/ "ईश्वर के साथ हमारा संबंध: सरल ज्ञान और अनुभव: जिसे आप हर ढूंढ रहे हो वह तो आपके अंदर है।

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सोमवार, 19 अगस्त 2019

जिसे आप हर ढूंढ रहे हो वह तो आपके अंदर है।

            *कस्तूरी कूंडल बसे**मृग ढूढें वन माहीं*

एक बहुत बड़े महानगर में एक भिक्षु मर गया था। वह जिस जमीन पर तीस वर्षों से भीख मांगता रहा बैठ कर, जहां उसने अपने गंदे चीथड़े फैला रखे थे, और तीस वर्षों की गंदगी फैला रखी थी।

वह मर गया, तो पड़ोस के लोगों ने उसकी लाश को तो फिंकवा दिया। और चूंकि उस भिखारी ने तीस वर्षों तक गंदगी की थी उस जमीन पर, उन्होंने सोचा, इसे थोड़ा खोद कर जरा इसकी जमीन साफ करवा दें।

वे हैरान रह गए।
जहां उन्होंने खोदा वहां खजाने गड़े थे। और वह भिखारी उन्हीं के ऊपर बैठ कर जीवन भर भिक्षा का पात्र फैलाए बैठा रहा और भीख मांगता रहा।

क्या अर्थ था उस खजाने का जो नीचे गड़ा था? कोई भी नहीं। वह न होने के बराबर था। वह भिखारी और हममें बहुत भेद नहीं।

जिस जमीन पर हम खड़े हैं वहीं बहुत कुछ गड़ा है। जहां हम हैं वहां बहुत कुछ है। ऐसे खजाने हैं जिन्हें पाकर आदमी परम आनंद को उपलब्ध हो जाता है। ऐसा सौंदर्य है, ऐसा सत्य है, ऐसा संगीत है कि जिसमें डूब कर जीवन का अर्थ उपलब्ध हो जाता है।

लेकिन उस तरफ आंख उठनी चाहिए।लेकिन उसके होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। वह दिखाई पड़ना चाहिए,मगर वह दिखाई नहीं पड़ता,अगर वह दिखाई नही पड़ता, तो हम  भिखमंगे भीख मांगे चले जाएंगे और हम भीख मांगते हुए समाप्त भी हो सकते हैं।

लेकिन उस तरफ आंख तभी उठ सकती है, जब बाहर की तरफ से आंख का धोखा टूट जाए, उसके पहले उसकी तरफ आंख नहीं उठ सकती।

कौन सी चीज है जो रोके हुए है उस तरफ आंख उठने से? कौन सी बात है जो अटकाए हुए है?

एक बात, और केवल एक ही बात, और वह यह कि शायद यह आशा कि बाहर मैं कुछ पा लूं--संपत्ति, शक्ति, पद, वैभव--कुछ पा लूं बाहर तो तृप्ति हो जाएगी मेरी। यह आशा और यह भ्रम भीतर आंख नहीं उठने देता।

चौबीस घंटे, चौबीस घंटे आंख अटकी रहती है कहीं बाहर। फिर यह आंख बाहर भटकते-भटकते परेशान हो जाती है, थक जाती है, बुढ़ापा आ जाता है।

तो हम देखते हैं बूढ़े आदमियों को मंदिरों में जाते, संन्यासियों की बातें सुनते, शास्त्र पढ़ते। थक जाती है आंख, बाहर से ऊब जाती है, परेशान हो जाती है, तो फिर हम सोचते हैं अब धर्म की शरण, क्योंकि मौत आती है करीब और वह जीवन तो हमने गंवा दिया।

लेकिन तब भी हम बाहर ही खोजते हैं। जीवन भर की गलत आदत पीछा नहीं छोड़ती। तब भी हम किसी मंदिर में खोजते हैं जो बाहर है। और किसी गुरु के चरणों में खोजते हैं, वह भी बाहर है। और किसी शास्त्र में खोजते हैं, वह भी बाहर है। और हिमालय पर चले जाएं और संन्यासी हो जाएं, वह सब होना बाहर है।

वह जीवन भर की जो गलत आदत थी बाहर खोजने की, यद्यपि यह दिखाई पड़ गया कि बाहर नहीं मिलता,

लेकिन फिर भी धर्म के नाम पर भी हम बाहर ही खोजते हैं। पहला भ्रम टूट जाता है तो दूसरा भ्रम उसकी जगह खड़ा हो जाता है।
सवाल यह नहीं है कि बाहर आप धन खोजते हैं, अगर आप धर्म भी बाहर खोजते हैं तो बात वही है, कोई फर्क न हुआ।

सवाल यह नहीं है कि बाहर आप शक्ति खोजते हैं, पद खोजते हैं, राज्य खोजते हैं, अगर ईश्वर को भी बाहर खोजते हैं कोई फर्क न हुआ, बात वहीं की वहीं है।

जो बाहर खोजता है उसकी आंख भीतर नहीं पहुंच पाती, फिर चाहे बाहर वह कुछ भी खोजता हो। एक संन्यासी मोक्ष खोज रहा है कि मरने के बाद मोक्ष चला जाएगा, बाहर खोज रहा है।

एक आदमी परमात्मा को खोज रहा है जगह-जगह, जगह-जगह, बाहर खोज रहा है। बाहर की खोज संसार है। फिर चाहे वह खोज किसी भी चीज की क्यों न हो। भीतर की खोज धर्म है।
भीतर क्या खोजेंगे? भीतर का तो हमें कोई पता ही नहीं, खोजेंगे क्या? ईश्वर को खोजेंगे? धन को खोजेंगे? क्या खोजेंगे भीतर? भीतर तो unknown है, अज्ञात है, क्या खोजेंगे? भीतर का हमें कोई पता नहीं, इसलिए हम क्या खोजेंगे?

बस एक ही बात हो सकती है, बाहर की खोज व्यर्थ दिखाई पड़ जाए तो बाहर से आंख अपने आप भीतर लौटनी शुरू हो जाएगी। जहां हमें सार्थकता दिखाई पड़ती है वहां हमारी आंख अटकी रहती है। वहीं हमारी आंख लगी रहती है जहां हमें अर्थ दिखाई पड़ता है, मीनिंग दिखाई पड़ता है। अगर वह मीनिंग दिखाई पड़ना बंद हो जाए कि वहां नहीं है अर्थ, आंख बदल जाएगी, फौरन बदल जाएगी। जहां हमें दिखाई पड़ता है कि अर्थ है वहीं हम बंधे रह जाते हैं।

-ओशो

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