/ "ईश्वर के साथ हमारा संबंध: सरल ज्ञान और अनुभव: 2014

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बुधवार, 31 दिसंबर 2014

bhakt himmtdas





भक्त  हिम्मतदास 

भगवान सदा अपने भक्तो का ध्यान रखते हैं। उनके बड़े से बड़े कष्टो को पलमात्र में नष्ट कर देते हैं, परन्तु वह उन्ही भक्तो का साथ देते हैं जो पूर्णरूप से प्रभु के चरणो में समर्पित हो जाते हैं। ऐसे ही प्रभु  के कृपापात्र हुए हैं -भक्त हिम्मतदास।

    हिम्मतदास और उनकी पत्नी में अगाध प्रेम था। दोनों ही भगवान के प्रति पूर्ण समर्पित थे। एकबार लक्ष्मीजी ने भगवान से पूछा कि महाराज  क्या आपसे बड़ा भी कोई हैं ? भगवान विष्णु ने सरल भाव से कहा -हाँ हैं , वह हैं हमारा भक्त। लक्ष्मीजी ने कहा -तब तो वे रिश्ते में मेरे जेठ हुए। जेठ अथवा ससुर से नारियो में पर्दे का विधान हैं अत:मैं भी आपके भक्तो से पर्दा करती रहूंगी। आप देखते हैं कि  जो भगवान का सच्चा भक्त होता हैं वह लक्ष्मीजी की कृपा से तो वंचित रहता हैं परन्तु प्रभु  की कृपा का पात्र बन जाता हैं , और प्रभु उसके सभी कष्टो को दूर करने के लिए वैसा ही रूप धारण कर लेते हैं , जिससे उसके कष्ट दूर हो।
इसी प्रकार भक्त हिम्मतदास भी अपनी पत्नी के साथ प्रभु चरणो में लीन होकर राम नाम जपते थे तथा साधु संतो को भगवान का रूप मानकर उनकी सेवा में दिन रात तल्लीन रहते थे। परन्तु लक्ष्मीजी की कृपा से वंचित थे।
                 एक दिन संत हिम्मतदास के घर में कुछ संत आगए , और उन्होंने भोजन की इच्छा  प्रगट की। उस समय संत हिम्मतदास के पास स्वंय के खाने के लिए कुछ नहीं था, तो वह संतो को कहा से खिलाते परन्तु फिर भी संतो को बड़े आदर सत्कार के साथ आसन दिया। संतो को बिठाकर भक्त अंदर गया और अपनी पत्नी से सलाह करने लगा कि संतो की भोजन की व्यवस्था कैसे हो। पत्नी बोली -आप चिंता क्यों करते हो ? दुकानवाले सेठ आपके व्यवहारी हैं। आप उनसे आटा -दाल उधार ले  आइये , जिससे संतो की सेवा हो जाएगी। भक्त हिम्मतदास सेठ के पास आटा -दाल  उधार  लेने चले गए।
        सेठ को अपनी व्यथा सुनाई , परन्तु सेठ ने उधार देने से मना कर दिया और पहले वाली उधारी चुकाने के लिए बोला। निराश होकर भक्त घर आ गया , और पत्नी को सब बात बताई। भक्त की पत्नी कमरे में गई और बक्से में खोजने लगी कि कुछ मिल जाए तभी उन्हें अपने मायके की नथ  दिखी उन्होंने उस नथ को अपने पति को दिया और भोजन की सामग्री लाने को कहा।
भक्त ने वह नथ  गिरवी रख कर समान ला दिया। भक्त ने अपनी पत्नी से कहा तुम आँगन लीप देना इतने मैं संतो को स्नान करवा कर लाता हूँ। उनकी पत्नी आँगन लीपने लगी। उधर ठाकुरजी को अपने भक्त की दशा देखकर दुःख हुआ और वह संत हिम्मतदास का रूप बना कर सेठ के पास पहुंचे और अपने भक्त की उधारी चुकाई और नथ  लेकर  अपने भक्त के घर आये। संत हिम्मतदास की पत्नी को नाथ देने लगे , संत की पत्नी ने कहा कि मेरे हाथो में मिटटी लगी हैं अत :तुम ही पहना दो ठाकुरजी ने अपने हाथों से पहना दी और बोले तुम भोजन तैयार करो ,मैं संतो को लेकर आता हूँ और रस्ते में ही अंतर्धान हो गए। उधर संत हिम्मतदास संतो को लेकर आया , पत्नी को नथ पहने देख हैरान हो गया और बोला यह नथ तो मैं सेठ को गिरवी रख कर आया था  तुम्हारे पास कहाँ से आ गई। उनकी पत्नी ने कहा की अभी आपने ही तो पहनाई हैं और आटा , दाल , चावल की बोरियां रखकर गए थे। संत हिम्मतदास हैरान हो गया। संतो को भोजन करवा कर अंत में सेठ के पास गया और सेठ से नथ के बारे में पूछा तो सेठ ने कहाँ कि तुम ही तो आये थे। भक्त हिम्मतदास समझ गया कि आज फिरसे नरसी का भात भरने वाला फिर से हिम्मतदास बन गया। धन्य हो प्रभु आपसे अपने भक्तो की कठनाई नहीं देखी  जाती। अब तो भक्त हिम्मतदास और उनकी पत्नी संतो की सेवा करते हुए प्रभु भक्ति में लीन रहने लगे और अंत में प्रभु की कृपा से सदगति को प्राप्त हुए। 

रविवार, 21 दिसंबर 2014

धीरे धीरे रे मना धीरे सब कुछ होय

धीरे -धीरे रे मना धीरे सब कुछ होय। 


                                             
धीरे. -धीरे एक- एक सीढ़ी  पर चढ़ने वाले को गिरने का भय  नहीं रहता। ऊपर चढ़ने में देर अवश्य लगती हैं पर वह अपनी मंजिल तक पहुचँ  ही जाता हैं। ज्ञानी पुरुष वह हैं  अपनी बुद्धि  से काम ले किसी भी काम को करनेसे पहले उसके परिणाम को सोच लेना चहिये, यही बुद्धिमानी की निशानी हैं। यदि तुम्हे अपनी बुद्धि  पर भरोसा नहीं तो अपने आपको भगवान  के चरणो में सौंप दो। जिस तरह नासमझ बच्चा माँ की गोद  में जाकर निर्भय हो जाता है।  माता अपने बच्चे के सुख -दुःख का भार अपने ऊपर लेकर उसकी रक्षा करती हैं। 
          तुम भी भगवान पर भरोसा करके निर्भय हो जाओ। सोच लो वो जो भी करेंगे तुम्हारे भले के लिए ही करेंगे। जो कुछ भी वह तुम्हे दे , उसे प्रसन्नता पूर्वक लो। दूसरे के सुख वैभव  देखकर मन मत ललचाओ। अपने भाग्य को मत धिक्कारो। सोच लो कि जितना तुम भोग सकते  हो , उतना ही भगवान ने तुम्हे दे रखा हैं। जिस तरह माँ के चार बच्चे हैं उनको वह समान ही प्यार करती हैं। अगर उसमे से एक बीमार हो जाता हैं  तो वह  समानता रखते हुए भी बीमार बच्चे कोकड़वी दवाई पिलाएगी। अगर वह मिठाई की चाह  करेगा तो वह उसकी जिद पूरी नहीं करेगी , क्योंकि माँ जानती हैं की उसके बच्चे के हित  के लिए क्या अच्छा हैं , और क्या नहीं। ऐसे ही हम दुसरो के सुख वैभव को देखकर अपने को दुखी करे , भगवान को भला -बुरा कहे , तो यह हमारी मूर्खता होगी। 
         दुःख  कड़वी दवा के सामान हैं , जिसे देखते ही हम अबोध बच्चे की तरह हाथ -पांव मारने लगते हैं , अपने भाग्य को कोसते हैं ;यह नहीं समझते दयालु प्रभु ने हमारी भलाई के लिए ही यह कड़वी दवाई भेजी हैं। तुम मानो  या न मानो हमारी  बढ़ती    
इच्छा ही हमारी  बीमारी का कारण हैं। यह जब बढ़ती जाती हैं तो हमे भले -बुरे का ज्ञान नहीं रहता। जिस पर प्रभु की कृपा 
दृष्टि हो जाती हैं उसे जल्द ही ठोकर लग जाती हैं और वह सँभल जाता हैं ,इसलिए  जितना जल्दी हो सके अपनी इच्छाओ का दमन करो और जहाँ तक हो सके उन से दूर रहने की कौशिश करो। 
           मानो या न मानो जितना तुम्हे जरूरत हैं तुम्हे उतना दे रखा हैं। छोटे -से -छोटे कीड़े का भी पेट भरते हैं वह। 
           शरीर में गर्मी का रहना जरुरी हैं यह कौन नहीं जानता ,जब यही गर्मी जरूरत से ज्यादा बड़ जाती हैं  तो लोग इसे बुखार कहने  लगते हैं। इसी प्रकार जितनी तुम्हारी शरीर की जरूरत हैं उससे अधिक की इच्छाए भी एक बुखार की तरह हैं। इनसे जितना दूर रहो उतना ही अच्छा हैं। नही तो यह इच्छाए  एक दिन तुम्हारे लिए मृत्यु का बहाना कर देंगी।
             एक लक्खुमल था -पता नही , माँ -बाप ने क्या सोचकर उनका यह नाम रख दिया पर लक्खू को यह लगता था कि यह नाम उसके लखपति बनने की निशानी हैं। भगवान ने खाने पीने को पर्याप्त दे रखा था दो जीव थे पति और पत्नी। मजे में गुजारा हो रहा था। पर लखपति बनने के चक्कर में खाना -पीना हराम हो गया।  इतना पैसा कैसे प्राप्त हो बस यही चिंता रहने लगी। धीरे -धीरे पैसा जमा करेंगे तो जीवन बीत जाएगा इसलिए  जल्दी लखपति बनने के चक्कर में सट्टे  सहारा लिया घर में जो जमा पूंजी थी वो लगा दी जीत गए , हौसला बढा तो जीती हुई रकम सारी  फिर लगा दी। लक्खू जी एक ही दिन में लखपति बन गए खुशी के मारे चीख उठे और ठंडे हो गए। लोगो ने संभाला  सेठ जी ठण्डे हो चुके थे। मृत्यु को उनकी दौड़ भाई नहीं। जो तुम्हारे पास हैं उसमे संतोष करो ,उसी में आनंद हैं। भगवान के कृपा -पात्र बने रहोगे और सुख का अनुभव करोगे।
                                                                                             श्री  राधे !

गुरुवार, 18 दिसंबर 2014

देवयानी कौन थी भाग 2

देवयानी कौन थी ?भाग २


कच  ने मृत संजीवनी विद्या को सीखकर जीवित होकर शुक्राचार्य का पेट फाड़कर बाहर निकल कर ,शुक्राचार्य को भी जीवित कर लिया। कच ने एक हजार वर्ष की तपस्या पूरी करने के पश्चात दीक्षा लेकर स्वर्ग जाने की अनुमति शुक्राचार्य से मांगी। गुरु से आज्ञा लेकर स्वर्ग को प्रस्थान करते हुए कच  के समक्ष देवयानी आई , देवयानी ने करबद्ध होकर प्राथर्ना की कि  मैं आपसेप्रेम करती हूँ एंव आपसे शादी करना चाहती हूँ। 
कच ने विन्रम भाव से कहा कि  मैं आपसे शादी नहीं कर सकता क्योंकि एक तो आप गुरु पुत्री हैं , दूसरा मेरा पुनर्जन्म आपके पिता के पेट से हुआ हैं इसलिए आप मेरी बहन हुई। आप ही विचार कीजिये आपका विवाह मेरे साथ धर्म मर्यादा के विरुद्ध हुआ कि  नहीं। 
वृहष्पति पुत्र के द्वारा ठुकराए जाने से आहत व अपमानित देवयानी ने क्रोधित होते हुए कहा -मेरे प्रेम का आपने निरादर किया हैं    
इसीलिए मैं आपको श्राप देती हूँ कि  मेरे पिता द्वारा सिखाई गई विद्या आपके किसी काम नहीं आएगी। 
कच बोले मैं आपके द्वारा दिए गए इस श्राप को शिरोधार्य करता हूँ , विद्या मैने स्वंय के लिए ग्रहण नहीं की , किन्तु मैं जिसे भी इस विद्या का ज्ञान दूंगा वह अवश्य ही लाभन्वित होगा। हे देवी ! आपने काम के वशीभूत होकर मुझे श्राप दिया हैं , अतः मैं आपको श्राप देता हूँ कि  कोई भी ब्रह्मण आपका वरण  नहीं करेगा। इतना कहकर कच  स्वर्ग को प्रस्थान कर गए। 

बुधवार, 17 दिसंबर 2014

devyani kaun thi ?



देवयानी कौन थी

राजस्थान में एक सरोवर हैं जिसका नाम हैं देवदानी। इसका असली नाम हैं देवयानी।देवयानी का नाम क्यों पड़ा तथा देवयानी कौन थी ? यह निश्चित रूप से जिज्ञासा का विषय हैं। प्राचीन समय की बात हैं देव और दानवो में युद्ध चल रहा था। देवताओ के गुरु वृहस्पतिजी और दानवो के गुरु शुक्राचार्य अपनी अपनी सेना का प्रतिनिधत्व कर रहे थे युद्ध में दोनों और से प्रतिदिन देव और दानवो का वध हो रहा था , किन्तु राक्षस सेना में कोई भी कमी न होते देख देवताओ को चिंता हुई। दैत्य गुरु अपनी मृत संजीवनी विद्या से तुरंत जीवित कर लेते थे। देव गुरु वृहस्पतिजी के पास ऐसी कोई विद्या नहीं थी , ऐसे में चिंतित देवता एकत्रित होकर वृस्पतिजी के पुत्र कच  के पास गए। उन्होंने प्राथर्ना की कि और कहा -हे गुरु पुत्र हम सब आपकी शरण में हैं , आपको विदित हैं की शुक्राचर्य पास मृत संजीवनी विद्या हैं जिसके कारण राक्षस दुबारा जीवित  जाते हैं। आपको देवताओ के सम्मान , प्रतिष्ठा और रक्षा हेतु उनकी शरण में जाकर यह विद्या सीखनी होगी। 
देवताओ के आग्रह को स्वीकार करते हुए कच  दैत्य गुरु की शरण में गए और विनती की-हे दैत्य गुरु मैं  वृहस्पति का पुत्र कच  हूँ , आपसे विद्या प्राप्ति का संकल्प लेकर उपस्थित हुआ हूँ। मैं एक हजार वर्ष तक ब्रह्मचार्य  का पालन करते हुए आपसे विद्या प्राप्त करने का संकल्प लेकर आया हूँ। शुक्राचर्य ने कच को अपने आश्रम में रहने व् विद्या प्राप्त करने की अनुमति  दे दी , कच शुक्राचार्य  के साथ घोर -साधना में लीन हो गए। 
लगभग ५०० वर्ष व्यतीत होने पर देत्यो को कच के आगमन  और  विद्या प्राप्ति का  पता चल गया। देत्यो ने गुरु के समक्ष अपने संदेह व कच के उद्देश्य  को उजागर किया पर दैत्य  गुरु मौन रहे। राक्षस कच  को मारने का षड्यंत्र रचने लगे। योजना के अनुसार  जब कच  जंगल में गाय चराने गए तो देत्यो ने उनकी हत्या करके उनके शव के टुकड़े करके भेडियो को खिला दिया 
संध्या के समय गाय  के साथ कच  को न देख शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी  चिंता व्यक्त की। पुत्री की चिंता को देखते हुए शुक्राचार्य ने तपस्या के द्वारा सब बातो का पता लगा लिया। शुक्राचार्य ने भेड़िये के पेट से कच के शरीर के टुकड़ो को निकाल कर  मृतसंजीवनी विद्या के द्वारा उसको जीवित कर लिया। ऐसा छल देत्यो ने दो बार किया परन्तु गुरु की मर्यादा को ध्यान में रखते हुए दोनों बार जीवित कर  दिया। 
एक बार फिर देत्यो ने षड्यंत्र के तहत कच के  शव को जला दिया और उसकी भस्म को शराब में मिलाकर गुरु शुक्राचर्य को ही पिला दिया। शुक्राचार्य ने कच को न पाकर उसका आव्हान किया तो कच ने बताया कि मैं आपके पेट में हूँ। तब शुक्राचार्य ने कहा कि तुम ध्यानपूर्वक यह विद्या सीखो और मेरे पेट को फाड़कर बाहर निकल कर मुझे भी जीवित कर देना। कच ने यही किया।शेष कल:–

मंगलवार, 23 सितंबर 2014

मनुष्य के कल्याण में सबसे बड़ा बाधक

मनुष्य के कल्याण में सबसे बड़ा बाधक


(ब्रह्मलीन परम श्रधेय श्री जय दयालजी गोयन्दका)
मनुष्य के कल्याण में सबसे प्रधान बाधक बुद्धि ,मन और इन्द्रियों के द्वारा विषयों में आसक्त होकर उन सबके आधीन हो जाना ही हैं |जब तक मन वश में नही होता ,तब तक परमात्मा की प्राप्ति होना बहुत ही कठिन हैं | भगवान कहते हैं -
जिसका मन वश में नहीं हुआ हैं ,ऐसे पुरुष द्वारा योग प्राप्त होना मुश्किल हैं |
अत: मन को वश में करने के लिए शास्त्रों में बहुत से उपाय बताए हुए हैं ,उनमे से किसी भी एक को अपना कर मन को वश में करना चाहिए |मन की चंचलता तो प्रत्यक्ष हैं |अर्जुन ने भी चंचल होने के कारण मन को वश में करना कठिन बतलाया हैं |परन्तु श्री कृष्ण कहते हैं कि अभ्यास के द्वारा यह संभव हैं इस अभ्यास के अनेक प्रकार हैं :
1-जहाँ -जहाँ मन जाए ,वहाँ- वहाँ ही परमात्मा के स्वरूप का अनुभव करना और वहीं मन को परमात्मा में लगा देना ;क्योंकि परमात्मा सब जगह सदा ही व्यापक हैं ,कोई भी ऐसा स्थान या काल नहीं हैं ,जहाँ परमात्मा नहीं हो |

2-मन जहाँ -जहाँ संसार के पदार्थो में जाए ,वहां से उसको विवेक पूर्वक हटाकर परमात्मा के स्वरूप में लगाते रहना |


3-विधि पूर्वक एकांत में बैठकर सगुण भगवान का ध्यान करना |भगवान ने गीता में कहा हैं -शुद्ध भूमि में जिसके ऊपर कुशा ,या शुद्ध वस्त्र का आसन हो |जो न बहुत ऊँचा हो ,न बहुत नीचा हो |उस पर बैठकर इन्द्रियों और मन को वश में करते हुए अंत: करण की शुद्धी के लिए योग का अभ्यास करे |

4-एक सच्चिदानन्द परमात्मा ही हैं -ऐसा द्रढ़ निश्चय करके तीक्ष्ण बुध्दि के द्वारा उस आनन्दमय परमात्मा का ध्यान करना|

dukho ka ant kese ho





दुखो का अंत कैसे हो 

मनुष्य की स्वभाविक इच्छा हैं ,दुखो से छुटकारा और सुख की प्राप्ति। 
जिस मार्ग पे सुख पाना चाहते हो प्राय: गलत मार्ग होता हैं जिससे दुःख अशांति बढ़ती हैं। आज मनुष्य के अंदर सदाचार नियम तथा नियम का आभाव हैं तथा कलुषित बुराइयो का भंडार हैं। सुखासक्ति इतनी तीव्र हें कि कोई कर्म कुकर्म करने में संकोच नहीं हैं | आज मानव धर्म और नीति का चोला पहन रखा हैं ,परन्तु व्यवहार में अधर्म और अनीति के कार्य करतेहैं |यदि मनुष्य सचमें दुखो का अंत और सुख की प्राप्ति चाहता हैं तो उसे सही मार्ग अपनाना पड़ेगा |उसका उपाय यह हैं कि वह दुसरो के दुखो को अपना ले ,स्वयं दुःख लेकर दुसरो को सुख देने लगे तो उसे निश्चय ही परम सुख की प्राप्ति होगी |
अपने आप से भिन्न दुसरो से सुख की आशा करना ही दुःख का मूल कारण हैं |परमात्मा से विमुख होना भी दुःख का कारण हैं |मनुष्य को यह मन में बिठा लेना चाहिय की ईश्वर ही मेरे हैं ,यह चिंता नहीं करनी चाहिय की मैं उनका हूँ कि नहीं ,वे मुझसे प्यार करते हैं या नहीं -यह संदेह तो संसार के जीवो से करना चाहिए |गीता में कहा हैं कि जो जीव जिस भाव से जितनी मात्रा में भगवान से प्यार करता हैं ,भगवान भी  उस जीव से उसी भाव में उतनी ही मात्रा में प्यार करते हैं |अत: हमे भगवान से जितना प्यार चाहिए हमे उतना ही प्यार उन्हें करना होगा |भगवान हमारे इतने निकट हैं जितना आखों में लगा काजल | लेकिन काजल को हम बिना दर्पण के नहीं देख सकते उसी प्रकार अपने भगवान को हम बिना संत सदगुरु रूपी दर्पण के बिना नहीं देख सकते |
ऐसे महान प्रभु के ह्रदय में होते हुए भी हम आज घोर दुखी व् अशांत हैं  क्यों ? मात्र न जानने के कारण |वस्तुत : ईश्वर तर्क के नहीं ,बल्कि श्रद्धा व् विश्वास के विषय हैं |जब तक विश्वास नहीं होगा ,तब तक सुख शांति भला केसे मिल सकती हैं |

शुक्रवार, 12 सितंबर 2014

मन की उलझन



एक बड़ी उलझन 


यदि तुममे सम्पूर्ण आस्था हैं ,तब कोई प्रश्न नहीं .यदि तुममे आस्था नहीं हैं , तो प्रश्न पूछने की कोई जरुरत नहीं , क्योंकि उसके उत्तर में तुम्हे आस्था कैसे होगी ?

उलझन - और उन प्रश्नो का क्या जो हम आपसे सम्पूर्ण आस्था से पूछते हैं ? 

उत्तर - अगर ईश्वर में तुम्हारी आस्था हैं , जब तुम जानते हो कोई तुम्हारी देख - रेख कर रहा हैं , तो फिर प्रश्न पूछने की क्या आव श्यकता हैं ? यदि तुम बेंगलोर जाने के लिए कर्नाटक एक्सप्रेस में बैठे हो , तो क्या हर स्टेशन पर यह पूछने की जरूरत हैं की यह रेलगाड़ी कहाँ जा रही हैं ?
और जब तुम्हारे पास कोई हैं जो तुम्हारी इच्छाओ का ध्यान रख रहा हैं तो ज्योतिषी के पास जाना ही क्यों हैं ?
उलझन - अंधी आस्था ( ब्लाइंड फेथ ) क्या हैं ? 
उत्तर - आस्था आस्था हैं ..... अंधी हो ही नहीं सकती .जिसे तुम अँधा कहते हो वह आस्था नहीं हैं .
अंधेपन और आस्था का कोई मेल नहीं .जब तुम आस्था खो देते हो तो , तब तुम अंधे हो जाते हो .

मंगलवार, 9 सितंबर 2014

Kalyan

कल्याण 






भजन में श्रद्धा करो। यह विश्वास करो कि भजन से ही सब कुछ होगा। भजन के बिना न संसार के कलेश मिटेंगे ,न विषयो से वैराग्य होगा ,न भगवान के  प्रभाव का महत्व समझ में आएगा और न परम श्रद्धा ही होगी ,सच्ची बात तो यह हैं कि जब तक भगवान की प्राप्ति नहीं होगी ,तब तक क्लेशो का पूर्ण रूप से नाश नहीं होगा। 
भगवान की प्राप्ति के इस कार्य में जरा भी देर नहीं करनी चाहिए। ऐसा मत सोचो कि अमुक कार्य हो जाए तब भगवान का भजन करूँगा। यह तो मन का धोखा हैं। सम्भव हैं तुम्हारी वैसी स्थिति हो ही नहीं ,हो सकता हैं कि फिर कोई और स्थिति उत्पन्न हो जाए जो आपको भजन करने ही न दे। इससे अभी जिस स्थिति में हो उसी में भजन कर लो। 

एक संत का भजन हैं जो मुझे बहुत अच्छा लगता हैं -अब न बनी तो फिर न बनेगी ,नर तन बार -बार नहीं मिलता। 

संत के विचार साधना करने के लिए क्या करना पड़ेगा

संत -उदबोधन 
(ब्रह्मलीन श्रद्धेय स्वामी श्रीशरणान्दजी महराज)




साधक को अपने प्रति ,जगत के प्रति ,प्रभु के प्रति क्या कर्तव्य हैं जिसका पालन करना चाहिए। अपने प्रति हमारा कर्तव्य यह हैं कि हम अपने को बुरा न बनाए ,जगत के प्रति कर्तव्य हैं कि हम जगत को बुरा न समझे और प्रभु के प्रति कर्तव्य हैं की हम उनको अपना माने। 
हम तीनो में से एक भी नहीं करते ,फिर चाहते हैं साधक होना। तो यह नहीं हो सकता। प्रभु की चीज को अपना मानते हैं पर प्रभु को नहीं मानते। 
इसलिए त्याग द्वारा जीवन अपने लिए ,सेवा द्वारा जीवन जगत के लिए ,तथा प्रेम द्वारा जीवन भगवान के लिए उपयोगी हो जाता हैं। 
आप स्वीकार करिये कि प्रभु मेरे हैं ,इससे जीवन प्रभु के लिए उपयोगी सिद्ध हो जाएगा। सेवा का व्रत ले लीजिए तो जीवन जगत के लिए उपयोगी हो जाएगा। जब किसी से कोई चाह नहीं रहेगी तो जीवन अपने लिए उपयोगी हो जाएगा। 
कल्याण 


भगवत्कृपा  प्रश्नोत्तर 

(स्वामी रामसुखदास जी के द्वारा प्रश्नों के उत्तर वह प्रश्न जो हमारे मन में उठा करते हैं)

प्रश्न -अगर हमने विश्वास कर लिया की भगवान दयालु हैं ,फिर?

उत्तर -फिर इस विश्वास को पक्का कीजिए ,इसका अभ्यास करना होगा कि भगवान के प्रत्येक कार्य में दया भरी हैं। चाहे वह कष्ट कारी ही क्यों न हो। 

प्रशन -कष्ट में भी भगवान की दया कैसे हो सकती हैं ?
उत्तर - जब माता हमे रगड़ -रगड़ कर नहलाती हैं तो हमे कष्ट होता हैं ,परन्तु माँ हमारे मैल को दूर करने के लिए ही ऐसा करती हैं। इसी प्रकार ईश्वर हमे कष्ट के द्वारा ही हमारे मन रूपी मैल को दूर करता हैं। जैसे माँ प्रेम मयी हैं, वैसे ही ईश्वर का हृदय भी प्रेम से भरा होता हैं। 

भगवान को न मानो, लकिन भगवान की आज्ञा को मानो तब भी वह प्रसन्न रहते हैं। उनकी आज्ञा हैं कि किसी से घृणा नहीं करो,  राग द्वेष को छोड़ना ही भगवान की आज्ञा हैं। जो रागद्वेष छोड़ देता हैं ईश्वर उसे शांति देते हैं ,यह सोचकर कि वह मुझे नहीं मानता ,उसकी शांति को कम नहीं करते। और अगर आज्ञा पालन की शक्ति नहीं हैं और भगवान को मानते हो तब भी वह आपको अपनी शरण में ले लेता हैँ. 

गुरुवार, 4 सितंबर 2014

रक्ताल्पता या खून की कमी (ANAEMIA ) -



हमारे खून में दो तरह की कोशिका होती हैं -लाल व सफ़ेद | लाल रक्त

 कोशिका की कमी से शरीर में खून की कमी हो जाती है जिसे रक्ताल्पता 

या अनीमिया कहा जाता है | लाल रक्त कोशिका के लिए लौहतत्व (iron)

 आवश्यक है अतः हमारे हीमोग्लोबिन में लौह तत्व की कमी के कारण 

भी रक्ताल्पता होती है | 

रक्ताल्पता या खून की कमी होने से शरीर में कमज़ोरी उत्पन्न होना,काम 


में मन नहीं लगना,भूख न लगना,चेहरे की चमक ख़त्म होना,शरीर थका-

थका लगना आदि इस रोग के मुख्य लक्षण हैं | स्त्रियों में खून की कमी के

 कारण 'मासिक धर्म' समय से नहीं होता है | खून की कमी बच्चों में हो 

जाने से बच्चे शारीरिक रूप से कमज़ोर हो जाते हैं जिसके कारण उनका

 विकास नहीं हो पाता तथा दिमाग कमज़ोर होने के कारण याद्दाश्त पर 

भी असर पढता है | इस वजह से बच्चे पढाई में पिछड़ने लगते हैं | 

आइये जानते हैं रक्ताल्पता के कुछ उपचार -



१- खून की कमी को दूर करने के लिए,अनार के रस में थोड़ी सी काली मिर्च और सेंधा नमक मिलाकर पीने से लाभ होता है |

२- मेथी,पालक और बथुआ आदि का प्रतिदिन सेवन करने से खून की कमी दूर हो जाती है | मेथी की सब्ज़ी खाने से भी बहुत लाभ होता है क्यूंकि मेथी में आयरन प्रचुर मात्रा में होता है |

३- गिलोय का रस सेवन करने से खून की कमी दूर हो जाती है | आप यह अपने निकटवर्ती पतंजलि चिकित्सालय से प्राप्त कर सकते हैं |

४- रक्ताल्पता से पीड़ित रोगियों को २०० मिली गाजर के रस में १०० मिली पालक का रस मिलाकर पीने से बहुत लाभ होता है |

५- प्रतिदिन लगभग २००-२५० ग्राम पपीते के सेवन से खून की कमी दूर होती है | यह प्रयोग लगभग बीस दिन तक लगातार करना चाहिए |

६- दो टमाटर काट कर उस पर काली मिर्च और सेंधा नमक डालकर सेवन करना रक्ताल्पता में बहुत लाभकारी होता है |

७- उबले हुए काले चनों के प्रतिदिन सेवन से भी बहुत लाभ होता है |

८- गुड़ में भी लौह तत्व प्रचुर मात्रा में होता है अतः भोजन के बाद एक डली गुड़ अवश्य खाएं लाभ होगा |
कल्याण 


भगवत्कृपा  प्रश्नोत्तर 
स्वामी रामसुखदास जी के द्वारा प्रश्नों के उत्तर वह प्रश्न जो हमारे मन में उठा करते हैं)

प्रशन-शास्त्र भगवान को परम दयालु और सर्वभूतों का सुहृदय कहते हैं 
;किन्तु संसार में प्रत्यक्ष देखा गया हैं कि बहुत से कष्ट हैं और जीव दुःखी हैं। इससे तो भगवान की निष्ठुरता सिद्ध होती हैं ,वे दयालु कैसे ?

उत्तर -एक बालक देखता हैं कि किसी को फोड़ा हुआ हैं और डॉक्टर उसे चीर रहा हैं। बीमार आदमी बुरी तरह से चिल्लाता हैं ,यहाँ तक कि डॉक्टर को गालियाँ भी दे रहा हैं। बालक जाकर दुसरो से कहता हैं कि डॉक्टर साहब बहुत निष्ठुर हैं ;तो क्या डॉक्टर साहिब सचमुच में निष्ठुर हैं ?उनका उद्देश्य तो बीमार आदमी को निरोग करना हैं और फोड़ा अच्छा होने के बाद बीमार आदमी भी उनको दयालु मानकर उनका धन्यवाद करता हैं। 
अज्ञानवश हमलोग भी असली तत्व को न जानने के कारण इसी बालक की तरह भगवन को निष्ठुर कहते हैं। 

प्रशन-किन्तु हम तो बालक नहीं हैं ?
उत्तर -जब हम लोगो में अज्ञानता हैं ,तब हम बालक नहीं तो और क्या हुएं ?

प्रशन -मान लिया संसार के दुःख कष्ट फोड़े के सामान हैं ,लकिन भगवान फोड़ा पैदा  ही क्यों करता हैं ?अगर फोड़ा न हो तो चीरने की भी जरूरत न पड़े। 

उत्तर -इसी प्रश्न में अज्ञानता भरी पड़ी हैं। कोई व्यक्ति गणित से बिलकुल अनभिज्ञ हैं ,अगर पूछे einstein  की theory  of relativity क्या हैं और कैसे आया ,तो उसको क्या समझाया जाए ?उससे यही कहना पड़ेगा ,भाई पहले इसको समझने के योग्य बनो ,फिर प्रश्न करना। अभी तुम्हारे समझ में नहीं आएगा। आपने जो प्रश्न किया हैं ,कि भगवन फोड़ा क्यों पैदा करते हैं ?इसका उत्तर समझने के लिए आपमें पहले योग्यता होनी चाहिए। 

प्रशन - समझा कि मैं अभी भगवान की दया समझने के योग्य नहीं बना ,तो कैसे योग्य बनू ?

उत्तर -विश्वास कीजिये ,कि भगवान दयालु हैं। आपने english पढ़ी हैं न। जब आपको सिखाया गया कि यह A हैं ,यह B हैं तो आपको थोड़ी कठिनता महसूस हुई होगी। परन्तु आपको teacher  पर विश्वास था। आप सोचते होंगे की जब मास्टर साहिब कह रहे हैं तो यह A ही हैं। अगर आप उस समय अकड़ जाते कि यह A नहीं हैं। तो क्या सीखते ?विश्वास ही शिक्षा या उन्नति का मूल हैं आप विश्वास नहीं करेंगे तो कैसे काम चलेगा। 

प्रश्न -अगर यह विश्वास पक्का कर ले  कि भगवान नहीं हैं तो क्या होगा ?
उत्तर -ऐसा पक्का विश्वास हो ही नहीं सकता कि ईश्वर नहीं हैं। जो लोग ईश्वर को नहीं मानते वह भी दिल पर हाथ रखकर यह विचारे तो मालूम होगा की कभी न कभी किसी अदृश्य शक्ति को उन्होंने महसूस किया होगा। प्रत्येक जीव भगवन का अंश हैं भगवान को छोड़कर उसे कही और शांति नहीं मिल सकती। 
।।राम।।



गुरुवार, 21 अगस्त 2014

कान का दर्द -

गर्मियों में कान के अंदरूनी या बाहरी हिस्से में संक्रमण होना आम बात 

है| अधिकतर तैराकों को ख़ास-तौर पर इस परेशानी का सामना करना 

पड़ता है | कान में फुंसी निकलने,पानी भरने या किसी प्रकार की चोट 

लगने की वजह से दर्द होने लगता है | कान में दर्द होने के कारण रोगी हर 
समय तड़पता रहता है तथा ठीक से सो भी नहीं पाता| बच्चों के लिए कान 
का दर्द अधिक पीड़ा भरा होता है | लगातार जुक़ाम रहने से भी कान का दर्द हो जाता है |
आज हम आपको कान के दर्द के लिए कुछ घरेलू उपचार बताएंगे -

१- तुलसी के पत्तों का रस निकाल लें| कान में दर्द या मवाद होने पर रस को गर्म करके कुछ दिन तक लगातार डालने से आराम मिलता है |

२- लगभग १० मिली सरसों के तेल में ३ ग्राम हींग डाल कर गर्म कर लें | इस तेल की १-१ बूँद कान में डालने से कफ के कारण पैदा हुआ कान का दर्द ठीक हो जाता है |

३- कान में दर्द होने पर गेंदे के फूल की पंखुड़ियों का रस निकालकर कान में डालने से कान का दर्द ठीक हो जाता है |

४- तिल के तेल में लहसुन की काली डालकर गर्म करें,जब लहसुन जल जाए तो यह तेल छानकर शीशी में भर लें | इस तेल की कुछ बूँदें कान में डालने से कान का दर्द समाप्त हो जाता है |

५- अलसी के तेल को गुनगुना करके कान में १-२ बूँद डालने से कान का दर्द दूर हो जाता है |

६- बीस ग्राम शुध्द घी में बीस ग्राम कपूर डालकर गर्म कर लें | अच्छी तरह पकने के बाद ,ठंडा करके शीशी में भरकर रख लें | इसकी कुछ बूँद कान में डालने से दर्द में आराम मिलता है |

आपके कल्याण की पक्की गारंटी

श्री कृष्णा के 24 अवतार का नियमित पाठ करने से श्री कृष्णा की विशेष कृपा प्राप्त होती है


छप्पय 

जय जय मीन, बराह, कमठ, नरहरि, बलि, बावन 
परशुराम, रघुवीर, कृष्ण,  कीरति जग पावन।
बुद्ध, कल्कि  अरु व्यास पृथु  हरि, हंस मन्वंतर 
यज्ञ ऋषभ, हयग्रीव, धुर्ववरदैन, धन्वंतर।
बद्रिपति, दत्त, कपिलदेव  सनकादिक करुणा करौ 
चौबीस रूप लीला रुचिर श्रीअग्रदास उर पद धरौ।   

उपरोक्त पंक्तियों में  कृष्णा के २४ अवतारों का वर्णन किया हैं ,हमारे गुरु देव जी का कहना हैं कि इनका प्रतिदिन पाठ करने से ठाकुर जी की विशेष कृपा हो जाती हैं, हर रोज इन 24 अवतारों के नामों का पाठ सुबह-सुबह करना चाहिए।
हमारे गुरुदेव मलुकपीठाधीस वृंदावन जी कहते हैं कि जो सुबह उठते ही एवं  रात को सोने से पहले जो इसका पाठ करता है उसके कल्याण की पूरी गारंटी है।
।।जय श्री कृष्ण।।
श्री मलूकदासजी  कृत 
श्री भक्तनामावली 

राम राइ  तुम राजा जन परजा तेरे सुमिरन करते भारी। 
अपनी अपनी टहलैं लागें जो जाकें आधिकारी।।
शंकर नाचे नारद उघटै सुकदेव ताळ बजावें। 
दे दे तारी सनक सनंदन सेस सहस मुख गावैं।।
अंबरीष बलि ब्यास पंडवा अरु पंडो की दासी। 
खड़े रहैं दरबार तुम्हारे वीनती सुनु अविनासी।।
ध्रुव प्रह्लाद विदुर अरु भीष्म भली करीं सबकाई। 
हनुमान अक्रूर सुदामा सेवरी अति मन भाई।।
अमरधुज  तमरधुज ऊधौ कहँ लग दास गनाऊं। 
कहे मलूक दहु मोहिं आज्ञा अब कलियुग के ल्याऊँ।।
रैदास प्रेम की पनही बनावे ज्ञानहि गिने कबीरा। 
नामदेव सुरति का वागा सीवे माधो दास चलोवै वीरा।।
धन्नाधीर की खेती करता पीपै प्रीत लगाईं। 
सेन भजन को मर्दन करता चरण धोवै मीरा बाई।।
धर्म खटिक खिदमति कौं राखा घियु को घातभ मैना। 
तत कथन को नानक राखा सदा करे सुख चॆना।।
सूरदास परमानन्द स्वामी इन नीका मत ठाना। 
महामधुर पद नितहिं सुनावहिं मधि मधिं वेद पुराना।।
रामानंद तिलोचन जैदेव ए क़ुछ बहुत कहाते। 
जिभ्या स्वाद तजे तुम कारन गिरे परें फल खातें।।
दादू पवन चतुर्भुज कालू अनभै काजें लागैं।
गगन मंडल में सर्वस पाया भर्म कर्म ते भागें।।
परमदास रामदास बनिया  नेनादास मुरारी।
 कामदास और दरिया नन्द आए सरन तुम्हारी।।
जनवाजी दारांका बाँका कुवा जति कुंभारा।
मकरंद केवल कान्हा सदना एक़ तै एक प्यारा।।
देवल केवल परसा सोभू मुनिद्रिका जगीं ग्यानी। 
नरसी नापा मिरज़ा साल्हे बोलत अमृत बानीं।।
तुलसीदास अजामिल गनिका वीलमंगल गोपारा। 
जड़भरत अरु जनक विदेही धूरी तनहि विसारा।।
गोरख दत्त वसिष्ट रामानुज आदिक जे अचारज। 
चरन कवल ह्रिदय में राखें करत सकलई कारज।।
कहत मलूक निरंजन देवा मोहिं अपना क़र लीजै। 
एन के संग कमाऊँ रैनि दिन भगति मजूरी दीजै।।


भय वास्तव में है क्या?




भय मन की कल्पना हैं 

हम सोचकर देखे -हमे भय क्यों होना चाहिए ?
जब सब जगह अनन्तशक्ति सम्पन्न ,सब कुछ जानने वाला ,हमारे प्रति अनन्तसोहार्दमय  प्रभु ही नित्य निरन्तर अवस्थित हैं तो किस प्राणी -पदार्थ से हम भय करे ?खूब गहराई से सोचे ,भय एक झूठ मूठ अनादिकाल से कल्पित मन की कल्पना हैं। हमे मामूली से मामूली बात पर भय होने लगता हैं ;न जाने कितने प्रकार के भय हमे घेरे हुए हैं। क्यों नहीं हम प्रत्येक प्रतिकूल लगने वाली परिस्थिति में अपनी आँख प्रभु  की और कर लेते है, और निरन्तर पास में रहने वाले ,सर्वशक्तिमय ,सब कुछ जानने वाले ,अनंत, सोहार्दमय प्रभु पर ही सब प्रकार के भय को पूजा के रूप में सदा के लिए समर्पित कर देते ?हम सब स्थितियों में सोचने लग जाएं -`जैसे प्रभु की इच्छा होगी ,हो जाएगा। इसमें डरने की क्या बात हैं ?`-सच माने ,भय की सम्पूर्ण स्थितियां बदलने लगेगी और हमारा मन सच्चिदानंदमय आनन्द से भरने लगेगा। 

शुक्रवार, 28 मार्च 2014

why criticism takes place among human in order to achieve success

क्यों हर एक आदमी आगे बढ़ने के लिए अपने साथ वाले को नीचे गिराने कि कोशिश करता हैं। 

आजकल हमारे देश मे यह बहुत देखने को मिल रहा हैं कि हर एक नेता या उससे जुड़े लोग अपने आप को no. one दिखाने के होड़  में अपने competitor  को नीचा दिखाने में कोई कमी नहीं छोड़ रहा हैं। आखिर ऐसा क्यों ?क्या हमारे अंदर वो काबलियत नहीं हैं कि हम दूसरे कि बुराई किये बिना ही आगे बढ़ सकें। क्यों हमे अपने को अच्छा साबित करने के लिए  सामने वाले की  कमियाँ बतानी पड़ती हैं। क्या हमने इतनी गलतियाँ कर रखीं हैं कि हम direct किसी से वोट पाने  कि उम्मीद नहीं कर सकते, और अगर सच में हम इस लायक नहीं हैं कि बिना मांगे वोट नहीं मिलने वाला, तो इंसानियत इसी में होनी चाहिए कि उस को नेता बनने के लिए आगे नहीं आना चाहिए। उसके साथयों को जो उसकी  गलत तारीफो के पुल बांध रहें हैं उन्हें भी यह सोचना चाहिए कि वह गलत नेता बनाकर ना सिर्फ इस देश का नुकसान करते हैं बल्कि indirect  वह अपना व अपने परिवार के लिए भी असुरक्षित माहौल बना लेंते हैं,और यह तो आजकल नेताओ के बीच में हो रहा हैं ,पर यह स्थिति हर field में हैं चाहे वो एक business man हो या कोई player हो ,चाहे student हो या कोई रिश्ता हो। हर कोई एक दूसरे को नीचे गिराने में लगा हैं। आखिर क्यों ?

क्या सभी नेता लोग एक साथ मिलकर बिना किसी स्वार्थ के देश को आगे नहीं बढ़ा सकते जिससे हमारा देश सच का हिंदुस्तान कह लाए। 

कोई अगर इस प्रश्न का उत्तर दे सकता हैं तो मुझे इसका जवाब चाहिए। 

शनिवार, 15 मार्च 2014

होली 


 


चल होली खेंले यार 
चल ख्वाब रँगे इस बार 
चल रूठो को मनाए ,चल बिछड़ो को आज़ मिलाए  
दुखी मन को आज़ हंसाए ,चल होली खेले यार  
हर रंग का हैं कुछ मतलब ,हर रंग कुछ कहता हैं  
चल प्रेम की करे बोछार ,थोड़ा लाल रंग लो यार  
चल होली खेले ----------- 
पूरे देश को शिक्षित कर दो,थोड़ा पीला रंग लो यार 
हर एक मॅ साधुता जाए ,थोड़ा नारंगी रंग लो यार  
चल होली खेले --------- 
हर रंग का हैं जब कुछ मतलब ,तो सातो रंग की करो बोछार  
चल होली खेले यार ,चल ख्वाब रंगे इस बार . 

मंगलवार, 11 मार्च 2014

कर्म और केवल कर्म ही आपका कल्याण कर सकता है।

कर्म योग

अगर आप अपना कल्याण चाहते हैं तो केवल भगवान के साथ सम्बन्ध जोड़ो। दूसरा कोई भी सम्बन्ध कल्याण करने वाला नहीं हैं। संत महात्मा भी भगवान के साथ सम्बन्ध जोड़ते हैं। माता -पिता ,स्त्री -पुत्र ,भाई भोजाई और भतीजे -इतना सम्बन्ध खास कुटुम्ब हैं। इनमे भी आप भगवान को ही देखे। भगवान का सम्बन्ध सदा से हैं और सदा ही रहने वाला हैं ,आप स्वीकार करे या न करे ,आप सदा से भगवान के ही हैं। इसमें संदेह न करे गीता के १५/७ में लिखा हैं आप भगवान से अलग नहीं हो सकते। भगवान में भी इतनी ताकत नहीं कि वे आपसे अलग हो जाए !

आप भगवान कि वस्तु को भी अपना मानते हैं ,पर भगवान को अपना नहीं मानते यही भूल हैं। 

अपने स्वार्थ का त्याग करके दुसरो के हित के लिए कर्म करने से कर्मयोग होता हैं। सबका हित चाहने वालो का हित स्वयं होता हैं। सबका हित चाहने वाला घर बेठे ही महात्मा हो जाता हैं। 

अनुचित कर्म करने से प्रकृति कुपित हो जाती हैं। प्रकृति बहुत बलवान हैं। वह कुपित हो जाए तो मनुष्य उसका सामना नहीं कर सकता। 

अनुचित कर्म करने वाले के चित में शांति ,निर्भयता नहीं रहती। रावण के नाम से त्रिलोकी डरती थी ,पर वही रावण जब सीता जी की  चोरी करने जाता हैं तो वह भी डरता हैं। यदि मनुष्य संसार के ,भगवान के ,गुरुजनो के विरुद्ध काम न करें तो वह सदा निर्भय रहता हैं। कर्मयोगी को भय नहीं लगता। 

स्वामी रामसुखदास जी के श्री मुख से। 
ॐ तत्सत।।

गुरुवार, 6 मार्च 2014

puja for girls who are facing marriage problem

कन्या के शीघ्र विवाह का अनुष्ठान 


अधिकतर संभ्रांत परिवारो के लोगो को अपनी कन्या के विवाह के लिए विशेष प्रयत्न करने पर भी दहेज़ आदि समस्याओ के कारण तथा अन्य किसी और कारण से विवाह नहीं हो पाता और कन्या भीदुःखी हो जाती हैं और वह उपाय पूछती हैं। 
इसके लिए कन्याओ के द्वारा यह अनुष्ठान करना चाहिए इस में जो ऊपर चित्र दिया गया हैं उस का प्रतिदिन चंदन पुष्प आदि से पूजन करके नीचे लिखे मन्त्र कि 11 माला का जप करना चाहिए। 11 न हो सके तो 5 माला का ,और 5 भी न हो सके तो कम -से -कम 1 माला का जप तो जरुर करना चाहिए और सच्चे ह्रदय से माँ से प्रार्थना करते हुए नीचे लिखी हुई चौपाइयों का पाठ करना चाहिए। श्रद्धा -भक्तिपूर्वक करने पर इस प्रयोग से शीघ्र सफलता मिलती हैं। तथा विवाहिक जीवन सुखी होता हैं -
मंत्र यह हैं -

"He Gauri Shankarardhangi! Yatha Tvam Shankarpriya Tatha maam Kuru Kalyani! Kantkaantam Sudurlabhaam" 
प्रतिदिन इसका एक बार पाठ अवश्य करे -
जय -जय गिरिराज किशोरी। जय महेश मुख चंद चकोरी।।
जय गजबदन षडानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता।।
नहि तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहि जाना।।
भव भव बिभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि।।
पतिदेवता सुतीय महुँ मातु प्रथम तव रेख। 
महिमा अमित न सकहिं कहिं सहस सारदा सेष।।
सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायनी पुरारी पिआरि।।
देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे।।
मोर मनोरथ जानहु नीकें। बसहु सदा उर पुर सबहीं कें।।
कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहिं। अस कहिं चरन गहे बैदेहीं।।
बिनय प्रेम बस भई भवानी। खसी माल मूरति मुसुकानी।।
सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ। बोलि गौरी हरषु हियँ भरेऊ।।
सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजहि मनकामना तुम्हारी।।
नारद बचन सदा सुचिं साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा।।
मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर साँवरो। 
करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो।।
एहि भाँति गौरी असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली।।
तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली।।
जानि गौरी अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि। 
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे।।

उपरोक्त विधि द्वारा पूरे विश्वास के साथ हमे प्रार्थना करनी चाहिए बाकि उसे पूरा करना या न करना सिर्फ हमारी माँ के हाथ में हैं। लकिन वो हम सबकी जगत जननी माँ हैं तो वो जो भी करेगी उसमे ही हमारी भलाई छुपी होगी।
(कल्याण के द्वारा )

शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2014

चतुर्शलोकीय भागवत(चार शलोको में भागवत)

चार श्लोको में भागवत



चतुरश्लोकि  भागवत 


अहमेवास  मेवाग्रे नान्यद् यत् सद्सत्परम। 
पश्चादहं यदेतच्च योSवशिष्येत सॊस्म्म्यहम।। १ 
ऋतेSर्थ यत् प्रतीयेत् न प्रतीयेत् चात्मनि। 
तद् विद्यादात्मनो मायाँ यथाSSभासो यथातमः।। २ 
यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चाबचेस्वनु। 
प्रतिष्टान्य प्रविष्टानि तथा तेषु  न तेष्वहम्।३ 
एतावदेव जिज्ञास्यं तत्व जिज्ञासुनाSSत्मनः। 
अन्वय व्यतिरकाम्यां यत् स्यात् सर्वत्र सर्वदा।। ४   
अर्थ -
भगवान नारायण ,प्रजापति ब्रह्मा कि तपस्या से सृष्टि के आरम्भ में अति प्रसन्न हुए तब उन्होंने ब्रह्मा जी को वर मांगने के लिए कहा। तब ब्रह्मा जी ने निम्नलिखित चार वर मांगे जिन्हे हम चतुर्श्लोकीय भागवत भी कहते हैं

 १ हे भगवन !आपके सुक्ष्म अप्राकृतिक रूप को जिसे 'पर 'कहते हैं ,तथा स्थूल या प्राकृतिक रूप जिसे 'अपर ' कहते हैं। इन दोनों पर अपर 'स्वरूप का मुझे ज्ञान प्राप्त हो जाए। 

२ हे परमात्मन् !आप मुझे वह बुद्धि दीजिये जिससे मैं आपकी लीलाओं के गुह्मतम भेद को समझ सकूँ। 

३ आप मेरे ऊपर ऐसी कृपा कीजिये जिससे मैं सृष्टि रचते हुए भी अपने को कर्ता मानकर अहंकार बुद्धि को प्राप्त न होऊं। आलस्य त्याग कर आपकी आज्ञा का पालन कर सकूँ। 

४ हे परमात्मन् !उत्त्पति ,भरण -पोषण करने वाला होने के कारण मुझे अभिमान प्राप्त न हो। 

जो भी मनुष्य पूरी भागवत पढ़ने में असमर्थ हो उसे यह चतुर्श्लॉर्किये भागवत का पाठ  तो कर ही लेना चाहिए।
 ॐ श्री हरी। 

सोमवार, 10 फ़रवरी 2014

सुभाषित विचार


सुभाषित विचार





          
                 जय सिध्दि विनायक                      


यह संसार हार जीत का खेल हैं इसे नाटक
 
समझ कर खेलो। 

इच्छाएं रखने वाला, कभी अच्छा कर्म नहीं कर सकता। 


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