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मंगलवार, 21 अगस्त 2018

गीता माधुर्य, तीसरा अध्याय( श्रीमद् भागवत गीता का सरल भावार्थ

 गीता माधुर्य,( तीसरा अध्याय) श्रीमद्भागवत का सरल भावार्थ

अर्जुन बोले- श्री जनार्दन !आपके अनुसार जब ज्ञान, बुद्धि श्रेष्ठ है, तो फिर है केशव! आप मुझे हर करम में क्यों लगाते हैं तथा आप कभी कहते हैं, कर्म करो और कभी कहते ज्ञान का आश्रय लो, आपकी इन मिले हुए वचनों से मेरी बुद्धि मोहित सी हो रही है ।इसलिए एक निश्चित बात कहिये, जिससे मैं कल्याण को प्राप्त हो जाऊं ।।१-२
भगवान बोले -हे निष्पाप अर्जुन! इस मनुष्य लोक में दो प्रकार से होने वाली निष्ठा मेरे द्वारा पहले कहीं गई है, उनमें सांख्य  योगियों की निष्ठा ,ज्ञान योग से, और योगियों की निष्ठा कर्म योग  से होती है ।तथा ज्ञान योग और कर्म योग से एक ही सम बुद्धि की प्राप्ति होती है ।
उस  समता की प्राप्ति के लिए क्या कर्म करना जरूरी है?
 हां जरूरी है; क्योंकि मनुष्य ना तो कर्मों का आरंभ किए बिना निष्कर्मता को प्राप्त होता है और ना कर्मों के त्याग से सिद्धि को ही प्राप्त होता है। तात्पर्य है कि वह समता की प्राप्ति कर्मों का आरंभ किए बिना भी नहीं होती और कर्मों के त्याग से भी नहीं होती ।
कर्मों के त्याग से क्यों नहीं होती ?
कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्था में क्षण मात्र भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता , क्योंकि प्रकृतिजन्य गुण स्वभाव की परवश हुए प्राणियों से कर्म कराते हैं ,तो फिर प्राणी कर्मों का त्याग कैसे कर सकता है।
 अगर मनुष्य चुपचाप बैठे रहे ,कुछ भी करें नहीं तो क्या यह कर्मों का त्याग नहीं हुआ?
 नहीं ,जो मनुष्य चुपचाप बैठ कर और इंद्रियों को केवल बाहर से रोक कर मन से विषयों का चिंतन करता रहता है , उसका यह चुपचाप बैठना कर्मों का त्याग करना नहीं हुआ ,बल्कि उस मूढ बुद्धि  वाले का यह चुपचाप बैठना मिथ्याचार है। आपने जो समबुद्धि बताई उसकी प्राप्ति ना तो कर्मों के किए बिना होती है, ना कर्मों के त्याग से होती है और ना बाहर से चुपचाप बैठ कर मन से विषयों का चिंतन करने  से होती है तो फिर उसकी प्राप्ति कैसे होती है? 
हे अर्जुन !जो मनुष्य मन से इंद्रियों का नियमन करके आसक्ति रहित होकर इंद्रियों के द्वारा कर्म योग (निष्काम भाव पूर्वक अपने कर्तव्य कर्मो)- का आचरण करता है वा श्रेष्ठ है अथार्त उसको समबुद्धि प्राप्त हो जाती है। इसलिए तू शास्त्र विधि से नियत किये हुए कर्तव्य कर्म कर; क्योंकि कर्म ना करने की अपेक्षा उपयुक्त विधि से कर्तव्य कर्म करना श्रेष्ठ है, और तो क्या ,बिना कर्म किए तेरे शरीर का निर्वाह भी नहीं होगा।
 कर्मों को करने से बंधन तो नहीं होगा, भगवन्!
 नहीं ,यज्ञ (कर्तव्य कर्म )को केवल अपने लिए करने से ही मनुष्य कर्मों से बंधता है। इसलिए है कुंती नंदन !तू आसक्ति रहित होकर कर्तव्य कर्म को केवल कर्तव्य परंपरा सुरक्षित रखने के लिए ही कर।
 मैं कर्म करूं ही क्यों ?
सर्ग के आरंभ में पिता ब्रह्मा जी ने भी यज्ञ (कर्तव्य कर्मों के )सहित मनुष्य की रचना करके उनसे यही कहा था कि तुम लोग इस कर्तव्य कर्म यज्ञ के द्वारा वृद्धि को प्राप्त होओ। यह यज्ञ तुम लोगों को कर्तव्यपालन की आवश्यक सामग्री प्रदान करने वाला हो।
 यह यज्ञ हम किस भाव से करें पितामह?
 इसके द्वारा तुम लोग देवताओं के द्वारा की वृद्धि ( उन्नति )करो और वे देवता लोग तुम्हारी वृद्धि करें। इस तरह एक दूसरे की वृद्धि करने से अथार्त अपने लिए कर्म न करके  केवल दूसरों के हित के लिए ही सब कर्म करने से तुम लोग परमेश्वर यानी कि परमात्मा को प्राप्त हो जाओगे।
 पितामह !अगर हम यज्ञ ना करें तो?
 तुम्हारे कर्तव्य कर्म रूप यज्ञ के द्वारा वृद्धि को प्राप्त हुए देवता तुम लोगों को बिना मांगे ही कर्तव्य पालन के लिये  आवश्यक सामग्री देते रहेंगे  परंतु अगर तुम लोग उस कर्तव्यपालन की सामग्री से देवताओं की पुष्टि ना करके स्वंय ही सुख  आराम  भागोगे, तो तुम चोर बन जाओगे।
 इस दोष से कैसे बचा जाए भगवन्? 
केवल दूसरों के हित के लिए ही कर्तव्य कर्म करने से यज्ञ शेष के रूप में सुमता का अनुभव होता है  उस समता का अनुभव  करने वाले संपूर्ण पापों से मुक्त हो जाते हैं। परंतु जो केवल अपने सुख आराम के लिए ही सब कर्म करते हैं, वे पापी लोग तो केवल पाप ही कमाते  हैं।
 भगवन्! अभी आपने कर्तव्य कर्म के विषय में ब्रह्मा जी की आज्ञा सुनाई, कर्तव्य कर्म के विषय में आपका क्या कहना है? 
इसमें मेरा यही कहना है कि इस सृष्टि -चक्र के संचालन के लिए भी कर्तव्य कर्म करने की आवश्यकता है क्योंकि संपूर्ण प्राणी अन्न से पैदा होते हैं और अन्न वर्षा से पैदा होता है। वर्षा कर्तव्य पालन से होती है और यज्ञ निष्काम भाव से किए गए कर्मों से होता है। कर्तव्य कर्म करने की विधि वेद बताते हैं और वेद परमात्मा से प्रकट होते हैं। इसलिए परमात्मा यज्ञ में नित्य विद्यमान रहते हैं। उनकी प्राप्ति अपने कर्तव्य का पालन करने से ही होती है ।अतः इस सृष्टि चक्र की सुरक्षा के लिए अपने कर्तव्य का पालन करना मनुष्य के लिए बहुत जरूरी है।
अगर कोई इस सृष्टि चक्र की सुरक्षा के लिए अपने कर्तव्य का पालन ना करें तो?
 तो हे पार्थ! जो मनुष्य इस सृष्टि चक्र की परंपरा को सुरक्षित रखने के लिए कर्तव्य कर्म नहीं करता, वह इंद्रियों के द्वारा भोग भोगने वाला तथा पापमय जीवन बिताने वाला मनुष्य संसार में व्यर्थ ही जीता है। 
कोई आसक्ति रहित होकर केवल आपकी आज्ञा के अनुसार सृष्टि चक्र की परंपरा सुरक्षित रखने के लिए ही कर्तव्य कर्म का पालन करें तो ?
वह अपने आप में ही रमण करने वाला ,अपने आप में ही तृप्त और अपने आप में ही संतुष्ट हो जाता है, उसके लिए कुछ भी करना बाकी नहीं रहता; क्योंकि उस महापुरुष का इस संसार में ना तो कर्म करने से ही कोई मतलब रहता है  तथा उसका किसी भी प्राणी के साथ कोई भी स्वार्थ का संबंध नहीं रहता। क्या मैं भी ऐसा कर सकता हूं  भगवन?
 हां, बन सकता है। तू निरंतर आसक्ति रहित होकर अपने कर्तव्य का अच्छी तरह पालन कर ,क्योंकि आसक्ति रहित होकर कर्तव्य कर्म करने से मनुष्य को परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है।
 पहले आसक्ति रहित होकर क्या किसी ने कर्म किए हैं और क्या उनको परमात्मा की प्राप्ति हुई है?
 हां, राजा जनक जैसे अनेक महापुरुष कर्तव्य कर्म करके ही परमात्मा को प्राप्त हुए हैं ।परमात्मा को प्राप्त होने पर भी उन्होंने लोकसंग्रह( दुनिया को कुमार्ग से बचा कर सनमार्ग पर लाने के लिए कर्म किए हैं) इसलिए तू भी लोकसंग्रह को ध्यान में रखते हुए अपने कर्तव्य का पालन कर।
वह लोकसंग्रह कैसे होता है?
  दो प्रकार से होता है -अपनी कर्तव्य परायणता से और अपने वचनों से श्रेष्ठ मनुष्य जो जो आचरण करता है, दूसरे मनुष्य भी वैसा ही आचरण करते हैं। वह अपने वचनों से भी कुछ प्रमाणित करता है दूसरे मनुष्य भी उसी का अनुसरण करते हैं।
जैसे आपने परमात्मा प्राप्ति के विषय में जनक आदि का उदाहरण दिया ऐसे ही लोकसंग्रह के विषय में क्या कोई उदाहरण है?
 हां ,मेरा ही उदाहरण लो पार्थ! मेरे लिए त्रिलोकी में कुछ भी कर्तव्य बाकी नहीं है और प्राप्त करने योग्य कोई वस्तु अप्राप्त नहीं है ।फिर भी मैं लोकसंग्रह के लिए  कर्तव्यकर्म  करता हूं। आपके लिए कर्तव्य कर्म करने की क्या जरूरत है भगवन्?
 हां, बहुत जरूरत है; क्योंकि अगर मैं निरालस्य होकर कर्तव्य कर्म ना करूं तो ,मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करेंगे अथार्त वह भी कर्तव्य कर्म करना छोड़ देंगे ।इससे क्या होगा भगवन्?
 अगर मैं कर्तवय क्रम ना करूँ तो अपना- अपना कर्तव्य कर्म ना करने से ,यह सब मनुष्य नष्ट भ्रष्ट हो जाएंगे और मैं सब तरह के संकट दोषों को पैदा करने वाला तथा इस समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूंगा ।
शेष कल -जय श्री कृष्णा

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