/ "ईश्वर के साथ हमारा संबंध: सरल ज्ञान और अनुभव: 2019

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गुरुवार, 28 नवंबर 2019

पान वाले चूने से होते हैं हमारे शरीर को बहुत से फायदे----

                           चूने से होने वाले फायदे

 जब भी किसी को पीलिया हो जाए,  उसके सबसे अच्छी दवा है चुना। गेहूं के दाने के बराबर चूना ले लीजिए। गन्ने के रस में मिलाकर पिलाने से पीलिया में आराम मिल जाता है।

 गेहूं के दाने के बराबर चूना लीजिए, उसे दही में मिलाकर या दाल में मिलाकर, नहीं तो पानी के साथ मिला कर ले लीजिए शरीर में होने वाली कैल्शियम की कमी को दूर करता है। 50 की उम्र के बाद जिनको कैल्शियम की कमी हो जाती है, उन्हें गेंहू के दाने के बराबर  पानी में लेने से, कैल्शियम की कमी दूर हो जाती है ।जोड़ों का दर्द ठीक हो जाता है, और मासिक धर्म रुकने के बाद होने वाली सभी तरह की की परेशानियों से आराम मिल जाता है।एनीमिया की प्रॉब्लम हो तो चूने से आराम मिलता है।
 कई बार हमारी रीढ़ की हड्डियों में gape  पाया जाता है, वह भी चूने से आराम मिलता है। अनार के रस में गेहूं के दाने के बराबर चूना मिलाकर पीने से खून बहुत ज्यादा बढ़ता है। घुटने में घिसाव आ जाता है, उसके लिए भी चुना बहुत लाभकारी है। हारसिंगार का काढ़ा पीने से भी घुटने के घिसाव में आराम मिलता है। इसलिए चूने के बहुत फायदे हैं। अगर शुरू से ही चूना ,चावल या गेहूं के दाने के बराबर लिया जाए, हफ्ते में दो बार ले लीजिए । लंबे समय तक कभी भी कोई प्रॉब्लम नहीं आएगी।
चूना पान की  दुकान पर या ऑनलाइन भी मिल जाता है। ड्राई पाउडर ले लिया जाए ,तो उसे लंबे समय तक इस्तेमाल किया जा सकता है।

आप अकेले नहीं आपके आसपास कोई है जो कह रहा है मैं हूं ना और वह है हम सबके प्रभु

                                  मैं हूं ना

यह शब्द देखने में तो छोटे हैं ,लेकिन जब कोई अकेला और उदास होता है।तो इन शब्दों के मायने बढ़ जाते हैं। जब हम छोटे होते हैं और हमें किसी खिलौने की तलाश होती है, तो मां और पिता नजर आते हैं,, जो कह रहे होते हैं मैं हूं ना ।जब हमें एग्जाम में नोट्स की या स्टडी की जरूरत होती है ,तो दोस्त होते हैं करीबी ,जो कहते हैं मैं हूं ना। जब हमें जीवन में आगे बढ़ना होता है चाहे वह पढ़ाई का क्षेत्र हो, चाहे वह जॉब्स या व्यापार का, उस समय पिता सामने होते हैं ,जो कह रहे होते हैं- मैं हूं ना ।चिंता क्यों करते हो/ या करती हो। ऐसे ही जब हम बड़े हो जाते हैं तो माता-पिता साथ नहीं होते हैं, वह हमें छोड़कर जा चुके होते हैं । तो केवल और केवल एक ईश्वर का साथ ही होता है, जो हमें अकेले होने पर वह हमारा साथ देता है। उस पर अगर आपका विश्वास हो, और श्रद्धा हो,, तो ईश्वर हर मोड़ पर, हर जगह यही अहसास दिलाता है कि ,तू अकेला नहीं है मैं हूं ना। तो विश्वास को बनाकर रखिए। ईश्वर से जुड़े रहिए। तो आप कभी भी अकेले नहीं हो सकते- क्योंकि वह है ना। हमारे आसपास, हर पल ,हर समय।बस श्रद्धा  और विश्वास होना चाहिए।
जय श्री राधे🙏

बुधवार, 27 नवंबर 2019

क्या आप जल्दी ही सभी दुखों से मुक्ति चाहते हैं तो श्री रामायण मनका 108 का हफ्ते में एक बार पाठ जरूर करें।

     जिनके पास पूरी रामायण पढ़ने का समय नहीं है, वह यह रामायण मनका पढ़कर लाभ उठा सकते हैं।                                                       श्री रामायण मनका 108

रघुपति राघव राजाराम। पतित पावन सीताराम।।
जय रघुनंदन जय घनश्याम। पतित पावन सीताराम।।
भीड़ पड़ी जब भक्त पुकारे। दूर करो प्रभु दुख हमारे।।
दशरथ के घर जन्मे राम। पतित पावन सीताराम।।
विश्वामित्र मुनीश्वर आये। दशरथ भूप से वचन सुनाए।।
संग में भेजें लक्ष्मण राम। पतित पावन सीताराम।।
वन में जाए ताड़का मारी। चरण छू आए अहिल्या तारी।।
ऋषियों के दुख हरते राम। पतित पावन सीताराम।
जनकपुरी रघुनंदन आए। नगर निवासी दर्शन पाए।।
सीता के मन भाए राम। पतित पावन सीताराम।।
रघुनंदन ने धनुष चढ़ाया। सब राजों का मान घटाया।।
सीता ने वर पाए राम। पतित पावन सीताराम।।
परशुराम क्रोधित हो आए। दुष्ट भूप में मन में हरषायें।।
जनक राय ने किया प्रणाम। पतित पावन सीताराम।।
बोले लखन सुनो मुनि ज्ञानी। संत नहीं होती अभिमानी।।
मीठी वाणी बोले राम। पतित पावन सीताराम।।
लक्ष्मण वचन ध्यान मत दीजो। जो कुछ दंड दास को दीजो।।
धनुष तुड़इया मै हूं राम। पतित पावन सीताराम।।
लेकर के यह धनुष चढ़ाओं। अपनी शक्ति मुझे दिखाओ।। छुवत चाप चढ़ाए राम। पतित पावन सीताराम।।
हुई उर्मिला लखन की नारी।श्रुति कीर्ति रिपुसूदन प्यारी।।
हुई मांडवी भरत केबाम।पतित पावन सीता राम।।
अवधपुरी रघुनंदन आए घर घर नारी मंगल गायें।।
12 वर्ष बिताए राम। पतित पावन सीताराम।।
गुरु वशिष्ट से आज्ञा लीनी।  राज तिलक तैयारी कीनी।।
कल को होंगे राजाराम। पतित पावन सीताराम।।
कुटिल मंथरा ने बहकाई। कैकई ने यह बात सुनाई।।
दे दो मेरे दो वरदान। पतित पावन सीताराम।।
मेरी विनती  तुम सुन ली जो। भरत पुत्र को गद्दी दीजो।।
होत प्रात वन भेजो राम। पतित पावन सीताराम।।
धरनी गिरे भूप तत्काल। लगा दिल में शूल विशाल।।
तब सुमंत बुलवाएं राम। पतित पावन सीता राम।।
राम पिता को शीश नवाए। मुख से वचन कहा नहीं जाए।।
कैकई वचन सुनायो राम। पतित पावन सीताराम।।
राजा के तुम प्राणों प्यारे। इनके दुख हरोगे सारे।।
अब तुम वन में जाओ राम। पतित पावन सीता राम।।
वन में 14 वर्ष बिताओ ।रघुकुल रीत नीति अपनाओ।।
आगे इच्छा तुम्हरी राम। पतित पावन सीता राम।।
सुनत वचन राघव हर्षाए। माता जी के मंदिर आए।।
चरण कमल में किया प्रणाम। पतित पावन सीताराम।।
माताजी में तो वन जाऊं।14 वर्ष बाद फिर आऊँ।।
चरण कमल देखूँ सुखधाम। पतित पावन सीताराम।।
सुनी शूल सम जब यह बानी। भू पर गिरी कौशिला रानी।।
धीरज बना रहे श्री राम। पतित पावन सीता राम।।
सीता जी जब यह सुन पाई ।रंग महल से नीचे आई।
कौशल्या को किया प्रणाम। पतित पावन सीताराम।।
मेरी चूक क्षमा कर दीजो। वन जाने की आज्ञा दीजो।।
सीता को समझाते राम। पतित पावन सीताराम।।
मेरी सीख सिया सुन लीजो। सास-ससुर की सेवा कीजो।। मुझको भी होगा विश्राम। पतित पावन सीताराम।।
मेरा दोष बता प्रभु दीजो। संग मुझे सेवा मे लीजो।।
अर्धांगिनी तुम्हारी राम। पतित पावन सीताराम।।
समाचार सुनि लक्षमण आए। धनुष बाण संग परम सुहाए।। बोले संग चलूंगा श्री राम। पतित पावन सीताराम।।
राम लखन मिथिलेश कुमारी। वन जाने की करी तैयारी।।
रथ में बैठ गए सुखधाम। पतित पावन सीताराम।।
अवधपुरी के सब नर नारी। समाचार  सुन व्याकुल भारी।। मचा अवध में अति कोहराम। पतित पावन सीताराम।। श्रृंगवेरपुर रघुवर आए। रथ को अवधपुरी लौटाए।।
गंगा तट पर आए राम। पतित पावन सीता राम।।
केवट कहे चरण धूल वाओ। पीछे नौका में चढ़ जाओ।।
पत्थर कर दी नारी राम। पतित पावन सीताराम।।
लाया एक कठोता पानी। चरण कमल धोए सुखमानी।।
नाव चढ़ाए लक्ष्मण राम। पतित पावन सीताराम।।
उतराई में मुद्री दीन्ही। केवट ने यह विनती कीन्ही।।
उतराई नहीं लूंगा राम। पतित पावन सीताराम।।
तुम आए हम घाट उतारे। हम आएंगे घाट तुम्हारे।।
तब तुम पार लगाओ राम। पतित पावन सीताराम।।
भारद्वाज आश्रम पर आए ।राम लखन ने शीश नवाए।।
एक रात कीन्हा विश्राम।  पतित पावन सीताराम।।
भाई भरत अयोध्या आए।  कैकई को कटु वचन सुनाए।।
क्यों तुमने वन भेजे राम। पतित पावन सीताराम।।
चित्रकूट रघुनंदन आए।वन को देख सिया सुख पाए।।
मिलें भरत से भाई राम। पतित पावन सीता राम।।
अवधपुरी को चलिए भाई ।यह सब कैकई की कुटीलाई ।।तनिक दोष नहीं मेरा राम ।पतित पावन सीता राम।।
चरण पादुका तुम ले जाओ। पूजा कर दर्शन फल पावो।।
भरत को कंठ लगाए राम ।पतित पावन सीताराम।।
आगे चले राम रघुराई। निशाचर को वशं मिटाया।।
ऋषियों के हुए पूर्ण काम। पतित पावन सीताराम ।।
अनसूया की कुटिया आए ।दिव्य वस्त्र सीता माँ ने पाए।।
था यह  अत्रि  मुनि  का  धाम। पतित पावन सीताराम।।
मुनि स्थान आए रघुराई। सुपनखा की नाक कटाई।।
खर दूषण को मारे राम। पतित पावन सीताराम।।
पंचवटी रघुनंदन आए। कनक मृगा के संग में धाए।।
लक्ष्मण तुम्हें बुलाते राम। पतित पावन सीताराम।।
रावण साधु वेश में आया। भूख ने मुझको बहुत सताया।। भिक्षा दो यह धर्म का काम। पतित पावन सीताराम।।
भिक्षा लेकर सीता आई। हाथ पकड़ रथ में बैठाई।।
सुनी कुटिया देखी राम ।पतित पावन सीताराम।।
धरनी गिरे राम रघुराई। सीता के बिन व्याकुलता आई।।
हे प्रिय सीते,चीखे राम। पतित पावन सीताराम।।
लक्ष्मण, सीता छोड़ ना आते। जनक दुलारी को नहीं गवांते।। बने बनाए बिगड़े काम। पतित पावन सीताराम।।
कोमल बदन सुहासिनी सीते। तुम बिन व्यर्थ रहेंगे जीते।।
लगे चांदनी- जैसे घाम। पतित पावन सीताराम।।
सुन री मैना, सुन रे तोता। मैं भी पंखों वाला होता।।
वन वन लेता ढूंढ तमाम। पतित पावन सीताराम।।
श्यामा हिरनी तू ही बता दे । जनक नंदिनी मुझे मिला दे।।
तेरे जैसी आंखें श्याम ।पतित पावन सीताराम।।
वन वन ढूंढ रहे रघुराई। जनक दुलारी कहीं ना पाई।।
गिद्धराज ने किया प्रणाम। पतित पावन सीताराम।।
चखकर के फल शबरी लाई।प्रेम सहित खाए रघुराई।।
ऐसे मीठे नहीं है आम। पतित पावन सीताराम।।
विप्र रुप धरि हनुमंत आए।चरण कमल में शीश नवाए।।
कंधे पर बैठाए राम। पतित पावन सीताराम।।
सुग्रीव से करी मिताई। अपनी सारी कथा सुनाई।।
वाली पहुंचाया निजधाम ।पतित पावन सीताराम।।
सिहासन सुग्रीव बिठाया । मन में यह अति ही हर्षाया।।
वर्षा ऋतु आई है राम।पतित पावन सीताराम।।
हे भाई लक्ष्मण तुम जाओ। वानर पति को यू समझाओ।। सीता बिन व्याकुल है राम। पतित पावन सीताराम।।
देश देश वानर भिजवाई ।सागर के सब तट पर आए।।
सहते भूख प्यास और घाम।पतित पावन सीताराम।।
संपाती ने पता बताया। सीता को रावण ले आया।।
सागर कूद गए हनुमान। पतित पावन सीताराम।।
कोने कोने पता लगाया। भगत विभीषण का घर पाया।
हनुमान ने किया प्रणाम ।पतित पावन सीताराम।।
अशोक वाटिका हनुमान आए।वृक्ष तलें सीता को पाएं।।
आंसू बरसे आठो याम ।पतित पावन सीताराम।।
रावण संग निशाचरी लाके। सीता को बोला समझा के।।
मेरी ओर तो देखो बाम ।पतित पावन सीताराम।।
मंदोदरी बना दूं दासी। सेवा में सब लंका वासी।।
करो भवन चलकर विश्राम। पतित पावन सीताराम।।
चाहे मस्तक कटे हमारा। मैं देखूं ना बदन तुम्हारा।।
 मेरे तन मन धन है राम। पतित पावन सीताराम।।
ऊपर से मुद्रिका गिराई ।सीता जी ने कंठ लगाई।।
हनुमान ने किया प्रणाम। पतित पावन सीताराम।।
मुझको भेजा है रघुराया। सागर कूद यँहा में आया।।
मैं हूं दास राम हनुमान।पतित पावन सीताराम।।
भूख लगी फल खाना चाँहू।जो माता की आज्ञा पाऊं।।
सबके स्वामी है श्री राम। पतित पावन सीताराम।।
सावधान होकर फल खाना।रख वालों को भूल ना जाना।। निशाचरों का है यह धाम। पतित पावन सीताराम।।
हनुमान ने वृक्ष उखाड़े।देख देख माली ललकारे।।
मार मार पहुंचाए धाम। पतित पावन सीताराम।।
अक्षय कुमार को स्वर्ग पहुंचाया। इंद्रजीत फांसी ले आया।। ब्रहम फाँस में फँसे हनुमान। पतित पावन सीताराम।।
सीता को तुम लुटा दीजो। उनसे क्षमा याचना कीजो।।
तीन लोक के स्वामी राम। पतित पावन सीताराम।।
भगत विभीषण ने समझाया। रावण ने उस को धमकाया।।
सन्मुख देख रहे हनुमान। पतित पावन सीताराम।।
रुई तेल घृत वसन मँगाई। पूछ बांधकर आग लगाई है।।
पूंछ घुमाई है हनुमान। पतित पावन सीता राम।।
लंका में आग लगाई। सागर में जा पूछ बुझाई।।
हृदय कमल में राखे राम। पतित पावन सीताराम।।
सागर कूद लौट कर आए। समाचार रघुवर ने पाए।।
जो मांगा सो दिया इनाम। पतित पावन सीताराम।।
वानरी रीछ संग में लाए।लक्ष्मण सहित सिंधु तटआए।।
लगे सुखाने सागर राम। पतित पावन सीताराम।।
सेतु कपि नल नील बनावे।राम राम लिख सिला तेरावें।।
लंका पहुंचे राजाराम। पतित पावन सीताराम।।
अंगद चल लंका में आया। सभा बीच में पांव जमाया।।
बाली पुत्र महाबल धाम।पतित पावन सीता राम।।
रावण पांव हटाने आया।अंगद ने फिर पांव उठाया।।
क्षमा करे तुझको श्री राम। पतित पावन सीताराम।।
निशाचरों की सेना आई।गरज़ गरज़ फिर हुई लड़ाई।।
वानर बोले जय सिया राम। पतित पावन सीताराम।।
इंद्रजीत ने शक्ति चलाई। धनी गिरे लखन मुरझाए।।
चिंता करके रोए राम। पतित पावन सीता राम।।
जब मैं अवधपुरी से आया। हाय पिता ने प्राण गंवाया।।
बन में गई चुराई बाम। पतित पावन सीताराम।।
भाई तुमने भी छिटकाया। जीवन में कुछ सुख नहीं पाया।। सेना में भारी कोहराम।पतित पावन सीताराम।।
जो संजीवनी बूटी को लाए। तो भाई जीवित हो जाए।।
बूटी लाए तब हनुमान।पतित पावन सीताराम।।
जब बूटी का पता ना पाया। पर्वत ही ले कर के आया।।
काल नेम पहुंचाया धाम। पतित पावन सीता राम।।
भक्त भरत ने बाण चलाया।चोट लगी हनुमत लंगडाया।।
मुख से बोले जय सिया राम। पतित पावन सीता राम।।
बोले भरत बहुत पछता कर। पर्वत सहित बाण बैठाकर।।
तुम्हें मिला दूं राजाराम। पतित पावन सीताराम।।
बूटी लेकर हनुमत आया।लखन लाल उठ शीश नवाया।। हनुमत कंठ लगाए राम।पतित पावन सीताराम।।
कुंभकरण उठ कर तब आया ।एक बाण से उसे गिराया।। इंद्रजीत पहुंचाया धाम।पतित  पावन सीताराम।।
दुर्गा पूजन रावण कीनो। 9 दिन तक आहार न लीनो।।
आसन बैठ किया है ध्यान। पतित पावन सीता राम।।
रावण का व्रत खंडित कीना। परमधाम पहुंचा ही देना।।
वानर बोले जय सियाराम।पतित पावन सीताराम।।
सीता ने हरी दर्शन कीना। चिंता शोक सभी तज दीना।।
हंस कर बोले राजाराम। पतित पावन सीताराम।।
पहले अग्निपरीक्षा पाओ। पीछे निकट हमारे आओ।।
तुम हो पतिव्रता हे बाम। पतित पावन सीताराम।।
करी परीक्षा कंठ लगाई।सब वानर सेना हरषाई।।
राज्य विभीषण दीना राम। पतित पावन सीताराम।।
फिर पुष्पक विमान मंगवाया। सीता सहित बैठे रघुराया।। दंडक वन में उतरे राम। पतित पावन सीताराम।।
ऋषिवर सुन दर्शन को आए। स्तुति कर मन में हर्ष आए।।
तब गंगा तट आए राम। पतित पावन सीताराम।।
नंदीग्राम पवनसुत आए। भगत भरत को वचन सुनाए।।
लंका से आए हैं राम। पतित पावन सीता राम।।
कहो विप्र तुम कहाँ से आए। ऐसे मीठे वचन सुनाएं।।
मुझे मिला दो भैया राम। पतित पावन सीताराम।।
अवधपुरी रघुनंदन आए ।मंदिर मंदिर मंगल छायो।।
माताओं को किया प्रणाम। पतित पावन सीताराम।।
भाई भरत को गले लगाया। सिहासन बैठे रघुराया।।
जग ने कहा राजा राम । पतित पावन सीताराम।
सब भूमि विप्रो को दीनी।विप्रो ने वापस दे दीन्ही।।
हम तो भजेंगे राजाराम।पतित पावन सीताराम।।
लव कुश हुए दो भाई ।धीर वीर ज्ञानी बलवान।।
जय सियाराम ,जय सियाराम ,जय सियाराम ,जय सियाराम पतित पावन सीताराम, जय सियाराम, जय सियाराम ,पतित पावन सीताराम ,जय सियाराम, जय सियाराम ,पतित पावन सीताराम, जय सियाराम, जय सियाराम ,जय सियाराम( यहां पर हम श्री राम जी और सीता जी के विरह के विषय में बात नहीं करेंगे क्योंकि वह क्षण मुझे पसंद नहीं है।)
"यह माला पूरी हुई मनका 108, मनोकामना पूर्ण हो नित्य करे जो पाठ।।"

रविवार, 24 नवंबर 2019

गुरु गीता से लाभ

                            गुरु गीता से लाभ  

जब हम गुरु गीता का पाठ करते हैं तो बस हम उसे पढ़ ही नहीं रहे होते बल्कि हम अपने अंतर में श्री गुरु की पूजा कर रहे होते हैं। गुरु गीता, गुरु की चैतन्य मंत्र- देह है। गुरु गीता के प्रत्येक अक्षर में श्री गुरु का वास है। हम गुरु पूजा ही कर रहे होते हैं।
 स्वामी मुक्तानंद

स्वंय शास्त्रों का व ग्रंथों का अध्ययन करने से क्या लाभ होता है?

              स्वाध्याय का अर्थ श्री गुरु के शब्दों में

जब तुम शास्त्रों का पाठ करते हो या सिद्ध जनों द्वारा रचित ग्रंथ पढ़ते हो  , तो तुम सकारात्मक ऊर्जा का एक भंडार बना लेते हो । तुम एक अत्यंत उत्थान कारी वातावरण का निर्माण कर लेते हो । तुम अपने अस्तित्व की समस्त कोशिकाओं को शुद्ध कर लेते हो। पवित्र ग्रंथों का नित्य पाठ करना, पवित्र नदियों में स्नान करने जैसा है। यह मन को तरोताजा करता है, वाणी को निर्मल कर देता है और तुम्हें शक्ति से भर देता है।    - गुरुमाई चिद्विलासानंद

सोमवार, 18 नवंबर 2019

मंत्रधुन का महत्व

                                 मंत्रधुन


जब तुम बहुत समय तक निरंतर मंत्र धुन गाते हो तो तुम मंत्र की अग्नि को उत्पन्न कर रहे हो, जो तुम्हारी संपूर्ण सत्ता में फैल जाती है।
 - गुरुमाई चिद्विलासान्नद
इसलिए जब कभी कुछ विपदा हो, कुछ संकट हो, मन निराश हो ,चारों ओर निराशा ही निराशा नजर आ रही हो। तो जो भी मंत्र आपको पसंद है ।जिस मंत्र से भी आपके मन को शांति मिलती है। उस मंत्र को आप जरूर सुनिए, घर में ऑडियो क्लिप के द्वारा या वीडियो के द्वारा घर में चला दीजिए। जब आपके घर में वह मंत्र प्रतिदिन चलता रहेगा ,तो आप महसूस करेंगे ,धीरे-धीरे आपके मन में और आपके घर में और आपके जीवन में शांति आ रही है। एक बार करके जरुर देखिएगा। मंत्र जब घर में चलता है ,तो आपके दिमाग में जो नकारात्मक सोच होती है, और जो आपके जीवन में, आपके विचार में नकारात्मक सोच होती है। वह धीरे-धीरे खत्म हो जाती है और आपके अंदर विश्वास पैदा हो जाता है और यही विश्वास आपको हर संकट में लड़ने की शक्ति प्रदान करता है।
राम राम

रविवार, 17 नवंबर 2019

मनन के लिए श्री गुरु के शब्द

                       मनन के लिए श्री गुरु के शब्द

सेवा का अर्थ है ,बिना किसी अपेक्षा या शर्त के अपना समय और अपनी शक्ति अर्पित करना और इस तरह से,
पूर्ण स्वतंत्रता के साथ काम कर पाना।
सेवा का अर्थ है ,उच्चतम उद्देश्य के लिए कार्य करना,
दूसरे मनुष्य की योग्यता को पहचानते हुए कार्य करना और जीवन के मूल्यों को ध्यान में रखना।
सेवा का अर्थ है ,कार्य को ऐसे करना जैसे पूजा का एक रूप हो ,भगवान की महिमा गाने का
एक तरीका हो, परमोच्च प्रेम के लिए किया गया एक अर्पण हो ।
गुरु माई चिद्विलासानन्द

बुधवार, 6 नवंबर 2019

श्री राधा माधव के यवन भक्त श्री सनम साहब

        श्री राधा माधव के यवन भक्त श्री सनम साहब

भक्त  श्री सनम साहब जी का पूरा नाम था- मोहम्मद याकूब साहब। आपका जन्म सन् 1883 ईस्वी के लगभग अलवर में हुआ था। इनके पिता अजमेर के सरकारी अस्पताल के प्रधान चिकित्सक थे। इनकी मां एक पठान की पुत्री थी, फिर भी पूर्व जन्म के संस्कार वश उन्हें गोस्वामी श्री तुलसीदास कृत श्रीरामचरितमानस पढ़ने और गाने का शौक था। श्री राम जी की कृपा से उन्हें श्री रामचरितमानस के मूल ग्रंथ वाल्मीकि रामायण को पढ़ने की इच्छा हुई। किंतु पर्दे में रहने के कारण बाहर जाना नहीं हो सका। तो उन्होंने एक पंडित जी को घर बुलवाकर रामायण सुनने की इच्छा व्यक्त की। किंतु उसमें भी सफलता नहीं मिली । तब मां ने कहा- 'बेटे ,तुम संस्कृत पढ़ लो ।"पर कोई पंडित गोमांस तथा प्याज खाने वाले मुसलमान को संस्कृत पढ़ाने के लिए तैयार नहीं हुआ। माता पुत्र  ने निश्चय पूर्वक मांस आदि का त्याग कर दिया। फिर मां के कहने पर सनम साहब ने पंडित गंगा सहाय शर्मा से सारी बात बताई और उनकी अनुमति मिलने पर पंडित जी से संस्कृत पढी। भागवत आदि ग्रंथों के अध्ययन के पश्चात उनका चित्त श्री राधा माधव के प्रति आकृष्ट हो गया और उन्होंने अपने सुहृद्
भगवानदास भार्गव के माध्यम से ब्रिज के एक संत श्री सरस माधुरी- शरणजी से युगल मंत्र की दीक्षा प्राप्त की ।यद्यपि दीक्षा के उपरांत इनका नाम 'श्यामाशरण' हुआ फिर भी गुरुदेव इन्हें  स्नेहवश सनम कहते थे। सनम साहब के भगवत अनुराग तथा वैष्णवोचित वेश में क्रुद्ध धर्मांध मुसलमानों ने इनका भाँति-भाँति से अवकार किया। किंतु सर्वत्र यह भगवत कृपा से रक्षित होते रहे। इन्होंने श्री निकुंज लीलाओं के माधुरी से ओतप्रोत बहुत से पदों की रचना की तथा राधासुधानिधि एंव मधुराष्टकं का अंग्रेजी में अनुवाद किया। सरस सद्गुरुविलास आदि इनके स्व प्रणीत ग्रंथ है। इन्होंने हिंदी, बृज भाषा तथा अंग्रेजी में ग्रंथों का वर्णन किया है ।प्रसिद्ध कृष्ण भक्त अंग्रेज रोनाल्ड निक्सनने कृष्ण प्रेम की स्फूर्ति इन्हीं से प्राप्त की थी। श्री मालवीय जैसे प्रख्यात महापुरुषों के साथ सनम साहब का अति सोहार्दपूर्ण संबंध था इन्होंने अलवर में श्री कृष्ण लाइब्रेरी की स्थापना की। जिसमें लगभग 1200 कृष्ण भक्ति परक ग्रंथ संगृहीत है ।यह राधा अष्टमी आदि के अवसर पर उल्लास पूर्वक महोत्सव का आयोजन करते थे ।सनम साहब के भक्तिप्रवण चित्त में समय-समय पर राधा माधव की निकुंज लीलाओं की स्फूर्ति होती रहती थी। उन्हें दो बार राधा माधव का प्रत्यक्ष दर्शन भी हुआ था ।वे चाहते थे कि राधा माधव के श्री चरणों में ही उनका देहपात हो, वैसा हुआ भी,सन् 1945 में शरद पूर्णिमा के दिन उनकी इच्छा पूर्ण हुई। वृंदावन में एक स्थान पर रासलीला में सखियां गा रही थी- अनुपम माधुरी जोड़ी हमारे श्याम श्यामा की।
रसीली मद भरी अखियां हमारे श्याम श्यामा की।।
 कतीली भोंह अदा बाकी सुघर सूरत मधुर बतियां।
 लटक गर्दन की अनबँसिया हमारे श्याम श्यामा की।
*            *            *           *
 नहीं कुछ लालसा धन की, नहीं निर्वान की इच्छा ।
सखी श्यामा मिले सेवा हमारे श्याम श्यामा की।।
 उन्हीं सखियों के साथ स्वर मिलाकर गाते गाते सनम साहब ने श्याम श्यामा के श्री चरणों में सदा के लिए माथा टेक दिया। विस्मित अवाक् दर्शकों ने इनके भक्तिभाव एंव सौभाग्य की मुक्त कंठ से प्रशंसा की और प्रेमाश्रुपूरित नेत्रों से उन्हें अंतिम विदा दी ।
।।जय श्री राधे ,जय श्री श्याम, जय श्री कृष्णा।।

श्री कृष्ण दीवाने रसखान जी

                   श्री कृष्ण दीवाने रसखान जी

 हमारे बांके बिहारी कोई -ना -कोई  अहेतु की लीला करते ही रहते हैं। उनकी माया का कोई पार नहीं पा सकता, ना जाने कब किस पर रीझ जायँ, ना जाने कब किस जीव पर कृपा हो जाए। बुलाने पर तो वह कभी आते नहीं ,चाहे सिर पटक पटक कर मर जाए। ना तप से मिलते हैं, ना जप से, न ध्यान से ।यदि इन्हें इस प्रकार मिलना हो तो योगी, यति, ऋषि, ध्यान करते रहते हैं, परंतु यह उनकी ओर देखते तक नहीं। जब कृपा करते हैं, तो अचानक करते हैं।
 कृष्ण के दीवाने रसखान जी एक मुसलमान थे। एक बार की घटना है  वे अपने उस्ताद के साथ मक्का मदीना जा रहे थे। उनके उस्ताद ने कहा- देखो, रास्ते में हिंदुओं का तीर्थ वृंदावन आएगा ,वहां एक काला नाग रहता है। तू आगे- पीछे मत देखना ,नहीं तो वह तुझे डस लेगा, तू मेरे पीछे-पीछे चला आ।अपने दाएं- बाएं भी मत देखना, वरना जब मौका दिखेगा तुझेडँस लेगा।  बस रसखान जी के मन में एक उत्कंठा सी जाग गई ,क्या मुझे वहां काला नाग दिखाई देगा। वह यही सोचते जा रहे थे उनके लो लग गई, हमारी श्री बांके बिहारी से। फिर क्या था जैसे ही आप वृंदावन आए ,उस्ताद ने पुणः कहाँ, रसखान अब सावधानी से चलना यह हिंदुओं का तीर्थ है, यही वह काला नाग रहता है। उस्ताद का इतना कहना था कि हमारी लीलाधारी ने अपनी लीला आरंभ कर दी। कभी दाएं, कभी बाएं, मीठी मीठी बांसुरी का धुन बजाने शुरू कर दी ।दूसरी और नूपुर की मधुर झंकार होने लगी -सुनकर बेचारे रसखान जी मुक्त हो गए। दोनों और मधुर तान तथा झंकार सुनकर बौरा से गए, उनसे दाएं बाएं देखे बिना न रहा गया ।अंत में जब यमुना किनारे पहुंचे तो एक और देख ही तो लिया। वहां प्रिया जी के साथ श्री बांके बिहारी जी की सुंदर छवि के दर्शन किये और वह मोहित हो गए।भूल गए अपने उस्ताद को और निहारते ही रहे उस प्यारी छवि को। अपनी सुध बुध खो बैठे, अपना ध्यान ही ना रहा कि मैं कहां हूं, वही ब्रज में लोटपोट हो गए। उनके मुख से झाग निकल रहा था, वह तो ढूंढ रहे थे उस मनोहर छवि को, पर अब तक तो प्रभु जी  अंतर्ध्यान हो चुके थे ।
थोड़ी दूर जाकर उस्ताद जी ने पीछे मुड़कर देखा, रसखान दिखाई नहीं दिए। वापस आए ,रसखान की दशा देखकर समझ गए इसे वही काला नाग डस गया, अभी हमारे मतलब का नहीं रहा ।उस्ताद आगे बढ़ गए। होश आया तो वह प्यारी मनमोहक छवि ढूंढ रहे थे अपने चारों ओर सबसे पूछा सांवरा सलोना मूर्ति वाला अपनी बेगम के साथ कहां रहता है? कोई तो बता दो किसी ने बिहारी जी के मंदिर का पता बता दिया। वहां गए किसी ने अंदर जाने नहीं दिया। 3 दिन तक भूखे प्यासे वहीं पड़े रहे। तीसरे दिन बिहारी जी अपना प्रिय दूध- भात, चांदी के कटोरे में लेकर आए और अपने हाथ से खिलाया। प्रातःकाल लोगों ने देखा कटोरा पास में पड़ा है। रसखान जी के मुख पर दूध भात लगा हुआ है।  कटोरे पर बिहारी जी लिखा है। रसखान जी को उठाया, लोग उनके चरणों की रज़, माथे पर लगाने लगे। गली-गली गाते फिरते -बंसी बजा के, सूरत दिखा कर, क्यों कर लिया किनारा.... आज भी रसखान जी की मजार पर बहुत से लोग जाकर उनके दिव्य कृष्ण प्रेम की याद करते हैं।[ श्रीमती भगवती जी गोयल]

गुरुवार, 24 अक्तूबर 2019

अधिक चंचलता उचित नहीं है।

                     अधिक चंचलता उचित नहीं है

 प्राचीन काल की बात है सूर्यवंश  में शर्याती नाम के एक राजा थे ।उनके नगर के समीप ही मानसरोवर के समान एक सरोवर था । महर्षि भृगु का चयव्न  नामक एक बड़ा ही तेजस्वी पुत्र था। वह इस सरोवर के तट पर तपस्या करने लगा, वह मुनि कुमार बहुत समय तक वृक्ष के समान निश्चल रहकर एक ही स्थान पर विरासन में बैठे रहा, धीरे-धीरे अधिक समय बीतने पर उसका शरीर तृण और लताओं से ढक गया ।उस पर चीटियों ने अड्डा जमा लिया। ऋषि बांबी के रूप में दिखाई देने लगे ,वे चारों ओर से केवल मिट्टी का पिंड जान पड़ते थे। इस प्रकार बहुत काल व्यतीत होने के बाद एक दिन राजा शर्याति इस सरोवर पर क्रीडा करने के लिए आए उनकी 4 सहस्त्र सुंदर रानियां और एक सुंदर कन्या थी, उसका नाम सुकन्या था ।वह दिव्य गुणों से विभूषित कन्या अपनी सहेलियों के साथ विचरती   हुई उस चय्वन ऋषि के बांबी के पास पहुंच गई ,उसने उस बांबी के छिद्र में से चमकती हुई आंखों को देखा ,इससे उसे बड़ा कोतूहल हुआ, फिर बुद्धि भ्रमित हो जाने से उसने उन्हें कांटों से छेद दिया। इस प्रकार आंखें फूट जाने पर ऋषि को बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने शरियाती की सेना के मल मूत्र बंद कर दिए । मल मूत्र रुक जाने से सेना को बड़ा कष्ट हुआ। यह दशा देखकर राजा ने पूछा यहां निरंतर तपस्या में रत रहते हैं, उनका जाने किसने अपराध किया है। जिससे भी ऐसा हुआ हो वह बिना विलंब के तुरंत बता दे। राजा के ऐसा पूछने पर दुख से व्याकुल सेना ने कहा हम लोगों के द्वारा मन वाणी क्रम से मुनि का कुछ भी अपकार हुआ हो- इसे हम लोग नहीं जानते। जब सुकन्या को यह सब बात मालूम हुई तो उसने कहा मैं घूमती  एक बांबी के पास गई थी उसमें मुझे चमकता हुआ जीव दिखाई दिया था उसे मैंने बींध दिया। यह सुनकर शरियाती तुरंत उस बांबी के पास गए वहां उन्होंने  तपोवृद्ध और वयोवृद्ध चय्वन मुनि को देखा ,उन्होंने उनसे हाथ जोड़कर सेना को क्लेश मुक्त करने की प्रार्थना की और कहा कि भगवान अज्ञानवश इस बालिका से जो अपराध बन गया है उसे क्षमा करने की कृपा करें ।तब  भृगुनन्दन चय्वन ने राजा से कहा इस गवीली छोकरी ने अपमान करने के लिए ही मेरी आंख फोड़ी है अब मैं इसे पत्नी रुप में पाकर ही क्षमा कर सकता हूं ।अंधा हो जाने के कारण में असहाय हो गया हूं। इसे ही मेरी सेवा करनी होगी ।यह बात सुनकर राजा ने  बिना कोई विचार किए महात्मा चय्वन को अपनी कन्या दे दी। उस कन्या को पाकर प्रसन्न हो गए और उनकी कृपा से मुक्त हो राजा अपने नगर में लौट आए और राजकुमारी अपने पत्नि के नियमों का पालन करती हुई अपनी पति की सेवा करने लगी। इस प्रकार अपनी चंचलता के कारण सुकन्या को वन में निवास करना पड़ा और वृद्ध ऋषि से विवाह करना पड़ा ।अधिक चंचलता और बिना विचारी किया गया अविवेक पूर्ण कार्य दुखदाई होता है।

 (महाभारत वन- पर्व श्रीमद् देवी भागवत-सप्तम स्कन्ध)

सोमवार, 7 अक्तूबर 2019

क्या है चरणामृत का महत्व ?

              क्या है चरणामृत का महत्व ?????



अक्सर जब हम मंदिर जाते है तो पंडित जी हमें भगवान का चरणामृत देते है,क्या कभी हमने ये जानने की कोशिश की कि चरणामृतका क्या महत्व है, शास्त्रों में कहा गया है।

अकालमृत्युहरणं सर्वव्याधिविनाशनम्।
विष्णो: पादोदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते ।।

"अर्थात भगवान विष्णु के चरण का अमृत रूपी जल समस्त पाप -व्याधियों का शमन करने वाला है तथा औषधी के समान है।

जो चरणामृत पीता है उसका पुनः जन्म नहीं होता" जल तब तक जल ही रहता है जब तक भगवान के चरणों से नहीं लगता, जैसे ही भगवान के चरणों से लगा तो अमृत रूप हो गया और चरणामृत बन जाता है।

चरणामृत से सम्बन्धित एक पौराणिक गाथा काफी प्रसिद्ध है जो हमें श्रीकृष्ण एवं राधाजी के अटूट प्रेम की याद दिलाती है। कहते हैं कि एक बार नंदलाल काफी बीमार पड़ गए। कोई दवा या जड़ी-बूटी उन पर बेअसर साबित हो रही थी। तभी श्रीकृष्ण ने स्वयं ही गोपियों से एक ऐसा उपाय करने को कहा जिसे सुन गोपियां दुविधा में पड़ गईं।

श्रीकृष्ण हुए बीमार,,,,दरअसल श्रीकृष्ण ने गोपियों से उन्हें चरणामृत पिलाने को कहा। उनका मानना था कि उनके परम भक्त या फिर जो उनसे अति प्रेम करता है तथा उनकी चिंता करता है यदि उसके पांव को धोने के लिए इस्तेमाल हुए जल को वे ग्रहण कर लें तो वे निश्चित ही ठीक हो जाएंगे।लेकिन दूसरी ओर गोपियां और भी चिंता में पड़ गईं। श्रीकृष्ण उन सभी गोपियों के लिए बेहद महत्वपूर्ण थे, वे सभी उनकी परम भक्त थीं लेकिन उन्हें इस उपाय के निष्फल होने की चिंता सता रही थी।

उनके मन में बार-बार यह आ रहा था कि यदि उनमें से किसी एक गोपी ने अपने पांव के इस्तेमाल से चरणामृत बना लिया और कृष्णजी को पीने के लिए दिया तो वह परम भक्त का कार्य तो कर देगी। परन्तु किन्हीं कारणों से कान्हा ठीक ना हुए तो उसे नर्क भोगना पड़ेगा।

अब सभी गोपियां व्याकुल होकर श्रीकृष्ण की ओर ताक रहीं थी और किसी अन्य उपाय के बारे में सोच ही रहीं थी कि वहां कृष्ण की प्रिय राधा आ गईं। अपने कृष्ण को इस हालत में देख के राधा के तो जैसे प्राण ही निकल गए हों।जब गोपियों ने कृष्ण द्वारा बताया गया उपाय राधा को बताया तो राधा ने एक क्षण भी व्यर्थ करना उचित ना समझा और जल्द ही स्वयं के पांव धोकर चरणामृत तैयार कर श्रीकृष्ण को पिलाने के लिए आगे बढ़ी।

 राधा जानतीं थी कि वे क्या कर रही हैं। जो बात अन्य गोपियों के लिए भय का कारण थी ठीक वही भय राधा को भी मन में था लेकिन कृष्ण को वापस स्वस्थ करने के लिए वह नर्क में चले जाने को भी तैयार थीं।आखिरकार कान्हा ने चरणामृत ग्रहण किया और देखते ही देखते वे ठीक हो गए। क्योंकि वह राधा ही थीं जिनके प्यार एवं सच्ची निष्ठा से कृष्णजी तुरंत स्वस्थ हो गए।  अपने कृष्ण को निरोग देखने के लिए राधाजी ने एक बार भी स्वयं के भविष्य की चिंता ना की और वही किया जो उनका धर्म था।

इतिहास गवाह है इस बात का... राधा-कृष्ण का कभी विवाह ना हुआ लेकिन उनका प्यार इतना पवित्र एवं सच्चा था कि आज भी दोनों का नाम एक साथ लेने में भक्त एक क्षण भी संदेह महसूस नहीं करते। उनके भक्तों के लिए कृष्ण केवल राधा के हैं तथा राधा भी कृष्ण की ही हैं।

राधा-कृष्ण की इस कहानी ने चरणामृत को एक ऐतिहासिक पहलू तो दिया ही लेकिन आज भी चरणामृत को प्रभु का प्रसाद मानकर भक्तों में बांटा जाता है। पीतल के बर्तन में पीतल के ही चम्मच से, थोड़ा मीठा सा यह अमृत भक्तों के कंठ को पवित्र बनाता है।

जब भगवान का वामन अवतार हुआ, और वे राजा बलि की यज्ञ शाला में दान लेने गए तब उन्होंने तीन पग में तीन लोक नाप लिए जब उन्होंने पहले पग में नीचे के लोक नाप लिए और दूसरे में ऊपर के लोक नापने लगे तो जैसे ही ब्रह्म लोक में उनका चरण गया तो ब्रह्मा जी ने अपने कमंडलु में से जल लेकर भगवान के चरण धोए और फिर चरणामृत को वापस अपने कमंडल में रख लिया,वह चरणामृत गंगा जी बन गई, जो आज भी सारी दुनिया के पापों को धोती है, ये शक्ति उनके पास कहाँ से पात्र शक्ति है भगवान के चरणों की जिस पर ब्रह्मा जी ने साधारण जल चढाया था पर चरणों का स्पर्श होते ही बन गई गंगा जी।

जब हम बाँके बिहारी जी की आरती गाते है तो कहते है - "चरणों से निकली गंगा प्यारी जिसने सारी दुनिया तारी"*

धर्म में इसे बहुत ही पवित्र माना जाता है तथा मस्तक से लगाने के बाद इसका सेवन किया जाता है। चरणामृत का सेवन अमृत के समान माना गया है।

कहते हैं भगवान श्री राम के चरण धोकर उसे चरणामृत के रूप में स्वीकार कर केवट न केवल स्वयं भव-बाधा से पार हो गया बल्कि उसने अपने पूर्वजों को भी तार दिया।

चरणामृत का महत्व सिर्फ धार्मिक ही नहीं चिकित्सकीय भी है। चरणामृत का जल हमेशा तांबे के पात्र में रखा जाता है।

आयुर्वेदिक मतानुसार तांबे के पात्र में अनेक रोगों को नष्ट करने की शक्ति होती है जो उसमें रखे जल में आ जाती है। उस जल का सेवन करने से शरीर में रोगों से लडऩे की क्षमता पैदा हो जाती है तथा रोग नहीं होते।

इसमें तुलसी के पत्ते डालने की परंपरा भी है जिससे इस जल की रोगनाशक क्षमता और भी बढ़ जाती है। तुलसी के पत्ते पर जल इतने परिमाण में होना चाहिए कि सरसों का दाना उसमें डूब जाए । ऐसा माना जाता है कि तुलसी चरणामृत लेने से मेधा, बुद्धि,स्मरण शक्ति को बढ़ाता है।

इसीलिए यह मान्यता है कि भगवान का चरणामृत औषधी के समान है। यदि उसमें तुलसी पत्र भी मिला दिया जाए तो उसके औषधीय गुणों में और भी वृद्धि हो जाती है। कहते हैं सीधे हाथ में तुलसी चरणामृत ग्रहण करने से हर शुभ का या अच्छे काम का जल्द परिणाम मिलता है।

इसीलिए चरणामृत हमेशा सीधे हाथ से लेना चाहिये, लेकिन चरणामृत लेने के बाद अधिकतर लोगों की आदत होती है कि वे अपना हाथ सिर पर फेरते हैं। चरणामृत लेने के बाद सिर पर हाथ रखना सही है या नहीं यह बहुत कम लोग जानते हैं.?

दरअसल शास्त्रों के अनुसार चरणामृत लेकर सिर पर हाथ रखना अच्छा नहीं माना जाता है।कहते हैं इससे विचारों में सकारात्मकता नहीं बल्कि नकारात्मकता बढ़ती है। इसीलिए चरणामृत लेकर कभी भी सिर पर हाथ नहीं फेरना चाहिए।


रविवार, 6 अक्तूबर 2019

वृन्दावन आखिर है क्या?


                                 वृन्दावन क्या है?






 वृन्दावन आखिर है क्या? लोग क्यों यहां एक बार जाकर केवल तन से वापस आते हैं, मन वहीं छूट जाता है?

वृन्दावन का आध्यातमिक अर्थ है- "वृन्दाया तुलस्या वनं वृन्दावनं" तुलसी का विषेश वन होने के कारण इसे वृन्दावन कहते हैं। वृन्दावन ब्रज का हृदय है जहाँ भगवान श्री राधाकृष्ण ने अपनी दिव्य लीलायें की हैं। इस दिव्य भूमि की महिमा बड़े-बड़े तपस्वी भी नहीं समझ पाते। ब्रह्मा जी का ज्ञान भी यहाँ के प्रेम के आगे फ़ीका पड़ जाता है। । इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है कि वृन्दावन का कण-कण रसमय है। रसिकों की राजधानी भी वृन्दावन को कहा जाता है। वृन्दावन श्री राधिका जी का निज धाम है। विद्वत्जन श्री धाम वृन्दावन का अर्थ इस प्रकार भी करते हैं "वृन्दस्य अवनं रक्षणं यत्र तत वृन्दावनं" जहाँ श्री राधारानी अपने भक्तों की दिन-रात रक्षा करती हैं, उसे वृन्दावन कहते हैं।

वृन्दावन तीर्थों का राजा है।
कृष्ण और वृन्दावन एक दूसरे का पर्याय हैं दोनों एक हैं अलग नही। जिस प्रकार श्रीमद भागवद गीता और भगवान की वाणी एक है उसी प्रकार कृष्ण और उनका यह प्रेममय, रसमय, चिन्मय धाम दोनों अभेद हैं ।
 सूरदास जी ने वृन्दावन धाम की रज की महिमा का गुण गान करते हुए यह पद भी लिखा कि-

हम ना भई वृन्दावन रेणु,
तिन चरनन डोलत नंद नन्दन नित प्रति चरावत धेनु।
हम ते धन्य परम ये द्रुम वन बाल बच्छ अरु धेनु।
सूर सकल खेलत हँस बोलत संग मध्य पीवत धे।

आप कभी भी अनुभव कर सकते  हैं कि वृन्दावन की भूमि पर कदम रखते ही शरीर मे एक रोमांच सा होने लगता है, जो वापिस वहां से दूर हटते ही समाप्त हो जाता है। किसी भी धाम में जाइये ऐसा अनुभव आपको नही होगा। हमारे श्रवण भी प्रत्येक क्षण राधे राधे का स्वर सुनते रहते हैं।
यहां आते ही भाव अपने आप प्रस्फुटित होने लगते हैं। बिहारीजी के समक्ष खड़े होकर उनको निहारते समय आपको कभी कुछ याद नही रहेगा कि आप कौन हैं, यहां क्यों आये। उनसे कुछ मांगना तो दूर की बात है। मंत्रमुग्ध, चित्रलिखित सी अवस्था!!
मैने आज तक धाम में जाकर कभी कुछ नही मांगा, ध्यान तक नही आता। जबकि मांगने को प्रभु की चरण सेवा और दर्शन की अभिलाषा सबको होती है।
वो केवल भाव के भूखे हैं, आपका भाव पढ़ते हैं। प्रेममय भाव हैं तो अवश्य दर्शन मिलेगा वरना कोई न कोई बाधा आ ही जाती है।
हम उनके दर्शन न कर पाने का ठीकरा भी उन्ही पर फोड़ते हैं कि हमे बुलाते नही। यह बिल्कुल असत्य, और गलत सोच है। वो सबकी राह देखते हैं, शर्त बस इतनी सी कि हमारे पांव प्रेम मय भक्ति  के साथ  उस राह पर कब पड़ते हैं!! राधा रानी ब्रज की अधिष्ठात्री देवी हैं, अश्रुपूरित, प्रेममयी प्रार्थना उनको पिघला देती है। उनकी आज्ञा के बिना कोई भी ब्रज भूमि पर पांव नही रख सकता।
हम सब राधा रानी से प्रार्थना करें कि हमे बारम्बार ब्रजदर्शन हों

शनिवार, 5 अक्तूबर 2019

एसा न हो फिर देर हो जाऐ

                       ऐसा न हो फिर देर हो जाऐ



जब सारे शरीर की शक्ति क्षीण हो जाती है, उसका चलना फिरना, उठना बैठना --- सब दूभर हो जाता है । खटिया पर पड़े पड़े वह पश्चाताप करता रहता है कि हाय - हाय सारा जीवन बेकार चला गया । अब उसे ईश्वर का ध्यान आता है, उनसे प्रार्थना करता है, किंतु तब तक तो बहुत देर हो चुकी होती है ----
इतने पर भी करुणा वरुणालय प्रभू उस पर कृपा कर कहते है ---- वत्स! अभी भी कुछ नही बिगड़ा है, तुम्हारी जिभ्हा अभी भी काम कर रही है, तुम चाहो तो अभी भी  लोक - परलोक बना सकते हो ।
इसलिये तुम " नारायण " नाम रुपी अमृत का निरंतर पान करो ।

जीवन मे सफलता के लिए भगवान श्रीकृष्ण के ग्यारह सूत्र


जीवन मे सफलता के लिए भगवान श्रीकृष्ण के ग्यारह सूत्र!!!!!!!!"


भगवान कृष्ण ने गीता के माध्यम से संसार को जो शिक्षा दी, वह अनुपम है। वेदों का सार है उपनिषद और उपनिषदों का सार है ब्रह्मसूत्र और ब्रह्मसूत्र का सार है गीता। सार का अर्थ है निचोड़ या रस।

गीता में उन सभी मार्गों की चर्चा की गई है जिन पर चलकर मोक्ष, बुद्धत्व, कैवल्य या समाधि प्राप्त की जा सकती है। दूसरे शब्दों में कहें तो जन्म-मरण से छुटकारा पाया जा सकता है। तीसरे शब्दों में कहें तो खुद के स्वरूप को पहचाना जा सकता है। चौथे शब्दों में कहें तो आत्मज्ञान प्राप्त किया जा सकता है और पांचवें शब्दों में कहें तो ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है।

भगवान श्रीकृष्ण के वे रहस्यमय सूत्र जिन्हें जानकर आपको लगेगा कि सच में यह बिलकुल ही सच है। निश्‍चित ही उनके ये सूत्र आपके जीवन में बहुत काम आएंगे। जीवन में सफलता चाहते हैं ‍तो गीता के ज्ञान को अपनाएं और निश्‍चिंत तथा भयमुक्त जीवन पाएं।

 पहला सूत्र,सफलता : - भगवान श्रीकृष्‍ण कहते हैं कि यदि आप लक्ष्य को प्राप्त करने में विफल रहते हैं, तो अपनी रणनीति बदलें, लक्ष्य नहीं। ...इस जीवन में न कुछ खोता है, न व्यर्थ होता है। ...जो इस लोक में अपने काम की सफलता की कामना रखते हैं, वे देवताओं की प्रार्थना करें।

दूसरा सूत्र,प्रसन्नता : - श्रीकृष्ण कहते हैं कि खुशी मन की एक अवस्था है, जो बाहरी दुनिया से नहीं मिल सकती है। खुश रहने की एक ही कुंजी है इच्छाओं में कमी।

तीसरा सूत्र,आत्मविनाश या नर्क के ये 3 द्वार हैं- वासना, क्रोध और लोभ। क्रोध से भ्रम पैदा होता है। भ्रम से बुद्धि व्यग्र होती है। जब बुद्धि व्यग्र होती है, तब तर्क नष्ट हो जाता है। जब तर्क नष्ट होता है, तब व्यक्ति का पतन हो जाता है। ...वह जो सभी इच्छाएं त्याग देता है और 'मैं' और 'मेरा' की लालसा और भावना से मुक्त हो जाता है, उसे शांति प्राप्त होती है।

 चौथा सूत्र, विश्वास क्या है? : - मनुष्य अपने विश्वास से निर्मित होता है। जैसा वो विश्वास करता है, वैसा वो बन जाता है। ...व्यक्ति जो चाहे बन सकता है यदि वह विश्वास के साथ इच्छित वस्तु पर लगातार चिंतन करे। ...हर व्यक्ति का विश्वास उसकी प्रकृति के अनुसार होता है। विश्‍वास की शक्ति को पहचानें।

पांचवां सूत्र,मित्र और शत्रु दोनों है मन : - जो मन को नियंत्रित नहीं करते उनके लिए वह शत्रु के समान कार्य करता है। मन की गतिविधियों, होश, श्वास और भावनाओं के माध्यम से भगवान की शक्ति सदा तुम्हारे साथ है और लगातार तुम्हें बस एक साधन की तरह प्रयोग कर के सभी कार्य कर रही है।

मन अशांत है और उसे नियंत्रित करना कठिन है, लेकिन अभ्यास से इसे वश में किया जा सकता है। ...सर्वोच्च शांति पाने के लिए हमें हमारे कर्मों के सभी परिणाम और लगाव को छोड़ देना चाहिए। ...केवल मन ही किसी का मित्र और शत्रु होता है।

छठा सूत्र,निर्भीक बनो : - उससे मत डरो जो वास्तविक नहीं है, न कभी था न कभी होगा। जो वास्तविक है, वो हमेशा था और उसे कभी नष्ट नहीं किया जा सकता। ...प्रबुद्ध व्यक्ति के लिए, गंदगी का ढेर, पत्थर और सोना सभी समान हैं।

सातवां सूत्र,संशय न करो : - सदैव संदेह करने वाले व्यक्ति के लिए प्रसन्नता न इस लोक में है, न ही कहीं और। आत्मज्ञान की तलवार से काटकर अपने हृदय से अज्ञान के संदेह को अलग कर दो। अनुशासित रहो। उठो।

संदेह, संशय, दुविधा या द्वंद्व में जीने वाले लोग न तो इस लोक में सुख पाते हैं और न ही परलोक में। उनका जीवन निर्णयहीन, दिशाहीन और भटकाव से भरा रहता है।

 आठवां सूत्र'आत्मा न जन्म लेती है और न ही मरती है : - जन्म लेने वाले के लिए मृत्यु उतनी ही निश्चित है जितन‍ी कि मृत होने वाले के लिए जन्म लेना। इसलिए जो अपरिहार्य है, उस पर शोक मत करो।

न कोई मरता है और न ही कोई मारता है, सभी निमित्त मात्र हैं...। सभी प्राणी जन्म से पहले बिना शरीर के थे, मरने के उपरांत वे बिना शरीर वाले हो जाएंगे। यह तो बीच में ही शरीर वाले देखे जाते हैं, फिर इनका शोक क्यों करते हो?

यह आत्मा किसी काल में भी न जन्मती है और न मरती है अथवा न यह आत्मा हो करके फिर होने वाली है, क्योंकि यह अजन्मी, नित्य, शाश्वत और पुरातन है। शरीर के नाश होने पर भी यह नष्ट नहीं होती है।

कभी ऐसा समय नहीं था जब मैं, तुम या ये राजा-महाराजा अस्तित्व में नहीं थे, न ही भविष्य में कभी ऐसा होगा कि हमारा अस्तित्व समाप्त हो जाए। ...हे अर्जुन! हम दोनों ने कई जन्म लिए हैं। मुझे याद हैं, लेकिन तुम्हें नहीं।

नौवां अमृत सूत्र' कर्मवान बनो : - निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रहता, क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृतिजनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है। ...अपने अनिवार्य कार्य करो, क्योंकि वास्तव में कार्य करना निष्क्रियता से बेहतर है।

ज्ञानी व्यक्ति को कर्म के प्रतिफल की अपेक्षा कर रहे अज्ञानी व्यक्ति के दिमाग को अस्थिर नहीं करना चाहिए। ...अप्राकृतिक कर्म बहुत तनाव पैदा करता है। ...किसी और का काम पूर्णता से करने से कहीं अच्छा है कि अपना काम करें, भले ही उसे अपूर्णता से करना पड़े। ...बुद्धिमान व्यक्ति कामुक सुख में आनंद नहीं लेता। ...कर्मयोग वास्तव में एक परम रहस्य है।

 दसवां अमृत सूत्र,जो मेरे साथ हैं मैं उनके साथ हूं : -  संपूर्ण ब्रह्मांड मेरे ही अंदर है। मेरी इच्छा से ही यह फिर से प्रकट होता है और अंत में मेरी इच्छा से ही इसका अंत हो जाता है। ...मेरे लिए न कोई घृणित है न प्रिय, किंतु जो व्यक्ति भक्ति के साथ मेरी पूजा करते हैं, वो मेरे साथ हैं और मैं भी उनके साथ हूं। ...बुरे कर्म करने वाले, सबसे नीच व्यक्ति जो राक्षसी प्रवृत्तियों से जुड़े हुए हैं और जिनकी बुद्धि माया ने हर ली है वो मेरी पूजा या मुझे पाने का प्रयास नहीं करते।

हे अर्जुन! कल्पों के अंत में सब भूत मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात प्रकृति में लीन होते हैं और कल्पों के आदि में उनको मैं फिर रचता हूं।

मैं उन्हें ज्ञान देता हूं, जो सदा मुझसे जुड़े रहते हैं और जो मुझसे प्रेम करते हैं।

मैं सभी प्राणियों को समान रूप से देखता हूं, न कोई मुझे कम प्रिय है न अधिक। लेकिन जो मेरी प्रेमपूर्वक आराधना करते हैं वो मेरे भीतर रहते हैं और मैं उनके जीवन में आता हूं।

मेरी कृपा से कोई सभी कर्तव्यों का निर्वाह करते हुए भी बस मेरी शरण में आकर अनंत अविनाशी निवास को प्राप्त करता है। ...हे अर्जुन! केवल भाग्यशाली योद्धा ही ऐसा युद्ध लड़ने का अवसर पाते हैं, जो स्वर्ग के द्वार के समान है।

 ग्यारहवां अमृत सूत्र,ईश्‍वर के बारे में : - भगवान प्रत्येक वस्तु में है और सबके ऊपर भी। ...प्रबुद्ध व्यक्ति सिवाय ईश्वर के किसी और पर निर्भर नहीं करता। ...सभी काम छोड़कर बस भगवान में पूर्ण रूप से समर्पित हो जाओ। मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूंगा। शोक मत करो।

जो कोई भी जिस किसी भी देवता की पूजा विश्वास के साथ करने की इच्छा रखता है, मैं उसका विश्वास उसी देवता में दृढ़ कर देता हूं। ...हे अर्जुन! मैं भूत, वर्तमान और भविष्य के सभी प्राणियों को जानता हूं, किंतु वास्तविकता में कोई मुझे नहीं जानता।

ईश्वर एक अदृश्य एवं अकथनीय शक्ति है जिससे संसार की उत्पत्ति, पालन एवं लय होता है। मानवीय रूप में उसकी ऐसी कल्पना की जा सकती है कि उसके सभी ओर से ज्ञानेन्द्रियां और कर्मेन्द्रियां हैं।

'सर्वत: पणिपादं तर्त्सतोsक्षिशिरोमुखम।'

वह समय-समय पर संसार में धर्म की पुनर्स्थापना के लिए सगुण रूप में अवतरित होता है।

वह जो मृत्यु के समय मुझे स्मरण करते हुए अपना शरीर त्यागता है, वह मेरे धाम को प्राप्त होता है। इसमें कोई संशय नहीं है। ...वे जो इस ज्ञान में विश्वास नहीं रखते, मुझे प्राप्त किए बिना जन्म और मृत्यु के चक्र का अनुगमन करते रहते हैं।

!!जय श्री कृष्ण!! जय श्री राधेकृष्ण!!

शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2019

प्रतीक्षा, परीक्षा और समीक्षा।




                    प्रतीक्षा, परीक्षा और समीक्षा।

प्रतीक्षा- भक्ति के मार्ग में प्रतीक्षा बहुत आवश्यक है। प्रभु जरूर आयेंगे, कृपा करेंगे, ऐसा विश्वास रखते हुए प्रतीक्षा करें। बहुत बड़ी प्रतीक्षा के बाद शबरी की कुटिया में प्रभु आये थे।

परीक्षा- संसार की परीक्षा करते रहें। इस संसार में सब अपने कारणों से जी रहे हैं। किसी के भी महत्वाकांक्षा के मार्ग पर बाधा बनोगे वही तुम्हारा अपना, पराया हो जायेगा। संसार का तो प्रेम भी छलावा है। संसार को जितना जल्दी समझ लो तो अच्छा है ताकि प्रभु के मार्ग पर तुम जल्दी आगे बढ़ो।

समीक्षा - अपनी समीक्षा रोज करते रहो, आत्मचिन्तन करो। जीवन उत्सव कैसे बने ? प्रत्येक क्षण उल्लासमय कैसे बने? जीवन संगीत कैसे बने, यह चिन्तन जरूर करना। कुछ छोड़ना पड़े तो छोड़ने की हिम्मत करना और कुछ पकड़ना पड़े तो पकड़ने की हिम्मत रखना। अपनी समीक्षा से ही आगे के रास्ते दिखेंगे।

 ।।जय श्री कृष्ण।।

मां दुर्गा के नौ रूप

मां दुर्गा के नौ रूप







मां दुर्गा के नौ रुपों की पूजा की जाती है। देवी दुर्गा के नौ रूप हैं शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंधमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदात्री। इन नौ रातों में तीन देवी पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वती के नौ रुपों की पूजा होती है जिन्हें नवदुर्गा कहते हैं। नवदुर्गा के नौ स्वरूप स्त्री के जीवनचक्र को दर्शाते है। 
1. जन्म ग्रहण करती हुई कन्या "शैलपुत्री" स्वरूप है।
 2.स्त्री का कौमार्य अवस्था तक "ब्रह्मचारिणी" का रूप है।
3. विवाह से पूर्व तक चंद्रमा के समान निर्मल होने से वह "चंद्रघंटा" समान है।
4. नए जीव को जन्म देने के लिए गर्भ धारण करने पर वह "कूष्मांडा" स्वरूप में है।
5. संतान को जन्म देने के बाद वही स्त्री "स्कन्दमाता" हो जाती है।
6. संयम व साधना को धारण करने वाली स्त्री "कात्यायनी" रूप है।
7. अपने संकल्प से पति की अकाल मृत्यु को भी जीत लेने से वह "कालरात्रि" जैसी है।
8. संसार (कुटुंब ही उसके लिए संसार है) का उपकार करने से "महागौरी" हो जाती है।
9. धरती को छोड़कर स्वर्ग प्रयाण करने से पहले संसार में अपनी संतान को सिद्धि(समस्त सुख-संपदा) का आशीर्वाद देने वाली "सिद्धिदात्री" हो जाती है।

भजन सिमरन करने से क्या खास होता है?

            भजन सिमरन करने से क्या खास होता है?


अर्जुन श्री कृष्णजी से बोले :-"केशव, जब मृत्यु सभी की होनी है तो हम सत्संग भजन सेवा सिमरन क्यों करे, जो इंसान मौज मस्ती करता है मृत्यु तो उसकी भी होगी..!"

"श्री कृष्णजी ने अर्जुन से कहा:-"हे पार्थ, बिल्ली जब चूहे को पकड़ती है तो दांतो से पकड़कर उसे मार कर खा जाती है, लेकिन उन्ही दांतो से जब अपने बच्चे को पकड़ती है तो उसे मारती नहीं बहुत ही नाजुक तरीके से एक जगह से दूसरी जगह पंहुचा देती है..!दांत भी वही है मुह भी वही है पर परिणाम अलग अलग। ठीक उसी प्रकार मृत्यु भी सभी की होगी ,पर एक प्रभु के धाम में और दूसरा 84 के चक्कर में!
 तो यह आपको निर्णय लेना है कि प्रभु का नाम लेते हुए इस जीवन का बिताना है ,या सिर्फ मौज मस्ती करते हुए। मौज मस्ती भी करो, लेकिन प्रभु को कभी नहीं भूले।पूरे दिन में एक समय निश्चित कर लो कि दिन में एक बार अपने प्रभु को जरूर याद करना है और उस को धन्यवाद करना है कि उन्होंने आपको इतना सामर्थ्य वान बनाया कि आप मौज मस्ती कर रहे हैं ।😊
जय श्री राधे🙏🌹

साधना सफल कैसे होती है

                    साधना सफल कैसे होती ?

               
          साधनाऐं देवी-देवताओं की, मन्त्र, तंत्र की जो कर्मकांडों एवं अनुष्ठानों के साथ की जाती है, पर साधनाएँ साधक की आत्मिक स्थिति के अनुसार ही सफल होती हैं।
            श्रद्धा और विश्वास , साहस और धैर्य, एकाग्रता और स्थिरता, दृढ़ता और संकल्प ही वे तत्व हैं, जिनके आधार पर यह साधनाएँ सफल होती है।
            यदि साधक का संकल्प दुर्बल हो, श्रद्धा और विश्वास ढीलें हों, चित्त अस्थिर और अधीर रहे तो विधि-विधान सही होते हुए भी सही परिणाम नहीं मिलता।
         सच तो यह है कि आत्मा के अंतरंग प्रदेश में ही उन अदृश्य दैवी-शक्तियों का निवास होता है जो हमें कहीं बाहर रहती दिखती है।
जय श्री राधे

गुरुवार, 3 अक्तूबर 2019

मुश्किलों में

मुश्किलों में



मुश्किलें बिन बुलाए मेहमान की तरह होती हैं, जो हमें बिना बताए परेशान करने चली आती हैं । और तब तक नहीं जाती हैं, जब तक कि हम उनका अपने विश्वास ,हौसला और परिश्रम से मुकाबला नहीं करते हैं ॥

लेकिन मुश्किलों की सबसे बड़ी खासियत यह होती है कि वो हमें पहले से ज्यादा सतर्क, पहले से ज्यादा मजबूत और पहले से ज्यादा होशियार बना देती हैं. और इनकी सबसे अच्छी बात ये होती है कि, जाते-जाते हमें कोई-न-कोई सबक जरुर सीखा देती हैं।
।।राधे राधे।।

प्रकृति के तीन कड़वें नियम



प्रकृति के तीन कड़वे नियम जो सत्य है

1-: प्रकृति  का पहला  नियम-
यदि खेत में  बीज न डालें जाएं  तो कुदरत  उसे *घास-फूस* से  भर देती हैं...!!
ठीक  उसी  तरह से  दिमाग  में *सकारात्मक* विचार  न भरे  जाएँ  तो *नकारात्मक*  विचार  अपनी  जगह  बना ही लेती है...!!

2-: प्रकृति  का दूसरा  नियम-
जिसके  पास  जो होता है...!!
  वह वही बांटता  है....!!*
सुखी *सुख* बांटता है...
दुःखी *दुःख* बांटता है..
ज्ञानी *ज्ञान* बांटता है..
भ्रमित *भ्रम* बांटता है..
भयभीत *भय* बांटता हैं......!!


 3-: प्रकृति  का तीसरा नियम-
आपको जीवन से जो कुछ भी मिलें उसे पचाना  सीखें क्योंकि भोजन* न पचने  पर रोग बढते है...!
पैसा न *पचने* पर दिखावा बढता है...!
बात  न *पचने* पर चुगली  बढती है...!
प्रशंसा  न *पचने* पर  अंहकार  बढता है....!
निंदा  न *पचने* पर  दुश्मनी  बढती है...!
राज न *पचने* पर  खतरा  बढता है...!
दुःख  न *पचने* पर  निराशा बढती है...!
और सुख न *पचने* पर  पाप बढता है...!
।।राधे राधे।।

आज का शुभ विचार




यदा न कुरूते भावं सर्वभूतेष्वमंगलम्।
समदृष्टेस्तदा पुंस: सर्वा: सुखमया दिश:॥

अर्थात्:-- जो मनुष्य किसी भी जीव के प्रति अमंगल भावना नही रखता, जो मनुष्य सभी की ओर सम्यक् दॄष्टीसे देखता है, ऐसे मनुष्य को सब ओर सुख ही सुख है।
।।जय श्री राधे।।

बुधवार, 2 अक्तूबर 2019

परिपक्वता यानि मैच्योरिटी किसे कहते हैं?

आदि शंकराचार्य जी से प्रश्न किया गया कि "परिपक्वता" का क्या अर्थ है?

आदि शंकराचार्य जी ने उत्तर दिया –

1. परिपक्वता वह है - जब आप दूसरों को बदलने का प्रयास करना बंद कर दे, इसके बजाय स्वयं को बदलने पर ध्यान केन्द्रित करें.
2. परिपक्वता वह है – जब आप दूसरों को, जैसे हैं, वैसा ही स्वीकार करें.
3. परिपक्वता वह है – जब आप यह समझे कि प्रत्येक व्यक्ति उसकी सोच अनुसार सही हैं.
4. परिपक्वता वह है – जब आप "जाने दो" वाले सिद्धांत को सीख लें.
5. परिपक्वता वह है – जब आप रिश्तों से लेने की उम्मीदों को अलग कर दें और केवल देने की सोच रखे.
6. परिपक्वता वह है – जब आप यह समझ लें कि आप जो भी करते हैं, वह आपकी स्वयं की शांति के लिए है.
7. परिपक्वता वह है – जब आप संसार को यह सिद्ध करना बंद कर दें कि आप कितने अधिक बुद्धिमान है.
8. परिपक्वता वह है – जब आप दूसरों से उनकी स्वीकृति लेना बंद कर दे.
9. परिपक्वता वह है – जब आप दूसरों से अपनी तुलना करना बंद कर दें.
10. परिपक्वता वह है – जब आप स्वयं में शांत है.
11. परिपक्वता वह है – जब आप जरूरतों और चाहतों के बीच का अंतर करने में सक्षम हो जाए और अपनी चाहतो को छोड़ने को तैयार हो.
12. आप तब परिपक्वता प्राप्त करते हैं – जब आप अपनी ख़ुशी को सांसारिक वस्तुओं से जोड़ना बंद कर दें.

नवरात्र क्या है?

नवरात्र या नवरात्रि →
संस्कृत व्याकरण के अनुसार नवरात्रि कहना त्रुटिपूर्ण हैं। नौ रात्रियों का समाहार, समूह होने के कारण से द्वन्द समास होने के कारण यह शब्द पुलिंग रूप 'नवरात्र' में ही शुध्द है।

नवरात्र क्या है →

 पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा के काल में एक साल की चार संधियाँ हैं। उनमें मार्च व
सितंबर माह में पड़ने वाली गोल संधियों में
साल के दो मुख्य नवरात्र पड़ते हैं।

इस समय रोगाणु आक्रमण की सर्वाधिक संभावना होती है। ऋतु संधियों में अक्सर शारीरिक बीमारियाँ बढ़ती हैं,
अत: उस समय स्वस्थ रहने के लिए, शरीर को शुध्द रखने के लिए और तनमन को निर्मल
और पूर्णत: स्वस्थ रखने के लिए की
जाने वाली प्रक्रिया का नाम 'नवरात्र' है।

नौ दिन या रात →
अमावस्या की रात से अष्टमी तक या
पड़वा से नवमी की दोपहर तक व्रत नियम
चलने से नौ रात यानी 'नवरात्र' नाम सार्थक है।

 यहाँ रात गिनते हैं, इसलिए नवरात्र यानि नौ रातों का समूह कहा जाता है।
रूपक के द्वारा हमारे शरीर को नौ मुख्य
द्वारों वाला कहा गया है।
इसके भीतर निवास करने वाली जीवनी
शक्ति का नाम ही दुर्गा देवी है।

इन मुख्य इन्द्रियों के अनुशासन, स्वच्छ्ता, तारतम्य स्थापित करने के प्रतीक रूप में,
शरीर तंत्र को पूरे साल के लिए सुचारू
रूप से क्रियाशील रखने के लिए नौ द्वारों
की शुध्दि का पर्व नौ दिन मनाया जाता है।
 इनको व्यक्तिगत रूप से महत्व देने के लिए
 नौ दिन नौ दुर्गाओं के लिए कहे जाते हैं।

शरीर को सुचारू रखने के लिए विरेचन,
सफाई या शुध्दि प्रतिदिन तो हम करते ही हैं
 किन्तु अंग-प्रत्यंगों की पूरी तरह से भीतरी सफाई करने के लिए हर छ: माह के अंतर से सफाई अभियान चलाया जाता  l

शुभ वचन

                        🌹।शाश्वत वचन।🌹




 संसार का सब काम करो, परंतु मन ईश्वर पर रखो और समझो कि घर, परिवार, पुत्र सब ईश्वर के हैं। मेरा कुछ भी नहीं है। मैं केवल उनका दास हूँ। मैं मन से त्याग करने के लिये कहता हूँ। संसार छोड़ने के लिये मैं नहीं कहता। अनासक्त होकर, संसार में रह कर, अन्तर से उनकी प्राप्ति की इच्छा रखने पर, उन्हें मनुष्य पा सकता है॥
(श्रीरामकृष्णवचनामृत)
*"हरि: शरणम्"*

मंगलवार, 1 अक्तूबर 2019

बस एक बार राधा नाम लेने की कीमत

               बस एक बार राधा नाम लेने की कीमत


एक बार एक व्यक्ति था।
वह एक संत जी के पास गया। और कहता है कि संत जी, मेरा एक बेटा है। वो न तो पूजा पाठ करता है और न ही भगवान का नाम लेता है। आप कुछ ऐसा कीजिये कि उसका मन भगवान में लग जाये।

संत जी कहते है- "ठीक है बेटा, एक दिन तू उसे मेरे पास लेकर आ जा।" अगले दिन वो व्यक्ति अपने बेटे को लेकर संत जी के पास गया। अब संत जी उसके बेटे से कहते है- "बेटा, बोल राधे राधे..."
बेटा कहता है- मैं क्यू कहूँ?

संत जी कहते है- "बेटा बोल राधे राधे..."
वो इसी तरह से मना करता रहा और अंत तक उसने यही कहा कि- "मैं क्यू कहूँ राधे राधे..."

संत जी ने कहा- जब तुम मर जाओगे और यमराज के पास जाओगे तब यमराज तुमसे पूछगे कि कभी भगवान का नाम लिया। कोई अच्छा काम किया। तब तुम कह देना की मैंने जीवन में एक बार 'श्री राधा रानी' के नाम को बोला है। बस एक बार। इतना बताकर वह चले गए।
समय व्यतीत हुआ और एक दिन वो मर गया। यमराज के पास पहुंचा। यमराज ने पूछा- कभी कोई अच्छा काम किया है।
उसने कहा- हाँ महाराज, मैंने जीवन में एक बार 'श्री राधा रानी' के नाम को बोला है। आप उसकी महिमा बताइये।

यमराज सोचने लगा की एक बार नाम की महिमा क्या होगी? इसका तो मुझे भी नही पता है। यम बोले- चलो इंद्र के पास वो ही बतायेगे। तो वो व्यक्ति बोला मैं ऐसे नही जाऊंगा पहले पालकी लेकर आओ उसमे बैठ कर जाऊंगा।

यमराज ने सोचा ये बड़ी मुसीबत है। फिर भी पालकी मंगवाई गई और उसे बिठाया। 4 कहार (पालकी उठाने वाले) लग गए। वो बोला यमराज जी सबसे आगे वाले कहार को हटा कर उसकी जगह आप लग जाइये। यमराज जी ने ऐसा ही किया।
फिर सब मिलकर इंद के पास पहुंचे और बोले कि एक बार 'श्री राधा रानी' के नाम लेने की महिमा क्या है?
इंद्र बोले- महिमा तो बहुत है। पर क्या है ये मुझे भी नही मालूम। बोले की चलो ब्रह्मा जी को पता होगा वो ही बतायेगे।

वो व्यक्ति बोला इंद्र जी ऐसा है दूसरे कहार को हटा कर आप यमराज जी के साथ मेरी पालकी उठाइये। अब एक ओर यमराज पालकी उठा रहे है और दूसरी तरफ इंद्र लगे हुए है। पहुंचे ब्रह्मा जी के पास।

ब्रह्मा ने सोचा कि ऐसा कौन सा प्राणी ब्रह्मलोक में आ रहा है जो स्वयं इंद्र और यमराज पालकी उठा कर ला रहे है। ब्रह्मा के पास पहुंचे। सभी ने पूछा कि एक बार 'श्री राधा रानी' के नाम लेने की महिमा क्या है?
ब्रह्मा जी बोले- महिमा तो बहुत है पर वास्तविकता क्या है कि ये मुझे भी नही पता। लेकिन हाँ भगवान शिव जी को जरूर पता होगा।
वो व्यक्ति बोला कि तीसरे कहार को हटाइये और उसकी जगह ब्रह्मा जी आप लग जाइये। अब क्या करते महिमा तो जाननी थी। अब पालकी के एक ओर यमराज है, दूसरी तरफ इंद्र और पीछे ब्रह्मा जी है। सब मिलकर भगवान शिव जी के पास गए और भगवान शिव से पूछा कि प्रभु 'श्री राधा रानी' के नाम की महिमा क्या है? केवल एक बार नाम लेने की महिमा आप कृपा करके बताइये।

भगवान शिव बोले कि मुझे भी नही पता। लेकिन भगवान विष्णु जी को जरूर पता होगी। वो व्यक्ति शिव जी से बोला की अब आप भी पालकी उठाने में लग जाइये। इस प्रकार ब्रह्मा, शिव, यमराज और इंद्र चारों उस व्यक्ति की पालकी उठाने में लग गए और विष्णु जी के लोक पहुंचे। विष्णु से जी पूछा कि एक बार 'श्री राधा रानी' के नाम लेने की महिमा क्या है?
विष्णु जी बोले- अरे! जिसकी पालकी को स्वयं मृत्य का राजा यमराज, स्वर्ग का राजा इंद्र, ब्रह्म लोक के राजा ब्रह्मा और साक्षात भगवान शिव उठा रहे हो इससे बड़ी महिमा क्या होगी। जब सिर्फ एक बार 'श्री राधा रानी' नाम लेने के कारण, आपने इसको पालकी में उठा ही लिया है। तो अब ये मेरी गोद में बैठने का अधिकारी हो गया है।

भगवान श्री कृष्ण ने स्वयं कहा है की जो केवल ‘रा’ बोलते है तो मैं सब काम छोड़ कर खड़ा हो जाता हूँ। और जैसे ही कोई ‘धा’ शब्द का उच्चारण करता है तो मैं उसकी ओर दौड़ लगा कर उसे अपनी गोद में भर लेता हूँ।
।। बोलो राधे राधे ।।



कृष्ण से कृष्ण को मांगिए

                       कृष्ण से कृष्ण को मांगिए


       हृदय की इच्छाएं शांत नहीं होती हैं। क्यों???

एक राजमहल के द्वार पर बड़ी भीड़ लगी थी।
किसी फकीर ने सम्राट से भिक्षा मांगी थी। सम्राट ने उससे कहा,''जो भी चाहते हो, मांग लो।''*
दिवस के प्रथम याचक की कोई भी इच्छा पूरी करने का उसका नियम था।

उस फकीर ने अपने छोटे से भिक्षापात्र को आगे बढ़ाया और कहा,''बस इसे स्वर्ण मुद्राओं से भर दें।''सम्राट ने सोचा इससे सरल बात और क्या हो सकती है! लेकिन जब उस भिक्षा पात्र में स्वर्ण मुद्राएं डाली गई, तो ज्ञात हुआ कि उसे भरना असंभव था।

वह तो जादुई था। जितनी अधिक मुद्राएं उसमें डाली गई, वह उतना ही अधिक खाली होता गया!
 सम्राट को दुखी देख वह फकीर बोला,''न भर सकें तो वैसा कह दें। मैं खाली पात्र को ही लेकर चला जाऊंगा!
ज्यादा से ज्यादा इतना ही होगा कि लोग कहेंगे कि सम्राट अपना वचन पूरा नहीं कर सके !

''सम्राट ने अपना सारा खजाना खाली कर दिया, उसके पास जो कुछ भी था, सभी उस पात्र में डाल दिया गया, लेकिन अद्भुत पात्र न भरा, सो न भरा।
तब उस सम्राट ने पूछा,''भिक्षु, तुम्हारा पात्र साधारण नहीं है। उसे भरना मेरी सामर्थ्य से बाहर है। क्या मैं पूछ सकता हूं कि इस अद्भुत पात्र का रहस्य क्या है?''

वह फकीर हंसने लगा और बोला,''कोई विशेष रहस्य नहीं। यह पात्र मनुष्य के हृदय से बनाया गया है।
क्या आपको ज्ञात नहीं है कि मनुष्य का हृदय कभी भी भरा नहीं जा सकता?
धन से, पद से, ज्ञान से- किसी से भी भरो, वह खाली ही रहेगा, क्योंकि इन चीजों से भरने के लिए वह बना ही नहीं है। इस सत्य को न जानने के कारण ही मनुष्य जितना पाता है, उतना ही दरिद्र होता जाता है।

हृदय की इच्छाएं कुछ भी पाकर शांत नहीं होती हैं। क्यों?
क्योंकि, हृदय तो परमात्मा को पाने के लिए बना है।''
शांति चाहिए ? संतृप्ति चाहिए ? तो अपने संकल्प को कहिए कि "भगवान श्रीकृष्ण" के सेवा के अतिरिक्त और मुझे कुछ भी नहीं चाहिए।

"कृष्ण से कृष्ण को ही मांगिए ।"

भगवान के नाम की महिमा

.                       जय श्री सीताराम
                        कल्याण 86/8
                     गीता प्रेस गोरखपुर



                         नाम--महिमा
                         °°°°°°°°°°°°

          भगवान के नाम की अमित महिमा है । वह कही नहीं जा सकती। स्वयं भगवान भी अपने नाम के गुणों का पार नहीं पा सकते---

कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई।
रामु न सकहिं नाम गुन गाई।।

         भूल से लोग नाम और नामी को दो विभिन्न वस्तु तथा नाम को नामी से छोटा मानते हैं। नाम का माहात्म्य अपार है,  असीम है,  अनन्त है ।
       नाम और नामी में छोटे-बड़े की बुद्धि नहीं करनी चाहिए।  नाम के विना नामी की पहचान ही नहीं हो सकती ।हमारे मन में यह भाव घुसा हुआ है कि नाम की जो इतनी महिमा शास्त्रों और संतों ने गायी है,  उसमें तथ्य कुछ नहीं है;  हमें केवल भुलाने में डालने के लिए ही यह इन्द्रजाल रचा गया है ।
          जगज्जननी पार्वती ने एक बार शिव जी से पूछा---'महाराज! आप इतना राम-राम जपते हैं और इसका इतना माहात्म्य बतलाते हैं। संसार के लोग भी इस नाम को रटते रहते हैं; फिर क्या कारण है,  उनका उद्धार नहीं होता?' महादेव जी बोले---'उनका राम-नाम की महिमा में विश्वास नहीं है ।' परीक्षा के लिए वे दोनों काशी के एक घाट पर बैठ गये, जहाँ से लोग गंगा स्नान करके राम नाम रटते हुये लौट रहे थे। योजनानुसार महादेव जी ने वृद्ध शरीर बनाया और फिर एक कीचड़ भरे गड्ढे में गिर पड़े तथा वृद्धा के वेष में पार्वती जी ऊपर बैठी रहीं। जो भी व्यक्ति उस मार्ग से गुजरता,  पार्वती जी उससे कहतीं---'मेरे पति को गड्ढे से निकाल दो।' जो निकालने जाता, उससे कहतीं---'जो निष्पाप हो, वही निकाले; अन्यथा इन्हें छूते ही भस्म हो जायगा ।' एक पर एक कई लोग आये, पर शर्त सुनकर लौट गये। सायंकाल हो आया; पर ऐसा कोई निष्पाप व्यक्ति न मिला। अन्ततः गोधूलि की वेला में गंगा स्नान करके एक व्यक्ति आया और राम नाम रटता हुआ वहाँ पहुंचा । माँ पार्वती ने उससे भी वही बात कही।
वह निकालने के लिए बढ़ा तो पार्वती जी ने एक बार फिर दोहराया---'निष्पाप व्यक्ति होना चाहिए;  अन्यथा भस्म हो जायगा।'
        इस पर वह बोला---'गंगा स्नान कर चुका हूँ और राम नाम ले रहा हूँ,  फिर भी पाप लगा ही है?  पाप तो एक बार के नाम स्मरण से छूट जाता है । मैं सर्वथा निष्पाप हूँ ।' कहकर वह गड्ढे में कूद पड़ा और बूढ़े बाबा को निकाल लाया। गौरीशंकर अब उससे कैसे छिपे रहते? वह दर्शन पाकर कृतार्थ हो गया।
        एक हम हैं। गंगा स्नान करते हैं,  राम नाम लेते हैं; परंतु अपने को सर्वथा निष्पाप नहीं मानते। नाम में और गंगा में हमारा पूर्ण विश्वास नहीं है । जितनी शक्ति नाम में पाप नाश की है,  उतनी शक्ति महापापी में भी पाप करने की नहीं है ।
        हम तो निरंतर भगवान के नामों को बेचते हैं; परंतु नाम की महिमा इतनी अधिक है कि उसका संस्कार मिट नहीं सकता। भगवान का नाम भगवान की ही भांति चेतन है और उसकी शक्ति भी अपरम्पार है ।
स्वामी रामसुखदास जी के श्रीमुख से
            ---हरिः शरणम्---

.

अथार्गलास्तोत्रम्( हिन्दी मे)

अर्गला स्तोत्र का पाठ दुर्गा कवच के बाद और कीलक स्तोत्र के पहले किया जाता है। यह देवी माहात्म्य के अंतर्गत किया जाने वाला स्तोत्र अत्यंत शुभकारक और लाभप्रद है।

इस स्तोत्र का पाठ नवरातत्रि के अलावा देवी पूजन में भी किया जाता है।



।। अथार्गलास्तोत्रम् ।।

विनियोग- ॐ अस्य श्री अर्गलास्तोत्रमन्त्रस्य विष्णुर्ऋषिः अनुष्टुप छन्दः श्रीमहालक्ष्मीर्देवता श्रीजगदम्बाप्रीतये सप्तशती पाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः ।

ॐ नमश्चण्डिकायै

[ मार्कण्डेय उवाच ]
ॐ जयंती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तुते ।। १।।
जय त्वं देवि चामुण्डे जय भूतार्तिहारिणि।
जय सर्वगते देवि कालरात्रि नमोऽस्तुते ।।२।।

ॐ चंडिका देवी को नमस्कार है। 

मार्कण्डेय जी कहते हैं - जयन्ती, मंगला, काली, भद्रकाली, कपालिनी, दुर्गा, क्षमा, शिवा, धात्री, स्वाहा और स्वधा - इन नामों से प्रसिद्ध जगदम्बिके! तुम्हें मेरा नमस्कार हो। देवि चामुण्डे! तुम्हारी जय हो। सम्पूर्ण प्राणियों की पीड़ा हरने वाली देवि! तुम्हारी जय हो। सब में व्याप्त रहने वाली देवि! तुम्हारी जय हो। कालरात्रि! तुम्हें नमस्कार हो।।

मधुकैटभविद्राविविधातृ वरदे नमः।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।।३।।
महिषासुरनिर्णाशि भक्तनाम सुखदे नमः।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। ४।।


मधु और कैटभ को मारने वाली तथा ब्रह्माजी को वरदान देने वाली देवि! तुम्हे नमस्कार है। तुम मुझे रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान) दो, जय (मोह पर विजय) दो, यश (मोह-विजय और ज्ञान-प्राप्तिरूप यश) दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो।। महिषासुर का नाश करने वाली तथा भक्तों को सुख देने वाली देवि! तुम्हें नमस्कार है। तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।।३-४।।

रक्तबीजवधे देवि चण्डमुण्डविनाशिनी।

रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। ५ ।।
शुम्भस्यैव निशुम्भस्य धूम्राक्षस्य च मर्दिनी।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। ६।।


रक्तबीज का वध और चण्ड-मुण्ड का विनाश करने वाली देवि! तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।। शुम्भ और निशुम्भ तथा धूम्रलोचन का मर्दन करने वाली देवि! तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।।५-६।।

वन्दिताङ्घ्रियुगे देवि सर्वसौभाग्यदायिनी।

रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। ७।।
अचिन्त्यरूपचरिते सर्वशत्रुविनाशिनि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। ८।।


सबके द्वारा वन्दित युगल चरणों वाली तथा सम्पूर्ण सौभग्य प्रदान करने वाली देवि! तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।। देवि! तुम्हारे रूप और चरित्र अचिन्त्य हैं। तुम समस्त शत्रुओं का नाश करने वाली हो। तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।।७-८।।

नतेभ्यः सर्वदा भक्त्या चण्डिके दुरितापहे।

रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। ९।।
स्तुवद्भ्यो भक्तिपूर्वं त्वाम चण्डिके व्याधिनाशिनि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। १०।।


पापों को दूर करने वाली चण्डिके! जो भक्तिपूर्वक तुम्हारे चरणों में सर्वदा (हमेशा) मस्तक झुकाते हैं, उन्हें रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।। रोगों का नाश करने वाली चण्डिके! जो भक्तिपूर्वक तुम्हारी स्तुति करते हैं, उन्हें तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।।९-१०।।
चण्डिके सततं ये त्वामर्चयन्तीह भक्तितः।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। ११।।
देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। १२।।


चण्डिके! इस संसार में जो भक्तिपूर्वक तुम्हारी पूजा करते हैं उन्हें रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।। मुझे सौभाग्य और आरोग्य (स्वास्थ्य) दो। परम सुख दो, रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।।११-१२।।

विधेहि द्विषतां नाशं विधेहि बलमुच्चकैः।

रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। १३।।
विधेहि देवि कल्याणम् विधेहि परमां श्रियम।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। १४।।


जो मुहसे द्वेष करते हों, उनका नाश और मेरे बल की वृद्धि करो। रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।। देवि! मेरा कल्याण करो। मुझे उत्तम संपत्ति प्रदान करो। रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।। १३-१४।।

सुरसुरशिरोरत्ननिघृष्टचरणेम्बिके।

रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। १५।।
विद्यावन्तं यशवंतं लक्ष्मीवन्तं जनं कुरु।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। १६।।


अम्बिके! देवता और असुर दोनों ही अपने माथे के मुकुट की मणियों को तुम्हारे चरणों पर घिसते हैं तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।। तुम अपने भक्तजन को विद्वान, यशस्वी, और लक्ष्मीवान बनाओ तथा रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।।१५-१६।।

प्रचण्डदैत्यदर्पघ्ने चण्डिके प्रणताय मे।

रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। १७।।
चतुर्भुजे चतुर्वक्त्र संस्तुते परमेश्वरि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। १८।।


प्रचंड दैत्यों के दर्प का दलन करने वाली चण्डिके! मुझ शरणागत को रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।। चतुर्भुज ब्रह्मा जी के द्वारा प्रशंसित चार भुजाधारिणी परमेश्वरि! तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।।१७-१८।।

कृष्णेन संस्तुते देवि शश्वत भक्त्या सदाम्बिके।

रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। १९।।
हिमाचलसुतानाथसंस्तुते परमेश्वरि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। २०।।


देवि अम्बिके! भगवान् विष्णु नित्य-निरंतर भक्तिपूर्वक तुम्हारी स्तुति करते रहते हैं। तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।। हिमालय-कन्या पार्वती के पति महादेवजी के द्वारा होने वाली परमेश्वरि! तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।।१९-२०।।

इन्द्राणीपतिसद्भावपूजिते परमेश्वरि।

रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। २१।।
देवि प्रचण्डदोर्दण्डदैत्यदर्पविनाशिनि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। २२।।


शचीपति इंद्र के द्वारा सद्भाव से पूजित होने वाल परमेश्वरि! तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।। प्रचंड भुजदण्डों वाले दैत्यों का घमंड चूर करने वाली देवि! तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।।२१-२२।।

देवि भक्तजनोद्दामदत्तानन्दोदये अम्बिके।

रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। २३।।
पत्नीं मनोरमां देहिमनोवृत्तानुसारिणीम्।
तारिणीं दुर्ग संसारसागरस्य कुलोद्भवाम् ।। २४।।


देवि! अम्बिके तुम अपने भक्तजनों को सदा असीम आनंद प्रदान करती हो। मुझे रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।। मन की इच्छा के अनुसार चलने वाली मनोहर पत्नी प्रदान करो, जो दुर्गम संसार से तारने वाली तथा उत्तम कुल में जन्मी हो।।२३-२४।।


इदं स्तोत्रं पठित्वा तु महास्तोत्रं पठेन्नरः।
स तु सप्तशती संख्या वरमाप्नोति सम्पदाम्। ॐ ।। २५।।


जो मनुष्य इस स्तोत्र का पाठ करके सप्तशती रूपी महास्तोत्र का पाठ करता है, वह सप्तशती की जप-संख्या से मिलने वाले श्रेष्ठ फल को प्राप्त होता है। साथ ही वह प्रचुर संपत्ति भी प्राप्त कर लेता है।।२६।।

।। इति देव्या अर्गला स्तोत्रं सम्पर्णम ।।

शुक्रवार, 20 सितंबर 2019

आज का शुभ विचार

                        आज का शुभ विचार

जीवन मे कैसा भी दुख और कष्ट आये पर भक्ति मत छोडिए। क्या कष्ट आता है तो आप भोजन करना छोड देते है। क्या बीमारी आती है तो आप सांस लेना छोड देते है, नही ना।

       फिर जरा सी तकलीफ़ आने पर आप भक्ति करना क्यों छोड़ देते हो ? कभी भी दो चीज मत छोडिए भजन और भोजन।

        भोजन छोड दोगे तो ज़िंदा नही रहोगे। भजन छोड दोगे तो कही के नही रहोगे सही मायने में भजन ही भोजन है। "दिल" कहता हैं की लिख दू ये जिन्दगी तेरे नाम की कृष्ण तुझे खुश ना कर पाऊ, तो ये ज़िन्दगी किस काम की "मेरे कृष्ण

 जय श्री राधे

गुरुवार, 19 सितंबर 2019

पितृपक्ष में श्राद्ध का महत्व

         पितृपक्ष में श्राद्ध करने का विशेष महत्व



हिंदू धर्म में व्यक्ति के कर्म और उसके पुनर्जन्म का विशेष संबंध देखा जाता है। यही वजह है कि किसी व्यक्ति की मृत्यु के उपरांत उसका श्राद्ध कर्म करना अत्यंत आवश्यक माना गया है। ऐसी मान्यता है कि यदि किसी व्यक्ति के द्वारा उसके पूर्वजों का पूरे विधि-विधान से श्राद्ध अथवा तर्पण ना किया जाए तो उस जीव की आत्मा को मुक्ति प्राप्त नहीं होती और वह इस संसार में ही रह जाती है और अपने वंशजों से बार-बार यह उम्मीद रहती है कि वह उसके मुक्ति के मार्ग को खोलने के लिए श्राद्ध कर्म करें।
यहां पर ध्यान देने योग्य बात यह है कि विशेष रूप से जौ और चावल में मेधा की प्रचुरता होने के कारण और ये दोनों ही सोम से संबंधित होने के कारण पितृ पक्ष में यदि इन्ही से पिंडदान किया जाए तो पितृ अपने 28 अंश रेतस को पाकर तृप्त हो जाते हैं और उन्हें प्रचुर शक्ति मिलती है और इसके बाद वे सोम लोक में ये रेतस के अंश देकर अपने लोक में चले जाते हैं।
श्रद्धया इदं श्राद्धम्‌।

अर्थात जो पूर्ण श्रद्धा के साथ किया जाये, वही श्राद्ध है। पितृ पक्ष के दौरान जब किसी जातक द्वारा अपने पूर्वजों के निमित्त तर्पण आदि किया जाता है उसके कारण वह पितृ स्वयं ही प्रेरित होकर आगे बढ़ता है। जब पिंडदान होता है तो उस दौरान परिवार के सदस्य जो या चावल का पिंडदान करते हैं इसी मे रेतस का अंश माना जाता है और पिंडदान के बाद वह पितृ उस अंश के साथ सोम अर्थात चंद्र लोक में पहुंच कर अपना अम्भप्राण का ऋण चुकता कर देता है।
आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से पितृ चक्र ऊपर की ओर गति करने लगता है जिसके कारण 15 दिन के बाद पितृ अपना भाग लेकर शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से पितृ लोक की ओर रवाना हो जाते हैं। यही पितृपक्ष है और इसी वजह से इसका इतना महत्व है। सुषुम्ना नाड़ी जिसका संबंध सूर्य से माना गया है उसी के द्वारा अन्य दिनों में श्राद्ध किया जाता है। इसी नाड़ी के द्वारा श्रद्धा मध्यान्ह काल में पृथ्वी पर प्रवेश करती है और यहां से पितृ के भाग को लेकर चली जाती है जबकि पितृ पक्ष के दौरान पितृप्राण की स्थिति चंद्रमा के उर्ध्व प्रदेश में होती है और वे स्वयं ही चंद्रमा की परिवर्तित स्थिति होने के कारण पृथ्वी लोक पर व्याप्त होते हैं। यही वजह है जो पितृ पक्ष में तर्पण को इतना अधिक महत्व दिलाती है।
अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम् ।
पितृणामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम् ॥29॥

गीता सार के अनुसार इस श्लोक का अर्थ यह है कि भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे धनंजय! संसार के विभिन्न नागों में मैं शेषनाग और जलचरों में वरुण हूं, पितरों में अर्यमा तथा नियमन करने वालों में यमराज हूं। इस प्रकार अर्यमा को भगवान श्री कृष्ण द्वारा महिमामंडित किया गया है। अब आइए जानते हैं कि अर्यमा का पितृपक्ष अथवा पितरों से क्या संबंध है।
ॐ अर्यमा न त्रिप्य्ताम इदं तिलोदकं तस्मै स्वधा नमः।
ॐ मृत्योर्मा अमृतं गमय।।

इस श्लोक का तात्पर्य यह है कि सभी पितरों में अर्यमा श्रेष्ठ हैं। अर्यमा ही सभी पितरों के देव माने जाते हैं। इसलिए अर्यमा को प्रणाम। हे पिता, पितामह, और प्रपितामह। हे माता, मातामह और प्रमातामह आपको भी बारम्बार प्रणाम। आप हमें मृत्यु से अमृत की ओर ले चलें। इसलिए वैशाख मास के दौरान सूर्य देव को अर्यमा भी कहा जाता है।
सर्वास्ता अव रुन्धे स्वर्ग: षष्ट्यां शरत्सु निधिपा अभीच्छात्।।

अथर्ववेद में अश्विन मास के दौरान पितृपक्ष के बारे में कहा गया है कि शरद ऋतु के दौरान जब छोटी संक्रांति आती है अर्थात सूर्य कन्या राशि में प्रवेश करता है तो इच्छित वस्तुओं में पितरों को प्रदान की जाती हैं, यह सभी वस्तुएँ स्वर्ग प्रदान करने वाली होती है।
आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से अमावस्या तक की अवधि के दौरान पितृ प्राण ऊपरी किरण अर्थात अर्यमा के साथ पृथ्वी पर व्याप्त होते हैं। इन्हें महर्षि कश्यप और माता अदिति का पुत्र माना गया है और देवताओं का भाई। इसके अतिरिक्त उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र इनका निवास स्थान माना गया है। कुछ स्थानों पर इन्हें प्रधान पितृ भी माना गया है। यदि यह प्रसन्न हो जाएं तो पितरों की तृप्ति हो जाती है इसी कारण  इनके नाम को लेकर जल दान किया जाता है।

श्राद्ध में कुछ विशेष(आखिर क्या होता है व्यक्ति की मृत्यु के बाद?)

        आखिर क्या होता है व्यक्ति की मृत्यु के बाद?




पृथ्वी लोक पर जब किसी प्राणी की मृत्यु होती है और वह अपना शरीर त्यागता है तो वह 3 दिन के अंदर पितृ लोक पहुँचता है। इसलिए मृत्यु के तीसरे दिन तीजा मनाया जाने का विधान है। कुछ आत्माएं अधिक समय लेती हैं और लगभग 13 दिन में पितृ लोक पहुँचती हैं, उन्हीं की शांति के लिए तेरहवीं या त्रियोदशाकर्म किया जाता है। कुछ ऐसी भी आत्माएं होती हैं जिन्हें पितृ लोक पहुंचने में 37 से 40 दिन लग जाते हैं अर्थात लगभग सवा महीने में वो ये सफर तय करती है। इसलिए महीने भर के बाद मृत्यु की तिथि पर पुनः तर्पण किया जाता है और इसके पश्चात एक वर्ष (12 मास) के बाद तर्पण द्वारा बरसी की जाती है। इसके पश्चात उन्हें उनके कर्मानुसार पुनर्जन्म प्राप्त होने की संभावना होती है और उनका न्याय होता है।
जिन लोगों ने सत्कर्म किया होता है और अच्छे कर्मों की संख्या अधिक होती है उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है अर्थात बार-बार जन्म लेने के बंधन से मुक्ति मिल जाती है। यजुर्वेद के अनुसार तप और ध्यान करने वाले सद्चरित्र प्राणी ब्रह्मलोक पहुँचकर ब्रह्मलीन हो जाते हैं अर्थात उन्हें पुनर्जन्म नहीं लेना पड़ता। जिन लोगों ने सत्कर्म किया है और ईश्वर भक्ति में ध्यान लगाया है उन्हें स्वर्ग लोक की प्राप्ति होती है और वे दैवीय बन जाते हैं। जो प्राणी अत्यंत ही निकृष्ट प्रकृति के कार्य करते हैं उन्हें सद्गति प्राप्त नहीं होती और वह प्रेत योनि में भटकते हैं अर्थात उनकी आत्मा को शांति प्राप्त नहीं होती है।
इसके अतिरिक्त कुछ ऐसी आत्माएं भी होती हैं जिन्हें किसी विशेष उद्देश्य की प्राप्ति के लिए या उनके कर्मों के आधार पर इसी धरती पर पुनर्जन्म प्राप्त होता है। यहां पर यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि सभी को धरती पर जन्म लेने पर भी मनुष्य योनि मिले, यह आवश्यक नहीं, वे पशु योनि में भी जा सकते हैं। ये सभी हमारे पूर्वज होते हैं और चाहे ये किसी भी योनि में जाएं हमारे पूर्वज ही रहेंगे इसलिए इनको सद्गति प्राप्त हो इसलिए श्राद्ध कर्म पूरे विधि-विधान के अनुसार करना चाहिए।
‘विदूर्ध्वभागे पितरो वसन्त: स्वाध: सुधादीधीत मामनन्ति'

पितृ लोक की स्थिति चंद्र अर्थात सोम लोक के उर्ध्व भाग में होती है। इसीलिए चंद्र लोक का पितृ लोक से गहरा संबंध होता है। मानव शरीर पंच महाभूतओं अर्थात पंच तत्वों से मिलकर बना होता है। जैसे पृथ्वी, वायु, जल, आकाश और अग्नि। इन पंच तत्वों में से सर्वाधिक रूप से जल और फिर वायु तत्व मुख्य रूप से मानव देह के निर्माण में सहायक होते हैं। यही दोनों तत्व सूक्ष्म शरीर को पूर्ण रूप से पुष्ट करते हैं और यही वजह है कि इन तत्वों पर अधिकार रखने वाला चंद्रमा और उसका प्रकाश मुख्य रूप से सूक्ष्म शरीर से भी संबंधित होता है।
जल तत्व को ही सोम भी कहा जाता है और सोम को रेतस भी कहते हैं। यही रेतस इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इसी में सूक्ष्म शरीर को पुष्ट करने हेतु चन्द्रमा से संबंधित अन्य सभी तत्व मौजूद रहते हैं।
जब मानव शरीर निर्मित होता है तब उसमें 28 अंश रेतस उपस्थित होता है। जब देह का त्याग करने के बाद आत्मा चंद्र लोक पहुँचती है तो पुनः उसे यही 28 अंश रेतस पर वापस लौट आना होता है और वास्तव में यही पितृ ऋण है। इसे चुकाने के पश्चात वह आत्मा अपने लोक में चली जाती है जहां सभी उसके स्वजातीय रहते हैं।
अब स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उठता है कि वास्तव में यह 28 अंश रेतस आत्मा कैसे लेकर जाती है। तो यह जानिए कि जब भी किसी प्राणी की देह का अंत होता है तो इस पृथ्वी लोक पर उस आत्मा की शांति के लिए वंशजों द्वारा जो भी पुण्य और श्राद्ध कर्म किए जाते हैं उससे उस आत्मा का मार्ग प्रशस्त होता है। जब श्रद्धा मार्ग से पिंड तथा जल आदि का दान श्राद्ध स्वरूप किया जाता है तो यही 28 अंश रेतस के रूप में आत्मा को प्राप्त होते हैं। क्योंकि यह श्रद्धा मार्ग मध्याह्नकाल के दौरान पृथ्वी लोक से संबंधित हो जाता है इसलिए इस इस समय अवधि के दौरान पितृपक्ष में श्राद्ध किया जाता है।

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