/ "ईश्वर के साथ हमारा संबंध: सरल ज्ञान और अनुभव: जनवरी 2024

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मंगलवार, 30 जनवरी 2024

हमारा सफर - श्री राम से श्री कृष्ण और कलयुग में

 हमारा सफर - श्री राम से श्री कृष्ण और कलयुग में भी जारी

श्री राम का घर छोड़ना एक षड्यंत्रों में घिरे राजकुमार की करुण कथा है और कृष्ण का घर छोड़ना गूढ़ कूटनीति। राम जो आदर्शों को निभाते हुए कष्ट सहते हैं, कृष्ण षड्यंत्रों के हाथ नहीं आते बल्कि स्थापित आदर्शों को चुनौती देते हुए एक नई परिपाटी को जन्म देते हैं।

श्री राम से श्री कृष्ण हो जाना एक सतत प्रक्रिया है। श्रीराम को मारीच भ्रमित कर सकता है लेकिन कृष्ण को पूतना की ममता भी नहीं उलझा सकती। श्रीराम अपने भाई को मूर्छित देखकर ही बेसुध बिलख पड़ते हैं लेकिन कृष्ण अभिमन्यु को दांव पर लगाने से भी नहीं हिचकते।

राम राजा हैं

कृष्ण राजनीति

राम रण हैं

कृष्ण रणनीति।

श्री राम मानवीय मूल्यों के लिए लड़ते हैं श्री कृष्ण मानवता के लिए। 

श्री राम धर्म है तो श्री कृष्ण धर्म स्थापना 

हर मनुष्य की यात्रा राम से ही शुरू होती है और "समय" उसे कृष्ण बनाता है। व्यक्ति का कृष्ण होना भी उतना ही जरूरी है जितना राम होना लेकिन राम से प्रारंभ हुई यह यात्रा तब तक अधूरी है जब तक इस यात्रा का समापन कृष्ण पर न हो.!!

।।जय राम कृष्ण हरे।।

राम नाम की शक्ति क्या होती हैं

                    राम नाम की शक्ति क्या होती हैं


जब प्रभु राम जी को समुद्र देवता ने बतलाया, कि हे भगवन् आपकी ही सेना में नल और नील नाम का दो बानर है जो पुल निर्माण करने में अति कुशल है।आप उन दोंनों की सहायता से सेतु का निर्माण कराकर लंका तक आसानी से पहुँच जायेंगें। तब राम जी ने दोनों को बुलाकर सेतु निर्माण का आदेश दिया और सभी बानर पत्थर उठा उठकर लाने लगे। ,हनुमान जी उन पत्थरों पर राम राम लिखते जाते और नल तथा नील उसे ले जाकर समुद्र में गिराते जाते। इस प्रकार जो भी पत्थर समुद्र में गया सभी के सभी एक दुसरे से जुड़कर उपलाते हुए सेतु के रूप में बँधते रहे।सेतु निर्माण कार्य बहुत द्रुत गति से सुचारू रूप से चल रहा था।प्रभु राम को शाम की वेला में सेतु बंधन कार्य की प्रगति के बारे में बता दिया गया।हनुमान ने बताया कि भगवन ,सभी पत्थरें आपका नाम लिखकर समुद्र में डालने पर वे सभी आपस में जुड़कर सेतु के रूप में हो जा रहे हैं। इस प्रकार सेतु निर्माण कार्य तेजी से चल रहा है।

परन्तु ज्यों ज्यों रात होती गयी प्रभु राम जी की बैचेनी बढ़ती गयी।उन्हें आश्चर्य हो रहा था ,कि ऐसा कैसे हो सकता है। परन्तु अपनी आशंका किसी पर प्रकट न होने दी और बीते रात चुपके से उठे और कुटिया से निकल कर पहरे दारों की नजरों से बचते बचाते समुद्र किनारे पहुँच गये।

उन्होंने एक पत्थर उठाया और समुद्र में गिरा दिया। पत्थर समुद्र में डुब गया।

फि एक पत्थर लिया और उसपर अपना नाम "राम" लिखकर समुद्र में गिराया तो वह तैरने लगा। यह देख राम जी प्रभु को बड़ा आश्चर्य हुआ। तभी हनुमान जी वहाँ प्रकट हो गये और मुस्कुराते हुए बोला," देख लिया भगवन ,आपमें और आपके नाम में से किसमें कितना सामर्थ्य हैं।

हनुमान को अचानक वहाँ पाकर और उनकी बात सुनकर भगवान राम सकपका गये।फिर आगे हनुमान जी ने कहा, "प्रभु ,आप जिसे छोड़ देंगें उसको तो डुबना ही पड़ेगा। हाँ,जिसे आपके नाम तक का भी सहारा मिल जायेगा, वह तो इस भव सागर से पार हो ही जायेगा।

तब श्री राम जी ने हनुमान से कहा," तुम ठीक कहते हो हनुमान। भबिष्य में खासकर कलियुग में तो इस नाम का अत्यधिक प्रभाव होगा।उस समय केवल मेरा नाम ही ऐसा आधार होगा जिसको लेकर भक्तजन संसार रूपी भवसागर से तर जायेंगें। यह सुनकर हनुमान ने अपना मस्तक प्रभु चरणों में झुका दिया और भगवान राम जी ने हनुमान को उठाकर अपने सीने से लगा लिया ।

रविवार, 28 जनवरी 2024

श्रीमद् भागवत गीता का 13 अध्याय का सरल अर्थ

    श्रीमद् भागवत गीता का 13 अध्याय का सरल अर्थ


संसार में एक परमात्मा तत्व ही जानने योग्य है। उसको जरूर जान लेना चाहिए। उसको तत्व से जानने पर जानने वाले की परमात्मा तत्व के साथ अभिन्नता हो जाती है।
 जिस परमात्मा को जानने से अमरता की प्राप्ति हो जाती है ,उसे परमात्मा के हाथ, पैर,सिर, नेत्र , कान सब जगह है।वह संपूर्ण इंद्रियों से रहित होने पर भी संपूर्ण विषयों को प्रकाशित करता है, संपूर्ण गुणों से रहित होने पर भी संपूर्ण गुणों का भोक्ता है और आसक्ति रहित होने पर भी  सबका पालन पोषण करता है। वह संपूर्ण प्राणियों के बाहर भी है और भीतर भी है, तथा चर अचर प्राणियों के रूप में भी वही है, संपूर्ण प्राणियों में विभक्त रहता हुआ भी वह विभाग रहित है। वह संपूर्ण ज्ञानो का प्रकाशक है वह संपूर्ण विषम प्राणियों में सम रहता है। गतिशील प्राणियों में गति रहित रहता है। नष्ट होते हुए  प्राणियों में अविनाशी रहता है। इस तरह परमात्मा का यथार्थ जान लेने पर परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।

सूर्य को हनुमान जी कैसे निगल गये?

            सूर्य को हनुमान जी कैसे निगल गये?


पृथ्वी से 28 लाख गुना सूर्य हनुमान जी ने कैसे निगल लिया? क्या यह विज्ञान के साथ मजाक है ?


इस हिसाब से तो आपको हर उस चीज पर सवाल उठाने चाहिए जो की आसान नहीं है। जैसे कि हनुमान जी ने बिन थके इतना विशाल समुद्र कैसे पार कर लिया। अरे श्री हनुमान जी भगवान का अंश है उन्हे विभिन्न तरीके के वरदान प्राप्त हुए है। भगवान है।

हनुमान जी के पास अष्ट महासिद्धि और नौ निधि हैं. ये अष्ट महासिद्धि अणिमा, लघिमा, महिमा, ईशित्व, प्राक्रम्य, गरिमा और वहित्व हैं। इन्ही सिद्धि के सहारे उनका सूर्य के पास जाना और उसे निगलना संभव हैं लेकिन हनुमान जी निगलते नहीं है।

गोस्वामी तुलसीदास द्वारा लिखी हनुमान चालीसा के इस 18वीं चौपाई में सूर्य और पृथ्वी के बीच की दूरी का वर्णन है।

जुग सहस्त्र जोजन पर भानू।

लील्यो ताहि मधुर फल जानू।।

यह दोहा अवधी भाषा में है इस दोहे का हिंदी भाषा में अर्थ है कि हनुमानजी ने एक युग सहस्त्र योजन की दूरी पर स्थित भानु यानी सूर्य को मीठा फल समझकर खा लिया था (खाने ही वाले थे तभी देवराज इंद्र ने प्रहार कर दिया)। अगर आप यहां विज्ञान का तर्क देना चाहते है तो दे सकते है जैसे कि – अपनी लघिमा सिद्धि का उपयोग करके हनुमान जी अपना वजन सूक्ष्म मतलब न के बराबर कर सकते थे।

जैसा हमने विज्ञान में पड़ा है कि जिस पार्टीकल का वजन ना के बराबर होता है वह पार्टीकल ही प्रकाश की गति से ट्रैवल कर सकता है क्योंकि उस स्थिति में उस पार्टीकल पर गुरुत्वाकर्षण बल और सेंटर ऑफ ग्रेविटी का असर नहीं होता हैं। इस तरह हनुमान जी प्रकाश की गति से भी तेज उड़कर सूर्य को निगलने के लिए पहुचे थे।

और ये भी जानिए कि नासा के अनुसार सूर्य और पृथ्वी के बीच की दूरी 149 मिलियन किलोमीटर हैं और यह बात पहले ही हनुमान चालीसा के 18 वीं चौपाई में धरती और सूरज की बीच की दूरी का वर्णन किया गया है।

हनुमान जी के अष्ट सिद्धि में से एक महिमा हैं। इस सिद्धि से वह अपने शरीर को जितना चाहे उतना बड़ा कर सकते थे।

इसलिए हनुमान जी के सामने पूरी पृथ्वी ही एक फल के सामान हैं। विज्ञान के अनुसार कोई भी ऐसी वस्तु जिसका वजन ज्यादा और उसमे बहुत ऊर्जा हो वह ब्लैक होल बना सकती हैं और ब्लैक होल सूर्य को निगलने की क्षमता रखता हैं।

जब ब्लैक होल सूर्य को निगल सकता है तो श्री हनुमान जी भगवान शिव के अवतार है। भगवान है। ब्रह्माण में कुछ भी असंभव नहीं हैं।

आज से 70–80 साल पहले अगर कोई कहता कि इंसान अंतरिक्ष में जा सकता है तो लोग हंसते होंगे।

 40–50 साल पहले कोई कहता की इंसान हजारों किलोमीटर की दूरी चंद घंटों में पूरी कर सकता है तो लोग हंसते होंगे।

 20–30 साल पहले कोई कहता कि इंसान दूर बैठे दूसरे इंसान से बातचीत कर सकता है तो लोग हंसते होंगे।

 15–20 साल पहले कोई कहता कि एक इंसान दूर बैठे दूसरे इंसान से फेस टू फेस देख सकता है तो लोग हंसते होंगे।

बदलाव – 2 हाल ही में चीन ने अपना खुद का एक कृत्रिम सूर्य बनाने में सफलता हासिल की है। आज हम लोग शहर में रहते है इसलिए इस खबर को सुन/पढ़ कर यकीन कर सकते है। लेकिन गांव में जाकर किसी से पूछोगे तो वह इस सवाल करने वाले की तरह आपका मजाक उड़ाएगा। और इस बात पर यकीन नही करेगा कि कोई देश (किसी देश के लोग) सूर्य को बना सकते है। 

आगे भी विज्ञान की मदद से हम लाइटिंग स्पीड से सफर करने पर रिसर्च कर रहे है (और अभी यह मजाक लग रहा होगा।)

लेकिन हमारी यह सोच अब तक सच साबित हुई है तो फिर हमारी संस्कृति के बारे में आप ऐसा क्यों सोचते है जैसे कि सब एक अंधविश्वास हो।

हमारी संस्कृति हमारे दिल–दिमाग, इतिहास, किताबो और वेदों में निहित है जबकि विज्ञान अभी शुरुआत ही है इसलिए हम आज तक भी विज्ञान को सही तरीक़े से नहीं समझ पाए है तो फिर अपनी संस्कृति को आप एक लिमिट तक सही लेकिन ज़्यादा विज्ञान से तुलना कैसे कर सकते है।

इसलिए कभी भी अपनी संस्कृति को विज्ञान से ज्यादा तुलना नही करनी चाहिए। कुछ चीजें ऐसी होती है जो अभी विज्ञान भी नही समझ सकता।

।।जय सिया राम।।

कर्मो के हिसाब

                                कर्मो के हिसाब 

एक भिखारी रोज एक दरवाजें पर जाता और भीख के लिए आवाज लगाता, और जब घर मालिक बाहर आता तो उसे गंदी गंदी गालिया और ताने देता, मर जाओ, काम क्यूं नही करतें, जीवन भर भीख मांगतें रहोगे, कभी कभी गुस्सें में उसे धकेल भी देता, पर भिखारी बस इतना ही कहता, ईश्वर तुम्हारें पापों को क्षमा करें।

एक दिन सेठ बड़े गुस्सें में था, शायद व्यापार में घाटा हुआ था, वो भिखारी उसी वक्त भीख मांगने आ गया, सेठ ने आव देखा ना ताव, सीधा उसे पत्थर से दे मारा, भिखारी के सर से खून बहने लगा, फिर भी उसने सेठ से कहा ईश्वर तुम्हारें पापों को क्षमा करें, और वहां से जाने लगा, सेठ का थोड़ा गुस्सा कम हुआ, तो वहां सोचने लगा मैंने उसे पत्थर से भी मारा पर उसने बस दुआ दी, इसके पीछे क्या रहस्य है जानना पड़ेगा, और वहां भिखारी के पीछे चलने लगा,

भिखारी जहाँ भी जाता सेठ उसके पीछे जाता, कही कोई उस भिखारी को कोई भीख दे देता तो कोई उसे मारता, जलील करता गालियाँ देता, पर भिखारी इतना ही कहता, ईश्वर तुम्हारे पापों को क्षमा करें, अब अंधेरा हो चला था, भिखारी अपने घर लौट रहा था, सेठ भी उसके पीछे था, भिखारी जैसे ही अपने घर लौटा, एक टूटी फूटी खाट पे, एक बुढिया सोई थी, जो भिखारी की पत्नी थी, जैसे ही उसने अपने पति को देखा उठ खड़ी हुई और भीख का कटोरा देखने लगी, उस भीख के कटोरे मे मात्र एक आधी बासी रोटी थी, उसे देखते ही बुढिया बोली बस इतना ही और कुछ नही, और ये आपका सर कहा फूट गया?

भिखारी बोला, हाँ बस इतना ही किसी ने कुछ नही दिया सबने गालिया दी, पत्थर मारें, इसलिए ये सर फूट गया, भिखारी ने फिर कहा सब अपने ही पापों का परिणाम हैं, याद है ना तुम्हें, कुछ वर्षो पहले हम कितने रईस हुआ करते थे, क्या नही था हमारे पास, पर हमने कभी दान नही किया, याद है तुम्हें वो अंधा भिखारी, बुढिया की ऑखों में ऑसू आ गये और उसने कहा हाँ,

कैसे हम उस अंधे भिखारी का मजाक उडाते थे, कैसे उसे रोटियों की जगह खाली कागज रख देते थे, कैसे हम उसे जलील करते थे, कैसे हम उसे कभी_कभी मार वा धकेल देते थे, अब बुढिया ने कहा हाँ सब याद है मुझे, कैसे मैंने भी उसे राह नही दिखाई और घर के बनें नालें में गिरा दिया था, जब भी वह रोटियां मांगता, मैंने बस उसे गालियाँ दी, एक बार तो उसका कटोरा तक फेंक दिया,

और वो अंधा भिखारी हमेशा कहता था, तुम्हारे पापों का हिसाब ईश्वर करेंगे, मैं नही, आज उस भिखारी की बद्दुआ और हाय हमें ले डूबी,

फिर भिखारी ने कहा, पर मैं किसी को बद्दुआ नही देता, चाहे मेरे साथ कितनी भी जात्ती हो जाए, मेरे लब पर हमेशा दुआ रहती हैं, मैं अब नही चाहता, की कोई और इतने बुरे दिन देखे, मेरे साथ अन्याय करने वालों को भी मैं दुआ देता हूं, क्यूकि उनको मालूम ही नही, वो क्या पाप कर रहें है, जो सीधा ईश्वर देख रहा हैं, जैसी हमने भुगती है, कोई और ना भुगते, इसलिए मेरे दिल से बस अपना हाल देख दुआ ही निकलती हैं,

सेठ चुपके चुपके सब सुन रहा था, उसे अब सारी बात समझ आ गयी थी, बुढे–बुढिया ने आधी रोटी को दोनो ने मिलकर खाया, और प्रभु की महिमा है बोल कर सो गयें,

अगले दिन, वहाँ भिखारी भीख मांगने सेठ के यहाँ गया, सेठ ने पहले से ही रोटिया निकाल के रखी थी, उसने भिखारी को दी और हल्की से मुस्कान भरे स्वर में कहा, माफ करना बाबा, गलती हो गयी, भिखारी ने कहा, ईश्वर तुम्हारा भला करे, और वो वहाँ से चला गया,

सेठ को एक बात समझ आ गयी थी, इंसान तो बस दुआ_बद्दुआ देते है पर पूरी वो ईश्वर वो जादूगर कर्मो के हिसाब से करता हैं,,,,,,,,

हो सके तो बस अच्छा करें, वो दिखता नही है तो क्या हुआ,

सब का हिसाब पक्का रहता है उसके पास

शिव जी की आधी परिकर्मा क्यों की जाती है ?

         शिव जी की आधी परिकर्मा क्यों की जाती है ?


शिव जी की आधी परिक्रमा करने का विधान है, वह इसलिए की शिव के सोमसूत्र को लांघा नहीं जाता है।

जब व्यक्ति आधी परिक्रमा करता है, तो उसे चंद्राकार परिक्रमा कहते हैं।

शिवलिंग को ज्योति माना गया है और उसके आसपास के क्षेत्र को चंद्र।

आपने आसमान में अर्ध चंद्र के ऊपर एक शुक्र तारा देखा होगा। यह शिवलिंग उसका ही प्रतीक नहीं है बल्कि संपूर्ण ब्रह्मांड ज्योतिर्लिंग के ही समान है।


''अर्द्ध सोमसूत्रांतमित्यर्थ: शिव प्रदक्षिणीकुर्वन सोमसूत्र न लंघयेत।।

इति वाचनान्तरात।''


सोमसूत्र :

शिवलिंग की निर्मली को सोमसूत्र की कहा जाता है, शास्त्र का आदेश है कि शंकर भगवान की प्रदक्षिणा में सोमसूत्र का उल्लंघन नहीं करना चाहिए, अन्यथा दोष लगता है।

सोमसूत्र की व्याख्या करते हुए बताया गया है कि भगवान को चढ़ाया गया जल जिस ओर से गिरता है,वहीं सोमसूत्र का स्थान होता है।


क्यों नहीं लांघते सोमसूत्र :

सोमसूत्र में शक्ति-स्रोत होता है अत: उसे लांघते समय पैर फैलाते हैं और वीर्य ‍निर्मित और 5 अन्तस्थ वायु के प्रवाह पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।

इससे देवदत्त और धनंजय वायु के प्रवाह में रुकावट पैदा हो जाती है। जिससे शरीर और मन पर बुरा असर पड़ता है। अत: शिव की अर्ध चंद्राकार प्रदशिक्षा ही करने का शास्त्र का आदेश है।

तब लांघ सकते हैं :

शास्त्रों में अन्य स्थानों पर मिलता है कि तृण, काष्ठ,पत्ता,पत्थर,ईंट आदि से ढके हुए सोम सूत्र का उल्लंघन करने से दोष नहीं लगता है, लेकिन

‘शिवस्यार्ध प्रदक्षिणा’ का मतलब शिव की आधी ही प्रदक्षिणा करनी चाहिए।

किस ओर से करनी चाहिये परिक्रमा?

भगवान शिवलिंग की परिक्रमा हमेशा बांई ओर से शुरू कर जलाधारी के आगे निकले हुए भाग यानी जल स्रोत तक जाकर फिर विपरीत दिशा में लौटकर दूसरे सिरे तक आकर परिक्रमा पूरी करें।


शंभो महेश करुणामय शूलपाणे गौरीपते पशुपते पशुपाशनाशिन्।

काशीपते करुणया जगदेतदेक- स्त्वंहंसि पासि विदधासि महेश्वरोऽसि।।

त्वत्तो जगद्भवति देव भव स्मरारे त्वय्येव तिष्ठति जगन्मृड विश्वनाथ।

त्वय्येव गच्छति लयं जगदेतदीश लिङ्गात्मके हर चराचरविश्वरूपिन।।


।।ॐ नमः शिवाय ।।

जब रामजी वनवास जाने लगे तो लक्ष्मण जी की क्या स्थिति थी?

 जब रामजी  वनवास जाने लगे तो लक्ष्मण जी की क्या स्थिति थी?

राम-लक्ष्मण संवाद 

समाचार जब लछिमन पाए। ब्याकुल बिलख बदन उठि धाए॥जब लक्ष्मणजी ने समाचार पाए, तब वे व्याकुल होकर उदास मुँह उठ दौड़े।

भगवान के चरणों में गिर गए हैं। और सोच रहे हैं मुझको श्री रघुनाथजी क्या कहेंगे? घर पर रखेंगे या साथ ले चलेंगे? और लक्ष्मण हाथ जोड़ कर कहते हैं की भगवान मेरे लिए क्या आज्ञा है?

भगवान श्री राम ने देखा की लक्ष्मण हाथ जोड़े खड़े हुए है और समझ गए हैं की ये भी साथ चलना चाहते हैं। श्री रामचन्द्रजी वचन बोले- तुम प्रेमवश अधीर मत होओ। मेरी सीख सुनो और माता-पिता के चरणों की सेवा करो। भरत और शत्रुघ्न घर पर नहीं हैं, और तुम यहाँ पर राज काज सम्भालो। यदि मैं तुमको साथ लेकर जाऊंगा तो अयोध्या अनाथ हों जाएगी। गुरु, पिता, माता, प्रजा और परिवार सभी पर दुःख का दुःसह भार आ पड़ेगा॥

प्रेमवश लक्ष्मणजी से कुछ उत्तर देते नहीं बनता। उन्होंने व्याकुल होकर श्री रामजी के चरण पकड़ लिए और कहा- हे नाथ! मैं दास हूँ और आप स्वामी हैं, अतः आप मुझे छोड़ ही दें तो मेरा क्या वश है?

आपने मुझे सीख तो बड़ी अच्छी दी है, पर मैं तो एक प्रेम से पला हुआ एक छोटा बच्चा हूँ। मैं सिसु प्रभु सनेहँ प्रतिपाला।

 हे नाथ! हे नाथ! स्वभाव से ही कहता हूँ, आप विश्वास करें, मैं आपको छोड़कर गुरु, पिता, माता किसी को भी नहीं जानता॥

 गुर पितु मातु न जानउँ काहू। कहउँ सुभाउ नाथ पतिआहू॥

आप ये भी अच्छी तरह जानते हैं की मैं आपके बिना नही रह पाउँगा और मैं ये भी जनता हूँ की आप भी मेरे बिना नही रह पाएंगे।

अब रामजी ने लक्ष्मण को ह्रदय से लगा लिया और कहा – हे भाई! जाकर माता से विदा माँग आओ और जल्दी वन को चलो!

लक्ष्मण और माता सुमित्रा संवाद

अब लक्ष्मण जी बड़े प्रसन्न हुए हैं। और माँ सुमित्रा जी के पास गए हैं। मन में संकोच है की कहीं मेरी माँ मुझे रोक ना लें। क्योंकि मैं रुकने वाला तो हूँ नही और आदेश की अवज्ञा हों जाएगी।

लेकिन धन्य है ऐसी माँ। माँ सुमित्रा जी कहती हैं- बेटा! तू मुझसे आदेश मांगने ही क्यों आया। क्योंकि मैं और दशरथ जी तो केवल कहलाने के लिए तेरे माता-पिता हैं।

क्योंकि आज के बाद तुम्हारे माता-पिता सीता-राम हैं। तात तुम्हारि मातु बैदेही। पिता रामु सब भाँति सनेही॥

अवध तहाँ जहँ राम निवासू। तहँइँ दिवसु जहँ भानु प्रकासू॥ जहाँ श्री रामजी का निवास हो वहीं अयोध्या है। जहाँ सूर्य का प्रकाश हो वहीं दिन है। और माँ आज लक्ष्मण को सुंदर शिक्षा दे रही है।

पूजनीय प्रिय परम जहाँ तें। सब मानिअहिं राम के नातें॥  जगत में जहाँ तक पूजनीय और परम प्रिय लोग हैं, वे सब रामजी के नाते से ही (पूजनीय और परम प्रिय) मानने योग्य हैं।

पुत्रवती जुबती जग सोई। रघुपति भगतु जासु सुतु होई॥ नतरु बाँझ भलि बादि बिआनी। राम बिमुख सुत तें हित जानी॥

अर्थ: संसार में वही युवती स्त्री पुत्रवती है, जिसका पुत्र श्री रघुनाथजी का भक्त हो। नहीं तो जो राम से विमुख पुत्र से अपना हित जानती है, वह तो बाँझ ही अच्छी। पशु की भाँति उसका ब्याना (पुत्र प्रसव करना) व्यर्थ ही है॥

सुमित्रा जी ने एक बात और स्पष्ट कर दी है। तुम ये मत सोचना ना की केकई के कारण राम वन जा रहे हैं। बेटा! मुझे तो लगता है तुम्हारे भाग्य के कारण राम वन जा रहे हैं। तुम्हरेहिं भाग रामु बन जाहीं।

ताकि तुम्हे भगवान की सेवा करने का अवसर मिल सके। और माँ कहती है की बेटा! तुम सब राग, रोष, ईर्षा, मद और मोह- इनके वश स्वप्न में भी मत होना। सब प्रकार के विकारों का त्याग कर मन, वचन और कर्म से श्री सीतारामजी की सेवा करना॥

लक्ष्मण जी कहते हैं की माँ! जागते हुए तो ठीक है लेकिन स्वप्न का क्या भरोसा? तब लक्ष्मण कहते हैं माँ यदि तुम्हारी यही आज्ञा है तो सुनो, मैं ये प्राण लेता हूँ की अब 14 वर्षों तक अखंड राम की सेवा करूँगा। और सोऊंगा भी नही।

माँ कहती हैं- मेरा यही उपदेश है तुम वही करना जिससे वन में तुम्हारे कारण श्री रामजी और सीताजी सुख पावें और पिता, माता, प्रिय परिवार तथा नगर के सुखों की याद भूल जाएँ। तुलसीदासजी कहते हैं कि सुमित्राजी ने इस प्रकार हमारे प्रभु श्री लक्ष्मणजी को शिक्षा देकर वन जाने की आज्ञा दी और फिर यह आशीर्वाद दिया कि श्री सीताजी और श्री रघुवीरजी के चरणों में तुम्हारा निर्मल निष्काम और अनन्य एवं प्रगाढ़ प्रेम नित-नित नया हो!

अब लक्ष्मण जी ने माता के चरणों में सिर नवाकर ऐसे दौड़े हैं जैसे कोई हिरन कठिन फंदे को तुड़ाकर भाग निकला हो। लक्ष्मण को अब भी ये डर है की अब वन जाने में कोई विघ्न नही आना चाहिए। अब लक्ष्मण जी सीता-राम के चरणों में आये हैं और चल दिए हैं।

नगर के स्त्री-पुरुष आपस में कह रहे हैं कि विधाता ने खूब बनाकर बात बिगाड़ी!  वे ऐसे व्याकुल हैं, जैसे शहद छीन लिए जाने पर शहद की मक्खियाँ व्याकुल हों। सब हाथ मल रहे हैं और ऐसे हों गए हैं जैसे बिना पंखों के पक्षी हो।

।।जय सिया राम।।

शनिवार, 27 जनवरी 2024

हमारे जीवन में चुनौतियां क्यों आती हैं?

                  क्या चुनौतियाँ  हम कुछ सिखाती है।


महाराज दशरथ को जब संतान प्राप्ति नहीं हो रही थी तब वो बड़े दुःखी रहते थे। पर ऐसे समय में उनको एक ही बात से हौंसला मिलता था जो कभी उन्हें आशाहीन नहीं होने देता था।

और वह था श्रवण के पिता का श्राप।

दशरथ जब-जब दुःखी होते थे तो उन्हें श्रवण के पिता का दिया श्राप याद आ जाता था। (कालिदास ने रघुवंशम में इसका वर्णन किया है)

श्रवण के पिता ने ये श्राप दिया था कि ''जैसे मैं पुत्र वियोग में तड़प-तड़प के मर रहा हूँ वैसे ही तू भी तड़प-तड़प कर मरेगा''

दशरथ को पता था कि ये श्राप अवश्य फलीभूत होगा और इसका मतलब है कि मुझे इस जन्म में तो जरूर पुत्र प्राप्त होगा (तभी तो उसके शोक में मैं तड़प के मरूँगा)।

यानि यह श्राप दशरथ के लिए संतान प्राप्ति का सौभाग्य लेकर आया।

ऐसी ही एक घटना सुग्रीव के साथ भी हुई। 

वाल्मीकि रामायण में वर्णन है कि सुग्रीव जब माता सीता की खोज में वानर वीरों को पृथ्वी की अलग - अलग दिशाओं में भेज रहे थे.. 

उसके साथ-साथ उन्हें ये भी बता रहे थे कि किस दिशा में तुम्हें कौन सा स्थान या देश मिलेगा और किस दिशा में तुम्हें जाना चाहिए या नहीं जाना चाहिये।

प्रभु श्रीराम सुग्रीव का ये भगौलिक ज्ञान देखकर हतप्रभ थे।

उन्होंने सुग्रीव से पूछा कि सुग्रीव तुमको ये सब कैसे पता?

सुग्रीव ने उनसे कहा कि ''मैं बाली के भय से जब मारा-मारा फिर रहा था तब पूरी पृथ्वी पर कहीं शरण न मिली और इस चक्कर में मैंने पूरी पृथ्वी छान मारी और इसी दौरान मुझे सारे भूगोल का ज्ञान हो गया।''

अब अगर सुग्रीव पर ये संकट न आया होता तो उन्हें भूगोल का ज्ञान नहीं होता और माता जानकी को खोजना कितना कठिन हो जाता।

इसीलिए किसी ने बड़ा सुंदर कहा है..

"अनुकूलता भोजन है, प्रतिकूलता विटामिन है और चुनौतियाँ वरदान है और जो उनके अनुसार व्यवहार करें वही पुरुषार्थी है।"

ईश्वर की तरफ से मिलने वाला हर एक पुष्प अगर वरदान है तो हर एक काँटा भी वरदान ही समझें।

मतलब अगर आज मिले सुख से आप खुश हो तो कभी अगर कोई दुख, विपदा,अड़चन आ जाये तो घबरायें, नहीं क्या पता वो अगले किसी सुख की तैयारी हो।

जय श्री राधे 

भगवान राम के प्रसिद्ध नाम और उनके अर्थ

          भगवान राम के प्रसिद्ध नाम और उनके अर्थ


आदिराम - नित्य, स्वयंभू, शाश्वत सनातन अनंतराम, सर्वशक्तिमान परमात्मा जो सभी के सृजनकर्ता, पालनहार है

राम - मनभावन, रमणीय, सुंदर, आनंददायक

प्राणीमात्र के हृदय में 'रमण' (निवास, विहार) करते हैं, वह 'राम' हैं तथा भक्तजन जिनमें 'रमण' (ध्याननिष्ठ) होते हैं, वह 'राम' हैं

रामलला - शिशु रुप राम

रामचंद्र - चंद्र जैसे शीतल एवं मनोहर राम

रामभद्र - मंगलकारी कल्याणमय राम

राघव - रघुवंश के संस्थापक राजा रघु के वंशज, रघुवंशी, रघुनाथ, रघुनंदन

रघुवीर - रघुकुल के सबसे वीर राजा राम

रामेश्वर - राम जिनके ईश्वर है अथवा जो राम के ईश्वर है

कौशल्या नंदन - कौशल्या को आनंद देने वाले, कौशल्या पुत्र, कौशलेय

दशरथी - दशरथ पुत्र, दशरथ नंदन

जानकीवल्लभ - जनकपुत्री सीता के प्रियतम

श्रीपति - लक्ष्मी स्वरूपा सीता के स्वामी जानकीनाथ, सीतापति

मर्यादा पुरुषोत्तम - धर्मनिष्ठ न्याय परायण पुरुषों में सर्वोत्तम 

नारायणावतार - भगवान नारायण के अवतार, विष्णु स्वरूप

जगन्नाथ - जगत के स्वामी, जगतपति

हरि - पाप, ताप को हरने वाले

जनार्दन - जो सभी जीवों का मूल निवास और रक्षक है

कमलनयन - कमल के समान नेत्रों वाले, राजीवलोचन

हनुमान ह्रदयवासी -  हनुमान के ह्रदय में वास करने वाले, हनुमानइष्ट, हनुमान आराध्य

शिव आराध्य - शिव निरंतर जिनका स्मरण करते हैं, शिवइष्ट, शिवप्रिय, शिव ह्रदयवासी

दशाननारि - दस शीश वाले रावण का वध करने वाले, रावणारि, दशग्रीव शिरोहर

असुरारि - असुरों का वध करने वाले

जगद्गुरु - अपने आदर्श चरित्र से सम्पूर्ण जगत् को शिक्षा देने वाले

सत्यव्रत - सत्य का दृढ़ता पूर्वक पालन करनेवाले

परेश - परम ईश्वर, सर्वोच्च आत्मा, सर्वोत्कृष्ट शासक

अवधेश - अवध के राजा या स्वामी

अविराज - सूर्य जैसे उज्जवल

सदाजैत्र - सदा विजयी, अजेय

जितामित्र - शत्रुओं को जीतनेवाला

महाभाग -  महान सौभाग्यशाली

कोदंड धनुर्धर - कोदंड धनुष को धारण करने वाले

पिनाक खण्डक - सीता स्वयंवर में पिनाक (शिवधनुष) को खंडित करने वाले

मायामानुषचारित्र - अपनी माया का आश्रय लेकर मनुष्यों जैसी लीलाएँ करने वाले

त्रिलोकरक्षक - तीनों लोकों की रक्षा करने वाले

धर्मरक्षक - धर्म की रक्षा करने वाले

सर्वदेवाधिदेव - सम्पूर्ण देवताओं के भी अधिदेवता

सर्वदेवस्तुत - सम्पूर्ण देवता जिनकी स्तुति करते हैं

सर्वयज्ञाधिप - सम्पूर्ण यज्ञों के स्वामी

व्रतफल - सम्पूर्ण व्रतों के प्राप्त होने योग्य फलस्वरूप

शरण्यत्राणतत्पर - शरणागतों की रक्षा में तत्पर

पुराणपुरुषोत्तम  - पुराणप्रसिद्ध क्षर-अक्षर पुरुषों से श्रेष्ठ लीलापुरुषोत्तम

सच्चिदानन्दविग्रह - सत्, चित् और आनन्द के स्वरूप का निर्देश कराने वाले

परं ज्योति -  परम प्रकाशमय,परम ज्ञानमय

परात्पर पर - इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि से भी परे परमेश्वर

पुण्यचारित्रकीर्तन - जिनकी लीलाओं का कीर्तन परम पवित्र हैं

सप्ततालप्रभेता - सात ताल वृक्षों को एक ही बाण से बींध डालनेवाले

भवबन्धैकभेषज - संसार बन्धन से मुक्त करने के लिये एकमात्र औषधरूप

।।जय सियाराम।।

शुक्रवार, 26 जनवरी 2024

सिय राम मय सब जग जानी ;

 श्री रामचरितमानस लिखने के दौरान तुलसीदास जी ने लिखा -


            सिय राम मय सब जग जानी ;

            करहु प्रणाम जोरी जुग पानी !


अर्थात सब में राम हैं और हमें उनको हाथ जोड़ कर प्रणाम करना चाहिये !

यह लिखने के उपरांत तुलसीदास जी जब अपने गाँव की तरफ जा रहे थे 

तो किसी बच्चे ने आवाज़ दी -महात्मा जी उधर से मत जाओ 

बैल गुस्से में है और आपने लाल वस्त्र भी पहन रखा है !

तुलसीदास जी ने विचार किया हू ,कल का बच्चा हमें उपदेश दे रहा है !

अभी तो लिखा था कि

सबमे राम हैं ;उस बैल को प्रणाम करूगा और चला जाऊंगा !

पर जैसे ही वे आगे बढे बैल ने उन्हें मारा और वे गिर पड़े !

किसी तरह से वे वापिस वहाँ जा पहुँचे जहाँ श्री रामचरितमानस लिख रहे थे 

सीधा चौपाई पकड़ी और जैसे ही उसे फाड़ने जा रहे थे कि...

श्री हनुमान जी ने प्रगट हो कर कहा -तुलसीदास जी ये क्या कर रहे हो ?

तुलसीदास जी ने क्रोधपूर्वक कहा -यह चौपाई गलत है !

और उन्होंने सारा वृत्तान्त कह सुनाया !

हनुमान जी ने मुस्करा कर कहा -

चौपाई तो एकदम सही है आपने बैल में तो भगवान को देखा पर बच्चे में क्यों नहीं ?

आखिर उसमे भी तो भगवान थे, वे तो आपको रोक रहे थे पर आप ही नहीं माने !

ऐसे ही छोटी-२ घटनाये हमें बड़ी घटनाओं का संकेत देती हैं उन पर विचार कर आगे बढ़ने वाले कभी बड़ी घटनाओं का शिकार नहीं होते..

।। जय श्री राम ।।

अच्छे लोगो के साथ ही बुरा क्यो होता है?

      अच्छे लोगो के साथ ही बुरा क्यो होता है?


सुनहु भरत भावी प्रबल बिलखि कहेउ मुनिनाथ।

हानि लाभु जीवनु मरनु जसु अपजसु बिधि हाथ॥


भावार्थ:-मुनिनाथ ने बिलखकर (दुःखी होकर) कहा- हे भरत! सुनो, भावी (होनहार) बड़ी बलवान है। हानि-लाभ, जीवन-मरण और यश-अपयश, ये सब विधाता के हाथ हैं॥

स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने दिया इसका उत्तर, जाने,,,,,

अच्छे लोगो के साथ ही बुरा क्यो होता है, यह सवाल कई लोगो के मन मे आता होगा। मैंने तो किसी का बुरा नही किया, फिर मेरे साथ ही ऐसा क्यों हुआ। मैं तो सदैव ही धर्म और नीति के मार्ग का पालन करता हूँ, पर मेरे साथ हमेशा बुरा क्यो होता है। ऐसे कई विचार अधिकांश लोगों के मन मे आते होंगे। 

ऐसे ही तमाम सवालों के जवाब स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने दिए हैं। एक बार अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से पूछते हैं कि हे वासुदेव! अच्छे और सच्चे बुरे लोगो के साथ ही बुरा क्यो होता है, इस पर भगवान श्री कृष्ण ने एक कहानी सुनाई। इस कहानी में हर मनुष्य के सवालों का जवाब वर्णित है।

श्री कृष्ण कहते हैं, कि एक नगर में दो पुरूष रहते थे। पहला व्यापारी जो बहुत ही अच्छा इंसान था, धर्म और नीति का पालन करता था, भगवान की भक्ति करता था और मन्दिर जाता था। वह सभी तरह के गलत कामो से दूर रहता था। 

वहीं दूसरा व्यक्ति जो कि दुष्ट प्रवत्ति का था, वो हमेशा ही अनीति और अधर्म के काम करता था। वो रोज़ मन्दिर से पैसे और चप्पल चुराता था, झूठ बोलता था और नशा करता था। एक दिन उस नगर में तेज बारिश हो रही थी और मन्दिर में कोई नही था, यह देखकर उस नीच व्यक्ति ने मन्दिर के सारे पैसे चुरा लिए और पुजारी की नज़रों से बचकर वहाँ से भाग निकला, थोड़ी देर बाद जब वो व्यापारी दर्शन करने के उद्देश्य से मन्दिर गया तो उस पर चोरी करने का इल्ज़ाम लग गया। 

वहाँ मौजूद सभी लोग उसे भला – बुरा कहने लगे, उसका खूब अपमान हुआ। जैसे – तैसे कर के वह व्यक्ति मन्दिर से बाहर निकला और बाहर आते ही एक गाड़ी ने उसे टक्कर मार दी। वो व्यापारी बुरी तरह से चोटिल हो गया।

उसी समय उस दुष्ट को एक नोटो से भरी पोटली हाथ लगी, इतना सारा धन देखकर वह दुष्ट खुशी से पागल हो गया और बोला कि आज तो मज़ा ही आ गया। पहले मन्दिर से इतना धन मिला और फिर ये नोटों से भरी पोटली। 

दुष्ट की यह बात सुनकर वह व्यापारी दंग रह गया। उसने घर जाते ही घर मे मौजूद भगवान की सारी तस्वीरे निकाल दी और भगवान से नाराज़ होकर जीवन बिताने लगा। 

सालो बाद जब उन दोनों की मृत्यु हो गयी और दोनों यमराज के सामने गए तो उस व्यापारी ने नाराज़ स्वर में यमराज से प्रश्न किया कि मैं तो सदैव ही अच्छे कर्म करता था, जिसके बदले मुझे अपमान और दर्द मिला और इस अधर्म करने वाले दुष्ट को नोटो से भरी पोटली…आखिर क्यों? 

व्यापारी के सवाल पर यमराज बोले जिस दिन तुम्हारे साथ दुर्घटना घटी थी, वो तुम्हारी ज़िन्दगी का आखिरी दिन था, लेकिन तुम्हारे अच्छे कर्मों की वजह से तुम्हारी मृत्यु एक छोटी सी चोट में बदल गयी। 

वही इस दुष्ट को जीवन मे राजयोग मिलने की सम्भावनाएं थी, लेकिन इसके बुरे कर्मो के चलते वो राजयोग एक छोटे से धन की पोटली में बदल गया।

श्रीकृष्ण कहते हैं कि भगवान हमे किस रूप में दे रहे हैं, ये समझ पाना बेहद कठिन होता है। अगर आप अच्छे कर्म कर रहे हैं और बुरे कर्मो से दूर हैं, तो भगवान निश्चित ही अपनी कृपा आप पर बनाए रखेंगे।

जीवन मे आने वाले दुखों और परेशानियों से कभी ये न समझे कि भगवान हमारे साथ नही है, हो सकता है आपके साथ और भी बुरा होने का योग हो, लेकिन आपके कर्मों की वजह से आप उनसे बचे हुए हो।

भगवान श्रीकृष्ण द्वारा बताई इस रोचक कहानी में मनुष्यों के अधिकांश सवालों के उत्तर मौजूद हैं।


।। जय सिया राम।।

बुधवार, 24 जनवरी 2024

भगवान राम के प्रसिद्ध नाम

                     भगवान राम के प्रसिद्ध नाम


आदिराम - नित्य, स्वयंभू, शाश्वत सनातन अनंतराम, सर्वशक्तिमान परमात्मा जो सभी के सृजनकर्ता, पालनहार है

राम - मनभावन, रमणीय, सुंदर, आनंददायक

प्राणीमात्र के हृदय में 'रमण' (निवास, विहार) करते हैं, वह 'राम' हैं तथा भक्तजन जिनमें 'रमण' (ध्याननिष्ठ) होते हैं, वह 'राम' हैं

रामलला - शिशु रुप राम

रामचंद्र - चंद्र जैसे शीतल एवं मनोहर राम

रामभद्र - मंगलकारी कल्याणमय राम

राघव - रघुवंश के संस्थापक राजा रघु के वंशज, रघुवंशी, रघुनाथ, रघुनंदन

रघुवीर - रघुकुल के सबसे वीर राजा राम

रामेश्वर - राम जिनके ईश्वर है अथवा जो राम के ईश्वर है

कौशल्या नंदन - कौशल्या को आनंद देने वाले, कौशल्या पुत्र, कौशलेय

दशरथी - दशरथ पुत्र, दशरथ नंदन

जानकीवल्लभ - जनकपुत्री सीता के प्रियतम

श्रीपति - लक्ष्मी स्वरूपा सीता के स्वामी जानकीनाथ, सीतापति

मर्यादा पुरुषोत्तम - धर्मनिष्ठ न्याय परायण पुरुषों में सर्वोत्तम 

नारायणावतार - भगवान नारायण के अवतार, विष्णु स्वरूप

जगन्नाथ - जगत के स्वामी, जगतपति

हरि - पाप, ताप को हरने वाले

जनार्दन - जो सभी जीवों का मूल निवास और रक्षक है

कमलनयन - कमल के समान नेत्रों वाले, राजीवलोचन

हनुमान ह्रदयवासी -  हनुमान के ह्रदय में वास करने वाले, हनुमानइष्ट, हनुमान आराध्य

शिव आराध्य - शिव निरंतर जिनका स्मरण करते हैं, शिवइष्ट, शिवप्रिय, शिव ह्रदयवासी

दशाननारि - दस शीश वाले रावण का वध करने वाले, रावणारि, दशग्रीव शिरोहर

असुरारि - असुरों का वध करने वाले

जगद्गुरु - अपने आदर्श चरित्र से सम्पूर्ण जगत् को शिक्षा देने वाले

सत्यव्रत - सत्य का दृढ़ता पूर्वक पालन करनेवाले

परेश - परम ईश्वर, सर्वोच्च आत्मा, सर्वोत्कृष्ट शासक

अवधेश - अवध के राजा या स्वामी

अविराज - सूर्य जैसे उज्जवल

सदाजैत्र - सदा विजयी, अजेय

जितामित्र - शत्रुओं को जीतनेवाला

महाभाग -  महान सौभाग्यशाली

कोदंड धनुर्धर - कोदंड धनुष को धारण करने वाले

पिनाक खण्डक - सीता स्वयंवर में पिनाक (शिवधनुष) को खंडित करने वाले

मायामानुषचारित्र - अपनी माया का आश्रय लेकर मनुष्यों जैसी लीलाएँ करने वाले

त्रिलोकरक्षक - तीनों लोकों की रक्षा करने वाले

धर्मरक्षक - धर्म की रक्षा करने वाले

सर्वदेवाधिदेव - सम्पूर्ण देवताओं के भी अधिदेवता

सर्वदेवस्तुत - सम्पूर्ण देवता जिनकी स्तुति करते हैं

सर्वयज्ञाधिप - सम्पूर्ण यज्ञों के स्वामी

व्रतफल - सम्पूर्ण व्रतों के प्राप्त होने योग्य फलस्वरूप

शरण्यत्राणतत्पर - शरणागतों की रक्षा में तत्पर

पुराणपुरुषोत्तम  - पुराणप्रसिद्ध क्षर-अक्षर पुरुषों से श्रेष्ठ लीलापुरुषोत्तम

सच्चिदानन्दविग्रह - सत्, चित् और आनन्द के स्वरूप का निर्देश कराने वाले

परं ज्योति -  परम प्रकाशमय,परम ज्ञानमय

परात्पर पर - इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि से भी परे परमेश्वर

पुण्यचारित्रकीर्तन - जिनकी लीलाओं का कीर्तन परम पवित्र हैं

सप्ततालप्रभेता - सात ताल वृक्षों को एक ही बाण से बींध डालनेवाले

भवबन्धैकभेषज - संसार बन्धन से मुक्त करने के लिये एकमात्र औषधरूप

 जय सियाराम 

रविवार, 14 जनवरी 2024

श्रीमद् भागवत गीता के 12वीं अध्याय का सरल अर्थ

    श्रीमद् भागवत गीता के 12वें अध्याय का सरल अर्थ


भक्त भगवान का अत्यंत प्यारा होता है; क्योंकि वह शरीर इंद्रियां, मन, बुद्धि सहित अपने आप को भगवान के अर्पण कर देता है। जो परम श्रद्धा पूर्वक अपने मन को भगवान में लगाते हैं, वे भक्त सर्वश्रेष्ठ है। भगवान के पारायण हुए जो भक्त संपूर्ण कर्मों को भगवान के अर्पण करके अनन्य भाव से भगवान की उपासना करते हैं, भगवान स्वयं उनके संसार सागर से शीघ्र उद्धार करने वाले बन जाते हैं। जो अपने मन बुद्धि को भगवान में लगा देता है, वह भगवान में ही निवास करता है। जिनका प्राणी मात्र के साथ मित्रता एवं करुणा का बर्ताव है जो अहंता ममता से रहित है, जिसे कोई भी प्राणी उद्विग्न नहीं होता तथा जो स्वंय किसी प्राणी से उद्विग्न नहीं होते जो नये कर्मों के आरंभ के त्यागी हैं, जो अनुकूल प्रतिकूल परिस्थितियों के आने पर हर्षित एवं उद्विग्न नही होते, जो मान अपमान आदि में सम रहते हैं, जो जिस किसी भी परिस्थिति में निरंतर संतुष्ट रहते हैं, वे भक्त भगवान को प्यारे है। अगर मनुष्य भगवान के ही हो कर रहे, भगवान में ही अपनापन रखें, तो सभी भगवान के प्यार बन सकते हैं।

गीता प्रेस गोरखपुर की गीता दर्पण पुस्तक में से लिया गया।

काशी विश्वनाथ मंदिर के महत्व पूर्ण स्थान दर्शन के लिए

  काशी विश्वनाथ मंदिर के महत्व पूर्ण स्थान दर्शन के लिए और खरीदारी के लिए प्रसिद्ध वस्तु


5. भूतेश्वरनाथ मंदिर: यह एक प्राचीन शिव मंदिर है जो वाराणसी में स्थित है और भक्तों को आकर्षित करने वाला है।

6. काशीक्षेत्र विश्वविद्यालय:यह विश्वविद्यालय भारतीय संस्कृति और तथ्यवाद के क्षेत्र में महत्वपूर्ण है और यहाँ के कैम्पस में भी दर्शनीय स्थल हैं।

7. रानी लक्ष्मीबाई स्मारक (भवानी शंकर मंदिर): यह स्मारक झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई को समर्पित है और भवानी शंकर मंदिर के रूप में भी जाना जाता है।

 8.मणिकर्णिका घाट– 


वाराणसी के प्रमुख और पवित्र घाटों में से एक है। यह घाट गंगा नदी के किनारे स्थित है और हिन्दू धर्म में महत्वपूर्ण स्थानों में से एक है। इसे मुक्तिदायिनी घाट भी कहा जाता है, क्योंकि यहाँ श्रद्धालु लोग अपने पितृगण के लिए श्राद्ध करने आते हैं और मृत्यु के बाद मुक्ति प्राप्त करने की आशा करते हैं।

मणिकर्णिका घाट पर स्थित मान्यवर्गीय मंदिर में देवी अनपूर्णा की पूजा की जाती है। यह घाट अपने ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व के लिए प्रसिद्ध है और इसे गंगा आरती, पूजा, और साधु-संतों के साथ जुड़े रहने की विशेषता से याद किया जाता है।

इन स्थानों के साथ, वाराणसी में हैं अनेक और दर्शनीय स्थल जो यहाँ के ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, और धार्मिक विविधता को दिखाते हैं।

वाराणसी एक प्राचीन और रमणीय शहर है, जिसमें विभिन्न प्रकार के और अद्वितीय वस्त्र, शिल्पकला और पूजा सामग्री के लिए प्रसिद्ध बाजार हैं। 

 कुछ प्रमुख खरीदने के स्थान 

बनारस कुछ प्रमुख खरीदने के स्थान:और खाने की स्वादिष्ट चीजें

                  बनारस कुछ प्रमुख खरीदने के स्थान:और खाने की स्वादिष्ट चीजें


वाराणसी एक प्राचीन और रमणीय शहर है, जिसमें विभिन्न प्रकार के और अद्वितीय वस्त्र, शिल्पकला और पूजा सामग्री के लिए प्रसिद्ध बाजार हैं। यहाँ कुछ प्रमुख खरीदने की वस्तुएं :


1. बनारसी साड़ीयाँ: 


वाराणसी को बनारसी साड़ीयों के लिए प्रसिद्ध है, जो भारतीय स्थानीय सारी कला का प्रतीक हैं।

2. भगवान शिव की मूर्तियाँ और शिवलिंग : वाराणसी में शिवलिंग और भगवान शिव की मूर्तियाँ प्राप्त करने के लिए प्रसिद्ध हैं।

3. इत्र (अर्क) : वाराणसी में अद्भुत इत्रों का विक्रय होता है, जो स्थानीय बाजारों में उपलब्ध हैं।

4. कछुआ शिल्पकला : वाराणसी में कछुआ शिल्पकला के आदर्श और सुंदर नमूने मिलते हैं, जो एक विशेष शैली का प्रतीक हैं।

5. बनारसी पान 


 :वाराणसी में विशेष तरीके से बने पान का आनंद लेना भी एक स्थानीय अनुभव हो सकता है।

इसके साथ साथ सुबह सुबह गली गली में स्वादिष्ट कचौड़ी, बेडमी पूरी,मसाला चाय,टमाटर चाट आदि खाने योग्य है।

आपको एक बताना तो भूल ही गई जब भी काशी जाएं तो बाबा की शयन आरती देखना बिल्कुल नही भूलना।

।।हर हर महादेव।।

ये सुझाव केवल शुरुआत हैं, वाराणसी में अनेक अन्य रूपों की कला और हस्तशिल्प भी देखने और खरीदने के लिए उपलब्ध हैं।

काशी विश्वनाथ मंदिर के बारे में महत्व पूर्ण जानकारी

 काशी विश्वनाथ मंदिर के बारे में महत्व पूर्ण जानकारी


काशी विश्वनाथ मंदिर भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के वाराणसी शहर में स्थित है और यह हिन्दू धर्म का एक प्रमुख तीर्थ स्थल है। यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है और इसे विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग का स्थान माना जाता है। मंदिर का निर्माण 18वीं सदी में मराठा राजा आहिल्याबाई होलकर द्वारा किया गया था। काशी विश्वनाथ मंदिर वाराणसी के सबसे प्रमुख और पवित्र मंदिरों में से एक है जिसे लाखों भक्त वाराणसी में प्रतिवर्ष यात्रा करते हैं।

मंदिर के प्रांगण में स्थित काशी विश्वनाथ मंदिर के अलावा, यहाँ कई छोटे-बड़े मंदिर और कुंज भी हैं जो आराधकों को एक आध्यात्मिक और धार्मिक अनुभव प्रदान करते हैं। गंगा घाटों पर भी अनगिनत पूजा-स्थल हैं जो यहाँ के धार्मिक माहौल को और भी प्रशंसा करते हैं। काशी विश्वनाथ मंदिर भारतीय सांस्कृतिक और धार्मिक ऐतिहासिकता का महत्वपूर्ण हिस्सा है और यह भक्तों के लिए महत्वपूर्ण तीर्थ स्थलों में से एक माना जाता है।

काशी विश्वनाथ मंदिर का स्थान ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, और धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इसे हिन्दू धर्म में एक प्रमुख तीर्थ स्थल के रूप में माना जाता है जिसमें लोग अपने आध्यात्मिक और धार्मिक आदर्शों को साकार रूप से अनुभव करते हैं। विश्वनाथ मंदिर का सौंदर्य, ऐतिहासिक महत्व, और पूजा का माहौल इसे विशेष बनाता है। इसके आस-पास के गलियारे, बाजार, और धार्मिक स्थल भी यहाँ के अनुपम वातावरण को सजीव करते हैं।

काशी विश्वनाथ मंदिर के अलावा वाराणसी में कई अन्य प्रमुख स्थान हैं जो दर्शनीय हैं:

1. गंगा घाट: यहाँ के अनेक घाट जैसे की दशाश्वमेध घाट, अस्सी घाट, मणिकर्णिका घाट, और दशाश्वमेध घाट दर्शनीय हैं और आराधकों के लिए महत्वपूर्ण हैं।

2. सारनाथ: इस स्थान पर भगवान बुद्ध ने अपना पहला धर्मचक्र प्रवर्तन किया था, और यह बौद्ध धर्म का महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल है।

3. काशी हिरण्याक्षी (अन्नपूर्णा) मंदिर: इस मंदिर में देवी अन्नपूर्णा की पूजा की जाती है, और यहाँ भी आराधकों की भरपूर भीड़ आती है।

4. तुलसी मानस मंदिर: भगवान राम की प्रेम पत्री तुलसीदास ने यहाँ रामचरितमानस रचा था, इसलिए यहाँ भक्तों के लिए एक महत्वपूर्ण स्थल हैं।

ये स्थान वाराणसी के धार्मिक और सांस्कृतिक विविधता को दर्शाते 

हैं।

शेष स्थानो का वर्णन आगे

गुरुवार, 11 जनवरी 2024

श्रीमद् भागवत गीता संबंधी प्रश्न उत्तर

                      श्रीमद् भागवत गीता संबंधी प्रश्न उत्तर 5 से 7 

5 प्रश्न– शरीरी (जीवात्मा) अविनाशी है, इसका विनाश कोई  कर ही नहीं सकता,(2/17) यह ना मरता है और ना मारा जाता है(2/19) तो फिर मनुष्य को प्राणियों की हत्या का पाप लगना ही नहीं चाहिए?

उत्तर –पाप तो पिंड–प्राणों का वियोग करने का लगता है; क्योंकि प्रत्येक प्राणी पिंड–प्राण में रहना चाहता है, जीना चाहता है। यद्यपि महात्मा लोग जीना नहीं चाहते, फिर भी उन्हें मारने का बड़ा भारी पाप लगता है क्योंकि उनका जीवन संसार मात्र चाहता है। उनके जीने से प्राणी मात्र का परम हित होता है। प्राणी मात्र को सदा रहने वाली शांति मिलती है। जो वस्तुएं प्राणियों के लिए जितनी आवश्यक होती हैं, उनका नाश करने का उतना ही अधिक पाप लगता है।

6 प्रश्न–आत्मा नित्य है, सर्वत्र परिपूर्ण है, स्थिर स्वभाव वाला है(2/24), तो फिर इसका पुराने शरीर को छोड़कर दूसरे नए शरीर में चला जाना कैसे संभव है(2/22)?

उत्तर –जब यह प्रकृति के अंश शरीर को अपना मान लेता है ,उसके साथ तादाम्य में कर लेता है, तब यह प्रकृति के अंश के आने जाने को,उसके जीने मरने को, अपना आना-जाना, जीना-मारना मान लेता है। इस दृष्टि से इसका अन्य शरीरों में चला जाना कहा गया है। वास्तव में तत्वों से इसका आना-जाना,जीना- मरना है ही नहीं।

7 प्रश्न– भगवान कहते हैं कि क्षत्रिय के लिए युद्ध के सिवाय कल्याण का दूसरा कोई साधन है ही नहीं तो क्या लड़ाई करने से ही क्षत्रिय का कल्याण होगा दूसरे किसी साधन से कल्याण नहीं होगा?

ऐसी बात नहीं है उसे समय युद्ध का प्रसंग था और अर्जुन युद्ध को छोड़कर भिक्षा मांगना श्रेष्ठ समझते थे। अतः भगवान ने कहा कि ऐसा स्वतःप्राप्त धर्म युद्ध शूरवीर क्षत्रिय के लिए कल्याण का बहुत बढ़िया साधन है। अगर ऐसे मौके पर शूरवीर क्षत्रिय युद्ध नहीं करता, तो उसकी अपकीर्ति होती है। यह आदरणीय पूजनीय मनुष्यों की दृष्टि में लघुता को प्राप्त हो जाता है। वैरी लोग उसको ना कहने योग्य वचन कहने लग जाते हैं। तात्पर्य यह है कि अर्जुन के सामने युद्ध का प्रसंग था इसलिए भगवान ने युद्ध को श्रेष्ठ साधन बताया। युद्ध के सिवाय दूसरे साधन से क्षत्रिय अपना कल्याण नहीं कर सकता- यह बात नहीं है ;क्योंकि पहले भी बहुत से राजा लोग चौथे आश्रम में वन में जाकर साधन भजन करते थे और उनका कल्याण भी हुआ है।

यह प्रश्न उत्तर गीता दर्पण (स्वामी रामसुखदास जी के वचन) पुस्तक से लिए गए हैं।

गीता के 11 अध्याय का सरल अर्थ

                 गीता के 11वें अध्याय का सरल अर्थ

अर्जुन ने भगवान की कृपा से जिस दिव्या विश्व रूप के दर्शन किये, उसको तो हर एक मनुष्य नहीं देख सकता, परंतु आदि- अवतार रूप से प्रकट हुए इस संसार को श्रद्धापूर्वक भगवान का रूप मानकर तो हर एक मनुष्य विश्व रूप के दर्शन कर सकता है।

अर्जुन ने विश्व रूप दिखाने के लिए भगवान से नम्रता पूर्वक प्रार्थना की तो भगवान ने दिव्य नेत्र प्रदान करके अर्जुन को अपना दिव्य विश्व रूप दिखा दिया। उसमें अर्जुन ने भगवान के अनेक मुख, नेत्र, हाथ आदि देखे ब्रह्मा, विष्णु और शंकर को देखा, देवताओं, गंधर्व, सिद्धों सांपों आदि को देखा उन्होंने विश्व रूप के सौम्य, उग्र अतिउग्र आदि कई स्तर देखे। इस दिव्य विश्वरूप को हम सब नहीं देख सकते, पर नेत्रों से दिखने वाले इस संसार को भगवान का स्वरूप मानकर, अपना उद्धार तो हम कर ही सकते हैं। कारण कि यह संसार भगवान से ही प्रकट हुआ है, भगवान ही सब कुछ बने हुए हैं।

गीता के दसवें अध्याय का सरल अर्थ

           गीता के दसवें अध्याय का सरल अर्थ

मनुष्य के पास चिंतन करने की जो शक्ति है उसको भगवान  के चिंतन में ही लगाना चाहिए। संसार में जिस किसी में, जहां कहीं विलक्षणता, विशेषता, मेहत्ता, अलौकिकता, सुंदरता आदि दिखती है, उसमें वह खिंचता है,वह विलक्षणता आदि सब वास्तव में भगवान ही है। अतः वहां भगवान का ही चिंतन होना चाहिए। उस वस्तु, व्यक्ति आदि का नहीं। यही विभूतियों के वर्णन का तात्पर्य है।

गीता के नवें अध्याय का सरल अर्थ

                 गीता के नवें अध्याय का तात्पर्य 


सभी मनुष्य भगवत प्राप्ति के अधिकारी हैं, चाहे वह किसी भी वर्ण, आश्रम,संप्रदाय,देश, वेश आदि के क्यों ना हो। वे सभी भगवान की तरफ चल सकते हैं। भगवान का आश्रय लेकर, भगवान को प्राप्त कर सकते हैं। भगवान को इस बात का दुख है, खेद है,पश्चाताप है कि यह जीव मनुष्य शरीर पाकर, मेरी प्राप्ति का अधिकार पाकर भी ,मेरे को प्राप्त न करके, मेरे पास ना आकर मौत (जन्म मरण)में जा रहे हैं। मेरे से विमुख होकर भी कोई तो मेरी अवहेलना करके, कोई आसुरी संपत्ति का आश्रय लेकर और कोई साकाम भाव से यज्ञ आदि का अनुष्ठान करके, जन्म मरण के चक्कर में जा रहे हैं। वह पापी से पापी हों, किसी नीच योनि में पैदा हुए हो, किसी भी वर्ण, आश्रम, देश आदि के हों, वे सभी मेरा आश्रय लेकर मेरी प्राप्ति कर सकते हैं अतः इस मनुष्य शरीर को पाकर जीव को मेरा भजन करना चाहिए

गीता के आठवें अध्याय का सरल अर्थ

              गीता के आठवें अध्याय का सरल अर्थ


अंतकालीन चिंतन के अनुसार ही जीव की गति होती है। इसलिए मनुष्य को हरदम सावधान रहना चाहिए, जिससे अंत काल में भागवत स्मृति बनी रहे। अंत समय में शरीर छुटते समय मनुष्य जिस वस्तु व्यक्ति आदि का चिंतन करता है, उसी के अनुसार उसको आगे का शरीर मिलता है। जो अंत समय में भगवान का चिंतन करता हुआ शरीर छोड़ता है वह भगवान को ही प्राप्त होता है। उसका फिर जन्म मरण नहीं होता। अतः मनुष्य को सब समय में, सभी अवस्थाओं में और शास्त्र विहित सब काम करते हुए भगवान को याद रखना चाहिए जिससे अंत समय में भगवान ही याद आए। जीवन भर रागपूर्वक जो कुछ किया जाता है प्राय: वहीं अंत समय में याद आता है।

इस अध्याय में भगवान कृष्ण ने स्वभाव, प्रकृति, और पुरुष के तात्पर्य को स्पष्ट किया है। वह यह बताते हैं कि सभी जीवों का अधिष्ठान प्रकृति है और उनका नियंत्रण पुरुष करता है। कर्मों के माध्यम से पुरुष को प्रकृति से मुक्ति प्राप्त होती है। इसके साथ ही, भक्ति और ज्ञान के माध्यम से भी व्यक्ति परमात्मा को प्राप्त कर सकता है। यह अध्याय जीवन को संतुलित रूप से जीने के लिए उपयुक्त मार्गदर्शन प्रदान करता है।

गीता के सातवें अध्याय का तात्पर्य

                गीता के सातवें अध्याय का सरल अर्थ



सब कुछ वासुदेव ही है, भागवत रूप ही है– इसका मनुष्य को अनुभव कर लेना चाहिए।

 सूत के मणियों से बनी हुई महिलाओं में सूत की तरह भगवान ही सब संसार में ओत प्रोत है। पृथ्वी, जल, तेज,वायु आदि तत्वों में; चांद, सूर्य आदि रूपों में; सात्विक, राजस्व और तमस भाव, क्रिया आदि में भगवान ही परिपूर्ण है। ब्रह्म, जीव ,क्रिया, संसार, ब्रह्मा और विष्णु रूप से भगवान ही हैं। इस तरह तत्व से सब कुछ भगवान ही भगवान हैं।

इस अध्याय में भगवान कृष्ण अर्जुन को यह भी बताते हैं कि भक्ति में समर्पण करने से सब कुछ संभव है और व्यक्ति अपनी आत्मा को परमात्मा में मिला सकता है। इस अध्याय के माध्यम से जीवन में उद्दीपना और मार्गदर्शन मिलता है, जो सच्चे धर्म की प्राप्ति के लिए महत्वपूर्ण हैं।

रामचरितमानस और रामायण में क्या अंतर है?

           रामचरितमानस और रामायण में क्या अंतर है



"रामचरितमानस" और "रामायण" दोनों ही महाकाव्य हैं जो भगवान राम के जीवन को बयान करते हैं, लेकिन इनमें कुछ अंतर हैं। "रामचरितमानस" का रचनाकार गोस्वामी तुलसीदास था, जबकि "रामायण" का अद्भुत महाकाव्य वाल्मीकि ने लिखा।

तुलसीदास ने "रामचरितमानस" को अपनी भक्ति भावना से भरा हुआ बनाया, जिसमें भगवान राम की प्रशंसा और भक्ति की महत्वपूर्ण भूमिका है। इसमें अधिकतर भक्ति भावनाओं को सुरक्षित करने के लिए विशेष पहलुओं का उल्लेख है।

वहीं, वाल्मीकि की "रामायण" ने राम के जीवन को ऐतिहासिक और तात्कालिक पृष्ठभूमि से दर्शाने का प्रयास किया है। इसमें राम, सीता, हनुमान, लक्ष्मण आदि के चरित्रों को अद्वितीय रूप से प्रस्तुत किया गया है, जिससे यह एक महाकाव्य और एक ऐतिहासिक ग्रंथ भी है।

"रामचरितमानस" ने भगवान राम के कथानक को अपने धार्मिक दृष्टिकोण से दर्शाया है, जिसमें भक्ति, नैतिकता, और आदर्शवाद को महत्वपूर्ण स्थान मिलता है। तुलसीदास ने भक्ति मार्ग को प्रमोट किया और राम के चरित्र को एक नेतृत्वपूर्ण आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया।

"रामायण" में वाल्मीकि ने राम के जीवन को एक ऐतिहासिक दृष्टिकोण से दिखाया है, जिसमें युद्ध, राजनीति, और मानवीय धरोहर को बड़े रूप में प्रस्तुत किया गया है। इसमें समय-समय पर आनेवाली कई विचारशील प्रवृत्तियों के माध्यम से जीवन के विभिन्न पहलुओं को समझाने का प्रयास किया गया है।

यद्यपि दोनों महाकाव्य भगवान राम की महत्व पूर्णता पर चर्चा करते हैं, उनका दृष्टिकोण और प्रस्तुतिकरण विभिन्न हैं, जिससे वे अद्वितीय रूप से महत्वपूर्ण हैं।

।।जय श्री राम।।

सोमवार, 8 जनवरी 2024

श्रीमद भागवत गीता सम्बन्धी प्रश्नोत्तर

                        श्रीमद् भागवत  गीता सम्बन्धी प्रश्नोत्तर 1 से 4 तक


1प्रश्न – गौरव सेना के तो शंख ,भेरी, ढोल आदि कई बाजे बजे ,पर पांडव सेना के केवल शंख ही बजे, ऐसा क्यों?

उत्तर- युद्ध में विपक्ष की सेना पर विशेष व्यक्तियों का ही असर पड़ता है, सामान्य व्यक्तियों का नहीं। कौरव सेना के मुख्य व्यक्ति भीष्म जी के शंख बजाने के बाद संपूर्ण सैनिकों ने अपने-अपने कई प्रकार के बाजे बजाए, जिसका पांडव सेना पर कोई असर नहीं पड़ा। परंतु पांडव सेना के मुख्य व्यक्तियों ने अपने-अपने शंख बजाए जिनकी तुमुल ध्वनि ने कौरवों के हृदय को विदीर्ण कर दिया।

2 प्रश्न – भगवान तो जानते ही थे कि भीष्मजी ने दुर्योधन को प्रसन्न करने के लिए ही शंख बजाया है, यह युद्ध आरंभ की घोषणा नहीं है। फिर भी भगवान ने शंख क्यों बजाया?

उत्तर –भीष्म जी का शंख बजते ही कौरव सेवा के सब बाजे एक साथ बजे उठे। अतः ऐसे समय पर अगर पांडव सेना के बाजे ना बजते तो बुरा लगता, पांडव सेना की हार सूचित होती और व्यवहार भी उचित नहीं लगता। अतः भक्तपक्षपाती भगवान ने पांडव सेना के सेनापति धृष्टधुम्न की परवाह न करके सबसे पहले शंख बजाया।

3 प्रश्न– अर्जुन ने पहले अध्याय में धर्म की बहुत सी बातें कही है, जब वह धर्म  की इतनी बातें जानते थे, तो फिर उनका मोह क्यों हुआ?

उत्तर –कुटुंब की ममता विवेक को दबा देती है, उसकी मुख्यता  को नहीं रहने देती और मनुष्य को मोह ममता में तल्लीन कर देती है। अर्जुन को भी कुटुंब की ममता के कारण मोह हो गया।

4 प्रश्न –जब अर्जुन पाप के होने में लोभ को कारण मानते थे, तो फिर उन्होंने ‘मनुष्य ना चाहता हूं भी पाप क्यों करता है’ यह प्रश्न क्यों किया?

उत्तर –कोतुम्बिक मोह के कारण अर्जुन पहला अध्याय में युद्ध से निवृत होने को धर्म और युद्ध में प्रवृत होने को धर्म मानते थे अर्थात शरीर आदि को लेकर उनकी दृष्टि केवल भौतिक थी, अत: वह युद्ध में स्वजनों को मारने में लोभ को हेतु मानते थे। परंतु आगे गीता का उपदेश सुनते-सुनते उनमें अपने कल्याण की इच्छा जागृत हो गई अतः वह पूछते हैं कि मनुष्य ना चाहते हुए भी ना करने योग्य काम में प्रवृत क्यों होता है? तात्पर्य यह है कि पहला अध्याय में तो अर्जुन मोहाविष्ट होकर कह रहे हैं और तीसरे अध्याय में वे साधक की दृष्टि से पूछ रहे हैं।

यह प्रश्न उत्तर गीता दर्पण (स्वामी रामसुखदास जी के वचन) पुस्तक से लिए गए हैं।

शनिवार, 6 जनवरी 2024

श्री राम स्तुति का सरल अर्थ।।

                       ।।श्री राम स्तुति का सरल अर्थ।।



"श्री रामचंद्र कृपालु भजुमन" का स्वरूप इस प्रकार है:


1. श्री रामचंद्र: स्तुति का आरंभ हो रहा है भगवान राम की महिमा के साथ।

2. हरण भवभय दारुणं: भगवान राम भक्तों के लिए संसारिक भयों को दूर करने वाले हैं।

3. नव कंज लोचन... कंजारुणं:यह श्लोक भगवान के सुंदर रूप, आँखें, मुख, हाथ, और पैर की प्रशंसा करता है।

हे मन, कृपानिधान प्रभु श्रीरामचंद्र को नित्य भज जो भवसागर के जन्म-मृत्यु रूपी कष्टप्रद भय को हरने वाले हैं। उनके नयन नए खिले कमल की तरह हैं। मुँह-हाथ और पैर भी लाल रंग के कमल की तरह हैं ॥१॥


4. कन्दर्प अगणित अमित छवि... नोमि जनक सुतावरं इसमें हरिवंश (कृष्ण) के अनगिनत रूपों की प्रशंसा है और राम को  कहकर स्तुति की जा रही है।

उनकी सुंदरता की अद्भुत छ्टा अनेकों कामदेवों से अधिक है। उनके तन का रंग नए नीले-जलपूर्ण बादल की तरह सुन्दर है। पीताम्बर से आवृत्त मेघ के समान तन विद्युत के समान प्रकाशमान है। ऐसे पवित्र रूप वाले जानकीपति प्रभु राम को मैं नमन करता हूं। ॥२॥


5. भजु दीनबन्धु... चन्द दशरथ नन्दनं: इसमें भक्त को भगवान की पूजा करने के लिए प्रेरित किया जा रहा है, जो दीनबंधु हैं और दैत्यों के वंश को नष्ट करने वाले हैं।हे मन, दीनबंधु, सूर्य देव की तरह तेजस्वी, दैत्य-दानव के वंश का विनाश करने वाले, आनंद के मूल, कोशल-देश रूपी व्योम में निर्दोष चन्द्रमा की तरह दशरथ के पुत्र भगवान राम का स्मरण कर ॥३॥


6. शिर मुकुट कुंडल तिलक... संग्राम जित खरदूषणं:श्री राम के शिर पर रत्नों से मंडित मुकुट है, कानों में कुंडल विद्यमान हैं, माथे पर तिलक है और अंग-प्रत्यंग में मनोहर आभूषण शोभायमान हैं। उनकी भुजाएँ घुटनों तक दीर्घ हैं। वे धनुष व बाण धारण किए हुए हैं और संग्राम में खर-दूषण को पराजित कर दिया है।भगवान के रूप, भूषण, और धनुष धारण का वर्णन है, जो खरदूषण जैसे राक्षसों को जीतने के लिए संग्राम करते हैं।


7. इति वदति तुलसीदास... कामादि खलदल गंजनं:जो श्रीराम भगवान शंकर, शेष और ऋषि-मुनियों के मन को आनंदित करने वाले तथा कामना, क्रोध, लालच आदि खलों को विनष्ट करने वाले हैं, गोस्वामी तुलसीदास वंदन करते हैं कि वे रघुनाथ जी हृदय-कमल में हमेशा निवास करें ।

यह श्लोक संत तुलसीदास द्वारा बोला जा रहा है, जो अपने मन की निवास स्थान के रूप में भगवान से भक्ति की गुजारिश करते हैं और कामादि खलदल से मुक्ति की प्राप्ति का आशीर्वाद मांगते हैं।


8. मन जाहि राच्यो... स्नेह जानत रावरो:जिसमें मन रचा-बसा हो, वही सहज सुन्दर साँवला भगवान राम रूपी वर तुमको मिले। वह जो करुणा-निधान व सब जानने वाला है, तुम्हारे शील को एवं तुम्हारे प्रेम को भी जानता है।

इस श्लोक में साधक को भगवान के साथ संबंध में सरलता और भक्ति की भावना है।


9. एहि भांति गौरी असीस सुन सिय... मुदित मन मन्दिर चली:इस तरह माता पार्वती का आशीर्वचन सुन भगवती सीता जी समेत उनकी सभी सहेलियाँ अन्तःकरण में अह्लादित हुईं। गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं, आदि शक्ति भवानी का पुनः-पुनः पूजन कर माता सीता पुलकित हृदय से राजमहल को लौट गयीं।

 स्तुति अपने अंत में सीता जी, भगवान राम की पत्नी, की कृपा की आशीर्वाद को प्राप्त होने की इच्छा का अभिव्यक्ति करती है और संत तुलसीदास का मन मंदिर में भगवान की पूजा चलता है।

"श्री राम चंद्र कृपालु भजमन" स्तुति का भावार्थ निम्नलिखित है:


1. श्री राम चंद्र: यह भगवान राम को संदर्भित करता है, जो हिन्दू धर्म में एक प्रमुख देवता है।

2. कृपालु:यह शब्द कृपा करने वाले को दर्शाता है, और यहां इससे भगवान की कृपा और अनुग्रह की बात है।

3. भजमन: इसका अर्थ है 'भजना' या 'पूजना'। यहां भक्ति और पूजा के माध्यम से भगवान की उपासना की जा रही है।

4.  काव्यिक रूप से भगवान की प्रशंसा और स्तुति का अभिव्यक्ति करने के लिए उपयुक्त है।

इस स्तुति में भक्त का भगवान राम के प्रति प्रेम, श्रद्धा, और समर्पण व्यक्त होता है। हनुमान को भगवान के प्रमुख भक्त के रूप में स्वीकार किया जाता है और भक्त की माध्यम से भगवान से कृपा की प्राप्ति की गुजारिश की जाती है। इसमें आत्मा की मुक्ति की प्राप्ति और भगवान के साथ एकता की इच्छा का व्यक्तिगत अनुभव व्यक्त होता है। सम्पूर्ण स्तुति भक्ति और साधना के माध्यम से अपने आत्मा को भगवान के साथ मिलाने की आग्रह करती है।

।।जय सिया राम।।

शुक्रवार, 5 जनवरी 2024

गीता के छठे अध्याय का सरल तात्पर्य

           गीता के छठे अध्याय का सरल तात्पर्य

किसी भी साधन से अन्त:करण मे समता आनी चाहिए;क्योंकि समता के बिना मनुष्य अनुकूल प्रतिकूल परिस्थितियों में,मान अपमान में सम (निर्विकार) नही रह सकता और अगर वह परमात्मा का ध्यान करना चाहे तो ध्यान भी नहीं कर सकता। तात्पर्य यह है कि अंतःकरण में समता आए बिना सुख-दुख आदि द्वन्द्वो का असर नहीं मिटेगा और मन भी ध्यान में नहीं लगेगा। जो मनुष्य प्रारब्ध के अनुसार प्राप्त अनुकूल प्रतिकूल परिस्थितियों में वर्तमान में किए जाने वाले कर्मों की पूर्ति आपूर्ति में सिद्ध असिद्धि में, दूसरों के द्वारा किए गए मान अपमान में, धन संपत्ति आदि में, अच्छे बुरे मनुष्यों में सम रहता है, वह श्रेष्ठ है। जो साध्य रूप में समता का उद्देश्य रखकर मन इंद्रियों के संयम पूर्वक परमात्मा का ध्यान करता है, उसके संपूर्ण प्राणियों में और उनके सुख-दुख में समबुद्धि हो जाती है। समता प्राप्त करने की इच्छा रखने वाला मनुष्य वेदों में कहे हुए सकाम कर्मों का अतिक्रमण कर जाता है। समता वाला मनुष्य से सकाम भाव वाले तपस्वी ज्ञानी और कर्मी मनुष्य से श्रेष्ठ है।

गीता के छठे अध्याय में, भगवान कृष्ण ने ज्ञान और भक्ति के माध्यम से मुक्ति की प्राप्ति के मार्ग को समझाया। इस अध्याय में आत्मा की अविनाशिता, मानव जीवन की सार्थकता, और ईश्वर के साकार और निराकार स्वरूप की चर्चा है। भगवान ने अर्जुन को संसार के मोह और अज्ञान से मुक्ति के लिए ज्ञान का प्रयास करने का प्रेरणा दिया है। छठे अध्याय में जीवन के उद्देश्य को समझाने और आत्मज्ञान की महत्वपूर्णता को बताने का प्रयास किया गया है।

गीता के पांचवे अध्याय का सरल तात्पर्य

                    गीता के पांचवे अध्याय का तात्पर्य


मनुष्य को अनुकूल प्रतिकूल परिस्थिति में सुखी दु:खी,राजी नाराज नहीं होना चाहिए;क्योंकि इन सुख दुःख आदि द्वंदो में फंसा हुआ मनुष्य संसार से ऊंचा नही उठ सकता।

स्त्री पुत्र,परिवार,धन–संपत्ति का केवल स्वरूप से त्याग करने वाला ही सन्यासी नही है अपितु जो अपने कर्तव्य का पालन करते हुए राग द्वेष नहीं करता,वही सच्चा सन्यासी है।जो अनुकूल परिस्थिति आने पर हर्षित नही होता और प्रतिकूल परिस्थितियों में उदास नही होता,ऐसा वह द्वंदो से रहित मनुष्य परमात्मा में ही स्थित रहता है।सांसारिक सुख दुःख,अनुकूलता प्रतिकूलता आदि द्वंद दुखो के ही कारण है। अतः बुद्धिमान व्यक्ति को उनमें नही फसना चाहिए।

गीता के पांचवें अध्याय में, भगवान कृष्ण ने अर्जुन को कर्मयोग और संन्यास के सिद्धांतों का बोध कराया। इसमें जीवन के उद्देश्य, कर्तव्य, और भक्ति के महत्व पर चर्चा है। अर्जुन को स्वधर्म में कर्म करने की महत्वपूर्णता को समझाते हुए, उन्होंने यह भी बताया कि भगवान के प्रति भक्ति और समर्पण से ही मुक्ति प्राप्त हो सकती है। यह अध्याय जीवन को सार्थक बनाने के लिए सही मार्ग और सही दृष्टिकोण की महत्वपूर्ण उपदेशों से भरा है।

सोमवार, 1 जनवरी 2024

चौथा अध्याय का सरल अर्थ

                  चौथा अध्याय का सरल अर्थ


सम्पूर्ण कर्मों के लीन करने के , संपूर्ण कर्मों के बंधन से रहित होने के दो उपाय हैं– कर्मों के तत्वों को जानना और तत्व ज्ञान को प्राप्त करना।

 भगवान सृष्टि की रचना तो करते हैं, पर उस कर्म में और उसके फल में कर्तव्य अभिमान एवं आसक्ति ना होने से बंधते  नहीं। कर्म करते हुए जो मनुष्य कर्म फल की आसक्ति, कामना, ममता आदि नहीं रखते अर्थात कर्म फल से सर्वप्रथम निर्लिप्त रहते हैं और निर्लिप्त रहते हुए कर्म करते हैं। वह संपूर्ण कर्मों को काट देते हैं। जिसके संपूर्ण कर्म संकल्प और कामना से रहित होते हैं, उसके संपूर्ण कर्म जल जाते हैं। जो कर्म और कर्म फल की आसक्ति नहीं रखता वह कर्मों में सांगोपांग प्रवृत होता हुआ भी कर्मों से नहीं बंधता। जो केवल शरीर निर्वाह के लिए ही कर्म करता है तथा जो कर्मों की सिद्धि, असिद्धि में सम रहता है, वह कर्म करके भी नहीं बंधता। जो केवल कर्तव्य परंपरा सुरक्षित रखने के लिए ही कर्म करता है उसके संपूर्ण कर्म लीन हो जाते हैं। इस तरह कर्मों के तत्वों को ठीक तरह से जानने से मनुष्य कर्म बंधन से रहित हो जाता है।

 जड़ता से सर्वथा संबंध विच्छेद हो जाना ही तत्व ज्ञान है । यह तत्व ज्ञान पदार्थ से होने वाले यज्ञों से श्रेष्ठ है। इस तत्वज्ञान में संपूर्ण कर्म समाप्त हो जाते हैं। तत्व ज्ञान के प्राप्त होने पर भी कभी मोह नहीं होता।पापी से पापी मनुष्य ज्ञान से संपूर्ण पापों को हर ले जाता है। जैसे अग्नि संपूर्ण इर्धन को जला देती है, ऐसे ही ज्ञान रूपी अग्नि संपूर्ण कर्मों को भस्म कर देती है।

 भगवान ने साधना के माध्यम से मन की शुद्धि, अंतरंग सामर्थ्य, और भगवान के प्रति भक्ति की भूमि को स्पष्ट किया है। यह अध्याय जीवन को सार्थक बनाने और आत्मा को समझाने के मार्ग की महत्वपूर्ण बातें साझा करता है।

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