक को जीवन में आने वाले कष्टों से मुक्ति मिलती है || भगवान राम के आशीर्वाद के साथ हनुमान जी की भी कृपा बनी रहती है || हमने यहां हर रेनडौल के लिए राम श्लोक दिया है || जो रोज़ पढ़ने से आपके जीवन के सारे कष्ट दूर होंगे ||


सौभाग्य और सुखप्राप्ति मंत्र (श्री राम मंत्र)

श्री राम जय राम जय जय राम || श्री रामचन्द्राय नमः ||

राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे ||

सहस्त्र नाम तत्तुन्यं राम नाम वरानने || ||

गरीबी/दरिद्रता निवारण मंत्र (श्री राम मंत्र)

अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के ||

कामद धन दारिद दवारि के || ||


सफलता के लिए मंत्र (श्री राम मंत्र)

ॐ राम ॐ राम ॐ राम ह्रीं राम ह्रीं राम श्रीं राम श्रीं राम - क्लीं राम क्लीं राम || फट् राम फट् रामाय नमः ||

विजयी मंत्र

श्री राम जय राम, जय जय राम

दिन में कम से कम 24 बार बोलना चाहिए।

।।जय सिया राम।।

शुक्रवार, 3 मई 2024

संसार में सबसे बड़ा कौन

                            संसार में सबसे बड़ा कौन 


        एक बार नारद जी के मन में एक विचित्र सा कौतूहल पैदा हुआ।उन्हें यह जानने की धुन सवार हुई कि ब्रह्मांड में सबसे बड़ा और महान कौन है?

        नारद जी ने अपनी जिज्ञासा भगवान विष्णु के सामने ही रख दी। भगवान विष्णु मुस्कुराने लगे।फिर बोले, नारद जी सब पृथ्वी पर टिका है। इसलिए पृथ्वी को बड़ा कह सकते हैं। और बोले परंतु नारद जी यहां भी एक शंका है।

       नारद जी का कौतूहल शांत होने की बजाय और बढ़ गया। नारद जी ने पूछा स्वयं आप सशंकित हैं फिर तो विषय गंभीर है। कैसी शंका है प्रभु ? विष्णु जी बोले, समुद्र ने पृथ्वी को घेर रखा है। इसलिए समुद्र उससे भी बड़ा है।

        अब नारद जी बोले, प्रभु आप कहते हैं तो मान लेता हूं कि समुद्र सबसे बड़ा है।यह सुनकर विष्णु जी ने एक बात और छेड़ दी, परंतु नारद जी समुद्र को अगस्त्य मुनि ने पी लिया था। इसलिए समुद्र कैसे बड़ा हो सकता है ? बड़े तो फिर अगस्त्य मुनि ही हुए।

        नारद जी के माथे पर बल पड़ गया। फिर भी उन्होंने कहा, प्रभु आप कहते हैं तो अब अगस्त्य मुनि को ही बड़ा मान लेता हूं।नारद जी अभी इस बात को स्वीकारने के लिए तैयार हुए ही थे कि विष्णु ने नई बात कहकर उनके मन को चंचल कर दिया।

          श्री विष्णु जी बोले, नारद जी पर ये भी तो सोचिए वह रहते कहां हैं।आकाशमंडल में एक सूई की नोक बराबर स्थान पर जुगनू की तरह दिखते हैं। फिर वह कैसे बड़े, बड़ा तो आकाश को होना चाहिए।

        नारद जी बोले, हां प्रभु आप यह बात तो सही कर रहे हैं। आकाश के सामने अगस्त्य ऋषि का तो अस्तित्व ही विलीन हो जाता है।आकाश ने ही तो सारी सृष्टि को घेर आच्छादित कर रखा है। आकाश ही श्रेष्ठ और सबसे बड़ा है।

        भगवान विष्णु जी ने नारद जी को थोड़ा और भ्रमित करने की सोची।श्रीहरि बोल पड़े, पर नारदजी आप एक बात भूल रहे हैं। वामन अवतार ने इस आकाश को एक ही पग में नाप लिया था  फिर आकाश से विराट तो वामन हुए।

        नारदजी ने श्रीहरि के चरण पकड़ लिए और बोले भगवन आप ही तो वामन अवतार में थे।फिर अपने सोलह कलाएं भी धारण कीं और वामन से बड़े स्वरूप में भी आए। इसलिए यह तो निश्चय हो गया कि सबसे बड़े आप ही हैं।

         भगवान विष्णु ने कहा, नारद, मैं विराट स्वरूप धारण करने के उपरांत भी, अपने भक्तों के छोटे हृदय में विराजमान हूं।*वहीं निवास करता हूं। जहां मुझे स्थान मिल जाए वह स्थान सबसे बड़ा हुआ न।*

         इसलिए सर्वोपरि और सबसे महान तो मेरे वे भक्त हैं जो शुद्ध हृदय से मेरी उपासना करके मुझे अपने हृदय में धारण कर लेते हैं।उनसे विस्तृत और कौन हो सकता है। तुम भी मेरे सच्चे भक्त हो इसलिए वास्तव में तुम सबसे बड़े और महान हो।

         श्रीहरि की बात सुनकर नारद जी के नेत्र भर आए। उन्हें संसार को नचाने वाले भगवान के हृदय की विशालता को देखकर आनंद भी हुआ और अपनी बुद्धि के लिए खेद भी।


हमें भी मन से हार नहीं माननी चाहिए और निरंतर भगवान के नाम जप का अभ्यास करते रहना चाहिए।

             सत्संग में रुचि से क्या फायदा होता है?



एक शख्स सुबह सवेरे उठा साफ़ कपड़े पहने और सत्संग घर की तरफ चल दिया ताकि सत्संग का आनंद प्राप्त कर सके।

चलते चलते रास्ते में ठोकर खाकर गिर पड़ा।कपड़े कीचड़ से सन गए वापस घर आया।

कपड़े बदलकर वापस सत्संग की तरफ रवाना हुआ, फिर ठीक उसी जगह ठोकर खा कर गिर पड़ा और वापस घर आकर कपड़े बदले।

फिर सत्संग की तरफ रवाना हो गया।

जब तीसरी बार उस जगह पर पहुंचा तो क्या देखता है की एक शख्स चिराग हाथ में लिए खड़ा है और उसे अपने पीछे पीछे चलने को कह रहा है।

इस तरह वो शख्स उसे सत्संग घर के दरवाज़े तक ले आया।

पहले वाले शख्स ने उससे कहा आप भी अंदर आकर सतसंग सुन लें।

लेकिन वो शख्स चिराग हाथ में थामे खड़ा रहा और सत्संग घर  में दाखिल नही हुआ।

दो तीन बार इनकार करने पर उसने पूछा आप अंदर क्यों नही आ रहे है ...?

दूसरे वाले शख्स ने जवाब दिया *"इसलिए क्योंकि मैं काल हूँ,

 ये सुनकर पहले वाले शख्स की हैरत का ठिकाना न रहा। 

काल  ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा मैं ही था जिसने आपको ज़मीन पर गिराया था।

जब आपने घर जाकर कपड़े बदले और दुबारा सत्संग घर  की तरफ रवाना हुए तो भगवान ने आपके सारे पाप क्षमा कर दिए। जब मैंने आपको दूसरी बार गिराया और आपने घर जाकर फिर कपड़े बदले और फिर दुबारा जाने लगे तो भगवान ने आपके पूरे परिवार के गुनाह क्षमा कर दिए।

मैं डर गया की अगर अबकी बार मैंने आपको गिराया और आप फिर कपड़े बदलकर चले गए तो कहीं ऐसा न हो वह आपके सारे गांव के लोगो के पाप क्षमा कर दे. इसलिए मैं यहाँ तक आपको खुद पहुंचाने आया हूँ।

अब हम देखे कि उस शख्स ने दो बार गिरने के बाद भी हिम्मत नहीं हारी और तीसरी बार फिर  पहुँच गया। 

और एक हम हैं यदि हमारे घर पर कोई मेहमान आ जाए या 

हमें कोई काम आ जाए तो उसके लिए हम सत्संग छोड़ देते हैं, भजन जाप छोड़ देते हैं। क्यों....???

क्योंकि हम जीव अपने भगवान से ज्यादा दुनिया की चीजों और रिश्तेदारों से ज्यादा प्यार करते हैं।

उनसे ज्यादा मोह हैं। इसके विपरीत वह शख्स दो बार कीचड़ में गिरने के बाद भी तीसरी बार फिर घर जाकर कपड़े बदलकर सत्संग के लिए चला गया। क्यों...???क्योंकि उसे अपने दिल में भगवान के लिए बहुत प्यार था। वह किसी कीमत पर भी अपनी बंदगीं का नियम टूटने नहीं देना चाहता था।

 इसीलिए भगवान ने काल से स्वयं उस शख्स को मंजिल तक पहुँचाया, जिसने कि उसे दो बार कीचड़ में गिराया और मालिक की बंदगी में रूकावट डाल रहा था, बाधा पहुँचा रहा था ! 

इसी तरह हम जीव भी जब हम भजन-सिमरन पर बैठे तब हमारा मन चाहे कितनी ही चालाकी करे या कितना ही बाधित करे, हमें हार नहीं माननी चाहिए और मन का डट कर मुकाबला करना चाहिए।एल

एक न एक दिन हमारा मन स्वयं हमें भजन सिमरन के लिए उठायेगा और उसमें रस भी लेगा। 

बस हमें भी हिम्मत नहीं हारनी चाहिए और न ही किसी काम के लिए भजन सिमरन में ढील देनी हैं। भगवान खुद ही हमारे काम सिद्ध और सफल करेंगे। 

इसीलिए हमें भी मन से हार नहीं माननी चाहिए और निरंतर भगवान के नाम जप का अभ्यास करते रहना चाहिए।

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।

गुरुवार, 2 मई 2024

सूर्य देव के बारे में संपूर्ण जानकारी

                   सूर्य देव के बारे में संपूर्ण जानकारी 


अक्सर मन में यह विचार आता है कि सूर्य ग्रह है या देवता? देवता है तो ग्रह कैसे हो सकता है? 

आओ जानते हैं कि सूर्य देव कौन हैं और कैसे हैं?


1. सूर्य देव के माता पिता 


पौराणिक सन्दर्भ में सूर्यदेव की उत्पत्ति के अनेक प्रसंग प्राप्त होते हैं। पुराणों अनुसार सूर्य देवता के पिता का नाम महर्षि कश्यप व माता का नाम अदिति है। अदिति के पुत्रों को आदित्य कहा गया है। 33 देवताओं में अदिति के 12 पुत्र शामिल हैं जिनके नाम इस प्रकार हैं- विवस्वान् (सूर्य), अर्यमा, पूषा, त्वष्टा, सविता, भग, धाता, विधाता, वरुण, मित्र, इंद्र और त्रिविक्रम (भगवान वामन)। 12 आदित्यों के अलावा 8 वसु, 11 रुद्र और 2 अश्विनकुमार मिलाकर 33 देवताओं का एक वर्ग है। ब्रह्माजी के पुत्र मरिचि से कश्यप का जन्म हुआ। कश्यप से विवस्वान और विवस्वान के पुत्र वैवस्त मनु थे। विवस्वान को ही सूर्य कहा जाता है। 

 2. पत्नी-पुत्र 

 विश्वकर्मा की पुत्री संज्ञा विवस्वान् की पत्नी हुई। उसके गर्भ से सूर्य ने तीन संतानें उत्पन्न की। जिनमें एक कन्या और दो पुत्र थे। सबसे पहले प्रजापति श्राद्धदेव, जिन्हें वैवस्वत मनु कहते हैं, उत्पन्न हुए। तत्पश्चात यम और यमुना- ये जुड़वीं संतानें हुई। यमुना को ही कालिन्दी कहा गया।

भगवान् सूर्य के तेजस्वी स्वरूप को देखकर संज्ञा उसे सह न सकी। उसने अपने ही सामान वर्णवाली अपनी छाया प्रकट की। वह छाया स्वर्णा नाम से विख्यात हुई। उसको भी संज्ञा ही समझ कर सूर्य ने उसके गर्भ से अपने ही सामान तेजस्वी पुत्र उत्पन्न किया। वह अपने बड़े भाई मनु के ही समान था। इसलिए सावर्ण मनु के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उस छाया से शनैश्चर (शनि) और तपती नामक कन्या हुई।

यम धर्मराज के पद पर प्रतिष्ठित हुए और उन्होंने समस्त प्रजा को धर्म से संतुष्ट किया। सावर्ण मनु प्रजापति हुए। आने वाले सावर्णिक मन्वन्तर के वे ही स्वामी होंगे। कहते हैं कि वे आज भी मेरुगिरि के शिखर पर नित्य तपस्या करते हैं।..ऐसा भी कहा जाता है कि जब संज्ञा अपनी छाया छोड़कर स्वयं घोड़ी का रूप धारण करके तप करने लगी। भगवान सूर्य ने जब संज्ञा को तप करते देखा तो उसे पुन: अपने यहां ले आए। फिर संज्ञा के बड़वा (घोड़ी) रूप से अश्विनीकुमार हुए। 

3. सूर्य का कुल 

अदिति के पुत्र विवस्वान् से वैवस्वत मनु का जन्म हुआ। महाराज मनु को इक्ष्वाकु, नृग, धृष्ट, शर्याति, नरिष्यन्त, प्रान्शु, नाभाग, दिष्ट, करुष और पृषध्र नामक 10 श्रेष्ठ पुत्रों की प्राप्ति हुई। सूर्य के कई अन्य भी पुत्र थे। त्रेतायुग में कपिराज सुग्रीव और द्वापर में महारथी कर्ण भगवान सूर्य के अंश से ही उत्पन्न हुए माने जाते हैं। श्रीकृष्ण की माता देवकी 'अदिति का अवतार' बताई जाती हैं। भगवान सूर्य के परिवार की विस्तृत कथा भविष्य पुराण, मत्स्य पुराण, पद्म पुराण, ब्रह्म पुराण, मार्कण्डेय पुराण तथा साम्बपुराण में वर्णित है। सभी सूर्यवंशी उन्हीं की संतानें हैं।

4. अन्य नाम 

रवि, दिनकर, दिवाकर, भानु, भास्कर, प्रभाकर, सविता, दिनमणि, आदित्य, अनंत, मार्तंड, अर्क, पतंग और विवस्वान। रविवार की प्रकृति ध्रुव है। रविवार भगवान विष्णु और सूर्यदेव का दिन भी है। हिन्दू धर्म में इसे सर्वश्रेष्ठ वार माना गया है। अच्छा स्वास्थ्य व तेजस्विता पाने के लिए रविवार के दिन उपवास रखना चाहिए।

सूर्य के इन 12 नामों का करें जाप


1- ॐ सूर्याय नम:।

2- ॐ मित्राय नम:।

3- ॐ रवये नम:।

4- ॐ भानवे नम:।

5- ॐ खगाय नम:।

6- ॐ पूष्णे नम:।

7- ॐ हिरण्यगर्भाय नम:।

8- ॐ मारीचाय नम:।

9- ॐ आदित्याय नम:।

10- ॐ सावित्रे नम:।

11- ॐ अर्काय नम:।

12- ॐ भास्कराय नम:।  


ग्रह या देवता

 सूर्य देव ग्रह नहीं एक देवता हैं। सूर्य ग्रह को वेदों में जगत की आत्मा कहा गया है। ज्योतिष के कुछ ग्रंथों और पुराणों में इन्हीं सूर्य को सूर्य देव से जोड़कर भी देखा जाता है जबकि सूर्य देव का जन्म धरती पर ही हुआ माना जाता है। एक अन्य कथा के अनुसार कश्यप की पत्नी अदिति ने सूर्य साधना करके अपने गर्भ से एक तेजस्वीवान पुत्र को जन्म दिया था। यह भी कहा जाता है कि सूर्यदेव ने ही उन्हें उनके गर्भ से उत्पन्न होने के वरदान दिया था।

 आखिर कितने पुत्र और पुत्री के पिता हैं सूर्य नारायण


सनाातन परंपरा में भगवान सूर्य (Lord Sun) एक ऐसे देवता हैं, जिनके दर्शन हमें प्रतिदिन प्रात:काल होते हैं. शुभता, सौभाग्य और आरोग्य प्रदान करने वाले सूर्य की तरह उनका परिवार भी काफी बड़ा है. शनिदेव और यमुना समेत और कौन-कौन लोग शामिल हैं सूर्य परिवार में, जानने के लिए पढ़ें ये लेख.


 सनातन परंपरा में जिन पंचदेव भगवान श्री गणेश (Lord Ganesha) , भगवान शिव (Lord Shiva) , भगवान विष्णु (Lord Vishnu) , देवी दुर्गा (Goddess Durga) और सूर्य  की पूजा प्रतिदिन करना जरूरी माना गया है।

उसमें भगवान सूर्यदेव (Lord Sun) एक ऐसे देवता हैं, जिनके दर्शन हम प्रतिदिन करते हैं. सूर्य की साधना अत्यंत ही शुभफल देने वाली मानी गई है. सूर्य की साधना से न सिर्फ साधक को सौभाग्य बल्कि आरोग्य का भी आशीर्वाद प्राप्त होता है. ज्योतिष के अनुसार जिस सूर्यदवे को नवग्रहों का राजा माना गया है, उनकी कृपा से हमें ज्ञान, विवेक, मान-सम्मान, कार्यक्षेत्र में सफलता, शत्रुओं पर विजय, सुख-समृद्धि प्राप्त होती है. भगवान सूर्य की महिमा को इस तरह से भी समझा जा सकता है कि उनकी साधना स्वयं भगवान श्री राम ने भी की थी. सूर्यदेव की तरह उनका परिवार भी काफी बड़ा है. आइए उनके परिवार के बारे में विस्तार से जानते हैं.


सूर्य और संज्ञा की पहली तीन संतान

भगवान सूर्य की दो पत्नियां थीं

 जिनमें से पहली पत्नी संज्ञा जो कि विश्वकर्मा की पुत्री थीं, उनसे सूर्यदेव की पहली तीन संतान वैवस्वत मनु, यम और यमुना हैं. धर्मराज या यमराज सूर्य के सबसे बड़े पुत्र हैं. जिन्हें यमराज के नाम से जाना जाता है. उसके बाद यमुना नदी उनकी दूसरी संतान और ज्येष्ठ पुत्री हैं. जो अपने पिता सूर्यदेव के आशीर्वाद से पृथ्वी पर आज भी बह रही हैं. यमुना का वेग सामान्‍य है और इसमें नहाने से यम की प्रताड़ना से मुक्ति मिलती हैा वैवस्वत मनु सूर्य और संज्ञा की तीसरी संतान हैं. वैवस्वत मनु ये श्राद्ध देव हैं. ये पितृलोक के अधिपति हैं. इन्होंने ही भूलोक पर सृजन का कार्य किया था.


सूर्य और छाया की संतान

सूर्य का तेज सह न पाने के बाद जब उनकी पत्नी संज्ञा ने अपनी ही रूप-आकृति तथा वर्णवाली अपनी छाया को सूर्य के पास स्थापित कर अपने पिता के घर तप करने चली गईं तो उसके बाद सूर्य लंबे समय तक छाया को संज्ञा के साथ रहेा जिनसे सावर्णि मनु (वैवस्वत मनु की ही तरह इस मन्वन्तर के बाद अगले यानि आठवें मन्वन्तर के अधिपति होंगे.), शनि (जिन्‍हें दंडाधिकारी कहा जाता है), ताप्ती (यमुना के स्‍वभाव से विपरीत एक तेज बहाव वाली नदी हैं, जिसमें स्‍नान करने पर पितृदोष से मुक्ति और शनि की साढ़ेसाती से मुक्ति मिलती है) तथा विष्टि (भद्रा) नाम की चार संतान हुईं.

तब हुआ अश्विनी कुमार और रेवंंत का जन्‍म

जब सूर्यदेव को संज्ञा के बारे में पता चला तो वे उनके पास उस स्‍थान पर घोड़ा बनकर पहुंचे, जहां संज्ञा अश्विनी यानि घोड़ी के रूप में तप कर रही थीं. उसके बाद सूर्य और संज्ञा के संयोग से जुड़वां अश्विनी कुमारों की उत्पत्ति हुई. ये दोनों देवताओं के वैद्य हैं. इसके बाद सूर्य और संज्ञा के पुनर्मिलन के बाद सबसे छोटी संतान के रूप में रेवंत का जन्‍म हुआ था।

सूर्यदेव के १२ आदित्य व देवकुल


देवताओं के कुल में १२ आदित्यों, ८ वसुओं, ११ रुद्रों सहित इन्द्र व प्रजापति को मिलाकर कुल ३३ देवता होते हैं।कुछ विद्वान इन्द्र और प्रजापति की जगह २ अश्विनी कुमारों को भी रखते हैं। प्रजापति ही ब्रह्मा हैं। १२ आदित्यों में से १ विष्णु हैं और ११ रुद्रों में से १ शिव हैं। उक्त सभी देवताओं को परमेश्वर ने अलग अलग कार्य सौंप रखे हैं।जिस तरह देवता ३३ हैं जिन्हें 33 कोटि देवता भी कहते हैं। उसी तरह दैत्यों, दानवों, गंधर्वों, नागों आदि की गणना भी की गई है। देवताओं के गुरु बृहस्पति हैं, जो हिन्दू धर्म के संस्थापक ४ ऋषियों में से एक अंगिरा के पुत्र हैं। बृहस्पति के पुत्र कच थे जिन्होंने शुक्राचार्य से संजीवनी विद्या सीखी। शुक्राचार्य दैत्यों (असुरों) के गुरु हैं। भृगु ऋषि तथा हिरण्यकशिपु की पुत्री दिव्या के पुत्र शुक्राचार्य की कन्या का नाम देवयानी तथा पुत्र का नाम शंद और अमर्क था। देवयानी ने ययाति से विवाह किया था।

ऋषि कश्यप की पत्नी अदिति से जन्मे पुत्रों को आदित्य कहा गया है। वेदों में जहां अदिति के पुत्रों को आदित्य कहा गया है, वहीं सूर्य को भी आदित्य कहा गया है। वैदिक या आर्य लोग दोनों की ही स्तुति करते थे। इसका यह मतलब नहीं कि आदित्य ही सूर्य है या सूर्य ही आदित्य है। हालांकि आदित्यों को सौर देवताओं में शामिल किया गया है और उन्हें सौर मंडल का कार्य सौंपा गया है।भगवान सूर्यदेव जिन्हें आदित्य के नाम से भी जाना जाता है जो इनके बारह नामों में से एक नाम है। इनके बारह नामों में इनके विभिन्न स्वरूपों की झलक मिलती है। इनका हर रूप एक दूसरे से अलग होता है जो अपने आप में एक अलग महत्व रखता है। १२ आदित्य देव के अलग अलग नाम: ये कश्यप ऋषि की दूसरी पत्नी अदिति से उत्पन्न १२ पुत्र; अंशुमान, अर्यमन, इन्द्र, त्वष्टा, धातु, पर्जन्य, पूषा, भग, मित्र, वरुण, विवस्वान और विष्णु हैं। इन्हीं पर वर्ष के 12 मास नियु‍क्त होते हैं। पुराणों में इन मासों के नाम इस तरह मिलते हैं: धाता, मित्र, अर्यमा, शुक्र, वरुण, अंश, भग, विवस्वान, पूषा, सविता, त्वष्टा एवं विष्णु। कई जगह इनके नाम इन्द्र, धाता, पर्जन्य, त्वष्टा, पूषा, अर्यमा, भग, विवस्वान, विष्णु, अंशुमान और मित्र भी हैं।

१२ आदित्य –  विवस्वान्, अर्यमा, पूषा, त्वष्टा, सविता, भग, धाता, विधाता, वरुण, मित्र, इंद्र और त्रिविक्रम (भगवान वामन)।

आदित्य स्वरूप

इन्द्र –यह भगवान सूर्य का प्रथम रूप है। यह देवाधिपति इन्द्र को दर्शाता है। देवों के राज के रूप में आदित्य स्वरूप हैं। इनकी शक्ति असीम हैं इन्द्रियों पर इनका अधिकार है। शत्रुओं का दमन और देवों की रक्षा का भार इन्हीं पर है।यह भगवान सूर्य का प्रथम रूप है। यह देवों के राजा के रूप में आदित्य स्वरूप हैं। इनकी शक्ति असीम है। इन्द्रियों पर इनका अधिकार है। शत्रुओं का दमन और देवों की रक्षा का भार इन्हीं पर है।इन्द्र को सभी देवताओं का राजा माना जाता है। वही वर्षा पैदा करता है और वही स्वर्ग पर शासन करता है। वह बादलों और विद्युत का देवता है। इन्द्र की पत्नी इन्द्राणी थी। छल कपट के कारण इन्द्र की प्रतिष्ठा ज्यादा नहीं रही। इसी इन्द्र के नाम पर आगे चलकर जिसने भी स्वर्ग पर शासन किया, उसे इन्द्र ही कहा जाने लगा। तिब्बत में या तिब्बत के पास इंद्रलोक था। कैलाश पर्वत के कई योजन उपर स्वर्ग लोक है।


इन्द्र किसी भी साधु और धरती के राजा को अपने से शक्तिशाली नहीं बनने देते थे। इसलिए वे कभी तपस्वियों को अप्सराओं से मोहित कर पथभ्रष्ट कर देते हैं तो कभी राजाओं के अश्वमेध यज्ञ के घोड़े चुरा लेते हैं।ऋग्वेद के तीसरे मंडल के वर्णनानुसार इन्द्र ने विपाशा (व्यास) तथा शतद्रु नदियों के अथाह जल को सुखा दिया जिससे भरतों की सेना आसानी से इन नदियों को पार कर गई। दशराज्य युद्ध में इन्द्र ने भरतों का साथ दिया था। सफेद हाथी पर सवार इन्द्र का अस्त्र वज्र है और वह अपार शक्ति संपन्न देव है। इन्द्र की सभा में गंधर्व संगीत से और अप्सराएं नृत्य कर देवताओं का मनोरंजन करते हैं।

धाता – धाता हैं दूसरे आदित्य। इन्हें श्रीविग्रह के रूप में जाना जाता है। ये प्रजापति के रूप में जाने जाते हैं। जन समुदाय की सृष्टि में इन्हीं का योगदान है। जो व्यक्ति सामाजिक नियमों का पालन नहीं करता है और जो व्यक्ति धर्म का अपमान करता है उन पर इनकी नजर रहती है। इन्हें सृष्टिकर्ता भी कहा जाता है।

पर्जन्य – तीसरे आदित्य का नाम पर्जन्य है। यह मेघों में निवास करते हैं। इनका मेघों पर नियंत्रण हैं। वर्षा के होने तथा किरणों के प्रभाव से मेघों का जल बरसता है। ये धरती के ताप को शांत करते हैं और फिर से जीवन का संचार करते हैं। इनके बगैर धरती पर जीवन संभव नहीं।

त्वष्टा –  आदित्यों में चौथा नाम श्री त्वष्टा का आता है। इनका निवास स्थान वनस्पति में हैं पेड़ पोधों में यही व्याप्त हैं औषधियों में निवास करने वाले हैं। अपने तेज से प्रकृति की वनस्पति में तेज व्याप्त है जिसके द्वारा जीवन को आधार प्राप्त होता है।त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप। विश्वरूप की माता असुर कुल की थीं अतः वे चुपचाप असुरों का भी सहयोग करते रहे। एक दिन इन्द्र ने क्रोध में आकर वेदाध्ययन करते विश्वरूप का सिर काट दिया। इससे इन्द्र को ब्रह्महत्या का पाप लगा। इधर, त्वष्टा ऋषि ने पुत्रहत्या से क्रुद्ध होकर अपने तप के प्रभाव से महापराक्रमी वृत्तासुर नामक एक भयंकर असुर को प्रकट करके इन्द्र के पीछे लगा दिया। ब्रह्माजी ने कहा कि यदि नैमिषारण्य में तपस्यारत महर्षि दधीचि अपनी अस्थियां उन्हें दान में दें दें तो वे उनसे वज्र का निर्माण कर वृत्तासुर को मार सकते हैं। ब्रह्माजी से वृत्तासुर को मारने का उपाय जानकर देवराज इन्द्र देवताओं सहित नैमिषारण्य की ओर दौड़ पड़े।

पूषा –पांचवें आदित्य पूषा हैं जिनका निवास अन्न में होता है। समस्त प्रकार के धान्यों में यह विराजमान हैं। इन्हीं के द्वारा अन्न में पौष्टिकता एवं उर्जा आती है। अनाज में जो भी स्वाद और रस मौजूद होता है वह इन्हीं के तेज से आता है।

अर्यमा –अदिति के तीसरे पुत्र और आदित्य नामक सौर-देवताओं में से एक अर्यमन या अर्यमा को पितरों का देवता भी कहा जाता है। आकाश में आकाशगंगा उन्हीं के मार्ग का सूचक है। सूर्य से संबंधित इन देवता का अधिकार प्रात: और रात्रि के चक्र पर है।आदित्य का छठा रूप अर्यमा नाम से जाना जाता है। यह वायु रूप में प्राणशक्ति का संचार करते हैं। चराचर जगत की जीवन शक्ति हैं। प्रकृति की आत्मा रूप में निवास करते हैं।

भग – सातवें आदित्य हैं भग, प्राणियों की देह में अंग रूप में विध्यमान हैं यह भग देव शरीर में चेतना, उर्जा शक्ति, काम शक्ति तथा जीवंतता की अभिव्यक्ति करते हैं।

विवस्वान –आठवें आदित्य हैं विवस्वान हैं। यह अग्नि देव हैं, इनमें जो तेज व उष्मा व्याप्त है वह सूर्य से कृषि और फलों का पाचन, प्राणियों द्वारा खाए गए भोजन का पाचन इसी अगिन द्वारा होता है। ये आठवें मनु वैवस्वत मनु के पिता हैं।

विष्णु – नौवें आदित्य हैं विष्णु। देवताओं के शत्रुओं का संहार करने वाले देव विष्णु हैं। वे संसार के समस्त कष्टों से मुक्ति कराने वाले हैं। माना जाता है कि नौवें आदित्य के रूप में विष्णु ने त्रिविक्रम के रूप में जन्म लिया था। त्रिविक्रम को विष्णु का वामन अवतार माना जाता है। यह दैत्यराज बलि के काल में हुए थे। हालांकि इस पर शोध किए जाने कि आवश्यकता है कि नौवें आदित्य में लक्ष्मीपति विष्णु हैं या विष्णु अवतार वामन।१२ आदित्यों में से एक विष्णु को पालनहार इसलिए कहते हैं, क्योंकि उनके समक्ष प्रार्थना करने से ही हमारी समस्याओं का निदान होता है। उन्हें सूर्य का रूप भी माना गया है। वे साक्षात सूर्य ही हैं। विष्णु ही मानव या अन्य रूप में अवतार लेकर धर्म और न्याय की रक्षा करते हैं। विष्णु की पत्नी लक्ष्मी हमें सुख, शांति और समृद्धि देती हैं। विष्णु का अर्थ होता है विश्व का अणु।

अंशुमान – दसवें आदित्य हैं अंशुमान। वायु रूप में जो प्राण तत्व बनकर देह में विराजमान है वहीं दसवें आदित्य अंशुमान हैं। इन्हीं से जीवन सजग और तेज पूर्ण रहता है।

वरूण –जल तत्व का प्रतीक हैं वरूण देव। यह ग्यारहवें आदित्य हैं। मनुष्य में विराजमान हैं जीवन बनकर समस्त प्रकृत्ति में के जीवन का आधार हैं। जल के अभाव में जीवन की कल्पना भी नहीं कि जा सकती है।वरुण को असुर समर्थक कहा जाता है। वरुण देवलोक में सभी सितारों का मार्ग निर्धारित करते हैं। वरुण तो देवताओं और असुरों दोनों की ही सहायता करते हैं। ये समुद्र के देवता हैं और इन्हें विश्व के नियामक और शासक, सत्य का प्रतीक, ऋतु परिवर्तन एवं दिन-रात के कर्ता-धर्ता, आकाश, पृथ्वी एवं सूर्य के निर्माता के रूप में जाना जाता है। इनके कई अवतार हुए हैं। उनके पास जादुई शक्ति मानी जाती थी जिसका नाम था माया। उनको इतिहासकार मानते हैं कि असुर वरुण ही पारसी धर्म में 'अहुरा मज़्दा' कहलाए।

मित्र  – बारहवें आदित्य हैं मित्र। विश्व के कल्याण हेतु तपस्या करने वाले, ब्रह्माण का कल्याण करने की क्षमता रखने वाले हैं मित्र देवता हैं। यह बारह आदित्य सृष्टि के विकासक्रम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

सूर्य और सात घोडो का रहस्य

हिन्दू धर्म में देवी देवताओं तथा उनसे जुड़ी कहानियों का इतिहास काफी बड़ा है या यूं कहें कि कभी ना खत्म होने वाला यह इतिहास आज विश्व में अपनी एक अलग ही पहचान बनाए हुए है। विभिन्न देवी देवताओं का चित्रण, उनकी वेश भूषा और यहां तक कि वे किस सवारी पर सवार होते थे यह तथ्य भी काफी रोचक हैं।

सूर्य रथ

हिन्दू धर्म में विघ्नहर्ता गणेश जी की सवारी काफी प्यारी मानी जाती है। गणेश जी एक मूषक यानि कि चूहे पर सवार होते हैं जिसे देख हर कोई अचंभित होता है कि कैसे महज एक चूहा उनका वजन संभालता है। गणेश जी के बाद यदि किसी देवी या देवता की सवारी सबसे ज्यादा प्रसिद्ध है तो वे हैं सूर्य भगवान।

क्यों जुते हैं सात घोड़े

सूर्य भगवान सात घोड़ों द्वारा चलाए जा रहे रथ पर सवार होते हैं। सूर्य भगवान जिन्हें आदित्य, भानु और रवि भी कहा जाता है, वे सात विशाल एवं मजबूत घोड़ों पर सवार होते हैं। इन घोड़ों की लगाम अरुण देव के हाथ होती है और स्वयं सूर्य देवता पीछे रथ पर विराजमान होते हैं।

सात की खास संख्या

लेकिन सूर्य देव द्वारा सात ही घोड़ों की सवारी क्यों की जाती है? क्या इस सात संख्या का कोई अहम कारण है? या फिर यह ब्रह्मांड, मनुष्य या सृष्टि से जुड़ी कोई खास बात बताती है। इस प्रश्न का उत्तर पौराणिक तथ्यों के साथ कुछ वैज्ञानिक पहलू से भी बंधा हुआ है।

सात घोड़े और सप्ताह के सात दिन


⚘️सूर्य भगवान के रथ को संभालने वाले इन सात घोड़ों के नाम हैं; गायत्री, भ्राति, उस्निक, जगति, त्रिस्तप, अनुस्तप और पंक्ति। कहा जाता है कि यह सात घोड़े एक सप्ताह के सात दिनों को दर्शाते हैं। यह तो महज एक मान्यता है जो वर्षों से सूर्य देव के सात घोड़ों के संदर्भ में प्रचलित है लेकिन क्या इसके अलावा भी कोई कारण है जो सूर्य देव के इन सात घोड़ों की तस्वीर और भी साफ करता है।


सात घोड़े रोशनी को भी दर्शाते हैं

पौराणिक दिशा से विपरीत जाकर यदि साधारण तौर पर देखा जाए तो यह सात घोड़े एक रोशनी को भी दर्शाते हैं। एक ऐसी रोशनी जो स्वयं सूर्य देवता यानी कि सूरज से ही उत्पन्न होती है। यह तो सभी जानते हैं कि सूर्य के प्रकाश में सात विभिन्न रंग की रोशनी पाई जाती है जो इंद्रधनुष का निर्माण करती है।

बनता है इंद्रधनुष

यह रोशनी एक धुर से निकलकर फैलती हुई पूरे आकाश में सात रंगों का भव्य इंद्रधनुष बनाती है जिसे देखने का आनंद दुनिया में सबसे बड़ा है।प्रत्येक घोड़े का रंग भिन्न:सूर्य भगवान के सात घोड़ों को भी इंद्रधनुष के इन्हीं सात रंगों से जोड़ा जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि यदि हम इन घोड़ों को ध्यान से देखें तो प्रत्येक घोड़े का रंग भिन्न है तथा वह एक-दूसरे से मेल नहीं खाता है। केवल यही कारण नहीं बल्कि एक और कारण है जो यह बताता है कि सूर्य भगवान के रथ को चलाने वाले सात घोड़े स्वयं सूरज की रोशनी का ही प्रतीक हैं।

सारथी अरुण

पौराणिक तथ्यों के अनुसार सूर्य भगवान जिस रथ पर सवार हैं उसे अरुण देव द्वारा चलाया जाता है। एक ओर अरुण देव द्वारा रथ की कमान तो संभाली ही जाती है लेकिन रथ चलाते हुए भी वे सूर्य देव की ओर मुख कर के ही बैठते है!

केवल एक ही पहिया

रथ के नीचे केवल एक ही पहिया लगा है जिसमें 12 तिल्लियां लगी हुई हैं। यह काफी आश्चर्यजनक है कि एक बड़े रथ को चलाने के लिए केवल एक ही पहिया मौजूद है, लेकिन इसे हम भगवान सूर्य का चमत्कार ही कह सकते हैं। कहा जाता है कि रथ में केवल एक ही पहिया होने का भी एक कारण है।

पहिया एक वर्ष को दर्शाता है

यह अकेला पहिया एक वर्ष को दर्शाता है और उसकी 12 तिल्लियां एक वर्ष के 12 महीनों का वर्णन करती हैं। एक पौराणिक उल्लेख के अनुसार सूर्य भगवान के रथ के समस्त 60 हजार वल्खिल्या जाति के लोग जिनका आकार केवल मनुष्य के हाथ के अंगूठे जितना ही है, वे सूर्य भगवान को प्रसन्न करने के लिए उनकी पूजा करते हैं। इसके साथ ही गांधर्व और पान्नग उनके सामने गाते हैं औरअप्सराएं उन्हें खुश करने के लिए नृत्य प्रस्तुत करती हैं।

ऋतुओं का विभाजन

कहा जाता है कि इन्हीं प्रतिक्रियाओं पर संसार में ऋतुओं का विभाजन किया जाता है। इस प्रकार से केवल पौराणिक रूप से ही नहीं बल्कि वैज्ञानिक तथ्यों से भी जुड़ा है भगवान सूर्य का यह विशाल रथ।

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