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शनिवार, 26 नवंबर 2016

प्रभु का स्वभाव कैसा होता है?

                                                                                                             प्रभु का स्वभाव




भगवान श्री राम का कथन हैं कि कोई भी मुझसे मित्रता के लिए हाथ बढ़ाये तो मैं इंकार नहीं कर सकता हूँ , फिर चाहे  उसमे दोष ही क्यों न हो। मैं जब जीवों को अपनाता हूँ , जीव जब पूर्ण रूप से आत्मसमर्पण कर  देता हैं तब वह निर्दोष हो जाता हैं। शरणागत को प्रभु के सन्मुख रहना चाहिए। हर समय प्रभु के श्री  मुख को भक्त देखा करता हैं और प्रभु भक्त को देखते रहते हैं। इस प्रकार के भक्त को सन्मुख कहते हैं। सन्मुख भक्त के सभी पाप -ताप नष्ट हो जाते हैं। विमुख प्राणी ईश्वर से पीठ करके रहता हैं , तो प्रभु भी उससे पीठ कर लेते हैं।
                भक्तो के साथ भगवान छाया की तरह घूमते हैं। हम लोग भगवान की इच्छा शक्ति के आधीन रहकर के कार्य कर रहे हैं। जँहा -जँहा का अन्न जल भाग्य में  हैं , वँहा -वँहा जाना होगा। महत्वपूर्ण और प्रसन्नता की बात यह हैं कि सत्संग मिलता रहे।  इसी में हमे सब कुछ की प्राप्ति हैं। भक्त हृदय में प्रभु शुभ प्रेरणा करते हैं। दुष्ट जन चोरी आदि करके यदि यह कहे कि उसने ईश्वर की प्रेरणा से पाप किया वो दण्ड का भागी नहीं हैं। ऐसा कहने से राजा उसे दंड से मुक्त नहीं करेगा। पापियों के हृदय में पाप करने की प्रेरणा पाप ही करवाता हैं। पुण्यवानों के ह्रदय में पूण्य करने की प्रेरणा होती हैं। अपने मन को हम जब प्रभु से मिलाकर  रखेंगे तो भगवान प्रेरणा करेंगे , और मंगल ही मंगल होगा।
                                                                       
।। श्री राधे।।

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जय श्री राधे

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