/ "ईश्वर के साथ हमारा संबंध: सरल ज्ञान और अनुभव: 2023

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गुरुवार, 28 दिसंबर 2023

गीता के तीसरे अध्याय का सरल अर्थ

                 गीता के तीसरे अध्याय का सरल तात्पर्य


इस मनुष्य लोक में सभी को निष्काम पूर्वक अपने कर्तव्य का तत्परता से पालन करना चाहिए। चाहे ज्ञानी हो या अज्ञानी हो, चाहे वह भगवान का अवतार ही क्यों ना हो। कारण की सृष्टि चक्र अपने-अपने कर्तव्य का पालन करने से ही चलता है। मनुष्य ना तो कर्मों का आरंभ किए बिना सिद्धि को प्राप्त होता है और ना कर्मों के त्याग से सिद्धि को प्राप्त होता है। ब्रह्मा जी ने सृष्टि रचना के समय प्रजा से कहा कि तुम लोग अपने-अपने कर्तव्य कर्म के द्वारा एक दूसरे की सहायता करो, एक दूसरे को उन्नत करो, तो तुम लोग परम श्रेय को प्राप्त हो जाओगे। जो सृष्टि चक्र की मर्यादा के अनुसार अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता उसका इस संसार में जीना व्यर्थ है। यद्यपि मनुष्य रूप में अवतरित भगवान के लिए इस त्रिलोकी में कोई कर्तव्य नहीं है फिर भी वे लोग संग्रह के लिए अपने कर्तव्य का तत्परता से पालन करते हैं। ज्ञानी महापुरुष को भी लोक संग्रह के लिए अपने कर्तव्य का तत्परता से पालन करना चाहिए। अपने कर्तव्य का निष्काम भाव पूर्वक पालन करते हुए मनुष्य मर भी जाए तो भी उसका कल्याण है।

तीसरे अध्याय में, भगवान श्रीकृष्ण ने यह भी बताया कि सब कर्म गुणों द्वारा होते हैं और व्यक्ति को अपने स्वभाव के अनुसार कर्म करना चाहिए। कर्मों में आसक्ति नहीं रखना चाहिए, लेकिन सब कर्मों को निष्काम भाव से भगवान के लिए करना चाहिए। यहाँ संन्यास और कर्मयोग का समन्वय किया गया है, जिससे व्यक्ति अपने साधन में उच्चता प्राप्त कर सकता है। इस अध्याय ने जीवन को सबसे उच्च लक्ष्य की ओर मोड़ने के लिए एक सार्थक मार्ग प्रदान किया है, जिससे व्यक्ति अपने कर्मों को धार्मिक और आदर्शपूर्ण तरीके से समझ सकता है।

 प्रश्न– कोई भी मनुष्य हरदम कर्म नहीं करता और नींद लेने स्वास लेने, आंखों को खोलना, मीचने आदि को भी वह ’मैं करता हूं’ ऐसा नहीं मानता, तो फिर तीसरे  अध्याय की पांचवी श्लोक में  यह कैसे कहा गया है कि कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्था में क्षण मात्र भी कर्म किए बिना नही रहता?

उत्तर– जब तक स्वय प्रकृति के साथ अपना संबंध मानता है तब तक वह कोई क्रिया करें अथवा ना करें, उसमें क्रियाशीलता रहती ही है। वह क्रिया दो प्रकार की होती है क्रिया को करना और क्रिया का होना। यह दोनों विभाग प्रकृति के संबंध से ही होते हैं, परंतु जब प्रकृति का संबंध नहीं रहता तब करना और होना नहीं रहते, प्रत्यूत ’है ’ही रहता है। करने में कर्ता, होने में क्रिया और ’है’ में तत्व रहता है। वास्तव में कर्तव्य रहने पर भी ह’ रहता है और क्रिया रहने पर भी ‘है’ रहता है अर्थात कर्ता और क्रिया तो है का अभाव नहीं होता। 

बुधवार, 27 दिसंबर 2023

गीता के दूसरे अध्याय का अर्थ

                         गीता के दूसरे अध्याय का अर्थ


अपने विवेक को महत्व देना और अपने कर्तव्य का पालन करना– इन दोनों उपाय में से किसी भी एक उपाय को मनुष्य दृढ़ता से काम में ले तो शौक चिंता मिट जाते हैं। जितने शरीर दिखते हैं, वह सभी नष्ट होने वाले हैं, मरने वाले है,पर उनमें रहने वाला कभी मरता नही है। जैसे शरीर बाल्यावस्था को छोड़कर युवावस्था को और युवावस्था को छोड़कर वृद्धावस्था को धारण कर लेता है ऐसे ही शरीर में रहने वाला एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर को धारण कर लेता है। मनुष्य जैसे पुराने वस्त्र को छोड़कर नए वस्त्र को पहन लेता है। ऐसे ही शरीर में रहने वाला शरीर रूपी एक चोले को छोड़कर दूसरा चोला पहन लेता है। जितनी अनुकूल प्रतिकूल परिस्थितियों आती है वह पहले नहीं थी और पीछे भी नहीं रहेगी और बीच में भी उन में प्रतिक्षण वियोग हो रहा है। तात्पर्य यह है कि वे परिस्थितियों आने जाने वाली है सदा रहने वाली नहीं है। इस प्रकाश स्पष्ट विवेक हो जाए तो हलचल, शोक, चिंता नहीं रह सकती। शास्त्र की आज्ञा के अनुसार जो कर्तव्य कर्म प्राप्त हो जाए उनका पालन कार्य की पूर्ति, आपूर्ति और फल की प्राप्ति और अप्राप्ति  में सम रहकर किया जाए तो भी हलचल नहीं रह सकती।

दूसरे अध्याय में, भगवान श्रीकृष्ण ने यह भी बताया कि सब कुछ ईश्वर की दृष्टि से हो रहा है और सभी जीव ईश्वर के अंश हैं। यहाँ जीवन के कार्यों को निर्दिष्ट फलों के लिए नहीं करना चाहिए, बल्कि कर्मों को निष्काम भाव से करना चाहिए। इससे मन शांत रहता है और कर्मयोगी व्यक्ति सुख और दुःख में समान रहता है। अध्याय ने जीवन के मार्गदर्शन के लिए एक सार्थक दृष्टिकोण प्रदान किया है, जिससे व्यक्ति अपने कर्मों को सही दृष्टिकोण से समझ सकता है और अच्छे निर्णय ले सकता है।

मंगलवार, 26 दिसंबर 2023

गीता दर्पण गीता के प्रत्येक अध्याय का सरल अर्थ

          गीता के प्रत्येक अध्याय का तात्पर्य

         गीता का पहले अध्याय का अर्थ 


        
   

                                 पहला अध्याय


जिन्होंने अपने प्रिय भक्त अर्जुन के कल्याण के लिए अत्यंत गोपनीय अपना गीता नमक हृदय प्रकट किया है तथा जिन्होंने ’मनुष्य जिस किसी परिस्थिति में स्थित रहता हुआ ही अपना कल्याण कर सकता है’ यह नहीं कला बताई है, उन भगवान श्री कृष्ण के लिए नमस्कार है।

 जो लोग अपने सिद्धांत को गीता में घटाना चाहते हैं, वे इस गीता को देखते हैं तो उन्हें अपना पक्षरूप मुख दिखाने के लिए गीता स्वयं दर्पण है, परंतु जो मनुष्य पक्षपात और आग्रह से रहित होकर गीता के मत को जानना चाहते हैं उनके लिए मैंने यह अद्भुत गीता दर्पण लिखा है।

मोह के कारण ही मनुष्य मैं क्या करूं और क्या नहीं करूं, इस दुविधा में फंसकर कर्तव्यच्युत हो जाता है अगर वह मोह के वशीभूत ना हो तो वह कर्तव्यच्युत नहीं हो सकता।

भगवान, धर्म,परलोक आदि पर श्रद्धा रखने वाले मनुष्यों के भीतर अधिकतर  इन बातों को लेकर हलचल, दुविधा रहती है कि अगर हम कर्तव्य रूप से प्राप्त कम को नहीं करेंगे तो हमारा पतन हो जाएगा। अगर हम केवल सांसारिक कार्य में ही लग जाएंगे तो हमारी आध्यात्मिक उन्नति नहीं होगी। व्यवहार में लगने से, परमार्थ ठीक नहीं होगा और परमार्थ में लगने से व्यवहार ठीक नहीं होगा। अगर हम कुटुंब को छोड़ देंगे तो हमें पाप लगेगा और अगर कुटुंब में बैठे रहेंगे तो हमारी आध्यात्मिक उन्नति नहीं होगी आदि आदि। तात्पर्य यह है कि अपना कल्याण तो चाहते हैं पर मोह, सुखासक्ति के कारण संसार छूटता नहीं है। इसी तरह की हलचल अर्जुन के मन मे भी होती है कि अगर मैं युद्ध करूंगा तो कुल का नाश होने से मेरी कल्याण में बाधा लगेगी और अगर मैं युद्ध नहीं करूंगा तो कर्तव्य से परे हो जाने के कारण  मेरे कल्याण में बाधा लगेगी।

यह गीता दर्पण से ली गई है।😊🙏


गीता दर्पण(श्रीमद् भागवत गीता का सरल रूप


गीता दर्पण(श्रीमद् भागवत गीता का सरल रूप



भगवान की दिव्य वाणी श्रीमद् भागवत गीता के भाव बहुत ही गंभीर और अनायास कल्याण करने वाले हैं। उनका मनन करने से साधक के हृदय में नए-नए विलक्षण भाव प्रकट होते हैं। समुद्र में मिलने वाले रतन का तो अंत आ सकता है, पर गीता में मिलने वाले मनो मुग्धकारी  भाव रूपी रतन का कभी अंत नहीं आता। गीता के भावों को भलीभांति समझने से गीता के वक्ता( भगवान श्रोता (अर्जुन) का, गीता का और अपने स्वरूप का ठीक ठीक बोध हो जाता है। बोध होने पर मनुष्य कृतकृत्य, ज्ञातज्ञातव्य(जो जानना चाहते हो जान जाते हो),और  प्राप्तप्राप्तव्य(जो पाना चाहते हो पा जाते हो)  हो जाता है। उसके लिए कुछ भी करना, जानना और पाना बाकी नहीं रहता। उसका मनुष्य जन्म सर्वथा सफल हो जाता है।
जैसे भक्त जिस भाव से भगवान का भजन करता है, भगवान भी उसी भाव से उसका भजन करते हैं। ऐसे ही मनुष्य जिस मान्यता को लेकर गीता को देखता है, गीता भी इस मान्यता के अनुसार उसको देखने लग जाती है। जैसे मनुष्य दर्पण के सामने जैसा मुख बनाकर जाता है उसको वैसा ही मुख दर्पण में दिखने लग जाता है। ऐसे ही भगवान की वाणी गीता इतनी विलक्षण है कि इसके सामने मनुष्य जैसा सिद्धांत बनाकर जाता है उसको वैसा ही सिद्धांत गीता में दिखने लग जाता है। इस प्रकार गीता रूपी दर्पण में कर्म योगियो को क्रम शास्त्र, ज्ञान योगियो को ज्ञान शास्त्र और भक्ति योगियो को भक्ति शास्त्र दिखता है। सभी साधकों को गीता में अपनी रुचि, श्रद्धा– विश्वास और योग्यता के अनुसार अपने कल्याण का साधन मिल जाता है परंतु जो अपने मत, सिद्धांत आदि कोई आग्रह न रखकर तथा तथस्त होकर गीता के भावों को समझना चाहते हैं उनके लिए यह गीत दर्पण नामक ग्रंथ परम उपयोगी है। इसी गीता दर्पण ग्रंथ में से मैं आपके समक्ष कुछ महत्वपूर्ण जानकारियां जो मुझे मिली है आपके समक्ष रख रही हूं।
।।जय श्री राधे।।

शनिवार, 18 नवंबर 2023

प्रार्थना कैसे स्वीकार होती है।

                        प्रार्थना कैसे स्वीकार होती है।



प्रार्थना, एक आत्मिक संबंध जो परमात्मा या उच्चतम शक्ति से होता है, को स्वीकार करना मानव जीवन में महत्वपूर्ण है। प्रार्थना में व्यक्ति अपने मन, शरीर, और आत्मा को दिव्यता की ओर मोड़ता है। इसके माध्यम से, वह अपनी इच्छाओं, आशाओं, और आत्मविश्वास को व्यक्त करता है और उच्चतम से आशीर्वाद मांगता है।


प्रार्थना स्वीकार करना एक आत्मिक विकास का साधन होता है, जिससे व्यक्ति अपने जीवन को एक उच्च स्तर पर ले जाने के लिए संजीवनी शक्ति प्राप्त करता है। यह एक आत्मा की अंतर्दृष्टि को बढ़ाता है और उसे जीवन के चुनौतीपूर्ण पहलुओं का सामना करने के लिए शक्तिशाली बनाता है। सार्वजनिक या व्यक्तिगत स्तर पर, प्रार्थना एक सकारात्मक शक्ति है जो समृद्धि, शांति, और समर्पण की भावना को संतुष्ट करने में सहारा करती है।

प्रार्थना का मतलब है भगवान या ऊँची शक्ति से बातचीत करना। इसमें हम अपनी चिंताओं, इच्छाओं और आभासों को उनसे साझा करते हैं। यह हमें आत्मिक शांति और संबल प्रदान करता है।


प्रार्थना करने से हम अपने जीवन को सकारात्मक दिशा में मोड़ सकते हैं और अधिक समझदार बन सकते हैं। यह हमें सहारा देता है जब हम किसी मुश्किल स्थिति में होते हैं।


प्रार्थना से हम आत्मा को शक्ति महसूस करते हैं और जीवन को एक नए दृष्टिकोण से देख सकते हैं। यह हमें समझाता है कि हम अकेले नहीं हैं और किसी अद्भुत शक्ति के साथ जुड़े हुए हैं।

शुक्रवार, 17 नवंबर 2023

अकेलेपन को कैसे दूर करें

                      अकेलेपन को कैसे दूर करें


अकेलेपन को दूर करने के लिए, आपको सकारात्मक क्रियाएं अपनानी चाहिए। शुरुआत में, आत्म-समीक्षा करें और अपने लक्ष्यों को स्पष्ट रूप से देखें। साथ ही, नए लोगों से मिलें और सामाजिक गतिविधियों में भाग लें। अपनी रूचियों को पुनर्जीवित करें और नए कौशल सीखें। मेडिटेशन और योग का अभ्यास भी आत्म-समर्थन में मदद कर सकता है। समय के साथ, आप नए दृष्टिकोण बना सकते हैं और अपने आत्मविश्वास को मजबूत कर सकते हैं।


सकारात्मक क्रियाएं आपको आत्म-समर्थन में मदद कर सकती हैं। कुछ सकारात्मक क्रियाएं शामिल हैं:


1. ध्यान और मेडिटेशन:यह मानसिक शांति और सकारात्मकता को बढ़ावा देने में मदद कर सकता है।

2. नए लोगों से मिलना:समाज में बढ़ावा देने के लिए नए दोस्त बनाना और सोशल ग्रुप्स में शामिल होना।

3. रेगुलर एक्सर्साइज: यह ताजगी और सकारात्मक ऊर्जा देने में मदद कर सकता है।

4. कला और रुचियां: अपनी रुचियों और कला में लिपटना, सकारात्मकता को बढ़ावा देने में सहारा कर सकता है।

5. स्वयं से उत्तराधिकारी बनना:अपने लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए स्वयं को जिम्मेदार महसूस करना।

गुरुवार, 16 नवंबर 2023

दुखी मन को कैसे संभाले?

                      दुखी मन को कैसे संभाले?






दुखी मन को संभालने के लिए कई तरीके हैं। यह समाधान ढूंढने में समय लगा सकता है, लेकिन यह आपको सहारा प्रदान कर सकते हैं:


1. अपने आत्म-समर्पण को बढ़ाएं: ध्यान, योग, और प्राणायाम के माध्यम से अपनी आत्मा के साथ संबंध स्थापित करें।


2. विचारशीलता: अपने विचारों को सकारात्मक बनाने के लिए प्रयास करें और नकारात्मकता से दूर रहें।


3. सामाजिक संबंधों का समर्थन: अपने दोस्तों और परिवार से बातचीत करें, उनसे सहायता मांगें और समर्थन प्राप्त करें।


4. स्वस्थ जीवनशैली: सही आहार, पर्याप्त नींद, और नियमित व्यायाम से अपनी शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य का ध्यान रखें।


5. कल्याणमय गतिविधियां: ऐसी क्रियाएं जैसे कि किताबें पढ़ना, कला, संगीत, या कोई रुचिकर गतिविधि मनोबल बढ़ा सकती हैं।


अगर आपका दुःख गंभीर है या बना रहता है, तो विशेषज्ञ सलाह लेना महत्वपूर्ण हो सकता है।

साधना कैसे करें?

                             साधना कैसे करें?




साधना करने के लिए:


1. स्थिरता बनाएं: एक स्थिर स्थान चुनें और नियमित समय पर साधना करें.


2. आसन और श्वासप्रश्वास: योगासन और ध्यानासन में स्थिर बैठें, ध्यान केंद्रित करें और शांति से श्वासप्रश्वास का ध्यान रखें.


3. मन को शांत करें:अपने विचारों को ध्यान से गुजरने दें, मन को शांत करने के लिए मन्त्र जाप भी कर सकते हैं.


4. सकारात्मक भावना: सकारात्मक भावना को अपनाएं, धन्यवाद, कृतज्ञता, और शांति के भाव को बढ़ावा दें.


5. समर्पण:साधना को समर्पित रूप से करें, उसमें निष्ठा बनाएं और नियमित रूप से अभ्यास करें.


6. गुरु की मार्गदर्शन: अगर संभावना हो, एक आदर्श गुरु से मार्गदर्शन प्राप्त करें.


साधना में धीरज रखें और नियमित रूप से अभ्यास करने का प्रयास करें।

शुक्रवार, 6 अक्तूबर 2023

प्रभु के मंगल विधान में विश्वास

                     प्रभु के मंगल–विधान में विश्वास

जो कुछ मिला, मिल रहा है जो कुछ, जो कुछ आगे होगा प्राप्त।

 सब प्रभु का मंगल विधान है, सब में कृपा नित्य परि व्याप्त।।

 जन्म मरण, निरवधि सुख, दारुण दुख, मान अति, अति अपमान।

 पूर्व रचित मंगलमय प्रभु के सब मंगल अनिवार्य विधान।।

 करूण, भयानक, सुंदर, शुभ, विभत्स, सुसर्जन, अति संहार।

 एकमात्र रसमय का सब में, सदा मधुर  लीला विस्तार।। करना नहीं गर्व सुख में, करना ना दुख में कभी विषाद।

 रहना आती संतुष्ट, समझकर सब में प्रभु का कृपा प्रसाद।।

(पद रत्नाकर)


faith in God's providence


belief in god's providence

Whatever I got, whatever I am getting, whatever will happen next

get. Everything is God's good will, blessings are always there in everything.

Pervasive..

Birth and death, everlasting happiness, excruciating sorrow, extreme respect and extreme insult.

All the auspicious and mandatory rules of the auspicious Lord written earlier.

Compassionate, terrible, beautiful, auspicious, terrible, good creation, extreme destruction.

The only sweet pleasure in all, always an extension of the sweet leela. Never be proud in happiness, never be sad in sorrow.

Stay satisfied, understanding that God's grace is in everything.

बुधवार, 16 अगस्त 2023

सामान्य धर्म और परम धर्म में अंतर (परमार्थ के पत्र पुष्प)

सामान्य धर्म और परम धर्म में अंतर (परमार्थ के पत्र पुष्प)



श्री दशरथ दशरथ जी के मरने के बाद जब उनकी अंत्येष्टि क्रिया हो रही थी उस समय तीनों लोकों के महान से महान ऋषि महर्षि उपस्थित थे। तीनों माताएं सती कालिक श्रृंगार करके आई और चिता  की ओर बढ़ रही थी। उपस्थित ऋषि समूह सती हो जाना ही ठीक समझ रहे थे। इसी बीच श्री भरत लाल जी ने उन माताओं के श्री चरणों में प्रणाम किया। श्री तुलसीदास जी ने लिखा है कि– 
गहि पद भरत मातु सब राखी। रही राम दर्शन अभिलाषी।। मानस अयोध्याकांड 239 /2
उक्त वाक्य में ध्वनि यह है कि श्री भरत जी ने माताओं को प्रणाम करके उन्हें समझाया कि पति के साथ सती होना सामान्य धर्म है। शरीर को रखकर श्री राम का दर्शन करना परम धर्म है। परम धर्म से भक्ति होती है। भक्ति करने से ,परमधर्म का आचरण करने से सामान्य धर्म के त्याग का दोष नहीं लगता है। सामान्य पालन हुआ माना जाता है, सो के नोट में 50, 20, 10, 5 आदि के नोट समाए रहते हैं। सो के नोट को प्राप्त करने में यदि पांच का नोट छूट जाए, तो हानि नहीं मानी जाएगी। पांच का नोट सामान्य धर्म है और 100 का नोट भक्ति का आचरण है। सती होने में साधारण लाभ है। राम दर्शन में परम लाभ है। अतः अब वन में चलकर राम दर्शन होगा आगे वन से वापस आने पर अधिक समय तक श्री राम के दर्शन का लाभ होगा। यह सोचकर माताएं वापस रनिवास को चली गई।
फोन कि मैं कोई स्त्री भी दुआ नहीं होती थी सती हो जाती थी विधवा स्त्री जीवित नहीं रहती थी परंतु राम दर्शनार्थ माताएं जीवित रहे इसका समर्थन उसी समूह ने किया माताओं में श्रीराम से प्रार्थना की थी कि 
जो दिन गए तुमहि बिन देखे,ते विरंचि जनि पारहिं लखे।।
हे श्रीराम जो दिन तुम्हारे दर्शनों के बिना बीते, उनकी गिनती जीवन में ना हो, दर्शन युक्त जीवन ही जीवन है। भक्ति बिना जीवन जीवन नहीं है। श्री राम के जन्म से पूर्व का समय आयु में नहीं गिना गया। जन्म के बाद से जितनी आयु उस युग में होनी चाहिए, उतनी आयु माताओं ने प्राप्त की, 10000 वर्ष की आयु उन दिनों हुआ करती थी। दर्शन हीन जीवन लेखे में नहीं आया। माताएं अधिक दिन जीवित रही ,श्री राम जी के साथ परमधाम गई।
दादा गुरु भक्ति माली जी महाराज के श्री मुख से

गुरुवार, 3 अगस्त 2023

महाराज दशरथ का जन्म एक बहुत ही अद्भुत घटना है पौराणिक धर्म ग्रंथों के आधार पर बताया जाता है

 महाराज दशरथ का जन्म एक बहुत ही अद्भुत घटना है पौराणिक धर्म ग्रंथों के आधार पर बताया जाता है कि

एक बार राजा अज दोपहर की वंदना कर रहे थे।

उस समय लंकापति रावण उनसे युद्ध करने के लिए आया और दूर से उनकी वंदना करना देख रहा था। राजा अज ने भगवान शिव की वंदना की और जल आगे अर्पित करने की जगह पीछे फेंक दिया।

यह देखकर रावण को बड़ा आश्चर्य हुआ। और वह युद्ध करने से पहले राजा अज के सामने पहुंचा तथा पूछने लगा कि हमेशा वंदना करने के पश्चात जल का अभिषेक आगे किया जाता है, न कि पीछे, इसके पीछे क्या कारण है। राजा अज ने कहा जब मैं आंखें बंद करके ध्यान मुद्रा में भगवान शिव की अर्चना कर रहा था, तभी मुझे यहां से एक योजन दूर जंगल में एक गाय घास चरती हुई दिखी और मैंने देखा कि एक सिंह उस पर आक्रमण करने वाला है तभी मैंने गाय की रक्षा के लिए जल का अभिषेक पीछे की तरफ किया।

रावण को यह बात सुनकर बड़ा ही आश्चर्य हुआ।

रावण ऐक योजन दूर वहाँ गया और उसने देखा कि एक गाय हरी घास चर रही है जबकि शेर के पेट में कई वाण लगे हैं अब रावण को विश्वास हो गया कि जिस महापुरुष के जल से ही बाण बन जाते हैं और बिना किसी लक्ष्य साधन के लक्ष्य बेधन हो जाता है ऐसे वीर पुरुष को जीतना बड़ा ही असंभव है और वह उनसे बिना युद्ध किए ही लंका लौट जाता है।

एक बार राजा अज जंगल में भ्रमण करने के लिए गए थे तो उन्हें एक बहुत ही सुंदर सरोवर दिखाई दिया उस सरोवर में एक कमल का फूल था जो अति सुंदर प्रतीत हो रहा था।

उस कमल को प्राप्त करने के लिए राजा अज सरोवर में चले गए किंतु यह क्या राजा अज जितना भी उस कमल के पास जाते वह कमल उनसे उतना ही दूर हो जाता और राजा अज उस कमल को नहीं पकड़ पाया।

अंततः आकाशवाणी हुई कि हे राजन आप नि:संतान हैं आप इस कमल के योग्य नहीं है इस भविष्यवाणी ने राजा अज के हृदय में एक भयंकर घात किया था।

राजा अज अपने महल में लौट आए और चिंता ग्रस्त रहने लगे क्योंकि उन्हें संतान नहीं थी जबकि वह भगवान शिव के परम भक्त थे।

भगवान शिव ने उनकी इस चिंता को ध्यान में लिया। और उन्होंने धर्मराज को बुलाया और कहा तुम किसी ब्राह्मण को अयोध्या नगरी पहुँचाओ जिससे राजा अज को संतान की प्राप्ति के आसार हो।

दूर पार एक गरीब ब्राह्मण और ब्राह्मणी सरयू नदी के किनारे कुटिया बनाकर रहते थे ।

एक दिन वे ब्राह्मण राजा अज के दरबार में गए और उनसे अपनी दुर्दशा का जिक्र कर भिक्षा मांगने लगे।

राजा अज ने अपने खजाने में से उन्हें सोने की अशर्फियां देनी चाही लेकिन ब्राह्मण नहीं कहते हुए मना कर दिया कि यह प्रजा का है आप अपने पास जो है, उसे दीजिए तब राजा अज ने अपने गले का हार उतारा और ब्राह्मण को देने लगे किंतु ब्राह्मण ने मना कर दिया कि यह भी प्रजा की ही संपत्ति है

इस प्रकार राजा अज को बड़ा दुख हुआ कि आज एक गरीब ब्राह्मण उनके दरबार से खाली हाथ जा रहा है तब राजा अज शाम को एक मजदूर का बेश बनाते हैं और नगर में किसी काम के लिए निकल जाते हैं।

चलते - चलते वह एक लौहार के यहाँ पहुंचते हैं और अपना परिचय बिना बताए ही वहां विनय कर काम करने लग जाते हैं पूरी रात को हथौड़े से लोहे का काम करते हैं जिसके बदले में उन्हें सुबह एक टका मिलता है।

राजा एक टका लेकर ब्राह्मण के घर पहुंचते हैं लेकिन वहां ब्राह्मण नहीं था उन्होंने वह एक टका ब्राह्मण की पत्नी को दे दिया और कहा कि इसे ब्राह्मण को दे देना ।

जब ब्राह्मण आया तो ब्राह्मण की पत्नी ने वह टका ब्राह्मण को दिया और ब्राह्मण ने उस टका को जमीन पर फेंक दिया तभी एक आश्चर्यजनक घटना हुई ब्राह्मण ने जहां टका फेंका था वहां गड्ढा हो गया ब्राह्मण ने उस गढ्ढे को और खोदा तो उसमें से सोने का एक रथ निकला तथा आसमान में चला गया इसके पश्चात ब्राह्मण ने और खोदा तो दूसरा सोने का रथ निकला और आसमान की तरफ चला गया इसी प्रकार से, नौ सोने के रथ निकले

और आसमान की तरफ चले गए और जब दसवाँ रथ निकला तो उस पर एक बालक था और वह रथ जमीन पर आकर ठहर गया।

ब्राह्मण उस बालक को लेकर राजा अज के दरबार में पहुंचे और कहा राजन - इस पुत्र को स्वीकार कीजिए यह आपका ही पुत्र है जो एक टका से उत्पन्न हुआ है

तथा इसके साथ में सोने के नौ रथ निकले जो आसमान में चले गए जबकि यह बालक दसवें रथ पर निकला इसलिए यह रथ तथा पुत्र आपका है। इस प्रकार से दशरथ जी का जन्म हुआ था।

महाराज दशरथ का असली नाम मनु था और ये दसों दिशाओं में अपना रथ लेकर जा सकते थे इसीलिए दशरथ नाम से प्रसिद्ध हुए।

                जय श्री राम

शुक्रवार, 14 जुलाई 2023

कृष्णं वंदे जगदगुरूम्

                कृष्णं वंदे जगदगुरूम्

जिस प्रकार ईशतत्व सर्व व्याप्त है। उसी प्रकार गुरुतत्व सर्व व्याप्त है। गुरु में और कृष्ण में भेद नहीं है। कृष्णम वंदे जगदगुरूम। कृष्ण ही गुरु रूप में मिलकर उपदेश देते हैं। गुरु सेवा से कृष्ण कृपा सुलभ होती है, तात्पर्य यह है कि संत, भगवंत, गुरु में एकता है। संत, भगवंत, गुरु कृपा निरंतर जीवों पर बरसती रहती हैं। जो साधक सात्विक है वे कृपा को पचा लेते हैं और पुष्ट हो जाते हैं। उनका ज्ञान बुद्धि भक्ति सब कुछ पुष्ट हो जाता है। जो कृपा को नहीं पचा पाते हैं, वह दुष्ट हो जाते हैं। जैसे पौष्टिक पदार्थ पचेगा ,तो शरीर पुष्ट होगा। अति मात्रा में सेवन किया गया पौष्टिक तत्व जब नहीं पचता है, तो उल्टे शरीर में रोग पैदा कर देता है। इसलिए कृपा का अनुभव प्रत्येक परिस्थिति में करना चाहिए। यदि प्रभु की कृपा ना हो तो हमारी जिव्हा पर प्रभु का नाम भी नहीं आ सकता है।

।।जय श्री कृष्ण।।

गंगा में गुरु भाव प्रगट होने से.....

                        गंगा में गुरु भाव प्रगट होने से.......

गुरुदेव प्रदेश जाने लगे तो शिष्य से कहा कि गंगा जी को गुरु मानो। मेरे स्थान पर उन्हें प्रणाम करो। शिष्य ने गंगा जी में स्नान, वस्त्र धोना बंद कर दिया। गुरु के आने पर भी गंगा में गुरु भाव बना रहा। लोगों के मन में गुरु भक्ति दृढ़ करने के लिए गुरु ने गंगा में प्रवेश कर के, शिष्य से वस्त्र मांगे। गुरु आज्ञा पालन करना है वस्त्र देना है, पर गंगा में पैर नहीं रखना। धर्म संकट के समय धर्म की निष्ठा की रक्षा स्वयं भगवान करते हैं। कमल पत्र प्रकट हो गए, उन पर चलकर वस्त्र दिए। गुरु वचनों में विश्वास का अद्भुत दृष्टांत है।

विश्वास से परधाम गए गुरु वापस आए

                 विश्वास से प्रधान गए गुरु वापस आए

संत सदगुरुदेव में श्रद्धा की आवश्यकता है। जहां पर श्रद्धा होगी वहीं पर प्रभु अपना रूप प्रकट करके अनुभव करा देते हैं और अश्रद्धा के द्वारा दिया गया दान, हवन तुच्छ ल देता है। श्रद्धा पूर्वक थोड़ा दान भी महान फल देता है। शिष्य प्रदेश जाने लगा तो गुरु ने कहा कि वापस आओगे तो रहस्य की बात बताऊंगा। वापस आते आते गुरु का शरीर छूट गया, पर अपनी श्रद्धा के कारण उसने गुरु के शरीर त्याग को स्वीकार नहीं किया।बिना मुझे उस बात को बताए गुरुदेव भगवान वैकुंठ नहीं जा सकते, गुरु की वाणी में शिष्य का विश्वास था अतः गुरुदेव वैकुंठ में से वापस आ गए और कहा संत में मुझसे अधिक श्रद्धा रखकर सेवा करो। गुरु वचन में विश्वास से रहस्यमय  उपदेश मिला। वैकुंठ जाकर कोई वापस नहीं आता पर शिष्य की श्रद्धा ने गुरु को वापस बुला लिया। पुनः जीवित कर लिया। 

जय गुरुदेव।।

गुरुवार, 13 जुलाई 2023

परमार्थ के पत्र पुष्प (गुरु महिमा)

                  परमार्थ के पत्र पुष्प( गुरु महिमा)


ईश्वर परम दयालु है। तभी हम लोग सुख पूर्वक रह रहे हैं। यदि हमारे दोषों को प्रभु देखें तो एक क्षण भी हमको सुख ना मिले। जैसे अबोध शिशु के दोषों को देखकर माता-पिता उन पर ध्यान नहीं देते हैं, उसी प्रकार संसारी माता-पिता से भी कई गुना दयालु ईश्वर हम जीवो के दोषों पर ध्यान नहीं देता है। हम पग-पग पर अनेक अपराध करते हैं। भगवत कृपा से सत्संग प्राप्त हो, जीव ईश्वर की शरण में पहुंच जाए तो यह निष्पाप व निर्भय हो जाता है। ईश्वर का नियम है कि वह किसी संत सद गुरु देव की सिफारिश के बिना किसी को नहीं अपनाता है। गुरुदेव के रूप धारण कर ईश्वर ही अपनी प्राप्ति का उपाय बताता है। प्रत्येक शिष्य का गुरु ईश्वर ही होता है। ईश्वर और गुरु एक ही है। फिर भी वह ईश्वर जब गुरु रूप धारण करता है तब ईश्वर की अपेक्षा अधिक दयामय और क्षमाशील होता है। गुरु भक्त पर ईश्वर प्रसन्न रहता है। इतिहास में जिन लोगों ने गुरुवाणी में विश्वास किया, उन्हें प्रत्यक्ष फल मिला। कल्याणकारी शिक्षा देने वाले को गुरु कहते हैं। सर्वप्रथम शिक्षा देने वाले माता-पिता हैं वह गुरु हैं उनमें श्रद्धा विश्वास रखकर उनकी सेवा करनी चाहिए। वर्णमाला तथा लौकिक व्यवहार की शिक्षा देने वाले गुरु हैं। ईश्वर को प्राप्त कराने वाली शिक्षा सद्गुरु होते हैं। लोक में कोई ज्ञान बिना गुरु के नहीं होता है तो फिर ईश्वरीय ज्ञान बिना गुरुदेव के कैसे हो सकता है। गुरुवाणी में विश्वास से परधाम गए गुरु वापस आए और गंगा में गुरु भाव होने से चरणों के नीचे कमल दल प्रकट हो गए ।

सदगुरुदेव भक्त माली श्री गणेश दास जी महाराज दादा गुरु

सोमवार, 26 जून 2023

चाहे मन लगे या न लगे, यदि भगवान्‌का नाम जीभसे निरन्तर लेने लग जाइयेगा

                                    ॥ श्री हरिः ॥

जीभ से निरन्तर भगवान्‌का नाम लीजिये —


भगवान्ने कहा है—‘सभी धर्मोका आश्रय छोड़कर केवल एकमात्र मेरी शरणमें चले आओ। फिर मैं तुम्हें सब पापोंसे मुक्त कर दूँगा, तुम चिन्ता मत करो।' 

सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज । अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा  शुचः ॥ 

(गीता १८ । ६६ )

जरूर पढ़े–

https://www.parmatmaaurjivan.co.in/2022/02/blog-post.html

मनकी कैसी भी अवस्था क्यों न हो, कोई परवाह नहीं । केवल जीभसे निरन्तर भगवान्‌का नाम लीजिये, फिर सारी जिम्मेवारी भगवान् सँभाल लेंगे। केवल जीभसे नाम - स्मरण, और कोई शर्त नहीं । 

चाहे मन लगे या न लगे, यदि भगवान्‌का नाम जीभसे निरन्तर लेने लग जाइयेगा तो फिर न तो कोई शंका उठेगी, न कोई चाह रहेगी । थोड़े ही दिनोंमें शान्तिका अनुभव करने लगियेगा। इससे सरल उपाय कोई नहीं है । पूर्वके पापोंके कारण नाम लेनेकी इच्छा नहीं होती । यदि एक बार हठसे निरन्तर नाम लेकर नियम लेकर ४-६ महीने बैठ जायँगे, तो फिर किसीसे कुछ भी पूछनेकी जरूरत नहीं रहेगी । स्वयं सत्य वस्तुका प्रकाश मिलने लगेगा, संदेह मिटने लगेंगे। इस प्रकार जिस दिन भजन करते-करते सर्वथा शुद्ध होकर भगवान्‌ को चाहियेगा, उसी क्षण भगवान् से मिलकर कृतार्थ हो जाइयेगा। 

पहले ऐसा कीजिये कि कम-से-कम बोलकर जरूरी - जरूरी काम निबटा लीजिये, बाकी का समय पूरा - का - पूरा जीभ से नाम लेते हुए बिताइये । यह खूब आसानी से हो सकता है । करना नहीं चाहियेगा तो उसकी कोई दवा होनी बड़ी कठिन है । यदि मनुष्य भजन करना चाहे तो जरूर कर सकता है। यदि कोई कहता है - ' हमसे भजन नहीं होता' तो समझ लीजिये कि सचमुच वह भजन करना चाहता नहीं । आपके चाहने पर भजन अवश्य हो सकता है। बिना परिश्रम ही सब हो जायगा । यह कलियुग है, मन लगना बड़ा ही कठिन है । बिरले ऐसे होते हैं, जिनका मन सचमुच भगवान्‌ में लग गया हो। पर यदि कोई जीभ से नाम लेने लगे तो फिर बिना मन लगे ही अन्त तक अवश्य कल्याण हो जायगा । 

 -परमपूज्य श्री राधाबाबा।

रविवार, 25 जून 2023

जब मन दुखी हो तो क्या करें?

                           जब मन दुखी हो तो क्या करें?


जब मन दुखी होता है, तो कई तरह की चीजें करके आप अपने मन को शांत कर सकते हैं। यहां कुछ सुझाव हैं जो आपको मदद कर सकते हैं:


अपने भावनाओं को व्यक्त करें: वक्त निकालें और अपनी भावनाओं को लिखें, चित्र बनाएं, या दूसरों के साथ बातचीत करें। अपनी मन की स्थिति को साझा करने से आपको राहत मिल सकती है और आपका दुख कम हो सकता है।

व्यायाम करें: शारीरिक गतिविधि और व्यायाम आपके मन को स्थिरता देने में मदद कर सकते हैं। योग, प्राणायाम, या किसी अन्य व्यायाम तकनीक का अभ्यास करना आपके मानसिक स्थिति को सुधार सकता है।

संगीत सुनें: संगीत आपके मन को शांति और आनंद प्रदान कर सकता है। आपकी पसंद के गाने सुनें या स्वयं गायें, जो आपको खुशी महसूस कराते हैं।

मनोरंजन करें: किसी अपने पसंदीदा गतिविधि में समय बिताएं, जैसे कि किताब पढ़ना, फिल्म देखना, कला या शौक के साथ समय बिताना। यह आपको मनोरंजन का मौका देता है और दुख को भुलाने में मदद कर सकता है। समय के साथ दुख को स्वीकार करें: दुख भाग्य का हिस्सा है और यह सभी के जीवन में आता है। जब हम अपने दुःख को स्वीकार करते हैं, तो हम उसे संघर्ष के बजाय स्वीकार करने और उसके साथ जीने का तरीका ढूंढ़ते हैं।

यदि आपका दुःख बहुत गंभीर है और आपको लगता है कि आप में अकेले  नहीं सामर्थ्य हैं, तो इससे बाहर एक पेशेवर, जैसे कि मनोवैज्ञानिक या मनोचिकित्सक, से सलाह लेने की सलाह दी जाती है। वे आपको सही दिशा में मार्गदर्शन कर सकते हैं।

अंत में, मैं तो यही कहूंगी कि अगर संसार में आपका अपना कोई ऐसा साथी नहीं है जिससे आप अपने सुख दुख बांट सकते हैं। तो ईश्वर को अपना साथी बना ले। जो भी आपको पसंद हो कृष्णा, शिव राधे मां, गौरा मां। ईश्वर, अल्लाह जो भी पसंद हो, उसे साथी बनाएं और उनके साथ अपनी सारी दिनचर्या शेयर करें, आपको बहुत शांति मिलेगी।असीम सुख की अनुभूति होगी।

।।जय श्री राधे।।


शनिवार, 10 जून 2023

कैलाश पर्वत और चंद्रमा का रहस्य.....

                    कैलाश पर्वत और चंद्रमा का रहस्य.....


कैलाश पर्वत एक अनसुलझा रहस्य, कैलाश पर्वत के इन रहस्यों से नासा भी हो चुका है चकित..

कैलाश पर्वत, इस एतिहासिक पर्वत को आज तक हम सनातनी भारतीय लोग शिव का निवास स्थान मानते हैं। शास्त्रों में भी यही लिखा है कि कैलाश पर शिव का वास है।

किन्तु वहीं नासा जैसी वैज्ञानिक संस्था के लिए कैलाश एक रहस्यमयी जगह है। नासा के साथ-साथ कई रूसी वैज्ञानिकों ने कैलाश पर्वत पर अपनी रिपोर्ट दी है।

उन सभी का मानना है कि कैलाश वास्तव में कई अलौकिक शक्तियों का केंद्र है। विज्ञान यह दावा तो नहीं करता है कि यहाँ शिव देखे गये हैं किन्तु यह सभी मानते हैं कि, यहाँ पर कई पवित्र शक्तियां जरूर काम कर रही हैं। तो आइये आज हम आपको कैलाश पर्वत से जुड़े हुए कुछ रहस्य बताते हैं।

कैलाश पर्वत के रहस्य.

रहस्य 1– रूस के वैज्ञानिको का ऐसा मानना है कि, कैलाश पर्वत आकाश और धरती के साथ इस तरह से केंद्र में है जहाँ पर चारों दिशाएँ मिल रही हैं। वहीं रूसी विज्ञान का दावा है कि यह स्थान एक्सिस मुंडी है और इसी स्थान पर व्यक्ति अलौकिक शक्तियों से आसानी से संपर्क कर सकता है। धरती पर यह स्थान सबसे अधिक शक्तिशाली स्थान है।

रहस्य 2 - दावा किया जाता है कि आज तक कोई भी व्यक्ति कैलाश पर्वत के शिखर पर नहीं पहुच पाया है। वहीं 11 सदी में तिब्बत के योगी मिलारेपी के यहाँ जाने का दावा किया जाता रहा है। किन्तु इस योगी के पास इस बात के प्रमाण नहीं थे या फिर वह स्वयं प्रमाण प्रस्तुत नहीं करना चाहता था। इसलिए यह भी एक रहस्य है कि इन्होंने यहाँ कदम रखा या फिर वह कुछ बताना नहीं चाहते थे..

रहस्य 3 - कैलाश पर्वत पर दो झीलें हैं और यह दोनों ही रहस्य बनी हुई हैं। आज तक इनका भी रहस्य कोई खोज नहीं पाया है। एक झील साफ़ और पवित्र जल की है। इसका आकार सूर्य के समान बताया गया है। वहीं दूसरी झील अपवित्र और गंदे जल की है तो इसका आकार चन्द्रमा के समान है। 

रहस्य 4 - यहाँ के आध्यात्मिक और शास्त्रों के अनुसार रहस्य की बात करें तो कैलाश पर्वत पे कोई भी व्यक्ति शरीर के साथ उच्चतम शिखर पर नहीं पहुच सकता है। ऐसा बताया गया है कि, यहाँ पर देवताओं का आज भी निवास हैं। पवित्र संतों की आत्माओं को ही यहाँ निवास करने का अधिकार दिया गया है।

रहस्य 5 - कैलाश पर्वत का एक रहस्य यह भी बताया जाता है कि जब कैलाश पर बर्फ पिघलती है तो यहाँ से डमरू जैसी आवाज आती है। इसे कई लोगों ने सुना है। लेकिन इस रहस्य को आज तक कोई हल नहीं कर पाया है.

रहस्य 6 – कई बार कैलाश पर्वत पर *सात तरह के प्रकाश* आसमान मेंदेखे गये हैं। इस पर नासा का ऐसा मानना है कि यहाँ चुम्बकीय बल है और आसमान से मिलकर वह कई बार इस तरह की चीजों का निर्माण करता 

रहस्य 7 - कैलाश पर्वत दुनिया के 4 मुख्य धर्मों का केंद्र माना गया है। यहाँ कई साधू और संत अपने देवों से टेलीपैथी से संपर्क करते हैं। असल में यह आध्यात्मिक संपर्क होता है।

रहस्य 8 - कैलाश पर्वत का सबसे बड़ा रहस्य खुद विज्ञान ने साबित किया है कि यहाँ पर प्रकाश और ध्वनि के बीच इस तरह का समागम होता है कि यहाँ से *ॐ* की आवाजें सुनाई देती हैं।

समझ गये होंगे कि, कैलाश पर्वत क्यों आज भी इतना धार्मिक और वैज्ञानिक महत्त्व रखे हुए है। हर साल यहाँ दुनियाभर से कई लोग अनुभव लेने आते हैं, और सनातन धर्म के लिए कैलाश सबसे बड़ा आदिकालीन धार्मिक स्थल भी बना हुआ 

यहाँ पर सूर्य और चंद्रमा के संधि काल (सायं काल) प्रकाश और ध्वनि के बीच इस तरह का समागम होता है कि यहाँ से *ॐ* की आवाजें सुनाई देती है।

मंगलवार, 6 जून 2023

परमार्थ के पत्र पुष्प (हृदय अशांत रहेगा)

           परमार्थ के पत्र पुष्प ( हृदय अशांत रहेगा)



अपने मन में सबके प्रति सद्भाव बनाए रखना चाहिए। दूसरे लोग मेरे प्रति ईर्ष्या द्वेष रखें, तो उससे हमारा कुछ भी ना बिगड़ेगा। ईर्ष्या क्रोध जिसके मन में है, उसी की हानि होगी। हृदय अशांत हो जाएगा। क्रोध ईर्ष्या से हृदय का रोग भी पैदा हो जाता है। मन शांत रहने से शरीर स्वस्थ रहेगा। शांत रहकर दूसरे को शांत रख सकेंगे। हम क्रोध करेंगे तो दूसरे को भी क्रोध की प्रेरणा मिलेगी। सभी जीव ईश्वर के अंश है। इसलिए सब के प्रति सद्भाव बना कर रखना चाहिए।इसी से प्रभु प्रसन्न होंगे, यही सच्ची भक्ति है। बिना कारण के उपकार करने वाले दो हैं –1.ईश्वर और 2.भक्त। शेष सब स्वार्थी हैं।

।।दादा गुरु के श्री मुख से।।

परमार्थ के पत्र पुष्प(जो लोग भगवान में अपने मन को लगाते है

          जो लोग अपने मन को भगवान में लगाते हैं।

जो लोग अपने मन को भगवान में लगाते हैं, वाणी से नाम गुणों का कीर्तन करते हैं। शरीर से मंदिर में सेवा करते हैं, वह भाग्यशाली हैं। इन्हीं कामों को प्रेम पूर्वक करते-करते भगवान के रूपों का, हृदय में साक्षात्कार कर लेते हैं। संसार में प्राणी निरंतर सुखी नहीं रह सकता है कभी सुख, कभी दुख प्रारब्ध के अनुसार मिलते हैं। इनसे घबराना नहीं चाहिए। सच्चाई के साथ व्यवहार करते हुए किसी का बुरा नहीं सोचना चाहिए। अपने साथ बुराई करने वाले को भी सज्जन शाप नहीं देते हैं। ऐसे परोपकारी पर भगवान प्रसन्न होते हैं। कष्ट के समय भक्तों की परीक्षा होती है, परीक्षा समझकर बुद्धि को स्थिर करना चाहिए। इतिहास देखने से पता चलता है कि बड़े-बड़े भक्तों को अवतार काल में परमात्मा को कष्ट सहन करते देखा जाता है। काल में भी अपने धर्म का त्याग करके जो उपकार करता है वही धन्य है।

दादा गुरु भक्तमाली श्री गणेशदास जी के श्री मुख से

श्रीमद् भागवत का सूक्ष्म रूप

                     श्रीमद् भागवत का सूक्ष्म रूप

                           मूल भागवत हिंदी में

                           ॐ श्री परमात्मने नमः

 श्री भगवान बोले– ब्रह्मा जी! मेरा जो अत्यंत गोपनीय विज्ञान सहित ज्ञान है, वह तथा रहस्य सहित उसके अंग मेरे द्वारा कहे गए हैं, उसको तुम ग्रहण करो, धारण करो।

 मैं जितना हूं, जिन जिन भाव वाला हूं, जिन जिन रूपों, गुणों और कर्मों वाला हूं, उस मेरे सभी रूप के तत्व का यथार्थ अनुभव तुम्हें मेरी कृपा से ज्यों का त्यों हो जाए।

सृष्टि से पहले भी मैं था, मेरे सिवा और कुछ भी नहीं था और सृष्टि उत्पन्न होने के बाद जो कुछ भी यह संसार दिखता है, वह भी मैं ही हूं। सत् (चेतन,अविनाशी), असत (नाशवान) तथा सत व असत से परे जो कुछ कल्पना की जा सकती है, वह भी मैं ही हूं।सृष्टि के सिवाय जो कुछ है वह मैं ही हूं और सृष्टि का नाश होने पर जो शेष है वह भी मैं ही हूं।

 जैसे कोई वस्तु बिना होते हुए भी अज्ञान रूपी अंधकार के कारण प्रतीत होती है, ऐसे ही संसार न होते हुए भी मेरे में प्रतीत होता है और ज्ञान प्रकाश होते हुए भी उधर दृष्टि ना रहने से प्रतीत नहीं होता, अनुभव में नहीं आता। ऐसे ही मैं होते हुए भी नहीं दिखता, यह दोनों संसार का विद्यमान ना होते हुए भी दिखना और मेरा विद्यमान होते हुए भी ना देखना, मेरी माया है, ऐसा समझना चाहिए।

जिस तरह पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश यह पांचों महाभूत प्राणियों के छोटे बड़े, अच्छे बुरे, सभी शरीरों में होते हुए भी वास्तव में नहीं है,अर्थात वे ही वे हैं उसी तरह मैं उन प्राणियों में होते हुए भी वास्तव में उनमें नहीं हूं। अर्थात मैं ही मैं हूं।

मुझ परमात्मा के तत्व को जानने की इच्छा वाले साधक को अनुभव और व्यतिरेक रीति से अर्थात संसार में मैं हूं और मेरे में संसार है, ऐसे रीति से तथा ना संसार में मैं हूं और ना मेरे में संसार है, बल्कि मैं ही मैं हूं। ऐसे तरीके से रीति से इतना ही जानना आवश्यक है कि सब जगह और सब समय में परमात्मा ही विद्यमान है अर्थात मेरी सिवाय कुछ भी नहीं है।

ब्रह्मा जी! तुम मेरे इस मत के अनुसार सर्वश्रेष्ठ समाधि में भलीभांति स्थित हो जाओ। फिर तुम कल्प कल्पांतर तक मोह  को प्राप्त नहीं होगे ।

श्रीमद्भागवत 2/9 (30 से 36 तक)

पंचामृत जीवन में एक बार इसको अपना लो फिर सुख ही सुख है

 पंचामृत जीवन में एक बार इसको अपना लो फिर जीवन में सुख ही सुख है।


1  हम भगवान के ही हैं

2  हम जहां भी रहते हैं भगवान के ही दरबार में रहते हैं।

3  हम जो भी शुभ काम करते हैं भगवान का ही काम करते हैं।

4  शुद्ध सात्विक जो भी पाते हैं भगवान का ही प्रसाद पाते हैं।

5  भगवान के दिए प्रसाद से, भगवान के ही जनों की सेवा करते हैं।

सोमवार, 5 जून 2023

महामृत्युंजय मंत्र की रचना

      महामृत्युंजय मंत्र की रचना कैसे हुई?

   किसने की महामृत्युंजय मंत्र की रचना?


शिवजी के अनन्य भक्त मृकण्ड ऋषि संतानहीन होने के कारण दुखी थे. विधाता ने उन्हें संतान योग नहीं दिया था.

मृकण्ड ने सोचा कि महादेव संसार के सारे विधान बदल सकते हैं. इसलिए क्यों न भोलेनाथ को प्रसन्नकर यह विधान बदलवाया जाए.

मृकण्ड ने घोर तप किया. भोलेनाथ मृकण्ड के तप का कारण जानते थे इसलिए उन्होंने शीघ्र दर्शन न दिया लेकिन भक्त की भक्ति के आगे भोले झुक ही जाते हैं.

महादेव प्रसन्न हुए. उन्होंने ऋषि को कहा कि मैं विधान को बदलकर तुम्हें पुत्र का वरदान दे रहा हूं लेकिन इस वरदान के साथ हर्ष के साथ विषाद भी होगा.भोलेनाथ के वरदान से मृकण्ड को पुत्र हुआ जिसका नाम मार्कण्डेय पड़ा. ज्योतिषियों ने मृकण्ड को बताया कि यह विलक्ष्ण बालक अल्पायु है. इसकी उम्र केवल 12 वर्ष है.

ऋषि का हर्ष विषाद में बदल गया. मृकण्ड ने अपनी पत्नी को आश्वत किया- जिस ईश्वर की कृपा से संतान हुई है वही भोले इसकी रक्षा करेंगे. भाग्य को बदल देना उनके लिए सरल कार्य है.

मार्कण्डेय बड़े होने लगे तो पिता ने उन्हें शिवमंत्र की दीक्षा दी. मार्कण्डेय की माता बालक के उम्र बढ़ने से चिंतित रहती थी. उन्होंने मार्कण्डेय को अल्पायु होने की बात बता दी.

मार्कण्डेय ने निश्चय किया कि माता-पिता के सुख के लिए उसी सदाशिव भगवान से दीर्घायु होने का वरदान लेंगे, जिन्होंने जीवन दिया है. बारह वर्ष पूरे होने को आए थे.

मार्कण्डेय ने शिवजी की आराधना के लिए महामृत्युंजय मंत्र की रचना की और शिव मंदिर में बैठकर इसका अखंड जाप करने लगे.

              ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।

             उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥

समय पूरा होने पर यमदूत उन्हें लेने आए. यमदूतों ने देखा कि बालक महाकाल की आराधना कर रहा है तो उन्होंने थोड़ी देर प्रतीक्षा की. मार्केण्डेय ने अखंड जप का संकल्प लिया था।

यमदूतों का मार्केण्डेय को छूने का साहस न हुआ और लौट गए. उन्होंने यमराज को बताया कि वे बालक तक पहुंचने का साहस नहीं कर पाए।

इस पर यमराज ने कहा कि मृकण्ड के पुत्र को मैं स्वयं लेकर आऊंगा. यमराज मार्कण्डेय के पास पहुंच गए.बालक मार्कण्डेय ने यमराज को देखा तो जोर-जोर से महामृत्युंजय मंत्र का जाप करते हुए शिवलिंग से लिपट गया।

यमराज ने बालक को शिवलिंग से खींचकर ले जाने की चेष्टा की तभी जोरदार हुंकार से मंदिर कांपने लगा. एक प्रचण्ड प्रकाश से यमराज की आंखें चुंधिया गईं।

शिवलिंग से स्वयं महाकाल प्रकट हो गए. उन्होंने हाथों में त्रिशूल लेकर यमराज को सावधान किया और पूछा तुमने मेरी साधना में लीन भक्त को खींचने का साहस कैसे किया?

यमराज महाकाल के प्रचंड रूप से कांपने लगे. उन्होंने कहा- प्रभु मैं आप का सेवक हूं. आपने ही जीवों से प्राण हरने का निष्ठुर कार्य मुझे सौंपा है।

भगवान चंद्रशेखर का क्रोध कुछ शांत हुआ तो बोले- मैं अपने भक्त की स्तुति से प्रसन्न हूं और मैंने इसे दीर्घायु होने का वरदान दिया है. तुम इसे नहीं ले जा सकते।

यम ने कहा- प्रभु आपकी आज्ञा सर्वोपरि है. मैं आपके भक्त मार्कण्डेय द्वारा रचित महामृत्युंजय का पाठ करने वाले को त्रास नहीं दूंगा।

महाकाल की कृपा से मार्केण्डेय दीर्घायु हो गए. उवके द्वारा रचित महामृत्युंजय मंत्र काल को भी परास्त करता है।

।।ॐ नमः शिवाय।।

गुरुवार, 18 मई 2023

भगवान श्रीकृष्ण ने अपने माता-पिता के लिए बनाये थे - ब्रज में चार धाम

भगवान श्रीकृष्ण ने अपने माता-पिता के लिए बनाये थे - ब्रज में चार धाम


भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी माता यशोधा और पिता नंद बाबा के लिए ब्रज की धरती पर ही चार धाम का निर्माण किया था। वैसे ये चार धार - यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ भारत के राज्य उत्तराखंड में स्थित है। भगवान श्रीकृष्ण ने अपने माता-पिता को चार धाम की यात्रा पर जाते देख और चार धाम यात्रा कठनाईयों को देखते हुए ब्रज की धरती पर ही चार धाम का आह्वान करके बुलाया था। इसके बाद एक-एक करके सारे तीर्थ ब्रज में आ गए। ये भी माना जाता है कि इन चार धाम के दर्शन से ही लोगों की मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं।

नंद बाबा और यशोदा को आई चार धाम यात्रा की याद

नंद बाबा और यशोदा वृद्धा वस्था में भी कोई संतान ने होने पर यह संकल्प लिया था कि अगर उनको संतान की प्राप्ती होगी तो चार धाम की यात्रा करेगें।

श्रीकृष्ण की गौचरण लीला के बाद नंद बाबा और यशोदा को चारधाम की यात्रा का संकल्प याद आया। इसके बाद उन्होंने तीर्थ यात्रा पर जाने की तैयारी शुरू कर दी। श्रीकृष्ण जब गायों को चराकर घर लौटे तो देखा कि घर में तैयारियां हो रही हैं। बैलगाड़ी को सजाया जा रहा है। इस पर श्रीकृष्ण ने यशोदा से पूछा कि मैया, ये क्या हो रहा है। इस पर यशोदा ने कहा भगवान श्रीकृष्ण से अपने संकल्प के बारे में बताया और इसलिए नंद बाबा और यशोदा तीर्थ करने जा रहे हैं।

श्रीकृष्ण ने चारों धामों को ब्रज में बुला लिया

इस पर श्रीकृष्ण ने कहा, मैया, बुढ़ापे में तीर्थ जा रहे हो। मैं सब तीर्थ ब्रज में बुला देता हूं। इसके बाद श्री श्रीकृष्ण ने अपनी माया से चारों धामों का आह्वान कर उन्हें ब्रज में बुला लिया और एक-एक करके सारे तीर्थ ब्रज में आकर उपस्थित हो गए। सभी तीर्थ विद्यमान हैं जिनमें चारों धाम केदारनाथ, बद्रीनाथ, यमुनोत्री और गंगोत्री भी ब्रज 84 कोस में ही मौजूद हैं।

बद्रीनाथ धाम

ब्रज की 84 कोस की परिक्रमा में आदिबद्रीनाथ के नाम से एक मंदिर है जो कि काम्यवन के अन्तर्गत आता है। भगवान श्रीकृष्ण के अनुरोध पर नंद बाबा और यशोदा मैया के साथ ब्रजवासियों को दर्शन देने भगवान बद्रीनारायण प्रकट हुए थे और इनका नाम बूढ़ा बद्री पड़ गया। डीग से कामां के रास्ते पर चलने पर बूढ़ा बद्री मंदिर के समीप ही अलकनंदा कुंड बना हुआ है जहां श्रद्धालु स्नान करते हैं।

वहीं गोवर्धन से करीब 36 किलोमीटर की दूरी पर डीग क्षेत्र के पास आदिबद्री धाम है। भगवान बद्रीनाथ ने देवसरोवर का भी स्वयं निर्माण किया। नर-नारायण पर्वत भी यहीं आमने-सामने मौजूद है।

यमुनोत्री और गंगोत्री

आदिबद्री धाम से कुछ दुरी पर, एक पहाड़ी पर यमुनोत्री और गंगोत्री धाम है। ये दोनों मंदिरों एक साथ देखा जा सकता है।

केदारनाथ धाम

कामां से करीब 10 किलोमीटर दूरी पर गांव विलोंद के समीप एक पर्वत पर भगवान केदारनाथ शेषनाग रूपी विशाल शिला के नीचे एक छोटी से गुफा में विराजमान हैं। जिस पर्वत पर केदारनाथ मंदिर है उसकी तलहटी में ही गौरीकुंड स्थित है। मंदिर करीब 500 फ़ीट की ऊंचाई पर है और करीब 450 सीढि़यां चढ़कर मंदिर तक पहुंचा जाता हैं। इस पहाड़ी पर नंदी, गणेश और शेषनाग की छवि दिखाई पड़ती है।


गुरुवार, 11 मई 2023

करूणा मयी श्री राधे

                            करूणा मयी श्री राधे 


एक  बार वृन्दावन में एक संत हुए कदम्खंडी जी महाराज। उनकी बड़ी बड़ी जटाएं थी। वो वृन्दावन के सघन वन में जाके भजन करते थे।

एक दिन जा रहे थे तो रास्ते में उनकी बड़ी बड़ी जटाए झाडियो में उलझ गई। उन्होंने खूब प्रयत्न किया किन्तु सफल नहीं हो पाए।

और थक के वही बैठ गए और बैठे बैठे गुनगुनाने लगे।

"हे मुरलीधर छलिया मोहन

हम भी तुमको दिल दे बैठे,

गम पहले से ही कम तो ना थे,

एक और मुसीबत ले बैठे "

बहोत से ब्रजवासी जन आये और बोले बाबा हम सुलझा देवे तेरी जटाए तो बाबा ने सबको डांट के भगा दिया और कहा की जिसने उलझाई वोही आएगा अब तो सुलझाने।

बहोत समय हो गया बाबा को बैठे बैठे......

"तुम आते नहीं मनमोहन क्यों

इतना हमको तडपाते हो क्यों ।

प्राण पखेरू लगे उड़ने,

तुम हाय अभी शर्माते हो क्यों।"

तभी सामने से 15-16 वर्ष का सुन्दर किशोर हाथ में लकुटी लिए आता हुआ दिखा। जिसकी मतवाली चाल देखकर करोडो काम लजा जाएँ। मुखमंडल करोडो सूर्यो के जितना चमक रहा था। और चेहरे पे प्रेमिओ के हिर्दय को चीर देने वाली मुस्कान थी।

आते ही बाबा से बोले बाबा हमहूँ सुलझा दें तेरी जटा।

बाबा बोले आप कोन हैं श्रीमान जी?

तो ठाकुर जी बोले हम है आपके कुञ्ज बिहारी।

तो बाबा बोले हम तो किसी कुञ्ज बिहारी को नहीं जानते।

तो भगवान् फिर आये थोड़ी देर में और बोले बाबा अब सुलझा दें।

तो बाबा बोले अब कोन है श्रीमान जी ।

तो ठाकुर बोले हम हैं निकुंज बिहारी।

तो बाबा बोले हम तो किसी निकुंज बिहारी को नहीं जानते।

तो ठाकुर जी बोले तो बाबा किसको जानते हो बताओ?

तो बाबा बोले हम तो निभृत निकुंज बिहारी को जानते हैं।

तो भगवान् ने तुरंत निभृत निकुंज बिहारी का स्वरुप बना लिया। ले बाबा अब सुलझा दूँ।

तब बाबा बोले च्यों रे लाला हमहूँ पागल बनावे लग्यो!

निभृत निकुंज बिहारी तो बिना श्री राधा जू के एक पल भी ना रह पावे और एक तू है अकेलो सोटा सो खड्यो है।

तभी पीछे से मधुर रसीली आवाज आई बाबा हम यही हैं। ये थी हमारी श्री जी।

और श्री जी बोली अब सुलझा देवे बाबा आपकी जटा।

तो बाबा मस्ती में आके बोले लाडली जू आपका दर्शन पा लिया अब ये जीवन ही सुलझ गया जटा की क्या बात है।

     लाडली जी की जय हो 

मंगलवार, 9 मई 2023

भगवान के होकर भगवान का नाम जप करो।

                                    ॥श्री हरिः॥

           भगवान के होकर भगवान का नाम जप करो।

                                    परम वचन

                       श्री रामसुखदासजी महाराज 

       जैसे आदमी दूर विदेशमें चला जाता है,  ऐसे आप खास भगवानके बेटे होते हुए भी दूर चले गये हैं। इसलिये सभी भाई-बहनोंसे मेरी प्रार्थना है कि आप कृपा करके स्वीकार कर ले कि हम भगवानके बेटा--बेटी है।  हम कपूत--सपूत, अच्छे--मन्दे, भले-- -बुरे जैसे भी हैं, भगवानके हैं। अब केवल भगवान की तरफ चलना ही हमारा काम है। भगवत्प्राप्तिके समान दूसरा कोई काम है ही नहीं। इसलिये भगवानके भजनमें लग जाओ। चलते--फिरते, 

 उठते--बैठते हर समय भगवानको याद रखो। भगवानका होकर भगवानके नामका जप करो ।

   बिगरी जनम अनेक की,  सुधरै अबहीं आजु   ।

   होहि राम को नाम जपु, तुलसी तजि कुसमाजु ।।

                                                 ( दोहावली 22 )

       इसमें तीन बातें बतायी है---कुसंग छोड़ दो, भगवानके हो जाओ, और भगवानके नामका जप करो। जैसे सत्संगसे महान लाभ होता है, ऐसे ही कुसंगसे महान हानि होती है। सांसारिक भोग और संग्रहको श्रेष्ठ माननेवाले और उनमें आसक्त पुरुषों का संग कुसंग है। भगवानकी चर्चा हो, भगवानका चिन्तन हो,  वह सत्संग है। आजकल कुसंग बहुत मिलता है, उससे सावधान रहो, अपनेको बचाओ।

( सीमा के भीतर असीम प्रकाश----205 )

सोमवार, 8 मई 2023

वैष्णव सदाचार का प्रतीक है तिलक

              वैष्णव सदाचार का प्रतीक है  तिलक


ऐसा कहा जाता है कि तिलक लगाते समय यदि भक्त दर्पण अथवा पानी मे अपना प्रतिबिम्ब ध्यानपूर्वक देखता है तो वह भगवान के धाम को जाता है

तिलक लगाना इस बात का प्रतिक है की आप सनातनी है और वैष्णव तिलक लगाना कृष्ण भक्ति का प्रतीक है।

जिस प्रकार स्त्री अपने स्वामी की प्रसन्नता के लिये श्रृँगार करती है उसी प्रकार वैष्णव अपने स्वामी(श्री कृष्ण)की प्रसन्नता के लिये श्रृँगार करते है जिसमे तिलक मुख्य है।

तिलक अनेक प्रकार के होते है 

चार मुख्य सम्प्रदायो के अपने अपने तिलक होते है जो जिस सम्प्रदाय से दीक्षित हो, वे उसका तिलक धारण करे अथवा जो दीक्षित ना हो वे श्री चैतन्य महाप्रभु को गुरू मान  कर उनका तिलक धारण करे। 

तिलक लगाने के लिये सिन्दूर,सफेद चन्दन,पीला चन्दन,लाल चन्दन,गोपी चन्दन और शिव भक्त सम्प्रदाय के भक्त भस्म का तिलक धारण करते है।कृष्ण भक्त वैष्णवो के लिये सबसे उत्तम तिलक है, गोपी चन्दन का इसलिये गोपी चन्दन का तिलक धारण करे।

-अपने हाथ मे गोपी चन्दन घिसते समय नीचे ना गिराएँ यदि वह नीचे गिर जाय तो तुरन्त साफ करे क्यूँकि गोपी चन्दन अत्यन्त मूल्यवान है यह साधारण चन्दन नही है कृष्ण भक्ति का आशिर्वाद है।

बाएँ हाथ मे तिलक बनाते हुए एवं मस्तक पर लगाते समय नामोच्चारण करेँ।

पुण्यं यशस्यमायुष्यं तिलकं मे प्रसीदतु ।। कान्ति लक्ष्मीं धृतिं सौख्यं सौभाग्यमतुलं बलम् । ददातु चन्दनं नित्यं सततं धारयाम्यहम् ।।

तिलक लगाने मे जो शर्म महसूस करे, वह कभी वैष्णव बनने योग्य नही हो सकता। तिलक लगा कर मन एवं आत्मा मे शान्ति और भक्ति और गर्व का अनुभव जो करे वही वैष्णव है।

।।जय श्री राधे।।

रविवार, 7 मई 2023

देवों में सबसे सुंदरतम भगवान श्री कृष्ण के जीवन की कई बातें अनजानी और रहस्यमयी है आइए जानें 24 अनजाने तथ्य.

देवों में सबसे सुंदरतम भगवान श्री कृष्ण के जीवन की कई बातें अनजानी और रहस्यमयी है आइए जानें 24 अनजाने तथ्य.


1. भगवान् श्री कृष्ण के खड्ग का नाम नंदक, गदा का नाम कौमौदकी और शंख का नाम पांचजन्य था जो गुलाबी रंग का था।

 2. भगवान् श्री कृष्ण के परमधामगमन के समय ना तो उनका एक भी केश श्वेत था और ना ही उनके शरीर पर कोई झुर्री थीं।

3.भगवान् श्री कृष्ण के धनुष का नाम शारंग व मुख्य आयुध चक्र का नाम सुदर्शन था। वह लौकिक, दिव्यास्त्र व देवास्त्र तीनों रूपों में कार्य कर सकता था उसकी बराबरी के विध्वंसक केवल दो अस्त्र और थे पाशुपतास्त्र ( शिव, कॄष्ण और अर्जुन के पास थे) और प्रस्वपास्त्र ( शिव, वसुगण, भीष्म और कृष्ण के पास थे)।

4. भगवान् श्री कृष्ण की परदादी 'मारिषा' व सौतेली मां रोहिणी (बलराम की मां) 'नाग' जनजाति की थीं।

5. भगवान श्री कृष्ण से जेल में बदली गई यशोदापुत्री का नाम एकानंशा था, जो आज विंध्यवासिनी देवी के नाम से पूजी जातीं हैं।

6. भगवान् श्रीकृष्ण की प्रेमिका राधा का वर्णन महाभारत, हरिवंशपुराण, विष्णुपुराण व भागवतपुराण में नहीं है। उनका उल्लेख ब्रह्मवैवर्त पुराण, गीत गोविंद व प्रचलित जनश्रुतियों में रहा है।

7. जैन परंपरा के मुताबिक, भगवान श्री कॄष्ण के चचेरे भाई तीर्थंकर नेमिनाथ थे जो हिंदू परंपरा में घोर अंगिरस के नाम से प्रसिद्ध हैं।

8. भगवान् श्री कृष्ण अंतिम वर्षों को छोड़कर कभी भी द्वारिका में 6 महीने से अधिक नहीं रहे।

9. भगवान श्री कृष्ण ने अपनी औपचारिक शिक्षा उज्जैन के संदीपनी आश्रम में मात्र कुछ महीनों में पूरी कर ली थी।

10. ऐसा माना जाता है कि घोर अंगिरस अर्थात नेमिनाथ के यहां रहकर भी उन्होंने साधना की थी।

11. प्रचलित अनुश्रुतियों के अनुसार, भगवान श्री कृष्ण ने मार्शल आर्ट का विकास ब्रज क्षेत्र के वनों में किया था। डांडिया रास का आरंभ भी उन्हीं ने किया था।

12. कलारीपट्टु का प्रथम आचार्य कृष्ण को माना जाता है। इसी कारण नारायणी सेना भारत की सबसे भयंकर प्रहारक सेना बन गई थी।

13. भगवान श्रीकृष्ण के रथ का नाम जैत्र था और उनके सारथी का नाम दारुक/ बाहुक था। उनके घोड़ों (अश्वों) के नाम थे शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक।

14. भगवान श्री कृष्ण की त्वचा का रंग मेघश्यामल था और उनके शरीर से एक मादक गंध निकलती थी।

15. भगवान श्री कृष्ण की मांसपेशियां मृदु परंतु युद्ध के समय विस्तॄत हो जातीं थीं, इसलिए सामान्यतः लड़कियों के समान दिखने वाला उनका लावण्यमय शरीर युद्ध के समय अत्यंत कठोर दिखाई देने लगता था ठीक ऐसे ही लक्ष्ण कर्ण व द्रौपदी के शरीर में देखने को मिलते थे।

16. जनसामान्य में यह भ्रांति स्थापित है कि अर्जुन सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर थे, परंतु वास्तव में कृष्ण इस विधा में भी सर्वश्रेष्ठ थे और ऐसा सिद्ध हुआ मद्र राजकुमारी लक्ष्मणा के स्वयंवर में जिसकी प्रतियोगिता द्रौपदी स्वयंवर के ही समान परंतु और कठिन थी।

17. यहां कर्ण व अर्जुन दोंनों असफल हो गए और तब श्री कॄष्ण ने लक्ष्यवेध कर लक्ष्मणा की इच्छा पूरी की, जो पहले से ही उन्हें अपना पति मान चुकीं थीं।

18. भगवान् श्री युद्ध कृष्ण ने कई अभियान और युद्धों का संचालन किया था, परंतु इनमे तीन सर्वाधिक भयंकर थे। 1- महाभारत, 2- जरासंध और कालयवन के विरुद्ध 3- नरकासुर के विरुद्ध

19. भगवान् श्री कृष्ण ने केवल 16 वर्ष की आयु में विश्वप्रसिद्ध चाणूर और मुष्टिक जैसे मल्लों का वध किया। मथुरा में दुष्ट रजक के सिर को हथेली के प्रहार से काट दिया।

20. भगवान् श्री कृष्ण ने असम में बाणासुर से युद्ध के समय भगवान शिव से युद्ध के समय माहेश्वर ज्वर के विरुद्ध वैष्णव ज्वर का प्रयोग कर विश्व का प्रथम जीवाणु युद्ध किया था।

21. भगवान् श्री कृष्ण के जीवन का सबसे भयानक द्वंद्व युद्ध सुभुद्रा की प्रतिज्ञा के कारण अर्जुन के साथ हुआ था, जिसमें दोनों ने अपने अपने सबसे विनाशक शस्त्र क्रमशः सुदर्शन चक्र और पाशुपतास्त्र निकाल लिए थे। बाद में देवताओं के हस्तक्षेप से दोनों शांत हुए।

22. भगवान् श्री कृष्ण ने 2 नगरों की स्थापना की थी द्वारिका (पूर्व में कुशावती) और पांडव पुत्रों के द्वारा इंद्रप्रस्थ (पूर्व में खांडवप्रस्थ)।

23. भगवान् श्री कृष्ण ने कलारिपट्टू की नींव रखी जो बाद में बोधिधर्मन से होते हुए आधुनिक मार्शल आर्ट में विकसित हुई।

24. भगवान् श्री कृष्ण ने श्रीमद्भगवतगीता के रूप में आध्यात्मिकता की वैज्ञानिक व्याख्या दी, जो मानवता के लिए आशा का सबसे बड़ा संदेश थी, है और सदैव रहे।

बुधवार, 3 मई 2023

महादेव-पार्वती संग झूमे

                           महादेव-पार्वती संग झूमे


रावण के वध के बाद अयोध्या पति श्री राम ने राजपाट संभाल लिया था और प्रजा राम राज्य से प्रसन्न थी. एक दिन भगवान महादेव की इच्छा श्री राम से मिलने की हुई।

पार्वती जी को संग लेकर महादेव कैलाश पर्वत से अयोध्या नगरी के लिए चल पड़े. भगवान शिव और मां पार्वती को अयोध्या आया देखकर श्री सीता राम जी बहुत खुश हुए।

माता जानकी ने उनका उचित आदर सत्कार किया और स्वयं भोजन बनाने के लिए रसोई में चली गईं. भगवान शिव ने श्री राम से पूछा- हनुमान जी दिखाई नहीं पड़ रहे हैं, कहां हैं ?

श्री राम बोले- वह बगीचे में होंगे. शिव जी ने श्री राम जी से बगीचे में जाने की अनुमति मांगी और पार्वती जी के साथ बगीचे में आ गए. बगीचे की खूबसूरती देखकर उनका मन मोहित हो गया।

आम के एक घने वृक्ष के नीचे हनुमान जी दीन-दुनिया से बेखबर गहरी नींद में सोए थे और एक लय में खर्राटों से राम नाम की ध्वनि उठ रही थी. चकित होकर शिव जी और माता पार्वती एक दूसरे की ओर देखने लगे।

माता पार्वती मुस्करा उठी और वृक्ष की डालियों की ओर इशारा किया. राम नाम सुनकर पेड़ की डालियां भी झूम रही थीं. उनके बीच से भी राम नाम उच्चारित हो रहा था।

शिव जी इस राम नाम की धुन में मस्त मगन होकर खुद भी राम राम कहकर नाचने लगे. माता पार्वती जी ने भी अपने पति का अनुसरण किया. भक्ति में भरकर उनके पांव भी थिरकने लगे।

शिव जी और पार्वती जी के नृत्य से ऐसी झनकार उठी कि स्वर्गलोक के देवतागण भी आकर्षित होकर बगीचे में आ गए और राम नाम की धुन में सभी मस्त हो गए।

माता जानकी भोजन तैयार करके प्रतीक्षारत थीं परंतु संध्या घिरने तक भी अतिथि नहीं पधारे तब अपने देवर लक्ष्मण जी को बगीचे में भेजा।

लक्ष्मण जी ने तो अवतार ही लिया था श्री राम की सेवा के लिए. अतः बगीचे में आकर जब उन्होंने धरती पर स्वर्ग का नजारा देखा तो खुद भी राम नाम की धुन में झूम उठे।

महल में माता जानकी परेशान हो रही थीं कि अभी तक भोजन ग्रहण करने कोई भी क्यों नहीं आया. उन्होंने श्री राम से कहा भोजन ठंडा हो रहा है चलिए हम ही जाकर बगीचे में से सभी को बुला लाएं।

जब सीता राम जी बगीचे में गए तो वहां राम नाम की धूम मची हुई थी. हुनमान जी गहरी नींद में सोए हुए थे और उनके खर्राटों से अभी तक राम नाम निकल रहा था।

श्री सिया राम भाव विह्वल हो उठे. श्री राम जी ने हनुमान जी को नींद से जगाया और प्रेम से उनकी तरफ निहारने लगे. प्रभु को आया देख हनुमान जी शीघ्रता से उठ खड़े हुए. नृत्य का माहौल भंग हो गया।

शिव जी खुले कंठ से हनुमान जी की राम भक्ति की सराहना करने लगे. हनुमान जी सकुचाए लेकिन मन ही मन खुश हो रहे थे. श्री सीया राम जी ने भोजन करने का आग्रह भगवान शिव से किया।

सभी लोग महल में भोजन करने के लिए चल पड़े. माता जानकी भोजन परोसने लगीं. हुनमान जी को भी श्री राम जी ने पंक्ति में बैठने का आदेश दिया।

हनुमान जी बैठ तो गए परंतु आदत ऐसी थी की श्री राम के भोजन के उपरांत ही सभी भोजन करते थे।

आज श्री राम के आदेश से पहले भोजन करना पड़ रहा था. माता जानकी हनुमान जी को भोजन परोसती जा रही थी पर हनुमान का पेट ही नहीं भर रहा था. कुछ समय तक तो उन्हें भोजन परोसती रहीं फिर समझ गईं इस तरह से हनुमान जी का पेट नहीं भरने वाला।

उन्होंने तुलसी के एक पत्ते पर राम नाम लिखा और भोजन के साथ हनुमान जी को परोस दिया. तुलसी पत्र खाते ही हनुमान जी को संतुष्टि मिली और वह भोजन पूर्ण मानकर उठ खड़े हुए।

भगवान शिव शंकर ने प्रसन्न होकर हनुमान जी को आशीर्वाद दिया कि आप की राम भक्ति युगों-युगों तक याद की जाएगी और आप संकट मोचन कहलाएंगे।

( आध्यात्म रामायण की कथा )

आपको क्या नही पता!

                          आपको क्या नहीं पता!

एक जिज्ञासु किसी प्रसिद्ध संत के पास पहुंचा तथा विनती की, 'महात्मा जी ऐसा ज्ञान दीजिए जीवन सफल हो जाए। महात्मा ने पूछा ’अच्छा बताइए, क्या चोरी करना पुण्य है? जिज्ञासु बोला, कदापि नहीं महात्मा जी!

 माता पिता की सेवा करनी चाहिए?

’ जी बिल्कुल। जीव जगत के प्रति दया रखनी चाहिए?’

 जी हां । किसी से छल कपट नहीं करना चाहिए?

 ’कभी नहीं।’

 ’संकट में किसी की सहायता करनी चाहिए? जी, अवश्य करनी चाहिए। जिज्ञासु ने सभी प्रश्नों के सटीक उत्तर दिए।

 तो महात्मा जी बोले तू ही बता तुझे क्या पता नहीं! इस पृथ्वी पर निवास कर रहे सभी मनुष्य को यह सब कुछ पता है। हर कोई अच्छा बुरा समझता है। समस्या तो ज्ञान को व्यवहार में उतारने की है। जो मनुष्य ज्ञान के अनुरूप आचरण करने लगेगा, उसका जीवन सफल हो जाएगा।

।। जय जय श्री राधे।।

मंगलवार, 2 मई 2023

दान व पुण्य

 दान व पुण्य वही है जो एक हाथ से करें तो दुसरे हाथ को भी पता न हो कि दान किया है |

एक गांव मे एक बहुत गरीब सेठ रहता था जो कि किसी जमाने बहुत बड़ा धनवान था जब सेठ धनी था उस समय सेठ ने बहुत पुण्य किए,गउशाला बनवाई, गरीबों को खाना खिलाया,अनाथ आश्रम बनवाए और भी बहुत से पुण्य किए थे लेकिन जैसे जैसे समय गुजरा सेठ निर्धन हो गया 

एक समय ऐसा आया कि राजा ने ऐलान कर दिया कि यदि किसी व्यक्ति ने कोई पुण्य किए हैं तो वह अपने पुण्य बताएं और अपने पुण्य का जो भी उचित फल है ले जाए

यह बात जब सेठानी ने सुनी तो सेठानी सेठ को कहती है कि हमने तो बहुत पुण्य किए हैं तुम राजा के पास जाओ और अपने पुण्य बताकर उनका जो भी फल मिले ले आओ

सेठ इस बात के लिए सहमत हो गया और दुसरे दिन राजा के महल जाने के लिए तैयार हो गया

जब सेठ महल जाने लगा तो सेठानी ने सेठ के लिए चार रोटी बनाकर बांध दी कि रास्ते मे जब भूख लगी तो रोटी खा लेना 

सेठ राजा के महल को रवाना हो गया

गर्मी का समय दोपहर हो गई,सेठ ने सोचा सामने पानी की कुंड भी है वृक्ष की छाया भी है क्यों ना बैठकर थोड़ा आराम किया जाए व रोटी भी खा लूंगा 

सेठ वृक्ष के नीचे रोटी रखकर पानी से हाथ मुंह धोने लगा 

तभी वहां पर एक कुतिया अपने चार पांच छोटे छोटे बच्चों के साथ पहुंच गई और सेठ के सामने प्रेम से दुम हिलाने लगी क्योंकि कुतिया को सेठ के पास के अनाज की खुशबु आ रही थी 

कुतिया को देखकर सेठ को दया आई सेठ ने दो रोटी निकाल कुतिया को डाल दी अब कुतिया भूखी थी और बिना समय लगाए कुतिया दोनो रोटी खा गई और फिर से सेठ की तरफ देखने लगी 

सेठ ने सोचा कि कुतिया के चार पांच बच्चे इसका दूध भी पीते है दो रोटी से इसकी भूख नही मिट सकती और फिर सेठ ने बची हुई दोनो रोटी भी कुतिया को डाल कर पानी पीकर अपने रास्ते चल दिया

सेठ राजा के दरबार मे हाजिर हो गया और अपने किए गए पुण्य के कामों की गिनती करने लगा

और सेठ ने अपने द्वारा किए गए सभी पुण्य कर्म विस्तार पुर्वक राजा को बता दिए और अपने द्वारा किए गए पुण्य का फल देने बात कही 

तब राजा ने कहा कि आपके इन पुण्य का कोई फल नही है यदि आपने कोई और पुण्य किया है तो वह भी बताएं शायद उसका कोई फल मै आपको दे पाउं 

सेठ कुछ नही बोला और यह कहकर बापिस चल दिया कि यदि मेरे इतने पुण्य का कोई फल नही है तो और पुण्य गिनती करना बेकार है अब मुझे यहां से चलना चाहिए

जब सेठ बापिस जाने लगा तो राजा ने सेठ को आवाज लगाई कि सेठ जी आपने एक पुण्य कल भी किया था वह तो आपने बताया ही नही 

सेठ ने सोचा कि कल तो मैनें कोई पुण्य किया ही नही राजा किस पुण्य की बात कर रहा है क्योंकि सेठ भुल चुका था कि कल उसने कोई पुण्य किया था 

सेठ ने कहा कि राजा जी कल मैनें कोई पुण्य नहीं किया 

तो राजा ने सेठ को कहा कि कल तुमने एक कुतिया को चार रोटी खिलाई और तुम उस पुण्य कर्म को भूल गए

कल किए गए तेरे पुण्य के बदले तुम जो भी मांगना चाहते हो मांग लो वह तुझे मिल जाएगा

सेठ ने पुछा कि राजा जी ऐसा क्यों?

मेरे किए पिछले सभी कर्म का कोई मूल्य नही है और एक कुतिया को डाली गई चार रोटी का इनका मोल क्यों?

राजा के कहा–हे सेठ जो पुण्य करके तुमने याद रखे और गिनकर लोंगों को बता दिए वह सब बेकार है क्यों कि तेरे अन्दर मै बोल रही है कि यह मैनें किया 

तेरा सब कर्म व्यर्थ है जो तु करता है और लोगों को सुना रहा है।

जो सेवा कल तुमने रास्ते मे कुतिया को चार रोटी पुण्य करके की वह तेरी सबसे बड़ी सेवा है उसके बदले तुम मेरा सारा राज्य भी ले लो वह भी बहुत कम हैं।

इंद्रपुत्र जयंत को श्रीराम से पहले नृसिंह भगवान ने भी दिया था दंड

इंद्रपुत्र जयंत को श्रीराम से पहले नृसिंह भगवान ने भी दिया था दंड


आपने रामायण में पढ़ा होगा कि जब भगवान् श्रीराम सीता और लक्ष्मण के संग चित्रकूट में निवास कर रहे थे, तब एक दिन इंद्र का पुत्र जयंत भगवान श्रीराम के बल की परीक्षा लेने के लिए कौए का रूप धरकर आया और सीता जी के चरण में चोंच मारकर भागा। सीता जी के चरण से रक्त की धारा बहते देख भगवान् श्रीराम ने एक सींक को अभिमंत्रित कर जयंत की ओर छोड़ा। जयंत की रक्षा करने के लिए कोई भी आगे नहीं आया। अंततः नारद जी के कहने पर वह राम के पास आकर क्षमा माँगने लगा। सीताजी ने उस कौए का शीश श्रीराम के चरणों में रख करुणानिधान श्रीराम से उस दुष्ट जयंत को क्षमा करने की प्रार्थना की। अतः श्रीराम ने दया कर मात्र एक नेत्र से अँधा कर उसे छोड़ दिया।

किंतु क्या आप जानते हैं कि इंद्र का यह पुत्र अपने कुकर्मों के कारण इससे पूर्व भी नृसिंह भगवान् के हाथों दंड पा चुका था?

प्राचीन काल में अंतर्वेदी नामक नगरी में रवि नाम का एक माली रहता था। उसने अपने घर के अंदर 'वृंदावन' नाम का तुलसी का एक बगीचा लगा रखा था। उस बगीचे में उसने तुलसी के साथ-साथ मल्लिका, मालती, जाती, वकुल आदि के सुंदर वृक्ष लगाए थे, जिनके पुष्पों की सुगंध से चारों दिशाएँ सुवासित रहती थीं। रवि माली ने उस बगीचे की चारदीवारी बहुत ऊँची और चौड़ी बनवाई थी, जिससे कि कोई भी व्यक्ति, पशु-पक्षी उसके अंदर प्रवेश न कर सके।

रवि माली प्रतिदिन प्रातःकाल में अपनी पत्नी के संग पुष्प चुनकर मालाएँ बनाता था, जिनमें से कुछ मालाएँ वह सर्वप्रथम अपने इष्टदेव नृसिंह भगवान् को अर्पित करता था। इसके पश्चात कुछ मालाएँ ब्राह्मणों को दे देता था और शेष मालाएँ बेचकर वह अपने परिवार का पालन-पोषण करता था।

एक बार इंद्र का पुत्र जयंत रात्रि में स्वर्ग से पृथ्वीलोक पर घूमने आया। उसके रथ पर स्वर्ग की सुंदर अप्सराएँ भी उपस्थित थीं। रवि माली द्वारा लगाए गए बगीचे के पुष्पों की मधुर सुगंध जब जयंत और अप्सराओं की नासिका में गईं तो वे सब उस बगीचे की ओर खिंचे चले आए। उन पुष्पों की सुगंध इतनी मधुर और भीनी-भीनी थी कि जयंत ने उस बगीचे के सारे पुष्प तोड़ लिए और उन्हें लेकर चला गया। जब प्रातःकाल रवि माली अपनी पत्नी के संग बगीचे में आए तो वहाँ एक भी पुष्प न देखकर चकित और दुःखी हुए। वे सोचने लगे कि हाय! आज अपने नृसिंह भगवान् और ब्राह्मणों को पुष्प अर्पित करने के नियम को कैसे पूर्ण करूँगा।

इधर जयंत का लोभ और दुष्टता बढ़ती ही गई। अब वह प्रतिदिन रात्रि में अप्सराओं के संग उस बगीचे में आता और सारे पुष्प चोरी कर चला जाता। जब पुष्प प्रतिदिन चोरी होने लगे तो माली अत्यंत चिंतित हुआ और उसने इस रहस्य का पता लगाने के लिए रात्रि भर बगीचे में ही रखवाली करने का निश्चय किया।

रात्रि होने पर जयंत प्रतिदिन की भाँति आया और पुष्प लेकर रथ पर बैठकर अप्सराओं के संग हास्य-विनोद करता हुआ चला गया। यह देखकर रवि माली अत्यंत दुःखी हुआ और नृसिंह भगवान् से बगीचे की रक्षा करने की प्रार्थना करते हुए सो गया।

अपने भक्त की व्यथा देखकर नृसिंह भगवान् ने स्वप्न में उसे दर्शन देते हुआ कहा, "पुत्र! तुम बगीचे के समीप मेरा निर्माल्य लाकर छिड़क दो।"

रवि माली स्वप्न टूटते ही चकित और आनंदित होकर उठ बैठा। उसने अपने इष्टदेव की आज्ञा के अनुसार बगीचे में निर्माल्य छिड़क दिया। अगली रात्रि को जयंत आया और रथ से उतरकर पुष्प तोड़ने लगा। अचानक उसने नृसिंह भगवान् के निर्माल्य को लाँघ दिया। जब वह बगीचे के सारे पुष्प बटोरकर रथ की ओर बढ़ा, तो वह रथ पर चढ़ नहीं पाया। जयंत अत्यंत चकित हुआ। तब बुद्धिमान सारथि ने उसे बताया कि नृसिंह भगवान् के निर्माल्य को लाँघने के कारण उसकी रथ पर चढ़ने की शक्ति लुप्त हो गई है। ऐसा कहकर वह रथ चलाने लगा। जयंत ने गिड़गिड़ाते हुए सारथि से इस पाप के निवारण का उपाय पूछा। सारथि ने कहा कि यदि वह कुरुक्षेत्र में सरस्वती नदी के तट पर 12 वर्ष से चल रहे तथा कुछ दिन में समाप्त होने वाले परशुराम जी के यज्ञ में प्रतिदिन ब्राह्मणों की जूठन साफ करे तो उसे उसके पाप से मुक्ति मिल सकती है। ऐसा कहकर सारथि अप्सराओं के संग रथ लेकर चला गया।

जयंत को अपनी दुष्टता पर अत्यंत पश्चाताप हुआ। वह कुरुक्षेत्र में सरस्वती नदी के तट पर आया और वहाँ यज्ञभूमि में ब्राह्मणों की जूठन साफ करने लगा। 12वाँ वर्ष पूरा होने पर ब्राह्मणों ने संदेहयुक्त होकर जयंत से उनकी जूठन साफ करने किंतु यज्ञ में भोजन न करने का कारण पूछा। तब जयंत को अपनी दुष्टता की सारी घटना सत्य-सत्य उन्हें बतानी पड़ी। इस प्रकार ब्राह्मणों की जूठन साफ करने और उनके समक्ष अपने पाप का कथन करने से जयंत के पाप की निवृत्ति हो गई। वह रथ पर चढ़कर स्वर्गलोक चला गया। यह कथा नृसिंह पुराण के 28वें अध्याय से ली गई है।

।।जय सियाराम।।

प्रभु का स्मरण किसी भी तरह लिया जाए शुभ ही होता है।

प्रभु का स्मरण किसी भी तरह लिया जाए शुभ ही होता है।



एक बार गौ लोक धाम में कृष्णप्रिया श्री राधा रानी जी ने श्री गोविन्द से पुछा..

हे माधव !!! कंस आपका सगा मामा होते हुए भी आपके माता पिता को घोर पीड़ा देता था और  निरंतर आपका अपमान करता था l आपका संतों का उपहास करता था l 

आपको मार देने के कई बार प्रयास करता रहा l

कभी किसी को भेजता कभी किसी को, हत्या के प्रयत्न करता रहता था l

फिर भी उस महापापी के ऐसे कौन से पुण्य थे की उसे आपके हाथों मृत्यु यानि परम मोक्ष प्राप्त हुआ..... ??


य़ह सुनकर मोहन ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया कि राधे!!! कंस कुछ भी करता, कुछ सोचता तो मेरे ही बारे में चाहे द्वेष और क्रोध अथवा भय के कारण,,,,,, परन्तु मेरा स्मरण उसे हर पल रहता था, और जो व्यक्ति हर समय मेरा सुमिरण करेगा उसे में मोक्ष ही दूंगा चाहे वो मेरा विरोधी ही क्यों न हो।

इसलिए श्रीमद्भगवत के अंत में एक सबसे मत्वपूर्ण श्लोक आता है।,,,,,


नाम संकीर्तनं यस्य सर्व पाप प्रणाशनम् ।

प्रणामो दुःख शमनः तं नमामि हरिं परम्॥


(मैं उन 'हरि' को प्रणाम करता हूँ जिनका नाम संकीर्तन सभी पापों को समाप्त करता है और जिन्हें प्रणाम करने मात्र से सारे दुःखों का नाश हो जाता है। )


 श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारी 

  हे नाथ नारायण वासुदेवा  



सोमवार, 1 मई 2023

रुद्राष्टकम : हिंदी भावार्थ के साथ

                      रुद्राष्टकम : हिंदी भावार्थ के साथ



     नमामीशमीशान निर्वाणरूपं

      विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम

      निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं

      चिदाकाशमाकाशवासं भजेहम


हे भगवन ईशान को मेरा प्रणाम ऐसे भगवान जो कि निर्वाण रूप हैं जो कि महान ॐ के दाता हैं जो सम्पूर्ण ब्रह्मान्द में व्यापत हैं जो अपने आपको धारण किये हुए हैं जिनके सामने गुण अवगुण का कोई महत्व नहीं, जिनका कोई विकल्प नहीं, जो निष्पक्ष हैं जिनका आकार आकाश के सामान हैं जिसे मापा नहीं जा सकता, उनकी मैं उपासना करता हूँ |


      निराकारमोङ्करमूल* तुरीयं

      गिराज्ञानगोतीतमीशं* गिरीशम् ।

      करालं महाकालकालं कृपालं

     गुणागारसंसारपारं* नतोहम


जिनका कोई आकार नहीं, जो ॐ के मूल हैं, जिनका कोई राज्य नहीं, जो गिरी यानि पर्वत के वासी हैं, जो कि सभी ज्ञान, शब्द से परे हैं, जो कि कैलाश के स्वामी हैं, जिनका रूप भयावह हैं, जो कि काल के स्वामी हैं, जो उदार एवम् दयालु हैं, जो गुणों का खजाना हैं, जो पूरे संसार के परे हैं उनके सामने मैं नत्मस्तक हूँ।


      तुषाराद्रिसंकाशगौरं गभिरं

      मनोभूतकोटिप्रभाश्री शरीरम् ।

      स्फुरन्मौलिकल्लोलिनी चारुगङ्गा

      लसद्भालबालेन्दु कण्ठे भुजङ्गा


जो कि बर्फ के समान शील हैं, जिनका मुख सुंदर हैं, जो गौर रंग के हैं जो गहन चिंतन में हैं, जो सभी प्राणियों के मन में हैं, जिनका वैभव अपार हैं, जिनकी देह सुंदर हैं, जिनके मस्तक पर तेज हैं जिनकी जटाओ में लहलहाती गंगा हैं, जिनके चमकते हुए मस्तक पर चाँद हैं, और जिनके कंठ पर सर्प का वास हैं |


      चलत्कुण्डलं भ्रूसुनेत्रं विशालं

      प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम् ।

      मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं

     प्रियं शङ्करं सर्वनाथं भजामि


जिनके कानों में बालियाँ हैं, जिनकी सुन्दर भोहे और बड़ी-बड़ी आँखे हैं, जिनके चेहरे पर सुख का भाव हैं, जिनके कंठ में विष का वास हैं, जो दयालु हैं, जिनके वस्त्र शेर की खाल हैं, जिनके गले में मुंड की माला हैं, ऐसे प्रिय शंकर पूरे संसार के नाथ हैं उनको मैं पूजता हूँ |


      प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं

      अखण्डं अजं भानुकोटिप्रकाशं ।

      त्र्यःशूलनिर्मूलनं शूलपाणिं

      भजेहं भवानीपतिं भावगम्यम

जो भयंकर हैं, जो परिपक्व साहसी हैं, जो श्रेष्ठ हैं अखंड है जो अजन्मे हैं जो सहस्त्र सूर्य के सामान प्रकाशवान हैं जिनके पास त्रिशूल हैं जिनका कोई मूल नहीं हैं जिनमे किसी भी मूल का नाश करने की शक्ति हैं, ऐसे त्रिशूल धारी, माँ भगवती के पति जो प्रेम से जीते जा सकते हैं, उन्हें मैं वन्दन करता हूँ |

      कलातीतकल्याण कल्पान्तकारी

      सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी ।

      चिदानन्दसंदोह मोहापहारी

      प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी

जो काल के बंधे नहीं हैं, जो कल्याणकारी हैं, जो विनाशक भी हैं,जो हमेशा आशीर्वाद देते है और धर्म का साथ देते हैं , जो अधर्मी का नाश करते हैं, जो चित्त का आनंद हैं, जो जूनून हैं जो मुझसे खुश रहे ऐसे भगवान जो कामदेव नाशी हैं उन्हें मेरा प्रणाम |

      न यावद्उ मानाथपादारविन्दं

      भजन्तीह लोके परे वा नराणाम।

     न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं

      प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं

जो यथावत नहीं हैं, ऐसे उमा पति के चरणों में कमल वन्दन करता हूं ऐसे भगवान को पूरे लोक के नर नारी पूजते हैं, जो सुख हैं, शांति हैं, जो सारे दुखो का नाश करते हैं जो सभी जगह वास करते हैं |

      न जानामि योगं जपं नैव पूजां

      नतोहं सदा सर्वदा शम्भुतुभ्यम्।

      जराजन्मदुःखौघ तातप्यमानंॐ 

      प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो

मैं कुछ नहीं जानता, ना योग , ना ध्यान,  देव के सामने मेरा मस्तक झुकता हैं, सभी संसारिक कष्टों, दुःख दर्द से मेरी रक्षा करे. मेरी बुढ़ापे के कष्टों से से रक्षा करें | मैं सदा ऐसे शिव शम्भु को प्रणाम करता हूँ |

।।ॐ नमः शिवाय ।।

दादा गुरु भक्तमाली जी को जब लड्डू गोपाल जी

                दादा गुरु भक्तमालीजी को जब लड्डू गोपाल जी ने दर्शन दिए



         पण्ड़ित श्री जगन्नाथ प्रसाद जी 'भक्तमाली' के भक्तिभाव के कारण वृंदावन के सभी संत उनसे बहुत प्रभावित थे और उनके ऊपर कृपा रखते थे। सन्तों की कौन कहे स्वयं 'श्रीकृष्ण' उनसे आकृष्ट होकर जब तब किसी न किसी छल से उनके ऊपर कृपा कर जाया करते थे।

        एक बार श्री जगन्नाथ प्रसाद जी 'भक्तमाली' अपने घर में बैठे हारमोनियम पर भजन गा रहे थे। उसी समय एक बहुत ही सुन्दर बालक आकर उनके सामने बैठ गया, और तन्मय होकर भजन सुनने लगा।

 'भक्तमाली' जी ने बालक का श्रृंगार देखकर समझा कि वह किसी रासमण्डली का बालक है जो उनके भजन से आकृष्ट होकर चला आया है। भक्तमाली जी ने भजन समाप्त करने के बाद बालक से पूछा -"बेटा तुम कहाँ रहते हो ?" 

बालक ने कहा - "अक्रूर घाट पर भतरोड़ मन्दिर में रहता हूँ।" 

भक्तमाली जी - "तुम्हारा नाम क्या है ?" 

बालक - "लड्डू गोपाल।"

 'भक्तमाली' जी - "तो तुम लड्डू खाओगे या पेड़ा खाओगे ?" 

उस समय 'भक्तमाली' जी के पास लड्डू नहीं पेड़े ही थे। इसलिए उन्होंने प्रकार पूछा। 

बालक ने भी हँसकर कहा - "बाबा मैं तो पेड़ा खाऊँगा।" 

भक्तमाली जी ने बालक को पेडे लाकर दिये। वह बालक पेडे खाता हुआ और भक्तमाली जी की ओर हँसकर देखता हुआ चला गया। 

पर 'ठाकुर' जी बालक के रूप मे जाते-जाते अपनी जादू भरी मुस्कान और चितवन की अपूर्व छवि 'भक्तमाली' जी के ह्रदय पर अंकित कर गये।

अब उस बालक की वह छवि 'भक्तमाली' जी को सारा दिन और सारी रात व्यग्र किये रही। भक्तमाली जी के मन मे तरह तरह के विचार उठते रहे। "ऐसा सुंदर बालक तो मैंने आज तक कभी नहीं देखा। वह रासमण्डली का बालक ही था या कोई और ? 

घर मे ऐसे आकर बैठ गया जैसे यह घर उसी का हो कोई भय नहीं संकोच नहीं। छोटा सा बालक भजन तो ऐसे तन्मय होकर सुन रहा था जैसे उसे भजन मे न जाने कितना रस मिल रहा हो। नहीं-नहीं वह कोई साधारण बालक नहीं हो सकता। कहीं वह स्वयं 'भक्तवत्सल भगवान' ही तो नहीं थे जो नारद जी के प्रति कहे गये अपने इन वचनों को चरितार्थ करने आये थे :-

                                    

               नाहं तिष्ठामि  वैकुंठे  योगिनां  हृदयेषु वा। 

               तत्र तिष्ठामी नारद यत्र गायन्ति मद्भक्ताः।।

                                                       (पद्मपुराण)

         "हे नारद ! न तो मैं अपने निवास वैकुंठ में रहता हूँ, न योगियों के ह्रदय में रहता हूँ। मैं तो उस स्थान में वास करता हूँ जहाँ मेरे भक्त मेरे पवित्र नाम का कीर्तन करते हैं और मेरे रूप, लीलाओं और गुणों की चर्चा चलाते हैं।"                                   

जो भी हो वह बालक अपना नाम और पता तो बता ही गया है कल उसकी खोज करनी होगी।"

 'भक्तमाली' जी बालक के विषय मे तरह-तरह के विचार करते हुए सो गये।

        श्री जगन्नाथ प्रसाद जी 'भक्तमाली' दूसरे दिन प्रातः होते ही भतरोड़ में अक्रुर मन्दिर पहुँचे। 'भक्तमाली' जी ने वहाँ सेवारत पुजारी जी से पूछा - "क्या यहाँ लड्डू गोपाल नाम का कोई बालक रहता हैं ?" 

पुजारी जी ने कहा - 'लड्डू गोपाल तो हमारे मन्दिर के ठाकुर जी का नाम है। और यहाँ कोई बालक नहीं रहता।' 

यह सुनते ही भक्तमाल जी सिहर उठे, उनके नेत्र डबडबा आये। 

अपने आँसू पोंछते हुए उन्होंने पुजारी जी से कहा - "कल एक बहुत खूबसूरत बालक मेरे पास आया था। उस बालक ने अपना नाम लड्डू गोपाल बताया था और निवास-स्थान अक्रुर मन्दिर। मैंने उसे पेड़े खाने को दिये थे, पेड़े खाकर वह बहुत प्रसन्न हुआ था। पुजारी जी कहीं आपके ठाकुर जी ने ही तो यह लीला नहीं की थी ?"

 पुजारी जी ने कहा - "भक्तमाली जी ! आप धन्य हैं। हमारे ठाकुर ने ही आप पर कृपा की, इसमें कोई सन्देह नहीं है। हमारे ठाकुर जी को पेड़े बहुत प्रिय हैं। कई दिन से मैं बाजार नहीं जा पाया था, इसलिए पेड़ों का भोग नहीं लगा सका था।"

 भक्तमाली जी ने मन्दिर के भीतर जाकर लड्डू गोपाल जी के दिव्य श्री विगृह के दर्शन किये।

 दण्डवत् प्रणाम् कर प्रार्थना की - "हे ठाकुर जी इसी प्रकार अपनी कृपा बनाये रखना, बार-बार इसी आकर दर्शन देते रहना।" 

         पता नहीं भक्तमाली जी को फिर कभी लड्डू गोपाल ने उसी रूप में उन पर कृपा की या नहीं, लेकिन एक बार भक्तमाली जी अयोध्या गये थे। देर रात्रि में अयोध्या पहुँचे थे, इसलिए स्टेशन के बाहर खुले मे सो गये। प्रातः उठते ही किसी आवश्यक कार्य के लिए कहीं जाना था, पर सबेरा हो आया था उनकी नींद नहीं खुल रहीं थी। लड्डू गोपाल जैसा ही एक सुन्दर बालक आया और उनके तलुओं में गुलगुली मचाते हुए बोला - "बाबा उठो सबेरा हो गया जाना नहीं है क्या ?" भक्तमाली जी हड़बड़ा कर उठे, उस बालक की एक ही झलक देख पाये थे कि वह बालक अदृश्य हो गया।

।।श्री राधे।।

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