/ "ईश्वर के साथ हमारा संबंध: सरल ज्ञान और अनुभव: जुलाई 2017

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मंगलवार, 25 जुलाई 2017

मन शांत कैसे हो ?

कलयाण


कहते हैकि बवंडर-(चकर्वात) के ठीक बीच में एक ऐसा  स्थान भी रहता है,जँहा कोई हलचल नही। वँहा वायू का थोडा सा भी प्रकोप नही है,बल्कि इतनी शान्ति रहती है कि यदि किसी छोटे शिशु को वहाँ  सुला दिया जाए तो वह सुख की नींद सोता रहेगा ।ठीक इसी प्रकार इस संसार के कोलाहल के मध्य मे प्रभु विराजित हैं तथा जहाँ वे हैं वहाँ न तो जगत की हलचल है और न ही त्रिताप की विषमयी ज्वाला ,वँहा सर्वदा ,हर जगह सुख शान्ति बनी रहती हैं।
हम अपने जीवन पर विचार करके देखे तो पता चलेगा कि उसमे न जाने कितने उतार चढाव हुए हैं कितनी बार हम हँसें है ,कितनी बार रोये है । संसार के इस प्रवाह मे बहते जा रहे हैं,अब तक एसा कोई स्थान नही मिला जँहा हमे शान्ति मिली हो हम अपनी थकान मिटा सके।शान्ति के लिये जिसका भी सहारा लेने लगते है ,पता लगता है वो भी हमारी तरह हलचल मे है और विचलित हैं।इन्द्रिया हर जगह सुख की तलाश में भटकती रहती हैं पर सुख या तो मिलता नही हैं या फिर थोडे से समय के लिये ही मिलता हैं । मन अनुकुलता ढुढँने के लिये भटकता रहता हैं,अमुक परििस्थति मेरे अनुकूल बन जाये ,अमुक व्यक्ति एसा बन जाये ,आपके अनुसार कोई बदल नही सकता और आप कुंठित होकर मानसिक तनाव में जीना शुरू कर देते हैं।इस प्रकार हमारा जीवन इस संसार के बवंडर में भर्मण करता रहता हैं और सदा अशांत बना रहता हैं।किन्तु हम अगर इस बवडंर से खिसककर , बीच में स्थापित प्रभु से जुड जायें ,उनकी छत्रछाया में विश्राम करने की ठान लें तो निश्चय ही हमें उनका सान्निध्य प्राप्त हो जायेगा और हमें शान्ति ,सु ख की प्राप्ति हो जायेगी ।साधना में, सत्संग में लग जाये फिर चाहे वो जिह्वा से राम नाम लेकर हो, कानो से कथा,लीला सुन कर हो,अच्छे लोगों का संग करने से हो।आप प्रभु की शरण हो जायें,तब संसार की हलचल कितनी प्रबल क्यों न हो हम उससे कभी विचलित नही हो सकते ,क्योंकि हमें प्रभु का सहारा मिल जाता हैं और जिसके पास सहारा हैं वो कैसे घबरा सकता हैं,और सहारा भी परमपिता का।

।।जय श्री राधे।।

सोमवार, 17 जुलाई 2017

भक्त और भगवान की लीला

                 
                                                       वामन भगवान के चरित्र में यह बात पता लगती हैं कि प्रभु ने कृपा करके  सर्वस्व ले लिया।बलि राजा को तो कुछ क्षण के लिए बंधन में बांधा गया पर प्रभु तो राजा बलि के बंधन से सर्वथा बंध गए , द्वार पर हाजिर रहते हैं। उस चरित्र में शिक्षा यही हैं कि बलि की तरह प्रभु में विश्वास करके उनके द्वारा दिए गए कष्टों में भी कृपा का अनुभव करे। हमारा तन मन सर्वस्व प्रभु ले ले , बंधन में डाले , मारे या रक्षा करे वे ही हमारी गति हैं। प्रभु प्रेमी को अपना जो पथ और दृढ़ विचार हैं उसका त्याग नहीं करना चाहिए।

द्रोपदी का चीर दुःशासन खींच रहा था उस समय द्रोपदी को पूर्ण विश्वास था कि सभा में बैठे हुए उसके अपने उसकी रक्षा जरूर करेंगे उसने पुकार पुकार कर सबसे सहायता मांगी , गुरु द्रोण आपका शिष्य अन्याय कर रहा हैं , पितामह भीष्म आपकी पुत्र बहु को भरी सभा में निवस्त्र किया जा रहा हैं मेरी रक्षा करो , पर किसी ने नहीं सुना यहाँ तक कि उसके पति पांचो पांडव भी नोचे आँखे करके बैठे रहे।

उधर द्वारका में प्रभु रुकमणीजी के साथ चौसर खेल रहे थे पर बीच बीच में व्याकुल होकर खड़े हो जाते , तो रुकमणीजी ने पूछा क्या बात हैं हारने का डर लग रहा हैं ? बोले नहीं , द्रोपदी पर संकट हैं दुष्ट लोग उसे निवस्त्र कर रहे  हैं। अरे ! तो तुम उसे बचाते क्यों नहीं ?  प्रभु बोले वो मुझे पुकार ही नहीं रही हैं। यह सुनकर श्री जी ने अपने हांथ का नील कमल फेंका , तब द्रोपदी को प्रेरणा हुई , श्रीजी की कृपा से श्री कृष्ण को पुकारने की सुधि आई। तब उन्होंने पुकारा हे नाथ द्वारका वासी ! सुनते ही श्री कृष्ण ने वस्त्रा अवतार लिया। श्री कृष्ण शरणम ममः 

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