लघु गीता
अध्याय 3
कर्मों को प्रारंभ न करने से कोई निष्काम नहीं हो सकता और कर्म त्याग से न कोई संन्यासी हैं और न कोई सिद्धि प्राप्त कर सकता है।
प्रकृति के गुण सब मनुष्यों को कुछ न कुछ कर्म करवातें है।इसलिए मन ,बुद्धि व कर्म इंद्रियों को वश में करके अपने नियमित काम को करते रहना ही करम यज्ञ है। व फल की इच्छा ना करना ही संन्यास है और इसी तरह वश में करके प्रभु चिंतन करना चाहिए और यदि मन, बुद्धि, और ज्ञान इंद्रियां चिंतन करते समय वश में ना हो और विषयों का चिंतन करता है, वह पापी, मिथ्याचारी कहलाता है।
सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्मा जी ने यज्ञ सहित उत्पन्न करके कहा कि यज्ञ से ही बुद्धि,सुख और कल्याण को प्राप्त होंगे। जो स्वयं सामग्री भोग से पहले, इस का भाग, दान आदि नहीं करता है। वह पापी और देवताओं का चोर है।
राजा जनक आदि ने भी फल की इच्छा को छोड़ कर कर्म किया और मोक्ष प्राप्त किया। श्रेष्ठ मनुष्य जिस कर्म को करते है दूसरे लोग भी उसे प्रमाणिक मान कर उसे करते है और उत्तम मानते है। कृष्ण जी कहते है कि मुझे सब वस्तुएं प्राप्त हैं और फिर भी मैं कर्म करता रहता हूं अन्यथा आलस में आकर मैं कर्म न करूं तो अन्य लोग भी काम नहीं करेंगे और वे नष्ट हो जाएंगे और इससे वर्णशंकर उत्पत्ति हो जाएगी ,जो अपने पूर्वजों को नष्ट भी करेंगे और नर्क में भेजेंगे। अज्ञानी लोगों को प्रेम पूर्वक कर्म करवातें हुए धीरे धीरे ज्ञान उत्पन्न करने की चेष्टा करें।सब कर्म प्रकृति के गुणों को समझ करके होते है –परंतु कुछ मूर्ख लोग स्वयं को ही कर्ता समझ कर अभियान को प्राप्त होते हैं। परंतु जो गुण व कर्म के रहस्य को समझता है कि यह प्रकृति का ही खेल है वह ज्ञानी हैं। मनुष्य मात्र अपनी प्रकृति के अनुसार चलता है परंतु अन्य जीवों को स्वभाव अनुसार रहना पड़ता है। स्वयं विषयों को वश में करके रखना ही पुण्य है और विषय के वश में होना पाप है। रजोगुण ही मनुष्य का काम क्रोध उत्पन्न करता है और गलत कार्य की भावना की ओर ले जाता हैं। यह शत्रु है और कभी तृप्त नहीं होता और ज्ञान विज्ञान को नाश करता है मन व बुद्धि इसके आश्रय स्थल है– इसलिए इस काम को सर्वप्रथम इस दुर्धर शत्रु को जितना आवश्यक है।
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