/ "ईश्वर के साथ हमारा संबंध: सरल ज्ञान और अनुभव: 2021

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सोमवार, 1 नवंबर 2021

मुझे निर्बल जानकार मेरा हाथ छुड़ाकर जाते हो कृष्णा

                         महान संत "सूरदास जी "



एक बार संत सूरदास जी को एक सज्जन ने भजन के लिए आमंत्रित किया.भजनोपरांत सज्जन को उन्हें घर तक पहुंचाने का ध्यान ही नहीं रहा.सूरदास जी ने भी उसे तकलीफ नहीं देनी चाही और खुद ही लाठी लेकर गोविंद-गोविंद करते हुए अंधेरी रात में पैदल ही अपने घर की ओर निकल पड़े.रास्ते में एक कुआं पड़ता था। वे लाठी से टटोलते-टटोलते, भगवान का नाम लेते हुए बढ़ रहे थे, कि उनके पांव और कुएं के बीच मात्र कुछ ही दूरी रह गई थी, और तभी उन्हें लगा कि किसी ने उनकी लाठी पकड़ ली है, उन्होंने पूछा- तुम कौन हो?उत्तर मिला- बाबा! मैं एक बालक हूं। मैं भी आपका भजन सुन कर लौट रहा हूं। देखा कि आप गलत रास्ते जा रहे हैं, इसलिए मैं इधर आ गया। चलिए, आपको घर तक छोड़ दूं।सूरदास जी ने पूछा- तुम्हारा नाम क्या है बेटा?उत्तर मिला- बाबा! अभी तक मां ने मेरा नाम नहीं रखा है।सूरदास जी ने पूछा- तब मैं तुम्हें किस नाम से पुकारूं?उत्तर मिला- कोई भी नाम चलेगा बाबा.सूरदास जी ने रास्ते में और भी कई सवाल पूछे और तब उन्हें लगा कि हो न हो, यह कन्हैया हैं। वे समझ गए कि आज गोपाल खुद मेरे पास आए हैं। क्यों नहीं मैं इनका हाथ पकड़ लूं। और यह सोचकर वे अपना हाथ उस लाठी पर भगवान श्री कृष्ण की ओर बढ़ाने लगे.भगवान श्री कृष्ण उनकी यह चाल समझ गए।

सूरदास जी का हाथ धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा था। जब केवल चार अंगुल अंतर रह गया, तब भगवान श्री कृष्ण लाठी को छोड़कर दूर चले गए। और जैसे ही उन्होंने लाठी छोड़ी, सूरदास जी विह्वल हो गए, उनकी आंखों से अश्रुधारा बह निकली, और वे बोले- मैं अंधा हूं, और ऐसे अंधे की लाठी छोड़कर चले जाना, कन्हैया तुम्हारी बहादुरी है क्या? और फिर उनके श्रीमुख से वेदना के यह स्वर निकल पड़े-*हाथ छुड़ाये जात हो,निर्बल जानि के मोय।हृदय से जब जाओ,तो सबल जानूँगा तोय।।

सार- मुझे निर्बल जानकार मेरा हाथ छुड़ाकर जाते हो, पर मेरे हृदय से जाओ तो मैं तुम्हें सबल कहूं।तब भगवान कृष्ण जी ने कहा- बाबा! अगर मैं ऐसे भक्तों के हृदय से चला जाऊं, तो फिर मैं कहां रहूं।जय ।।।श्री कृष्ण।।

रविवार, 10 अक्तूबर 2021

लक्ष्मीजी कई प्रकार की होती है,आप कौनसी लक्ष्मी की पूजा करते है?

 आठ प्रकार की हैं लक्ष्मी, आपको किस लक्ष्मी की आराधना करनी चाहिए?



आठ प्रकार के धन एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं. प्रत्येक व्यक्ति में अष्ट लक्ष्मी या आठ प्रकार के धन होते हैं, अधिक या कम मात्रा में लेकिन होते हैं. हम उनका कितना सम्मान करते हैं, उनका उपयोग करते हैं, हमारे ऊपर निर्भर है।

इन अष्ट लक्ष्मी की अनुपस्थिति को- अष्ट दरिद्रता कहा जाता है. लक्ष्मी से मिलाने वाले नारायण हैं. लक्ष्मी को प्राप्त करने के माध्मय हैं। किसी व्यक्ति के चाहे लक्ष्मी हों या न हों, पर नारायण को वह प्राप्त कर सकता है। नारायण दोनों के हैं- वे लक्ष्मी नारायण भी और दरिद्र नारायण भी!

दरिद्र नारायण को कोसा जाता है, लक्ष्मी नारायण को पूजा जाता है. पूरे जीवन का प्रवाह दरिद्र नारायण से लक्ष्मी नारायण तक यानी दुख से समृद्धि तक चलता है।

अष्ट लक्ष्मी को निम्न नामों से जाना जाता है:

आदि लक्ष्मी

धन लक्ष्मी

विद्या लक्ष्मी

धान्य लक्ष्मी

धैर्य लक्ष्मी

संतान लक्ष्मी

विजय लक्ष्मी

राज लक्ष्मी या भाग्य लक्ष्मी।

आदि लक्ष्मी 

अष्टलक्ष्मी, आदि लक्ष्मी या महालक्ष्मी का एक प्राचीन रूप हैं जो ऋषि भृगु की बेटी के रूप में भूलोक पर अवतार लेने वाली लक्ष्मी का स्वरूप हैं. आदि लक्ष्मी केवल ज्ञानियों के पास होती है. आदि लक्ष्मी देवी कभी न खत्म होने वाली प्रकृति का प्रतीक हैं जिसकी न कोई शुरुआत है और न ही कोई अंत. वह निरंतर है. इसलिए धन का प्रवाह भी निरंतर होना चाहिए. यह भी हमेशा रहा है और हमेशा रहेगा

श्री नारायण की सेवा करने वाली आदि लक्ष्मी या राम लक्ष्मी पूरी सृष्टि की सेवा करने का प्रतीक हैं. आदि लक्ष्मी और नारायण अलग-अलग नहीं हैं, बल्कि एक ही हैं. लक्ष्मी शक्ति हैं और नारायण की शक्ति हैं. नारायण की साथ ये पृथ्वी लोक के धर्म परायण जीवों के लिए लक्ष्मी नारायण हैं. आदि लक्ष्मी चार भुजाओं वाली हैं, कमल और श्वेत ध्वज धारण करती हैं, अन्य दो हाथ अभय मुद्रा और वरद. मुद्रा में हैं. जिस व्यक्ति को स्रोत का ज्ञान हो जाता है, वह सभी भय से मुक्त हो जाता है और संतोष और आनंद प्राप्त करता है. वह आदि लक्ष्मी की कृपा प्राप्त करता है. और जिनके पास आदिलक्ष्मी हुई समझ लो उनको भी ज्ञान हो गया।

धन लक्ष्मी 

धन लक्ष्मी धन और स्वर्ण की देवी हैं. इन्हें वैभव लक्ष्मी के नाम से भी जाना जाता है. धन लक्ष्मी लाल वस्त्रों में सजी अपनी भुजाओं में चक्र, शंख, अमृत कलश, धनुष-बाण, अभय मुद्रा और एक कमल से युक्त हैं।

सूर्य और चंद्रमा, अग्नि और तारे, बारिश और प्रकृति, महासागर और पहाड़, नदी और नाले, ये सभी हमारे धन हैं. इसलिए संतान, हमारी आंतरिक इच्छा शक्ति, हमारा चरित्र और हमारे गुण हैं. मां धन लक्ष्मी की कृपा से हमें ये सभी प्रचुर मात्रा में मिलते हैं।

विद्या लक्ष्मी 

यदि आप लक्ष्मी और सरस्वती के चित्र देखते हैं तो आप देखेंगे कि लक्ष्मी को ज्यादातर कमल में पानी के उपर रखा है. पानी अस्थिर है यानी लक्ष्मी भी पानी की तरह चंचल है. विद्या की देवी सरस्वती को एक पत्थर पर स्थिर स्थान पर रखा है. विद्या जब आती है तो जीवन में स्थिरता आती है. विद्या का भी हम दुरुपयोग कर सकते हैं और सिर्फ पढ़ना ही किसीका लक्ष्य हो जाए तब भी वह विद्या लक्ष्मी नहीं बनती. पढ़ना है, फिर जो पढ़ा है उसका उपयोग करना है तब वह विद्या लक्ष्मी है।

धान्य लक्ष्मी  

धान्य लक्ष्मी कृषि धन प्रदान करने वाली हैं. “धान्य” का अर्थ है अनाज. भोजन हमारा सबसे बुनियादी और सबसे महत्वपूर्ण धन है. हमें जीवन को बनाए रखने के लिए भोजन की आवश्यकता है. धनवान होने का मतलब है कि हमारे पास प्रचुर मात्रा में भोजन है जो हमें पोषित और स्वस्थ रखता है. वह फसल की देवी हैं जो फसल में बहुतायत और सफलता के साथ आशीर्वाद देती हैं. कहा जाता है कि हम वही बनते हैं जो हम खाते हैं. सही मात्रा और सही प्रकार का भोजन, सही समय और स्थान पर खाया हमारे शरीर और दिमाग को सकारात्मक रूप से प्रभावित करता है. माँ धान्य लक्ष्मी की कृपा से व्यक्ति को सभी आवश्यक पोषक तत्व अनाज, फल, सब्जियाँ और अन्य खाद्य पदार्थ मिलते हैं।


देवी धान्य लक्ष्मी हरे वस्त्र में सुशोभित, दो कमल, गदा, धान की फसल, गन्ना, केला, अन्य दो हाथ में अभय मुद्रा और वरमुद्रा धारण करती हैं।

धैर्य लक्ष्मी 

अष्ट लक्ष्मी की स्वरूप धैर्य लक्ष्मी हमें अपने धन के प्रबंध, उसके उपयोग की रणनीति, योजना बनाने की शक्ति देती है. यह धन हमें समान आसानी के साथ अच्छे और बुरे समय का सामना करने की आध्यात्मिक शक्ति देता है. यह हमारे सभी कार्यों में योजना और रणनीति के महत्व को दर्शाता है ताकि हम सावधानी से आगे बढ़ सकें और हर बार अपने लक्ष्य तक पहुंच सकें. माँ लक्ष्मी का यह रूप असीम साहस और शक्ति का वरदान देता है. वे, जो अनंत आंतरिक शक्ति के साथ हैं, उनकी हमेशा जीत होती है. जो लोग माँ धैर्य लक्ष्मी की पूजा करते हैं, वे बहुत धैर्य और आंतरिक स्थिरता के साथ जीवन जीते हैं।

धैर्य लक्ष्मी होने से ही जीवन में प्रगति हो सकती है नहीं तो नहीं हो सकती. जिस मात्रा में धैर्य लक्ष्मी होती है उस मात्रा में प्रगति होती है. चाहे बिजनेस में हो चाहे नौकरी में हो, धैर्य लक्ष्मी की आवश्यकता होती ही है।

संतान लक्ष्मी

संतान के रूप में जो लक्ष्मी मनुष्य को प्राप्त है वह संतान लक्ष्मी है. ऐसे बच्चे जो प्यार की पूंजी हों, प्यार का संबंध हों, भाव हों, तब वो संतान लक्ष्मी हुई. जिस संतान से तनाव कम होता है या नहीं होता है वह संतान लक्ष्मी है. जिस संतान से सुख, समृद्धि, शांति होती है वह है संतान लक्ष्मी. और जिस संतान से झगड़ा, तनाव, परेशानी, दुःख, दर्द, पीड़ा हुआ वह संतान संतान लक्ष्मी नहीं होती. देवी संतान लक्ष्मी छः-सशस्त्र हैं, दो कलशों, तलवार, ढाल, उनकी गोद में एक बच्चा, अभय मुद्रा में एक हाथ और दूसरा बच्चा पकड़े हुए हैं. बच्चा कमल धारण किये हुए है।

विजय लक्ष्मी 

विजय लक्ष्मी या जय लक्ष्मी सफलता के रास्ते में आने वाली बाधाओं को दूर करके विजय का मार्ग खोलती हैं. कुछ लोगों के पास सब साधन, सुविधाएं होती है फिर भी किसी भी काम में उनको सफलता नहीं मिलती. सब-कुछ होने के बाद भी किसी भी काम में वो हाथ लगाये वो चौपट हो जाता है, काम होगा ही नहीं, ये विजय लक्ष्मी की कमी है. यह देवी साहस, आत्मविश्वास, निडरता और जीत के धन का प्रतीक है। यह धन हमारे चरित्र को मजबूत करता है और हमें अपने जीवन पथ पर सफलतापूर्वक आगे बढ़ाता है।

राज लक्ष्मी 

पौराणिक कथाओं के अनुसार, इंद्र ने जब दुर्वासा के शाप से सारा राजपाट गंवा दिया. भाग्य विमुख हो गया तो राजलक्ष्मी की आराधना से उन्हें सबकुछ वापस मिला. राज लक्ष्मी कहे चाहे भाग्य लक्ष्मी कहे दोनों एक ही हैं. देवी राज लक्ष्मी चार भुजाओं वाली, लाल वस्त्रों में, दो कमल धारण करती हैं, अभय मुद्रा और वरदा मुद्रा में अन्य दो भुजाओं से घिरी हुई हैं, दो हाथी जल के कलश लिए हुए होते हैं।

सभी अष्ट लक्ष्मी से युक्त होना ही संसार में सुख का रास्ता खोलता है. अष्ट लक्ष्मी में से किसी न किसी स्वरूप का हमारे अंदर प्रवेश अधिक होता है, किसी का कम. उसी के अनुसार होता है हमारा जीवन।

अष्ट लक्ष्मी की कृपा हम सब पर बनी रहे.

शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2021

महाभारत के श्री कृष्ण, पांडव, कौरव सब हमारे अंदर ही हैं

            क्या आप महाभारत का अर्थ जानते हैं? महाभारत में पांच पांडव कौरव श्री कृष्ण सब हमारे अंदर ही हैं।


शास्त्र कहते हैं कि अठारह दिनों के महाभारत युद्ध में उस समय की पुरुष जनसंख्या का 80% सफाया हो गया था। युद्ध के अंत में, संजय कुरुक्षेत्र के उस स्थान पर गए जहां संसार का सबसे महानतम युद्ध हुआ था।

उसने इधर-उधर देखा और सोचने लगा कि क्या वास्तव में यहीं युद्ध हुआ था? यदि यहां युद्ध हुआ था तो जहां वो खड़ा है, वहां की जमीन रक्त से सराबोर होनी चाहिए। क्या वो आज उसी जगह पर खड़ा है जहां महान पांडव और कृष्ण खड़े थे?

तभी एक वृद्ध व्यक्ति ने वहां आकर धीमे और शांत स्वर में कहा, "आप उस बारे में सच्चाई कभी नहीं जान पाएंगे!"

संजय ने धूल के बड़े से गुबार के बीच दिखाई देने वाले भगवा वस्त्रधारी एक वृद्ध व्यक्ति को देखने के लिए उस ओर सिर को घुमाया।

"मुझे पता है कि आप कुरुक्षेत्र युद्ध के बारे में पता लगाने के लिए यहां हैं, लेकिन आप उस युद्ध के बारे में तब तक नहीं जान सकते, जब तक आप ये नहीं जान लेते हैं कि असली युद्ध है क्या?" बूढ़े आदमी ने रहस्यमय ढंग से कहा।

"तुम महाभारत का क्या अर्थ जानते हो?" तब संजय ने उस रहस्यमय व्यक्ति से पूछा।

वह कहने लगा, "महाभारत एक महाकाव्य है, एक गाथा है, एक वास्तविकता भी है, लेकिन निश्चित रूप से एक दर्शन भी है।"

वृद्ध व्यक्ति संजय को और अधिक सवालों के चक्कर में फसा कर मुस्कुरा रहा था।"क्या आप मुझे बता सकते हैं कि दर्शन क्या है?" संजय ने निवेदन किया।

अवश्य जानता हूं, बूढ़े आदमी ने कहना शुरू किया। पांडव कुछ और नहीं, बल्कि आपकी पाँच इंद्रियाँ हैं - दृष्टि, गंध, स्वाद, स्पर्श और श्रवण - और क्या आप जानते हैं कि कौरव क्या हैं? उसने अपनी आँखें संकीर्ण करते हुए पूछा।

कौरव ऐसे सौ तरह के विकार हैं, जो आपकी इंद्रियों पर प्रतिदिन हमला करते हैं लेकिन आप उनसे लड़ सकते हैं और जीत भी सकते है।पर क्या आप जानते हैं कैसे?

संजय ने फिर से न में सर हिला दिया।

"जब कृष्ण आपके रथ की सवारी करते हैं!" यह कह वह वृद्ध व्यक्ति बड़े प्यार से मुस्कुराया और संजय अंतर्दृष्टि खुलने पर जो नवीन रत्न प्राप्त हुआ उस पर विचार करने लगा..

"कृष्ण आपकी आंतरिक आवाज, आपकी आत्मा, आपका मार्गदर्शक प्रकाश हैं और यदि आप अपने जीवन को उनके हाथों में सौप देते हैं तो आपको फिर चिंता करने की कोई आवश्कता नहीं है।" वृद्ध आदमी ने कहा।

संजय अब तक लगभग चेतन अवस्था में पहुंच गया था, लेकिन जल्दी से एक और सवाल लेकर आया।

फिर कौरवों के लिए द्रोणाचार्य और भीष्म क्यों लड़ रहे हैं?

भीष्म हमारे अहंकार का प्रतीक हैं, अश्वत्थामा हमारी वासनाएं, इच्छाएं हैं, जो कि जल्दी नहीं मरतीं। दुर्योधन हमारी सांसारिक वासनाओं, इच्छाओं का प्रतीक है। द्रोणाचार्य हमारे संस्कार हैं। जयद्रथ हमारे शरीर के प्रति राग का प्रतीक है कि 'मैं ये देह हूं' का भाव। द्रुपद वैराग्य का प्रतीक हैं। अर्जुन मेरी आत्मा हैं, मैं ही अर्जुन हूं और  स्वनियंत्रित भी हूं। कृष्ण हमारे परमात्मा हैं। पांच पांडव पांच नीचे वाले चक्र भी हैं, मूलाधार से विशुद्ध चक्र तक। द्रोपदी कुंडलिनी शक्ति है, वह जागृत शक्ति है, जिसके ५ पति ५ चक्र हैं। ओम शब्द ही कृष्ण का पांचजन्य शंखनाद है, जो मुझ और आप आत्मा को ढ़ाढ़स बंधाता है कि चिंता मत कर मैं तेरे साथ हूं, अपनी बुराइयों पर विजय पा, अपने निम्न विचारों, निम्न इच्छाओं, सांसारिक इच्छाओं, अपने आंतरिक शत्रुओं यानि कौरवों से लड़ाई कर अर्थात अपनी मेटेरियलिस्टिक वासनाओं को त्याग कर और चैतन्य  पाठ पर आरूढ़ हो जा, विकार रूपी कौरव अधर्मी एवं दुष्ट प्रकृति के हैं।

श्री कृष्ण का साथ होते ही ७२००० नाड़ियों में भगवान की चैतन्य शक्ति भर जाती है, और हमें पता चल जाता है कि मैं चैतन्यता, आत्मा, जागृति हूं, मैं अन्न से बना शरीर नहीं हूं, इसलिए उठो जागो और अपने आपको, अपनी आत्मा को, अपने स्वयं सच को जानो, भगवान को पाओ, यही भगवद प्राप्ति या आत्म साक्षात्कार है, यही इस मानव जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य है।

ये शरीर ही धर्म क्षेत्र, कुरुक्षेत्र है। धृतराष्ट्र अज्ञान से अंधा हुआ मन है। अर्जुन आप हो, संजय आपके आध्यात्मिक गुरु हैं।

वृद्ध आदमी ने दुःखी भाव के साथ सिर हिलाया और कहा, "जैसे-जैसे आप बड़े होते हैं, अपने बड़ों के प्रति आपकी धारणा बदल जाती है। जिन बुजुर्गों के बारे में आपने सोचा था कि आपके बढ़ते वर्षों में वे संपूर्ण थे, अब आपको लगता है वे सभी परिपूर्ण नहीं हैं। उनमें दोष हैं। और एक दिन आपको यह तय करना होगा कि उनका व्यवहार आपके लिए अच्छा या बुरा है। तब आपको यह भी अहसास हो सकता है कि आपको अपनी भलाई के लिए उनका विरोध करना या लड़ना भी पड़ सकता है। यह बड़ा होने का सबसे कठिन हिस्सा है और यही वजह है कि गीता महत्वपूर्ण है।"

संजय धरती पर बैठ गया, इसलिए नहीं कि वह थका हुआ था, तक गया था, बल्कि इसलिए कि वह जो समझ लेकर यहां आया था, वो एक-एक कर धराशाई हो रही थी। लेकिन फिर भी उसने लगभग फुसफुसाते हुए एक और प्रश्न पूछा, तब कर्ण के बारे में आपका क्या कहना है?

"आह!" वृद्ध ने कहा। आपने अंत के लिए सबसे अच्छा प्रश्न बचाकर रखा हुआ है।

"कर्ण आपकी इंद्रियों का भाई है। वह इच्छा है। वह सांसारिक सुख के प्रति आपके राग का प्रतीक है। वह आप का ही एक हिस्सा है, लेकिन वह अपने प्रति अन्याय महसूस करता है और आपके विरोधी विकारों के साथ खड़ा दिखता है। और हर समय विकारों के विचारों के साथ खड़े रहने के कोई न कोई कारण और बहाना बनाता रहता है।"

"क्या आपकी इच्छा; आपको विकारों के वशीभूत होकर उनमें बह जाने या अपनाने के लिए प्रेरित नहीं करती रहती है?" वृद्ध ने संजय से पूछा।

संजय ने स्वीकारोक्ति में सिर हिलाया और भूमि की तरफ सिर करके सारी विचार श्रंखलाओं को क्रमबद्ध कर मस्तिष्क में बैठाने का प्रयास करने लगा। और जब उसने अपने सिर को ऊपर उठाया, वह वृद्ध व्यक्ति धूल के गुबारों के मध्य कहीं विलीन हो चुका था। लेकिन जाने से पहले वह जीवन की वो दिशा एवं दर्शन दे गया था, जिसे आत्मसात करने के अतिरिक्त संजय के सामने अब कोई अन्य मार्ग नहीं बचा था।

।।ओम नमो भगवते वासुदेवाय।।

सोमवार, 27 सितंबर 2021

(संत वचनामृत) प्रभु की खुशी में ही हमारी खुशी है

               प्रभु की खुशी में ही हमारी खुशी होनी चाहिए।

सिद्धांत यह है कि प्रभु के दिए हुए धन में, परिवार में, शरीर में, हमको संतुष्ट रहना चाहिए। जो प्रभु ने दिया है, उसमें संतुष्ट ना होकर जब हम अपने मन में असंतोष व्यक्त करते हैं, तो प्रभु का अपमान होता है। हमको कृतज्ञ होना चाहिए। भगवान ने कृपा करके जो कुछ दिया है वह ठीक है। प्रभु को धन्यवाद है इतना सब कुछ दिया है। यदि हम को और अधिक आवश्यक होगी, तो प्रभु हमको और देंगे। ईश्वर की इच्छा में अपनी इच्छा को, प्रभु की प्रसन्नता में अपनी प्रसन्नता को मिला देना चाहिए जो कुछ सहज प्राप्त है उसमें ही संतुष्ट रहना चाहिए। प्रभु के द्वारा दिए गए धन जन में संतुष्ट ना हो कर, हम तरह-तरह की कामना करते हैं उसके लिए देवी-देवताओं से विनय करते हैं, कामना की पूर्ण न होने पर अविश्वास हो जाता है। इसलिए यदि कामना हो तो अपने इष्ट देव के सामने निवेदन करना चाहिए। यदि कामना की पूर्ति में आप प्रसन्न रहे हो तब आप पूर्ण कर दीजिए। यह भाव रखना चाहिए। आप प्रसन्न न रहें, मेरा कल्याण भी ना हो, तो ऐसी कामना का अपूर्ण होना ही अच्छा है। जिस प्रकार प्रभु प्रसन्न है उसमें ही प्रसन्न रहना है।

 (वृंदावन के गोलोक वासी संत श्री गणेशदास भक्तमालीजी दादा गुरु के उपदेश परक पत्रों से)

सोमवार, 20 सितंबर 2021

श्रद्धापूर्वक किए जाने वाले कर्म को पितृ श्राद्ध कहते हैं

      श्रद्धापूर्वक किए जाने वाले कर्म को पितृ श्राद्ध कहते हैं

आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या पंद्रह दिन पितृपक्ष (पितृ = पिता) के नाम से विख्यात है। इन पंद्रह दिनों में लोग अपने पितरों (पूर्वजों) को जल देते हैं तथा उनकी मृत्युतिथि पर पार्वण श्राद्ध करते हैं। पिता-माता आदि पारिवारिक मनुष्यों की मृत्यु के पश्चात्‌ उनकी तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक किए जाने वाले कर्म को पितृ श्राद्ध कहते हैं।

श्रद्धया इदं श्राद्धम्‌ (जो श्रद्धा से किया जाये, वह श्राद्ध है।) भावार्थ यह है कि प्रेत और पितर के निमित्त, उनकी आत्मा की तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक जो अर्पित किया जाए वही श्राद्ध है।

हिन्दू धर्म में माता-पिता की सेवा को सबसे बड़ी पूजा माना गया है। इसलिए हिंदू धर्म शास्त्रों में पितरों का उद्धार करने के लिए पुत्र की अनिवार्यता मानी गई हैं। जन्मदाता माता-पिता को मृत्यु-उपरांत लोग विस्मृत न कर दें, इसलिए उनका श्राद्ध करने का विशेष विधान बताया गया है। भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के सोलह दिनों को पितृपक्ष कहते हैं जिसमे हम अपने पूर्वजों की सेवा करते हैं।

आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ब्रह्माण्ड की ऊर्जा तथा उस उर्जा के साथ पितृप्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है। धार्मिक ग्रंथों में मृत्यु के बाद आत्मा की स्थिति का बड़ा सुन्दर और वैज्ञानिक विवेचन भी मिलता है। मृत्यु के बाद दशगात्र और षोडशी-सपिण्डन तक मृत व्यक्ति की प्रेत संज्ञा रहती है। पुराणों के अनुसार वह सूक्ष्म शरीर जो आत्मा भौतिक शरीर छोड़ने पर धारण करती है प्रेत होती है। प्रिय के अतिरेक की अवस्था "प्रेत" है क्यों की आत्मा जो सूक्ष्म शरीर धारण करती है तब भी उसके अन्दर मोह, माया भूख और प्यास का अतिरेक होता है। सपिण्डन के बाद वह प्रेत, पितरों में सम्मिलित हो जाता है।

पितृपक्ष भर में जो तर्पण किया जाता है उससे वह पितृप्राण स्वयं आप्यापित होता है। पुत्र या उसके नाम से उसका परिवार जो यव (जौ) तथा चावल का पिण्ड देता है, उसमें से अंश लेकर वह अम्भप्राण का ऋण चुका देता है। ठीक आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से वह चक्र उर्ध्वमुख होने लगता है। 15 दिन अपना-अपना भाग लेकर शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से पितर उसी ब्रह्मांडीय उर्जा के साथ वापस चले जाते हैं। इसलिए इसको पितृपक्ष कहते हैं और इसी पक्ष में श्राद्ध करने से पितरों को प्राप्त होता है।

पुराणों में कई कथाएँ इस उपलक्ष्य को लेकर हैं जिसमें कर्ण के पुनर्जन्म की कथा काफी प्रचलित है। एवं हिन्दू धर्म में सर्वमान्य श्री रामचरित में भी श्री राम के द्वारा श्री दशरथ और जटायु को गोदावरी नदी पर जलांजलि देने का उल्लेख है एवं भरत जी के द्वारा दशरथ हेतु दशगात्र विधान का उल्लेख भरत कीन्हि दशगात्र विधाना तुलसी रामायण में हुआ है।

भारतीय धर्मग्रंथों के अनुसार मनुष्य पर तीन प्रकार के ऋण प्रमुख माने गए हैं- पितृ ऋण, देव ऋण तथा ऋषि ऋण। इनमें पितृ ऋण सर्वोपरि है। पितृ ऋण में पिता के अतिरिक्त माता तथा वे सब बुजुर्ग भी सम्मिलित हैं, जिन्होंने हमें अपना जीवन धारण करने तथा उसका विकास करने में सहयोग दिया।

पितृपक्ष में हिन्दू लोग मन कर्म एवं वाणी से संयम का जीवन जीते हैं; पितरों को स्मरण करके जल चढाते हैं; निर्धनों एवं ब्राह्मणों को दान देते हैं। पितृपक्ष में प्रत्येक परिवार में मृत माता-पिता का श्राद्ध किया जाता है, परंतु गया श्राद्ध का विशेष महत्व है। वैसे तो इसका भी शास्त्रीय समय निश्चित है, परंतु ‘गया सर्वकालेषु पिण्डं दधाद्विपक्षणं’ कहकर सदैव पिंडदान करने की अनुमति दे दी गई है।

एकैकस्य तिलैर्मिश्रांस्त्रींस्त्रीन् दद्याज्जलाज्जलीन्। यावज्जीवकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति।

अर्थात् जो अपने पितरों को तिल-मिश्रित जल की तीन-तीन अंजलियाँ प्रदान करते हैं, उनके जन्म से तर्पण के दिन तक के पापों का नाश हो जाता है। हमारे हिंदू धर्म-दर्शन के अनुसार जिस प्रकार जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु भी निश्चित है; उसी प्रकार जिसकी मृत्यु हुई है, उसका जन्म भी निश्चित है। ऐसे कुछ विरले ही होते हैं जिन्हें मोक्ष प्राप्ति हो जाती है। पितृपक्ष में तीन पीढ़ियों तक के पिता पक्ष के तथा तीन पीढ़ियों तक के माता पक्ष के पूर्वजों के लिए तर्पण किया जाता हैं। इन्हीं को पितर कहते हैं। दिव्य पितृ तर्पण, देव तर्पण, ऋषि तर्पण और दिव्य मनुष्य तर्पण के पश्चात् ही स्व-पितृ तर्पण किया जाता है। भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के सोलह दिनों को पितृपक्ष कहते हैं। जिस तिथि को माता-पिता का देहांत होता है, उसी तिथी को पितृपक्ष में उनका श्राद्ध किया जाता है। शास्त्रों के अनुसार पितृपक्ष में अपने पितरों के निमित्त जो अपनी शक्ति सामर्थ्य के अनुरूप शास्त्र विधि से श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करता है, उसके सकल मनोरथ सिद्ध होते हैं और घर-परिवार, व्यवसाय तथा आजीविका में हमेशा उन्नति होती है। पितृ दोष के अनेक कारण होते हैं। परिवार में किसी की अकाल मृत्यु होने से, अपने माता-पिता आदि सम्मानीय जनों का अपमान करने से, मरने के बाद माता-पिता का उचित ढंग से क्रियाकर्म और श्राद्ध नहीं करने से, उनके निमित्त वार्षिक श्राद्ध आदि न करने से पितरों को दोष लगता है। इसके फलस्वरूप परिवार में अशांति, वंश-वृद्धि में रूकावट, आकस्मिक बीमारी, संकट, धन में बरकत न होना, सारी सुख सुविधाएँ होते भी मन असन्तुष्ट रहना आदि पितृ दोष हो सकते हैं। यदि परिवार के किसी सदस्य की अकाल मृत्यु हुई हो तो पितृ दोष के निवारण के लिए शास्त्रीय विधि के अनुसार उसकी आत्म शांति के लिए किसी पवित्र तीर्थ स्थान पर श्राद्ध करवाएँ। अपने माता-पिता तथा अन्य ज्येष्ठ जनों का अपमान न करें। प्रतिवर्ष पितृपक्ष में अपने पूर्वजों का श्राद्ध, तर्पण अवश्य करें। यदि इन सभी क्रियाओं को करने के पश्चात् पितृ दोष से मुक्ति न होती हो तो ऐसी स्थिति में किसी सुयोग्य कर्मनिष्ठ विद्वान ब्राह्मण से श्रीमद् भागवत् पुराण की कथा करवायें। वैसे श्रीमद् भागवत् पुराण की कथा कोई भी श्रद्धालु पुरुष अपने पितरों की आत्मा की शांति के लिए करवा सकता है। इससे विशेष पुण्यफल की प्राप्ति होती है।

मत्स्य पुराण में तीन प्रकार के श्राद्ध प्रमुख बताये गए है। त्रिविधं श्राद्ध मुच्यते के अनुसार मत्स्य पुराण में तीन प्रकार के श्राद्ध बतलाए गए है, जिन्हें नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य श्राद्ध कहते हैं।

यमस्मृति में पांच प्रकार के श्राद्धों का वर्णन मिलता है। जिन्हें नित्य, नैमित्तिक, काम्य, वृद्धि और पार्वण के नाम से श्राद्ध है।

नित्य श्राद्ध- प्रतिदिन किए जानें वाले श्राद्ध को नित्य श्राद्ध कहते हैं। इस श्राद्ध में विश्वेदेव को स्थापित नहीं किया जाता। यह श्राद्ध में केवल जल से भी इस श्राद्ध को सम्पन्न किया जा सकता है।

नैमित्तिक श्राद्ध- किसी को निमित्त बनाकर जो श्राद्ध किया जाता है, उसे नैमित्तिक श्राद्ध कहते हैं। इसे एकोद्दिष्ट के नाम से भी जाना जाता है। एकोद्दिष्ट का मतलब किसी एक को निमित्त मानकर किए जाने वाला श्राद्ध जैसे किसी की मृत्यु हो जाने पर दशाह, एकादशाह आदि एकोद्दिष्ट श्राद्ध के अन्तर्गत आता है। इसमें भी विश्वेदेवोंको स्थापित नहीं किया जाता।

काम्य श्राद्ध- किसी कामना की पूर्ति के निमित्त जो श्राद्ध किया जाता है। वह काम्य श्राद्ध के अन्तर्गत आता है।

वृद्धि श्राद्ध- किसी प्रकार की वृद्धि में जैसे पुत्र जन्म, वास्तु प्रवेश, विवाहादि प्रत्येक मांगलिक प्रसंग में भी पितरों की प्रसन्नता हेतु जो श्राद्ध होता है उसे वृद्धि श्राद्ध कहते हैं। इसे नान्दीश्राद्ध या नान्दीमुखश्राद्ध के नाम भी जाना जाता है, यह एक प्रकार का कर्म कार्य होता है। दैनंदिनी जीवन में देव-ऋषि-पित्र तर्पण भी किया जाता है।

पार्वण श्राद्ध- पार्वण श्राद्ध पर्व से सम्बन्धित होता है। किसी पर्व जैसे पितृपक्ष, अमावास्या या पर्व की तिथि आदि पर किया जाने वाला श्राद्ध पार्वण श्राद्ध कहलाता है। यह श्राद्ध विश्वेदेवसहित होता है।

सपिण्डनश्राद्ध- सपिण्डनशब्द का अभिप्राय पिण्डों को मिलाना। पितर में ले जाने की प्रक्रिया ही सपिण्डनहै। प्रेत पिण्ड का पितृ पिण्डों में सम्मेलन कराया जाता है। इसे ही सपिण्डनश्राद्ध कहते हैं।

गोष्ठी श्राद्ध- गोष्ठी शब्द का अर्थ समूह होता है। जो श्राद्ध सामूहिक रूप से या समूह में सम्पन्न किए जाते हैं। उसे गोष्ठी श्राद्ध कहते हैं।

शुद्धयर्थश्राद्ध- शुद्धि के निमित्त जो श्राद्ध किए जाते हैं। उसे शुद्धयर्थश्राद्ध कहते हैं। जैसे शुद्धि हेतु ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए।

कर्मागश्राद्ध- कर्मागका सीधा साधा अर्थ कर्म का अंग होता है, अर्थात् किसी प्रधान कर्म के अंग के रूप में जो श्राद्ध सम्पन्न किए जाते हैं। उसे कर्मागश्राद्ध कहते हैं।

यात्रार्थश्राद्ध- यात्रा के उद्देश्य से किया जाने वाला श्राद्ध यात्रार्थश्राद्ध कहलाता है। जैसे- तीर्थ में जाने के उद्देश्य से या देशान्तर जाने के उद्देश्य से जिस श्राद्ध को सम्पन्न कराना चाहिए वह यात्रार्थश्राद्ध ही है। इसे घृतश्राद्ध भी कहा जाता है।

पुष्ट्यर्थश्राद्ध- पुष्टि के निमित्त जो श्राद्ध सम्पन्न हो, जैसे शारीरिक एवं आर्थिक उन्नति के लिए किया जाना वाला श्राद्ध पुष्ट्यर्थश्राद्ध कहलाता है।

धर्मसिन्धु के अनुसार श्राद्ध के ९६ अवसर बतलाए गए हैं। एक वर्ष की अमावास्याएं'(12) पुणादितिथियां (4),'मन्वादि तिथियां (14) संक्रान्तियां (12) वैधृति योग (12), व्यतिपात योग (12) पितृपक्ष (15), अष्टकाश्राद्ध (5) अन्वष्टका (5) तथा पूर्वेद्यु:(5) कुल मिलाकर श्राद्ध के यह ९६ अवसर प्राप्त होते हैं।'पितरों की संतुष्टि हेतु विभिन्न पित्र-कर्म का विधान है।

पुराणोक्त पद्धति से निम्नांकित कर्म किए जाते हैं :- एकोदिष्ट श्राद्ध, पार्वण श्राद्ध, नाग बलि कर्म, नारायण बलि कर्म, त्रिपिण्डी श्राद्ध, महालय श्राद्ध पक्ष में श्राद्ध कर्म उपरोक्त कर्मों हेतु विभिन्न संप्रदायों में विभिन्न प्रचलित परिपाटियाँ चली आ रही हैं। अपनी कुल-परंपरा के अनुसार पितरों की तृप्ति हेतु श्राद्ध कर्म अवश्य करना चाहिए। कैसे करें श्राद्ध कर्म महालय श्राद्ध पक्ष में पितरों के निमित्त घर में क्या कर्म करना चाहिए।

मान्य स्थान:–

गया

जब बात आती है श्राद्ध कर्म की तो बिहार स्थित गया का नाम बड़ी प्रमुखता व आदर से लिया जाता है। गया समूचे भारत वर्ष में हीं नहीं सम्पूर्ण विश्व में दो स्थान श्राद्ध तर्पण हेतु बहुत प्रसिद्द है। वह दो स्थान है बोध गया और विष्णुपद मन्दिर | विष्णुपद मंदिर वह स्थान जहां माना जाता है कि स्वयं भगवान विष्णु के चरण उपस्थित है, जिसकी पूजा करने के लिए लोग देश के कोने-कोने से आते हैं। गया में जो दूसरा सबसे प्रमुख स्थान है जिसके लिए लोग दूर दूर से आते है वह स्थान एक नदी है, उसका नाम "फल्गु नदी" है। ऐसा माना जाता है कि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम ने स्वयं इस स्थान पर अपने पिता राजा दशरथ का पिंड दान किया था। तब से यह माना जाने लगा की इस स्थान पर आकर कोई भी व्यक्ति अपने पितरो के निमित्त पिंड दान करेगा तो उसके पितृ उससे तृप्त रहेंगे और वह व्यक्ति अपने पितृऋण से उरिण हो जायेगा | इस स्थान का नाम ‘गया’ इसलिए रखा गया क्योंकि भगवान विष्णु ने यहीं के धरती पर असुर गयासुर का वध किया था। तब से इस स्थान का नाम भारत के प्रमुख तीर्थस्थानो में आता है और बड़ी ही श्रद्धा और आदर से "गया जी" बोला जाता है।


20 सितंबर 2021, सोमवार: पूर्णिमा श्राद्ध

21 सितंबर 2021, मंगलवार: प्रतिपदा श्राद्ध

22 सितंबर 2021, बुधवार: द्वितीया श्राद्ध

23 सितंबर 2021, बृहस्पतिवार: तृतीया श्राद्ध

24 सितंबर 2021, शुक्रवार: चतुर्थी श्राद्ध

25 सितंबर 2021, शनिवार: पंचमी श्राद्ध

27 सितंबर 2021, सोमवार: षष्ठी श्राद्ध

28 सितंबर 2021, मंगलवार: सप्तमी श्राद्ध

29 सितंबर 2021, बुधवार: अष्टमी श्राद्ध

30 सितंबर 2021, बृहस्पतिवार: नवमी श्राद्ध

1 अक्तूबर 2021, शुक्रवार: दशमी श्राद्ध

2 अक्तूबर 2021, शनिवार: एकादशी श्राद्ध

3 अक्तूबर 2021, रविवार: द्वादशी, सन्यासियों का श्राद्ध, मघा श्राद्ध

4 अक्तूबर 2021, सोमवार: त्रयोदशी श्राद्ध

5 अक्तूबर 2021, मंगलवार: चतुर्दशी श्राद्ध

6 अक्तूबर 2021, बुधवार: अमावस्या श्राद्ध

शुक्रवार, 10 सितंबर 2021

प्रतिदिन स्मरण योग्य शुभ सुंदर मंत्र –संग्रह––

       प्रतिदिन स्मरण योग्य शुभ सुंदर मंत्र जो आपके जीवन में अद्भुत परिवर्तन ले आएगा। 



प्रात: कर-दर्शनम्

कराग्रे वसते लक्ष्मी करमध्ये सरस्वती।

करमूले तू गोविन्दः प्रभाते करदर्शनम्॥


पृथ्वी क्षमा प्रार्थना

समुद्र वसने देवी पर्वत स्तन मंडिते।

विष्णु पत्नी नमस्तुभ्यं पाद स्पर्शं क्षमश्वमेव॥


त्रिदेवों के साथ नवग्रह स्मरण

ब्रह्मा मुरारिस्त्रिपुरान्तकारी भानु: शशी भूमिसुतो बुधश्च।

गुरुश्च शुक्र: शनिराहुकेतव: कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम्॥


स्नान मन्त्र

गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती।

नर्मदे सिन्धु कावेरी जले अस्मिन् सन्निधिम् कुरु॥


सूर्यनमस्कार

ॐ सूर्य आत्मा जगतस्तस्युषश्च

आदित्यस्य नमस्कारं ये कुर्वन्ति दिने दिने।

दीर्घमायुर्बलं वीर्यं व्याधि शोक विनाशनम्

सूर्य पादोदकं तीर्थ जठरे धारयाम्यहम्॥

ॐ मित्राय नम:

ॐ रवये नम:

ॐ सूर्याय नम:

ॐ भानवे नम:

ॐ खगाय नम:

ॐ पूष्णे नम:

ॐ हिरण्यगर्भाय नम:

ॐ मरीचये नम:

ॐ आदित्याय नम:

ॐ सवित्रे नम:

ॐ अर्काय नम:

ॐ भास्कराय नम:

ॐ श्री सवितृ सूर्यनारायणाय नम:

आदिदेव नमस्तुभ्यं प्रसीदमम् भास्कर।

दिवाकर नमस्तुभ्यं प्रभाकर नमोऽस्तु ते॥


संध्या दीप दर्शन

शुभं करोति कल्याणम् आरोग्यम् धनसंपदा।

शत्रुबुद्धिविनाशाय दीपकाय नमोऽस्तु ते॥

दीपो ज्योति परं ब्रह्म दीपो ज्योतिर्जनार्दनः।

दीपो हरतु मे पापं संध्यादीप नमोऽस्तु ते॥


गणपति स्तोत्र

गणपति: विघ्नराजो लम्बतुन्ड़ो गजानन:।

द्वै मातुरश्च हेरम्ब एकदंतो गणाधिप:॥

विनायक: चारूकर्ण: पशुपालो भवात्मज:।

द्वादश एतानि नामानि प्रात: उत्थाय य: पठेत्॥

विश्वम तस्य भवेद् वश्यम् न च विघ्नम् भवेत् क्वचित्।

विघ्नेश्वराय वरदाय शुभप्रियाय।

लम्बोदराय विकटाय गजाननाय॥

नागाननाय श्रुतियज्ञविभूषिताय।

गौरीसुताय गणनाथ नमो नमस्ते॥

शुक्लाम्बरधरं देवं शशिवर्णं चतुर्भुजं।

प्रसन्नवदनं ध्यायेतसर्वविघ्नोपशान्तये॥


आदिशक्ति वंदना

सर्वमंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।

शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते॥


शिव स्तुति

कर्पूर गौरम करुणावतारं,

संसार सारं भुजगेन्द्र हारं।

सदा वसंतं हृदयार विन्दे,

भवं भवानी सहितं नमामि॥


विष्णु स्तुति

शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं

विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्ण शुभाङ्गम्।

लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यम्

वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्॥


श्री कृष्ण स्तुति

कस्तुरी तिलकम ललाटपटले, वक्षस्थले कौस्तुभम।

नासाग्रे वरमौक्तिकम करतले, वेणु करे कंकणम॥

सर्वांगे हरिचन्दनम सुललितम, कंठे च मुक्तावलि।

गोपस्त्री परिवेश्तिथो विजयते, गोपाल चूडामणी॥

मूकं करोति वाचालं पंगुं लंघयते गिरिम्।

यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्द माधवम्॥


श्रीराम वंदना

लोकाभिरामं रणरंगधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम्।

कारुण्यरूपं करुणाकरं तं श्रीरामचन्द्रं शरणं प्रपद्ये॥


श्रीरामाष्टक

हे रामा पुरुषोत्तमा नरहरे नारायणा केशवा।

गोविन्दा गरुड़ध्वजा गुणनिधे दामोदरा माधवा॥

हे कृष्ण कमलापते यदुपते सीतापते श्रीपते।

बैकुण्ठाधिपते चराचरपते लक्ष्मीपते पाहिमाम्॥


एक श्लोकी रामायण

आदौ रामतपोवनादि गमनं हत्वा मृगं कांचनम्।

वैदेही हरणं जटायु मरणं सुग्रीवसम्भाषणम्॥

बालीनिर्दलनं समुद्रतरणं लंकापुरीदाहनम्।

पश्चाद्रावण कुम्भकर्णहननं एतद्घि श्री रामायणम्॥


सरस्वती वंदना–

या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता।

या वींणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपदमासना॥

या ब्रह्माच्युतशङ्करप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता।

सा माम पातु सरस्वती भगवती

निःशेषजाड्याऽपहा॥


हनुमान वंदना–

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहम्।

दनुजवनकृषानुम् ज्ञानिनांग्रगणयम्।

सकलगुणनिधानं वानराणामधीशम्।

रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि॥

मनोजवं मारुततुल्यवेगम जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठं।

वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणम् प्रपद्ये॥


स्वस्ति-वाचन


ॐ स्वस्ति न इंद्रो वृद्धश्रवाः

स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।

स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्ट्टनेमिः

स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥


शांति पाठ–

ऊँ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥

ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्ष (गुँ) शान्ति:,

पृथिवी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।

वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,

सर्व (गुँ) शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥


॥ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति।

बहुत ही सुंदर संग्रह है।

सच्चा मित्र हमारे कर्म हैं।

                               सच्चा मित्र कौन है ? 




एक व्यक्ति था उसके तीन मित्र थे।_

 एक मित्र ऐसा था जो सदैव साथ देता था। एक पल, एक क्षण भी बिछुड़ता नहीं था।_

 दूसरा मित्र ऐसा था जो सुबह शाम मिलता।_

 और तीसरा मित्र ऐसा था जो बहुत दिनों में जब तब मिलता।_

एक दिन कुछ ऐसा हुआ की उस व्यक्ति को अदालत में जाना था और किसी कार्यवश साथ में किसी को गवाह बनाकर साथ ले जाना था।_

 अब वह व्यक्ति अपने सब से पहले अपने उस मित्र के पास गया जो सदैव उसका साथ देता था और बोला :- "मित्र क्या तुम मेरे साथ अदालत में गवाह बनकर चल सकते हो ?_

 वह मित्र बोला :- माफ़ करो दोस्त, मुझे तो आज फुर्सत ही नहीं।_

 उस व्यक्ति ने सोचा कि यह मित्र मेरा हमेशा साथ देता था। आज मुसीबत के समय पर इसने मुझे इंकार कर दिया।_

 अब दूसरे मित्र की मुझे क्या आशा है।_

 फिर भी हिम्मत रखकर दूसरे मित्र के पास गया जो सुबह शाम मिलता था, और अपनी समस्या सुनाई।_

 दूसरे मित्र ने कहा कि :- मेरी एक शर्त है कि मैं सिर्फ अदालत के दरवाजे तक जाऊँगा, अन्दर तक नहीं।_

 वह बोला कि :- बाहर के लिये तो मै ही बहुत हूँ मुझे तो अन्दर के लिये गवाह चाहिए।_

 फिर वह थक हारकर अपने तीसरे मित्र के पास गया जो बहुत दिनों में मिलता था, और अपनी समस्या सुनाई।_

तीसरा मित्र उसकी समस्या सुनकर तुरन्त उसके साथ चल दिया।_

 अब आप सोच रहे होंगे कि... वो तीन मित्र कौन है...?

 तो चलिये हम आपको बताते है इस कथा का सार।_

जैसे हमने तीन मित्रों की बात सुनी वैसे *हर व्यक्ति के तीन मित्र होते हैं।

 सब से पहला मित्र है हमारा अपना 'शरीर'* हम जहा भी जायेंगे, शरीर रुपी पहला मित्र हमारे साथ चलता है। एक पल, एक क्षण भी हमसे दूर नहीं होता।

 दूसरा मित्र है शरीर के 'सम्बन्धी'" जैसे :- माता - पिता, भाई - बहन, मामा -चाचा इत्यादि जिनके साथ रहते हैं, जो सुबह - दोपहर शाम मिलते है।

 और तीसरा मित्र है :- हमारे 'कर्म' जो सदा ही साथ जाते है।_

अब आप सोचिये कि आत्मा जब शरीर छोड़कर धर्मराज की अदालत में जाती है, उस समय शरीर रूपी पहला मित्र एक कदम भी आगे चलकर साथ नहीं देता।* जैसे कि उस पहले मित्र ने साथ नहीं दिया।_

 दूसरा मित्र - सम्बन्धी श्मशान घाट तक यानी अदालत के दरवाजे तक "राम नाम सत्य है" कहते हुए जाते हैं तथा वहाँ से फिर वापिस लौट जाते है।

 और तीसरा मित्र आपके कर्म हैं।

 कर्म जो सदा ही साथ जाते है चाहे अच्छे हो या बुरे।

अब अगर हमारे कर्म सदा हमारे साथ चलते है तो हमको अपने कर्म पर ध्यान देना होगा अगर हम अच्छे कर्म करेंगे तो किसी भी अदालत में जाने की जरुरत नहीं होगी।

और धर्मराज भी हमारे लिए स्वर्ग का दरवाजा खोल देगा।  रामचरित मानस की पंक्तियां हैं कि..._

"काहु नहीं सुख-दुःख कर दाता।   निजकृत कर्म भोगि सब भ्राता।।"

श्री गणेश स्तुति(विनय पत्रिका)

                             श्री गणेश स्तुति
 तुलसीदास जी द्वारा रचित पुस्तक विनय पत्रिका में तुलसीदास जी ने श्रीराम जी से विनय  शुुरू करने से पहले  सभी देवी देवताओंं की स्तुति की है -
जिस में सबसे पहले गणेश जी की वंदना की है-
 गाइए गणपति जगवंदन। शंकर - सुवन भवानी नंदन॥१॥
 सिद्धि- सदन गजबदन विनायक। कृपा सिंधु सुंदर सब लायक॥२॥
 मोदक प्रिय, मुद- मंगलदाता ।विद्या-वारिधि ,बुद्धि- विधाता ॥३॥
मांगत तुलसीदास कर जोरे। बसहि रामसिय मानस मोरे॥४॥

भावार्थ - संपूर्ण जगत के वंदनीय, गणों के स्वामी श्री गणेश जी का गुणगान कीजिए, जो शिव पार्वती के पुत्र और उन को प्रसन्न करने वाले हैं ॥१॥जो सिद्धियों के स्थान हैं, जिनका हाथी का सा मुख है, जो समस्त विघ्नों के नायक हैं , यानी विघ्नों को हटाने वाले हैं, कृपा के समुंद्र हैं, सुंदर हैं, सब प्रकार से योग्य हैं॥२॥ जिन्हें लड्डू बहुत प्रिय हैं ,जो आनंद और कल्याण देने वाले हैं, विद्या के अथाह सागर हैं, बुद्धि के विधाता है॥३॥ऐसे श्री गणेश जी से यह तुलसीदास हाथ जोड़कर केवल यही वर मांगता है कि मेरे मन मंदिर में श्री सीताराम जी सदा निवास करें॥४॥
श्री सीतारामाभ्यां नम:

गुरुवार, 9 सितंबर 2021

क्रोध करने के नुकसान और परिणाम

                      क्रोध  करने के नुकसान और परिणाम


       जो व्यक्ति बदले की भावना रखता है दरअसल वो अपने ही घाव हरे रखता है। एक इंसान गुस्से में अपना मुंह खोल लेता है और आंखें बंद कर लेता है जिससे उसे कुछ दिखाई नहीं देता है और वो काले अंधेरे में कुछ भी कर बैठता है , लेकिन ध्यान रहें ये अंधेरा आपके साथ भी कुछ भी कर सकता हैं।

    गुस्सा एक तरह का पागलपन है जो बेवकूफों के दिल में ही बसता है ये एक ऐसी हवा है जो बुद्धि के दिया को बुझा देती है। कोई भी गुस्सा हो सकता है ये करना आसान है। लेकिन सही इंसान पर सही सीमा में सही समय पर और सही वजह से और सही तरीके के साथ क्रोधित होना आसान नहीं हैं।

     गुस्से के कारण की तुलना में उसके परिणाम ज्यादा जोखिम भरे होते है। क्रोध को पाले रखना किसी और पर फेकने की नियत से पकड़े रहने के जैसा है इससे आपका ही हाथ जलता हैं।

    गुस्से पर अगर काबू (control) न किया जाए तो वो जिस चोट के कारण आया हो उससे कही ज्यादा नुकसान पहुंचा सकता है। जैसे माचिश की तिल्ली किसी दुसरे को जलाने से पहले खुद को जलाती है इसी तरह गुस्सा पहले आपको बर्बाद करता है उसके बाद दुसरे को।

        मतलब, क्रोध गुस्सा करने वाले को हमेशा ज्यादा नुकसान पहुंचाता है बजाय उसके जिस पर आप गुस्सा होते है। क्रोध आने पर चिल्लाने के लिए ताकत चाहिए लेकिन क्रोध आने पर चूप रहने के लिए उससे भी ज्यादा ताकत चाहिए।

     गुस्से में बोला गया हर एक शब्द इतना ज्यादा जहरीला बन जाता है की आपकी जिंदगी की हर प्यारी बातों को एक मिनट में खत्म कर सकता है ये एक बहुत चालाक चीज है और ये हमेशा कमजोर लोगों पर ही निकलता है।

        अगर आप सही है तो आपको क्रोधित होने की जरूरत नहीं है और अगर आप गलत है तो आपको गुस्सा होने का कोई हक़ नहीं है। क्रोध एक भयानक आग की तरह है जो इंसान इस आग को वश में कर लेता है वो इसे बुझा देता है। और जो इसे वश में नहीं कर पाता है वो इस आग में खुद जल जाता है। क्रोध एक ऐसी परिस्थिति है जिसमे जीभ दिमाग से ज्यादा तेज चलती है। गुस्से में किसी को कोई जवाब न दो, बहुत खुश होने पर किसी से कभी वादा मत करो और दु:खी मन से कोई फैसला मत करो।

       जैसे उबलते हुए पानी में परछाई नहीं दिखती है वैसे ही गुस्से में कोई भी इंसान सच नहीं देख सकता। इसलिए 2 कोड़ी की बात पर 2 करोड़ का गुस्सा करना फायदे की बात नहीं ।

अगर आप क्रोध पर काबू पाना चाहते हैं तो जब हमे क्रोध आए तो क्या करें?इस पेज पर देख सकते हैं

    

सोमवार, 6 सितंबर 2021

सत्संग बड़ा है या तप

                     ------ सत्संग बड़ा है या तप ------


एक बार विश्वामित्र जी और वशिष्ठ जी में इस बात‌ पर बहस हो गई,

कि सत्संग बड़ा है या तप?

विश्वामित्र जी ने कठोर तपस्या करके ऋध्दी-सिध्दियों को प्राप्त किया था,

इसीलिए वे तप को बड़ा बता रहे थे।जबकि वशिष्ठ जी सत्संग को बड़ा बताते थे।

वे इस बात का फैसला करवाने ब्रह्मा जी के पास चले गए।

उनकी बात सुनकर ब्रह्मा जी ने कहा- मैं सृष्टि की रचना करने में व्यस्त हूं।

आप विष्णु जी के पास जाइये।

विष्णु जी आपका फैसला अवश्य कर देगें।अब दोनों विष्णु जी के पास चले गए।

विष्णु जी ने सोचा- यदि मैं सत्संग को बड़ा बताता हूं तो विश्वामित्र जी नाराज होंगे,

और यदि तप को बड़ा बताता हूं तो वशिष्ठ जी के साथ अन्याय होगा।

इसीलिए उन्होंने भी यह कहकर उन्हें टाल दिया,कि मैं सृष्टि का पालन करने मैं व्यस्त हूं।

आप शंकर जी के पास चले जाइये।अब दोनों शंकर जी के पास पहुंचे।

शंकर जी ने उनसे कहा- ये मेरे वश की बात नहीं है।इसका फैसला तो शेषनाग जी कर सकते हैं।

अब दोनों शेषनाग जी के पास गए।

शेषनाग जी ने उनसे पूछा- कहो ऋषियों! कैसे आना हुआ।

वशिष्ठ जी ने बताया- हमारा फैसला कीजिए,कि तप बड़ा है या सत्संग बड़ा है?

विश्वामित्र जी कहते हैं कि तप बड़ा है,और मैं सत्संग को बड़ा बताता हूं।

शेषनाग जी ने कहा- मैं अपने सिर पर पृथ्वी का भार उठाए हूं,

यदि आप में से कोई भी थोड़ी देर के लिए पृथ्वी के भार को उठा ले,

तो मैं आपका फैसला कर दूंगा।

तप में अहंकार होता है,और विश्वामित्र जी तपस्वी थे।

उन्होंने तुरन्त अहंकार में भरकर शेषनाग जी से कहा- पृथ्वी को आप मुझे दीजिए।

विश्वामित्र ने पृथ्वी अपने सिर पर ले ली।अब पृथ्वी नीचे की और चलने लगी।

शेषनाग जी बोले- विश्वामित्र जी! रोको।पृथ्वी रसातल को जा रही है।

विश्वामित्र जी ने कहा- मैं अपना सारा तप देता हूं,पृथ्वी रूक जा।परन्तु पृथ्वी नहीं रूकी।

ये देखकर वशिष्ठ जी ने कहा- मैं आधी घड़ी का सत्संग देता हूं,

पृथ्वी माता रूक जा। पृथ्वी वहीं रूक गई।

अब शेषनाग जी ने पृथ्वी को अपने सिर पर ले लिया,और उनको कहने लगे- अब आप जाइये।

विश्वामित्र जी कहने लगे- लेकिन हमारी बात का फैसला तो हुआ नहीं है।

शेषनाग जी बोले- विश्वामित्र जी! फैसला तो हो चुका है।

आपके पूरे जीवन का तप देने से भी पृथ्वी नहीं रूकी,

और वशिष्ठ जी के आधी घड़ी के सत्संग से ही पृथ्वी अपनी जगह पर रूक गई।

फैसला तो हो गया है कि तप से सत्संग ही बड़ा होता है। 

----- इसीलिए ------

हमें नियमित रूप से सत्संग सुनना चाहिए।कभी भी या जब भी, आस-पास कहीं सत्संग हो,उसे सुनना और उस पर अमल करना चाहिए।

------ सत्संग की आधी घड़ी ------

------ तप के वर्ष हजार ------

------ तो भी नहीं बराबरी ------

------ संतन कियो विचार ------

रामायण” क्या है??

                             “रामायण” क्या है?


अगर कभी पढ़ो और समझो तो आंसुओ पे काबू रखना.......

रामायण का एक छोटा सा वृतांत है, उसी से शायद कुछ समझा सकूँ... 

एक रात की बात हैं, माता कौशल्या जी को सोते में अपने महल की छत पर किसी के चलने की आहट सुनाई दी। 

नींद खुल गई, पूछा कौन हैं ?

मालूम पड़ा श्रुतकीर्ति जी (सबसे छोटी बहु, शत्रुघ्न जी की पत्नी)हैं ।

माता कौशल्या जी ने उन्हें नीचे बुलाया |

श्रुतकीर्ति जी आईं, चरणों में प्रणाम कर खड़ी रह गईं

माता कौशिल्या जी ने पूछा, श्रुति ! इतनी रात को अकेली छत पर क्या कर रही हो बेटी ? 

क्या नींद नहीं आ रही ?शत्रुघ्न कहाँ है ?

श्रुतिकीर्ति की आँखें भर आईं, माँ की छाती से चिपटी, 

गोद में सिमट गईं, बोलीं, माँ उन्हें तो देखे हुए तेरह वर्ष हो गए ।

उफ ! 

कौशल्या जी का ह्रदय काँप कर झटपटा गया ।

तुरंत आवाज लगाई, सेवक दौड़े आए । 

आधी रात ही पालकी तैयार हुई, आज शत्रुघ्न जी की खोज होगी, 

माँ चली ।

आपको मालूम है शत्रुघ्न जी कहाँ मिले ?

अयोध्या जी के जिस दरवाजे के बाहर भरत जी नंदिग्राम में तपस्वी होकर रहते हैं, उसी दरवाजे के भीतर एक पत्थर की शिला हैं, उसी शिला पर, अपनी बाँह का तकिया बनाकर लेटे मिले !! 

माँ सिराहने बैठ गईं, बालों में हाथ फिराया तो शत्रुघ्न जी नेआँखें खोलीं, माँ !

उठे, चरणों में गिरे, माँ ! आपने क्यों कष्ट किया ? मुझे बुलवा लिया होता ।

माँ ने कहा, शत्रुघ्न ! यहाँ क्यों ?"

शत्रुघ्न जी की रुलाई फूट पड़ी, बोले- माँ ! भैया राम जी पिताजी की आज्ञा से वन चले गए, 

भैया लक्ष्मण जी उनके पीछे चले गए, भैया भरत जी भी नंदिग्राम में हैं, क्या ये महल, ये रथ, ये राजसी वस्त्र, विधाता ने मेरे ही लिए बनाए हैं ?

माता कौशल्या जी निरुत्तर रह गईं ।

देखो क्या है ये रामकथा...

यह भोग की नहीं....त्याग की कथा हैं..!!

यहाँ त्याग की ही प्रतियोगिता चल रही हैं और सभी प्रथम हैं, कोई पीछे नहीं रहा...  चारो भाइयों का प्रेम और त्याग एक दूसरे के प्रति अद्भुत-अभिनव और अलौकिक हैं।

"रामायण" जीवन जीने की सबसे उत्तम शिक्षा देती हैं ।

भगवान राम को 14 वर्ष का वनवास हुआ तो उनकी पत्नी सीता माईया ने भी सहर्ष वनवास स्वीकार कर लिया..!!

परन्तु बचपन से ही बड़े भाई की सेवा मे रहने वाले लक्ष्मण जी कैसे राम जी से दूर हो जाते! 

माता सुमित्रा से तो उन्होंने आज्ञा ले ली थी, वन जाने की.. 

परन्तु जब पत्नी “उर्मिला” के कक्ष की ओर बढ़ रहे थे तो सोच रहे थे कि माँ ने तो आज्ञा दे दी, 

परन्तु उर्मिला को कैसे समझाऊंगा.??क्या बोलूँगा उनसे.?

यहीं सोच विचार करके लक्ष्मण जी जैसे ही अपने कक्ष में पहुंचे तो देखा कि उर्मिला जी आरती का थाल लेके खड़ी थीं और बोलीं- 

"आप मेरी चिंता छोड़ प्रभु श्रीराम की सेवा में वन को जाओ...मैं आपको नहीं रोकूँगीं। मेरे कारण आपकी सेवा में कोई बाधा न आये, इसलिये साथ जाने की जिद्द भी नहीं करूंगी।"

लक्ष्मण जी को कहने में संकोच हो रहा था.!!

परन्तु उनके कुछ कहने से पहले ही उर्मिला जी ने उन्हें संकोच से बाहर निकाल दिया..!!

वास्तव में यहीं पत्नी का धर्म है..पति संकोच में पड़े, उससे पहले ही पत्नी उसके मन की बात जानकर उसे संकोच से बाहर कर दे.!!

लक्ष्मण जी चले गये परन्तु 14 वर्ष तक उर्मिला ने एक तपस्विनी की भांति कठोर तप किया.!!

वन में “प्रभु श्री राम माता सीता” की सेवा में लक्ष्मण जी कभी सोये नहीं , परन्तु उर्मिला ने भी अपने महलों के द्वार कभी बंद नहीं किये और सारी रात जाग जागकर उस दीपक की लौ को बुझने नहीं दिया.!!

मेघनाथ से युद्ध करते हुए जब लक्ष्मण जी को “शक्ति” लग जाती है और हनुमान जी उनके लिये संजीवनी का पर्वत लेके लौट रहे होते हैं, तो बीच में जब हनुमान जी अयोध्या के ऊपर से गुजर रहे थे तो भरत जी उन्हें राक्षस समझकर बाण मारते हैं और हनुमान जी गिर जाते हैं.!!

तब हनुमान जी सारा वृत्तांत सुनाते हैं कि, सीता जी को रावण हर ले गया, लक्ष्मण जी युद्ध में मूर्छित हो गए हैं।

यह सुनते ही कौशल्या जी कहती हैं कि राम को कहना कि “लक्ष्मण” के बिना अयोध्या में पैर भी मत रखना। राम वन में ही रहे.!!

माता “सुमित्रा” कहती हैं कि राम से कहना कि कोई बात नहीं..अभी शत्रुघ्न है.!!

मैं उसे भेज दूंगी..मेरे दोनों पुत्र “राम सेवा” के लिये ही तो जन्मे हैं.!!

माताओं का प्रेम देखकर हनुमान जी की आँखों से अश्रुधारा बह रही थी। परन्तु जब उन्होंने उर्मिला जी को देखा तो सोचने लगे कि, यह क्यों एकदम शांत और प्रसन्न खड़ी हैं?

क्या इन्हें अपनी पति के प्राणों की कोई चिंता नहीं?

हनुमान जी पूछते हैं- देवी! 

आपकी प्रसन्नता का कारण क्या है? आपके पति के प्राण संकट में हैं...सूर्य उदित होते ही सूर्य कुल का दीपक बुझ जायेगा। 

उर्मिला जी का उत्तर सुनकर तीनों लोकों का कोई भी प्राणी उनकी वंदना किये बिना नहीं रह पाएगा.!!

उर्मिला बोलीं- "मेरा दीपक संकट में नहीं है, वो बुझ ही नहीं सकता.!!

रही सूर्योदय की बात तो आप चाहें तो कुछ दिन अयोध्या में विश्राम कर लीजिये, क्योंकि आपके वहां पहुंचे बिना सूर्य उदित हो ही नहीं सकता.!!

आपने कहा कि, प्रभु श्रीराम मेरे पति को अपनी गोद में लेकर बैठे हैं..!

जो “योगेश्वर प्रभु श्री राम” की गोदी में लेटा हो, काल उसे छू भी नहीं सकता..!!

यह तो वो दोनों लीला कर रहे हैं..मेरे पति जब से वन गये हैं, तबसे सोये नहीं हैं..

उन्होंने न सोने का प्रण लिया था..इसलिए वे थोड़ी देर विश्राम कर रहे हैं..और जब भगवान् की गोद मिल गयी तो थोड़ा विश्राम ज्यादा हो गया...वे उठ जायेंगे..!!

और “शक्ति” मेरे पति को लगी ही नहीं, शक्ति तो प्रभु श्री राम जी को लगी है.!!

मेरे पति की हर श्वास में राम हैं, हर धड़कन में राम, उनके रोम रोम में राम हैं, उनके खून की बूंद बूंद में राम हैं, और जब उनके शरीर और आत्मा में ही सिर्फ राम हैं, तो शक्ति राम जी को ही लगी, दर्द राम जी को ही हो रहा.!!

इसलिये हनुमान जी आप निश्चिन्त होके जाएँ..सूर्य उदित नहीं होगा।"

राम राज्य की नींव जनक जी की बेटियां ही थीं... 

कभी “सीता” तो कभी “उर्मिला”..!!

भगवान् राम ने तो केवल राम राज्य का कलश स्थापित किया ..परन्तु वास्तव में राम राज्य इन सबके प्रेम, त्याग, समर्पण और बलिदान से ही आया .!!

जिस मनुष्य में प्रेम, त्याग, समर्पण की भावना हो उस मनुष्य में राम हि बसता है... 

कभी समय मिले तो अपने वेद, पुराण, गीता, रामायण को पढ़ने और समझने का प्रयास कीजिएगा .,जीवन को एक अलग नज़रिए से देखने और जीने का तरीका मिलेगा .!!

"लक्ष्मण सा भाई हो, कौशल्या माई हो,

स्वामी तुम जैसा, मेरा रघुराइ हो.. 

नगरी हो अयोध्या सी, रघुकुल सा घराना हो, 

चरण हो राघव के, जहाँ मेरा ठिकाना हो..

हो त्याग भरत जैसा, सीता सी नारी हो, 

लव कुश के जैसी, संतान हमारी हो.. 

श्रद्धा हो श्रवण जैसी, सबरी सी भक्ति हो, 

हनुमत के जैसी निष्ठा और शक्ति हो... "

ये रामायण है, पुण्य कथा श्री राम की।


|| जय जय श्री राम ||

शुक्रवार, 3 सितंबर 2021

14 वर्ष वनवास में भगवान राम कहाँ कहाँ रुके

      14 वर्ष वनवास में भगवान राम कहाँ कहाँ रुके 


चौदह वर्ष के वनवास में श्रीराम प्रमुख रूप से '17' जगह रुके, यात्रा विवरण . . . 

पिता बचन तजि राजु उदासी। दंडक बन बिचरत अबिनासी ॥

प्रभु श्रीराम को चौदह वर्ष का वनवास हुआ। इस वनवास काल में श्रीराम ने कई ऋषि-मुनियों से शिक्षा और विद्या ग्रहण की, तपस्या की और भारत के आदिवासी, वनवासी और तमाम तरह के भारतीय समाज को संगठित कर उन्हें धर्म के मार्ग पर चलाया। संपूर्ण भारत को उन्होंने एक ही विचारधारा के सूत्र में बांधा, लेकिन इस दौरान उनके साथ कुछ ऐसा भी घटा जिसने उनके जीवन को बदल कर रख दिया।

रामायण में उल्लेखित और अनेक अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार जब भगवान राम को वनवास हुआ तब उन्होंने अपनी यात्रा अयोध्या से प्रारंभ करते हुए रामेश्वरम और उसके बाद श्रीलंका में समाप्त की। इस दौरान उनके साथ जहां भी जो घटा उनमें से 200 से अधिक घटना स्थलों की पहचान की गई है।

जाने-माने इतिहासकार और पुरातत्वशास्त्री अनुसंधानकर्ता डॉ. राम अवतार ने श्रीराम और सीता के जीवन की घटनाओं से जुड़े ऐसे 200 से भी अधिक स्थानों का पता लगाया है, जहां आज भी तत्संबंधी स्मारक स्थल विद्यमान हैं, जहां श्रीराम और सीता रुके या रहे थे। वहां के स्मारकों, भित्तिचित्रों, गुफाओं आदि स्थानों के समय-काल की जांच-पड़ताल वैज्ञानिक तरीकों से की। आओ जानते हैं कुछ प्रमुख स्थानों के नाम . . .

 1. तमसा नदी : अयोध्या से 20 किमी दूर है तमसा नदी। यहां पर उन्होंने नाव से नदी पार की।

 2. श्रृंगवेरपुर तीर्थ : प्रयागराज से 20-22 किलोमीटर दूर वे श्रृंगवेरपुर पहुंचे, जो निषादराज गुह का राज्य था। यहीं पर गंगा के तट पर उन्होंने केवट से गंगा पार करने को कहा था। श्रृंगवेरपुर को वर्तमान में सिंगरौर कहा जाता है।

 3. कुरई गांव : सिंगरौर में गंगा पार कर श्रीराम कुरई में रुके थे।

 4. प्रयाग : कुरई से आगे चलकर श्रीराम अपने भाई लक्ष्मण और पत्नी सहित प्रयाग पहुंचे थे। प्रयाग को वर्तमान में इलाहाबाद कहा जाता है। 

5. चित्रकूट : प्रभु श्रीराम ने प्रयाग संगम के समीप यमुना नदी को पार किया और फिर पहुंच गए चित्रकूट। चित्रकूट वह स्थान है, जहां राम को मनाने के लिए भरत अपनी सेना के साथ पहुंचते हैं। तब जब दशरथ का देहांत हो जाता है। भारत यहां से राम की चरण पादुका ले जाकर उनकी चरण पादुका रखकर राज्य करते हैं।

 6. सतना : चित्रकूट के पास ही सतना (मध्यप्रदेश) स्थित अत्रि ऋषि का आश्रम था। हालांकि अनुसूइया पति महर्षि अत्रि चित्रकूट के तपोवन में रहा करते थे, लेकिन सतना में 'रामवन' नामक स्थान पर भी श्रीराम रुके थे, जहां ऋषि अत्रि का एक ओर आश्रम था।

 7. दंडकारण्य: चित्रकूट से निकलकर श्रीराम घने वन में पहुंच गए। असल में यहीं था उनका वनवास। इस वन को उस काल में दंडकारण्य कहा जाता था। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र के कुछ क्षेत्रों को मिलाकर दंडकाराण्य था। दंडकारण्य में छत्तीसगढ़, ओडिशा एवं आंध्रप्रदेश राज्यों के अधिकतर हिस्से शामिल हैं। दरअसल, उड़ीसा की महानदी के इस पास से गोदावरी तक दंडकारण्य का क्षेत्र फैला हुआ था। इसी दंडकारण्य का ही हिस्सा है,आंध्रप्रदेश का एक शहर भद्राचलम। गोदावरी नदी के तट पर बसा यह शहर सीता-रामचंद्र मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। यह मंदिर भद्रगिरि पर्वत पर है। कहा जाता है कि श्रीराम ने अपने वनवास के दौरान कुछ दिन इस भद्रगिरि पर्वत पर ही बिताए थे। स्थानीय मान्यता के मुताबिक दंडकारण्य के आकाश में ही रावण और जटायु का युद्ध हुआ था और जटायु के कुछ अंग दंडकारण्य में आ गिरे थे। ऐसा माना जाता है कि दुनियाभर में सिर्फ यहीं पर जटायु का एकमात्र मंदिर है।

 8. पंचवटी नासिक : दण्डकारण्य में मुनियों के आश्रमों में रहने के बाद श्रीराम अगस्त्य मुनि के आश्रम गए। यह आश्रम नासिक के पंचवटी क्षे‍त्र में है जो गोदावरी नदी के किनारे बसा है। यहीं पर लक्ष्मण ने शूर्पणखा की नाक काटी थी। राम-लक्ष्मण ने खर व दूषण के साथ युद्ध किया था। गिद्धराज जटायु से श्रीराम की मैत्री भी यहीं हुई थी। वाल्मीकि रामायण, अरण्यकांड में पंचवटी का मनोहर वर्णन मिलता है।

 9. सर्वतीर्थ : नासिक क्षेत्र में शूर्पणखा, मारीच और खर व दूषण के वध के बाद ही रावण ने सीता का हरण किया और जटायु का भी वध किया था जिसकी स्मृति नासिक से 56 किमी दूर ताकेड गांव में 'सर्वतीर्थ' नामक स्थान पर आज भी संरक्षित है। जटायु की मृत्यु सर्वतीर्थ नाम के स्थान पर हुई, जो नासिक जिले के इगतपुरी तहसील के ताकेड गांव में मौजूद है। इस स्थान को सर्वतीर्थ इसलिए कहा गया, क्योंकि यहीं पर मरणासन्न जटायु ने सीता माता के बारे में बताया। रामजी ने यहां जटायु का अंतिम संस्कार करके पिता और जटायु का श्राद्ध-तर्पण किया था। इसी तीर्थ पर लक्ष्मण रेखा थी।

 10. पर्णशाला: पर्णशाला आंध्रप्रदेश में खम्माम जिले के भद्राचलम में स्थित है। रामालय से लगभग 1 घंटे की दूरी पर स्थित पर्णशाला को 'पनशाला' या 'पनसाला' भी कहते हैं। पर्णशाला गोदावरी नदी के तट पर स्थित है। मान्यता है कि यही वह स्थान है, जहां से सीताजी का हरण हुआ था। हालांकि कुछ मानते हैं कि इस स्थान पर रावण ने अपना विमान उतारा था। इस स्थल से ही रावण ने सीता को पुष्पक विमान में बिठाया था यानी सीताजी ने धरती यहां छोड़ी थी। इसी से वास्तविक हरण का स्थल यह माना जाता है। यहां पर राम-सीता का प्राचीन मंदिर है।

 11. तुंगभद्रा : सर्वतीर्थ और पर्णशाला के बाद श्रीराम-लक्ष्मण सीता की खोज में तुंगभद्रा तथा कावेरी नदियों के क्षेत्र में पहुंच गए। तुंगभद्रा एवं कावेरी नदी क्षेत्रों के अनेक स्थलों पर वे सीता की खोज में गए।

 12. शबरी का आश्रम : तुंगभद्रा और कावेरी नदी को पार करते हुए राम और लक्ष्‍मण चले सीता की खोज में। जटायु और कबंध से मिलने के पश्‍चात वे ऋष्यमूक पर्वत पहुंचे। रास्ते में वे पम्पा नदी के पास शबरी आश्रम भी गए, जो आजकल केरल में स्थित है। शबरी जाति से भीलनी थीं और उनका नाम था श्रमणा। 'पम्पा' तुंगभद्रा नदी का पुराना नाम है। इसी नदी के किनारे पर हम्पी बसा हुआ है। पौराणिक ग्रंथ 'रामायण' में हम्पी का उल्लेख वानर राज्य किष्किंधा की राजधानी के तौर पर किया गया है। केरल का प्रसिद्ध 'सबरिमलय मंदिर' तीर्थ इसी नदी के तट पर स्थित है।

 13. ऋष्यमूक पर्वत : मलय पर्वत और चंदन वनों को पार करते हुए वे ऋष्यमूक पर्वत की ओर बढ़े। यहां उन्होंने हनुमान और सुग्रीव से भेंट की, सीता के आभूषणों को देखा और श्रीराम ने बाली का वध किया। ऋष्यमूक पर्वत वाल्मीकि रामायण में वर्णित वानरों की राजधानी किष्किंधा के निकट स्थित था। ऋष्यमूक पर्वत तथा किष्किंधा नगर कर्नाटक के हम्पी, जिला बेल्लारी में स्थित है। पास की पहाड़ी को 'मतंग पर्वत' माना जाता है। इसी पर्वत पर मतंग ऋषि का आश्रम था जो हनुमानजी के गुरु थे।

 14. कोडीकरई : हनुमान और सुग्रीव से मिलने के बाद श्रीराम ने वानर सेना का गठन किया और लंका की ओर चल पड़े। तमिलनाडु की एक लंबी तटरेखा है, जो लगभग 1,000 किमी तक विस्‍तारित है। कोडीकरई समुद्र तट वेलांकनी के दक्षिण में स्थित है, जो पूर्व में बंगाल की खाड़ी और दक्षिण में पाल्‍क स्‍ट्रेट से घिरा हुआ है। यहां श्रीराम की सेना ने पड़ाव डाला और श्रीराम ने अपनी सेना को कोडीकरई में एकत्रित कर विचार विमर्ष किया। लेकिन राम की सेना ने उस स्थान के सर्वेक्षण के बाद जाना कि यहां से समुद्र को पार नहीं किया जा सकता और यह स्थान पुल बनाने के लिए उचित भी नहीं है, तब श्रीराम की सेना ने रामेश्वरम की ओर कूच किया।

 15. रामेश्‍वरम : रामेश्‍वरम समुद्र तट एक शांत समुद्र तट है और यहां का छिछला पानी तैरने और सन बेदिंग के लिए आदर्श है। रामेश्‍वरम प्रसिद्ध हिन्दू तीर्थ केंद्र है। महाकाव्‍य रामायण के अनुसार भगवान श्रीराम ने लंका पर चढ़ाई करने के पहले यहां भगवान शिव की पूजा की थी। रामेश्वरम का शिवलिंग श्रीराम द्वारा स्थापित शिवलिंग है।

 16. धनुषकोडी : वाल्मीकि के अनुसार तीन दिन की खोजबीन के बाद श्रीराम ने रामेश्वरम के आगे समुद्र में वह स्थान ढूंढ़ निकाला, जहां से आसानी से श्रीलंका पहुंचा जा सकता हो। उन्होंने नल और नील की मदद से उक्त स्थान से लंका तक का पुनर्निर्माण करने का फैसला लिया। धनुषकोडी भारत के तमिलनाडु राज्‍य के पूर्वी तट पर रामेश्वरम द्वीप के दक्षिणी किनारे पर स्थित एक गांव है। धनुषकोडी पंबन के दक्षिण-पूर्व में स्थित है। धनुषकोडी श्रीलंका में तलैमन्‍नार से करीब 18 मील पश्‍चिम में है।

इसका नाम धनुषकोडी इसलिए है कि यहां से श्रीलंका तक वानर सेना के माध्यम से नल और नील ने जो पुल (रामसेतु) बनाया था उसका आकार मार्ग धनुष के समान ही है। इन पूरे इलाकों को मन्नार समुद्री क्षेत्र के अंतर्गत माना जाता है। धनुषकोडी ही भारत और श्रीलंका के बीच एकमात्र स्‍थलीय सीमा है, जहां समुद्र नदी की गहराई जितना है जिसमें कहीं-कहीं भूमि नजर आती है।

17. 'नुवारा एलिया' पर्वत श्रृंखला : वाल्मीकिय-रामायण अनुसार श्रीलंका के मध्य में रावण का महल था। 'नुवारा एलिया' पहाड़ियों से लगभग 90 किलोमीटर दूर बांद्रवेला की तरफ मध्य लंका की ऊंची पहाड़ियों के बीचोबीच सुरंगों तथा गुफाओं के भंवरजाल मिलते हैं। यहां ऐसे कई पुरातात्विक अवशेष मिलते हैं जिनकी कार्बन डेटिंग से इनका काल निकाला गया है।

श्रीलंका में नुआरा एलिया पहाड़ियों के आसपास स्थित रावण फॉल, रावण गुफाएं, अशोक वाटिका, खंडहर हो चुके विभीषण के महल आदि की पुरातात्विक जांच से इनके रामायण काल के होने की पुष्टि होती है। आजकल भी इन स्थानों की भौगोलिक विशेषताएं, जीव, वनस्पति तथा स्मारक आदि बिलकुल वैसे ही हैं जैसे कि रामायण में वर्णित किए गए हैं।

श्रीवाल्मीकि ने रामायण की संरचना श्रीराम के राज्याभिषेक के बाद वर्ष 5075 ईपू के आसपास की होगी (1/4/1 -2)। श्रुति स्मृति की प्रथा के माध्यम से पीढ़ी-दर-पीढ़ी परिचलित रहने के बाद वर्ष 1000 ईपू के आसपास इसको लिखित रूप दिया गया होगा। इस निष्कर्ष के बहुत से प्रमाण मिलते हैं। रामायण की कहानी के संदर्भ निम्नलिखित रूप में उपलब्ध हैं-

कौटिल्य का अर्थशास्त्र (चौथी शताब्दी ईपू)

 बौ‍द्ध साहित्य में दशरथ जातक (तीसरी शताब्दी ईपू)

कौशाम्बी में खुदाई में मिलीं टेराकोटा (पक्की मिट्‍टी) की मूर्तियां (दूसरी शताब्दी ईपू)

नागार्जुनकोंडा (आंध्रप्रदेश) में खुदाई में मिले स्टोन पैनल (तीसरी शताब्दी)

नचार खेड़ा (हरियाणा) में मिले टेराकोटा पैनल (चौथी शताब्दी)

श्रीलंका के प्रसिद्ध कवि कुमार दास की काव्य रचना 'जानकी हरण' (सातवीं शताब्दी।

प्रणाम का महत्व

                                   प्रणाम का महत्व

       महाभारत का युद्ध चल रहा था -

     एक दिन दुर्योधन के व्यंग्य से आहत होकर "भीष्म पितामह" घोषणा कर देते हैं कि -

"मैं कल पांडवों का वध कर दूँगा"

        उनकी घोषणा का पता चलते ही पांडवों के शिविर में बेचैनी बढ़ गई -

    भीष्म की क्षमताओं के बारे में सभी को पता था इसलिए सभी किसी अनिष्ट की आशंका से परेशान हो गए|        

तब -श्रीकृष्ण ने द्रौपदी से कहा अभी मेरे साथ चलो -

   श्रीकृष्ण द्रौपदी को लेकर सीधे भीष्म पितामह के शिविर में पहुँच गए -

  शिविर के बाहर खड़े होकर उन्होंने द्रोपदी से कहा कि - अन्दर जाकर पितामह को प्रणाम करो -

      द्रौपदी ने अन्दर जाकर पितामह भीष्म को प्रणाम किया तो उन्होंने– "अखंड सौभाग्यवती भव" का आशीर्वाद दे दिया , फिर उन्होंने द्रोपदी से पूछा कि !!

   "वत्स, तुम इतनी रात में अकेली यहाँ कैसे आई हो, क्या तुमको श्रीकृष्ण यहाँ लेकर आये है" ?

  तब द्रोपदी ने कहा कि -

     "हां और वे कक्ष के बाहर खड़े हैं" तब भीष्म भी कक्ष के बाहर आ गए और दोनों ने एक दूसरे से प्रणाम किया -

भीष्म जी ने कहा -

"मेरे एक वचन को मेरे ही दूसरे वचन से काट देने का काम श्रीकृष्ण ही कर सकते है"

   शिविर से वापस लौटते समय श्रीकृष्ण ने द्रौपदी से कहा कि -

     "तुम्हारे एक बार जाकर पितामह को प्रणाम करने से तुम्हारे पतियों को जीवनदान मिल गया है "

      " अगर तुम प्रतिदिन भीष्म, धृतराष्ट्र, द्रोणाचार्य, आदि को प्रणाम करती होती और दुर्योधन- दुःशासन, आदि की पत्नियां भी पांडवों को प्रणाम करती होंती, तो शायद इस युद्ध की नौबत ही न आती "

तात्पर्य्......

   वर्तमान में हमारे घरों में जो इतनी समस्याए हैं उनका भी मूल कारण यही है कि -

    जाने अनजाने अक्सर घर के बड़ों की उपेक्षा हो जाती है 

    "यदि घर के बच्चे और बहुएँ प्रतिदिन घर के सभी बड़ों को प्रणाम कर उनका आशीर्वाद लें तो, शायद किसी भी घर में कभी कोई क्लेश न हो  बड़ों के दिए आशीर्वाद कवच की तरह काम करते हैं उनको कोई "अस्त्र-शस्त्र" नहीं भेद सकता -

    निवेदन–  सभी इस संस्कृति को सुनिश्चित कर नियमबद्ध करें तो घर स्वर्ग बन जाय।"


              क्योंकि–:

        प्रणाम प्रेम है।

        प्रणाम अनुशासन है।

        प्रणाम शीतलता है।                 

        प्रणाम आदर सिखाता है।

        प्रणाम से सुविचार आते है।

        प्रणाम झुकना सिखाता है।

        प्रणाम क्रोध मिटाता है।

        प्रणाम आँसू धो देता है।

        प्रणाम अहंकार मिटाता है।

        प्रणाम हमारी संस्कृति है।

    सबको प्रणाम

जब रुक्मिणी और राधिका मिली?

 कभी सूरदास ने एक स्वप्न देखा था कि रुक्मिणी और राधिका मिली हैं और एक दूजे पर न्योछावर हुई जा रही हैं।

     


सोचता हूँ, कैसा होगा वह क्षण जब दोनों ठकुरानियाँ मिली होंगी। दोनों ने प्रेम किया था। एक ने बालक कन्हैया से, दूसरे ने राजनीतिज्ञ कृष्ण से। एक को अपनी मनमोहक बातों के जाल में फँसा लेने वाला कन्हैया मिला था, और दूसरे को मिले थे सुदर्शन चक्र धारी, महायोद्धा कृष्ण।

कृष्ण राधिका के बाल सखा थे, पर राधिका का दुर्भाग्य था कि उन्होंने कृष्ण को तात्कालिक विश्व की महाशक्ति बनते नहीं देखा। राधिका को न महाभारत के कुचक्र जाल को सुलझाते चतुर कृष्ण मिले, न पौंड्रक-शिशुपाल का वध करते बाहुबली कृष्ण मिले।

रुक्मिणी कृष्ण की पत्नी थीं, पटरानी थीं, महारानी थीं, पर उन्होंने कृष्ण की वह लीला नहीं देखी जिसके लिए विश्व कृष्ण को स्मरण रखता है। उन्होंने न माखन चोर को देखा, न गौ-चरवाहे को। उनके हिस्से में न बाँसुरी आयी, न माखन।


कितनी अद्भुत लीला है। राधिका के लिए कृष्ण कन्हैया था, रुक्मिणी के लिए कन्हैया कृष्ण थे। पत्नी होने के बाद भी रुक्मिणी को कृष्ण उतने नहीं मिले कि वे उन्हें "तुम" कह पातीं। आप से तुम तक की इस यात्रा को पूरा कर लेना ही प्रेम का चरम पा लेना है। रुख्मिनी कभी यह यात्रा पूरी नहीं कर सकीं।


राधिका की यात्रा प्रारम्भ ही 'तुम' से हुई थीं। उन्होंने प्रारम्भ ही "चरम" से किया था। शायद तभी उन्हें कृष्ण नहीं मिले।

कितना अजीब है न! कृष्ण जिसे नहीं मिले, युगों युगों से आजतक उसी के हैं, और जिसे मिले उसे मिले ही नहीं।

तभी कहता हूँ, कृष्ण को पाने का प्रयास मत कीजिये। पाने का प्रयास कीजियेगा तो कभी नहीं मिलेंगे। बस प्रेम कर के छोड़ दीजिए, जीवन भर साथ निभाएंगे कृष्ण। कृष्ण इस सृष्टि के सबसे अच्छे मित्र हैं। राधिका हों या सुदामा, कृष्ण ने मित्रता निभाई तो ऐसी निभाई कि इतिहास बन गया।

राधा और रुक्मिणी जब मिली होंगी तो रुक्मिणी राधा के वस्त्रों में माखन की गंध ढूंढती होंगी, और राधा ने रुक्मिणी के आभूषणों में कृष्ण का वैभव तलाशा होगा। कौन जाने मिला भी या नहीं। सबकुछ कहाँ मिलता है मनुष्य को...  कुछ न कुछ तो छूटता ही रहता है।

जितनी चीज़ें कृष्ण से छूटीं उतनी तो किसी से नहीं छूटीं। कृष्ण से उनकी माँ छूटी, पिता छूटे, फिर जो नंद-यशोदा मिले वे भी छूटे। संगी-साथी छूटे। राधा छूटीं। गोकुल छूटा, फिर मथुरा छूटी। कृष्ण से जीवन भर कुछ न कुछ छूटता ही रहा। कृष्ण जीवन भर त्याग करते रहे। हमारी आज की पीढ़ी जो कुछ भी छूटने पर टूटने लगती है, उसे कृष्ण को गुरु बना लेना चाहिए। जो कृष्ण को समझ लेगा वह कभी अवसाद में नहीं जाएगा। कृष्ण आनंद के देवता है। कुछ छूटने पर भी कैसे खुश रहा जा सकता है, यह कृष्ण से अच्छा कोई सिखा ही नहीं सकता। महागुरु था कन्हैया... श्री कृष्ण।।

राम कथा का सार...जिस घर में भाई भाई मिलकर रहते हैं––

 राम कथा का सार...जिस घर में भाई भाई मिलकर रहते हैं––


भाई-भाई "विपत्ति" बांटने के लिए होते है ...

न कि "सम्पति" का बंटवारा करने के लिए ...

राम, लखन, भरत, शत्रुघ्न भाईयो का बचपन का एक प्रसंग है ...

जब ये लोग गेंद खेलते थे । तो लक्ष्मण, राम की साइड उनके पीछे होता था , और सामने वाले पाले में भरत, शत्रुघ्न होते थे । तब लक्ष्मण हमेशा भरत को बोलते राम भैया सबसे ज्यादा मुझे प्यार करते है, तभी वो हर बार अपने पाले में अपने साथ मुझे रखते है। लेकिन भरत कहते नहीं राम भैया सबसे ज्यादा मुझे प्यार करते है तभी वो मुझे सामने वाले पाले में रखते है, ताकि हर पल उनकी नजरें मेरे ऊपर रहे, वो मुझे हर पल देख पाए , क्योंकि साथ वाले को देखने के लिए तो उनको मुड़ना पड़ेगा ।

फिर जब भरत गेंद को राम की तरफ उछालते तो राम जानबूझ कर गेंद को छोड़ देते और हार जाते , फिर पूरे नगर में उपहार और मिठाईयां बांटते खुशी मनाते । सब पूछते राम जी आप तो हार गए फिर आप इतने खुश क्यों है, राम बोलते मेरा भरत जीत गया । फिर लोग सोचते जब हारने वाला इतना कुछ बांट रहा है तो जितने वाला भाई तो पता नहीं क्या -क्या देगा .....लोग भरत जी के पास जाते है । लेकिन ये क्या भरत तो लंबे लंबे आंसू बहाते हुए रो रहे है । लोगो ने पूछा भरत जी आप तो जीत गए है फिर आप क्यों रो रहे है ? भरत बोले देखिये मेरी कैसी विडंबना है मैं जब भी अपने प्रभु के सामने होता हूँ तभी जीत जाता हूँ । मैं उनसे जीतना नहीं, मैं उनको अपना सब हारना चाहता हूं । मैं खुद को हार कर उनको जीतना चाहता हूं ... इसलिए कहते है भक्त का कल्याण भगवान को अपना सब कुछ हारने में है , सब कुछ समर्पण करके ही हम भगवान को पा सकते है ....एक भाई दूसरे भाई को जीता कर खुश है ।

दूसरा भाई अपने भाई से जीत कर दुखी है । इसलिए कहते है खुशी लेने में नही देने में है ....

जिस घर मे भाई -भाई मिल कर रहते है । भाई -भाई एक दूसरे का हक नहीं छीनते उसी घर मे राम का वास है ...जहां बड़ो की इज्जत है ।

।।जय सिया राम।।

रविवार, 29 अगस्त 2021

रोना हो तो भगवान के लिए ही रोयें......

                                  श्री हरिः शरणम् 



रोना हो तो भगवान के लिए ही रोयें......

पूज्य हरिबाबा से एक भक्त ने कहाः 

"महाराज ! यह अभागा, पापी मन रूपये पैसों के लिए तो रोता पिटता हैलेकिन भगवान अपना आत्मा हैं, फिर भी आज तक नहीं मिलि इसके लिए रोता नहीं है। 

क्या करें ?" 

पूज्य बाबा - "रोना नहीं आता तो झूठमूठ में ही रो ले।" 

"महाराज ! झूठमूठ में भी रोना नहीं आता है तो क्या करें ?" 

महाराज दयालु थे। उन्होंने भगवान के विरह की दो बातें कहीं। 

विरह की बात करते-करते उन्होंने बीच में ही कहा कि 

"चलो, झूठमूठ में रोओ।" 

सबने झूठमूठ में रोना चालू किया तो देखते-देखते भक्तों में सच्चा भाव जग गया। 

झूठा संसार सच्चा आकर्षण पैदा करके चौरासी के चक्कर में डाल देता है तो भगवान के लिए झूठमूठ में रोना सच्चा विरह पैदा करके हृदय में प्रेमाभक्ति भी जगा देता है। 

अनुराग इस भावना का नाम है कि भगवान हमसे बड़ा स्नेह करते हैं, 

हम पर बड़ी भारी कृपा रखते हैं। हम उनको नहीं देखते पर वे हमको देखते रहते हैं। 

हम उनको भूल जाते हैं पर वे हमको नहीं भूलते। हमने उनसे नाता- रिश्ता तोड़ लिया है पर उन्होंने हमसे अपना नाता- रिश्ता नहीं तोड़ा है।

हम उनके प्रति कृतघ्न हैं पर हमारे ऊपर उनके उपकारों की सीमा नहीं है। 

भगवान हमारी कृतघ्नता के बावजूद हमसे प्रेम करते हैं, 

हमको अपनी गोद में रखते हैं, हमको देखते रहते हैं, हमारा पालन-पोषण करते रहते हैं।' इस प्रकार की भावना ही प्रेम का मूल है।

अगर तुम यह मानते हो कि 'मैं भगवान से बहुत प्रेम करता हूँ लेकिन भगवान नहीं करते' तो तुम्हारा प्रेम खोखला है। 

अपने प्रेम की अपेक्षा प्रेमास्पद के प्रेम को अधिक मानने से ही प्रेम बढ़ता है। 

कैसे भी करके कभी प्रेम की मधुमय सरिता में गोता मारो तो कभी विरह की। 

दिल की झरोखे में झुरमुट के पीछे से जो टुकुर-टुकुर देख रहे हैं दिलबर दाता, उन्हें विरह में पुकारोः

'हे नाथ !.... हे देव !... हे रक्षक-पोषक प्रभु !..... 

टुकुर-टुकुर दिल के झरोखे से देखने वाले देव !.... 

प्रभुदेव !... ओ देव !... मेरे देव !.... 

प्यारे देव !..... 

तेरी प्रीति, तेरी भक्ति दे..... 

हम तो तुझी से माँगेंगे, क्या बाजार से लेंगे ? 

कुछ तो बोलो प्रभु !...' कैसे भी उन्हें पुकारो। 

वे बड़े दयालु हैं। वे जरूर अपनी करूणा- वरूणा का एहसास करायेंगे। 

तुलसी अपने राम को रीझ भजो या खीज। 

भूमि फैंके उगेंगे,उलटे सीधे बीज।

।।श्री राधे।।


सोमवार, 23 अगस्त 2021

रामजी के ऊपर हनुमान जी का कर्ज़ा.

                              . हनुमान जी का कर्ज़ा ...



राम जी लंका पर विजय प्राप्त करके आए तो कुछ दिन पश्चात राम जी ने विभीषण, जामवंत, सुग्रीव और अंगद आदि को अयोध्या से विदा कर दिया। 

तो सब ने सोचा हनुमान जी को प्रभु बाद में विदा करेंगे, लेकिन राम जी ने हनुमान जी को विदा ही नहीं किया। 

अब प्रजा बात बनाने लगी कि क्या बात है कि सब गए परन्तु अयोध्या से हनुमान जी नहीं गये।

अब दरबार में कानाफूसी शुरू हुई कि हनुमान जी से कौन कहे जाने के लिए, तो सबसे पहले माता सीता जी की बारी आई कि आप ही बोलो कि हनुमान जी चले जायें।

माता सीता बोलीं मै तो लंका में विकल पड़ी थी, मेरा तो एक-एक दिन एक-एक कल्प के समान बीत रहा था।

वो तो हनुमान जी थे, जो प्रभु मुद्रिका ले के गये, और धीरज बंधवाया कि...!

कछुक दिवस जननी धरु धीरा।

कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा।।

निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं।

तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं॥

मैं तो अपने बेटे से बिल्कुल भी नहीं बोलूंगी अयोध्या छोड़कर जाने के लिए, आप किसी और से बुलावा लो।

अब बारी आई लखन जी की। तो लक्ष्मण जी ने कहा, मै तो लंका के रणभूमि में वैसे ही मरणासन्न अवस्था में पड़ा था।  पूरा राम दल विलाप कर रहा था।

प्रभु प्रलाप सुनि कान बिकल भए बानर निकर।

आइ गयउ हनुमान जिमि करुना महँ बीर रस।।

ये तो जो खड़ा है, वो हनुमान जी का लक्ष्मण है। मैं कैसे बोलूं, किस मुंह से बोलूं कि हनुमान जी अयोध्या से चले जाएं।

अब बारी आयी भरत जी की। अरे! भरत जी तो इतना रोये, कि राम जी को अयोध्या से निकलवाने का कलंक तो वैसे ही लगा है मुझ पे। हनुमान जी का, सब मिलके और लगवा दो।

और दूसरी बात ये कि...!

बीतें अवधि रहहिं जौं प्राना।

अधम कवन जग मोहि समाना॥

मैंने तो नंदीग्राम में ही अपनी चिता लगा ली थी, वो तो हनुमान जी थे जिन्होंने आकर ये खबर दी कि...!

रिपु रन जीति सुजस सुर गावत।

सीता सहित अनुज प्रभु आवत॥

मैं तो बिल्कुल न बोलूं हनुमान जी से अयोध्या छोड़कर चले जाओ, आप किसी और से बुलवा लो।

अब बचा कौन..? सिर्फ शत्रुघ्न भैया। जैसे ही सब ने उनकी तरफ देखा, तो शत्रुघ्न भैया बोल पड़े.. 

मैंने तो पूरी रामायण में कहीं नहीं बोला, तो आज ही क्यों बुलवा रहे हो, और वो भी हनुमान जी को अयोध्या से निकलने के लिए। 

जिन्होंने माता सीता, लखन भैया, भरत भैया सब के प्राणों को संकट से उबारा हो, किसी अच्छे काम के लिए कहते बोल भी देता। मै तो बिल्कुल भी न बोलूं।

अब बचे तो मेरे राघवेन्द्र सरकार... 

माता सीता ने कहा प्रभु! आप तो तीनों लोकों के स्वामी हो, और देखती हूं आप हनुमान जी से सकुचाते हैं। और आप खुद भी कहते हो कि...!

प्रति उपकार करौं का तोरा।

सनमुख होइ न सकत मन मोरा॥

आखिर आप के लिए क्या अदेय है प्रभु ! 

राघव जी ने कहा, देवी क़र्ज़दार जो हूं, हनुमान जी का, इसीलिए तो..

सनमुख होइ न सकत मन मोरा

देवी ! हनुमान जी का कर्ज़ा उतारना आसान नहीं है, इतनी सामर्थ राम में नहीं है, जो "राम नाम" में है। 

क्योंकि कर्ज़ा उतारना भी तो बराबरी का ही पड़ेगा न...! यदि सुनना चाहती हो तो सुनो - हनुमान जी का कर्ज़ा कैसे उतारा जा सकता है।


पहले हनुमान विवाह करें,

लंकेश हरें इनकी जब नारी।

मुंदरी लै रघुनाथ चले,

निज पौरुष लांघि अगम्य जे वारी।

आयि कहें, सुधि सोच हरें,

तन से, मन से होई जाएं उपकारी।

तब रघुनाथ चुकायि सकें,

ऐसी हनुमान की दिव्य उधारी।।

देवी ! इतना आसान नहीं है, हनुमान जी का कर्ज़ा चुकाना। मैंने ऐसे ही नहीं कहा था कि...!

  "सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहीं"

मैंने बहुत सोच विचार कर कहा था। लेकिन यदि आप कहती हो तो कल राज्य सभा में बोलूंगा कि हनुमान जी भी कुछ मांग लें।

दूसरे दिन राज्य सभा में सब एकत्र हुए, सब बड़े उत्सुक थे कि हनुमान जी क्या मांगेंगे, और राम जी क्या देंगे।

राघव जी ने कहा ! हनुमान सब लोगों ने मेरी बहुत सहायता की और मैंने, सब को कोई न कोई पद दे दिया। 

विभीषण और सुग्रीव को क्रमशः लंका और किष्कन्धा का राजपद, अंगद को युवराज पद। तो तुम भी अपनी इच्छा बताओ...?

हनुमान जी बोले ! प्रभु आप ने जितने नाम गिनाए, उन सब को एक एक पद मिला है, और आप कहते हो...!

तैं मम प्रिय लछिमन ते दूना

तो फिर यदि मैं दो पद मांगू तो..?

सब लोग सोचने लगे बात तो हनुमान जी भी ठीक ही कह रहे हैं। 

राम जी ने कहा ! ठीक है, मांग लो।

सब लोग बहुत खुश हुए कि आज हनुमान जी का कर्ज़ा चुकता हो जायेगा।

हनुमान जी ने कहा ! प्रभु जो पद आप ने सबको दिए हैं, उनके पद में राजमद हो सकता है, तो मुझे उस तरह के पद नहीं चाहिए, जिसमें राजमद की शंका हो।

तो फिर...! आप को कौन सा पद चाहिए ?

हनुमान जी ने राम जी के दोनों चरण पकड़ लिए, प्रभु ..! हनुमान को तो बस यही दो पद चाहिए।

हनुमत सम नहीं कोउ बड़भागी।

नहीं कोउ रामचरण  अनुरागी।

यह प्रेरक प्रसंग भी किसी ने भेजा है.

रामायण की कथा से .

पढ़ कर मन शांत ,प्रसन्न हो उठता हैl


ऊँ की ध्वनि का महत्व जानिये

                     ऊँ की ध्वनि का महत्व जानिये



एक घडी,आधी घडी,आधी में पुनि आध,,,,,,,

तुलसी चरचा राम की, हरै कोटि अपराध,,,,,,।

   1 घड़ी= 24मिनट

 1/2घडी़=12मिनट

 1/4घडी़=6 मिनट

क्या ऐसा हो सकता है कि 6 मि. में किसी साधन से करोडों विकार दूर हो सकते हैं।

   उत्तर है "हाँ, हो सकते हैं।

वैज्ञानिक शोध करके पता चला है कि......

 सिर्फ 6 मिनट ऊँ का उच्चारण करने से सैकडौं रोग ठीक हो जाते हैं जो दवा से भी इतनी जल्दी ठीक नहीं होते.........

 छः मिनट ऊँ का उच्चारण करने से मस्तिष्क मै विषेश वाइब्रेशन (कम्पन) होता है.... और औक्सीजन का प्रवाह पर्याप्त होने लगता है।

 कई मस्तिष्क रोग दूर होते हैं.. स्ट्रेस और टेन्शन दूर होती है,,,, मैमोरी पावर बढती है..।

लगातार सुबह शाम 6 मिनट ॐ के तीन माह तक उच्चारण से रक्त संचार संतुलित होता है और रक्त में औक्सीजन लेबल बढता है।

  रक्त चाप , हृदय रोग, कोलस्ट्रोल जैसे रोग ठीक हो जाते हैं....।

विशेष ऊर्जा का संचार होता है ......... मात्र 2 सप्ताह दोनों समय ॐ के उच्चारण से घबराहट, बेचैनी, भय, एंग्जाइटी जैसे रोग दूर होते हैं।

कंठ में विशेष कंपन होता है मांसपेशियों को शक्ति मिलती है..। थाइराइड, गले की सूजन दूर होती है और स्वर दोष दूर होने लगते हैं..।

पेट में भी विशेष वाइब्रेशन और दबाव होता है....। एक माह तक दिन में तीन बार 6 मिनट तक ॐ के उच्चारण से,पाचन तन्त्र , लीवर, आँतों को शक्ति प्राप्त होती है, और डाइजेशन सही होता है, सैकडौं उदर रोग दूर होते हैं..।

उच्च स्तर का प्राणायाम होता है, और फेफड़ों में विशेष कंपन होता है..।

फेफड़े मजबूत होते हैं, स्वसनतंत्र की शक्ति बढती है, 6 माह में  अस्थमा, राजयक्ष्मा (T.B.) जैसे रोगों में लाभ होता है।

आयु बढती है।

ये सारे रिसर्च (शोध) विश्व स्तर के वैज्ञानिक स्वीकार कर चुके हैं।

   जरूरत है छः मिनट रोज करने की....।

   नोट:- ॐ का उच्चारण लम्बे स्वर में करे।

शनिवार, 21 अगस्त 2021

कृष्णजी की कृपा मिल जायेगी अगर


कृष्णजी की कृपा मिल जायेगी           



कृष्णजी की कृपा मिल जायेगी अगर आप रोज तीन बार या कम से कम एक बार निम्नलिखित श्लोक पढे :-


गोवर्धनधरं वन्दे गोपालं गोपरुपिणम |

गोकुलोत्सवमिशानं गोविन्दं गोपिका प्रियं | |


हे प्रभु ! हे गिरीराज धर ! गोवर्धन को अपने हाथ में धारण करने वाले हे हरि ! 

मेरी भक्ति और विश्वास को भी आप ही धारण करना | 

प्रभु आपकी कृपा से ही मेरे जीवन में भक्ति बनी रहेगी, आपकी कृपा से ही मेरे जीवन में भी विश्वास रूपी गोवर्धन मेरी रक्षा करता रहेगा | 

हे गोवर्धनधारी आपको मेरा प्रणाम है आप समर्थ होते हुए भी साधारण बालक की तरह लीला करते थे | 

गोकुल में आपके कारण सदैव उत्सव छाया रहता था । 

मेरे ह्रदय में भी हमेशा उत्सव छाया रहे । साधना में, सेवा-सुमिरन में मेरा उसाह कभी कम न हो | मै जप, साधना सेवा, करते हुए कभी थकूँ नहीं | मेरी इन्द्रियों में संसार का आकर्षण न हो, मैं आँख से आपको ही देखने कि इच्छा रखूं, कानों से आपकी वाणी सुनने की इच्छा रखूं, जीभ के द्वारा आपका नाम जपने की इच्छा रखूं ! 

हे गोविन्द ! आप गोपियों के प्यारे हो ! ऐसी कृपा करो, ऐसी सदबुद्धि दो कि मेरी इन्द्रियां आपको ही चाहे, 

संसार की चाह न हो, आपकी ही चाह हो !

रामायण मे एक घास के तिनके का रहस्य

 


रामायण मे एक घास के तिनके का भी रहस्य है,जो हर किसी को नहीं मालूम क्योंकि आज तक किसी ने हमारे ग्रंथो को समझने की कोशिश नहीं की,सिर्फ पढ़ा है, देखा है,और सुना है,आज आप के समक्ष ऐसा ही एक रहस्य बताया जा रहा हैं–

रावण ने जब माँ सीता जी का हरण करके लंका ले गया, 

तब लंका मे सीता जी वट व्रक्ष के नीचे बैठ कर चिंतन करने लगी,

रावण बार बार आकर माँ सीता जी को धमकाता था 

लेकिन माँ सीता जी कुछ नहीं बोलती थी,यहाँ तक की रावण 

ने श्री राम जी के वेश भूषा मे आकर माँ सीता जी को भी 

भ्रमित करने की कोशिश की लेकिन फिर भी सफल नहीं हुआ,

रावण थक हार कर जब अपने शयन कक्ष मे गया तो मंदोदरी 

बोली आप ने तो राम का वेश धर कर गया था फिर क्या हुआ,

रावण बोला जब मैं राम का रूप लेकर सीता के समक्ष गया तो सीता मुझे नजर ही नहीं आ रही थी !

रावण अपनी समस्त ताकत लगा चुका था लेकिन जगत जननी माँ को आज तक कोई नहीं समझ सका फिर रावण भी कैसे समझ पाता !

रावण एक बार फिर आया और बोला मैं तुमसे सीधे सीधे संवाद करता हूँ लेकिन तुम कैसी नारी हो कि मेरे आते ही घास का तिनका उठाकर उसे ही घूर –घूर कर देखने लगती हो,

क्या घास का तिनका तुम्हें राम से भी ज्यादा प्यारा है रावण के 

इस प्रश्न को सुनकर माँ सीता जी बिलकुल चुप हो गयी,और आँख से आसुओं की धार बह पड़ी

अब इस प्रश्न का उत्तर समझो-

जब श्री राम जी का विवाह माँ सीता जी के साथ हुआ,तब सीता जी का बड़े आदर सत्कार के साथ गृह प्रवेश भी हुआ बहुत उत्सव मनाया गया,

जैसे की एक प्रथा है कि नव वधू जब ससुराल आती है तो उस नववधू के हाथ से कुछ मीठा पकवान बनवाया जाता है,ताकि जीवन भर घर पर मिठास बनी रहे !

इसलिए माँ सीता जी ने उस दिन अपने हाथो से घर पर खीर बनाई और समस्त परिवार राजा दशरथ सहित चारो भ्राता और ऋषि संत भी भोजन पर आमंत्रित थे ,

माँ सीता ने सभी को खीर परोसना शुरू किया, और भोजन शुरू होने ही वाला था की ज़ोर से एक हवा का झोका आया सभी ने अपनी अपनी पत्तल सम्हाली,सीता जी देख रही थी,

ठीक उसी समय राजा दशरथ जी की खीर पर एक छोटा सा घास का तिनका गिर गया,माँ सीता जी ने उस तिनके को देख लिया,लेकिन अब खीर मे हाथ कैसे डालें ये प्रश्न आ गया,

माँ सीता जी ने दूर से ही उस तिनके को घूर कर जो देखा, तो वो तिनका जल कर राख की एक छोटी सी बिंदु बनकर रह गया,

सीता जी ने सोचा अच्छा हुआ किसी ने नहीं देखा, लेकिन राजा दशरथ माँ सीता जी का यह चमत्कार को देख रहे थे,फिर भी दशरथ जी चुप रहे और अपने कक्ष मे चले गए और माँ सीता जी को बुलवाया !

फिर राजा दशरथ बोले मैंने आज भोजन के समय आप के चमत्कार को देख लिया था ,आप साक्षात जगत जननी का दूसरा रूप हैं,लेकिन एक बात आप मेरी जरूर याद रखना

आपने जिस नजर से आज उस तिनके को देखा था उस नजर से आप अपने शत्रु को भी मत देखना,

इसीलिए माँ सीता जी के सामने जब भी रावण आता था तो वो उस घास के तिनके को उठाकर राजा दशरथ जी की बात याद कर लेती थी,

यही है उस तिनके का रहस्य ! 

मात सीता जी चाहती तो रावण को जगह पर ही राख़ कर सकती थी लेकिन राजा दशरथ जी को दिये वचन की 

वजह से वो शांत रही।

।।श्री सीता राम।।

शुक्रवार, 20 अगस्त 2021

कथा सुनने के चार लाभ है.....

                       कथा सुनने के चार लाभ है.....



श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारी हे नाथ नारायण वासुदेव ।।

वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥

कथा सुनने के चार लाभ है......

भागवत की कथा अर्थात भगवान की कथा तो है ही पर भगवान की कथा बिना भक्तो की कथा के अधूरी है।

इसलिए हर शास्त्र में पुराण में भगवान की कथा के साथ साथ भक्तो की कथा भी आती है.नवधा भक्ति में सबसे पहली भक्ति श्रवण ही है।

जो हम कानो से सुनते है वही हमारे ह्रदय में प्रवेश करता है,और फिर वही हम बोलते है.यदि हम कथा सुनते है तो मुख से कथा ही निकलेगी.

"जिन्ह हरि कथा सुनी नहीं काना, श्रवण रन्ध्र अहि भवन समाना”


संतजन कथा सुनने के चार लाभ बताते है-

1. - तृष्णा रहित वृति

2. - अन्तः करण की शुद्धि

3. - अनन्य भक्ति

भक्तो से प्रीति–

1. तृष्णा रहित वृति - यदि कथा ईमानदारी से कही और सुनी जाए तो दोनों कहने और सुनने वाले को कुछ ओर पाने की अभिलाषा नहीं रह जाती।

इसलिए सुनने वह ये निश्चय करके कथा में बैठे कि कथा मनोरजन नहीं है,मनो मंथन है.कथा एक आईना है,

जिसमे हम स्वयं को देखने आये है,सामान्य आईना सिर्फ बाहरी रूप रंग दिखाता है और कथा आतंरिक भावों को दिखाती है,कि हम वास्तव में क्या है।

और सुनानेवाले अर्थात वक्ता कथा को व्यापार या रोजी रोटी का साधन न समझे.सुनने वाला तो एक ही काम कर रहा है,केवल सुन ही रहा है पर वक्ता दो काम एक साथ कर रहा है एक तो सुना रहा है साथ साथ सुन भी रहा है.जब ऐसी ईमानदारी रखेगे तो फिर तृष्णा रहित वृति हो जाती है।

2. अन्तःकरण की शुद्धि - सत्संग कथा झाड़ू है जैसे खुला मैदान है दो तीन बार झाड़ू लगा दो सब साफ़ हो जाता है,इसलिए अपने अतः करण में सत्संग की झाड़ू लगाते रहो,

जैसे यदि हम कुछ दिनों के लिए कही बाहर जाते है और लौट कर आने पर हम देखते है कि जब हम गए थे तब सब खिडकी दरवाजे बंद करके गए थे फिर भी धूल कैसे आ गई।

इसी तरह यदि कोई संत ही क्यों न हो यदि उसने सत्संग के दरवाजे बंद कर दिए तो उनके अंदर भी मैल ,धूल जमा हो जाती है।

इसलिए जैसे घर को साफ रखने के लिए बार बार झाड़ू लगाते है वैसे ही अंत करण को शुद्ध रखने के लिए कथा रूपी,सत्संग रूपी झाड़ू लगाते रहिये।

3. अनन्य भक्ति - जब किसी के बारे में सुनते रहते है जिसे हमने कभी नहीं देखा तो बार बार उसके बारे में सुनते रहने से स्वतः ही हमारे अंदर उसके लिए प्रेम जाग्रत हो जाता है।

इसी तरह जब हम बार बार कथा सुनते है तो ठाकुर जी के चरणों में हमारी स्वतः ही भक्ति जाग्रत हो जाती है.जैसे लोभी को धन कामी को स्त्री ऐसे ही हमें श्यामा श्याम प्यारे लगने लगते है।

4. भक्तो से प्रीति - भक्त तो भगवान से सदा ही प्रार्थना करता है कि हे नाथ ऐसे विषयी पुरुष जो केवल स्त्री धन पुत्र आदि में लगे हुए है उनका संग भी स्वप्न में भी न हो हमारा कोई अपराध हो तो सूली पर चढा दो ,हलाहल विष पिला दो ,हाथी के नीचे कुचलवा दो, सिंह को खिला दो,

इतना होने पर भी दुःख नहीं मिलेगा पर जो संत से विमुख है,हरि से विमुख है ,गुरु से विमुख है जो भगवान और भक्तो से प्रेम न करता हो, उनसे हमारा कोई सम्बन्ध ना हो।

श्री राधे 

सोमवार, 16 अगस्त 2021

महादेव जी को एक बार बिना कारण के किसी को प्रणाम करते देखकर पार्वती जी ने पूछा आप किसको प्रणाम करते रहते हैं

 महादेव जी को एक बार बिना कारण के किसी को प्रणाम करते देखकर पार्वती जी ने पूछा आप किसको प्रणाम करते रहते हैं?



शिव जी पार्वती जी से कहते हैं कि हे देवी ! जो व्यक्ति एक बार  राम कहता है उसे मैं तीन बार प्रणाम करता हूँ। 

पार्वती जी ने एक बार शिव जी से पूछा आप श्मशान में क्यूँ जाते हैं और ये चिता की भस्म शरीर पे क्यूँ लगाते हैं?

उसी समय शिवजी पार्वती जी को श्मशान ले गए। वहाँ एक शव अंतिम संस्कार के लिए लाया गया। लोग राम नाम सत्य है* कहते हुए शव को ला रहे थे। 

शिव जी ने कहा कि देखो पार्वती ! इस श्मशान की ओर जब लोग आते हैं तो राम नाम का स्मरण करते हुए आते हैं। और इस शव के निमित्त से कई लोगों के मुख से मेरा अतिप्रिय दिव्य राम नाम निकलता है उसी को सुनने मैं श्मशान में आता हूँ, और इतने लोगों के मुख से राम नाम का जप करवाने में निमित्त बनने वाले इस शव का मैं सम्मान करता हूँ, प्रणाम करता हूँ, और अग्नि में जलने के बाद उसकी भस्म को अपने शरीर पर लगा लेता हूँ।

 राम नाम बुलवाने वाले के प्रति मुझे अगाध प्रेम रहता है। 

एक बार शिवजी कैलाश पर पहुंचे और पार्वती जी से भोजन माँगा। पार्वती जी विष्णु सहस्रनाम का पाठ कर रहीं थीं। पार्वती जी ने कहा अभी पाठ पूरा नही हुआ, कृपया थोड़ी देर प्रतीक्षा कीजिए।

 शिव जी ने कहा कि इसमें तो समय और श्रम दोनों लगेंगे। संत लोग जिस तरह से सहस्र नाम को छोटा कर लेते हैं और नित्य जपते हैं वैसा उपाय कर लो। 

पार्वती जी ने पूछा वो उपाय कैसे करते हैं? मैं सुनना चाहती हूँ। 

शिव जी ने बताया, केवल एक बार राम कह लो तुम्हें सहस्र नाम, भगवान के एक हज़ार नाम लेने का फल मिल जाएगा। 

एक राम नाम हज़ार दिव्य नामों के समान है। 

पार्वती जी ने वैसा ही किया। 

पार्वत्युवाच –

केनोपायेन लघुना विष्णोर्नाम सहस्रकं?

पठ्यते पण्डितैर्नित्यम् श्रोतुमिच्छाम्यहं प्रभो।।

ईश्वर उवाच-

श्री राम राम रामेति, रमे रामे मनोरमे।

सहस्र नाम तत्तुल्यम राम नाम वरानने।।

यह राम नाम सभी आपदाओं को हरने वाला, सभी सम्पदाओं को देने वाला दाता है, सारे संसार को विश्राम/शान्ति प्रदान करने वाला है। इसीलिए मैं इसे बार बार प्रणाम करता हूँ। 

आपदामपहर्तारम् दातारम् सर्वसंपदाम्।

लोकाभिरामम् श्रीरामम् भूयो भूयो नमयहम्।

 भव सागर के सभी समस्याओं और दुःख के बीजों को भूंज के रख देनेवाला/समूल नष्ट कर देने वाला, सुख संपत्तियों को अर्जित करने वाला, यम दूतों को खदेड़ने/भगाने वाला केवल *राम* नाम का गर्जन(जप) है। 

भर्जनम् भव बीजानाम्, अर्जनम् सुख सम्पदाम्।

तर्जनम् यम दूतानाम्, राम रामेति गर्जनम्।

प्रयास पूर्वक स्वयम् भी *राम* नाम जपते रहना चाहिए और दूसरों को भी प्रेरित करके *राम* नाम जपवाना चाहिए। इस से अपना और दूसरों का तुरन्त कल्याण हो जाता है। यही सबसे सुलभ और अचूक उपाय है। 

 इसीलिए हमारे देश में प्रणाम–

 'राम राम' कहकर किया जाता है। 

जय जय श्री राम

श्री हरि का नाम सुनते ही या कन्हैया का नाम सुनते ही उससे मिलने की, उसको पाने की तड़प होने लगे उसी का नाम प्रेम है।

          प्रेम के दो रुप हैं; एक प्यास और एक तृप्ति



श्री हरि का नाम सुनते ही या कन्हैया का नाम सुनते ही उससे मिलने की, उसको पाने की तड़प होने लगे उसी का नाम प्रेम है।

नन्दनन्दन, श्यामसुन्दर, मुरलीमनोहर,पीताम्बरधारी–

जिनके मुखारविन्द पर मन्द-मन्द मुस्कान है।

सिर पर मयूर-पिच्छ का मुकुट, गले में पीताम्बर, ठुमुक-ठुमुककर चलने वाला, बाँसुरी बजाने वाला जो मनमोहन प्राणप्यारा है,

उसको प्राप्त करने की इच्छा, उत्कंठा, व्याकुलता, तड़प जब अपने ह्रदय को दग्ध करने लगे, तब समझो कि प्यास जगी

और जब उसकी बात सुनकर, उसकी याद आने से, उसके लिये कोई कार्य करने से अपने ह्रदय में रस का प्राकट्य हो, अनुभव हो तब इसे तृप्ति कहते हैं।

श्रीहरि को ढूँढ़ने के लिये निकले और पानी में उतरे ही नहीं, किनारे पर ही बैठे रहे, इसका नाम प्यास नहीं है और जब प्यास ही नहीं तो तृप्ति कैसी?

कहीं हम स्वयं को ही तो मृग-मरीचिका के भ्रम में नहीं डाल रहे ! श्री हरी से प्रेम तो है पर उनको पाने की साधना में आलस है या रुचि नहीं है। मेहनत नहीं करना चाहते हैं।

आनन्द के लिये प्यास और आनन्द की प्राप्ति पर तृप्ति !

संयोग और वियोग--प्रेम इन दोनों को लेकर चलता है। ईश्वर को मानना अलग बात है और उनसे प्रेम करना अलग !

श्रीहरि को याद करना अलग है और उनके वियोग में, उनकी प्राप्ति के लिये व्याकुल होना अलग बात है।

भक्ति वहाँ से प्रारम्भ होती है, जहाँ से श्रीहरि के स्मरण में, श्रीहरि के भजन में, श्रीहरि की लीला-कथाओं के श्रवण में, श्रीहरि के सेवन में रस का ह्रदय में प्राकट्य होता है,

आनन्द का प्राकट्य होता है। प्रेम की उत्तरोत्तर वृद्धि के लिये संयोग और वियोग दोनों ही आवश्यक हैं।

वियोग न हुआ तो कैसे जानोगे कि क्या पाया था !

तड़प कैसे उठेगी फ़िर उसे पाने के लिये ! मूल्य तो वियोग के बाद ही मालूम हुआ ! अब फ़िर पाना है पहले से अधिक व्याकुलता, तड़प के साथ ! अब जो मिला तो आनन्द और अधिक बढ़ गया !

यही मनमोहन, सांवरे घनश्याम की प्रेम को उत्तरोत्तर बढ़ाने वाली लीला है

 जिसमें भगवान और भक्त दोनों ही एक-दूसरे के आनन्द को बढ़ाने के लिये संयोग और वियोग के झूले में झूलते रहते हैं।

अजब लीला है कि दोनों ही दृष्टा हैं और दोनों ही दृश्य !

दोनों ही परस्पर एक-दूसरे को अधिकाधिक सुख देना चाहते हैं !

दोनों ही दाता और दोनों ही भिक्षुक !

प्रेम ऐसा ही होता है।

चूँकि प्रेम ईश्वर ही है सो यह अधरामृत है ! अधरामृत ? अ+धरा+अमृत ! जो अमृत धरा का नहीं है; यह जागतिक तुच्छ वासना नहीं है,

जिसे हम सामान्य भाषा में प्रेम कह देते हैं। प्रेमी होना बड़ा दुष्कर है।

।।जय श्री राधे।।

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