/ "ईश्वर के साथ हमारा संबंध: सरल ज्ञान और अनुभव: अधिक चंचलता उचित नहीं है।

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गुरुवार, 24 अक्तूबर 2019

अधिक चंचलता उचित नहीं है।

                     अधिक चंचलता उचित नहीं है

 प्राचीन काल की बात है सूर्यवंश  में शर्याती नाम के एक राजा थे ।उनके नगर के समीप ही मानसरोवर के समान एक सरोवर था । महर्षि भृगु का चयव्न  नामक एक बड़ा ही तेजस्वी पुत्र था। वह इस सरोवर के तट पर तपस्या करने लगा, वह मुनि कुमार बहुत समय तक वृक्ष के समान निश्चल रहकर एक ही स्थान पर विरासन में बैठे रहा, धीरे-धीरे अधिक समय बीतने पर उसका शरीर तृण और लताओं से ढक गया ।उस पर चीटियों ने अड्डा जमा लिया। ऋषि बांबी के रूप में दिखाई देने लगे ,वे चारों ओर से केवल मिट्टी का पिंड जान पड़ते थे। इस प्रकार बहुत काल व्यतीत होने के बाद एक दिन राजा शर्याति इस सरोवर पर क्रीडा करने के लिए आए उनकी 4 सहस्त्र सुंदर रानियां और एक सुंदर कन्या थी, उसका नाम सुकन्या था ।वह दिव्य गुणों से विभूषित कन्या अपनी सहेलियों के साथ विचरती   हुई उस चय्वन ऋषि के बांबी के पास पहुंच गई ,उसने उस बांबी के छिद्र में से चमकती हुई आंखों को देखा ,इससे उसे बड़ा कोतूहल हुआ, फिर बुद्धि भ्रमित हो जाने से उसने उन्हें कांटों से छेद दिया। इस प्रकार आंखें फूट जाने पर ऋषि को बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने शरियाती की सेना के मल मूत्र बंद कर दिए । मल मूत्र रुक जाने से सेना को बड़ा कष्ट हुआ। यह दशा देखकर राजा ने पूछा यहां निरंतर तपस्या में रत रहते हैं, उनका जाने किसने अपराध किया है। जिससे भी ऐसा हुआ हो वह बिना विलंब के तुरंत बता दे। राजा के ऐसा पूछने पर दुख से व्याकुल सेना ने कहा हम लोगों के द्वारा मन वाणी क्रम से मुनि का कुछ भी अपकार हुआ हो- इसे हम लोग नहीं जानते। जब सुकन्या को यह सब बात मालूम हुई तो उसने कहा मैं घूमती  एक बांबी के पास गई थी उसमें मुझे चमकता हुआ जीव दिखाई दिया था उसे मैंने बींध दिया। यह सुनकर शरियाती तुरंत उस बांबी के पास गए वहां उन्होंने  तपोवृद्ध और वयोवृद्ध चय्वन मुनि को देखा ,उन्होंने उनसे हाथ जोड़कर सेना को क्लेश मुक्त करने की प्रार्थना की और कहा कि भगवान अज्ञानवश इस बालिका से जो अपराध बन गया है उसे क्षमा करने की कृपा करें ।तब  भृगुनन्दन चय्वन ने राजा से कहा इस गवीली छोकरी ने अपमान करने के लिए ही मेरी आंख फोड़ी है अब मैं इसे पत्नी रुप में पाकर ही क्षमा कर सकता हूं ।अंधा हो जाने के कारण में असहाय हो गया हूं। इसे ही मेरी सेवा करनी होगी ।यह बात सुनकर राजा ने  बिना कोई विचार किए महात्मा चय्वन को अपनी कन्या दे दी। उस कन्या को पाकर प्रसन्न हो गए और उनकी कृपा से मुक्त हो राजा अपने नगर में लौट आए और राजकुमारी अपने पत्नि के नियमों का पालन करती हुई अपनी पति की सेवा करने लगी। इस प्रकार अपनी चंचलता के कारण सुकन्या को वन में निवास करना पड़ा और वृद्ध ऋषि से विवाह करना पड़ा ।अधिक चंचलता और बिना विचारी किया गया अविवेक पूर्ण कार्य दुखदाई होता है।

 (महाभारत वन- पर्व श्रीमद् देवी भागवत-सप्तम स्कन्ध)

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