/ "ईश्वर के साथ हमारा संबंध: सरल ज्ञान और अनुभव: कर्म कितने प्रकार के होते हैं?

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बुधवार, 29 अगस्त 2018

कर्म कितने प्रकार के होते हैं?

                       कर्म की खोज(कर्म क्या है )


मनुष्य का मन एक पल के लिए भी शांत नहीं रहता। मन की दौड़ बहुत लंबी होती है ।मन की दौड़ का क्षेत्र सीमित है ।वह हर क्षण कार्यरत रहता है। मन पर नियंत्रण करना बहुत कठिन कार्य है। यही कार्य कर्म कहलाते हैं।
 ऋषि मुनियों ने कर्म के तीन भेद बताए हैं-
१-क्रियमाण कर्म- मैं कर्म करता हूं! इस प्रकार की बुद्धि रखकर मनुष्य जो कर्म करता है ,उसे क्रियमान कर्म कहते हैं। जीवन काल में जो जो कर्म होते हैं। वह सब क्रियमाण कर्म कहलाते हैं।
 कर्म का स्वरूप ~मनुष्य कर्म करने में पूर्ण रुप से स्वतंत्र है। मन में जो अशुभ संस्कार होते हैं,वे  अशुभ कर्म करने के लिए मन ललचाते  हैं ।बुद्धि उसका मार्गदर्शन करती है, जिसका निश्चिय दृढ़ होता है। वह प्रलोभन से आकर्षित नहीं होता। शुभ कर्मों से स्वर्ग मिलता है और अशुभ कर्मों से नरक में जाना पड़ता है। क्या करना और क्या नहीं करना है, इसका निर्णय लेने में मनुष्य स्वतंत्र है।
- संचित कर्म- क्रियमाण कर्म तो हर समय होते रहते हैं। उनमें कुछ तो भोग लिए जाते हैं, और शेष इकट्ठा होते रहते हैं। इस प्रकार की चित्तरूपी गोदाम में एकत्रित हुए कर्मों को संचित कर्म कहते हैं।
संचित कर्मों का स्वरूप कर्म का भंडार अक्षय है कभी खत्म नहीं होता भोगने से कभी वह भंडार समाप्त नहीं होता कर्मों का नियम यह है कि "नामुक्तं क्षीयते कर्म कोटिकल्प -शतैरपि। " अथार्त - कोई भी कर्म करोडों कल्प  बीतने पर भी बिना भोगे नष्ट नहीं होते। ऐसी स्थिति में जीव की मुक्ति का का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। कर्म का भंडार अक्षय है। उसको भोगते भोगते जीव अनादि काल से 8400000 योनियों में शरीर धारण करता चला आ रहा है ,फिर भी कर्म का भंडार अक्षय ही बना रहता है।
साधन -जीव को मुक्ति मिल सकती है। श्री कृष्ण , अर्जुन से कहते हैं - हे अर्जुन !जैसे प्रज्वलित अग्नि इर्धन को भस्म कर देती है ,वैसे ही ज्ञान रूपी अग्नि संपूर्ण कर्मों को भस्म कर देती है ।अगले श्लोक में श्री कृष्ण जी कहते हैं कि- इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला कुछ भी नहीं है ,उस ज्ञान को बुद्धि रूप योग के द्वारा शुद्ध अंतःकरण हुआ पुरुष ,आत्मा में अनुभव करता है ।श्रुति कहती है-  ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं होती। कर्मों का भंडार केवल जितेंद्रिय पुरुष के तत्त्वत: आत्म ज्ञान से भस्म  होता है ।
प्रारब्ध कर्म- प्राणी केेेे मन मैं अनेक जन्मों के संचित कर्मोंं के भंडार पड़े रहते हैं जो  भोगने   पर भी समाप्त नहीं होते हैं। प्रारब्ध कर्म का अर्थ है- जो कर्म पिछले जन्मों में किए गए और जिनका फल इस जन्मम में भोगना पड़ता है अथार्त इस जन्म में जो सुख दुख भोगनेेे होते हैं,। उसे प्रारब्ध कहते हैं।शास्त्र कहता है- मनुष्य केे द्वारा जो भी अच्छे बुरेे कर्म किए जाते है वह भोगे बिना समाप्त नहीं होते ।
कर्म सिद्धांत -प्राणियोंं का समस्त जीवन कर्म सेेे बंधा हुआ है। तथा मरणोतर जीवन कर्म से बंधा हुआ है ।  कर्म ही प्राणियों के  जन्म -ज़रा, मरण तथा रोगादि विकारो का मूल है।
अथार्त  सुख और दुख देने वाला कोई व्यक्ति नहीं है। दुष्ट बुद्धि वाले लोग कहते हैं कि मैंने उसको कितना दुख दिया। कुछ ऐसा कहते हैं कि मैंने यह भी किया  ,वह भी किया। वह झूठा अभिमान है, वास्तव में सभी लोग अपने अपने कर्मों के सूत्र में बंधे हुए हैं।

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जय श्री राधे

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