/ "ईश्वर के साथ हमारा संबंध: सरल ज्ञान और अनुभव: मई 2019

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सोमवार, 13 मई 2019

देवराहा बाबा के वचनामृत

                    देवराहा बाबा के वचनामृत

 जितना सत्संग करें उससे दुगना मनन करें ।
प्रतिदिन यथा  संभव कुछ ना कुछ दान अवश्य करें इससे त्याग की प्रवृत्ति जागेगी।
 संसार सराय की तरह है, हमारा अपना स्थाई आवास तो प्रभु का धाम है।
 खूब जोर जोर से भगवान का नाम उच्चारण करें ,उच्च स्वर में भजन करने से मन संकल्प विकल्प से मुक्त हो जाता है ।
सत्य ईश्वर का स्वरूप है और असत्य के बराबर कोई पाप नहीं।
 मन को निविषय करना ध्यान है ,मन के विकारों को त्यागना  स्नान है ।
भक्ति  चरम अवस्था पर तब पहुंचती है जब भक्त के लिए भगवान व्याकुल होते हैं ।
संपत्ति पाकर भी जिन में उदारता पूर्वक दान की ,या सेवा की भावना नहीं आती है वह भाग्य हीन है।
 इस भाव का बारंबार बनाकर रखना चाहिए कि संसार हमसे प्रति दिन छूट रहा है ।
कलयुग में पाप नहीं करना ही महान पुण्य है।
 संसार में कितना कितना सुख भाग  हमें प्राप्त होगा, पहले ही ईश्वर ने सुनिश्चित कर दिया है ।
जो व्यक्ति वाणी का, मन का,तृषणा का वेग सहन कर लेता है वही महामुनि है ।
वाणी को मधुर और विवेक सम्मत बनाने के लिए क्रोध पर विजय प्राप्त करें ।
देवता, गुरु, मंत्र ,तीर्थ ,औषधि और महात्मा श्रद्धा से फल देते हैं तर्क से नहीं।
 मन का शांत रखना ही योग का लक्षण है।
 पर दोष दर्शन भगवत प्राप्ति में बड़ा विघ्न है।
 मानव जीवन का परम लक्ष्य केवल दुख सुख भोगना नहीं है ,उनके बंधन से मुक्त होना है।
 ध्यान के बिना ईश्वर की अनुभूति नहीं होती ।
स्नान करने से तन की शुद्धि, दान करने से धन की और ध्यान करने से मन की शुद्धि होती है।
 जगत के किसी भी पदार्थ से इतना स्नेह ना करो कि  प्रभु भक्ति में बाधक बन जाए ।
मानसिक पापो का परित्याग करो मन में जमी जीर्ण वासना भी दुष्कर्म कराती है।
 भूखे को रोटी देने में, दुखियों के  आंसू पोछने में जितना पुण्य लाभ होता है उतना वर्षों के जप तप से नहीं होता है ।
संसार में रहने से नहीं ,संसार में मन लगाने से पतन होता है।
संसार में रहो पर अपने में संसार को मत रखो।
 ईश्वर गुप्त है ,उसकी प्राप्ति के लिए जो साधना करो, वह गुप्त रखो।
भक्ति तीन प्रकार की होती है,पहली जो पत्थर के सामान डूब जाती है, और बाहर से गीली हो जाती है,कितु भीतर से सूखी रहती है ।दूसरी जो कपड़े के समान सब तरफ  से गीली हो जाती है फिर भी पानी से अलग रहती है। तीसरी शक्कर के समान पानी मे घुलकर  एक हो जाती है, वही भक्ति श्रेष्ठ है ।
 सच्चे भक्तों  की यही पहचान है कि वह परम विश्वास के साथ एक बार भगवान के सामने अपनी बात रख कर, चुपचाप भगवान का निर्भय भजन करता रहता है। (प्रेषक श्री ललन प्रसाद जी सिन्हा )

ईश्वर का कहना है कि मै तुम्हारे अंग- संग हूं, तुम महसूस तो करो

                         मैं तुम्हारे अंग संग हूं


 एक नई भोर के आगमन के साथ आज जब तुम उठे, तो मैंने तुम्हें देखा ,सोचा कि तुम अपने दिन की शुरुआत करने से पहले मेरा आशीर्वाद लेना जरूरी समझोगे ।भले ही तुम चुप रहोगे पर मुझे प्रणाम जरूर करोगे, पर तुम तो पहनने के लिए सही कपड़े ढूंढने में व्यस्त थे और इधर उधर भाग कर काम पर जाने के लिए तैयार हो रहे थे।
 तुम नाश्ता करने बैठे ,मुझे लगा ,अब तुम मुझसे भी दो निवाले खाने को कहोगे, पर तुम इतनी जल्दी में थे कि यह भूल ही गए कि तुम्हारे द्वारा प्यार से खिलाया गया एक निवाला ही मेरी भूख मिटा सकता है। फिर भी तुम्हें जी भर कर खाता देख ,मैं अपनी भूख भी भूल गया ।खाने के पश्चात तुम्हारे पास 15 मिनट का समय था, तुम खाली बैठे मन ही मन कुछ सोचते रहे, मैंने सोचा कि अब तुम मुझसे बात करने के लिए हिचकिचा  रहे हो कि कहीं मैं तुमसे नाराज तो नहीं, नादान समझ, मैंने तुम्हारी तरह अपना पहला कदम उठाया ब ही था कि तुम अपनी फोन की तरफ भागे ,अपने मित्र से ताजी खबर लेने के लिए। मेरी आशा एक बार फिर टूट गई। परंतु तुम्हें हंसता हुआ देख, मैं मुस्कुरा दिया। तुम घर से निकलने लगे, मेरा विश्वास था कि अब तो तुम जाने से पहले मुझे प्रणाम करना नहीं भूलोगे, पर मेरा विश्वास तब टूटा जब मैंने देखा कि तुम्हें शीशे में अपने चेहरा देखना तो याद था पर मेरी आंखों में अपने लिए  स्नेह नहीं । तुमने जरूरत तो ना समझी, पर फिर भी मैंने तुम्हें अपना आशीर्वाद दिया।
 वह आशीर्वाद जो कभी हर परीक्षा में तुम्हारे लिए अमूल्य था, पर दुनिया की भाग दौड़ ने तुम्हें इसका मूल्य भुलवा दिया है। तुम घर से निकले यह सोच कर कि तुम अकेले हो, पर तुम्हें अपने कदमों के साथ मेरे कदमों की आहट सुनाई ही नहीं दी। पूरा समय तुम अपने कार्यों में तथा मित्रों के बीच व्यस्त थे और मैं पहले की तरह ही तुम्हें एक टक देख रहा था। दोपहर हुई मैंने देखा कि भोजन करने से पहले तुम इधर उधर नजर घुमा रहे थे ,संकोच में भरी तुम्हारी आँखें क्या मुझे याद करने से रोक रही थी और संकोच किस से, मित्र जन से, दुनिया से या फिर अपने आप से। समय का पहिया यूं ही चलता रहा और मेरे इंतजार का क्षण यूं ही बीतते रहे। इसी प्रकार शाम हो गई और तुम लौट आए। एक बार फिर मैंने अपने आशा के दीपक जलाए, यह सोच कर कि अपने कार्य को समाप्त करने के बाद तुम मुझसे बात करना चाहोगे। पर यह क्या? तुम तो टीवी देखने बैठ गये। तुम उसमें कुछ देखना तो नहीं चाहते थे, पर ना जाने किस विवशता  से उसके सामने बैठकर चैनल बदलते रहे। मैं समझ चुका  था कि कोई बात तुमहें अंदर ही अंदर खा रही है और तुम्हारे  मन की मंशा को मैने तुम्हारी आंखों में पढ़ लिया था । मुझे लगा कि अब तुम मुझ से राय लेने के लिए मेरे पास आओगे। तुम्हें यह तो याद होगा कि हर मुश्किल घड़ी में मैंने तुम्हारा साथ दिया है, पर अब शायद तुम्हें मेरी सहायता की जरूरत नहीं इसलिए तुम अपने मन को मन में दबाए हुए सोने के लिए बिस्तर पर लेट गए। तुम कुछ सोचने लगे। तुम्हारी आंखों में ना तो नींद थी, ना ही चैन। तुम्हारी यह बेचैनी जब मुझसे देखी ना गई तो मैं तुम्हारी तरफ बढा़, अपना हाथ तुम्हारे सर पर रख कर मन ही मन सोचा कि अब तुम आँखो खोलोगे और यह देखोगे कि मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूं, पर तुम तो सो चुके थे और इसी के साथ मेरा इंतजार अधूरा रह गया । लेकिन आज अगर मेरी आशा का दीपक बुझ गया ,तो क्या हुआ कल यह दीप मैं फिर जला लूंगा। तुम मेरी संतान हो , मेरा ही अंश हो, मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूं। तुम्हें पाने के लिए मेरे मन में जो चाहत  और धीरज है, उसकी तुम कल्पना भी नहीं कर सकते। यह जरूरी नहीं कि तुम किसी विवशता पूर्वक मेरा ध्यान करो।
 मैं तुम्हारे मुख से अपनी  प्रशंसा नहीं, बल्कि प्यार के दो बोल सुनना चाहता हूं। मैं तुम्हारी आंखों में दुनिया से संकोच नहीं बल्कि अपने लिए स्नेह देखना चाहता हूं ,और हां मैं तुम्हारी बातों में डर और इच्छा ही नहीं, बल्कि  आदर और स्नेह देखना चाहता हूं। तुम्हारा भय, तुम्हारी इच्छाएं ,तुम्हारा दुख, सब मेरे होंगे और मैं तुम्हारा।
 कल फिर तुम नींद से उठोगे, एक नई भोर के साथ और मैं फिर तुम्हारा स्नेह पूर्वक इंतजार करूंगा। एक बार फिर अपनी आशा का दीपक जलाएं ,यह सोच कर कि कभी तो तुम्हें मेरी उपस्थिति का एहसास होगा ।
तुम्हारा साथी- भगवान। (प्रेषक- श्री एमके राय जी)

अपने जन्म को सफल कैसे करें

                             मानव कल्याण

 मानव जीवन की सफलता भगवत प्राप्ति में है, ना कि विषय भोगों की प्राप्ति में , जो मनुष्य जीवन के असली लक्षय, भगवान को भूलकर विषय भोगो की प्राप्ति और उनके भोग में ही रचा बसा रहता है, वह अपने दुर्लभ अमूल्य जीवन को केवल व्यर्थ ही नहीं खो रहा है, बल्कि अमृत के बदले में भयानक विष ले रहा है।
बहुत जन्मों के बाद बड़े पुण्य बल तथा भगवत कृपा से जीव को मानव शरीर प्राप्त होता है, इंद्रियों के भोग तो अन्यान्य योनियों में भी मिलते हैं, पर भगवत प्राप्ति का साधन तो केवल इसी शरीर में है, इस को पा कर भी जो मनुष्य विषय भोगो में ही फंसा रहता है ,वह तो पशु से भी अधिक मूर्ख है।
 तुम मनुष्य हो , अपने मनुष्यत्व को सदा जगाए रखो। एक क्षण के लिए भी भगवान को मत भूलो, सदा याद रखो कि यहां इस शरीर में भगवान ने तुमको पशु की भांति केवल इंद्रिय भोगो को भोगने के लिए नहीं भेजा है, तुम्हें उस बहुत बड़ी सफलता को प्राप्त करना है जिससे अब तक तुम वंचित रहते आए हैं, वह सफलता है भगवत प्राप्ति। इस सफलता को लक्ष्य बनाकर जो मनुष्य निरंतर भगवान में मन रखकर जगत के कार्य करता है, उनमें कभी मन को फंसाता नहीं है, वही बुद्धिमान है। जीवननिर्वाह में जो काम आवश्यक हो ,उसे करो, पर करो भगवान को याद करते हुए ,जो भी कार्य करो वह भगवान को अर्पित करते हुए चलो। तो कोई भी आपसे जाने-अनजाने गलत कार्य नहीं होगा।
 जय सियाराम

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