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गुरुवार, 16 अगस्त 2018

गीता माधुर्य अध्याय २का शेष(श्री मद्भागवत गीता का सरल रूप)

                    गीता माधुर्य अध्याय २का शेष

क्या मैं यह सह नही सकता भगवन्?
नही, तू सह नही सकता,क्योंकि तेरे शत्रुओं को वैरभाव निकालने का मौका मिल जायेगा। वेे तेरी सामर्थ की निन्दा करते हुये तुझे बहुत सी न कहने वाली बातें कहेंगे। उससे बढ़कर दुख और क्या होगा?॥३६॥
और अगर मैं युद्ध करूं तो? 
युद्ध करते हुए अगर तू मारा जायगा तो तुझे स्वर्ग मिल जायेगा और अगर तू युद्ध जीत गया तो तुझे पृथ्वी का राज्य मिल जायेगा। अतः हे कुन्ती नन्दन! तू युद्ध का निश्चय करके खड़ा हो जा॥३७॥
क्या युद्ध से मुझे पाप नही लगेगा भगवन् ?
नहीं, पाप तो स्वार्थ बुद्धि से ही होता है, अतः तू जय-पराजय, लाभ-हानि, सुख - दुख में समबुद्धि रखकर युद्ध कर। इस प्रकार युद्ध करने से तुझे पाप नही लगेगा॥३८॥
जिस समबुद्धि से कर्म करते जरा भी पाप नही लगता, उसकी और क्या विशेषता है भगवन्? 
इस समबुद्धि की बात मैंने पहलें सांख्ययोग मेंं कह दी है अब तू इसको कर्म योग के विषय में सुन-
१.  इस सम बुद्धि से युक्त हुआ तू  संपूर्ण  कर्मों के  बंधन से  छूट जाएगा ।
२.  इस सनबुद्धि के  आरंभ मात्र का भी नाश नहीं होता।
३.  इसके अनुष्ठान का कभी उल्टा फल नहीं होता।
४.  इसका थोड़ा सा भी अनुष्ठान जन्म मरण रूप महान भव से रक्षा कर लेता है ।।३९-४०।।
जिस समबुद्धि की आपने इतनी महिमा गाई है उसको प्राप्त करने का उपाय क्या है?
इस समबुद्धि की प्राप्ति के विषय में व्यवसायात्मिका( एक परमात्मा प्राप्ति की निश्चय वाली) बुद्धि एक ही होती है। परंतु जिनका परमात्मा प्राप्ति का एक निश्चय नहीं है ,ऐसे मनुष्य की बुद्धियाँ अनंत और बहू शाखाओं वाली होती है।
उनका परमात्मा प्राप्ति का एक निश्चित क्यों नहीं होता?
जो कामनाओं में तन्मय हो रहे हैं ,स्वर्ग को ही श्रेष्ठ मानने वाले हैं ,वेदों में कहे हुए तमाम कर्मों में ही प्रीति रखने वाले हैं, तथा भोगों के सिवाय और कुछ है ही नहीं -ऐसा कहने वाले हैं, वह बेसमझ मनुष्य इस दिखाऊ शोभायुक्त वाणी को कहा करते हैं जो कि जन्म रूप कर्मफल को देने वाली है तथा वह भोग और ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए भी बहुत ही क्रियाओं का वर्णन करने वाली है ।भोगों का वर्णन करने वाली पुष्पित वाणी से जिनका चित्त हर लिया गया है तथा भोगों की तरफ खींच गया है और जो भोग तथा ऐश्वर्या में अत्यंत आसक्त है, उन मनुष्य की परमात्मा में एक निश्चय वाली बुद्धि नहीं हो सकती।

भोग और ऐश्वर्या की आसक्ति से बचने के लिए मुझे क्या करना चाहिए भगवन?
वेद तीनों गुणों के कार्य (संसार) का वर्णन करने वाला है, इसलिए हे अर्जुन! तू वेदों में कहे हुए सकाम कर्मों से रहित हो जा ,राग द्वेष आदि द्वदों से रहित हो जा और नित्य निरंतर रहने वाले परमात्मा तत्व में स्थित हो जा ।तू अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति की और प्राप्त वस्तु की रक्षा की भी चिंता मत कर और केवल परमात्मा के परायण हो जा अर्थात एक परमात्मा प्राप्ति का ही लक्ष्य रख।।४५।।
ऐसा एक निश्चय कोई कर ले तो उसका क्या परिणाम होता है?
जैसे बहुत बड़े सरोवर के प्राप्त होने पर छोटे  सरोवर का कोई महत्व नहीं रहता ,कोई जरूरत नहीं रहती ।ऐसे ही वेदों और शास्त्रों के तात्पर्य को जानने वाले तत्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुष की दृष्टि में संपूर्ण वेदों का उतना ही तात्पर्य है अथार्त उनके मन में संसार का, भोगों का कोई महत्व नहीं रहता।
मेरे लिए ऐसी स्थिति को प्राप्त करने का कोई उपाय है?
हां ,कर्म योग है ।तेरा कर्तव्य कर्म करने में ही अधिकार है ,फल में कभी नहीं अथार्त तू फल की इच्छा ना रखकर अपने कर्तव्य का पालन कर। तू कर्म फल का हेतु भी मत बन अथार्त जिनसे कर्म किया जाता है, उन शरीर, इंद्रियां ,मन, बुद्धि आदि में भी ममता  ना रख।
तो फिर मैं कर्म करूं ही क्यों ?
कर्म ना करने में भी तेरी आसक्ति नहीं होनी चाहिए।
 तो फिर कर्म करूं कैसे ?
सिद्धि- असिद्धि में सम होना योग कहलाता है, इसलिए हे धनंजय !तू  आसक्ति  का त्याग करके योग में स्थित होकर कर्म कर ।
अगर योग में स्थित होकर कर्मका कर्म ना करूं तो?
 इस समता के बिना सकाम कर्म अत्यंत ही निकृष्ट है ।अतः हे धनंजय !तू सम बुद्धि का ही अाश्रय ले क्योंकि कर्म फल की इच्छा करने वाली कृपण है अर्थात कर्म फल के गुलाम है ।
कर्म फल की इच्छा वाले कृपण है तो फिर श्रेष्ठ कौन है ?समबुद्धि संयुक्त मनुष्य श्रेष्ठ है सम बुद्धि से युक्त मनुष्य इस जीवित अवस्था में ही पाप पुण्य से रहित हो जाता है। इसलिए तू समता में ही स्थित हो जा, क्योंकि कर्मों में समता ही कुशलता है ।
समबद्धि का क्या परिणाम होगा भगवन?
 समता से युक्त मनुष्य कर्म जन्य फल का त्याग करके और जन्म रूप बंधन से रहित होकर निर्विकार पद को प्राप्त हो जाते हैं ।
यह मैं कब समझूँ कि मैंने कर्म जन्य फल का त्याग कर दिया? 
जब तेरी बुद्धि   मोह रूपी दलदल  को तर जाएगी तब तुझे सुने हुए और  सुनने में आने वाले  भोगों से वैराग्य हो जाएगा ।वैराग्य होने पर फिर क्षमता की प्राप्ति कब होगी?
 शास्त्रों के अनेक सिद्धांतों से, मतभेदों से विचलित हुए तेरी बुद्धि जब संसार में सर्वथा विमुख होकर परमात्मा में अचल हो जाएगी तब तुझे योग शब्द रूप समता की प्राप्ति हो जाएगी। अर्जुन बोले- क्षमता की प्राप्ति हुए बुद्धि वाले मनुष्य के क्या लक्षण होते हैं ?
भगवान बोले- हे पार्थ ! जब साधक मन में रहने वाले संपूर्ण कामनाओं का त्याग कर देता है  और अपने आप से अपने आप में ही संतुष्ट रहता है ।तब वह स्थितप्रज्ञ सिद्धि वाला कहलाता है।

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