/ "ईश्वर के साथ हमारा संबंध: सरल ज्ञान और अनुभव: 2018

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सोमवार, 26 नवंबर 2018

वाक् संयम- वाणी पर नियंत्रण का महत्व

                  वाक् संयम-वाणी पर नियंत्रण का महत्व

जब महाभारत का अंतिम श्लोक महर्षि वेद व्यास के मुख से गणेश जी के द्वारा  भुज पत्र पर अंकित हो चुका, तब गणेश जी से महर्षि व्यास ने कहा,' विघ्नेश्वर! धन्य है आपकी लेखनी ।महाभारत का निर्माण तो इसी ने किया है ,पर एक वस्तु आपकी लेखनी से भी अधिक विस्मयकारी है, वह है आपका मौन। लंबे समय तक आपका हमारा साथ रहा, इस अवधि में मैंने तो 15 -20 लाख शब्द बोल डाले ,परंतु आप के मुख से  मैंने एक भी शब्द नहीं सुना।'
 इस पर गणेश जी ने मौन की व्याख्या करते हुए कहा,'किसी दीपक में अधिक तेल होता है किसी में कम । परंतु तेल का अक्षय भंडार किसी दीपक में नहीं होता । उसी प्रकार देव, मानव ,दानव ,सभी देह धारियों की प्राणशक्ति सीमित है ,परंतु असीम किसी की नहीं है ।इस प्राणशक्ति का पूर्ण लाभ वही पा सकता है ,जो संयम से उसका उपयोग करता है । संयम ही समस्त सिद्धियों का आधार है, और संयम का प्रथम सोपान है वाणी का संयम । जो वाणी का संयम नहीं रखता उसकी जिव्हा बोलती रहती है ,बहुत बोलने वाली जिव्हा अनावश्यक बोलती है, और अनावश्यक शब्द प्रायः विग्रह और वैमनस्य पैदा करते हैं अथार्त दूरियां और शत्रुता पैदा करते हैं। जो हमारी प्राणशक्ति को सोख डालते हैं। वाणी के संयम से यह समस्त अनर्थ परंपरा खत्म हो जाती हैं ।इसलिए मैं मौन का उपासक हूं।
(प्रेषक-श्री अरुण जी गुप्ता)

बुधवार, 29 अगस्त 2018

कर्म कितने प्रकार के होते हैं?

                       कर्म की खोज(कर्म क्या है )


मनुष्य का मन एक पल के लिए भी शांत नहीं रहता। मन की दौड़ बहुत लंबी होती है ।मन की दौड़ का क्षेत्र सीमित है ।वह हर क्षण कार्यरत रहता है। मन पर नियंत्रण करना बहुत कठिन कार्य है। यही कार्य कर्म कहलाते हैं।
 ऋषि मुनियों ने कर्म के तीन भेद बताए हैं-
१-क्रियमाण कर्म- मैं कर्म करता हूं! इस प्रकार की बुद्धि रखकर मनुष्य जो कर्म करता है ,उसे क्रियमान कर्म कहते हैं। जीवन काल में जो जो कर्म होते हैं। वह सब क्रियमाण कर्म कहलाते हैं।
 कर्म का स्वरूप ~मनुष्य कर्म करने में पूर्ण रुप से स्वतंत्र है। मन में जो अशुभ संस्कार होते हैं,वे  अशुभ कर्म करने के लिए मन ललचाते  हैं ।बुद्धि उसका मार्गदर्शन करती है, जिसका निश्चिय दृढ़ होता है। वह प्रलोभन से आकर्षित नहीं होता। शुभ कर्मों से स्वर्ग मिलता है और अशुभ कर्मों से नरक में जाना पड़ता है। क्या करना और क्या नहीं करना है, इसका निर्णय लेने में मनुष्य स्वतंत्र है।
- संचित कर्म- क्रियमाण कर्म तो हर समय होते रहते हैं। उनमें कुछ तो भोग लिए जाते हैं, और शेष इकट्ठा होते रहते हैं। इस प्रकार की चित्तरूपी गोदाम में एकत्रित हुए कर्मों को संचित कर्म कहते हैं।
संचित कर्मों का स्वरूप कर्म का भंडार अक्षय है कभी खत्म नहीं होता भोगने से कभी वह भंडार समाप्त नहीं होता कर्मों का नियम यह है कि "नामुक्तं क्षीयते कर्म कोटिकल्प -शतैरपि। " अथार्त - कोई भी कर्म करोडों कल्प  बीतने पर भी बिना भोगे नष्ट नहीं होते। ऐसी स्थिति में जीव की मुक्ति का का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। कर्म का भंडार अक्षय है। उसको भोगते भोगते जीव अनादि काल से 8400000 योनियों में शरीर धारण करता चला आ रहा है ,फिर भी कर्म का भंडार अक्षय ही बना रहता है।
साधन -जीव को मुक्ति मिल सकती है। श्री कृष्ण , अर्जुन से कहते हैं - हे अर्जुन !जैसे प्रज्वलित अग्नि इर्धन को भस्म कर देती है ,वैसे ही ज्ञान रूपी अग्नि संपूर्ण कर्मों को भस्म कर देती है ।अगले श्लोक में श्री कृष्ण जी कहते हैं कि- इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला कुछ भी नहीं है ,उस ज्ञान को बुद्धि रूप योग के द्वारा शुद्ध अंतःकरण हुआ पुरुष ,आत्मा में अनुभव करता है ।श्रुति कहती है-  ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं होती। कर्मों का भंडार केवल जितेंद्रिय पुरुष के तत्त्वत: आत्म ज्ञान से भस्म  होता है ।
प्रारब्ध कर्म- प्राणी केेेे मन मैं अनेक जन्मों के संचित कर्मोंं के भंडार पड़े रहते हैं जो  भोगने   पर भी समाप्त नहीं होते हैं। प्रारब्ध कर्म का अर्थ है- जो कर्म पिछले जन्मों में किए गए और जिनका फल इस जन्मम में भोगना पड़ता है अथार्त इस जन्म में जो सुख दुख भोगनेेे होते हैं,। उसे प्रारब्ध कहते हैं।शास्त्र कहता है- मनुष्य केे द्वारा जो भी अच्छे बुरेे कर्म किए जाते है वह भोगे बिना समाप्त नहीं होते ।
कर्म सिद्धांत -प्राणियोंं का समस्त जीवन कर्म सेेे बंधा हुआ है। तथा मरणोतर जीवन कर्म से बंधा हुआ है ।  कर्म ही प्राणियों के  जन्म -ज़रा, मरण तथा रोगादि विकारो का मूल है।
अथार्त  सुख और दुख देने वाला कोई व्यक्ति नहीं है। दुष्ट बुद्धि वाले लोग कहते हैं कि मैंने उसको कितना दुख दिया। कुछ ऐसा कहते हैं कि मैंने यह भी किया  ,वह भी किया। वह झूठा अभिमान है, वास्तव में सभी लोग अपने अपने कर्मों के सूत्र में बंधे हुए हैं।

बुधवार, 22 अगस्त 2018

तुलसी कंठी या जो भी माला पसंद है वह जरूर श्रद्धा के साथ धारण करनी चाहिए

तुलसी कंठी या जो भी माला पसंद है वह जरूर श्रद्धा के साथ धारण करनी चाहिए



गले में माला पहनने का जहां आध्यात्मिक महत्व है, वहीं ये धारक के मन, मस्तिष्क, चर्म, अस्थि, रक्त प्रवाह, वात संस्थान और संवेगों को भी प्रभावित करती हैं। रुद्राक्ष की माला इस दृष्टि से सर्वगुण संपन्न मानी गई है। लक्ष्मी, सरस्वती, गणेश, राम, कृष्ण, शिव, विष्णु, दत्त तथा नवग्रह आदि की साधना में रुद्राक्ष की माला का उपयोग मनोवांछित फल देने वाला है। माला चाहे जैसी भी हो, उसका शुद्ध पूर्ण और वास्तविक होना आवश्यक है। टूटी-फूटी, आधी-अधूरी, अशुद्ध माला प्रभावकारी नहीं होती। जप के प्रभाव को कम या ज्यादा करने में माला एक प्रमुख उपदान है, इसलिए किसी विद्वान के निर्देश पर ही इसका प्रयोग करना चााहिए। माला को गंगाजल अथवा कच्चे दूध से स्नान करवाने के बाद ही उपयोग में लाना चाहिए। शुद्धता किसी भी माला के प्रभावकारी होने की पहली शर्त है। 

हाथी दांत के मनकों से बनी हुई माला से जप करने पर गणेश जी प्रसन्न होते हैं, हालांकि यह माला काफी महंगी और दुर्लभ होती है। कमलगट्टे की माला का प्रयोग शत्रु के नाश और धन प्राप्ति के लिए किया जाता है। संतान प्राप्ति के लिए पुत्र जीवा की अल्प मौली माला फलदायी मानी गई है। पुष्टि कर्म के अंतर्गत सात्विक कार्यों की पूर्ति के लिए चांदी की माला सर्वोत्तम मानी गई है। इसका प्रभाव जप के साथ ही आरंभ हो जाता है।  

जबकि मूंगा (प्रवाल) की माला धारण करने व इसके जप में प्रयोग करने से गणेश और लक्ष्मी की कृपा सहज ही प्राप्त हो जाती है। धन-संपत्ति, द्रव्य, स्वर्ण आदि की प्राप्ति की कामना मूंगे की माला से पूर्ण हो जाती है। कुश ग्रंथ की माला कुश नामक घास की जड़ को खोद कर बनाई जाती है। इसका जातक अथवा साधक पर जप के दौरान जादुई प्रभाव होता है। सहज उपलब्धता के कारण अक्सर लोग इसे अप्रभावी मानकर हाशिए पर फैंक देते हैं लेकिन अध्यात्म की दुनिया में इसके गुणों का कोई सानी माला नहीं है। कुश ग्रंथी माला समस्त कायिक, वाचिक और मानसिक पातकों का शमन करती हुई साधक को निष्कलंक, प्रदूषणमुक्त, निर्मल और सतेज बनाती हैं। इसके प्रयोग से तामसिक व्याधियों का विनाश होता है। 

चंदन की माला दो प्रकार की मिलती है- सफेद और लाल चंदन की। श्री राम, विष्णु, कृष्ण आदि देवताओं की स्तुति, पूजन-अर्चन आदि में सफेद चंदन की माला से किया गया जप देखते-देखते धन-धान्य की प्राप्ति करवा देता है। जबकि लाल चंदन की माला गणेश तथा दुर्गा, लक्ष्मी, त्रिपुर सुंदरी आदि देवी स्वरूपों की उपासना में प्रयोग में लाई जाती है।

तुलसी की माला सस्ती है और सर्वत्र उपलब्ध है। इसलिए राम कृष्ण की उपासना में वैष्णव भक्त इसका बड़ी ही श्रद्धापूर्वक प्रयोग करते हैं। आयुर्वैदिक दृष्टि से भी इसे गले में धारण करने का महत्व है। इसे लोग सुरक्षा कवच मानकर भी गले में पहने रहते हैं। 

सोने के मनकों वाली माला जप आदि में तो प्रयोग में कम लाई जाती है लेकिन अनुभव में आया है कि स्वर्ण माला के धारण करने से धन प्राप्ति और पुत्र प्राप्त की कामना शीघ्र पूरी होती है। स्फटिक की माला सौम्य प्रभाव वाली होती है। इसके धारकों पर चंद्रमा और शिव जी की विशेष कृपा होती है। सात्विक और पुष्टि कार्यों के लिए इसके प्रभाव स्वयं सिद्ध हैं। शंखमाला का प्रयोग तांत्रिक विद्याओं की सिद्धि के लिए किया जाता है। शिवजी की पूजा आराधना तथा सात्विक कामनाओं की पूर्ति तथा जप आदि में इसकी लोकप्रियता शिखर पर है। 

वैजयंती की माला विष्णु और कृष्ण के भक्तों को प्रिय है। यह बहुप्रयोजनीय है। भक्त तो भक्त, इसे भगवान भी धारण कर सौभाग्य अर्जित करना चाहते हैं। हल्दी की माला गणेश जी की प्रसन्नता के लिए है। बृहस्पति ग्रह तथा बगलामुखी की साधना हल्दी की माला के बिना अधूरी मानी जाती है।

मंगलवार, 21 अगस्त 2018

सुख दुख दोनों ही किस को भोगने पड़ते हैं?

           सुख दुख दोनों ही किस को भोगने पड़ते हैं

संसार में मनुष्य को सुख और दुख दोनों ही भोगने पड़ते हैं। परंतु सुख में प्रसन्नता दुख में क्षोभ,  सामान्य लोगों को होता है। धैर्यवान ,सुख दुख दोनों में समान रहते हैं ।यही ईश्वरीय कृपा का अनुभव होना है। अपने कर्तव्य का पालन करने वाला निर्धन मनुष्य श्रेष्ठ है और अपने कर्तव्य का त्याग करना ,अन्याय से धनवान होकर सुखी होना अच्छा नहीं है । इसीलिए शरणागत हो जाओ, शरण सफलता की कुंजी है ,निर्बल का बल है ,साधक का जीवन है, भक्तों का महामंत्र है ,आस्तिक का अचूक अस्त्र है ,दुखी की दवा है, इसलिए जो परमात्मा का सहारा ले लेता है। उसके सुख और दुख एक समान हो जाते हैं ।वे दोनों ही परिस्थिति में कृपा का अनुभव करता है ।दुख हो या सुख दोनों में ही वह अनुभव करता है कि ईश्वर उसे उसके कर्म के हिसाब से  प्रदान कर रहे हैं, इसलिए वह दोनों को सहज ही स्वीकार करता है। इसलिए सुख और दुख केवल वही भोगता है जिसने परमात्मा की शरण नहीं ली है।

(भक्तमाली जी महाराज वृंदावन)

गीता माधुर्य, तीसरा अध्याय( श्रीमद् भागवत गीता का सरल भावार्थ

 गीता माधुर्य,( तीसरा अध्याय) श्रीमद्भागवत का सरल भावार्थ

अर्जुन बोले- श्री जनार्दन !आपके अनुसार जब ज्ञान, बुद्धि श्रेष्ठ है, तो फिर है केशव! आप मुझे हर करम में क्यों लगाते हैं तथा आप कभी कहते हैं, कर्म करो और कभी कहते ज्ञान का आश्रय लो, आपकी इन मिले हुए वचनों से मेरी बुद्धि मोहित सी हो रही है ।इसलिए एक निश्चित बात कहिये, जिससे मैं कल्याण को प्राप्त हो जाऊं ।।१-२
भगवान बोले -हे निष्पाप अर्जुन! इस मनुष्य लोक में दो प्रकार से होने वाली निष्ठा मेरे द्वारा पहले कहीं गई है, उनमें सांख्य  योगियों की निष्ठा ,ज्ञान योग से, और योगियों की निष्ठा कर्म योग  से होती है ।तथा ज्ञान योग और कर्म योग से एक ही सम बुद्धि की प्राप्ति होती है ।
उस  समता की प्राप्ति के लिए क्या कर्म करना जरूरी है?
 हां जरूरी है; क्योंकि मनुष्य ना तो कर्मों का आरंभ किए बिना निष्कर्मता को प्राप्त होता है और ना कर्मों के त्याग से सिद्धि को ही प्राप्त होता है। तात्पर्य है कि वह समता की प्राप्ति कर्मों का आरंभ किए बिना भी नहीं होती और कर्मों के त्याग से भी नहीं होती ।
कर्मों के त्याग से क्यों नहीं होती ?
कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्था में क्षण मात्र भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता , क्योंकि प्रकृतिजन्य गुण स्वभाव की परवश हुए प्राणियों से कर्म कराते हैं ,तो फिर प्राणी कर्मों का त्याग कैसे कर सकता है।
 अगर मनुष्य चुपचाप बैठे रहे ,कुछ भी करें नहीं तो क्या यह कर्मों का त्याग नहीं हुआ?
 नहीं ,जो मनुष्य चुपचाप बैठ कर और इंद्रियों को केवल बाहर से रोक कर मन से विषयों का चिंतन करता रहता है , उसका यह चुपचाप बैठना कर्मों का त्याग करना नहीं हुआ ,बल्कि उस मूढ बुद्धि  वाले का यह चुपचाप बैठना मिथ्याचार है। आपने जो समबुद्धि बताई उसकी प्राप्ति ना तो कर्मों के किए बिना होती है, ना कर्मों के त्याग से होती है और ना बाहर से चुपचाप बैठ कर मन से विषयों का चिंतन करने  से होती है तो फिर उसकी प्राप्ति कैसे होती है? 
हे अर्जुन !जो मनुष्य मन से इंद्रियों का नियमन करके आसक्ति रहित होकर इंद्रियों के द्वारा कर्म योग (निष्काम भाव पूर्वक अपने कर्तव्य कर्मो)- का आचरण करता है वा श्रेष्ठ है अथार्त उसको समबुद्धि प्राप्त हो जाती है। इसलिए तू शास्त्र विधि से नियत किये हुए कर्तव्य कर्म कर; क्योंकि कर्म ना करने की अपेक्षा उपयुक्त विधि से कर्तव्य कर्म करना श्रेष्ठ है, और तो क्या ,बिना कर्म किए तेरे शरीर का निर्वाह भी नहीं होगा।
 कर्मों को करने से बंधन तो नहीं होगा, भगवन्!
 नहीं ,यज्ञ (कर्तव्य कर्म )को केवल अपने लिए करने से ही मनुष्य कर्मों से बंधता है। इसलिए है कुंती नंदन !तू आसक्ति रहित होकर कर्तव्य कर्म को केवल कर्तव्य परंपरा सुरक्षित रखने के लिए ही कर।
 मैं कर्म करूं ही क्यों ?
सर्ग के आरंभ में पिता ब्रह्मा जी ने भी यज्ञ (कर्तव्य कर्मों के )सहित मनुष्य की रचना करके उनसे यही कहा था कि तुम लोग इस कर्तव्य कर्म यज्ञ के द्वारा वृद्धि को प्राप्त होओ। यह यज्ञ तुम लोगों को कर्तव्यपालन की आवश्यक सामग्री प्रदान करने वाला हो।
 यह यज्ञ हम किस भाव से करें पितामह?
 इसके द्वारा तुम लोग देवताओं के द्वारा की वृद्धि ( उन्नति )करो और वे देवता लोग तुम्हारी वृद्धि करें। इस तरह एक दूसरे की वृद्धि करने से अथार्त अपने लिए कर्म न करके  केवल दूसरों के हित के लिए ही सब कर्म करने से तुम लोग परमेश्वर यानी कि परमात्मा को प्राप्त हो जाओगे।
 पितामह !अगर हम यज्ञ ना करें तो?
 तुम्हारे कर्तव्य कर्म रूप यज्ञ के द्वारा वृद्धि को प्राप्त हुए देवता तुम लोगों को बिना मांगे ही कर्तव्य पालन के लिये  आवश्यक सामग्री देते रहेंगे  परंतु अगर तुम लोग उस कर्तव्यपालन की सामग्री से देवताओं की पुष्टि ना करके स्वंय ही सुख  आराम  भागोगे, तो तुम चोर बन जाओगे।
 इस दोष से कैसे बचा जाए भगवन्? 
केवल दूसरों के हित के लिए ही कर्तव्य कर्म करने से यज्ञ शेष के रूप में सुमता का अनुभव होता है  उस समता का अनुभव  करने वाले संपूर्ण पापों से मुक्त हो जाते हैं। परंतु जो केवल अपने सुख आराम के लिए ही सब कर्म करते हैं, वे पापी लोग तो केवल पाप ही कमाते  हैं।
 भगवन्! अभी आपने कर्तव्य कर्म के विषय में ब्रह्मा जी की आज्ञा सुनाई, कर्तव्य कर्म के विषय में आपका क्या कहना है? 
इसमें मेरा यही कहना है कि इस सृष्टि -चक्र के संचालन के लिए भी कर्तव्य कर्म करने की आवश्यकता है क्योंकि संपूर्ण प्राणी अन्न से पैदा होते हैं और अन्न वर्षा से पैदा होता है। वर्षा कर्तव्य पालन से होती है और यज्ञ निष्काम भाव से किए गए कर्मों से होता है। कर्तव्य कर्म करने की विधि वेद बताते हैं और वेद परमात्मा से प्रकट होते हैं। इसलिए परमात्मा यज्ञ में नित्य विद्यमान रहते हैं। उनकी प्राप्ति अपने कर्तव्य का पालन करने से ही होती है ।अतः इस सृष्टि चक्र की सुरक्षा के लिए अपने कर्तव्य का पालन करना मनुष्य के लिए बहुत जरूरी है।
अगर कोई इस सृष्टि चक्र की सुरक्षा के लिए अपने कर्तव्य का पालन ना करें तो?
 तो हे पार्थ! जो मनुष्य इस सृष्टि चक्र की परंपरा को सुरक्षित रखने के लिए कर्तव्य कर्म नहीं करता, वह इंद्रियों के द्वारा भोग भोगने वाला तथा पापमय जीवन बिताने वाला मनुष्य संसार में व्यर्थ ही जीता है। 
कोई आसक्ति रहित होकर केवल आपकी आज्ञा के अनुसार सृष्टि चक्र की परंपरा सुरक्षित रखने के लिए ही कर्तव्य कर्म का पालन करें तो ?
वह अपने आप में ही रमण करने वाला ,अपने आप में ही तृप्त और अपने आप में ही संतुष्ट हो जाता है, उसके लिए कुछ भी करना बाकी नहीं रहता; क्योंकि उस महापुरुष का इस संसार में ना तो कर्म करने से ही कोई मतलब रहता है  तथा उसका किसी भी प्राणी के साथ कोई भी स्वार्थ का संबंध नहीं रहता। क्या मैं भी ऐसा कर सकता हूं  भगवन?
 हां, बन सकता है। तू निरंतर आसक्ति रहित होकर अपने कर्तव्य का अच्छी तरह पालन कर ,क्योंकि आसक्ति रहित होकर कर्तव्य कर्म करने से मनुष्य को परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है।
 पहले आसक्ति रहित होकर क्या किसी ने कर्म किए हैं और क्या उनको परमात्मा की प्राप्ति हुई है?
 हां, राजा जनक जैसे अनेक महापुरुष कर्तव्य कर्म करके ही परमात्मा को प्राप्त हुए हैं ।परमात्मा को प्राप्त होने पर भी उन्होंने लोकसंग्रह( दुनिया को कुमार्ग से बचा कर सनमार्ग पर लाने के लिए कर्म किए हैं) इसलिए तू भी लोकसंग्रह को ध्यान में रखते हुए अपने कर्तव्य का पालन कर।
वह लोकसंग्रह कैसे होता है?
  दो प्रकार से होता है -अपनी कर्तव्य परायणता से और अपने वचनों से श्रेष्ठ मनुष्य जो जो आचरण करता है, दूसरे मनुष्य भी वैसा ही आचरण करते हैं। वह अपने वचनों से भी कुछ प्रमाणित करता है दूसरे मनुष्य भी उसी का अनुसरण करते हैं।
जैसे आपने परमात्मा प्राप्ति के विषय में जनक आदि का उदाहरण दिया ऐसे ही लोकसंग्रह के विषय में क्या कोई उदाहरण है?
 हां ,मेरा ही उदाहरण लो पार्थ! मेरे लिए त्रिलोकी में कुछ भी कर्तव्य बाकी नहीं है और प्राप्त करने योग्य कोई वस्तु अप्राप्त नहीं है ।फिर भी मैं लोकसंग्रह के लिए  कर्तव्यकर्म  करता हूं। आपके लिए कर्तव्य कर्म करने की क्या जरूरत है भगवन्?
 हां, बहुत जरूरत है; क्योंकि अगर मैं निरालस्य होकर कर्तव्य कर्म ना करूं तो ,मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करेंगे अथार्त वह भी कर्तव्य कर्म करना छोड़ देंगे ।इससे क्या होगा भगवन्?
 अगर मैं कर्तवय क्रम ना करूँ तो अपना- अपना कर्तव्य कर्म ना करने से ,यह सब मनुष्य नष्ट भ्रष्ट हो जाएंगे और मैं सब तरह के संकट दोषों को पैदा करने वाला तथा इस समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूंगा ।
शेष कल -जय श्री कृष्णा

सोमवार, 20 अगस्त 2018

गीता माधुर्य अध्याय 2 का शेष( श्रीमद्भागवत गीता का सरल भावार्थ)

                   गीता माधुर्य अध्याय 2 का शेष -

वह स्थिर मन बोलता कैसे हैं ?
उसको बोलना साधारण क्रिया रूप से नहीं होता है बल्कि भाव रूप से होता है ।वर्तमान में व्यवहार करते हुए दुखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होगा और सुखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में स्पर्ह  नहीं होती तथा जो राग ,द्वेष, क्रोध से रहित हो गया है। वह मनुष्य  स्थितप्रज्ञ कहलाता है ।सब जगह आसक्ति रहित हुआ ,जो मनुष्य प्रारब्धः  के अनुसार अनुकूल परिस्थिति आने पर हर्षित नहीं होता और प्रतिकूल परिस्थिति के द्वेश नहीं करता ,उसकी बुद्धि स्थिर हो गई है अथार्थ पहले उसने मुझे परमात्मा की प्राप्ति ही करनी है ।ऐसा जो निश्चय किया था वह अब सिद्ध हो गया है ।वह स्थितप्रज्ञ अवस्था कैसे हो ?
जैसे कछुआ अपने चारों पैर ,गर्दन और पूछं इन 6 अंगों को समेट  कर बैठता है ।ऐसा ही जिस समय गया कर्म योगी संपूर्ण इंद्रियों और मन को अपने अपने विषयों से समेट कर हटा लेता है, समेट लेता है। उस समय उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है।
 इंद्रियों को समेटने की वास्तविक पहचान क्या है?
 इंद्रियों को अपने विषयों से हटाने वाले देहाभिमानी मनुष्य के भी विषय तो निवृत्त हो जाते हैं पर रस बुद्धि -सुख, भोग ,बुद्धि निवर्त  नहीं होती। परंतु परमात्मा की प्राप्ति होने से इस मनुष्य के रस ,बुद्धि, विवेक निवर्त हो जाती है।
 रसबुद्धि रहने से क्या हानि होती है ?
हे कुन्ती नंदन !रस बुद्धि रहेने से साधनपरायण विवेकी  मनुष्य की इंद्रियां उसके मन को जबरदस्ती विषयों की तरफ खींच ले जाती हैं।
इस रस बुद्धि को दूर करने के लिए क्या करना चाहिए ?
कर्मयोगी साधक ईन्द्रियों को वश में कर के मेरे  परायण बैठ जाए ,इह तरह जिसकी ईन्द्री बस में है उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित है।
 आपके परायण न होने से  क्या होगा ?
मेरे परायण ना होने से भोगों का चिंतन होगा।
 भोगो के चिंतन से क्या होगा?
 मनुष्य की उस विषय में आसक्ति हो जाएगी ।
आसक्ति होने से क्या होगा ?
उन भोगों को प्राप्त करने की कामना पैदा होगी?
 कामना  पैदा होने से क्या होगा?
 कामना की पुर्ति न होने  पर क्रोध आ जाएगा ।
क्रोध आने से क्या होगा ?
सन्मोह हो जाएगा, अच्छा जाएगा,मूढ़ता आ जायेगी ।
 मूढ़ता आने से क्या होगा?
मै साधक हीं, मुखे एसा व्यवहार कलना चाहिये ।  मुझे याद करना चाहिए ,ऐसा बोलना चाहिए ,जो पहले विवेक किया था उसकी स्मर्ति नष्ट हो जाएगी ।
स्मर्ति नष्ट होने पर क्या होगा?
 नया विचार करने की शक्ति ,बुद्धि नष्ट हो जाएगी ।इस समय मुझे क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए ।क्या होगा मनुष्य का पतन हो जाएगा ।
दुखों का नाश हो जाता है और उसकू एक निश्चय वाली बुद्धि नहीं होती एक निश्चयबुद्धि ना होने से उसकी मुझे अपने कर्तव्य का पालन करना है ऐसी भावना ऐसा विचार नहीं होता ऐसी भावना ना होने से होने से उस को शांति नहीं मिलती।
जिस मनुष्य की सभी कामनाएं , अहंकार ममता रहितं  होकर विचरता है ,उस को शांति प्राप्त हो जाती है। उसकी स्थिति बह्न  में होती है ।इसको प्राप्त होने पर मनुष्य कभी मोहित नहीं होता ,यदि मनुष्य इस ब्राह्मणी स्थिति  में अंत काल में भी स्थित हो जाए अथार्त अंतकाल में भी ममता रहित हो जाए तो वह शांति ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है।
दूसरा अध्याय समाप्त

मनुष्य जीवन के कुछ दोष

                         मनुष्य जीवन के कुछ दोष
( नित्यलीलालीन  श्रद्धेय भाई जी श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार
जी)


कुसंगति, कुकर्म ,बुरे वातावरण, खानपान के दोष ,आदि अनेक कारणों से मनुष्य में कई प्रकार के दोष आ जाते हैं ।जो देखने में छोटे मालूम होते हैं, बल्कि आदत पड़ जाने से मनुष्य उन्हें दोषी नहीं मानता, पर वह ऐसे होते हैं, जो जीवन को अशांत, दुखी बनाने के साथ ही उन्नति के मार्ग को भी रोक देते हैं ,और उसे अधः पतन की ओर ले जाते हैं। ऐसे दोषोें में से कुछ पर यहां विचार किया जा रहा है-
१-  मुझे तो बस अपने को देखना  है - इस विचार वाले मनुष्य का स्वार्थ छोटी सी सीमा में आकर गंदा हो जाता है, किस काम में मुझे लाभ है ,मुझे सुविधा है, मेरी संपत्ति कैसे ब़ढे, मेरा नाम सबसे ऊंचा कैसे हो, सब लोग मुझे ही नेता मान कर मेरा अनुसरण करें ,इसी प्रकार के विचारों और कार्यों में वह लगा रहता है ।मैंरे किस कार्य से किस की क्या हानि होगी ,किस को क्या असुविधा होगी ,किस का कितना मान भंग होगा ,किसके हृदय पर कितनी ठेस पहुंचेगी  विचार करने की इच्छा हृदय में नहीं होती ।वह छोटी सी सीमा में अपने को बांधकर केवल अपनी और ही देखा करता है। जिसके कारण उसके द्वारा अपमानित  क्षतिग्रस्त, असुविधा प्राप्त लोगों की संख्या बढ़ने लगती है। और उसकी उन्नति में बाधा पहुंचनी शुकी हो जाती है।

२. भगवान और परलोक किसने देखे हैं?- भगवान और परलोक पर विश्वास न करने वाला मनुष्य, यह कहा करता है। ऐसा मनुष्य स्वेच्छाचारी होता है, और किसी भी पाप कर्म में प्रवृत्त हो जाता है़। अमुक बुरे कर्म का फल मुझे परलोक में ,दूसरे जन्म में भोगना पड़ेगा या अंतर्यामी सर्वव्यापी भगवान सब कर्मों को देखते हैं ,उनके सामने में क्या उत्तर दूंगा। इस प्रकार के विश्वास वाला मनुष्य सबके सामने तो क्या छिपकर भी कभी पाप नहीं कर सकता और जिसका ऐसा विश्वास नहीं है ,वह केवल कानून से बचने का ही प्रयत्न्न करता है  उसे ना तो बुरे कर्म से अथार्त  पाप से घृणा है, ना उसे किसी पारलौकिक दंड का भय है। ऐसे मनुष्य को इस लोक में दुख प्राप्त होता है। और भजन ध्यान की उसमे कोई संभावना ही नहीं रहती ।अतः मनुष्य जीवन के परम लक्ष्य भगवत्प्राप्ति से भी वंचित ही रहता है।

३. मेरा कोई क्या कर लेगा?- संसार में सभी मनुष्य सम्मान चाहते हैं। जो मनुष्य ऐठ में रहता है ।दूसरों को सम्मान नही देता, कहता है मुझे किसी से क्या लेना है। मैं किसी की क्यों परवाह करूं ।मेरा कोई क्या कर लेगा ।वह इस अभिमान के कारण ही ,अकारण लोगों को अपना दुश्मन बना लेता है। दूसरों की तो बात ही क्या, उसके घर के और बंधु-बांधव भी उसके पराए हो जाते हैं। वह अभिमान वश किसी की भू परवाह नहीं करता ।किसी से सुख-दुख में हिस्सा नहीं बांटता और उनमें अपने को पुजवाना चाहता है। फलस्वरुप सभी उससे घृणा करने लगते हैं ,और उसके विद्रोही बन जाते हैं ।वह इसे अपना आत्मसम्मान या गौरव मानता है, और यह उसकी मूर्खता है। इस प्रकार अभिमानवश वह सबसे अकेला होकर असहाय बन जाता है ,और उसकी उन्नति रुक जाती हैं ।उसके स्वभाव के कारण वह अकेला पड़ जाता है और धीरे-धीरे मेरा कोई नहीं है, सभी मुझसे घृणा करते हैं, इत्यादि अपने में हीनता की भावना करते-करते मनुष्य को ऐसा दिखने लगता है कि उससे सभी घृणा कर रहे हैं। परिणाम स्वरुप उसके अंदर उदासी ,निराशा, क्रोध, मस्तिष्क विकृति आदि दोष उन लोगों के नित्य संगी बन जाते हैं।
४. संसार में कोई अच्छा है ही नहीं- दोष देखते देखते मनुष्य की इस प्रकार आंखें बन जाती है कि बिना दोष के होते हुए भी उसको लोगों में दोष ही दिखाई देता है। वैसे ही जैसे हरा चश्मा लगा लेने पर सब चीजें हरी दिखाई देती है ।ऐसे फिर कोई अच्छा दिखता ही नहीं। महापुरुष और भगवान में भी उसे दोष ही दिखते हैं। उसका निश्चित हो जाता है कि जगत में कोई भला है ही नहीं । मैं शरीफ बना नहीं रह सकता ।दिन रात दोष- दर्शन और दोष -चिंतन करते करते वह बाहर और भीतर से दोषों  का भंडार बन जाता है।
५. लोग मुझे अच्छा समझे- इस  भावना वाले मनुष्य में घमंड की प्रधानता होती है ।वह अच्छा बनना नहीं चाहता ।अपने को अच्छा दिखाना चाहता है ।इस तरीके से जगत को ठगने के कारण वह खुद ही ठगा जाता है ।उसके जीवन से सच्चाई चली जाती है। लोग जिस प्रकार की वेष एंव भाषा से प्रसन्न होते हैं वह इसी प्रकार का वेश धारण करके वैसे ही भाषा बोलने लगता है। उसके मन में ना खादी से प्रेम है ,ना गेरुआ से और ना नाम जप से; पर अच्छा कहलाने के लिए वह खादी पहन  लेता है  गेरुआ धारण कर लेता है, माला भी जपने लगता है। ऐसा करता है दूसरों के  सामने ही ,जहां उनसे बडाई ही मिलती है  और यदि उसके विरोध करने पर लोग भला समझेंगे तो, वह उन्हीं का विरोध भी करने लगता है ।इसका प्रत्येक  कार्य दम्भ और छल कपट से भरा होता है।

५. मैं ना करूं, तो सब चौपट हो जाएगा- यह भी मनुष्य के अभिमान का ही एक रूप है ,वह समझता है कि बस अमुक कार्य तो मेरे द्वारा  ही होता है ,मैं छोड़ दूंगा तो नष्ट हो जाएगा। मेरे मरने के बाद तो चलेगा ही नहीं। ऐसा विचार  दूसरों के प्रति हीनता  प्रकट करते हैं। उनके मन में द्रोह  उत्पन्न करने वाले होते हैं। संसार में एक से बढ़कर एक प्रतिभाशाली पुरुष पैदा हुए हैं, होते हैं ,तुम अपने को बड़ा मानते हो, पर कौन जानता है कि तुम से कहीं अधिक प्रभाव तथा गुण संपन्न संसार में कितने हैं। जिनके सामने तुम कुछ भी नहीं हो। किसी पूर्व जन्म के पुण्य से अथवा भगवत कृपा से किसी कार्य में को सफलता मिल जाती है। तो मनुष्य समझ बैठता है कि सफलता मेरे ही पुरुषार्थ से मिली है ।मेरे ही द्वारा इसकी रक्षा होगी ,मैं जिंदा न रहूंगा तो पता नहीं क्या अनर्थ हो जाएगा। एसा  समझ कर अभिमान से नाच उठता है ।और जहां मनुष्य ने अभिमान के नशे में नाचना आरंभ किया कि चक्कर खाकर गिर गया ।

६. अपने को तो आराम से रहना -है यह इंद्रियां, रामविलासी पुरुषों का उद्गार है ।पैसा पास में चाहे ना हो  ,चाहे आय कम हो, चाहे कर्ज का बोझ सिर पर सवार हो  पर रहना है आराम से ।आज कल चलन है- उच्चस्तर का जीवन (हाई स्टैंडर्ड ऑफ लिविंग) इसका अर्थ है -स्वाद शौकीनी,  विलासिता ,फिजूलखर्ची और झूठी शान की गुलामी। सादा धोती कुर्ता पहना है तो निम्न स्तर है, कोट पतलून उच्चस्तर है। जूते उतार कर,  हाथ पैर धोकर, फर्श पर बैठकर ,हाथ से खाइए तो निम्नस्तर है ।टेबल पर कपड़ा बिछाकर ,बिना हाथ धोए, जूते पहन कुर्सी पर बैठ कर, सब की जूठन खाना उत्सव है। अपनी हैसियत के अनुसार साधारण साग सब्जी के साथ दाल रोटी खाना निम्नस्तर है, और किसी प्रकार से प्राप्त करके अंडे खाना, शराब पीना ,नॉनवेज खाना ,उच्च है ।घर में कथा कीर्तन करना निम्न स्तर है ।और सिनेमा देखना, होटलों में जाना उच्च हैं। सीधे-साधे व्यापार ,व्यवहार में थोड़ी जीविका उपार्जन करना निम्न है ,और अपनी चमक-दमक तथा छल भरे व्यवहार से दूसरों को ठगकर अधिक पैसा कमाना उच्च है। थोड़े खर्च से घर का ब्याह शादी का काम चलाना है निम्न। और बहुत अधिक खर्च करके आडंबर करना चाहे कर्जो मे घिर जाओ,अपने जीवन भर की जमा -पूंजी खत्म करना हा उच्च स्तर । हमारे यहां उच्च स्तर के जीवन का अर्थ होता है- सादगी ,सदाचार ,त्याग ,पवित्र आचरण, आदर्श चरित्र, साधुवाद और भगवत भक्ति ।इसके स्थान पर आज झूठ, कपट ,छल, विलासिता ,दुराचार ,अनाचार और भोगमय जीवन को उच्चस्तर का जीवन माना जाता है। तो मनुष्य की सच्ची उन्नति कैसे हो सकती है।
इसी प्रकार और भी बहुत से दोष। हैं जो आदत या स्वभाव बने हुए हैं इन सब दोषो से सावधान होकर ,इनका तुरंत त्याग कर देना चाहिए। लौकिक उन्नति चाहने वाले और मोक्ष की इच्छा वाले दोनों के लिए दोष घातक हैं।

एक मुखी रुद्राक्ष की महिमा और उसके पहनने से लाभ

                             एक मुखी रुद्राक्ष

श्री महादेव जी ,नारद जी से कहते हैं हे मुनिश्रेष्ठ जिस मनुष्य के घर में एक मुखी रुद्राक्ष रहता है ,उसके घर में भलीभांति स्थिर होकर लक्ष्मी जी निवास करती हैं । जो मनुष्य कंठ में अथवा भुजा में एक मुखी रुद्राक्ष को धारण करता है ,उसके दुर्भाग्य का उदय नहीं होता और ना तो उसकी अकाल मृत्यु होती है। अत्यंत कठिनता से प्राप्त होने वाले भगवान शिव उस पर प्रसन्न हो जाते हैं।  मनुष्य जो भी श्रेष्ठ धर्म तथा कर्म करता है ,वह महान फलदायक होता है ।(महा भागवत पुराण)
रुद्राक्ष का वृक्ष एक सदाबहार वनस्पति है, जिसकी ऊंचाई 50 से 60 फीट तक होती है। रुद्राक्ष के वृक्ष के पत्ते लंबे होते हैं। यह एक कठोर तने वाला वृक्ष होता है। रुद्राक्ष के वृक्ष का फूल सफेद रंग का होता है और इसमें लगने वाला फल शुरू में हरा, पकने पर नीला एवं सूखने पर काला हो जाता है। रुद्राक्ष इसी काले फल की गुठली होता है। इसमें दरार के सदृश दिखने वाली धारियां होती हैं, जिन्हें प्रचलित भाषा में 'रुद्राक्ष का मुख' कहा जाता है। ये धारियां 1 से लेकर 14 तक की संख्या में हो सकती हैं।
आइए जानते हैं कि किस ग्रह की शांति के लिए कौन सा रुद्राक्ष धारण लाभदायक रहता है?
1. सूर्य- एकमुखी
2. चन्द्र- दोमुखी
3. मंगल- तीनमुखी
4. बुध- चारमुखी
5. गुरु- पांचमुखी
6. शुक्र- छहमुखी
7. शनि- सातमुखी
8. राहु- आठमुखी
9. केतु- नौमुखी
रुद्राक्ष धारण करने के लिए श्रावण मास सर्वाधिक उत्तम रहता है। आप श्रावण मास के सोमवार के दिन अपने लिए उपयुक्त रुद्राक्ष धारण कर सकते हैं। सर्वप्रथम भगवान भोलेनाथ की यथाशक्ति पूजा-अर्चना करें तत्पश्चात रुद्राक्ष को शिवलिंग पर अर्पण करें। इसके उपरांत रुद्राक्ष को धारण करें।

शुक्रवार, 17 अगस्त 2018

हमारा कर्त्वय

                                   कर्तव्य


 अपने कर्तव्य का सावधानी से पालन करना चाहिए। अच्छे विचार रखने चाहिए। मन ,वाणी ,शरीर  को सत्संग में लगाना चाहिए। बुरे विचार ,कुसंग से हमेशा बचना चाहिए ।हम सभी के अंदर सत्य, सच बोलना ,दया, दूसरों को क्षमा करना,आदि का पालन करने से मन ,बुद्धि और शरीर का विकास होता है ।हमेशा बड़ों को प्रणाम और उनकी सेवा से आयु, विद्या ,यश की प्राप्ति होती है। मन में शुद्ध विचारों को रखकर जीवन का प्रथम भाग विद्या के अध्यन मे  बिताना चाहिए। विद्या के पढ़ने के साथ विवेक को उत्पन्न करना चाहिए। क्या उचित है, या अनुचित है ।इसे बुद्धि के द्वारा निर्णय करके ही करम करना चाहिए ।बिना विचारे ,जल्दबाजी में किसी भी काम को करने से बाद  ,में पछताना पड़ता है। इसलिए बिना विचारे कोई भी कार्य नहीं करना चाहिए। बड़ों से शिक्षा अध्ययन करना चाहिए ,छोटों को शिक्षा देना चाहिए ।अध्ययन करते समय भी अध्यापन करना चाहिए। ईश्वर ने आपको जिस रूप में भी इस धरती पर भेजा है। चाहे वह महिला ,पुरुष ,मां ,बेटा ,बहन  ,भाई,पिता ,पुत्र, पुत्री जो भी हमें रिश्ते निभाने के लिए भेजा है हमें उस रिश्ते को न्याय पूर्वक सच्चाई के साथ अपने कर्तव्य का पालन करते हुए निभाना चाहिए। क्योंकि हर रिश्ते का अपना अपना कर्तव्य होता है। जिससे हम भली भांति परिचित होते हैं ।उसका हमें इमानदारी से पालन करना चाहिए।
।। जय श्री राधे ,श्री सीताराम।।

भगवान् का भक्त कोन है?

                       भगवान् का भक्त कौन है?

भगवान् की भक्ति का आरम्भ अपरे घर से ही होता है। घर के बड़े बूढ़े, माता-पिता में श्रद्धा रखना, उनकी सेवा करना, घर के ,परिवार के लोगों से जो निष्काम प्रेम करेगा ।वह भगवान की भक्ति कर सकेगा। संबंधित लोगों से ईर्ष्या, द्वेष रखने वाले भगवान के भक्त नहीं हो सकते। अतः सृष्टि को भगवान की मान करके ,उसे प्रेम करना चाहिए। माया से भरी  हुई   तामसी सृष्टि से दूर रहना चाहिए। जो प्रसन्न रहता है और दूसरों को प्रसन्न करता है। वही भगवान का भक्त है  जिसके व्यवहार से लोगों के मन में अशांति और दुख हो वह भगवान का भक्त नहीं हो सकता। जिससे सभी सुखी रहते हैं वह भगवान का सच्चा भक्त  है। जिससे लोग दुखी रहते हैं, वह  भगवान का भक्त नहीं हो सकता।
दादा गुरु भक्तमाली जी महाराज( वृंदावन )के श्रीमुख से 

गुरुवार, 16 अगस्त 2018

भजन करने से ही राम जी की कृपा प्राप्त होती है।

             
          भजन करने से ही प्रभु कृपा प्राप्त होती है।
मन कर्म वचन छाँडि चतुराई। भजन कृपा करिहै रघुराई।।

मन ,वाणी और कर्म से कपट का त्याग करके जो भजन करते हैं ,उन पर अवश्य ही श्री राम जी की कृपा होती है। अलौकिक कामनाएं ,जिनका प्रभु भजन से कोई संबंध नहीं है  केवल संसारी लोगों से ही संबंध है। ऐसी कामनाओं से भजन करना, कपट पूर्ण भजन है। निष्काम भाव से  जिनसे भजन में सहायता मिलती है। जिनसे परोपकार होता है। ऐसी कामनाएं रखकर भजन करना  चतुराई को छोड़कर भजन करना है। खाने ,पीने ,रहने की सुविधा,लौकिक प्रतिष्ठा की प्राप्ति , ईश्वर की कृपा का उत्तम फल नहीं है। बुद्धि की पवित्रता, नाम- रूप लीला -धाम का आश्रय, सत्संग में, भक्त भावनाओं में, प्रेम की प्राप्ति भगवान की कृपा को उत्तम फल है। शरीर, परिवार, संपत्ति जो कुछ भी प्रभु ने दिया है, उसमें संतुष्ट रहना, नौकरी खेती ,व्यापार आदि को ईश्वर की प्रसन्नता के लिए करना ।भगवान का भजन है। भगवान का भजन करने में आलस्य का त्याग करना चाहिए ,भगवान की कृपा सब पर रहे  परस्पर सद्भावना हो,
 जय श्री सीताराम (प दादा गुरु जी महाराज वृंदावन

हमें क्रोध क्यों नहीं करना चाहिए?

                हमें क्रोध क्यों नहीं करना चाहिए?


प्रभु कृपा से बुद्धि शुद्ध और सात्विक रहे ।परस्पर प्रेम बनाए रखें। किसी से कोई भूल हो तो उसे क्षमा करें , उसे समझा दे, क्रोध ना करें, जिसके ऊपर क्रोध किया जाता है ,उसकी हानि नहीं होती है ।जो क्रोध करता है ,उसी का रक्त जलता है ।क्रोध करने से बुद्धि का नाश होता है। विकास की गति मंद हो जाती है ।क्रोध से हिंसा के और बदला लेने के भावों का उदय होता है। उसे बार-बार जन्म मरण होता है ।जन्म लेना है ,सत्संग भजन के लिए। बदला चुकाने के लिए नहीं, इसलिए क्रोध से बचना चाहिए ।कभी क्रोध आ जाए ,तो मौन हो जाना चाहिए और जब आप शांत हो जाएं  तो विचार जरूर करना चाहिए। जय श्री राधे( दादा गुरु भक्तमाली जी के श्रीमुख से)

हमें कष्ट क्यों होता है?

                         हमें कष्ट क्यों होता है?




 जब हम हर समय ईश्वर के ध्यान में उनकी लीलाओं में और मंत्र जाप में अपने आप को व्यस्त रखते हैं, तो हम महसूस करते हैं कि दुख हो कर भी हम दुखी नहीं होते, क्योंकि प्रभु स्मरण ही हमें कष्ट का अनुभव नहीं होने देता। जब हम अपने ईश्वर को भूलकर संसार में व्यस्त हो जाते हैं, तो हमें छोटे से छोटे कष्ट का भी अनुभव होने लगता है।
दयामय प्रभु की कृपा सभी पर सदा बरसती रहती है। अन्यथा जीव सुख की सांस नहीं ले सकता है। तीर्थ मे सभी कामनाएं पूर्ण होती हैं। प्रभु एक ना एक कष्ट ,चिंता इसलिए देते हैं कि प्राणी हमारा स्मरण करें,हमें याद करें ।भक्तों का जीवन चरित्र प्रेरणादायक रहता है। हर भक्त ने भगवान का चिंतन और विश्वास करके भगवान को पाया है ,और सद्बुद्धि प्राप्त की है ।सद्बुद्धि बनी रहे ,इस बात की ही  तो आवश्यकता है। इससे प्राणियों के प्रति प्रेम बना रहता है ।अपनी वर्णाश्रम के कर्तव्य को यदि सच्चाई के साथ पालन किया जाए  ,तो इसी से प्रभु संतुष्ट हो जाते हैं। मन की प्रसन्नता  ,प्रभु की कृपा का अनुभव कराती है।(कल्याण)

गीता माधुर्य अध्याय २का शेष(श्री मद्भागवत गीता का सरल रूप)

                    गीता माधुर्य अध्याय २का शेष

क्या मैं यह सह नही सकता भगवन्?
नही, तू सह नही सकता,क्योंकि तेरे शत्रुओं को वैरभाव निकालने का मौका मिल जायेगा। वेे तेरी सामर्थ की निन्दा करते हुये तुझे बहुत सी न कहने वाली बातें कहेंगे। उससे बढ़कर दुख और क्या होगा?॥३६॥
और अगर मैं युद्ध करूं तो? 
युद्ध करते हुए अगर तू मारा जायगा तो तुझे स्वर्ग मिल जायेगा और अगर तू युद्ध जीत गया तो तुझे पृथ्वी का राज्य मिल जायेगा। अतः हे कुन्ती नन्दन! तू युद्ध का निश्चय करके खड़ा हो जा॥३७॥
क्या युद्ध से मुझे पाप नही लगेगा भगवन् ?
नहीं, पाप तो स्वार्थ बुद्धि से ही होता है, अतः तू जय-पराजय, लाभ-हानि, सुख - दुख में समबुद्धि रखकर युद्ध कर। इस प्रकार युद्ध करने से तुझे पाप नही लगेगा॥३८॥
जिस समबुद्धि से कर्म करते जरा भी पाप नही लगता, उसकी और क्या विशेषता है भगवन्? 
इस समबुद्धि की बात मैंने पहलें सांख्ययोग मेंं कह दी है अब तू इसको कर्म योग के विषय में सुन-
१.  इस सम बुद्धि से युक्त हुआ तू  संपूर्ण  कर्मों के  बंधन से  छूट जाएगा ।
२.  इस सनबुद्धि के  आरंभ मात्र का भी नाश नहीं होता।
३.  इसके अनुष्ठान का कभी उल्टा फल नहीं होता।
४.  इसका थोड़ा सा भी अनुष्ठान जन्म मरण रूप महान भव से रक्षा कर लेता है ।।३९-४०।।
जिस समबुद्धि की आपने इतनी महिमा गाई है उसको प्राप्त करने का उपाय क्या है?
इस समबुद्धि की प्राप्ति के विषय में व्यवसायात्मिका( एक परमात्मा प्राप्ति की निश्चय वाली) बुद्धि एक ही होती है। परंतु जिनका परमात्मा प्राप्ति का एक निश्चय नहीं है ,ऐसे मनुष्य की बुद्धियाँ अनंत और बहू शाखाओं वाली होती है।
उनका परमात्मा प्राप्ति का एक निश्चित क्यों नहीं होता?
जो कामनाओं में तन्मय हो रहे हैं ,स्वर्ग को ही श्रेष्ठ मानने वाले हैं ,वेदों में कहे हुए तमाम कर्मों में ही प्रीति रखने वाले हैं, तथा भोगों के सिवाय और कुछ है ही नहीं -ऐसा कहने वाले हैं, वह बेसमझ मनुष्य इस दिखाऊ शोभायुक्त वाणी को कहा करते हैं जो कि जन्म रूप कर्मफल को देने वाली है तथा वह भोग और ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए भी बहुत ही क्रियाओं का वर्णन करने वाली है ।भोगों का वर्णन करने वाली पुष्पित वाणी से जिनका चित्त हर लिया गया है तथा भोगों की तरफ खींच गया है और जो भोग तथा ऐश्वर्या में अत्यंत आसक्त है, उन मनुष्य की परमात्मा में एक निश्चय वाली बुद्धि नहीं हो सकती।

भोग और ऐश्वर्या की आसक्ति से बचने के लिए मुझे क्या करना चाहिए भगवन?
वेद तीनों गुणों के कार्य (संसार) का वर्णन करने वाला है, इसलिए हे अर्जुन! तू वेदों में कहे हुए सकाम कर्मों से रहित हो जा ,राग द्वेष आदि द्वदों से रहित हो जा और नित्य निरंतर रहने वाले परमात्मा तत्व में स्थित हो जा ।तू अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति की और प्राप्त वस्तु की रक्षा की भी चिंता मत कर और केवल परमात्मा के परायण हो जा अर्थात एक परमात्मा प्राप्ति का ही लक्ष्य रख।।४५।।
ऐसा एक निश्चय कोई कर ले तो उसका क्या परिणाम होता है?
जैसे बहुत बड़े सरोवर के प्राप्त होने पर छोटे  सरोवर का कोई महत्व नहीं रहता ,कोई जरूरत नहीं रहती ।ऐसे ही वेदों और शास्त्रों के तात्पर्य को जानने वाले तत्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुष की दृष्टि में संपूर्ण वेदों का उतना ही तात्पर्य है अथार्त उनके मन में संसार का, भोगों का कोई महत्व नहीं रहता।
मेरे लिए ऐसी स्थिति को प्राप्त करने का कोई उपाय है?
हां ,कर्म योग है ।तेरा कर्तव्य कर्म करने में ही अधिकार है ,फल में कभी नहीं अथार्त तू फल की इच्छा ना रखकर अपने कर्तव्य का पालन कर। तू कर्म फल का हेतु भी मत बन अथार्त जिनसे कर्म किया जाता है, उन शरीर, इंद्रियां ,मन, बुद्धि आदि में भी ममता  ना रख।
तो फिर मैं कर्म करूं ही क्यों ?
कर्म ना करने में भी तेरी आसक्ति नहीं होनी चाहिए।
 तो फिर कर्म करूं कैसे ?
सिद्धि- असिद्धि में सम होना योग कहलाता है, इसलिए हे धनंजय !तू  आसक्ति  का त्याग करके योग में स्थित होकर कर्म कर ।
अगर योग में स्थित होकर कर्मका कर्म ना करूं तो?
 इस समता के बिना सकाम कर्म अत्यंत ही निकृष्ट है ।अतः हे धनंजय !तू सम बुद्धि का ही अाश्रय ले क्योंकि कर्म फल की इच्छा करने वाली कृपण है अर्थात कर्म फल के गुलाम है ।
कर्म फल की इच्छा वाले कृपण है तो फिर श्रेष्ठ कौन है ?समबुद्धि संयुक्त मनुष्य श्रेष्ठ है सम बुद्धि से युक्त मनुष्य इस जीवित अवस्था में ही पाप पुण्य से रहित हो जाता है। इसलिए तू समता में ही स्थित हो जा, क्योंकि कर्मों में समता ही कुशलता है ।
समबद्धि का क्या परिणाम होगा भगवन?
 समता से युक्त मनुष्य कर्म जन्य फल का त्याग करके और जन्म रूप बंधन से रहित होकर निर्विकार पद को प्राप्त हो जाते हैं ।
यह मैं कब समझूँ कि मैंने कर्म जन्य फल का त्याग कर दिया? 
जब तेरी बुद्धि   मोह रूपी दलदल  को तर जाएगी तब तुझे सुने हुए और  सुनने में आने वाले  भोगों से वैराग्य हो जाएगा ।वैराग्य होने पर फिर क्षमता की प्राप्ति कब होगी?
 शास्त्रों के अनेक सिद्धांतों से, मतभेदों से विचलित हुए तेरी बुद्धि जब संसार में सर्वथा विमुख होकर परमात्मा में अचल हो जाएगी तब तुझे योग शब्द रूप समता की प्राप्ति हो जाएगी। अर्जुन बोले- क्षमता की प्राप्ति हुए बुद्धि वाले मनुष्य के क्या लक्षण होते हैं ?
भगवान बोले- हे पार्थ ! जब साधक मन में रहने वाले संपूर्ण कामनाओं का त्याग कर देता है  और अपने आप से अपने आप में ही संतुष्ट रहता है ।तब वह स्थितप्रज्ञ सिद्धि वाला कहलाता है।

सोमवार, 13 अगस्त 2018

गीता माधुर्य अध्याय 2


                          गीता माधुर्य  अध्याय 2


रथ के मध्य भाग में बैठे बैठ जाने पर अर्जुन की क्या दशा हुई संजय? 
 संजय बोले- हे राजन्! जो बड़े उत्साह से युद्ध करने आए थे, पर कायरता के कारण जो विषाद कर रहे हैं और जिनके नेत्रों में इतने आंसू भर आए हैं कि देखना भी मुश्किल हो रहा है, ऐसे अर्जुन से भगवान मधुसूदन बोले कि हे अर्जुन! इस बेमौके पर  तुझ में यह कायरता कहां से आ गई? यह कायरता ना तो श्रेष्ठ पुरुषों के द्वारा धारण करने लायक है, ना स्वर्ग देने वाली है,और ना कीर्ति देने वाली है। इसलिए हे पार्थ! तू इस कायरता को अपने में मत आने दे; क्योंकि तेरे जैसे पुरुष में इसका आना उचित नहीं है। अतः है परंतप! हृदय की इस तुच्छ दुर्बलता को छोड़कर तू युद्ध के लिए खड़ा हो जा॥१-३॥
ऐसा सुनकर अर्जुन क्या बोले संजय ?
अर्जुन बोले- महाराज! मैं मरने से थोड़े ही डरता हूं, मैं तो मारने से डरता हूं। हे हरीसूदन! यह भीष्म और द्रोण तो पूजा करने योग्य हैं। इसलिए हे मधुसूदन! ऐसे पूज्य जनों को तो कटु शब्द भी नहीं कहना चाहिए। फिर उनके साथ मैं बाणों से युद्ध कैसे करूं? ॥४॥
अरे भैया! केवल कर्तव्यपालन के सामने और कुछ भी देखा जाता है क्या?
 महाराज!  महानुभाव गुरुजनों को ना मार कर मैं इस मनुष्य लोक में भिक्षा के अन्न से जीवन निर्वाह करना भी श्रेष्ठ समझता हूँ। अगर आपके कहे अनुसार मैं  युद्ध भी करूं तो गुरुजनों को मारकर उनके खून से लथपथ तथा धन की कामना की मुख्यता वाले भोगों को ही भोगूँगा! इस से मुझे शांति थोड़े ही मिलेगी॥५॥
फिर तुम क्या करना चाहते हो ?
हे भगवान्! हम लोग यह नहीं समझ पा रहे युद्ध करना ठीक है या युद्ध ना करना ठीक है तथा युद्ध में हम उनको जीतेंगे या वह हमको जीतेंगे। सबसे बड़ी बात तो यह है भगवन्! कि हम जिन को मार कर जीना भी नहीं चाहते, वही धृतराष्ट्र के संबंधी हमारे सामने खड़े हैं। फिर इनको हम कैसे मारे?॥६॥
जब तुम निर्णय नहीं ले सकते हो तो फिर तुमने क्या उपाय सोचा?
 हे महाराज! कायरता के दोष से मेरा क्षात्र स्वभाव दब गया है और धर्म का निर्णय करने में मेरी बुद्धि काम नहीं कर रही है।  इसलिए जिससे मेरा निश्चित कल्याण हो, वह बात मेरे लिए कहिए। मैं आपका शिष्य हूं और आप की शरण में हूं। आप मुझे शिक्षा दीजिए।
परंतु महाराज आपने पहले जैसे युद्ध करने के लिए कह दिया था वैसा फिर ना करें क्योंकि युद्ध के परिणाम में मुझे यहां का धन धान्य से संपन्न और निष्कंटक राज्य मिल जाए अथवा देवताओं का अधिपत्य मिल जाए तो भी मेरा यह इंद्रियों को सुखाने वाला शोक दूर हो जाए,ऐसा मैं नहीं देखता॥७-८॥
फिर क्या हुआ संजय?
 संजय बोलें - हे राजन्! निंद्रा विजय अर्जुन, अंतर्यामी भगवान श्री कृष्ण से " मैं युद्ध नहीं करूंगा " - ऐसा साफ-साफ कह कर चुप हो गए॥९॥
 अर्जुन के चुप होने पर भगवान ने क्या कहा?
अंतर्यामी भगवान श्री कृष्ण दोनों सेनाओं के मध्य भाग में विषाद करते हुए अर्जुन से मुस्कुराते हुए कहने लगे-तू शोक ना करने लायक का शोक करता है, और पंडिताई की सी बड़ी - बड़ी बातें करता है; परंतु जो मर गए हैं उनके लिए और जो जीते हैं उनके लिए भी पंडित लोग शौक नहीं करते॥१०-११
शोक क्यों नहीं करते भगवन्?
मैं,तू और यह राजा लोग पहले नहीं थे - यह बात भी नहीं है और हम सब आगे नहीं रहेंगे, यह बात भी नहीं है अर्थात हम सब पहले भी थे और आगे भी रहेंगे- ऐसा जानकर पंडित शौक नहीं करते॥१२॥
 इस बात को कैसे समझा जाए ?
अरे भैया! देह धारी शरीर में जैसे कुमार, युवा, और वृद्धा अवस्था होती है, ऐसे ही देहधारी को दूसरे शरीर की प्राप्ति भी होती है। इस विषय में पंडित लोग मोहित नहीं होते ॥१३॥कुमार आदि अवस्थाएं शरीर की होती है ,यह तो ठीक है ,पर अनुकूल- प्रतिकूल ,सुखदाई -दुखदाई ,पदार्थ सामने आ जाएँ, तब क्या करे?
 हे कुन्तीनन्दन!  इन्द्रियों के जितने विषय हैं, वह सभी अनुकूलता और प्रतिकूलता के द्वारा सुख और दुख देने वाले हैं। परंतु वे आने-जाने वाले और अनित्य ही हैं। इसलिए उनको तुम सहन करो,उनमें तू निर्विकार रहो ॥१४॥
उनको सहने से, उनमे निर्विकार रहने से क्या लाभ होता है?
पुरुषों में श्रेष्ठ अर्जुन! सुख-दुख में समान रहने वाले जिस धीर पुरुष को यह इंद्रियों के विषय सुखी दुखी नहीं करते, वे स्वयं परमात्मा की प्राप्ति का अनुभव कर लेता है॥१५॥
 वह अमरता का अनुभव कैसे कर लेता है? 
सत्(चेतन त्तव) - की सत्ता का कभी अभाव नहीं होता और असत् यानी कि जड़ पदार्थों की सत्ता ही नहीं है। इन दोनों के तत्व को ज्ञानी महापुरुष जान लेते हैं, इसलिए भी अमर हो जाते हैं॥१६॥
वह सत् (अविनाशी) क्या है भगवन्? 
जिससे यह संपूर्ण संसार व्याप्त है, उसको तुम अविनाशी समझो । इस अविनाशी का विनाश कोई भी नहीं कर सकता॥१७॥
 असत्(विनाशी) क्या है भगवन्? 
इस अविनाशी, अप्रमेय, में और नित्य रहने वाली शरीरी के सब शरीर अंत वाले हैं, विनाशी हैं। इसलिए हे अर्जुन! तुम अपने युद्धरूप कर्तव्य कर्म का पालन करो॥१८॥
 युद्ध में तो मरना- मारना ही होता है; इसलिए अगर शरीर को मरने -मारने वाला माने, तो?
 जो इस अविनाशी शरीरी को शरीरों की तरह मरने वाला मानता है और जो इस को मारने वाला मानता है। वे दोनों ही ठीक नहीं जानते; क्योंकि यह ना किसी को मारता है और ना स्वयं मारा जाता है॥१९॥
 यह शरीरी मरने वाले क्यों नहीं है भगवन् ? 
यह शरीरी ना तो कभी पैदा होता है और ना कभी मरता ही है।  यह पैदा होकर फिर होने वाला नहीं है। यह जन्म रहित नित्य-निरंतर रहने वाला शाश्वत और अनादि है। शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता॥२०॥
 ऐसा जानने से क्या होगा?
 हे पार्थ! जो मनुष्य इस शरीरी को अविनाशी, नित्य, जन्म रहित और अव्यय  मानता है, वह कैसे किसी को मार सकता है और कैसे किसी को मरवा सकता है? ॥२१॥
तो फिर मरता कौन है भगवन् ? 
 यह शरीर मरता है। मनुष्य जैसे पुराने कपड़ों को छोड़कर नये कपड़ों को धारण करता है, ऐसे ही यह शरीरी पुराने शरीरों को छोड़कर दूसरे नई शरीरों में चला जाता है॥२२॥
 नये-नये शरीरों को धारण करने से इसमें कोई ना कोई विकार तो आता ही होगा?
 नहीं, इसने कभी कोई विकार नहीं आता, क्योंकि इस शरीरी  को शस्त्र काट नहीं सकते, अग्नि जला नहीं सकती, जल गिला नहीं कर सकता और वायु सूखा नहीं सकती॥२३॥
यह शस्त्र आदि से कटता, जलता, गलता और सूखता क्यों नहीं? 
यह शरीरी काटा भी नहीं जा सकता,जलाया भी नहीं जा सकता, गीला भी नहीं किया जा सकता और सुखाया भी नहीं जा सकता; क्योंकि यह है नित्य रहने वाला, सब में परिपूर्ण,  स्थिर  स्वभाव वाला, अचल और सनातन है। यह देही- इंद्रियों आदि का विषय नहीं है अथार्त यह अप्रत्यक्ष नहीं दिखता। यह अन्त:करण का भी विषय नही हैं और इसमें कोई विकार भी नहीं होता है इसलिए इस देही को ऐसा जानकर तुझे शोक नहीं करना चाहिए॥२४-२५॥
 इस शरीरी को निर्विकार मानने पर तो शोक नहीं हो सकता पर इसे विकारी मानने पर तो शोक हो ही सकता है?
 हे महाबाहो! अगर तू इस शरीरी को नित्य पैदा होने वाला और नित्य मरने वाला भी मान ले तो भी तुझे इस का शोक नहीं करना चाहिए; क्योंकि जो पैदा हुआ है, वह जरूर मरेगा और जो मर गया है,वह जरूर पैदा होगा। इस नियम को कोई भी हटा नहीं सकता। अतः शरीरी को लेकर तुझे शोक नहीं करना चाहिए॥२६-२७॥
 शरीरी को लेकर शोक नहीं करना चाहिए, यह तो ठीक है ;पर शरीर को लेकर तो शोक होता ही है भगवन्.! 
शरीर को लेकर भी शोक नहीं हो सकता; क्योंकि हे भारत ! सभी प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद फिर अप्रकट हो जाएंगे, केवल बीच में प्रकट दिखते हैं। अतः इसमें शोक करने की बात ही कौन सी है?॥२८॥
तो फिर शोक क्यों होता है?
 ना जानने से।
जानना कैसे हो? 
वह जानना अथार्त अनुभव करना इंद्रियां, मन  बुद्धि से नहीं होता, इसलिए इस शरीरी  को देखना, कहना, सुनना  सब आश्चर्य की तरह ही होता है। अत:इस  को सुनकर के कोई भी नहीं जान सकता अर्थात इसको अनुभव तो स्वयं ही होता है॥२९॥
 तो फिर यह कैसा है?
 हे भरतवंशी अर्जुन! सबके देह में रहने वाला यह देही नित्य ही अवध्य है, ऐसा जानकर तुझे किसी भी प्राणी के लिए शोक नहीं करना चाहिए॥३०॥
 शोक दूर करने की तो आपने बहुत सी बातें बता दी पर मुझे जो पाप का भय लग रहा है वह कैसे दूर हो? 
अपने धर्म क्षत्रिय धर्म को देख कर भी तुझे भयभीत नहीं होना चाहिए; क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्म में युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याण कारक कर्म नहीं है॥३१॥
 तो क्या क्षत्रिय को युद्ध करते ही रहना चाहिए?
 नहीं, जो युद्ध आप से आप प्राप्त हो जाए सामने आ जाए, वह युद्ध क्षत्रिय के लिए स्वर्ग जाने का खुला दरवाजा है। इसलिए पार्थ! ऐसा युद्ध जिन क्षत्रिय को प्राप्त होता है, वही वास्तव में सुखी होते हैं*॥३२॥(भोगों का मिलना कोई सुख नहीं है प्रत्युत वह तो महान दुखों का कारण है वास्तविक सुख वही है जो दुख से रहित हो। दुख से रहित सुख  यही है कि स्वधर्म रूप कर्तव्य कर्म करने का अवसर मिल जाए अतः जिन को कर्तव्य पालन का अवसर प्राप्त हुआ है वही वास्तव में सुखी और भाग्यशाली हैं।)
 ऐसे आप से आप प्राप्त युद्ध को मैं ना करूं, तो? 
अगर तू ऐसे धर्ममय युद्ध को नहीं करेगा तो तेरे क्षत्रिय धर्म का और तेरी कीर्ति का नाश होगा तथा तुझे कर्तव्य पालन ना करने का पाप भी लगेगा॥३३॥
अप कीर्ति से क्या होगा ?
अरे, तो युद्ध नहीं करेगा तो देवता, मनुष्य आदि सभी तेरी बहुत दिनों तक रहने वाली अपकीर्ति का कथन करेंगे। यह अपकीर्ति आदरणीय, सम्माननीय मनुष्य के लिए मृत्यु से भी बढ़कर दुखदाई होती है। ॥३४॥
और क्या होगा भगवान्,? 
जिन भीष्म द्रोणाचार्य आदि महारथियों की दृष्टि में तू श्रेष्ठ माना गया है, उनकी दृष्टि में तू तुच्छता को प्राप्त हो जाएगा और वह महारथी लोग तुझे मरने के भय के कारण युद्ध से उपरत हुआ मानेंगे।
 शेष कल-


शुक्रवार, 10 अगस्त 2018

(सच्चाई ) पढो़, समझो और करों

                       गरीब महिला की ईमानदारी

 जय श्री राधे ,गीता प्रेस वालों की कल्याण मैगजीन को मैं हमेशा पढ़ती रहती हूं, उसी में कुछ हमें शिक्षाप्रद कहानियां सुनने को मिलती हैं ,जिसमें सच्चाई होती है। उसी में से यह एक कहानी मैंने पढ़ी और मुझे लगा कि आप सबके साथ भी इसको शेयर करूँ-

घटना इस प्रकार है- मुझे कुछ प्लास्टिक डिब्बे तथा स्टील के बर्तनों की खरीदारी करनी थी और इसके लिए मैं अपने पौत्र के साथ सोनिया विहार स्थित मार्केट में एक दुकान पर गया जहां पर अष्टमी - नवमी की वजह से वह काफी बड़ी भीड़ थी दुकानदार को मैंने अपना सामान नोट कराया तथा उसने कहा कि आपको आधे घंटे प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। मैं दुकान में एक तरफ खड़ा हो गया। तभी मेरी दृष्टि एक महिला पर पड़ी जो दुकानदार से दो - 4 मिनट अपनी भाषा में झगड़ती और फिर एक तरफ बैठ कर रोने लगती, ऐसा तीन - चार बार हुआ। दुकानदार को कोई परवाह नहीं थी। लेकिन उस महिला के आंसू देख कर, मेरी व्याकुलता बढ़ती गई और एक समय ऐसा आया कि मैं अपने आप को रोक नहीं पाया और उससे जानना चाहा कि आखिर हुआ क्या है?परेशानी की वजह से उसकी भाषा स्पष्ट समझ नहीं आ रही थी लेकिन जो कुछ मैं समझ पाया उसके अनुसार ऐसा लगा कि महिला ने अपना सामान ख़रीदा और भुगतान करते समय उसने दुकानदार को एक की जगह ₹500 के दो नोट गलती से दे दिए और अब वह ₹500 का एक नोट वापस लेना चाहती है। दुकानदार इस बात को कतई मानने को तैयार नहीं था, और बार - बार यह कह रहा था कि एक नोट तुम से कहीं गिर गया होगा। महिला कुछ बोलती और फिर बैठ कर रोने लगते। वेशभूषा से महिला गरीब परिवार की लग रही थी। लेकिन उसके दृढ़ता तथा आंसू उसकी इमानदारी की गवाही दे रहे थे। मुझे उसकी सहायता करने की इच्छा हुई और मैंने ₹500 का एक नोट निकालकर उसको देना चाहा। तो वह और जोर से रोने लगी। उस नोट को काफी प्रयत्न्न करने के पश्चात भी मुझसे नहीं लिया और दुकानदार की ओर इशारा करते रही, जिससे लगता था कि वह दुकानदार से ही लेना चाहती है । लेकिन दुकानदार को उसकी कोई परवाह नहीं थी। मेरा सामान अभी तक नहीं हुआ था 15 मिनट और बीत गए। मैंने एक तरकीब निकाली और चुपके से ₹500 का नोट दुकानदार को पकड़ा दिया और इशारो- इशारो में उसको देने के लिए कह दिया। थोड़ी देर बाद दुकानदार ने उस महिला को दिया तो उसने उसे लेने से मना करते हुए धीरे-धीरे बताया कि ₹500 नहीं, केवल सो रुपए चाहिए। 1 घंटे के घटना क्रम के पश्चात पता चला कि उस महिला ने ₹200 का सामान लेकर ₹500 का नोट दिया जिसमें दुकानदार ने गलती से 300 स्थान पर उस महिला को मात्र ₹200 वापस किए थे ।अब दुकानदार को भी धीरे-धीरे याद आ रहा था और उसने उस महिला को सो रुपए का नोट दे दिया। जिसे लेकर वर आँसू पोंछती हुई अपने घर चली गई। मैं उससे बस इतना कुछ पाया कि उस के पति क्या करते हैं? उसने मुस्कुराती उत्तर दिया- अखबार बेचते हैं। ऐसी देवी को मेरा प्रणाम है। जिसे ₹500 के नोट की जगह अपनी मेहनत का ₹१०० का नोट अधिक मूल्यवान लगा। दुकानदार ने मेरा नोट धन्यवाद के साथ वापस किया और काफी कोशिश करने के पश्चात भी महिला को दिये ₹१00 भी नहीं लिये जिन्हें मैं देना चाहता था।
एम एल शर्मा( कल्याण मैगजीन के द्वारा सच्ची घटना पर आधारित)

गीता माधुर्य अध्याय 1 का शेष

                   गीता माधुर्य अध्याय 1 का शेष


 कौरव सेना के बाजे बजने के बाद पांडव सेना के बाजे बजने चाहिए थे पर उस सेना को कोई आज्ञा नहीं मिली। तब सफेद घोड़ों से युक्त महान रथ पर बैठे हुए भगवान श्री कृष्ण ने पाञ्चजन्य नामक और अर्जुन ने देवदत्त नामक दिव्य शंख को बड़ी जोर से बजाया। उसके बाद भीम ने पाैण्ड्र नामक, युधिष्ठिर ने अनंत विजय नामक, नकुल ने सुघोष नामक और सहदेव ने मणिपुष्पक नामक अलग अलग शंख बजाये
फिर और किसने शंख बजाये? 
हे राजन्! पांडव सेना के श्रेष्ठ धनुष वाले काशिराज, महारथी शिखंडी, तथा धृष्टधुम्न, राजा विराट, अजय सत्यकि, राजा द्रुपद, द्रोपदी के पांचों पुत्र और महाबाहु सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु - इन सभी महारथियों ने अपने-अपने शंख बजाएं।
पांडव सेना की उस शंख ध्वनि का क्या परिणाम हुआ? 
पांडव सेना की उस शंखो की ध्वनि ने आकाश और पृथ्वी को गुँजाते हुए अन्याय पूर्वक राज्य हड़पने वाले कौरवों के ह्दय विदीर्ण कर दिए।
शंख बजाने के बाद पांडवों ने क्या किया संजय?

है महीपते! शंखो के बजने के बाद युद्ध आरंभ होने के समय आप के संबंधियों(कौरवों) को देखकर कपिध्वज अर्जुन ने अपना गांडीव धनुष उठा लिया और अंतर्यामी भगवान श्री कृष्ण से बोले कि 'हे अच्युत! आप मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कर दीजिए।'
रथ को बीच में क्यों खड़ा करूं अर्जुन? 
मैं इस रणभूमि में खड़े हुए युद्ध की इच्छा वाले शूरवीरों को देख लूं कि मुझे किन किन के साथ युद्ध करना है। यहां युद्ध में जो यह  राजा लोग दुर्योधन का प्रिय करने की इच्छा से इकट्ठे   हुए है, उनको भी मैं देख लूं।
अर्जुन के ऐसा कहने पर भगवान ने क्या किया संजय  
संजय बोले - हे राजन! निद्राविजयी अर्जुन के ऐसा कहने पर अंतर्यामी भगवान श्री कृष्ण ने दोनों सेनाओं के मध्य भाग में पितामह भीष्म और आचार्य द्रोण के सामने तथा संपूर्ण राजाओं के सामने रथ को खड़ा करके कहा कि 'हे पार्थ! इन इकट्ठे हुए कुरूवंशियों को देख'।
भगवान के कहने पर क्या हुआ? 
तब हम दोनों सेना में स्थित पिता, पितामह  आचार्य, मामा  भाई, पुत्र, पौत्र तथा मित्र  ससुर तथा इनके सिवाय अंन्य कई संबंधियों को देखकर अर्जुन अत्यंत कायरता युक्त होकर विषाद करते हुए बोले।
अर्जुन क्या बोले संजय? 
अर्जुन बोले- हे कृष्ण! अपने खास कुटुंबियों को युद्ध के लिए सामने खड़े देख कर मेरे सब अंग शिथिल हो रहे हैं, मुंह सूख रहा है, शरीर में कँपकँपी आ रही है, रोंगटे खड़े हो रहे हैं, हाथों से गांडीव धनुष गिर रहा है और अभी त्वचा भी जल रही है। मेरा मन भ्रमित हो रहा है और मैं खड़े रहने में भी असमर्थ हो रहा हूं।
इसके सिवा और क्या देख रहे हो अर्जुन?
हे केशव! मैं शकुनों को भी विपरीत दिशा में देख रहा हूं और युद्ध में इन कुटुंबियों को मारकर कोई लाभ भी नहीं देख रहा हूं ।
इनको मारे बिना राज्य कैसे मिलेगा? 
हे कृष्ण! मैं ना तो विजय चाहता हूं, ना राज्य चाहता हूं और ना सुखों को ही चाहता हूं। हे गोविंद! हम लोगों को राज्य से, भोंगों से अथवा जीने से क्या लाभ?
तुम विजय अादि क्यों नहीं चाहते? 
हम जिनके लिए राज्य, भोग और सुख चाहते हैं वही सब के सब लोग अपने प्राणों की और धन की आशा को छोड़कर युद्ध के लिए खड़े हैं।
वह लोग कौन है अर्जुन? 
आचार्य, पिता, पुत्र, पितामह, मामा, ससुर, पुत्र तथा और भी बहुत से संबंधी हैं।
यही लोग अगर तुम्हें मारने के लिए तैयार हो जाए, तो? 
यह भले ही मुझे मार डालें, पर हे मधुसूदन! मुझे त्रिलोकी का राज्य मिल जाए तो भी मैं इन को मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वी के राज्य के लिए तो कहना ही क्या है?
अरे भैया राज्य   मिलने पर भी तो बड़ी प्रसन्नता होती है क्या तुम उसको भी नहीं चाहते?
 हे जनार्दन! इन धृतराष्ट्र के संबंधियों को, (जो कि हमारे भी संबंधी हैं) मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी? इन आततायियों को मारने से तो हमें पाप ही लगेगा। इसलिए हे माधव!इन धृतराष्ट्र- संबंधियों को हम मारना नहीं चाहते; क्योंकि हे माधव! अपने कुटुंबियों को मारकर हम कैसे सुखी हो सकते हैं।
यह तो तुम्हें मारने के लिए तैयार ही हैं, तुम ही पीछे क्यों हट रहे हो? 
महाराज! इन को तो लोभ के कारण विवेक - विचार लुप्त हो गया है, इसलिए यह दुर्योधन आदि कुल के नाश से होने वाले दोष को और मित्र द्रोह से होने वाले पाप को नहीं देख रहे हैं। तो भी हे जनार्दन! कुल के नाश से होने वाले दोष को जानने वाले हम लोगों को तो इस पाप से बचना ही चाहिए।
अगर कुल का नाश हो भी जाए तो क्या होगा? 
कुल का नाश होने पर सदा से चले आए कुलधर्म, कुल परम - परंपरा नष्ट हो जाते हैं।
कुल धर्म के नष्ट होने पर क्या होता है  
कुलधर्म के नष्ट होने पर संपूर्ण कुल में अधर्म फैल जाता है। अधर्म के फैल जाने से क्या होता है? 
अधर्म के फैल जाने से कुल की स्त्रियां दूषित हो जाती हैं।
स्त्रियोंके  दूषित होने से क्या होता है?
स्त्रियों के दूषित होने से वर्णसंकर पैदा होता है।
वर्णसंकर  पैदा होने से क्या होता है? 
यह वर्णसंकर कुलघातियों( कुल का नाश करने वालों) को और संपूर्ण कुल को नर्क में ले जाने वाला होता है तथा पिंड और पानी (श्राद्ध- तर्पण) ना मिलने से उनके पितर भी अपने स्थान से गिर जाते हैं।इन वर्णसंकर पैदा करनेवाले दोषों से कुल घाटियों के सदा से चलते आए कुल धर्म और जाति धर्म - - दोनों नष्ट हो जाते हैं।
जिनके कुल धर्म नष्ट हो जाते हैं, उन मनुष्य का क्या होता है?
हे जनार्दन! उन मनुष्य को बहुत समय तक नरक में निवास करना पड़ता है। ऐसा हम सुनते आए हैं,।
युद्ध के परिणाम को जब तुम पहले से ही जानते हो तो फिर युद्ध  के लिए तैयार क्यों हुए? 
यही तो बड़े आश्चर्य और खेद की बात है कि हम लोग बड़ा भारी पाप करने का निश्चय कर बैठे हैं, जो कि राज्य और सुख के लोभ से अपने कुटुंबियों को मारने के लिए तैयार हो गए हैं। अब तुम क्या करना चाहते हो? 
मैं अस्त्र-शस्त्र छोड़कर युद्ध से हट जाऊंगा। अगर मेरे द्वारा ऐसा करने पर भी हाथों में शस्त्र लिये दुर्योधन आदि मुझे मार दे तो वह मारना भी मेरे लिए बड़ा हितकर होगा।
ऐसा कहने के बाद अर्जुन ने क्या किया संजय? 
संजय बोले- ऐसा कहकर शौक से व्याकुल मन वाले अर्जुन ने बाण सहित धनुष का त्याग कर दिया औरत के मध्य भाग में बैठ गए।
पहला अध्याय समाप्त
॥ जय श्री कृष्ण॥

गुरुवार, 9 अगस्त 2018

शुभ विचार

                                  शुभ विचार

पत्थर व लाठी से हड्डियां टूट जाती है परन्तु शब्दों से प्रायः संबंध टूट जाते हैं, इसलिए यदि आप क्रोध में हैं ,तो शांत रहिए और बोलना है तो सोच समझ कर बोलिए।
 जय श्री राधे

मंगलवार, 7 अगस्त 2018

गीता माधुर्य प्रथम अध्याय हिंदी मे

                                 गीता माधुर्य

श्रीमद्भागवत गीता मनुष्य मात्र को सही मार्ग दिखाने वाला सार्वभौम महाग्रंथ है। लोगों में इसका अधिक से अधिक प्रचार हो, इस दृष्टि से परम श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज ने इस ग्रंथ को प्रश्नोत्तर शैली में बड़े सरल ढंग से प्रस्तुत किया है। जिससे गीता पढ़ने में सर्वसाधारण लोगों की रुचि पैदा हो जाए और वह इसके अर्थ को सरलता से समझ सके। नित्य पाठ करने के लिए भी है पुस्तक बड़ी उपयोगी है। आप  से मेरा निवेदन है कि इस को स्वयं भी पढ़े व औरों को भी प्रेरित करें।
                               श्री परमात्मने नमः
                                 श्री गणेशाय नमः
                      गीता माधुरी प्रथम पहला अध्याय
वसुदेव सुतम देवं कंसचाणूरमर्दनम्।
 देवकीपरमानंद कृष्णम वंदे जगतगुरुम् ॥
जिज्ञासापूर्तये  टीका लिखित साधकस्य या।     
संजीवप्रवेशाया माधुर्य  लिख्यते मया॥
पांडवों ने 12 वर्ष का वनवास और 1 वर्ष का अज्ञातवास समाप्त होने पर जब पूर्व प्रतिज्ञा के अनुसार अपना आधा राज्य मांगा, तब दुर्योधन ने आधा राज्य तो क्या, किसी सुई की नोक जितनी जमीन भी बिना युद्ध के देनी स्वीकार नहीं किया। अतः पांडवों ने माता कुंती की आज्ञा के अनुसार युद्ध करना स्वीकार कर लिया। इस प्रकार पांडवों और कौरवों के बीच युद्ध होना निश्चित हो गया और दोनों और युद्ध की तैयारी होने लगी। महर्षि वेदव्यास का धृतराष्ट्र पर बहुत स्नेह था उसी के कारण उन्होंने धृतराष्ट्र के पास आकर कहा की युद्ध होना और उसमें क्षत्रियों का महान संहार होना अवश्यंभावी है। इसे कोई टाल नहीं सकता, यदि तुम युद्ध देखना चाहते हो तो मैं तुम्हें दिव्य दृष्टि दे सकता हूं। जिसे तुम भी बैठे-बैठे युद्ध की अच्छी तरह कैसे देख सकते हो। इस पर धृतराष्ट्र ने कहा कि "मैं जन्म भर अंधा रहा, अब अपने कुल के संहार को मैं देखना नहीं चाहता हूँ। परंतु युद्ध कैसे हो रहा है- यह समाचार जरूर मैं जानना चाहता हूँ। 'व्यास जी ने कहाकि मैं संजय को दिव्य दृष्टि देता हूं, जिससे वह संपूर्ण युद्ध को, संपूर्ण घटनाओं को, सैनिकों के मन में आई हुई बातों को, भी जान लेगा, सुन लेगा, देख लेगा और सब बातें तुम्हें सुना भी देगा। ऐसा कह कर व्यास जी ने संजय को दिव्य दृष्टि प्रदान की। उधर निश्चित समय के अनुसार कुरुक्षेत्र में दोनों सेना युद्ध के लिए तैयार थी।
अब प्रश्न होता है कि जब युद्ध के लिए दोनों सैन्य सेना तैयार थी ऐसे मौके पर भगवान ने अर्जुन को गीता का उपदेश क्यों दिया? 
 शोक दूर करने के लिए ही भगवान ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया।
अर्जुन को शौक कब हुआ और क्यों हुआ? 
जब अर्जुन ने दोनों सेनाओं में अपने ही निजी कुटुंबियों को देखा और सोचा कि दोनों तरफ हमारे कुटुंबी मरेंगे, तब ममता के कारण उनको शौक हुआ।
अर्जुन ने दोनों सेनाओं में अपने कुटुंबियों को क्यों देखा?  भगवान श्री कृष्ण ने जब दोनों सेनाओं के बीच में रख खड़ा करके अर्जुन से कहा कि' तुम युद्ध की इच्छा से इकट्ठे हुए इन कुरूवंशियों को देखो' तब अर्जुन ने अपने कुटुंबियों को देखा। भगवान ने अर्जुन को दोनों सेनाओं में वंशियों को देखने के लिए क्यों कहा? 
 अर्जुन ने पहले भगवान से कहा था कि 'हे अच्युत! दोनों सेनाओं के बीच में मेरा रथ खड़ा करो, जिससे मैं देखूं कि यहां मेरे साथ दो हाथ करने वाले कौन हैं? '
अर्जुन ने ऐसा क्यों कहा? 
जब युद्ध की तैयारी के बाजे बजे, तब उत्साह से भर कर अर्जुन ने दोनों सेनाओं के बीच में रथ खड़ा करने के लिए भगवान से कहा।
बाजे क्यों बजे? 
कौरव सेना के मुख्य सेनापति भीष्म जी ने जब सिहं की दहाड़ के समान गरजकर शंख बजाया, तब कौरव और पांडव सेना के बाजे बजे।
भीष्मजी ने शंख क्यों बजाया?    
दुर्योधन को हर्षित करने के लिए भीष्मजी ने शंख बजाया।
   दुर्योधन अप्रसन्न क्यों था? 
 दुर्योधन ने गुरु द्रोणाचार्य के पास जाकर कहा कि आपके प्रतिपक्ष में पांडवों की सेना खड़ी है, इसको देखिए अथार्त जिन पांडव पर आप प्रेम-स्नेह करते हैं वही आप के विरोध में खड़े हैं। पांडव सेना की व्यूह रचना भी धृष्टधुम्न    के द्वारा की गई है। जो आप को मारने के लिए ही उत्पन्न हुआ है। इस प्रकार दुर्योधन की चालाकी से, राजनीति से भरी हुई बातों को सुनकर द्रोणाचार्य चुप रहे  कुछ बोले नहीं। इससे दुर्योधन अप्रसन्न हुआ।
द्रोणाचार्य चुप क्यों रहें?
दुर्योधन ने द्रोणाचार्य को उकसाने के लिए चालाकी से राजनीति की जो बातें कहीं ,वह बातें द्रोणाचार्य को बुरी लगी  । उन्होंने यह सोचा कि अगर मैं इन बातों का खंडन करूं, तो युद्ध के मौके पर आपस में खटपट हो जाएगी। जो उचित नहीं है। मैं इन बातों का अनुमोदन भी नहीं कर सकता क्योंकि यह चालाकी से बातचीत कर रहा है। सरलता से बातचीत नहीं कर रहा है, इसलिए द्रोणाचार्य चुप रहे।
दुर्योधन ने ऐसी बातें कब कहां और क्यों कहीं? 
दुर्योधन ने   व्यूहाआकार  खड़ी हुई पांडव सेना को देखकर गुरु द्रोणाचार्य को उकसाने के लिए ऐसी बातें कहीं  इसका वर्णन संजय ने धृतराष्ट्र के प्रति किया है।
संजय ने यह वर्णन धृतराष्ट्र के प्रति क्यों किया? 
जब धृतराष्ट्र युद्ध की कथा को आरम्भ से विस्तार पूर्वक सुनना चाहा, तब संजय ने यह सब बातें धृतराष्ट्र से कहीं।
धृतराष्ट्र ने संजय से क्यों सुनना चाहा?
10 दिन युद्ध होने के बाद संजय ने अचानक आकर धृतराष्ट्र से यह कहा कि कौरव, पांडवों के पितामह, शांतनु के पुत्र भीष्म मारे गए(रथ से गिरा दिए गए) जो संपूर्ण योद्धाओं में मुख्य और संपूर्ण धनुर्धारियों में श्रेष्ठ थे। ऐसे पितामह भीष्म आज शर शैया पर सो रहे हैं। इस समाचार को सुनकर धृतराष्ट्र को बड़ा दुख हुआ और वह विलाप करने लगे। फिर उन्होंने युद्ध का सारांश सुनाने के लिए कहा और पूछा-
 है संजय! धर्म भूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से इकट्ठे हुए मेरे और पांडु के पुत्रों ने क्या किया? संजय बोले उस समय व्युरचना से खड़ी हुई पांडवों की सेना को देखकर राजा दुर्योधन, द्रोणाचार्य के पास गया और उनसे कहा कि आचार्य आप अपने बुद्धिमान शिष्य द्रुपद पुत्र प्रदुमन के द्वारा  व्युह रचना से खडी की  हुई पांडवों की इस बड़ी सेना को देखिए। पांडवों की सेना में किन-किन को देखूं दुर्योधन? 
पांडवों की सेना में बड़े-बड़े शूरवीर हैं, जिनके बहुत बड़े-बड़े धनुष है, तथा जो बल में भीम के समान है और युद्धकला में अर्जुन के समान है। इन में युयुधान (सात्यकि) राजा विराट और महारथी  द्रुपद भी है। धृष्टकेतु, चेकितान और पराक्रमी काशीराज भी है और पुरूजित और कुंती भोज यह दोनों भाई तथा मनुष्य में श्रेष्ठ शैब्य भी है। पराक्रमी युधामन्यु और बलवान उत्तमोेजा भी है। सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु और द्रोपदी के पांचों पुत्र भी हैं। यह सब के सब महारथी हैं।
पांडव सेना के शूरवीरों के नाम तो तुम ने बता दिए पर अपनी सेना के शूरवीर कौन-कौन है दुर्योधन? 
हे  द्विजोत्तम जो हमारी सेना में जो विशेष विशेष पुरुष हैं, उन पर भी ध्यान दीजिए। आप (द्रोणाचार्य), पितामह भीष्म, कर्ण, संग्राम विजय कृपाचार्य अश्वत्थामा और सोम दत्त का पुत्र भूरिश्रवा तथा इनके सिवाएं और भी बहुत से शुरूवीर है जिन्होंने मेरे लिए अपने जीने की इच्छा का भी त्याग कर दिया है और जो अनेक प्रकार के अस्त्र शस्त्र चलाने में निपुण तथा युद्ध कला में अत्यंत चतुर हैं।
दोनों सेनाओं के प्रधान प्रधान योद्धाओं को दिखाने के बाद दुर्योधन ने क्या किया संजय? 
दुर्योधन ने अपने मन में विचार किया कि वह उभयपक्षपाती (दोनों का पक्ष लेने वाले) भीष्म के द्वारा रक्षित हमारी सेना पांडव सेना पर विजय करने में असमर्थ हैं। और निजपक्ष पाती (केवल अपना ही पक्ष लेने वाले) भीम के द्वारा रचित पांडवों की सेना हमारी सेना पर विजय करने में समर्थ है।
मन में ऐसा विचार करने के बाद दुर्योधन ने क्या किया? 
उसने सभी शूरवीरों से कहा कि आप सब के सब लोग अपने-अपने मोर्चा पर दृढ़ता से स्थित रहते हुए ही पितामह भीष्म की चारों ओर से रक्षा करें।
अपनी रक्षा की बात सुनकर भीष्म जी ने क्या किया?
पितामह भीष्म ने दुर्योधन को प्रसन्न करते हुए बड़े जोर से शंख बजाया
भीष्मजी के द्वारा शंख बजाने के बाद क्या हुआ संजय?
 भीष्मजी ने तो दुर्योधन को प्रसन्न करने के लिए ही शंख बजाया था, पर कौरव सेना ने इसको युद्धारम्भ की घोषणा ही समझी। अत:भीष्मजी के शंख बजाते ही कौरव सेना के शंख, ढोल, बाजे एक साथ बज उठे। उनका शब्द बड़ा भयंकर हुआ।
 कौरव सेना के बाजें बजने के बाद क्या हुआ संजय?
शेष कल-

सोमवार, 6 अगस्त 2018

यमुना स्तुति भावार्थ के साथ(विनय पत्रिका)

                                यमुना स्तुति

जमुना ज्यों-ज्यों लागी बाढन। 
त्यों त्यों  सुकृत - सुभट कली भूपहिं, निदरि लगे बहु काढ़न॥१॥ 
ज्यों ज्यों जल मलिन त्यों त्यों  जमगन मुखमलीन लहै आढ़ न। 
तुलसीदास जगदघ जवास ज्यों अनघमेघ लगे डाढ़न॥२॥ भावार्थ-
यमुना जी
जैसे जैसे बढने लगी, वैसे ही पुण्य रूपी योद्धागण कलयुग रूपी राजा का निरादर करते हुए उसे निकालने लगे। बरसात में यमुना जी का जल बढ़कर जो जो मैला होने लगा, त्यों त्यों यमदूतों का मुख भी काला होता गया, अंत में उन्हें कोई भी आसरा नहीं रहा, अब वह  किस को यमलोक में ले जाएं। तुलसीदास जी कहते हैं कि यमुनाजी के बढ़ते हुए पुण्य रूपी मेघ ने संसार के पाप रूपी जवासे को जलाकर भस्म कर डाला। 

गंगा स्तुति( विनय पत्रिका)

                                 गंगा स्तुति(विनय पत्रिका)

जय जय भगीरथ नंदिनी, मुनि चय चकोर - चंदनी,
नर - नाग- विबुध- बंदिनी जय जह्नु बालिका।
विष्णुपद सरोजजासी, ईस-सीस पर बिभासि,
त्रिपथगासि, पुण्यराशि, पापछालिका॥१॥
विमल विपुल बहसि बारी, शीतल त्रयताप - हारी,
भंवर बर बिभंगतर तरंग मलिका।
पुरजन पूजाेपहार, शोभित शशि धवलदार,
भंजन भव भार, भक्ति कल्पथालिका ॥२॥
निज तटबासी बिहंग, जल-थर-चर पशु पतंग 
की, जटिल तापस सब सरिस पालिका।
तुलसी तब तीर तीर सुमिरत रघुवंश बीर,
बिचरत मति देहि मोह-महिष-कालिका॥३॥
 भावार्थ- हे भगीरथ नंदिनी! तुम्हारी जय हो ,जय हो। तुम मुनियों के समूह रूपी चकोरों के लिए चंद्रिका रूप हो। मनुष्य नाग, देवता तुम्हारी वंदना करते हैं। यह जह्नु की पुत्री! तुम्हारी जय हो। तुम भगवान विष्णु के चरण कमल से उत्पन्न हुई हो  शिवजी के मस्तक पर शोभा पाती हो। स्वर्ग, भूमि और पाताल इन तीन मार्गो से तीन धाराओं में होकर बहती हो। पुण्य की राशि और पापों को धोने वाली हो। तुम आगाध निर्मल जल को धारण किए हो। वह जल शीतल और तीनों तापों को हरने वाला है  तुम सुंदर भँवर और अति चंचल तरंगों की माला धारण किए हो ।नगर- निवासियों ने पूजा के समय जो सामग्री भेंट चढ़ाई हैं, उनसे तुम्हारी चंद्रमा के समान धवल धारा शोभित हो रही है। यह धारा संसार के जन्म - मरण रूप भार को नाश करने वाली तथा भक्ति रूपी कल्पवृक्ष की रक्षा के लिए थाल्हारूप है। तुम अपनी तीर पर रहने वाले पक्षी, जलचर, थलचर, पशु, पतंग की औल जटाधारी तपस्वी आदि सबका समान भाव से पालन करती हो। हे मोह रूपी महिषासुर को मारने के लिए काली का रूप गंगाजी ! मुझे ऐसी बुद्धि दो जिससे वह श्री रघुनाथ जी का स्मरण करता हुआ तुम्हारे तीर पर विचरा करें। 

शुक्रवार, 3 अगस्त 2018

सब के सब सुखी हो जाए

       
           सभी लोग एक दूसरे के सुख की कामना करें
  गीता आश्रम में ऋषिकेश मे एक संत हुए स्वामी रामसुखदास जी उन्हीं के मुख से बोले गए ये प्रवचन हैं जिसमें वह बता रहे हैं कि यदि हमने ईश्वर को अपना मान लिया है तो इस संसार में रहने वाली प्रत्येक जीव और निर्जीव ईश्वर के ही हैं । तो हमें उन सब का भी आदर , प्यार और सहायता करनी चाहिए।
प्रभुके साथ हमारा अपनापन सदासे है और सदा रहेगा। केवल हम ही भगवान से विमुख हुए हैं, भगवान् हमसे विमुख नहीं हुए। हम भगवान् के हैं और भगवान् हमारे हैं—
अस अभिमान जाइ जनि भोरे। मैं सेवक रघुपति पति मोरे॥
(मानसअरण्य ११। २१)
मीराबाई इतनी ऊँची हुई, इसका कारण उसका यह भाव था कि ।‘मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई।’ केवल एक भगवान् ही मेरे हैं, दूसरा कोई मेरा नहीं है।
सज्जनो ! हम भगवान् के हो जाते हैं तो भगवान् की सृष्टिके साथ उत्तम-से-उत्तम बर्ताव करना हमारे लिये आवश्यक हो जाता है। यह सब सृष्टि प्रभुकी है, ये सभी हमारे मालिक के हैं—ऐसा भाव रखोगे तो उनके साथ हमारा बर्ताव बड़ा अच्छा होगा। त्यागका, उनके हितका, सेवाका बर्ताव होगा। इससे व्यवहार तो शुद्ध होगा ही, हमारा परमार्थ भी सिद्ध हो जायगा, हम संसारसे मुक्त हो जायँगे। अत: हम भगवान के होकर भगवान का काम करें। ये सब प्राणी भगवान के हैं, इन सबकी सेवा करें। अपना यह भाव बना लें—
सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दु:खभाग्भवेत्॥
सब-के-सब सुखी हो जायँ, सब-के-सब नीरोग हो जायँ, सबके जीवनमें मङ्गल-ही-मङ्गल हो, कभी किसीको दु:ख न हो— ऐसा भाव हमारेमें हो जायगा तो दुनियामात्र सुखी होगी कि नहीं, इसका पता नहीं; परन्तु हम सुखी हो जायँगे, इसमें सन्देह नहीं।(स्वामी रामसुखदासजी के श्री मुख से ) 

देवि स्तुति भावार्थ के साथ (विनय पत्रिका)

                                 देवि स्तुति(विनय पत्रिका)

 जय जय जग जननी देवी सुर- नर- मुनि - असुर सेवि, 
भुक्ति- मुक्ति- दायिनी, भय-हारणि कालिका। 
मंगल - मुद-सिद्धि- सदनि  पर्वशर्वरीश-वदनि, 
ताप-तिमिर- तरुण - तरणि- किरणमालिका॥१॥
 वर्म, चर्म कर कृपाण, शूल- शैल- धनुषबाण,
 धरणि दलनि दानव दल, रण-करालिका।
 पूतना- पिशाच - प्रेत - डाकिनी- शाकिनी - समेत, 
भूत-ग्रह- बेताल खग- मृगाली- जालिका॥२॥
 जय महेश -भामिनी, अनेक रुप नामिनी ,
समस्त लोकस्वामनी, हिमशैल बालिका ।
रघुपति -पद परम प्रेम, तुलसी यह अचल नेम, 
देहु ह्वै प्रसन्न  पाहि प्रणत- पालिका॥३॥
 भावार्थ- हे जगत की माता! हे देवी!! तुम्हारी जय हो, जय हो देवता, मनुष्य, मुनि और असुर सभी तुम्हारी सेवा करते हैं। तुम भोग और मोक्ष दोनों को ही देने वाली हो ।भक्तों का भय दूर करने के लिए तुम कालिका हो ,कल्याण सुख और सिद्धियों की शान हो, तुम्हारा सुंदर मुख पूर्णिमा के चंद्र के सदृश है। तुम आध्यात्मिक, आधिभौतिक, और आधिदैविक ताप रुपी अंधकार का नाश करने के लिए मध्याह्न के तरुण सूर्य की किरण माला हो॥१॥ तुम्हारे शरीर पर कवच है। तुम हाथों में ढाल ,तलवार ,त्रिशूल, सांगी और धनुष बाण लिए हो। दानवों के दल का संहार करने वाली हो ,रण में विकराल रूप धारण कर लेती हो। तुम पूतना, पिशाच, प्रेत और डाकिनी शाकनियों के सहित भूत ग्रह और बेताल रूपी पक्षी और मृर्गों के समूह को पकड़ने के लिए जागरूक हो॥२॥ हे शिवे! तुम्हारी जय हो।। तुम्हारे अनेक रूप और नाम है। तुम समस्त संसार के स्वामिनी और हिमाचल की कन्या हो। हे शरणागत की रक्षा करने वाली! में तुलसीदास श्री रघुनाथ जी के चरणों में परम प्रेम और अचल नेम चाहता हूं, तो प्रसन्न होकर मुझे दो और मेरी रक्षा करो। 

शिव स्तुति (विनय पत्रिका)

                               शिव स्तुति
 श्री तुलसीदास जी ने विनय पत्रिका में भगवान शिव से विनय करके भगवान राम की कृपा पाने का अनुरोध किया है। उनका मानना है यदि शिव प्रसन्न हो जाएंगे तो ,वह भगवान राम से मेरी सिफारिश कर देंगे ,और भगवान राम मेरी और देख कर मुझ पर कृपा कर देंगे-

दानी कहूंँ शंकर सम- नाही।
दीन - दयालु दिबोई भावेै, जाचक सदा सोहाही॥१॥
मारिकै मार थप्यौ जग में, जाकी प्रथम रेख भट माही।
ता ठाकुर कोै रीझि निवाजिबौ, कह्यौ क्यों परत मो पाही॥२॥जोक कोटि करि जो गति हरिसों, मुनी मांगत सकुचाहीं।
वेद- विदित तेहि पद पूरारी-पुर, कीट-पतंग समाही॥३॥
ईस उदार उमापति परिहरि, अनंत जे जाचन जाहीं। तुलसीदास थे मूढ़ मांगने, कबहुं ना पेट आघाही॥४॥
भावार्थ - शंकर के समान दानी कहीं नहीं है। वह दीन- दयालु है। देना ही उनके मन भाता है, मांगने वाले उन्हें सदा सुहाते हैं॥१॥ वीरों में अग्रणी कामदेव को भस्म कर के फिर बिना ही शरीर जगत में उसे रहने दिया, ऐसे प्रभु को प्रसन्न होकर कुछ कृपा करना मुझसे क्यों कर कहा जा सकता है। करोड़ों प्रकार से योग की साधना करके मुनिगण जिस परम गति को भगवान श्री हरि से मांगते हुए सकुचाते हैं। वही परमगति त्रिपुरारी शिव जी की पुरी काशी में कीट पतंगे भी पा जाते हैं, यह वेदों में प्रकट है॥३॥ ऐसे परम उदार भगवान पार्वतीपति को छोड़कर जो लोग दूसरी जगह मांगने जाते हैं, उन मुर्ख मांगने वालों का पेट भली-भांति कभी नहीं भरता॥४॥

गुरुवार, 2 अगस्त 2018

सूर्य स्तुति

                                  सूर्य स्तुति

 यह स्तुति तुलसीदास जी ने विनय पत्रिका में कही है-

दीन- दयालु दिवाकर देवा। कर मुनि, मनुज, सुरासुर सेवा॥१॥ हिम- तम- करी- केहरि करमाली। दहन दोष - दुख - दुरित - रुजाली॥२॥
 कोक- कोकनद- लोक- प्रकाश।तेज- प्रताप- रूप - रस -रासी॥३॥
सारथी- पंगु,दिव्य रथ- गामी।हरि-शंकर-बिधि-मूरति स्वामी॥४॥
वेद- पुराण, प्रगट जस जागे। तुलसी राम-भगति वर मांगे ॥५॥

भावार्थ- हे दीन दयालु भगवान सूर्य! मुनि ,मनुष्य, देवता और राक्षस सभी आपकी सेवा करते हैं॥१॥आप पाले और अंधकार रुपी हाथियों को मारने वाले वनराज सिंह हैं। किरणों की माला पहन रहते हैं; दोष, दुख, दुराचार और रोगों को भस्म कर डालते हैं॥२।। रात के बिछड़े हुए चकवा चकवियों को मिलाकर प्रसन्न करने वाले, कमल को खिलाने वाले तथा समस्त लोकों को प्रकाशित करने वाले हैं। तेज, प्रताप, रूप और रस कि आप खानी है॥३॥ आप दिव्य रथ पर चलते हैं, आपका सारथी (अरुण) लूला है। हे स्वामी! आप विष्णु, शिव और ब्रह्मा जी के ही रूप हैं।।४॥ वेद- पुराणों में आपकी कीर्ति जगमगा रही है।तुलसीदास आपसे श्री राम भक्ति का वर मांगता है॥५॥ 

बुधवार, 1 अगस्त 2018

श्रीमद् भागवत गीता हिंदी में चौथा अध्याय का शेष

        श्रीमद् भागवत गीता हिंदी में चौथा अध्याय
          ( स्वामी रामसुखदास जी के श्रीमुख से)
 भगवान् 'विवस्वते प्रोक्तवान् पदोंसे साधकोंको मानो यह लक्ष्य कराते हैं कि जैसे सूर्य सदा चलते ही रहते हैं अर्थात् कर्म करते ही रहते हैं और सबको प्रकाशित करनेपर भी स्वयं निर्लिप्त रहते हैं, ऐसे ही साधकोंको भी प्राप्त परिस्थितिके अनुसार अपने कर्तव्य-कर्मोंका पालन स्वयं करते रहना चाहिये (गीता—तीसरे अध्यायका उन्नीसवाँ श्लोक) और दूसरोंको भी कर्मयोगकी शिक्षा देकर लोकसंग्रह करते रहना चाहिये; पर स्वयं उनसे निर्लिप्त (निष्काम, निर्मम और अनासक्त) रहना चाहिये।
 सृष्टिमें सूर्य सबके आदि हैं। सृष्टिकी रचनाके समय भी सूर्य जैसे पूर्वकल्पमें थे, वैसे ही प्रकट हुए—'सूर्याचन्द्रमसौ धातायथापूर्वमकल्पयत्’। उन (सबके आदि) सूर्यको भगवान्ने अविनाशी कर्मयोगका उपदेश दिया। इससे सिद्ध हुआ कि भगवान् सबके आदिगुरु हैं और साथ ही कर्मयोग भी अनादि है। भगवान् अर्जुनसे मानो यह कहते हैं कि मैं तुम्हें जो कर्मयोगकी बात बता रहा हूँ, वह कोई आजकी नयी बात नहीं है। जो योग सृष्टिके आदिसे अर्थात् सदासे है, उसी योगकी बात मैं तुम्हें बता रहा हूँ।
 प्रश्नभगवान्ने सृष्टिके आदिकालमें सूर्यको कर्म- योगका उपदेश क्यों दिया?
 उत्तर(१) सृष्टिके आरम्भमें भगवान्ने सूर्यको ही कर्मयोगका वास्तविक अधिकारी जानकर उन्हें सर्वप्रथम इस
योगका उपदेश दिया।
 (२) सृष्टिमें जो सर्वप्रथम उत्पन्न होता है, उसे ही उपदेश दिया जाता है; जैसे—ब्रह्माजीने सृष्टिके आदिमें प्रजाओंको उपदेश दिया (गीता—तीसरे अध्यायका दसवाँ श्लोक)। उपदेश देनेका तात्पर्य है—कर्तव्यका ज्ञान कराना। सृष्टिमें सर्वप्रथम सूर्यकी उत्पत्ति हुई, फिर सूर्यसे समस्त लोक उत्पन्न हुए। सबको उत्पन्न करनेवाले१ सूर्यको सर्वप्रथम कर्मयोगका उपदेश देनेका अभिप्राय उनसे उत्पन्न सम्पूर्ण सृष्टिको परम्परासे कर्मयोग सुलभ करा देना था।
 (३) सूर्य सम्पूर्ण जगत्के नेत्र हैं। उनसे ही सबको ज्ञान प्राप्त होता है एवं उनके उदित होनेपर प्राय: समस्त प्राणी जाग्रत् हो जाते हैं और अपने-अपने कर्मोंमें लग जाते हैं। सूर्यसे ही मनुष्योंमें कर्तव्य-परायणता आती है। सूर्यको सम्पूर्ण जगत्की आत्मा भी कहा गया है—'सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च।’ अत: सूर्यको जो उपदेश प्राप्त होगा, वह सम्पूर्ण प्राणियोंको भी स्वत: प्राप्त हो जायगा। इसलिये भगवान्ने सर्वप्रथम सूर्यको ही उपदेश दिया।
 वास्तवमें नारायणके रूपमें उपदेश देना और सूर्यके रूपमें उपदेश ग्रहण करना जगन्नाट्यसूत्रधार भगवान्की एक लीला ही समझनी चाहिये, जो संसारके हितके लिये बहुत आवश्यक थी। जिस प्रकार अर्जुन महान् ज्ञानी नर-ऋषिके अवतार थे; परन्तु लोकसंग्रहके लिये उन्हें भी उपदेश लेनेकी आवश्यकता हुई, ठीक उसी प्रकार भगवान्ने स्वयं ज्ञानस्वरूप सूर्यको उपदेश दिया, जिसके फलस्वरूप संसारका महान् उपकार हुआ है, हो रहा है और होता रहेगा।
 'विवस्वान् मनवे प्राहमनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्— कर्मयोग गृहस्थोंकी खास विद्या है। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास—इन चारों आश्रमोंमें गृहस्थ- आश्रम ही मुख्य है; क्योंकि गृहस्थ-आश्रमसे ही अन्य आश्रम बनते और पलते हैं। मनुष्य गृहस्थ-आश्रममें रहते हुए ही अपने कर्तव्य-कर्मोंका पालन करके सुगमतापूर्वक परमात्मप्राप्ति कर सकता है। उसे परमात्मप्राप्तिके लिये आश्रम बदलनेकी जरूरत नहीं है। भगवान्ने सूर्य, मनु, इक्ष्वाकु आदि राजाओंका नाम लेकर यह बताया है कि कल्पके आदिमें गृहस्थोंने ही कर्मयोगकी विद्याको जाना और गृहस्थाश्रममें रहते हुए ही उन्होंने कामनाओंका नाश करके परमात्म-तत्त्वको प्राप्त किया। स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन भी गृहस्थ थे। इसलिये भगवान् अर्जुनके माध्यमसे मानो सम्पूर्ण गृहस्थोंको सावधान (उपदेश) करते हैं कि तुमलोग अपने घरकी विद्या 'कर्मयोग’ का पालन करके घरमें रहते हुए ही परमात्माको प्राप्त कर सकते हो, तुम्हें दूसरी जगह जानेकी जरूरत नहीं है।
 गृहस्थ होनेपर भी अर्जुन प्राप्त कर्तव्य-कर्म-(युद्ध-) को छोड़कर भिक्षाके अन्नसे जीविका चलानेको श्रेष्ठ मानते हैं (गीता—दूसरे अध्यायका पाँचवाँ श्लोक) अर्थात् अपने कल्याणके लिये गृहस्थ-आश्रमकी अपेक्षा संन्यास- आश्रमको श्रेष्ठ समझते हैं। इसलिये उपर्युक्त पदोंसे भगवान् मानो यह बताते हैं कि तुम भी राजघरानेके श्रेष्ठ गृहस्थ हो, कर्मयोग तुम्हारे घरकी खास विद्या है, इसलिये इसीका पालन करना तुम्हारे लिये श्रेयस्कर है। संन्यासीके द्वारा जो परमात्मतत्त्व प्राप्त किया जाता है, वही तत्त्व कर्मयोगी गृहस्थाश्रममें रहकर भी स्वाधीनतापूर्वक प्राप्त कर सकता है। अत: कर्मयोग गृहस्थोंकी तो मुख्य विद्या है, पर संन्यास
आदि अन्य आश्रमवाले भी इसका पालन करके परमात्म- तत्त्वको प्राप्त कर सकते हैं। प्राप्त परिस्थितिका सदुपयोग ही कर्मयोग है। अत: कर्मयोगका पालन किसी भी वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय, देश, काल आदिमें किया जा सकता है।
 किसी विद्यामें श्रेष्ठ और प्रभावशाली पुरुषोंका नाम लेनेसे उस विद्याकी महिमा प्रकट होती है, जिससे दूसरे लोग भी वैसा करनेके लिये उत्साहित होते हैं। जिन लोगोंके हृदयमें सांसारिक पदार्थोंका महत्त्व है, उनपर ऐश्वर्यशाली राजाओंका अधिक प्रभाव पड़ता है। इसलिये भगवान् सृष्टिके आदिमें होनेवाले सूर्यका तथा मनु आदि प्रभावशाली राजाओंके नाम लेकर कर्मयोगका पालन करनेकी प्रेरणा करते हैं।
विशेष बात
 क्रियाओं और पदार्थोंमें राग होनेसे अर्थात् उनके साथ अपना सम्बन्ध माननेसे कर्मयोग नहीं हो पाता। गृहस्थमें रहते हुए भी सांसारिक भोगोंसे अरुचि (उपरति अथवा कामनाका अभाव) होती है। किसी भी भोगको भोगें, अन्तमें उस भोगसे अरुचि अवश्य उत्पन्न होती है—यह नियम है। आरम्भमें भोगकी जितनी रुचि (कामना) रहती है, भोग भोगते समय वह उतनी नहीं रह जाती, प्रत्युत क्रमश: घटते-घटते समाप्त हो जाती है; जैसे—मिठाई खानेके आरम्भमें उसकी जो रुचि होती है, वह उसे खानेके साथ-साथ घटती चली जाती है और अन्तमें उससे अरुचि हो जाती है। परन्तु मनुष्य भूल यह करता है कि वह उस अरुचिको महत्त्व देकर उसे स्थायी नहीं बनाता। वह अरुचिको ही तृप्ति (फल) मान लेता है। परन्तु वास्तवमें अरुचिमें थकावट अर्थात् भोगनेकी शक्तिका अभाव ही होता है।
 जिस रुचि या कामनाका किसी भी समय अभाव होता है, वह रुचि या कामना वास्तवमें स्वयंकी नहीं होती। जिससे कभी भी अरुचि होती है, उससे हमारा वास्तविक सम्बन्ध नहीं होता। जिससे हमारा वास्तविक सम्बन्ध है, उस सत्-स्वरूप परमात्मतत्त्वकी ओर चलनेमें कभी अरुचि नहीं होती, प्रत्युत रुचि बढ़ती ही जाती है—यहाँतक कि परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति होनेपर भी 'प्रेम’के रूपमें वह रुचि बढ़ती ही रहती है। 'स्वयं’ भी सत्-स्वरूप है, इसलिये अपने अभावकी रुचि भी किसीकी नहीं होती।
 कर्म, करण (शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदि) और उपकरण (पदार्थ अर्थात् कर्म करनेमें उपयोगी सामग्री)—ये तीनों ही उत्पन्न और नष्ट होनेवाले हैं, फिर इनसे मिलनेवाला फल कैसे नित्य होगा? वह तो नाशवान् ही होगा। अविनाशीकी प्राप्तिसे जो तृप्ति होती है, वह नाशवान् फलकी प्राप्तिसे कैसे हो सकती है? इसलिये साधकको कर्म, करण और उपकरण—तीनोंसे ही सम्बन्ध-विच्छेद करना है। इनसे सम्बन्ध-विच्छेद तभी होगा, जब साधक अपने लिये कुछ नहीं करेगा, अपने लिये कुछ नहीं चाहेगा और अपना कुछ नहीं मानेगा; प्रत्युत अपने कहलानेवाले कर्म, करण और उपकरण—इन तीनोंसे अपना सम्बन्ध-विच्छेद करनेके लिये इन्हें संसारका ही मानकर संसारकी ही सेवामें लगा देगा।
 कर्म करते हुए भी कर्मयोगीकी कर्मोंमें कामना, ममता और आसक्ति नहीं होती, प्रत्युत उनमें प्रीति और तत्परता होती है। कामना, ममता तथा आसक्ति अपवित्रता करने- वाली हैं और प्रीति तथा तत्परता पवित्रता करनेवाली हैं। कामना, ममता तथा आसक्तिपूर्वक किसी भी कर्मको करनेसे अपना पतन और पदार्थोंका नाश होता है तथा उस कर्मकी बार-बार याद आती है अर्थात् उस कर्मसे सम्बन्ध बना रहता है। परन्तु प्रीति तथा तत्परतापूर्वक कर्म करनेसे अपनी उन्नति और पदार्थोंका सदुपयोग होता है, नाश नहीं; तथा उस कर्मकी पुन: याद भी नहीं आती अर्थात् उस कर्मसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। इस प्रकार कर्मोंसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होते ही नित्यप्राप्त स्वरूप अथवा परमात्मतत्त्वका अनुभव हो जाता है।
 कोई भी मनुष्य क्यों न हो, वह सुगमतापूर्वक मान सकता है कि जो कुछ मेरे पास है, वह मेरा नहीं है, प्रत्युत किसीसे मिला हुआ है; जैसे—शरीर माता-पितासे मिला है, विद्या-योग्यता गुरुजनोंसे मिली है, इत्यादि। तात्पर्य यह कि एक-दूसरेकी सहायतासे ही सबका जीवन चलता है। धनी-से-धनी व्यक्तिका जीवन भी दूसरेकी सहायताके बिना नहीं चल सकता। हमने किसीसे लिया है तो किसीको देना, किसीकी सहायता करना, सेवा करना हमारा भी परम कर्तव्य है। इसीका नाम कर्मयोग है। इसका पालन मनुष्यमात्र कर सकता है और इसके पालनमें कभी लेशमात्र भी असमर्थता तथा पराधीनता नहीं है।
 कर्तव्य उसे कहते हैं, जिसे सुखपूर्वक कर सकते हैं, जिसे अवश्य करना चाहिये अर्थात् जो करनेयोग्य है और जिसे करनेसे उद्देश्यकी सिद्धि अवश्य होती है। जो नहीं कर सकते, उसे करनेकी जिम्मेवारी किसीपर नहीं है और जिसे नहीं करना चाहिये, उसे करना ही नहीं है। जिसे नहीं करना चाहिये, उसे न करनेसे दो अवस्थाएँ स्वत: आती हैं—निर्विकल्प अवस्था अर्थात् कुछ न करना अथवा जिसे करना चाहिये, उसे करना।कर्तव्य सदा निष्कामभावसे एवं परहितकी दृष्टिसे किया जाता है। सकामभावसे किया गया कर्म बन्धनकारक होता है, इसलिये उसे करना ही नहीं है। निष्कामभावसे किया जानेवाला कर्म फलकी कामनासे रहित होता है, उद्देश्यसे रहित नहीं। उद्देश्यरहित चेष्टा तो पागलकी होती है। फल और उद्देश्य—दोनोंमें अन्तर होता है। फल उत्पन्न और नष्ट होनेवाला होता है, पर उद्देश्य नित्य होता है। उद्देश्य नित्यप्राप्त परमात्माके अनुभवका होता है, जिसके लिये मनुष्यजन्म हुआ है। अपने कर्तव्यका पालन न करनेसे उस परमात्माका अनुभव नहीं होता। सकामभाव, प्रमाद, आलस्य आदि रहनेसे अपने कर्तव्यका पालन कठिन प्रतीत होता है।
 वास्तवमें कर्तव्य-कर्मका पालन करनेमें परिश्रम नहीं है। कर्तव्य-कर्म सहज, स्वाभाविक होता है; क्योंकि यह स्वधर्म है। परिश्रम तब होता है, जब अहंता, आसक्ति, ममता, कामनासे युक्त होकर अर्थात् 'अपने लिये’ कर्म करते हैं। इसलिये भगवान्ने राजस कर्मको परिश्रमयुक्त बताया है (गीता—अठारहवें अध्यायका चौबीसवाँ श्लोक)।
 जैसे भगवान्के द्वारा प्राणिमात्रका हित होता है, ऐसे ही भगवान्की शक्ति भी प्राणिमात्रके हितमें निरन्तर लगी हुई है। जिस प्रकार आकाशवाणी-केन्द्रके द्वारा प्रसारित विशेष शक्तियुक्त ध्वनि सब जगह फैल जाती है, पर रेडियोके द्वारा जिस नंबरपर उस ध्वनिसे एकता (सजातीयता) होती है, उस नंबरपर वह ध्वनि पकड़में आ जाती है। इसी प्रकार जब कर्मयोगी स्वार्थभावका त्याग करके केवल संसारमात्रके हितके भावसे ही समस्त कर्म करता है, तब भगवान्की सर्वव्यापी हितैषिणी शक्तिसे उसकी एकता हो जाती है और उसके कर्मोंमें विलक्षणता आ जाती है। भगवान्की शक्तिसे एकता होनेसे उसमें भगवान्की शक्ति ही काम करती है और उस शक्तिके द्वारा ही लोगोंका हित होता है। इसलिये कर्तव्य-कर्म करनेमें न तो कोई बाधा लगती है और न परिश्रमका अनुभव ही होता है।
 कर्मयोगमें पराश्रयकी भी आवश्यकता नहीं है। जो परिस्थिति प्राप्त हो जाय, उसीमें कर्मयोगका पालन करना है। कर्मयोगके अनुसार किसीके कार्यमें आवश्यकता पडऩेपर सहायता कर देना 'सेवा’ है; जैसे—किसीकी गाड़ी खराब हो गयी और वह उसे धक्का देनेकी कोशिश कर रहा है; अत: हम भी इस काममें उसकी सहायता करें, तो यह 'सेवा’ है। जो जानबूझकर कार्यको खोज-खोजकर सेवा करता है, वह कर्म करता है, सेवा नहीं; क्योंकि ऐसा करनेसे उसका उद्देश्य पारमार्थिक न रहकर लौकिक हो जाता है। सेवा वह है, जो परिस्थितिके अनुरूप की जाय। कर्मयोगी न तो परिस्थिति बदलता है और न परिस्थिति ढूँढ़ता है। वह तो प्राप्त परिस्थितिका सदुपयोग करता है। प्राप्त परिस्थितिका सदुपयोग ही कर्मयोग है।

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