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शनिवार, 11 मई 2024

कलयुग के दोषों से बचा जा सकता है।

                कलयुग के दोषों से बचा जा सकता है।


कलयुग– के– दोषों– से –बचा– जा– सकता– है।


राम नाम का आश्रय लेने वाले ही कलयुग के दोषों से बचते हैं अन्यथा बड़े से बडा भी कोई बच नहीं सकता है। एक संत सुदामा कुटी में रहते हैं उन्होंने बताया कि मेरे सामने कलयुग आया और उसने यह बात कही। इस दिन से अब मैं समय से राम मंत्र जपता हूं भगवान का नाम, रूप, लीला, धाम यह चारों समान है। इनमें एकता रहती है। इनमें से एक का भी आश्रय यदि कोई लेता है तो उसका कल्याण हो जाता है। इन चारों में से नाम सबसे ज्यादा सुलभ है। नाम लेने में कोई विधि विधान नहीं, अपवित्रता पवित्रता की भी आवश्यकता नहीं। यदि छल,कपट, ईर्ष्या, द्वेष आदि को छोड़कर नाम लेता है तो उसका अवश्य कल्याण हो जाता है। प्रभु के नाम में विश्वास रखकर उसके अभ्यास को बढ़ाना चाहिए। उसके बदले में दूसरी कामना नहीं करनी चाहिए। हमारे भीतर बाहर की सारी बातों को परमात्मा जानता है। हमारे ऊपर प्रभु कृपा है स्वयं अनुभव करना चाहिए।

।।जय श्री राधे।।

दादा गुरु भक्तमाली श्री गणेशदास जी महाराज के श्री मुख से, परमार्थ के पुत्र पुष्प से लिया गया।

जन्म जन्मांतर के अशुभ संस्कारों को मिटाने के लिए

          जन्म जन्मांतर के अशुभ संस्कारों को मिटाने के लिए


जन्म जन्मांतर- के- अशुभ- संस्कारों- को- मिटाने- के- लिए

जन्म जन्मांतर के अशुभ संस्कारों को मिटाने के लिए निरंतर नाम जप आदि साधन आवश्यक है। श्रेष्ठ नाम स्मरण ही है। दूसरे साधनों की योग्य हम नहीं हैं। आवश्यक कामकाज करने के बाद या करते-करते भी नाम जप का अभ्यास बढ़ाना चाहिए। नाम में प्रेम होना और भगवान में प्रेम होना एक ही बात है। नाम जप के साथ ही यह नहीं सोचना चाहिए कि हमें सिद्धि नही मिली, कोई अनुभव नहीं हो रहे हैं   नाम जप में एकाग्रता के बढ़ जाने पर विषयों से वैराग्य हो जाएगा, अंत:करण यानी मन, बुद्धि, चित् अहंकार की शुद्ध हो जाएगी। तब स्वयं दिव्य अनुभव होने लग जाएंगे। नाम जप को ध्यानपूर्वक करना चाहिए या बिना ध्यान के? ऐसा कोई प्रश्न करें तो उसका उत्तर यह है कि ध्यान सहित नाम का जप अतिश्रेष्ठ है, परंतु आरंभ में यदि ध्यान सहित नाम जप नहीं बने तो बिना ध्यान के भी नाम जप करना चाहिए पर जप करते समय मन को इधर-उधर अनिष्ट विषयों में नहीं जाना चाहिए। जाए तो रोकना चाहिए। लीला चिंतन या रूप चिंतन, शोभा चिंतन, धाम चिंतन जो भी संभव हो करना चाहिए। उसे नाम जप के साथ करना चाहिए। कीर्तन करते समय गाने में मन को एकाग्र करना चाहिए। नाम के अर्थ अथवा लिखे हुए नाम में भी मन लगाना चाहिए। कृपा करके जीव के ऊपर भगवान ही नाम के रुप में प्रकट होते हैं। अपने नाम जप का प्रचार ना करके उसे गुप्त रखना चाहिए।किसी साधक को नाम जप में लगाने के लिए अपना नाम जप भजन कहा, बताया जा सकता है। अहंकार ना हो, बड़प्पन ना आवे, इसका ध्यान रखना चाहिए।

।। जय श्री राधे।।

दादा गुरु भक्त माली श्री गणेश दास जी महाराज के श्री मुख से परमार्थ के पत्र पुष्प में से लिया गया।

गुरुवार, 9 मई 2024

रवि पंचक जाके नहीं , ताहि चतुर्थी नाहिं। का अर्थ

 गोस्वामी तुलसीदासजी ने एक बड़े मजे की बात कही है -

रवि- पंचक- जाके- नहीं , ताहि- चतुर्थी- नाहिं। का अर्थ


कृपया बहुत ध्यान से पढ़े एवं इन लाइनों का भावार्थ समझने की कोशिश करे-


" रवि पंचक जाके नहीं , ताहि चतुर्थी नाहिं।

तेहि सप्तक घेरे रहे , कबहुँ तृतीया नाहिं।।"


गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं कि जिसको रवि पंचक नहीं है , उसको चतुर्थी नहीं आयेगी। उसको सप्तक घेरकर रखेगा और उसके जीवन में तृतीया नहीं आयेगी। मतलब क्या हुआ ? 

रवि -पंचक का अर्थ होता है - रवि से पाँचवाँ यानि गुरुवार ( रवि , सोम , मंगल , बुद्ध , गुरु ) अर्थात् जिनको गुरु नहीं है , तो सन्त सद्गुरु के अभाव में उसको चतुर्थी नहीं होगी।चतुर्थी यानी बुध ( रवि , सोम , मंगल, बुध ) अर्थात् सुबुद्धि नहीं आयेगी। सुबुद्धि नहीं होने के कारण वह सन्मार्ग पर चल नहीं सकता है। सन्मार्ग पर नहीं चलनेवाले का परिणाम क्या होगा ? ' तेहि सप्तक घेरे रहे ' सप्तक क्या होता है ? शनि ( रवि , सोम मंगल , बुध , बृहस्पति , शुक्र , शनि ) अर्थात् उसको शनि घेरकर रखेगा और ' कबहुँ तृतीया नाहिं।' तृतीया यानी मंगल ( रवि , सोम , मंगल )। उसके जीवन में मंगल नहीं आवेगा । इसलिए अपने जीवन में मंगल चाहते हो , तो संत सद्गुरु की शरण में जाओ ।

।।जय श्री राधे।।

श्रीकृष्ण को "दामोदर" क्यों कहते हैं?

                श्रीकृष्ण को "दामोदर" क्यों कहते हैं?   


श्रीकृष्ण की लीलाओं की भांति उनके नाम भी अनंत हैं। उनमें से ही एक नाम "दामोदर" है जो उन्हें बचपन में दिखाई गयी एक लीला के कारण मिला था। 

ये नाम इसीलिए भी विशिष्ट है क्यूंकि इस बार उन्होंने अपनी माया का प्रयोग असुर पर नहीं अपितु अपनी माता पर ही किया था।

एक बार गोकुल में माता यशोदा दूध को मथ कर माखन निकाल रही थी। उसी समय श्रीकृष्ण वहां आये और दूध पीने की जिद करने लगे। 

उनका मनोहर मुख देखकर वैसे ही माता यशोदा सब कुछ भूल जाती थी। उन्होंने सारा काम छोड़ा और श्रीकृष्ण को स्तनपान करने लगी। वो ये भूल गयी कि उन्होंने अंगीठी पर दूध गर्म करने रखा है।

दूध पिलाते हुए अचानक उन्हें याद आया कि अंगीठी पर रखा दूध तो उबल गया होगा। ये सोच कर उन्होंने श्रीकृष्ण को वही छोड़ा और दौड़ कर रसोई में गयी। 

उधर श्रीकृष्ण बड़े क्रोधित हुए। माता और पुत्र के मध्य किसी का भी आना उनसे सहन नहीं हुआ। उसी क्रोध में उन्होंने वहां पड़े माखन के सारे घड़ों को फोड़ दिया और प्रेमपूर्वक माखन खाने लगे।

उधर जब यशोदा मैया वापस आयी तो देखा कि सारा घर माखन से भरा हुआ है। जहाँ देखो वही माखन गिरा हुआ दिखाई देता था। 

अब क्रोधित होने की बारी यशोदा मैया की थी। उन्होंने सारा दिन श्रम कर उस माखन को निकला था और श्रीकृष्ण ने उनकी सारी मेहनत पर पानी फेर दिया, ये सोच कर उन्हें भी बड़ा क्रोध आया।

फिर क्या था। उन्होंने एक छड़ी उठाई और श्रीकृष्ण को मारने दौड़ी। तीनों लोकों के स्वामी श्रीकृष्ण उनसे बचने के लिए भागे। 

सभी देवता स्वर्ग में उनकी इस लीला के दर्शन कर रहे थे। माता बड़ी थी और श्रीकृष्ण छोटे, फिर भी वे उन्हें पकड़ नहीं पायी। 

भला प्रभु की इच्छा के बिना उन्हें कौन पकड़ सका है? अंत में वे थक कर वही भूमि पर बैठ गयी।

जब श्रीकृष्ण ने देखा कि लीला कुछ अधिक ही हो गयी है और माता थक चुकी है तो वे स्वयं उनके पास पहुंचे। उन्होंने प्रेम पूर्वक मैया का पसीना पोंछा। 

किन्तु इतना श्रम करने के कारण यशोदा का क्रोध और बढ़ गया था। उन्होंने झट से कन्हैया को पकड़ लिया। 

इसे प्रभु की ही लीला कहेंगे कि उन्होंने समझा कि मैंने कान्हा को पकड़ लिया। वे क्या जानती थी कि उनकी इच्छा के बिना उन्हें कोई पकड़ नहीं सका है।

अब उन्हें दंड क्या दें? उन्होंने सोचा कि कृष्ण को इस ओखली से बांध कर घर का सारा काम निपटा लें। पर श्रीकृष्ण को भला कोई बांध सका है? 

उनकी एक और लीला आरम्भ हुई। यशोदा ने एक रस्सी उठाई और जब उससे श्रीकृष्ण को बांधना चाहा तो वो रस्सी उनके पेट से दो अंगुल छोटी पड़ गयी।

उन्होंने दूसरी रस्सी पहली रस्सी के साथ जोड़ी लेकिन रस्सी फिर दो अंगुल छोटी पड़ गयी। 

अब तो यशोदा ने एक के बाद एक रस्सी जोड़ना आरम्भ किया किन्तु हर बार रस्सी दो अंगुल कम ही पड़ती रही। 

मैया खीजती रही और श्रीकृष्ण हँसते रहे। उनकी ये लीला इसी प्रकार बहुत देर तक चलती रही।

श्रीकृष्ण को ना बंधना था, ना वे बंधे। अंत में यशोदा पुनः थक कर चूर हो गयी किन्तु श्रीकृष्ण के लिए रस्सी दो अंगुल छोटी ही रही। 

अब तो कान्हा ने देखा कि मैया थक गयी हैं। उनका वात्सल्य जागा और उन्होंने अंततः स्वयं ही स्वयं को बांध लिया। यशोदा ने चैन की साँस ली और घर के काम में लग गयी।

श्रीकृष्ण ने सोचा कि माता अपने कर्तव्यपालन में व्यस्त है तो मैं स्वयं के कर्तव्य का वहन कर लूँ। 

वे ओखली को घसीटते हुए आंगन में पहुंचे। वहां अर्जुन के दो विशाल पेड़ लगे हुए थे जो वास्तव में नलकुबेर एवं मणिग्रीव नामक दो गन्धर्व थे जो नारद जी के श्राप के कारण वृक्ष बन गए थे। 

नारद जी ने कहा था कि जब श्रीकृष्ण अवतार होगा तो वे ही उनका उद्धार करेंगे।

आज अंततः उनके उद्धार की बारी आयी। श्रीकृष्ण घुटने के बल चलते हुए दोनों वृक्ष के बीच से निकल गए पर ओखली फंस गयी। 

कन्हैया ने आगे बढ़ने के लिए थोड़ा जोर लगाया और दोनों वृक्ष जड़ सहित उखड कर नीचे आ गिरे। इससे नलकुबेर और मणिग्रीव श्रापमुक्त हो उनके समक्ष करवद्ध खड़े हो गए। 

श्रीकृष्ण ने उन्हें आशीर्वाद दिया और वे अपने धाम पधारे।

उधर वृक्षों के गिरने से धरती डोल उठी थी। माता यशोदा किसी अनिष्ट की आशंका से दौड़ती हुई आंगन में तो देखती है कि दोनो वृक्ष गिरे पड़े हैं और कन्हैया उनके बीच खेल रहे हैं। 

उनकी जान में जान आई। वे दौड़ती हुई गयी और तत्काल कन्हैया की रस्सी को खोल कर उन्हें मुक्त किया। श्रीकृष्ण की एक और लीला का अंत हुआ।

संस्कृत में रस्सी को "दाम" और पेट को "उदर" कहते हैं। इसी कारण रस्सी से पेट द्वारा बंधे होने के कारण श्रीकृष्ण का एक नाम "दामोदर" पड़ गया।

इसी विषय में एक और कथा हमें भविष्य पुराण में मिलती है। एक बार राधा जी उद्यान में बैठी श्रीकृष्ण की प्रतीक्षा कर रही थी। 

श्रीकृष्ण को आने में बड़ा विलम्ब हो गया जिससे राधा की व्यग्रता बहुत बढ़ गयी। खैर बहुत देर के बाद श्रीकृष्ण आये। 

राधा क्रोध में बैठी ही थी। कही श्रीकृष्ण शीघ्र ना चले जाएँ, ये सोच कर उन्होंने उन्हें लताओं की रस्सी से बांध दिया।

उन बांधने के बाद उन्होंने उनसे विलम्ब का कारण पूछा। तब श्रीकृष्ण ने बताया कि आज कार्तिक पर्व के कारण यशोदा मैया ने उन्हें बिना पूजा के आने नहीं दिया, इसी कारण उन्हें विलम्ब हो गया। 

ये सुनकर राधा जी को बड़ा पश्चाताप हुआ। उन्होंने तत्काल उनकी रस्सी खोली और उनसे क्षमा याचना की।

तब श्रीकृष्ण ने हँसते हुए कहा कि "क्षमा याचना कैसी? मैं तो पहले ही तुम्हारे प्रेम से बंधा हुआ हूँ।" 

उनकी ये बात सुनकर राधा जी बड़ी प्रसन्न हुई और रस्सी (दाम) द्वारा पेट (उदर) से बांधने के कारण उन्होंने श्रीकृष्ण को "दामोदर" नाम से सम्बोधित किया। 

तभी से श्रीकृष्ण का एक नाम दामोदर पड़ा। 

जय श्री दामोदर।

सोमवार, 6 मई 2024

भक्ति का क्या प्रभाव होता है?

                       भक्ति का क्या प्रभाव होता है?


एक गृहस्थ कुमार भक्त थे। एक संत ने उन्हें नाम दिया वे भजन करने लगे, सीधे सरल चित् में भक्ति प्रकट हो गई अपने घर का काम करते हुए भजन करते हुए वह सिद्ध हो गए पर उन्हें पता नहीं कि मुझ में कुछ प्रभाव है। उनके समीप जो भी कोई जिस कामना से आता उसकी कामना पूर्ण हो जाती उसका कष्ट मिट जाता। धीरे-धीरे उसकी प्रसिद्ध हो गई, गांव के राजा ने सुना, तो वह फल फूल लेकर आया दर्शन कर भेट देकर उनके समीप बैठा। राजा ने पूछा की भक्ति की क्या महिमा है? भक्त कुम्हार ने कहां  राजन मैं पढ़ा लिखा नहीं हूं, अतः शास्त्रों का मुझे ज्ञान नहीं है। पर अपनी प्रत्यक्ष अनुभव की बात बतलाता हूं। मैं मिट्टी के बर्तन बनाता हूं मेरी स्त्री और बच्चे भी इसी काम में लगे रहते हैं, मिट्टी में मिलाने के लिए घोड़े की लीद की जरूरत पड़ती है। घोड़े की लीद से खाद भी नहीं बनती है, सुखाकर उसे जलाने के काम भी नहीं लिया जाता। आपके यहां बहुत से घोड़े हैं ढेरों लीद पड़ी रहती है। मेरी स्त्री बच्चे उसे उठाने जाते हैं तो आपका नौकर उनको गाली देते हैं, कभी-कभी बच्चों को मारते हैं। इतने पर भी हमारी स्त्री बच्चे लीद लेने जाते हैं, मार गाली सहकर लाते हैं क्योंकि उसके बिना काम नहीं चलता है।अब आप ही देखें कि तुच्छ वस्तु के लिए तिरस्कार सहना पड़ता है और आप स्वयं राजा होकर मेरे घर आए, मुझको प्रणाम करते हैं, भेट दे रहे हैं ,ऐसा क्यों? विचार कर देखें तो यह भक्ति का प्रभाव है।उसके प्रभाव से नीच ऊंचा हो जाता है वंदनीय हो जाता है। मेरे स्त्री पुत्र भक्त नहीं है तो उन्हें तुच्छ लीद के लिए नित्य तिरस्कार सहना पड़ता है। भक्त और अभक्त का अंतर, आदर अनादर इसी में समझ लीजिए की भक्ति की कितनी महिमा है। राजा बहुत प्रभावित हुआ वस्तुत: शास्त्रों के ज्ञाता भी तर्क और अविश्वास में फंस जाते हैं। उन्हें सरल हृदय और भावुकता प्राप्त नहीं होती है इसी से उनमें सच्ची भक्ति का प्रकट नहीं होता है।

जय श्री राधे 

परमार्थ के पत्र पुष्प पुस्तक में से दादा गुरु भक्तमाली जी महाराज के श्री वचन में से एक प्रवचन।

शनिवार, 4 मई 2024

एक श्लोकी रामायण - एक श्लोकी रामायण

 


एक श्लोकी रामायण - एक श्लोकी रामायण

आदौ राम तपोवनादि गमनं, हत्वा मृगं कांचनम् ||

वैधिहरणं जटायुमरणं, सुग्रीवसंभाषणम् || ||

बालिनिर्दलानं समुद्रतरणं, लंकापुरीदाहनम् ||

पश्चाद रावण कुंभकर्ण हननम्, एतद्धि रामायणम् || ||

भावार्थ: -श्रीराम वनवास गये, वहां पर स्वर्ण मृग का वध किया गया || रावण ने सीताजी का हरण किया, जटायु ने रावण के हाथ मारे || श्रीराम और सुग्रीव की मित्रता हुई || श्रीराम ने बालि का वध किया || समुद्र पार किया || लंका का दहन || इसके बाद रावण और कुंभकर्ण का वध हुआ ||


श्री राम वन्दना श्लोक - श्री राम वन्दना श्लोक

लोकाभिरामं रंगरंगधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम् ||

करुण्यरूपं करुणाकरं तं श्रीरामचंद्रं शरणं प्रपद्ये || ||

भावार्थ:- मैं संपूर्ण लोकों में सुंदर तथा रंकक्रीड़ा में धीर, कमलनेत्र, रघुवंश नायक, करुणा के भक्त और करुणा के भंडार रूपी श्रीराम के शरण में हूं ||


श्रीराम गायत्री मंत्र - श्री राम गायत्री मंत्र

ॐ दाशरथये विद्महे जानकी वल्लभाय धी माही || तन्नो रामः प्रचोदयात् ||

भावार्थ:- ॐ, दिसंबर के पुत्र का ध्यान करें, माता सीता की आज्ञा, आज्ञा से मुझे उच्च बुद्धि और शक्ति प्रदान करें, भगवान श्री राम मेरे मस्तिस्क को बुद्धि और शीघ्र से प्रकाशित करें, बुद्धि और तेज प्रदान करें ||

श्रीराम ध्यान मंत्र - श्री राम ध्यान मंत्र

ॐ आपदामप हरतरं दातारं सर्व सम्पदाम, लोकाभिरामं श्री रामं भूयो भूयो नामाम्यहम् ||

श्री रामाय रामभद्राय रामचन्द्राय वेधसे, रघुनाथाय नाथाय पतये नमः || ||


श्रीरामाष्टक - संस्कृत में श्री राम मंत्र

हे रामा पुरूषोत्तम नरहरे नारायणा केशवा ||

गोविंदा गरुड़ध्वजा गुणनिधि दामोदरा माधवा || ||

हे कृष्ण कमलापते यदुपते सीतापते श्रीपते ||

बैकुण्ठाधिपते चराचरपते लक्ष्मीपते पाहिमाम् || ||


श्रीराम मंत्र, राम मंत्र

श्री राम का पाठ करने वाले हर साधक को जीवन में आने वाले कष्टों से मुक्ति मिलती है || भगवान राम के आशीर्वाद के साथ हनुमान जी की भी कृपा बनी रहती है || हमने यहां हर रेनडौल के लिए राम श्लोक दिया है || जो रोज़ पढ़ने से आपके जीवन के सारे कष्ट दूर होंगे ||


सौभाग्य और सुखप्राप्ति मंत्र (श्री राम मंत्र)

श्री राम जय राम जय जय राम || श्री रामचन्द्राय नमः ||

राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे ||

सहस्त्र नाम तत्तुन्यं राम नाम वरानने || ||

गरीबी/दरिद्रता निवारण मंत्र (श्री राम मंत्र)

अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के ||

कामद धन दारिद दवारि के || ||


सफलता के लिए मंत्र (श्री राम मंत्र)

ॐ राम ॐ राम ॐ राम ह्रीं राम ह्रीं राम श्रीं राम श्रीं राम - क्लीं राम क्लीं राम || फट् राम फट् रामाय नमः ||

विजयी मंत्र

श्री राम जय राम, जय जय राम

दिन में कम से कम 24 बार बोलना चाहिए।

।।जय सिया राम।।

शुक्रवार, 3 मई 2024

संसार में सबसे बड़ा कौन

                            संसार में सबसे बड़ा कौन 


        एक बार नारद जी के मन में एक विचित्र सा कौतूहल पैदा हुआ।उन्हें यह जानने की धुन सवार हुई कि ब्रह्मांड में सबसे बड़ा और महान कौन है?

        नारद जी ने अपनी जिज्ञासा भगवान विष्णु के सामने ही रख दी। भगवान विष्णु मुस्कुराने लगे।फिर बोले, नारद जी सब पृथ्वी पर टिका है। इसलिए पृथ्वी को बड़ा कह सकते हैं। और बोले परंतु नारद जी यहां भी एक शंका है।

       नारद जी का कौतूहल शांत होने की बजाय और बढ़ गया। नारद जी ने पूछा स्वयं आप सशंकित हैं फिर तो विषय गंभीर है। कैसी शंका है प्रभु ? विष्णु जी बोले, समुद्र ने पृथ्वी को घेर रखा है। इसलिए समुद्र उससे भी बड़ा है।

        अब नारद जी बोले, प्रभु आप कहते हैं तो मान लेता हूं कि समुद्र सबसे बड़ा है।यह सुनकर विष्णु जी ने एक बात और छेड़ दी, परंतु नारद जी समुद्र को अगस्त्य मुनि ने पी लिया था। इसलिए समुद्र कैसे बड़ा हो सकता है ? बड़े तो फिर अगस्त्य मुनि ही हुए।

        नारद जी के माथे पर बल पड़ गया। फिर भी उन्होंने कहा, प्रभु आप कहते हैं तो अब अगस्त्य मुनि को ही बड़ा मान लेता हूं।नारद जी अभी इस बात को स्वीकारने के लिए तैयार हुए ही थे कि विष्णु ने नई बात कहकर उनके मन को चंचल कर दिया।

          श्री विष्णु जी बोले, नारद जी पर ये भी तो सोचिए वह रहते कहां हैं।आकाशमंडल में एक सूई की नोक बराबर स्थान पर जुगनू की तरह दिखते हैं। फिर वह कैसे बड़े, बड़ा तो आकाश को होना चाहिए।

        नारद जी बोले, हां प्रभु आप यह बात तो सही कर रहे हैं। आकाश के सामने अगस्त्य ऋषि का तो अस्तित्व ही विलीन हो जाता है।आकाश ने ही तो सारी सृष्टि को घेर आच्छादित कर रखा है। आकाश ही श्रेष्ठ और सबसे बड़ा है।

        भगवान विष्णु जी ने नारद जी को थोड़ा और भ्रमित करने की सोची।श्रीहरि बोल पड़े, पर नारदजी आप एक बात भूल रहे हैं। वामन अवतार ने इस आकाश को एक ही पग में नाप लिया था  फिर आकाश से विराट तो वामन हुए।

        नारदजी ने श्रीहरि के चरण पकड़ लिए और बोले भगवन आप ही तो वामन अवतार में थे।फिर अपने सोलह कलाएं भी धारण कीं और वामन से बड़े स्वरूप में भी आए। इसलिए यह तो निश्चय हो गया कि सबसे बड़े आप ही हैं।

         भगवान विष्णु ने कहा, नारद, मैं विराट स्वरूप धारण करने के उपरांत भी, अपने भक्तों के छोटे हृदय में विराजमान हूं।*वहीं निवास करता हूं। जहां मुझे स्थान मिल जाए वह स्थान सबसे बड़ा हुआ न।*

         इसलिए सर्वोपरि और सबसे महान तो मेरे वे भक्त हैं जो शुद्ध हृदय से मेरी उपासना करके मुझे अपने हृदय में धारण कर लेते हैं।उनसे विस्तृत और कौन हो सकता है। तुम भी मेरे सच्चे भक्त हो इसलिए वास्तव में तुम सबसे बड़े और महान हो।

         श्रीहरि की बात सुनकर नारद जी के नेत्र भर आए। उन्हें संसार को नचाने वाले भगवान के हृदय की विशालता को देखकर आनंद भी हुआ और अपनी बुद्धि के लिए खेद भी।


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कलयुग के दोषों से बचा जा सकता है।

                कलयुग के दोषों से बचा जा सकता है। राम नाम का आश्रय लेने वाले ही कलयुग के दोषों से बचते हैं अन्यथा बड़े से बडा भी कोई बच नहीं...