सूर्य देव के बारे में संपूर्ण जानकारी
अक्सर मन में यह विचार आता है कि सूर्य ग्रह है या देवता? देवता है तो ग्रह कैसे हो सकता है?
आओ जानते हैं कि सूर्य देव कौन हैं और कैसे हैं?
1. सूर्य देव के माता पिता
पौराणिक सन्दर्भ में सूर्यदेव की उत्पत्ति के अनेक प्रसंग प्राप्त होते हैं। पुराणों अनुसार सूर्य देवता के पिता का नाम महर्षि कश्यप व माता का नाम अदिति है। अदिति के पुत्रों को आदित्य कहा गया है। 33 देवताओं में अदिति के 12 पुत्र शामिल हैं जिनके नाम इस प्रकार हैं- विवस्वान् (सूर्य), अर्यमा, पूषा, त्वष्टा, सविता, भग, धाता, विधाता, वरुण, मित्र, इंद्र और त्रिविक्रम (भगवान वामन)। 12 आदित्यों के अलावा 8 वसु, 11 रुद्र और 2 अश्विनकुमार मिलाकर 33 देवताओं का एक वर्ग है। ब्रह्माजी के पुत्र मरिचि से कश्यप का जन्म हुआ। कश्यप से विवस्वान और विवस्वान के पुत्र वैवस्त मनु थे। विवस्वान को ही सूर्य कहा जाता है।
2. पत्नी-पुत्र
विश्वकर्मा की पुत्री संज्ञा विवस्वान् की पत्नी हुई। उसके गर्भ से सूर्य ने तीन संतानें उत्पन्न की। जिनमें एक कन्या और दो पुत्र थे। सबसे पहले प्रजापति श्राद्धदेव, जिन्हें वैवस्वत मनु कहते हैं, उत्पन्न हुए। तत्पश्चात यम और यमुना- ये जुड़वीं संतानें हुई। यमुना को ही कालिन्दी कहा गया।
भगवान् सूर्य के तेजस्वी स्वरूप को देखकर संज्ञा उसे सह न सकी। उसने अपने ही सामान वर्णवाली अपनी छाया प्रकट की। वह छाया स्वर्णा नाम से विख्यात हुई। उसको भी संज्ञा ही समझ कर सूर्य ने उसके गर्भ से अपने ही सामान तेजस्वी पुत्र उत्पन्न किया। वह अपने बड़े भाई मनु के ही समान था। इसलिए सावर्ण मनु के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उस छाया से शनैश्चर (शनि) और तपती नामक कन्या हुई।
यम धर्मराज के पद पर प्रतिष्ठित हुए और उन्होंने समस्त प्रजा को धर्म से संतुष्ट किया। सावर्ण मनु प्रजापति हुए। आने वाले सावर्णिक मन्वन्तर के वे ही स्वामी होंगे। कहते हैं कि वे आज भी मेरुगिरि के शिखर पर नित्य तपस्या करते हैं।..ऐसा भी कहा जाता है कि जब संज्ञा अपनी छाया छोड़कर स्वयं घोड़ी का रूप धारण करके तप करने लगी। भगवान सूर्य ने जब संज्ञा को तप करते देखा तो उसे पुन: अपने यहां ले आए। फिर संज्ञा के बड़वा (घोड़ी) रूप से अश्विनीकुमार हुए।
3. सूर्य का कुल
अदिति के पुत्र विवस्वान् से वैवस्वत मनु का जन्म हुआ। महाराज मनु को इक्ष्वाकु, नृग, धृष्ट, शर्याति, नरिष्यन्त, प्रान्शु, नाभाग, दिष्ट, करुष और पृषध्र नामक 10 श्रेष्ठ पुत्रों की प्राप्ति हुई। सूर्य के कई अन्य भी पुत्र थे। त्रेतायुग में कपिराज सुग्रीव और द्वापर में महारथी कर्ण भगवान सूर्य के अंश से ही उत्पन्न हुए माने जाते हैं। श्रीकृष्ण की माता देवकी 'अदिति का अवतार' बताई जाती हैं। भगवान सूर्य के परिवार की विस्तृत कथा भविष्य पुराण, मत्स्य पुराण, पद्म पुराण, ब्रह्म पुराण, मार्कण्डेय पुराण तथा साम्बपुराण में वर्णित है। सभी सूर्यवंशी उन्हीं की संतानें हैं।
4. अन्य नाम
रवि, दिनकर, दिवाकर, भानु, भास्कर, प्रभाकर, सविता, दिनमणि, आदित्य, अनंत, मार्तंड, अर्क, पतंग और विवस्वान। रविवार की प्रकृति ध्रुव है। रविवार भगवान विष्णु और सूर्यदेव का दिन भी है। हिन्दू धर्म में इसे सर्वश्रेष्ठ वार माना गया है। अच्छा स्वास्थ्य व तेजस्विता पाने के लिए रविवार के दिन उपवास रखना चाहिए।
सूर्य के इन 12 नामों का करें जाप
1- ॐ सूर्याय नम:।
2- ॐ मित्राय नम:।
3- ॐ रवये नम:।
4- ॐ भानवे नम:।
5- ॐ खगाय नम:।
6- ॐ पूष्णे नम:।
7- ॐ हिरण्यगर्भाय नम:।
8- ॐ मारीचाय नम:।
9- ॐ आदित्याय नम:।
10- ॐ सावित्रे नम:।
11- ॐ अर्काय नम:।
12- ॐ भास्कराय नम:।
ग्रह या देवता
सूर्य देव ग्रह नहीं एक देवता हैं। सूर्य ग्रह को वेदों में जगत की आत्मा कहा गया है। ज्योतिष के कुछ ग्रंथों और पुराणों में इन्हीं सूर्य को सूर्य देव से जोड़कर भी देखा जाता है जबकि सूर्य देव का जन्म धरती पर ही हुआ माना जाता है। एक अन्य कथा के अनुसार कश्यप की पत्नी अदिति ने सूर्य साधना करके अपने गर्भ से एक तेजस्वीवान पुत्र को जन्म दिया था। यह भी कहा जाता है कि सूर्यदेव ने ही उन्हें उनके गर्भ से उत्पन्न होने के वरदान दिया था।
आखिर कितने पुत्र और पुत्री के पिता हैं सूर्य नारायण
सनाातन परंपरा में भगवान सूर्य (Lord Sun) एक ऐसे देवता हैं, जिनके दर्शन हमें प्रतिदिन प्रात:काल होते हैं. शुभता, सौभाग्य और आरोग्य प्रदान करने वाले सूर्य की तरह उनका परिवार भी काफी बड़ा है. शनिदेव और यमुना समेत और कौन-कौन लोग शामिल हैं सूर्य परिवार में, जानने के लिए पढ़ें ये लेख.
सनातन परंपरा में जिन पंचदेव भगवान श्री गणेश (Lord Ganesha) , भगवान शिव (Lord Shiva) , भगवान विष्णु (Lord Vishnu) , देवी दुर्गा (Goddess Durga) और सूर्य की पूजा प्रतिदिन करना जरूरी माना गया है।
उसमें भगवान सूर्यदेव (Lord Sun) एक ऐसे देवता हैं, जिनके दर्शन हम प्रतिदिन करते हैं. सूर्य की साधना अत्यंत ही शुभफल देने वाली मानी गई है. सूर्य की साधना से न सिर्फ साधक को सौभाग्य बल्कि आरोग्य का भी आशीर्वाद प्राप्त होता है. ज्योतिष के अनुसार जिस सूर्यदवे को नवग्रहों का राजा माना गया है, उनकी कृपा से हमें ज्ञान, विवेक, मान-सम्मान, कार्यक्षेत्र में सफलता, शत्रुओं पर विजय, सुख-समृद्धि प्राप्त होती है. भगवान सूर्य की महिमा को इस तरह से भी समझा जा सकता है कि उनकी साधना स्वयं भगवान श्री राम ने भी की थी. सूर्यदेव की तरह उनका परिवार भी काफी बड़ा है. आइए उनके परिवार के बारे में विस्तार से जानते हैं.
सूर्य और संज्ञा की पहली तीन संतान
भगवान सूर्य की दो पत्नियां थीं
जिनमें से पहली पत्नी संज्ञा जो कि विश्वकर्मा की पुत्री थीं, उनसे सूर्यदेव की पहली तीन संतान वैवस्वत मनु, यम और यमुना हैं. धर्मराज या यमराज सूर्य के सबसे बड़े पुत्र हैं. जिन्हें यमराज के नाम से जाना जाता है. उसके बाद यमुना नदी उनकी दूसरी संतान और ज्येष्ठ पुत्री हैं. जो अपने पिता सूर्यदेव के आशीर्वाद से पृथ्वी पर आज भी बह रही हैं. यमुना का वेग सामान्य है और इसमें नहाने से यम की प्रताड़ना से मुक्ति मिलती हैा वैवस्वत मनु सूर्य और संज्ञा की तीसरी संतान हैं. वैवस्वत मनु ये श्राद्ध देव हैं. ये पितृलोक के अधिपति हैं. इन्होंने ही भूलोक पर सृजन का कार्य किया था.
सूर्य और छाया की संतान
सूर्य का तेज सह न पाने के बाद जब उनकी पत्नी संज्ञा ने अपनी ही रूप-आकृति तथा वर्णवाली अपनी छाया को सूर्य के पास स्थापित कर अपने पिता के घर तप करने चली गईं तो उसके बाद सूर्य लंबे समय तक छाया को संज्ञा के साथ रहेा जिनसे सावर्णि मनु (वैवस्वत मनु की ही तरह इस मन्वन्तर के बाद अगले यानि आठवें मन्वन्तर के अधिपति होंगे.), शनि (जिन्हें दंडाधिकारी कहा जाता है), ताप्ती (यमुना के स्वभाव से विपरीत एक तेज बहाव वाली नदी हैं, जिसमें स्नान करने पर पितृदोष से मुक्ति और शनि की साढ़ेसाती से मुक्ति मिलती है) तथा विष्टि (भद्रा) नाम की चार संतान हुईं.
तब हुआ अश्विनी कुमार और रेवंंत का जन्म
जब सूर्यदेव को संज्ञा के बारे में पता चला तो वे उनके पास उस स्थान पर घोड़ा बनकर पहुंचे, जहां संज्ञा अश्विनी यानि घोड़ी के रूप में तप कर रही थीं. उसके बाद सूर्य और संज्ञा के संयोग से जुड़वां अश्विनी कुमारों की उत्पत्ति हुई. ये दोनों देवताओं के वैद्य हैं. इसके बाद सूर्य और संज्ञा के पुनर्मिलन के बाद सबसे छोटी संतान के रूप में रेवंत का जन्म हुआ था।
सूर्यदेव के १२ आदित्य व देवकुल
देवताओं के कुल में १२ आदित्यों, ८ वसुओं, ११ रुद्रों सहित इन्द्र व प्रजापति को मिलाकर कुल ३३ देवता होते हैं।कुछ विद्वान इन्द्र और प्रजापति की जगह २ अश्विनी कुमारों को भी रखते हैं। प्रजापति ही ब्रह्मा हैं। १२ आदित्यों में से १ विष्णु हैं और ११ रुद्रों में से १ शिव हैं। उक्त सभी देवताओं को परमेश्वर ने अलग अलग कार्य सौंप रखे हैं।जिस तरह देवता ३३ हैं जिन्हें 33 कोटि देवता भी कहते हैं। उसी तरह दैत्यों, दानवों, गंधर्वों, नागों आदि की गणना भी की गई है। देवताओं के गुरु बृहस्पति हैं, जो हिन्दू धर्म के संस्थापक ४ ऋषियों में से एक अंगिरा के पुत्र हैं। बृहस्पति के पुत्र कच थे जिन्होंने शुक्राचार्य से संजीवनी विद्या सीखी। शुक्राचार्य दैत्यों (असुरों) के गुरु हैं। भृगु ऋषि तथा हिरण्यकशिपु की पुत्री दिव्या के पुत्र शुक्राचार्य की कन्या का नाम देवयानी तथा पुत्र का नाम शंद और अमर्क था। देवयानी ने ययाति से विवाह किया था।
ऋषि कश्यप की पत्नी अदिति से जन्मे पुत्रों को आदित्य कहा गया है। वेदों में जहां अदिति के पुत्रों को आदित्य कहा गया है, वहीं सूर्य को भी आदित्य कहा गया है। वैदिक या आर्य लोग दोनों की ही स्तुति करते थे। इसका यह मतलब नहीं कि आदित्य ही सूर्य है या सूर्य ही आदित्य है। हालांकि आदित्यों को सौर देवताओं में शामिल किया गया है और उन्हें सौर मंडल का कार्य सौंपा गया है।भगवान सूर्यदेव जिन्हें आदित्य के नाम से भी जाना जाता है जो इनके बारह नामों में से एक नाम है। इनके बारह नामों में इनके विभिन्न स्वरूपों की झलक मिलती है। इनका हर रूप एक दूसरे से अलग होता है जो अपने आप में एक अलग महत्व रखता है। १२ आदित्य देव के अलग अलग नाम: ये कश्यप ऋषि की दूसरी पत्नी अदिति से उत्पन्न १२ पुत्र; अंशुमान, अर्यमन, इन्द्र, त्वष्टा, धातु, पर्जन्य, पूषा, भग, मित्र, वरुण, विवस्वान और विष्णु हैं। इन्हीं पर वर्ष के 12 मास नियुक्त होते हैं। पुराणों में इन मासों के नाम इस तरह मिलते हैं: धाता, मित्र, अर्यमा, शुक्र, वरुण, अंश, भग, विवस्वान, पूषा, सविता, त्वष्टा एवं विष्णु। कई जगह इनके नाम इन्द्र, धाता, पर्जन्य, त्वष्टा, पूषा, अर्यमा, भग, विवस्वान, विष्णु, अंशुमान और मित्र भी हैं।
१२ आदित्य – विवस्वान्, अर्यमा, पूषा, त्वष्टा, सविता, भग, धाता, विधाता, वरुण, मित्र, इंद्र और त्रिविक्रम (भगवान वामन)।
आदित्य स्वरूप
इन्द्र –यह भगवान सूर्य का प्रथम रूप है। यह देवाधिपति इन्द्र को दर्शाता है। देवों के राज के रूप में आदित्य स्वरूप हैं। इनकी शक्ति असीम हैं इन्द्रियों पर इनका अधिकार है। शत्रुओं का दमन और देवों की रक्षा का भार इन्हीं पर है।यह भगवान सूर्य का प्रथम रूप है। यह देवों के राजा के रूप में आदित्य स्वरूप हैं। इनकी शक्ति असीम है। इन्द्रियों पर इनका अधिकार है। शत्रुओं का दमन और देवों की रक्षा का भार इन्हीं पर है।इन्द्र को सभी देवताओं का राजा माना जाता है। वही वर्षा पैदा करता है और वही स्वर्ग पर शासन करता है। वह बादलों और विद्युत का देवता है। इन्द्र की पत्नी इन्द्राणी थी। छल कपट के कारण इन्द्र की प्रतिष्ठा ज्यादा नहीं रही। इसी इन्द्र के नाम पर आगे चलकर जिसने भी स्वर्ग पर शासन किया, उसे इन्द्र ही कहा जाने लगा। तिब्बत में या तिब्बत के पास इंद्रलोक था। कैलाश पर्वत के कई योजन उपर स्वर्ग लोक है।
इन्द्र किसी भी साधु और धरती के राजा को अपने से शक्तिशाली नहीं बनने देते थे। इसलिए वे कभी तपस्वियों को अप्सराओं से मोहित कर पथभ्रष्ट कर देते हैं तो कभी राजाओं के अश्वमेध यज्ञ के घोड़े चुरा लेते हैं।ऋग्वेद के तीसरे मंडल के वर्णनानुसार इन्द्र ने विपाशा (व्यास) तथा शतद्रु नदियों के अथाह जल को सुखा दिया जिससे भरतों की सेना आसानी से इन नदियों को पार कर गई। दशराज्य युद्ध में इन्द्र ने भरतों का साथ दिया था। सफेद हाथी पर सवार इन्द्र का अस्त्र वज्र है और वह अपार शक्ति संपन्न देव है। इन्द्र की सभा में गंधर्व संगीत से और अप्सराएं नृत्य कर देवताओं का मनोरंजन करते हैं।
धाता – धाता हैं दूसरे आदित्य। इन्हें श्रीविग्रह के रूप में जाना जाता है। ये प्रजापति के रूप में जाने जाते हैं। जन समुदाय की सृष्टि में इन्हीं का योगदान है। जो व्यक्ति सामाजिक नियमों का पालन नहीं करता है और जो व्यक्ति धर्म का अपमान करता है उन पर इनकी नजर रहती है। इन्हें सृष्टिकर्ता भी कहा जाता है।
पर्जन्य – तीसरे आदित्य का नाम पर्जन्य है। यह मेघों में निवास करते हैं। इनका मेघों पर नियंत्रण हैं। वर्षा के होने तथा किरणों के प्रभाव से मेघों का जल बरसता है। ये धरती के ताप को शांत करते हैं और फिर से जीवन का संचार करते हैं। इनके बगैर धरती पर जीवन संभव नहीं।
त्वष्टा – आदित्यों में चौथा नाम श्री त्वष्टा का आता है। इनका निवास स्थान वनस्पति में हैं पेड़ पोधों में यही व्याप्त हैं औषधियों में निवास करने वाले हैं। अपने तेज से प्रकृति की वनस्पति में तेज व्याप्त है जिसके द्वारा जीवन को आधार प्राप्त होता है।त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप। विश्वरूप की माता असुर कुल की थीं अतः वे चुपचाप असुरों का भी सहयोग करते रहे। एक दिन इन्द्र ने क्रोध में आकर वेदाध्ययन करते विश्वरूप का सिर काट दिया। इससे इन्द्र को ब्रह्महत्या का पाप लगा। इधर, त्वष्टा ऋषि ने पुत्रहत्या से क्रुद्ध होकर अपने तप के प्रभाव से महापराक्रमी वृत्तासुर नामक एक भयंकर असुर को प्रकट करके इन्द्र के पीछे लगा दिया। ब्रह्माजी ने कहा कि यदि नैमिषारण्य में तपस्यारत महर्षि दधीचि अपनी अस्थियां उन्हें दान में दें दें तो वे उनसे वज्र का निर्माण कर वृत्तासुर को मार सकते हैं। ब्रह्माजी से वृत्तासुर को मारने का उपाय जानकर देवराज इन्द्र देवताओं सहित नैमिषारण्य की ओर दौड़ पड़े।
पूषा –पांचवें आदित्य पूषा हैं जिनका निवास अन्न में होता है। समस्त प्रकार के धान्यों में यह विराजमान हैं। इन्हीं के द्वारा अन्न में पौष्टिकता एवं उर्जा आती है। अनाज में जो भी स्वाद और रस मौजूद होता है वह इन्हीं के तेज से आता है।
अर्यमा –अदिति के तीसरे पुत्र और आदित्य नामक सौर-देवताओं में से एक अर्यमन या अर्यमा को पितरों का देवता भी कहा जाता है। आकाश में आकाशगंगा उन्हीं के मार्ग का सूचक है। सूर्य से संबंधित इन देवता का अधिकार प्रात: और रात्रि के चक्र पर है।आदित्य का छठा रूप अर्यमा नाम से जाना जाता है। यह वायु रूप में प्राणशक्ति का संचार करते हैं। चराचर जगत की जीवन शक्ति हैं। प्रकृति की आत्मा रूप में निवास करते हैं।
भग – सातवें आदित्य हैं भग, प्राणियों की देह में अंग रूप में विध्यमान हैं यह भग देव शरीर में चेतना, उर्जा शक्ति, काम शक्ति तथा जीवंतता की अभिव्यक्ति करते हैं।
विवस्वान –आठवें आदित्य हैं विवस्वान हैं। यह अग्नि देव हैं, इनमें जो तेज व उष्मा व्याप्त है वह सूर्य से कृषि और फलों का पाचन, प्राणियों द्वारा खाए गए भोजन का पाचन इसी अगिन द्वारा होता है। ये आठवें मनु वैवस्वत मनु के पिता हैं।
विष्णु – नौवें आदित्य हैं विष्णु। देवताओं के शत्रुओं का संहार करने वाले देव विष्णु हैं। वे संसार के समस्त कष्टों से मुक्ति कराने वाले हैं। माना जाता है कि नौवें आदित्य के रूप में विष्णु ने त्रिविक्रम के रूप में जन्म लिया था। त्रिविक्रम को विष्णु का वामन अवतार माना जाता है। यह दैत्यराज बलि के काल में हुए थे। हालांकि इस पर शोध किए जाने कि आवश्यकता है कि नौवें आदित्य में लक्ष्मीपति विष्णु हैं या विष्णु अवतार वामन।१२ आदित्यों में से एक विष्णु को पालनहार इसलिए कहते हैं, क्योंकि उनके समक्ष प्रार्थना करने से ही हमारी समस्याओं का निदान होता है। उन्हें सूर्य का रूप भी माना गया है। वे साक्षात सूर्य ही हैं। विष्णु ही मानव या अन्य रूप में अवतार लेकर धर्म और न्याय की रक्षा करते हैं। विष्णु की पत्नी लक्ष्मी हमें सुख, शांति और समृद्धि देती हैं। विष्णु का अर्थ होता है विश्व का अणु।
अंशुमान – दसवें आदित्य हैं अंशुमान। वायु रूप में जो प्राण तत्व बनकर देह में विराजमान है वहीं दसवें आदित्य अंशुमान हैं। इन्हीं से जीवन सजग और तेज पूर्ण रहता है।
वरूण –जल तत्व का प्रतीक हैं वरूण देव। यह ग्यारहवें आदित्य हैं। मनुष्य में विराजमान हैं जीवन बनकर समस्त प्रकृत्ति में के जीवन का आधार हैं। जल के अभाव में जीवन की कल्पना भी नहीं कि जा सकती है।वरुण को असुर समर्थक कहा जाता है। वरुण देवलोक में सभी सितारों का मार्ग निर्धारित करते हैं। वरुण तो देवताओं और असुरों दोनों की ही सहायता करते हैं। ये समुद्र के देवता हैं और इन्हें विश्व के नियामक और शासक, सत्य का प्रतीक, ऋतु परिवर्तन एवं दिन-रात के कर्ता-धर्ता, आकाश, पृथ्वी एवं सूर्य के निर्माता के रूप में जाना जाता है। इनके कई अवतार हुए हैं। उनके पास जादुई शक्ति मानी जाती थी जिसका नाम था माया। उनको इतिहासकार मानते हैं कि असुर वरुण ही पारसी धर्म में 'अहुरा मज़्दा' कहलाए।
मित्र – बारहवें आदित्य हैं मित्र। विश्व के कल्याण हेतु तपस्या करने वाले, ब्रह्माण का कल्याण करने की क्षमता रखने वाले हैं मित्र देवता हैं। यह बारह आदित्य सृष्टि के विकासक्रम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
सूर्य और सात घोडो का रहस्य
हिन्दू धर्म में देवी देवताओं तथा उनसे जुड़ी कहानियों का इतिहास काफी बड़ा है या यूं कहें कि कभी ना खत्म होने वाला यह इतिहास आज विश्व में अपनी एक अलग ही पहचान बनाए हुए है। विभिन्न देवी देवताओं का चित्रण, उनकी वेश भूषा और यहां तक कि वे किस सवारी पर सवार होते थे यह तथ्य भी काफी रोचक हैं।
सूर्य रथ
हिन्दू धर्म में विघ्नहर्ता गणेश जी की सवारी काफी प्यारी मानी जाती है। गणेश जी एक मूषक यानि कि चूहे पर सवार होते हैं जिसे देख हर कोई अचंभित होता है कि कैसे महज एक चूहा उनका वजन संभालता है। गणेश जी के बाद यदि किसी देवी या देवता की सवारी सबसे ज्यादा प्रसिद्ध है तो वे हैं सूर्य भगवान।
क्यों जुते हैं सात घोड़े
सूर्य भगवान सात घोड़ों द्वारा चलाए जा रहे रथ पर सवार होते हैं। सूर्य भगवान जिन्हें आदित्य, भानु और रवि भी कहा जाता है, वे सात विशाल एवं मजबूत घोड़ों पर सवार होते हैं। इन घोड़ों की लगाम अरुण देव के हाथ होती है और स्वयं सूर्य देवता पीछे रथ पर विराजमान होते हैं।
सात की खास संख्या
लेकिन सूर्य देव द्वारा सात ही घोड़ों की सवारी क्यों की जाती है? क्या इस सात संख्या का कोई अहम कारण है? या फिर यह ब्रह्मांड, मनुष्य या सृष्टि से जुड़ी कोई खास बात बताती है। इस प्रश्न का उत्तर पौराणिक तथ्यों के साथ कुछ वैज्ञानिक पहलू से भी बंधा हुआ है।
सात घोड़े और सप्ताह के सात दिन
⚘️सूर्य भगवान के रथ को संभालने वाले इन सात घोड़ों के नाम हैं; गायत्री, भ्राति, उस्निक, जगति, त्रिस्तप, अनुस्तप और पंक्ति। कहा जाता है कि यह सात घोड़े एक सप्ताह के सात दिनों को दर्शाते हैं। यह तो महज एक मान्यता है जो वर्षों से सूर्य देव के सात घोड़ों के संदर्भ में प्रचलित है लेकिन क्या इसके अलावा भी कोई कारण है जो सूर्य देव के इन सात घोड़ों की तस्वीर और भी साफ करता है।
सात घोड़े रोशनी को भी दर्शाते हैं
पौराणिक दिशा से विपरीत जाकर यदि साधारण तौर पर देखा जाए तो यह सात घोड़े एक रोशनी को भी दर्शाते हैं। एक ऐसी रोशनी जो स्वयं सूर्य देवता यानी कि सूरज से ही उत्पन्न होती है। यह तो सभी जानते हैं कि सूर्य के प्रकाश में सात विभिन्न रंग की रोशनी पाई जाती है जो इंद्रधनुष का निर्माण करती है।
बनता है इंद्रधनुष
यह रोशनी एक धुर से निकलकर फैलती हुई पूरे आकाश में सात रंगों का भव्य इंद्रधनुष बनाती है जिसे देखने का आनंद दुनिया में सबसे बड़ा है।प्रत्येक घोड़े का रंग भिन्न:सूर्य भगवान के सात घोड़ों को भी इंद्रधनुष के इन्हीं सात रंगों से जोड़ा जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि यदि हम इन घोड़ों को ध्यान से देखें तो प्रत्येक घोड़े का रंग भिन्न है तथा वह एक-दूसरे से मेल नहीं खाता है। केवल यही कारण नहीं बल्कि एक और कारण है जो यह बताता है कि सूर्य भगवान के रथ को चलाने वाले सात घोड़े स्वयं सूरज की रोशनी का ही प्रतीक हैं।
सारथी अरुण
पौराणिक तथ्यों के अनुसार सूर्य भगवान जिस रथ पर सवार हैं उसे अरुण देव द्वारा चलाया जाता है। एक ओर अरुण देव द्वारा रथ की कमान तो संभाली ही जाती है लेकिन रथ चलाते हुए भी वे सूर्य देव की ओर मुख कर के ही बैठते है!
केवल एक ही पहिया
रथ के नीचे केवल एक ही पहिया लगा है जिसमें 12 तिल्लियां लगी हुई हैं। यह काफी आश्चर्यजनक है कि एक बड़े रथ को चलाने के लिए केवल एक ही पहिया मौजूद है, लेकिन इसे हम भगवान सूर्य का चमत्कार ही कह सकते हैं। कहा जाता है कि रथ में केवल एक ही पहिया होने का भी एक कारण है।
पहिया एक वर्ष को दर्शाता है
यह अकेला पहिया एक वर्ष को दर्शाता है और उसकी 12 तिल्लियां एक वर्ष के 12 महीनों का वर्णन करती हैं। एक पौराणिक उल्लेख के अनुसार सूर्य भगवान के रथ के समस्त 60 हजार वल्खिल्या जाति के लोग जिनका आकार केवल मनुष्य के हाथ के अंगूठे जितना ही है, वे सूर्य भगवान को प्रसन्न करने के लिए उनकी पूजा करते हैं। इसके साथ ही गांधर्व और पान्नग उनके सामने गाते हैं औरअप्सराएं उन्हें खुश करने के लिए नृत्य प्रस्तुत करती हैं।
ऋतुओं का विभाजन
कहा जाता है कि इन्हीं प्रतिक्रियाओं पर संसार में ऋतुओं का विभाजन किया जाता है। इस प्रकार से केवल पौराणिक रूप से ही नहीं बल्कि वैज्ञानिक तथ्यों से भी जुड़ा है भगवान सूर्य का यह विशाल रथ।
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