/ google.com, pub-1197897201210220, DIRECT, f08c47fec0942fa0 "ईश्वर के साथ हमारा संबंध: सरल ज्ञान और अनुभव: पितृपक्ष में श्राद्ध का महत्व

यह ब्लॉग खोजें

गुरुवार, 19 सितंबर 2019

पितृपक्ष में श्राद्ध का महत्व

         पितृपक्ष में श्राद्ध करने का विशेष महत्व



हिंदू धर्म में व्यक्ति के कर्म और उसके पुनर्जन्म का विशेष संबंध देखा जाता है। यही वजह है कि किसी व्यक्ति की मृत्यु के उपरांत उसका श्राद्ध कर्म करना अत्यंत आवश्यक माना गया है। ऐसी मान्यता है कि यदि किसी व्यक्ति के द्वारा उसके पूर्वजों का पूरे विधि-विधान से श्राद्ध अथवा तर्पण ना किया जाए तो उस जीव की आत्मा को मुक्ति प्राप्त नहीं होती और वह इस संसार में ही रह जाती है और अपने वंशजों से बार-बार यह उम्मीद रहती है कि वह उसके मुक्ति के मार्ग को खोलने के लिए श्राद्ध कर्म करें।
यहां पर ध्यान देने योग्य बात यह है कि विशेष रूप से जौ और चावल में मेधा की प्रचुरता होने के कारण और ये दोनों ही सोम से संबंधित होने के कारण पितृ पक्ष में यदि इन्ही से पिंडदान किया जाए तो पितृ अपने 28 अंश रेतस को पाकर तृप्त हो जाते हैं और उन्हें प्रचुर शक्ति मिलती है और इसके बाद वे सोम लोक में ये रेतस के अंश देकर अपने लोक में चले जाते हैं।
श्रद्धया इदं श्राद्धम्‌।

अर्थात जो पूर्ण श्रद्धा के साथ किया जाये, वही श्राद्ध है। पितृ पक्ष के दौरान जब किसी जातक द्वारा अपने पूर्वजों के निमित्त तर्पण आदि किया जाता है उसके कारण वह पितृ स्वयं ही प्रेरित होकर आगे बढ़ता है। जब पिंडदान होता है तो उस दौरान परिवार के सदस्य जो या चावल का पिंडदान करते हैं इसी मे रेतस का अंश माना जाता है और पिंडदान के बाद वह पितृ उस अंश के साथ सोम अर्थात चंद्र लोक में पहुंच कर अपना अम्भप्राण का ऋण चुकता कर देता है।
आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से पितृ चक्र ऊपर की ओर गति करने लगता है जिसके कारण 15 दिन के बाद पितृ अपना भाग लेकर शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से पितृ लोक की ओर रवाना हो जाते हैं। यही पितृपक्ष है और इसी वजह से इसका इतना महत्व है। सुषुम्ना नाड़ी जिसका संबंध सूर्य से माना गया है उसी के द्वारा अन्य दिनों में श्राद्ध किया जाता है। इसी नाड़ी के द्वारा श्रद्धा मध्यान्ह काल में पृथ्वी पर प्रवेश करती है और यहां से पितृ के भाग को लेकर चली जाती है जबकि पितृ पक्ष के दौरान पितृप्राण की स्थिति चंद्रमा के उर्ध्व प्रदेश में होती है और वे स्वयं ही चंद्रमा की परिवर्तित स्थिति होने के कारण पृथ्वी लोक पर व्याप्त होते हैं। यही वजह है जो पितृ पक्ष में तर्पण को इतना अधिक महत्व दिलाती है।
अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम् ।
पितृणामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम् ॥29॥

गीता सार के अनुसार इस श्लोक का अर्थ यह है कि भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे धनंजय! संसार के विभिन्न नागों में मैं शेषनाग और जलचरों में वरुण हूं, पितरों में अर्यमा तथा नियमन करने वालों में यमराज हूं। इस प्रकार अर्यमा को भगवान श्री कृष्ण द्वारा महिमामंडित किया गया है। अब आइए जानते हैं कि अर्यमा का पितृपक्ष अथवा पितरों से क्या संबंध है।
ॐ अर्यमा न त्रिप्य्ताम इदं तिलोदकं तस्मै स्वधा नमः।
ॐ मृत्योर्मा अमृतं गमय।।

इस श्लोक का तात्पर्य यह है कि सभी पितरों में अर्यमा श्रेष्ठ हैं। अर्यमा ही सभी पितरों के देव माने जाते हैं। इसलिए अर्यमा को प्रणाम। हे पिता, पितामह, और प्रपितामह। हे माता, मातामह और प्रमातामह आपको भी बारम्बार प्रणाम। आप हमें मृत्यु से अमृत की ओर ले चलें। इसलिए वैशाख मास के दौरान सूर्य देव को अर्यमा भी कहा जाता है।
सर्वास्ता अव रुन्धे स्वर्ग: षष्ट्यां शरत्सु निधिपा अभीच्छात्।।

अथर्ववेद में अश्विन मास के दौरान पितृपक्ष के बारे में कहा गया है कि शरद ऋतु के दौरान जब छोटी संक्रांति आती है अर्थात सूर्य कन्या राशि में प्रवेश करता है तो इच्छित वस्तुओं में पितरों को प्रदान की जाती हैं, यह सभी वस्तुएँ स्वर्ग प्रदान करने वाली होती है।
आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से अमावस्या तक की अवधि के दौरान पितृ प्राण ऊपरी किरण अर्थात अर्यमा के साथ पृथ्वी पर व्याप्त होते हैं। इन्हें महर्षि कश्यप और माता अदिति का पुत्र माना गया है और देवताओं का भाई। इसके अतिरिक्त उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र इनका निवास स्थान माना गया है। कुछ स्थानों पर इन्हें प्रधान पितृ भी माना गया है। यदि यह प्रसन्न हो जाएं तो पितरों की तृप्ति हो जाती है इसी कारण  इनके नाम को लेकर जल दान किया जाता है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

अगर आपको मेरी post अच्छी लगें तो comment जरूर दीजिए
जय श्री राधे

Featured Post

रवि पंचक जाके नहीं , ताहि चतुर्थी नाहिं। का अर्थ

  गोस्वामी तुलसीदासजी ने एक बड़े मजे की बात कही है - कृपया बहुत ध्यान से पढ़े एवं इन लाइनों का भावार्थ समझने की कोशिश करे- " रवि पंचक जा...