/ "ईश्वर के साथ हमारा संबंध: सरल ज्ञान और अनुभव: गीता माधुर्य अध्याय 2

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सोमवार, 13 अगस्त 2018

गीता माधुर्य अध्याय 2


                          गीता माधुर्य  अध्याय 2


रथ के मध्य भाग में बैठे बैठ जाने पर अर्जुन की क्या दशा हुई संजय? 
 संजय बोले- हे राजन्! जो बड़े उत्साह से युद्ध करने आए थे, पर कायरता के कारण जो विषाद कर रहे हैं और जिनके नेत्रों में इतने आंसू भर आए हैं कि देखना भी मुश्किल हो रहा है, ऐसे अर्जुन से भगवान मधुसूदन बोले कि हे अर्जुन! इस बेमौके पर  तुझ में यह कायरता कहां से आ गई? यह कायरता ना तो श्रेष्ठ पुरुषों के द्वारा धारण करने लायक है, ना स्वर्ग देने वाली है,और ना कीर्ति देने वाली है। इसलिए हे पार्थ! तू इस कायरता को अपने में मत आने दे; क्योंकि तेरे जैसे पुरुष में इसका आना उचित नहीं है। अतः है परंतप! हृदय की इस तुच्छ दुर्बलता को छोड़कर तू युद्ध के लिए खड़ा हो जा॥१-३॥
ऐसा सुनकर अर्जुन क्या बोले संजय ?
अर्जुन बोले- महाराज! मैं मरने से थोड़े ही डरता हूं, मैं तो मारने से डरता हूं। हे हरीसूदन! यह भीष्म और द्रोण तो पूजा करने योग्य हैं। इसलिए हे मधुसूदन! ऐसे पूज्य जनों को तो कटु शब्द भी नहीं कहना चाहिए। फिर उनके साथ मैं बाणों से युद्ध कैसे करूं? ॥४॥
अरे भैया! केवल कर्तव्यपालन के सामने और कुछ भी देखा जाता है क्या?
 महाराज!  महानुभाव गुरुजनों को ना मार कर मैं इस मनुष्य लोक में भिक्षा के अन्न से जीवन निर्वाह करना भी श्रेष्ठ समझता हूँ। अगर आपके कहे अनुसार मैं  युद्ध भी करूं तो गुरुजनों को मारकर उनके खून से लथपथ तथा धन की कामना की मुख्यता वाले भोगों को ही भोगूँगा! इस से मुझे शांति थोड़े ही मिलेगी॥५॥
फिर तुम क्या करना चाहते हो ?
हे भगवान्! हम लोग यह नहीं समझ पा रहे युद्ध करना ठीक है या युद्ध ना करना ठीक है तथा युद्ध में हम उनको जीतेंगे या वह हमको जीतेंगे। सबसे बड़ी बात तो यह है भगवन्! कि हम जिन को मार कर जीना भी नहीं चाहते, वही धृतराष्ट्र के संबंधी हमारे सामने खड़े हैं। फिर इनको हम कैसे मारे?॥६॥
जब तुम निर्णय नहीं ले सकते हो तो फिर तुमने क्या उपाय सोचा?
 हे महाराज! कायरता के दोष से मेरा क्षात्र स्वभाव दब गया है और धर्म का निर्णय करने में मेरी बुद्धि काम नहीं कर रही है।  इसलिए जिससे मेरा निश्चित कल्याण हो, वह बात मेरे लिए कहिए। मैं आपका शिष्य हूं और आप की शरण में हूं। आप मुझे शिक्षा दीजिए।
परंतु महाराज आपने पहले जैसे युद्ध करने के लिए कह दिया था वैसा फिर ना करें क्योंकि युद्ध के परिणाम में मुझे यहां का धन धान्य से संपन्न और निष्कंटक राज्य मिल जाए अथवा देवताओं का अधिपत्य मिल जाए तो भी मेरा यह इंद्रियों को सुखाने वाला शोक दूर हो जाए,ऐसा मैं नहीं देखता॥७-८॥
फिर क्या हुआ संजय?
 संजय बोलें - हे राजन्! निंद्रा विजय अर्जुन, अंतर्यामी भगवान श्री कृष्ण से " मैं युद्ध नहीं करूंगा " - ऐसा साफ-साफ कह कर चुप हो गए॥९॥
 अर्जुन के चुप होने पर भगवान ने क्या कहा?
अंतर्यामी भगवान श्री कृष्ण दोनों सेनाओं के मध्य भाग में विषाद करते हुए अर्जुन से मुस्कुराते हुए कहने लगे-तू शोक ना करने लायक का शोक करता है, और पंडिताई की सी बड़ी - बड़ी बातें करता है; परंतु जो मर गए हैं उनके लिए और जो जीते हैं उनके लिए भी पंडित लोग शौक नहीं करते॥१०-११
शोक क्यों नहीं करते भगवन्?
मैं,तू और यह राजा लोग पहले नहीं थे - यह बात भी नहीं है और हम सब आगे नहीं रहेंगे, यह बात भी नहीं है अर्थात हम सब पहले भी थे और आगे भी रहेंगे- ऐसा जानकर पंडित शौक नहीं करते॥१२॥
 इस बात को कैसे समझा जाए ?
अरे भैया! देह धारी शरीर में जैसे कुमार, युवा, और वृद्धा अवस्था होती है, ऐसे ही देहधारी को दूसरे शरीर की प्राप्ति भी होती है। इस विषय में पंडित लोग मोहित नहीं होते ॥१३॥कुमार आदि अवस्थाएं शरीर की होती है ,यह तो ठीक है ,पर अनुकूल- प्रतिकूल ,सुखदाई -दुखदाई ,पदार्थ सामने आ जाएँ, तब क्या करे?
 हे कुन्तीनन्दन!  इन्द्रियों के जितने विषय हैं, वह सभी अनुकूलता और प्रतिकूलता के द्वारा सुख और दुख देने वाले हैं। परंतु वे आने-जाने वाले और अनित्य ही हैं। इसलिए उनको तुम सहन करो,उनमें तू निर्विकार रहो ॥१४॥
उनको सहने से, उनमे निर्विकार रहने से क्या लाभ होता है?
पुरुषों में श्रेष्ठ अर्जुन! सुख-दुख में समान रहने वाले जिस धीर पुरुष को यह इंद्रियों के विषय सुखी दुखी नहीं करते, वे स्वयं परमात्मा की प्राप्ति का अनुभव कर लेता है॥१५॥
 वह अमरता का अनुभव कैसे कर लेता है? 
सत्(चेतन त्तव) - की सत्ता का कभी अभाव नहीं होता और असत् यानी कि जड़ पदार्थों की सत्ता ही नहीं है। इन दोनों के तत्व को ज्ञानी महापुरुष जान लेते हैं, इसलिए भी अमर हो जाते हैं॥१६॥
वह सत् (अविनाशी) क्या है भगवन्? 
जिससे यह संपूर्ण संसार व्याप्त है, उसको तुम अविनाशी समझो । इस अविनाशी का विनाश कोई भी नहीं कर सकता॥१७॥
 असत्(विनाशी) क्या है भगवन्? 
इस अविनाशी, अप्रमेय, में और नित्य रहने वाली शरीरी के सब शरीर अंत वाले हैं, विनाशी हैं। इसलिए हे अर्जुन! तुम अपने युद्धरूप कर्तव्य कर्म का पालन करो॥१८॥
 युद्ध में तो मरना- मारना ही होता है; इसलिए अगर शरीर को मरने -मारने वाला माने, तो?
 जो इस अविनाशी शरीरी को शरीरों की तरह मरने वाला मानता है और जो इस को मारने वाला मानता है। वे दोनों ही ठीक नहीं जानते; क्योंकि यह ना किसी को मारता है और ना स्वयं मारा जाता है॥१९॥
 यह शरीरी मरने वाले क्यों नहीं है भगवन् ? 
यह शरीरी ना तो कभी पैदा होता है और ना कभी मरता ही है।  यह पैदा होकर फिर होने वाला नहीं है। यह जन्म रहित नित्य-निरंतर रहने वाला शाश्वत और अनादि है। शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता॥२०॥
 ऐसा जानने से क्या होगा?
 हे पार्थ! जो मनुष्य इस शरीरी को अविनाशी, नित्य, जन्म रहित और अव्यय  मानता है, वह कैसे किसी को मार सकता है और कैसे किसी को मरवा सकता है? ॥२१॥
तो फिर मरता कौन है भगवन् ? 
 यह शरीर मरता है। मनुष्य जैसे पुराने कपड़ों को छोड़कर नये कपड़ों को धारण करता है, ऐसे ही यह शरीरी पुराने शरीरों को छोड़कर दूसरे नई शरीरों में चला जाता है॥२२॥
 नये-नये शरीरों को धारण करने से इसमें कोई ना कोई विकार तो आता ही होगा?
 नहीं, इसने कभी कोई विकार नहीं आता, क्योंकि इस शरीरी  को शस्त्र काट नहीं सकते, अग्नि जला नहीं सकती, जल गिला नहीं कर सकता और वायु सूखा नहीं सकती॥२३॥
यह शस्त्र आदि से कटता, जलता, गलता और सूखता क्यों नहीं? 
यह शरीरी काटा भी नहीं जा सकता,जलाया भी नहीं जा सकता, गीला भी नहीं किया जा सकता और सुखाया भी नहीं जा सकता; क्योंकि यह है नित्य रहने वाला, सब में परिपूर्ण,  स्थिर  स्वभाव वाला, अचल और सनातन है। यह देही- इंद्रियों आदि का विषय नहीं है अथार्त यह अप्रत्यक्ष नहीं दिखता। यह अन्त:करण का भी विषय नही हैं और इसमें कोई विकार भी नहीं होता है इसलिए इस देही को ऐसा जानकर तुझे शोक नहीं करना चाहिए॥२४-२५॥
 इस शरीरी को निर्विकार मानने पर तो शोक नहीं हो सकता पर इसे विकारी मानने पर तो शोक हो ही सकता है?
 हे महाबाहो! अगर तू इस शरीरी को नित्य पैदा होने वाला और नित्य मरने वाला भी मान ले तो भी तुझे इस का शोक नहीं करना चाहिए; क्योंकि जो पैदा हुआ है, वह जरूर मरेगा और जो मर गया है,वह जरूर पैदा होगा। इस नियम को कोई भी हटा नहीं सकता। अतः शरीरी को लेकर तुझे शोक नहीं करना चाहिए॥२६-२७॥
 शरीरी को लेकर शोक नहीं करना चाहिए, यह तो ठीक है ;पर शरीर को लेकर तो शोक होता ही है भगवन्.! 
शरीर को लेकर भी शोक नहीं हो सकता; क्योंकि हे भारत ! सभी प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद फिर अप्रकट हो जाएंगे, केवल बीच में प्रकट दिखते हैं। अतः इसमें शोक करने की बात ही कौन सी है?॥२८॥
तो फिर शोक क्यों होता है?
 ना जानने से।
जानना कैसे हो? 
वह जानना अथार्त अनुभव करना इंद्रियां, मन  बुद्धि से नहीं होता, इसलिए इस शरीरी  को देखना, कहना, सुनना  सब आश्चर्य की तरह ही होता है। अत:इस  को सुनकर के कोई भी नहीं जान सकता अर्थात इसको अनुभव तो स्वयं ही होता है॥२९॥
 तो फिर यह कैसा है?
 हे भरतवंशी अर्जुन! सबके देह में रहने वाला यह देही नित्य ही अवध्य है, ऐसा जानकर तुझे किसी भी प्राणी के लिए शोक नहीं करना चाहिए॥३०॥
 शोक दूर करने की तो आपने बहुत सी बातें बता दी पर मुझे जो पाप का भय लग रहा है वह कैसे दूर हो? 
अपने धर्म क्षत्रिय धर्म को देख कर भी तुझे भयभीत नहीं होना चाहिए; क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्म में युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याण कारक कर्म नहीं है॥३१॥
 तो क्या क्षत्रिय को युद्ध करते ही रहना चाहिए?
 नहीं, जो युद्ध आप से आप प्राप्त हो जाए सामने आ जाए, वह युद्ध क्षत्रिय के लिए स्वर्ग जाने का खुला दरवाजा है। इसलिए पार्थ! ऐसा युद्ध जिन क्षत्रिय को प्राप्त होता है, वही वास्तव में सुखी होते हैं*॥३२॥(भोगों का मिलना कोई सुख नहीं है प्रत्युत वह तो महान दुखों का कारण है वास्तविक सुख वही है जो दुख से रहित हो। दुख से रहित सुख  यही है कि स्वधर्म रूप कर्तव्य कर्म करने का अवसर मिल जाए अतः जिन को कर्तव्य पालन का अवसर प्राप्त हुआ है वही वास्तव में सुखी और भाग्यशाली हैं।)
 ऐसे आप से आप प्राप्त युद्ध को मैं ना करूं, तो? 
अगर तू ऐसे धर्ममय युद्ध को नहीं करेगा तो तेरे क्षत्रिय धर्म का और तेरी कीर्ति का नाश होगा तथा तुझे कर्तव्य पालन ना करने का पाप भी लगेगा॥३३॥
अप कीर्ति से क्या होगा ?
अरे, तो युद्ध नहीं करेगा तो देवता, मनुष्य आदि सभी तेरी बहुत दिनों तक रहने वाली अपकीर्ति का कथन करेंगे। यह अपकीर्ति आदरणीय, सम्माननीय मनुष्य के लिए मृत्यु से भी बढ़कर दुखदाई होती है। ॥३४॥
और क्या होगा भगवान्,? 
जिन भीष्म द्रोणाचार्य आदि महारथियों की दृष्टि में तू श्रेष्ठ माना गया है, उनकी दृष्टि में तू तुच्छता को प्राप्त हो जाएगा और वह महारथी लोग तुझे मरने के भय के कारण युद्ध से उपरत हुआ मानेंगे।
 शेष कल-


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