मनुष्य के कल्याण में सबसे बड़ा बाधक
(ब्रह्मलीन परम श्रधेय श्री जय दयालजी गोयन्दका)
मनुष्य के कल्याण में सबसे प्रधान बाधक बुद्धि ,मन और इन्द्रियों के द्वारा विषयों में आसक्त होकर उन सबके आधीन हो जाना ही हैं |जब तक मन वश में नही होता ,तब तक परमात्मा की प्राप्ति होना बहुत ही कठिन हैं | भगवान कहते हैं -
जिसका मन वश में नहीं हुआ हैं ,ऐसे पुरुष द्वारा योग प्राप्त होना मुश्किल हैं |
अत: मन को वश में करने के लिए शास्त्रों में बहुत से उपाय बताए हुए हैं ,उनमे से किसी भी एक को अपना कर मन को वश में करना चाहिए |मन की चंचलता तो प्रत्यक्ष हैं |अर्जुन ने भी चंचल होने के कारण मन को वश में करना कठिन बतलाया हैं |परन्तु श्री कृष्ण कहते हैं कि अभ्यास के द्वारा यह संभव हैं इस अभ्यास के अनेक प्रकार हैं :
1-जहाँ -जहाँ मन जाए ,वहाँ- वहाँ ही परमात्मा के स्वरूप का अनुभव करना और वहीं मन को परमात्मा में लगा देना ;क्योंकि परमात्मा सब जगह सदा ही व्यापक हैं ,कोई भी ऐसा स्थान या काल नहीं हैं ,जहाँ परमात्मा नहीं हो |
2-मन जहाँ -जहाँ संसार के पदार्थो में जाए ,वहां से उसको विवेक पूर्वक हटाकर परमात्मा के स्वरूप में लगाते रहना |
3-विधि पूर्वक एकांत में बैठकर सगुण भगवान का ध्यान करना |भगवान ने गीता में कहा हैं -शुद्ध भूमि में जिसके ऊपर कुशा ,या शुद्ध वस्त्र का आसन हो |जो न बहुत ऊँचा हो ,न बहुत नीचा हो |उस पर बैठकर इन्द्रियों और मन को वश में करते हुए अंत: करण की शुद्धी के लिए योग का अभ्यास करे |
4-एक सच्चिदानन्द परमात्मा ही हैं -ऐसा द्रढ़ निश्चय करके तीक्ष्ण बुध्दि के द्वारा उस आनन्दमय परमात्मा का ध्यान करना|
(ब्रह्मलीन परम श्रधेय श्री जय दयालजी गोयन्दका)
मनुष्य के कल्याण में सबसे प्रधान बाधक बुद्धि ,मन और इन्द्रियों के द्वारा विषयों में आसक्त होकर उन सबके आधीन हो जाना ही हैं |जब तक मन वश में नही होता ,तब तक परमात्मा की प्राप्ति होना बहुत ही कठिन हैं | भगवान कहते हैं -
जिसका मन वश में नहीं हुआ हैं ,ऐसे पुरुष द्वारा योग प्राप्त होना मुश्किल हैं |
अत: मन को वश में करने के लिए शास्त्रों में बहुत से उपाय बताए हुए हैं ,उनमे से किसी भी एक को अपना कर मन को वश में करना चाहिए |मन की चंचलता तो प्रत्यक्ष हैं |अर्जुन ने भी चंचल होने के कारण मन को वश में करना कठिन बतलाया हैं |परन्तु श्री कृष्ण कहते हैं कि अभ्यास के द्वारा यह संभव हैं इस अभ्यास के अनेक प्रकार हैं :
1-जहाँ -जहाँ मन जाए ,वहाँ- वहाँ ही परमात्मा के स्वरूप का अनुभव करना और वहीं मन को परमात्मा में लगा देना ;क्योंकि परमात्मा सब जगह सदा ही व्यापक हैं ,कोई भी ऐसा स्थान या काल नहीं हैं ,जहाँ परमात्मा नहीं हो |
2-मन जहाँ -जहाँ संसार के पदार्थो में जाए ,वहां से उसको विवेक पूर्वक हटाकर परमात्मा के स्वरूप में लगाते रहना |
3-विधि पूर्वक एकांत में बैठकर सगुण भगवान का ध्यान करना |भगवान ने गीता में कहा हैं -शुद्ध भूमि में जिसके ऊपर कुशा ,या शुद्ध वस्त्र का आसन हो |जो न बहुत ऊँचा हो ,न बहुत नीचा हो |उस पर बैठकर इन्द्रियों और मन को वश में करते हुए अंत: करण की शुद्धी के लिए योग का अभ्यास करे |
4-एक सच्चिदानन्द परमात्मा ही हैं -ऐसा द्रढ़ निश्चय करके तीक्ष्ण बुध्दि के द्वारा उस आनन्दमय परमात्मा का ध्यान करना|