/ "ईश्वर के साथ हमारा संबंध: सरल ज्ञान और अनुभव: श्रीमद् भागवत गीता हिंदी में अध्याय-3 का शेष

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गुरुवार, 26 जुलाई 2018

श्रीमद् भागवत गीता हिंदी में अध्याय-3 का शेष

            श्रीमद् भागवत गीता (हिंदी में अध्याय 3 का शेष)
श्रेष्ठ पुरुष जो जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा- वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, , समस्त मनुष्य समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है॥२१॥
 हे अर्जुन! मुझे इन तीनों लोकों में ना तो कुछ कर्तव्य है और ना कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है । तो भी मैं क्रम में ही बरतता हूं॥२२॥
 क्योंकि हे पार्थ! यदि कदाचित् में सावधान हो कर कर्मों में न बरतूँ तो बड़ी हानि हो जाए; क्योंकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं॥२३॥
इसलिए यदि मैं कर्म ना करूं, तो यह सब मनुष्य नष्ट भ्रष्ट हो जाएं और मैं सडंक्रता का करने वाला होंऊँ तथा इस समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूँ॥२४॥
 हे भारत! कर्म में आसक्त से अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं आसक्ति रहित विद्वान भी लोकसंग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म करें॥२५॥
 परमात्मा के स्वरुप में अटल स्थित हुए ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि वह शास्त्र विहित कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अथार्त कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न ना करें । किंतु स्वंय शास्त्रविहित समस्त कर्म भलीभांति करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवाएं॥२६॥
 वास्तव में संपूर्ण करम सब प्रकार से प्रकृति के गुणों के द्वारा किए जाते हैं तो भी जिसका अंत:करण अंहकार से मोहित हो रहा है, ऐसा अज्ञानी 'मैं करता हूं' ऐसा मानता है॥२७॥
 परंतु हे महाबाहो! गुण विभाग और कर्म विभाग( त्रिगुणात्मक माया के कार्यरूप पांच महाभूत और मन, बुद्धि  अहंकार तथा पांच ज्ञानेंद्रियां, पांच कर्मेंद्रियां और शब्द आदि पांच विषय इन सबके समुदाय का नाम' गुण विभाग' है और इनकी परंपरा  की चेष्टाओं का नाम 'कर्म विभाग' है) के तत्वों को जानने वाला ज्ञान योगी संपूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा समझ कर उनमें आसक्त नहीं होता॥२८॥
प्रकृति के गुणों से अत्यंत मोहित हुए मनुष्य गुणों में और कर्मों में आसक्त रहते हैं, उन पूर्णतया न समझने वाले मंदबुद्धि, अज्ञानियों को पूर्णतया जानने वाला ज्ञानी विचलित ना करें ॥२९॥
मुझ अंतर्यामी परमात्मा में लगे हुए चित्तद्वारा संपूर्ण कर्मों को मुझ में अर्पण करके आशारहित, ममता रहित और संताप रहित होकर युद्ध कर ॥३०॥
जो कोई मनुष्य दोषदृष्टि से रहित और श्रद्धा युक्त होकर मेरे इस मत का सदा अनुसरण करते हैं, वे भी संपूर्ण कर्मों से छूट जाते हैं॥३१॥
 परंतु जो मनुष्य मुझ में दोषारोपण करते हुए मेरी इस मत के अनुसार नहीं चलते हैं उन मूर्खों को तो तू संपूर्ण ज्ञानों में मोहित और नष्ट हुए ही समझ॥३२॥
 सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात अपने स्वभाव के परवश हुए कर्म करते हैं। ज्ञानवान भी और प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है। फिर इसमें किसी का हठ क्या करेगा? ॥३३॥
इंद्रिय- इंद्रिय के अर्थ में अर्थात प्रत्येक इंद्रिय के विषय में राग और द्वेष छिपी हुई स्थित है। मनुष्य को उन दोनों के वश में नहीं होना चाहिए, क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्याण मार्ग में विघ्न करने वाले महान शत्रु है॥३४॥
 अच्छी प्रकार आचरण में लाए हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म को देने वाला है॥३५॥
                          अर्जुन ने कहा
अर्जुन बोले - हे कृष्ण! तो फिर यह मनुष्य स्वयं चाहता हुआ भी बलात् लगाये हुए की भांति किस से प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है ॥३६॥
                                श्रीभगवानुवाच
श्री भगवान बोले- रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है, यह बहुत खाने वाला अथार्त   भोगों से कभी ना अघाने वाला और बड़ा पापी है, इसको ही तू इस विषय में वैरी जान ॥३७॥
जिस प्रकार धुएँ से अग्नि और मेल से दर्पण ढका हुआ होता है तथा जिस प्रकार जेर से गर्भ ढका रहता है ,वैसे ही उस काम के द्वारा यह ज्ञान ढका  रहता है॥३८॥
 और यह अर्जुन! इस अग्नि के समान कभी न पूर्ण होने वाले कामरूप ज्ञानियों के नित्य वेरी के द्वारा मनुष्य का ज्ञान ढका हुआ है॥३९॥
 इंद्रियां, मन और बुद्धि यह सब इसके वास स्थान  कहे जाते हैं। यह काम इन मन, बुद्धि और इंद्रियों के द्वारा ही ज्ञान को आच्छादित करके जीवात्मा को मोहित करता है ॥४०॥इसलिए हे अर्जुन! तू पहले इंद्रियों को वश में करके इस ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाले महान पापी काम को अवश्य ही बलपूर्वक मार डाल॥४१॥
 इंद्रियों को स्थूल शरीर से पर यानि श्रेष्ठ, बलवान और सुक्षम कहते हैं; इन इंद्रियों पर मन है, मन से भी पर बुद्धि है और बुद्धि से भी अत्यंत पर है वह आत्मा है॥४२॥
 इस प्रकार बुद्धि से पर अर्थात  सुक्ष्म, बलवान और अत्यंत श्रेष्ठ आत्मा को जानकर और बुद्धि के द्वारा मन को वश करके हे महाबाहो! तू इस कामरूप दुर्जय शत्रु को मार डाला॥४३॥
ऊँ तत्सत श्रीकृष्ण अर्जुन संवाद तृतीय अध्याय 

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