देवराहा बाबा के वचनामृत
जितना सत्संग करें उससे दुगना मनन करें ।
प्रतिदिन यथा संभव कुछ ना कुछ दान अवश्य करें इससे त्याग की प्रवृत्ति जागेगी।
संसार सराय की तरह है, हमारा अपना स्थाई आवास तो प्रभु का धाम है।
खूब जोर जोर से भगवान का नाम उच्चारण करें ,उच्च स्वर में भजन करने से मन संकल्प विकल्प से मुक्त हो जाता है ।
सत्य ईश्वर का स्वरूप है और असत्य के बराबर कोई पाप नहीं।
मन को निविषय करना ध्यान है ,मन के विकारों को त्यागना स्नान है ।
भक्ति चरम अवस्था पर तब पहुंचती है जब भक्त के लिए भगवान व्याकुल होते हैं ।
संपत्ति पाकर भी जिन में उदारता पूर्वक दान की ,या सेवा की भावना नहीं आती है वह भाग्य हीन है।
इस भाव का बारंबार बनाकर रखना चाहिए कि संसार हमसे प्रति दिन छूट रहा है ।
कलयुग में पाप नहीं करना ही महान पुण्य है।
संसार में कितना कितना सुख भाग हमें प्राप्त होगा, पहले ही ईश्वर ने सुनिश्चित कर दिया है ।
जो व्यक्ति वाणी का, मन का,तृषणा का वेग सहन कर लेता है वही महामुनि है ।
वाणी को मधुर और विवेक सम्मत बनाने के लिए क्रोध पर विजय प्राप्त करें ।
देवता, गुरु, मंत्र ,तीर्थ ,औषधि और महात्मा श्रद्धा से फल देते हैं तर्क से नहीं।
मन का शांत रखना ही योग का लक्षण है।
पर दोष दर्शन भगवत प्राप्ति में बड़ा विघ्न है।
मानव जीवन का परम लक्ष्य केवल दुख सुख भोगना नहीं है ,उनके बंधन से मुक्त होना है।
ध्यान के बिना ईश्वर की अनुभूति नहीं होती ।
स्नान करने से तन की शुद्धि, दान करने से धन की और ध्यान करने से मन की शुद्धि होती है।
जगत के किसी भी पदार्थ से इतना स्नेह ना करो कि प्रभु भक्ति में बाधक बन जाए ।
मानसिक पापो का परित्याग करो मन में जमी जीर्ण वासना भी दुष्कर्म कराती है।
भूखे को रोटी देने में, दुखियों के आंसू पोछने में जितना पुण्य लाभ होता है उतना वर्षों के जप तप से नहीं होता है ।
संसार में रहने से नहीं ,संसार में मन लगाने से पतन होता है।
संसार में रहो पर अपने में संसार को मत रखो।
ईश्वर गुप्त है ,उसकी प्राप्ति के लिए जो साधना करो, वह गुप्त रखो।
भक्ति तीन प्रकार की होती है,पहली जो पत्थर के सामान डूब जाती है, और बाहर से गीली हो जाती है,कितु भीतर से सूखी रहती है ।दूसरी जो कपड़े के समान सब तरफ से गीली हो जाती है फिर भी पानी से अलग रहती है। तीसरी शक्कर के समान पानी मे घुलकर एक हो जाती है, वही भक्ति श्रेष्ठ है ।
सच्चे भक्तों की यही पहचान है कि वह परम विश्वास के साथ एक बार भगवान के सामने अपनी बात रख कर, चुपचाप भगवान का निर्भय भजन करता रहता है। (प्रेषक श्री ललन प्रसाद जी सिन्हा )
जितना सत्संग करें उससे दुगना मनन करें ।
प्रतिदिन यथा संभव कुछ ना कुछ दान अवश्य करें इससे त्याग की प्रवृत्ति जागेगी।
संसार सराय की तरह है, हमारा अपना स्थाई आवास तो प्रभु का धाम है।
खूब जोर जोर से भगवान का नाम उच्चारण करें ,उच्च स्वर में भजन करने से मन संकल्प विकल्प से मुक्त हो जाता है ।
सत्य ईश्वर का स्वरूप है और असत्य के बराबर कोई पाप नहीं।
मन को निविषय करना ध्यान है ,मन के विकारों को त्यागना स्नान है ।
भक्ति चरम अवस्था पर तब पहुंचती है जब भक्त के लिए भगवान व्याकुल होते हैं ।
संपत्ति पाकर भी जिन में उदारता पूर्वक दान की ,या सेवा की भावना नहीं आती है वह भाग्य हीन है।
इस भाव का बारंबार बनाकर रखना चाहिए कि संसार हमसे प्रति दिन छूट रहा है ।
कलयुग में पाप नहीं करना ही महान पुण्य है।
संसार में कितना कितना सुख भाग हमें प्राप्त होगा, पहले ही ईश्वर ने सुनिश्चित कर दिया है ।
जो व्यक्ति वाणी का, मन का,तृषणा का वेग सहन कर लेता है वही महामुनि है ।
वाणी को मधुर और विवेक सम्मत बनाने के लिए क्रोध पर विजय प्राप्त करें ।
देवता, गुरु, मंत्र ,तीर्थ ,औषधि और महात्मा श्रद्धा से फल देते हैं तर्क से नहीं।
मन का शांत रखना ही योग का लक्षण है।
पर दोष दर्शन भगवत प्राप्ति में बड़ा विघ्न है।
मानव जीवन का परम लक्ष्य केवल दुख सुख भोगना नहीं है ,उनके बंधन से मुक्त होना है।
ध्यान के बिना ईश्वर की अनुभूति नहीं होती ।
स्नान करने से तन की शुद्धि, दान करने से धन की और ध्यान करने से मन की शुद्धि होती है।
जगत के किसी भी पदार्थ से इतना स्नेह ना करो कि प्रभु भक्ति में बाधक बन जाए ।
मानसिक पापो का परित्याग करो मन में जमी जीर्ण वासना भी दुष्कर्म कराती है।
भूखे को रोटी देने में, दुखियों के आंसू पोछने में जितना पुण्य लाभ होता है उतना वर्षों के जप तप से नहीं होता है ।
संसार में रहने से नहीं ,संसार में मन लगाने से पतन होता है।
संसार में रहो पर अपने में संसार को मत रखो।
ईश्वर गुप्त है ,उसकी प्राप्ति के लिए जो साधना करो, वह गुप्त रखो।
भक्ति तीन प्रकार की होती है,पहली जो पत्थर के सामान डूब जाती है, और बाहर से गीली हो जाती है,कितु भीतर से सूखी रहती है ।दूसरी जो कपड़े के समान सब तरफ से गीली हो जाती है फिर भी पानी से अलग रहती है। तीसरी शक्कर के समान पानी मे घुलकर एक हो जाती है, वही भक्ति श्रेष्ठ है ।
सच्चे भक्तों की यही पहचान है कि वह परम विश्वास के साथ एक बार भगवान के सामने अपनी बात रख कर, चुपचाप भगवान का निर्भय भजन करता रहता है। (प्रेषक श्री ललन प्रसाद जी सिन्हा )