/ "ईश्वर के साथ हमारा संबंध: सरल ज्ञान और अनुभव: चतुर्शलोकीय भागवत(चार शलोको में भागवत)

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शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2014

चतुर्शलोकीय भागवत(चार शलोको में भागवत)

चार श्लोको में भागवत



चतुरश्लोकि  भागवत 


अहमेवास  मेवाग्रे नान्यद् यत् सद्सत्परम। 
पश्चादहं यदेतच्च योSवशिष्येत सॊस्म्म्यहम।। १ 
ऋतेSर्थ यत् प्रतीयेत् न प्रतीयेत् चात्मनि। 
तद् विद्यादात्मनो मायाँ यथाSSभासो यथातमः।। २ 
यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चाबचेस्वनु। 
प्रतिष्टान्य प्रविष्टानि तथा तेषु  न तेष्वहम्।३ 
एतावदेव जिज्ञास्यं तत्व जिज्ञासुनाSSत्मनः। 
अन्वय व्यतिरकाम्यां यत् स्यात् सर्वत्र सर्वदा।। ४   
अर्थ -
भगवान नारायण ,प्रजापति ब्रह्मा कि तपस्या से सृष्टि के आरम्भ में अति प्रसन्न हुए तब उन्होंने ब्रह्मा जी को वर मांगने के लिए कहा। तब ब्रह्मा जी ने निम्नलिखित चार वर मांगे जिन्हे हम चतुर्श्लोकीय भागवत भी कहते हैं

 १ हे भगवन !आपके सुक्ष्म अप्राकृतिक रूप को जिसे 'पर 'कहते हैं ,तथा स्थूल या प्राकृतिक रूप जिसे 'अपर ' कहते हैं। इन दोनों पर अपर 'स्वरूप का मुझे ज्ञान प्राप्त हो जाए। 

२ हे परमात्मन् !आप मुझे वह बुद्धि दीजिये जिससे मैं आपकी लीलाओं के गुह्मतम भेद को समझ सकूँ। 

३ आप मेरे ऊपर ऐसी कृपा कीजिये जिससे मैं सृष्टि रचते हुए भी अपने को कर्ता मानकर अहंकार बुद्धि को प्राप्त न होऊं। आलस्य त्याग कर आपकी आज्ञा का पालन कर सकूँ। 

४ हे परमात्मन् !उत्त्पति ,भरण -पोषण करने वाला होने के कारण मुझे अभिमान प्राप्त न हो। 

जो भी मनुष्य पूरी भागवत पढ़ने में असमर्थ हो उसे यह चतुर्श्लॉर्किये भागवत का पाठ  तो कर ही लेना चाहिए।
 ॐ श्री हरी। 

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जय श्री राधे

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