/ "ईश्वर के साथ हमारा संबंध: सरल ज्ञान और अनुभव: श्रीमद्भागवत गीता हिंदी में(अध्याय 2 का शेष)

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शुक्रवार, 20 जुलाई 2018

श्रीमद्भागवत गीता हिंदी में(अध्याय 2 का शेष)

                 श्रीमद् भागवत गीता हिंदी में अध्याय 2


या तो तू युद्ध में मारा जाकर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम में जीतकर पृथ्वी का राज्य भोगेगा। इस कारण हे अर्जुन! तू युद्ध के लिए निश्चय करके खड़ा हो जा ॥३७॥

जय -पराजय, लाभ लाभ-हानि और सुख-दुख को समान समझ कर, उसके बाद युद्ध के लिए तैयार हो जा ;इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा॥३८॥

 हे पार्थ !यह बुद्धि तेरे लिए ज्ञान योग के विषय में कही गई और अब तू इसको कर्म योग के विषय में सुन - जिस बुद्धि से युक्त हुआ तू कर्मों के बंधन को भलीभांति त्याग देगा अथाार्त सर्वथा नष्ट कर डालेगा॥ ३९॥

 इस कर्मयोग में आरंभ का अथार्त बीज का नाश नहीं है और उल्टा फल स्वरुप दोष भी नहीं है, बल्कि इस कर्म योग रूप धर्म का थोड़ा सा भी साधन जन्म मृत्युरूप महान भय से रक्षा कर लेता है॥४०॥

 हे अर्जुन! इस कर्म योग में निश्चयात्मक बुद्धि एक ही होती है ;किंतु अस्थिर विचार वाले विवेकहीन सकाम मनुष्य की बुद्धियाँ निश्चय ही बहुत भेदों वाली और अनंत होती है॥४१॥

 हे अर्जुन! जो भोगों में तन्मय में हो रहे हैं, जो कर्फमल के प्रशंसक वेद वाक्यों में ही प्रीति रखते हैं, जिनकी बुद्धि में स्वर्ग ही परम प्राप्य वस्तु है और जो स्वर्ग से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु ही नहीं है- ऐसा कहने वाले हैं, वह अविवेकीजन इस प्रकार की जिस पुष्पित अथार्त दिखाऊ शोभायुक्त वाणी को कहा करते हैं जो कि जन्म रूप कर्म फल देने वाली तथा भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए नाना प्रकार की बहुत सी क्रियाओं का वर्णन करने वाली है,उस वाणी द्वारा जिन का चित्त हर लिया गया है, जो भोग और ऐश्वर्या में अत्यंत आसक्त है, उन पुरुषों की परमात्मा में निश्चयात्कामिका बुध्दि नहीं होती॥४२॥

 हे अर्जुन! वेद उपयुक्त प्रकार से तीनों गुणों के कार्यरूप समस्त भोगों एवं उनके साधनों का प्रतिपादन करने वाले हैं; इसलिए तू उन भोगों एवं उनके साधनों में आसक्तिहीन, हर्ष शोक आदि द्वन्दों से रहित, नित्य वस्तु परमात्मा में स्थित, योग - क्षेमको न चाहने वाला और स्वाधीन अंतकरण वाला हो॥४५॥
सब ओर से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त हो जाने पर छोटे जलाशय में मनुष्य का जितना प्रयोजन रहता है, ब्रह्म को तत्व से जानने वाले ब्राह्मण का समस्त वेदों में उतना ही प्रयोजन रहता है ॥४६॥

तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल का हेतु मत हो तथा तेरी कर्म ना करने में भी आसक्ति ना हो ॥४७॥

हे धनंजय! आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धि वाला होकर योग में स्थित हुआ कर्तव्य कर्मों को कर, समत्व ही योग कहलाता है॥४८॥

 इस समत्व रूप बुद्धि योग से सकाम कर्म अत्यंत ही निम्न श्रेणी का है। इसलिए हे धनञ्जय! तू सम बुद्धि में ही रक्षा का उपाय ढूंढ आथार्त बुद्धियोग का ही आश्रय ग्रहण कर ;क्योंकि फल के हेतु बनने वाले अत्यंत दीन है॥४९॥

समबुद्धियुक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है अथार्त उन से मुक्त हो जाता है। इससे तू समत्व रूप योग में लग जा; यह समत्व रूप योग ही कर्मों में कुशलता है अथार्त कर्म बंधन से छूटने का उपाय है ॥५०॥
क्योंकि सम बुद्धि से युक्त ज्ञानी जन कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल को त्याग कर, जन्म रूप बंधन से मुक्त हो, निर्विकार परम पद को प्राप्त हो जाते हैं ॥५१॥

जिस काल में तेरी बुद्धि मोहरूप दलदल को भलीभांति पार कर जाएगी, उस समय तू सुने हुए और सुनने में आने वाले इस लोक और परलोक संबंधी सभी भागों से वैराग्य को प्राप्त हो जाएगा ॥५२॥

भांति- भांति के वचनों को सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्धि जब परमात्मा में अचल और स्थिर  ठहर जाएगी, तब तू योग को प्राप्त हो जाएगा अथार्त तेरा परमात्मा से नित्य संयोग हो जाएगा ॥५३॥
                                अर्जुन उवाच
 अर्जुन बोले- हे केशव! समाधि में स्थित परमात्मा को प्राप्त हुए स्थिर बुद्धि पुरुष का क्या लक्षण है? वह स्थिर बुद्धि पुरुष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है? ॥५४॥
                               श्रीभगवानुवाच
 श्री भगवान बोले - हे अर्जुन! जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित संपूर्ण कामनाओं को भलीभांति त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है,उस काल में वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है ॥५५॥

दुखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता,ष सुखों की प्राप्ति में जो सर्वथा निस्पृह है तथा जिसके राग,भय और क्रोध नष्ट हो गए हैं, ऐसा मुनि स्थिर बुद्धि कहा जाता है॥५६॥
 जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त हो कर ना प्रसन्न होता है ,और ना द्वेष करता है उसकी बुद्धि स्थिर है ॥५७॥

और कछुआ सब ओर से अपने अंगों को जैसे समेट लेता है वैसे ही जब वह पुरुष इंद्रियों के विषयों से इंद्रियों को सब प्रकार से हटा लेता है तब उसकी बुद्धि स्थिर है (ऐसा समझना चाहिए)॥५८॥
इंद्रियों के द्वारा विषयों को ग्रहण न करने वाले पुरुष के भी केवल विषय तो निवृत हो जाते हैं परंतु उनमें रहने वाली आसक्ति निवृत्त नहीं होती। इस स्थिति प्रज्ञ पुरुष की तो आस्क्ति भी परमात्मा का साक्षात्कार करके निवृत हो जाती है॥५९॥
हे अर्जुन! आसक्ति का नाश ना होने के कारण यह प्रमथन स्वभाव वाली इंद्रियां यत्न करते हुए बुद्धिमान पुरुष के मन को भी बलात् हर लेती हैं ।॥६०॥
इसलिए साधक को चाहिए कि वह उन संपूर्ण इंद्रियों को वश में करके समाहित चित्त हुआ, मेरे परायण होकर ध्यान में बैठे, क्योंकि जिस पुरुष की इंद्रियां वश में होती है, उसी की बुद्धि स्थिर हो जाती है॥६१॥
 विषयों का चिंतन करने वाले पुरुष की उस विषयों में आ सक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में  विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है ॥६२॥
क्रोध से अत्यंत मूढ़भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है ,स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अथार्त ज्ञान शक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है॥६३॥
 परंतु अपने अधीन किए हुए अंतःकरण वाला साधक अपने वश में की हुई, राग द्वेष रहित इंद्रियों द्वारा विश्व में विचरण करता हुआ अंतकरण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है॥६४॥ अंत:करण की प्रसन्नता होने पर इसके संपूर्ण दुखों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्नचित्त वाले कर्म योगी की बुद्धि शीघ्र ही सब और से हटकर एक परमात्मा में ही भलीभांति स्थिर हो जाती है॥६५॥
 न जीते हुए मन और इंद्रियां वाले पुरुष में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती और उस आयुक्त मनुष्य के अंत:करण में भावना भी नहीं होती तथा भावनाहीन मनुष्य को शांति नहीं मिलती और शांति रहित मनुष्य को सुख कैसे मिल सकता है॥६६॥
 क्योंकि जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है ,वैसे ही विषयों में विचरती हुई इंद्रियों में से मन इन्द्रिय के साथ रहता है वह एक ही इंद्रिय इस अयुक्त पुरुष की बुद्धि को हर लेती है॥६७॥
 इसलिए हे महाबाहों! जिस पुरुष की इंद्रियां, इंद्रियों के विषयों से सब प्रकार निग्रह की हुई हैं, उसी की बुद्धि स्थिर है ॥६८॥संपूर्ण प्राणियों के लिए जो रात्रि के समान हैं ,उस नित्य ज्ञानस्वरूप परमानंद की प्राप्ति में स्थितप्रज्ञ योगी जागता है और जिस सांसारिक सुख की प्राप्ति में सब प्राणी जागते हैं, परमात्मा के तत्वों को जानने वाले मुनि के लिए वह रात्रि के समान हैं ॥६९॥
जैसे नाना नदियों के जल सब और से परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठा वाले समुंद्र में उसको विचलित ना करते हुए ही समा जाते हैं, वैसे ही सब लोग जिस स्थिति प्रज्ञ पुरुष में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किए बिना ही समा जाते हैं, वही पुरुष परम शांति को प्राप्त होता है, भोगों को चाहने वाला नहीं॥७०॥
जो पुरुष संपूर्ण कामनाओं को त्याग कर ममतारहित ,अहंकार रहित और स्पृहारहित हुआ विचरता  है, वही शांति को प्राप्त होता है, अथार्त वह शांति को प्राप्त है॥७१॥
 हे अर्जुन! यह ब्रह्म को प्राप्त हुए पुरुष की स्थिति है, इसको प्राप्त होकर योगी कभी मोहित नहीं होता और अंत काल में भी इस ब्राह्मी स्थिति में स्थित होकर ब्रह्मानंद को प्राप्त हो जाता है॥७२॥
 ओम तत्सत श्रीमद् भागवत गीता  श्री कृष्ण अर्जुन संवाद द्वितीय अध्याय पूर्ण

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