/ "ईश्वर के साथ हमारा संबंध: सरल ज्ञान और अनुभव: श्रीमद् भागवत गीता हिंदी में अध्याय 4

यह ब्लॉग खोजें

बुधवार, 1 अगस्त 2018

श्रीमद् भागवत गीता हिंदी में अध्याय 4



अध्याय : 4 

श्लोक : 1

जय श्री राधे अभी तक श्रीमद् भागवत गीता हिंदी में तीसरे अध्याय तक जो भावार्थ था वह थोड़ा समझने में कठिन लग रहा था, इसलिए अब मैं स्वामी रामसुखदास जी के श्रीमुख से कहीं गई श्रीमद्भागवत गीता साधक संजीवनी को आप सबके समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं आशा करती हूं इसे समझने में आपको सुविधा रहेगी जय श्री राधे



श्रीभगवानुवाच
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
        विवस्वान्मनवे प्राह         मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्॥ १॥
मैंने इस अविनाशी योग (कर्मयोग)-को सूर्यसे कहा था। (फिर) सूर्यने (अपने पुत्र) (वैवस्वत) मनुसे कहा (और) मनुने (अपने पुत्र) राजा इक्ष्वाकुसे कहा।
'इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्—भगवान्ने जिन सूर्य, मनु और इक्ष्वाकु राजाओंका उल्लेख किया है, वे सभी गृहस्थ थे और उन्होंने गृहस्थाश्रममें रहते हुए ही कर्मयोगके द्वारा परमसिद्धि प्राप्त की थी; अत: यहाँके 'इमम्अव्ययम्योगम् पदोंका तात्पर्य पूर्वप्रकरणके अनुसार तथा राजपरम्पराके अनुसार 'कर्मयोग’ लेना ही उचित प्रतीत होता है।
 यद्यपि पुराणोंमें और उपनिषदोंमें भी कर्मयोगका वर्णन आता है, तथापि वह गीतामें वर्णित कर्मयोगके समान सांगोपांग और विस्तृत नहीं है। गीतामें भगवान्ने विविध युक्तियोंसे कर्मयोगका सरल और सांगोपांग विवेचन किया है। कर्मयोगका इतना विशद वर्णन पुराणों और उपनिषदोंमें देखनेमें नहीं आता।
 भगवान् नित्य हैं और उनका अंश जीवात्मा भी नित्य है तथा भगवान्के साथ जीवका सम्बन्ध भी नित्य है। अत: भगवत्प्राप्तिके सब मार्ग (योगमार्ग, ज्ञानमार्ग, भक्तिमार्ग आदि) भी नित्य हैं। यहाँ 'अव्ययम्’ पदसे भगवान् कर्मयोगकी नित्यताका प्रतिपादन करते हैं।
 परमात्माके साथ जीवका स्वत:सिद्ध सम्बन्ध (नित्य- योग) है। जैसे पतिव्रता स्त्रीको पतिकी होनेके लिये करना कुछ नहीं पड़ता; क्योंकि वह पतिकी तो है ही, ऐसे ही साधकको परमात्माका होनेके लिये करना कुछ नहीं है, वह तो परमात्माका है ही; परन्तु अनित्य क्रिया, पदार्थ, घटना आदिके साथ जब वह अपना सम्बन्ध मान लेता है, तब उसे 'नित्ययोग’ अर्थात् परमात्माके साथ अपने नित्यसम्बन्धका अनुभव नहीं होता। अत: उस अनित्यके साथ माने हुए सम्बन्धको मिटानेके लिये कर्मयोगी शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि मिली हुई समस्त वस्तुओंको संसारकी ही मानकर संसारकी सेवामें लगा देता है। वह मानता है कि जैसे धूलका छोटा-से-छोटा कण भी विशाल पृथ्वीका ही एक अंश है, ऐसे ही यह शरीर भी विशाल ब्रह्माण्डका ही एक अंश है। ऐसा माननेसे 'कर्म’ तो संसारके लिये होंगे, पर 'योग’ (नित्ययोग) अपने लिये होगा अर्थात् नित्य-योगका अनुभव हो जायगा।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

अगर आपको मेरी post अच्छी लगें तो comment जरूर दीजिए
जय श्री राधे

Featured Post

भक्ति का क्या प्रभाव होता है?

                        भक्ति का क्या प्रभाव होता है? एक गृहस्थ कुमार भक्त थे। एक संत ने उन्हें नाम दिया वे भजन करने लगे, सीधे सरल चित् में ...