/ google.com, pub-1197897201210220, DIRECT, f08c47fec0942fa0 "ईश्वर के साथ हमारा संबंध: सरल ज्ञान और अनुभव: गीता के तीसरे अध्याय का सरल अर्थ

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गुरुवार, 28 दिसंबर 2023

गीता के तीसरे अध्याय का सरल अर्थ

                 गीता के तीसरे अध्याय का सरल तात्पर्य


इस मनुष्य लोक में सभी को निष्काम पूर्वक अपने कर्तव्य का तत्परता से पालन करना चाहिए। चाहे ज्ञानी हो या अज्ञानी हो, चाहे वह भगवान का अवतार ही क्यों ना हो। कारण की सृष्टि चक्र अपने-अपने कर्तव्य का पालन करने से ही चलता है। मनुष्य ना तो कर्मों का आरंभ किए बिना सिद्धि को प्राप्त होता है और ना कर्मों के त्याग से सिद्धि को प्राप्त होता है। ब्रह्मा जी ने सृष्टि रचना के समय प्रजा से कहा कि तुम लोग अपने-अपने कर्तव्य कर्म के द्वारा एक दूसरे की सहायता करो, एक दूसरे को उन्नत करो, तो तुम लोग परम श्रेय को प्राप्त हो जाओगे। जो सृष्टि चक्र की मर्यादा के अनुसार अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता उसका इस संसार में जीना व्यर्थ है। यद्यपि मनुष्य रूप में अवतरित भगवान के लिए इस त्रिलोकी में कोई कर्तव्य नहीं है फिर भी वे लोग संग्रह के लिए अपने कर्तव्य का तत्परता से पालन करते हैं। ज्ञानी महापुरुष को भी लोक संग्रह के लिए अपने कर्तव्य का तत्परता से पालन करना चाहिए। अपने कर्तव्य का निष्काम भाव पूर्वक पालन करते हुए मनुष्य मर भी जाए तो भी उसका कल्याण है।

तीसरे अध्याय में, भगवान श्रीकृष्ण ने यह भी बताया कि सब कर्म गुणों द्वारा होते हैं और व्यक्ति को अपने स्वभाव के अनुसार कर्म करना चाहिए। कर्मों में आसक्ति नहीं रखना चाहिए, लेकिन सब कर्मों को निष्काम भाव से भगवान के लिए करना चाहिए। यहाँ संन्यास और कर्मयोग का समन्वय किया गया है, जिससे व्यक्ति अपने साधन में उच्चता प्राप्त कर सकता है। इस अध्याय ने जीवन को सबसे उच्च लक्ष्य की ओर मोड़ने के लिए एक सार्थक मार्ग प्रदान किया है, जिससे व्यक्ति अपने कर्मों को धार्मिक और आदर्शपूर्ण तरीके से समझ सकता है।

 प्रश्न– कोई भी मनुष्य हरदम कर्म नहीं करता और नींद लेने स्वास लेने, आंखों को खोलना, मीचने आदि को भी वह ’मैं करता हूं’ ऐसा नहीं मानता, तो फिर तीसरे  अध्याय की पांचवी श्लोक में  यह कैसे कहा गया है कि कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्था में क्षण मात्र भी कर्म किए बिना नही रहता?

उत्तर– जब तक स्वय प्रकृति के साथ अपना संबंध मानता है तब तक वह कोई क्रिया करें अथवा ना करें, उसमें क्रियाशीलता रहती ही है। वह क्रिया दो प्रकार की होती है क्रिया को करना और क्रिया का होना। यह दोनों विभाग प्रकृति के संबंध से ही होते हैं, परंतु जब प्रकृति का संबंध नहीं रहता तब करना और होना नहीं रहते, प्रत्यूत ’है ’ही रहता है। करने में कर्ता, होने में क्रिया और ’है’ में तत्व रहता है। वास्तव में कर्तव्य रहने पर भी ह’ रहता है और क्रिया रहने पर भी ‘है’ रहता है अर्थात कर्ता और क्रिया तो है का अभाव नहीं होता। 

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जय श्री राधे

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