/ "ईश्वर के साथ हमारा संबंध: सरल ज्ञान और अनुभव: श्रीमद् भागवत गीता हिंदी में अध्याय 2

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गुरुवार, 19 जुलाई 2018

श्रीमद् भागवत गीता हिंदी में अध्याय 2

                           ॐ परमातम्ने नम:



कल्याण की इच्छा करने वाले मनुष्य को जीवन में एक बार गीताजी का पाठ जरूर करना चाहिए और अगर वह सरल भाषा में उपलब्ध हो तो उसका लाभ जरूर उठाना चाहिए
                      अथ द्वितीय अध्याय
                        संजय उवाच
संजय बोले- उस प्रकार करुणा से व्याप्त और आसुओं से पूर्ण तथा व्याकुल नेत्र वाले शोक युक्त उस अर्जुन के प्रति भगवान मधुसूदन ने यह वचन कहा।।१॥
                  श्रीभगवानुवाच
श्री भगवान बोले- हे अर्जुन! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ? क्योंकि ना तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है, ना स्वर्ग को देने वाला है, और ना कीर्तन को करने वाला है ॥२॥
इसलिए हे अर्जुन! नपुंसकता को मत प्राप्त हो ,तुझ में यह उचित नहीं जान पड़ती ।हे परंतु! हृदय की दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए खड़ा हो जा॥३॥
                       अर्जुन उवाच
 अर्जुन बोले - हे मधुसूदन! मैं रणभूमि में किस प्रकार बाणों से भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य के विरुद्ध लड़ूँगा? क्योंकि हेअरिसूदन!वे दोनों ही पूजनीय हैं ॥४॥
इसलिए इन महानुभाव गुरुजनों को ना मार कर मैं इस लोक में भिक्षा का अन्न भी खाना कल्याणकारक समझता हूं; क्योंकि गुरुजनों को मारकर भी इस लोक में रुधिर से सने हुए अर्थ और काम रूप भोगों को ही तो भोगूँगा॥५॥
हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिए युद्ध करना और ना करना - इन दोनों में से कौन-सा श्रेष्ठ है, अथवा यह भी नहीं जानते कि उन्हें हम जीतेंगे या हमको वह जीतेंगे और जिन को मारकर हम जीना भी नहीं चाहते वह ही हमारे आत्मीय धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे मुकाबले में खड़े हैं ॥६॥
इसलिए कायरता रूप दोष से उपहत हुए स्वभाव वाला तथा धर्म के विषय में मोहित चित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूं कि जो साधन निश्चित कल्याणकारक हो, वह मेरे लिए कहिए ;क्योंकि मैं आपका शिष्य हूं, इसलिए आपके शरण हुए मुझ को शिक्षा दीजिए॥७॥
 क्योंकि भूमि में निष्कंटक, धन-धान्य संपन्न राज्य को और देवताओं के स्वामी बने को प्राप्त हो कर भी मैं इस उपाय को नहीं देखता हूं ,जो मेरी इंद्रियों के सुखाने वाले शौक को दूर कर सकें॥८॥
                                   संजय उवाच
संजय बोले - हे राजन! निद्रा को जीतने वाले अर्जुन अंतर्यामी श्री कृष्ण महाराज के प्रति इस प्रकार कहकर फिर श्री गोविंद भगवान से' युद्ध नहीं करूंगा' यह स्पष्ट कह कर चुप हो गए॥९॥
 हे भरतवंशी धृतराष्ट्र! अंतर्यामी श्री कृष्ण महाराज दोनों सेनाओं के बीच में शोक करते हुए उस अर्जुन को हंसते हुए- से यह वचन बोले ॥१०॥
                         श्री भगवानुवाच
श्री भगवान बोले- हे अर्जुन! तू न शोक करने योग्य मनुष्य के लिए शोक करता है और पंडितों के से वचन को कहता है ;परंतु जिन के प्राण चले गए हैं, उनके लिए और जिन के प्राण नहीं गए हैं उनके लिए भी पंडित जन शौक नहीं करते॥११॥
 न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था, तू नहीं था अथवा यह राजा लोग नहीं थे और ना ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे ॥१२॥
जैसे जीवात्मा को इस देह में बालकपन ,जवानी और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है; उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता ॥१३॥
हे कुंतीपुत्र! सर्दी ,गर्मी और सुख -दुख को देने वाले इंद्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति विनाशील और अनित्य है, इसलिए हे भारत! उनको तू सहन कर ॥१४॥
क्योंकि हे पूरूश्रेष्ठ! दुख- सुख को समान समझने वाले जिस स्त्री - पुरुष को यह इंद्रिय और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते वह मोक्ष के योग्य होता है॥१५॥
असत् वस्तु की तो सत्ता नहीं है और सत्य का अभाव नहीं है इस प्रकार इन दोनों का ही तत्व तत्व ज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है॥१६॥
 नाशरहित तो तू उसको जान, जिससे यह संपूर्ण जगत - दृश्य वर्ग व्याप्त है। इस अविनाशी का विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है ॥१७॥
इस नाश रहित, अप्रमेय, नित्य स्वरूप जीवात्मा के यह सब शरीर नाशवान कहे गए हैं, इसलिए हे भरतवंशी अर्जुन! तू युद्ध कर॥१८॥
जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते ;क्योंकि यह आत्मा वास्तव में ना तो किसी को मारता है और ना किसी के द्वारा मारा जाता है ॥१९॥
यह आत्मा किसी काल में भी ना तो जन्मता है और ना मरता ही है तथा ना यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है; क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है; शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता॥२०॥
 हे पृथापुत्र अर्जुन! जो पुरुष आत्मा को नाश रहित, नित्य, अजन्मा और अव्यय जानता है, वह पुरुष कैसे किसको मरवाता है और कैसे किस को मारता है? ॥२१॥
जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है वैसे ही जीवात्मा पुरानी शरीरों को त्याग कर दूसरे नहीं शरीरों को प्राप्त होता है॥२२॥
इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकती॥२३॥
 क्योंकि यह आत्मा अच्छेध है ,यह आत्मा अदाह्य, अक्लेध निसंदेह अशोष्य है तथा यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, अचल स्थिर रहने वाला और सनातन है ॥२४॥
यह आत्मा अव्यक्त है यह आत्मा अचिन्त्य है और यह आत्मा विकार रहित कहा जाता है। इससे है अर्जुन! इस आत्मा को उपयुक्त प्रकार से जानकर तुम शौक करने को योग्य नहीं होअथार्त तुझे शौक करना उचित नही हैं॥२५॥
 किंतु यदि तू इस आत्मा को सदा जन्मने वाला तथा सदा मरने वाला मानता हो, तो भी हे महाबाहो! तू इस प्रकार शोक करने को योग्य नहीं है ॥२६॥
क्योंकि इस मान्यता के अनुसार जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म निश्चित है। इस से भी इस बिना उपाय वाले विषय में तू शोक करने योग्य नहीं है॥२७॥
 हे अर्जुन! संपूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो जाने वाले हैं ।केवल बीच में ही प्रकट हैं फिर ऐसी स्थिति में क्यों शोक करना है ?॥२८॥
कोई एक महापुरुष ही इस आत्मा को आश्चर्य की भांति देखता है और वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष है इसके तत्व का आश्चर्य की भांति वर्णन करता है तथा दूसरा कोई अधिकारी पुरुष ही इसे आश्चर्य की भांति सुनता है और कोई कोई तो सुनकर भी इसको नहीं जानता॥२९॥
 हे अर्जुन !यह आत्मा सब के शरीर में सदा ही अवध्य
( जिसका वध नहीं किया जा सके) है इस कारण संपूर्ण प्राणियों के लिए तू शोक करने के योग्य नहीं है ॥३०॥
तथा अपने धर्म को देख कर भी तू भय करने योग्य नहीं है अथार्त तूझे भय नहीं करना चाहिए ;क्योंकि क्षत्रियों के लिए धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई भी कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है॥३१॥
 हे पार्थ! अपने आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वाररूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान क्षत्रिय लोग ही पाते हैं ॥३२॥
किंतु यदि तू इस धर्म युद्ध  को नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पापको प्राप्त होगा ॥३३॥
तथा सब लोग तेरी बहुत काल तक रहने वाली अपकीर्ति का भी कथन करेंगे और माननीय पुरुष के लिए अपकीर्ति मरण से भी बढ़कर है ॥३४॥
और जिन की दृष्टि में तू पहले बहुत सम्मानित होकर अब लघुता को प्राप्त होगा, वे महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से हटा हुआ मानेंगे ॥३५॥
तेरे वेरी लोग तेरे सामर्थ्य की निंदा करते हुए तुझे बहुत से ना कहने योग्य वचन भी कहेंगे उससे अधिक दु:ख और क्या होगा?॥३६॥
शेष कल-

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जय श्री राधे

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