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सोमवार, 20 अगस्त 2018

मनुष्य जीवन के कुछ दोष

                         मनुष्य जीवन के कुछ दोष
( नित्यलीलालीन  श्रद्धेय भाई जी श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार
जी)


कुसंगति, कुकर्म ,बुरे वातावरण, खानपान के दोष ,आदि अनेक कारणों से मनुष्य में कई प्रकार के दोष आ जाते हैं ।जो देखने में छोटे मालूम होते हैं, बल्कि आदत पड़ जाने से मनुष्य उन्हें दोषी नहीं मानता, पर वह ऐसे होते हैं, जो जीवन को अशांत, दुखी बनाने के साथ ही उन्नति के मार्ग को भी रोक देते हैं ,और उसे अधः पतन की ओर ले जाते हैं। ऐसे दोषोें में से कुछ पर यहां विचार किया जा रहा है-
१-  मुझे तो बस अपने को देखना  है - इस विचार वाले मनुष्य का स्वार्थ छोटी सी सीमा में आकर गंदा हो जाता है, किस काम में मुझे लाभ है ,मुझे सुविधा है, मेरी संपत्ति कैसे ब़ढे, मेरा नाम सबसे ऊंचा कैसे हो, सब लोग मुझे ही नेता मान कर मेरा अनुसरण करें ,इसी प्रकार के विचारों और कार्यों में वह लगा रहता है ।मैंरे किस कार्य से किस की क्या हानि होगी ,किस को क्या असुविधा होगी ,किस का कितना मान भंग होगा ,किसके हृदय पर कितनी ठेस पहुंचेगी  विचार करने की इच्छा हृदय में नहीं होती ।वह छोटी सी सीमा में अपने को बांधकर केवल अपनी और ही देखा करता है। जिसके कारण उसके द्वारा अपमानित  क्षतिग्रस्त, असुविधा प्राप्त लोगों की संख्या बढ़ने लगती है। और उसकी उन्नति में बाधा पहुंचनी शुकी हो जाती है।

२. भगवान और परलोक किसने देखे हैं?- भगवान और परलोक पर विश्वास न करने वाला मनुष्य, यह कहा करता है। ऐसा मनुष्य स्वेच्छाचारी होता है, और किसी भी पाप कर्म में प्रवृत्त हो जाता है़। अमुक बुरे कर्म का फल मुझे परलोक में ,दूसरे जन्म में भोगना पड़ेगा या अंतर्यामी सर्वव्यापी भगवान सब कर्मों को देखते हैं ,उनके सामने में क्या उत्तर दूंगा। इस प्रकार के विश्वास वाला मनुष्य सबके सामने तो क्या छिपकर भी कभी पाप नहीं कर सकता और जिसका ऐसा विश्वास नहीं है ,वह केवल कानून से बचने का ही प्रयत्न्न करता है  उसे ना तो बुरे कर्म से अथार्त  पाप से घृणा है, ना उसे किसी पारलौकिक दंड का भय है। ऐसे मनुष्य को इस लोक में दुख प्राप्त होता है। और भजन ध्यान की उसमे कोई संभावना ही नहीं रहती ।अतः मनुष्य जीवन के परम लक्ष्य भगवत्प्राप्ति से भी वंचित ही रहता है।

३. मेरा कोई क्या कर लेगा?- संसार में सभी मनुष्य सम्मान चाहते हैं। जो मनुष्य ऐठ में रहता है ।दूसरों को सम्मान नही देता, कहता है मुझे किसी से क्या लेना है। मैं किसी की क्यों परवाह करूं ।मेरा कोई क्या कर लेगा ।वह इस अभिमान के कारण ही ,अकारण लोगों को अपना दुश्मन बना लेता है। दूसरों की तो बात ही क्या, उसके घर के और बंधु-बांधव भी उसके पराए हो जाते हैं। वह अभिमान वश किसी की भू परवाह नहीं करता ।किसी से सुख-दुख में हिस्सा नहीं बांटता और उनमें अपने को पुजवाना चाहता है। फलस्वरुप सभी उससे घृणा करने लगते हैं ,और उसके विद्रोही बन जाते हैं ।वह इसे अपना आत्मसम्मान या गौरव मानता है, और यह उसकी मूर्खता है। इस प्रकार अभिमानवश वह सबसे अकेला होकर असहाय बन जाता है ,और उसकी उन्नति रुक जाती हैं ।उसके स्वभाव के कारण वह अकेला पड़ जाता है और धीरे-धीरे मेरा कोई नहीं है, सभी मुझसे घृणा करते हैं, इत्यादि अपने में हीनता की भावना करते-करते मनुष्य को ऐसा दिखने लगता है कि उससे सभी घृणा कर रहे हैं। परिणाम स्वरुप उसके अंदर उदासी ,निराशा, क्रोध, मस्तिष्क विकृति आदि दोष उन लोगों के नित्य संगी बन जाते हैं।
४. संसार में कोई अच्छा है ही नहीं- दोष देखते देखते मनुष्य की इस प्रकार आंखें बन जाती है कि बिना दोष के होते हुए भी उसको लोगों में दोष ही दिखाई देता है। वैसे ही जैसे हरा चश्मा लगा लेने पर सब चीजें हरी दिखाई देती है ।ऐसे फिर कोई अच्छा दिखता ही नहीं। महापुरुष और भगवान में भी उसे दोष ही दिखते हैं। उसका निश्चित हो जाता है कि जगत में कोई भला है ही नहीं । मैं शरीफ बना नहीं रह सकता ।दिन रात दोष- दर्शन और दोष -चिंतन करते करते वह बाहर और भीतर से दोषों  का भंडार बन जाता है।
५. लोग मुझे अच्छा समझे- इस  भावना वाले मनुष्य में घमंड की प्रधानता होती है ।वह अच्छा बनना नहीं चाहता ।अपने को अच्छा दिखाना चाहता है ।इस तरीके से जगत को ठगने के कारण वह खुद ही ठगा जाता है ।उसके जीवन से सच्चाई चली जाती है। लोग जिस प्रकार की वेष एंव भाषा से प्रसन्न होते हैं वह इसी प्रकार का वेश धारण करके वैसे ही भाषा बोलने लगता है। उसके मन में ना खादी से प्रेम है ,ना गेरुआ से और ना नाम जप से; पर अच्छा कहलाने के लिए वह खादी पहन  लेता है  गेरुआ धारण कर लेता है, माला भी जपने लगता है। ऐसा करता है दूसरों के  सामने ही ,जहां उनसे बडाई ही मिलती है  और यदि उसके विरोध करने पर लोग भला समझेंगे तो, वह उन्हीं का विरोध भी करने लगता है ।इसका प्रत्येक  कार्य दम्भ और छल कपट से भरा होता है।

५. मैं ना करूं, तो सब चौपट हो जाएगा- यह भी मनुष्य के अभिमान का ही एक रूप है ,वह समझता है कि बस अमुक कार्य तो मेरे द्वारा  ही होता है ,मैं छोड़ दूंगा तो नष्ट हो जाएगा। मेरे मरने के बाद तो चलेगा ही नहीं। ऐसा विचार  दूसरों के प्रति हीनता  प्रकट करते हैं। उनके मन में द्रोह  उत्पन्न करने वाले होते हैं। संसार में एक से बढ़कर एक प्रतिभाशाली पुरुष पैदा हुए हैं, होते हैं ,तुम अपने को बड़ा मानते हो, पर कौन जानता है कि तुम से कहीं अधिक प्रभाव तथा गुण संपन्न संसार में कितने हैं। जिनके सामने तुम कुछ भी नहीं हो। किसी पूर्व जन्म के पुण्य से अथवा भगवत कृपा से किसी कार्य में को सफलता मिल जाती है। तो मनुष्य समझ बैठता है कि सफलता मेरे ही पुरुषार्थ से मिली है ।मेरे ही द्वारा इसकी रक्षा होगी ,मैं जिंदा न रहूंगा तो पता नहीं क्या अनर्थ हो जाएगा। एसा  समझ कर अभिमान से नाच उठता है ।और जहां मनुष्य ने अभिमान के नशे में नाचना आरंभ किया कि चक्कर खाकर गिर गया ।

६. अपने को तो आराम से रहना -है यह इंद्रियां, रामविलासी पुरुषों का उद्गार है ।पैसा पास में चाहे ना हो  ,चाहे आय कम हो, चाहे कर्ज का बोझ सिर पर सवार हो  पर रहना है आराम से ।आज कल चलन है- उच्चस्तर का जीवन (हाई स्टैंडर्ड ऑफ लिविंग) इसका अर्थ है -स्वाद शौकीनी,  विलासिता ,फिजूलखर्ची और झूठी शान की गुलामी। सादा धोती कुर्ता पहना है तो निम्न स्तर है, कोट पतलून उच्चस्तर है। जूते उतार कर,  हाथ पैर धोकर, फर्श पर बैठकर ,हाथ से खाइए तो निम्नस्तर है ।टेबल पर कपड़ा बिछाकर ,बिना हाथ धोए, जूते पहन कुर्सी पर बैठ कर, सब की जूठन खाना उत्सव है। अपनी हैसियत के अनुसार साधारण साग सब्जी के साथ दाल रोटी खाना निम्नस्तर है, और किसी प्रकार से प्राप्त करके अंडे खाना, शराब पीना ,नॉनवेज खाना ,उच्च है ।घर में कथा कीर्तन करना निम्न स्तर है ।और सिनेमा देखना, होटलों में जाना उच्च हैं। सीधे-साधे व्यापार ,व्यवहार में थोड़ी जीविका उपार्जन करना निम्न है ,और अपनी चमक-दमक तथा छल भरे व्यवहार से दूसरों को ठगकर अधिक पैसा कमाना उच्च है। थोड़े खर्च से घर का ब्याह शादी का काम चलाना है निम्न। और बहुत अधिक खर्च करके आडंबर करना चाहे कर्जो मे घिर जाओ,अपने जीवन भर की जमा -पूंजी खत्म करना हा उच्च स्तर । हमारे यहां उच्च स्तर के जीवन का अर्थ होता है- सादगी ,सदाचार ,त्याग ,पवित्र आचरण, आदर्श चरित्र, साधुवाद और भगवत भक्ति ।इसके स्थान पर आज झूठ, कपट ,छल, विलासिता ,दुराचार ,अनाचार और भोगमय जीवन को उच्चस्तर का जीवन माना जाता है। तो मनुष्य की सच्ची उन्नति कैसे हो सकती है।
इसी प्रकार और भी बहुत से दोष। हैं जो आदत या स्वभाव बने हुए हैं इन सब दोषो से सावधान होकर ,इनका तुरंत त्याग कर देना चाहिए। लौकिक उन्नति चाहने वाले और मोक्ष की इच्छा वाले दोनों के लिए दोष घातक हैं।

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जय श्री राधे

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