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शुक्रवार, 5 जनवरी 2024

गीता के पांचवे अध्याय का सरल तात्पर्य

                    गीता के पांचवे अध्याय का तात्पर्य


मनुष्य को अनुकूल प्रतिकूल परिस्थिति में सुखी दु:खी,राजी नाराज नहीं होना चाहिए;क्योंकि इन सुख दुःख आदि द्वंदो में फंसा हुआ मनुष्य संसार से ऊंचा नही उठ सकता।

स्त्री पुत्र,परिवार,धन–संपत्ति का केवल स्वरूप से त्याग करने वाला ही सन्यासी नही है अपितु जो अपने कर्तव्य का पालन करते हुए राग द्वेष नहीं करता,वही सच्चा सन्यासी है।जो अनुकूल परिस्थिति आने पर हर्षित नही होता और प्रतिकूल परिस्थितियों में उदास नही होता,ऐसा वह द्वंदो से रहित मनुष्य परमात्मा में ही स्थित रहता है।सांसारिक सुख दुःख,अनुकूलता प्रतिकूलता आदि द्वंद दुखो के ही कारण है। अतः बुद्धिमान व्यक्ति को उनमें नही फसना चाहिए।

गीता के पांचवें अध्याय में, भगवान कृष्ण ने अर्जुन को कर्मयोग और संन्यास के सिद्धांतों का बोध कराया। इसमें जीवन के उद्देश्य, कर्तव्य, और भक्ति के महत्व पर चर्चा है। अर्जुन को स्वधर्म में कर्म करने की महत्वपूर्णता को समझाते हुए, उन्होंने यह भी बताया कि भगवान के प्रति भक्ति और समर्पण से ही मुक्ति प्राप्त हो सकती है। यह अध्याय जीवन को सार्थक बनाने के लिए सही मार्ग और सही दृष्टिकोण की महत्वपूर्ण उपदेशों से भरा है।

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जय श्री राधे

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