देवि स्तुति(विनय पत्रिका)
जय जय जग जननी देवी सुर- नर- मुनि - असुर सेवि,
भुक्ति- मुक्ति- दायिनी, भय-हारणि कालिका।
मंगल - मुद-सिद्धि- सदनि पर्वशर्वरीश-वदनि,
ताप-तिमिर- तरुण - तरणि- किरणमालिका॥१॥
वर्म, चर्म कर कृपाण, शूल- शैल- धनुषबाण,
धरणि दलनि दानव दल, रण-करालिका।
पूतना- पिशाच - प्रेत - डाकिनी- शाकिनी - समेत,
भूत-ग्रह- बेताल खग- मृगाली- जालिका॥२॥
जय महेश -भामिनी, अनेक रुप नामिनी ,
समस्त लोकस्वामनी, हिमशैल बालिका ।
रघुपति -पद परम प्रेम, तुलसी यह अचल नेम,
देहु ह्वै प्रसन्न पाहि प्रणत- पालिका॥३॥
भावार्थ- हे जगत की माता! हे देवी!! तुम्हारी जय हो, जय हो देवता, मनुष्य, मुनि और असुर सभी तुम्हारी सेवा करते हैं। तुम भोग और मोक्ष दोनों को ही देने वाली हो ।भक्तों का भय दूर करने के लिए तुम कालिका हो ,कल्याण सुख और सिद्धियों की शान हो, तुम्हारा सुंदर मुख पूर्णिमा के चंद्र के सदृश है। तुम आध्यात्मिक, आधिभौतिक, और आधिदैविक ताप रुपी अंधकार का नाश करने के लिए मध्याह्न के तरुण सूर्य की किरण माला हो॥१॥ तुम्हारे शरीर पर कवच है। तुम हाथों में ढाल ,तलवार ,त्रिशूल, सांगी और धनुष बाण लिए हो। दानवों के दल का संहार करने वाली हो ,रण में विकराल रूप धारण कर लेती हो। तुम पूतना, पिशाच, प्रेत और डाकिनी शाकनियों के सहित भूत ग्रह और बेताल रूपी पक्षी और मृर्गों के समूह को पकड़ने के लिए जागरूक हो॥२॥ हे शिवे! तुम्हारी जय हो।। तुम्हारे अनेक रूप और नाम है। तुम समस्त संसार के स्वामिनी और हिमाचल की कन्या हो। हे शरणागत की रक्षा करने वाली! में तुलसीदास श्री रघुनाथ जी के चरणों में परम प्रेम और अचल नेम चाहता हूं, तो प्रसन्न होकर मुझे दो और मेरी रक्षा करो।
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जय श्री राधे