गंगा स्तुति(विनय पत्रिका)
जय जय भगीरथ नंदिनी, मुनि चय चकोर - चंदनी,
नर - नाग- विबुध- बंदिनी जय जह्नु बालिका।
विष्णुपद सरोजजासी, ईस-सीस पर बिभासि,
त्रिपथगासि, पुण्यराशि, पापछालिका॥१॥
विमल विपुल बहसि बारी, शीतल त्रयताप - हारी,
भंवर बर बिभंगतर तरंग मलिका।
पुरजन पूजाेपहार, शोभित शशि धवलदार,
भंजन भव भार, भक्ति कल्पथालिका ॥२॥
निज तटबासी बिहंग, जल-थर-चर पशु पतंग
की, जटिल तापस सब सरिस पालिका।
तुलसी तब तीर तीर सुमिरत रघुवंश बीर,
बिचरत मति देहि मोह-महिष-कालिका॥३॥
भावार्थ- हे भगीरथ नंदिनी! तुम्हारी जय हो ,जय हो। तुम मुनियों के समूह रूपी चकोरों के लिए चंद्रिका रूप हो। मनुष्य नाग, देवता तुम्हारी वंदना करते हैं। यह जह्नु की पुत्री! तुम्हारी जय हो। तुम भगवान विष्णु के चरण कमल से उत्पन्न हुई हो शिवजी के मस्तक पर शोभा पाती हो। स्वर्ग, भूमि और पाताल इन तीन मार्गो से तीन धाराओं में होकर बहती हो। पुण्य की राशि और पापों को धोने वाली हो। तुम आगाध निर्मल जल को धारण किए हो। वह जल शीतल और तीनों तापों को हरने वाला है तुम सुंदर भँवर और अति चंचल तरंगों की माला धारण किए हो ।नगर- निवासियों ने पूजा के समय जो सामग्री भेंट चढ़ाई हैं, उनसे तुम्हारी चंद्रमा के समान धवल धारा शोभित हो रही है। यह धारा संसार के जन्म - मरण रूप भार को नाश करने वाली तथा भक्ति रूपी कल्पवृक्ष की रक्षा के लिए थाल्हारूप है। तुम अपनी तीर पर रहने वाले पक्षी, जलचर, थलचर, पशु, पतंग की औल जटाधारी तपस्वी आदि सबका समान भाव से पालन करती हो। हे मोह रूपी महिषासुर को मारने के लिए काली का रूप गंगाजी ! मुझे ऐसी बुद्धि दो जिससे वह श्री रघुनाथ जी का स्मरण करता हुआ तुम्हारे तीर पर विचरा करें।
जय जय भगीरथ नंदिनी, मुनि चय चकोर - चंदनी,
नर - नाग- विबुध- बंदिनी जय जह्नु बालिका।
विष्णुपद सरोजजासी, ईस-सीस पर बिभासि,
त्रिपथगासि, पुण्यराशि, पापछालिका॥१॥
विमल विपुल बहसि बारी, शीतल त्रयताप - हारी,
भंवर बर बिभंगतर तरंग मलिका।
पुरजन पूजाेपहार, शोभित शशि धवलदार,
भंजन भव भार, भक्ति कल्पथालिका ॥२॥
निज तटबासी बिहंग, जल-थर-चर पशु पतंग
की, जटिल तापस सब सरिस पालिका।
तुलसी तब तीर तीर सुमिरत रघुवंश बीर,
बिचरत मति देहि मोह-महिष-कालिका॥३॥
भावार्थ- हे भगीरथ नंदिनी! तुम्हारी जय हो ,जय हो। तुम मुनियों के समूह रूपी चकोरों के लिए चंद्रिका रूप हो। मनुष्य नाग, देवता तुम्हारी वंदना करते हैं। यह जह्नु की पुत्री! तुम्हारी जय हो। तुम भगवान विष्णु के चरण कमल से उत्पन्न हुई हो शिवजी के मस्तक पर शोभा पाती हो। स्वर्ग, भूमि और पाताल इन तीन मार्गो से तीन धाराओं में होकर बहती हो। पुण्य की राशि और पापों को धोने वाली हो। तुम आगाध निर्मल जल को धारण किए हो। वह जल शीतल और तीनों तापों को हरने वाला है तुम सुंदर भँवर और अति चंचल तरंगों की माला धारण किए हो ।नगर- निवासियों ने पूजा के समय जो सामग्री भेंट चढ़ाई हैं, उनसे तुम्हारी चंद्रमा के समान धवल धारा शोभित हो रही है। यह धारा संसार के जन्म - मरण रूप भार को नाश करने वाली तथा भक्ति रूपी कल्पवृक्ष की रक्षा के लिए थाल्हारूप है। तुम अपनी तीर पर रहने वाले पक्षी, जलचर, थलचर, पशु, पतंग की औल जटाधारी तपस्वी आदि सबका समान भाव से पालन करती हो। हे मोह रूपी महिषासुर को मारने के लिए काली का रूप गंगाजी ! मुझे ऐसी बुद्धि दो जिससे वह श्री रघुनाथ जी का स्मरण करता हुआ तुम्हारे तीर पर विचरा करें।
अदभुत
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