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गुरुवार, 22 जनवरी 2015

हम अपने बने।





                                                        अपने बने                                        

दुखी व्यक्ति के लिए वास्तव में यह संसार दुःख का जंगल हैं। दुःख  से घिरे  हुए व्यक्ति के अंदर केवल एक ही विचार कार्य करता हैं कि  वह अकेला हैं और सब और से घृणा से भरा हैं। उसे ऐसा लगता हैं कि  कोई भी व्यक्ति को उससे संवेदना नहीं हैं और न ही उसके प्रति कोई आकृष्ट नहीं हैं। और तो और उसका स्वंय पर से भी विश्वास उठ जाता हैं। पर उसके मन से यह बात अलग नहीं होती कि शायद किसी अन्य के द्वारा उसे दुःख से छुट्टी मिल जाए। 
             दुःख के समय मन से किसी प्रकार की सहायता नही मिलती ;क्योंकि उसकी अनर्गल  इच्छाएisही दुःख उत्पन्न करती हैं.इच्छाओ से उत्पन्न सुख को तो वह गले लगा लेता हैं, पर दुःख के उपस्थित होने पर उसकी कुछ सुने बिना ही वह उसे भगा  देना चाहता हैं। परिस्थितियों के अनुकूल होने पर उसे कभी -कभी सफलता मिल भी जाती हैं और ऐसे में बुद्धि निस्सहाय होकरसुषुप्ति -अवस्था में चली जाती हैं और दुःख के विषय में गंभीर विचार करने में असमर्थ हो जाती हैं। मन के चक्र में फंस कर मनुष्य अधिक समय तक दुःख भोगता रहता हैं। ऐसे ही कितने जीवन दुःख के कारण नष्ट हो जाते हैं। 
           कुछ लोग ऐसे भी हैं जो दुःख की घड़ी आने पर उस पर कुछ विचार करते भी हैं और सत्संग का आश्रय लेते हैं। लकिन अधूरे विचार और बाहरी सत्संग से उन्हें विशेष लाभ नहीं होता , क्योंकि दुःख पर विचार करते समय या सत्संग के अवसर पर उसका मन पूरी तरह से वहाँ नहीं रहता। उसका  सदा इधर -उधर भटकता रहता हैं और दुसरो की बातों में दुःख  छुटकारा पाने के लिए समाधान ढूँढता हैं , जो उसे कभी नहीं मिलता। कारण , वह अपने इन्द्रिय -सुख को कभी छोड़ना  नही चाहता। दुःख के अवसर मनुष्य के जीवन में बार -बार आते हैं और हर बार  गहरी चोट पहुँचाते हैं। मनुष्य उससे तिलमिलाता हैं , रोता हैं , चिल्लाता हैं , पश्चाताप करता हैं और उसके मन में भोगो से मुँह मोड़ने की इच्छा होती हैं , लेकिन पुरानी आदत अवसर आने पर उसे फिर भोगों की और आकर्षित कर देती हैं और फिर से मनुष्य दुखो में घिर कर रोना शुरू कर देता हैं। यदि मनुष्य खुद नहीं संभला तो ऐसी कोई ताकत नहीं हैं जो उसे सही पथ पर ला सके। 
           जिस मनुष्य ने जिंदगी की बातों को या उसके सुख -दुःख को समझ लिया हैं और उसके अंदर दुखों से तीव्र छुटकारा पाने की इच्छा हो गई हैं उसे सुखी होने से फिर कोई नहीं रोक सकता। ऐसे व्यक्ति को किसी सत्संग की जरूरत नहीं क्योंकि मनुष्य को अल्पकाल के लिए सत्संग से लाभ हो सकता हैं परन्तु पूर्ण लाभ तो तभी होगा जब वह अपने को समझा सकेगा। मनुष्य का जीवन एक सुंदर रंग बिरंगे  फूलों का उपवन हैं अगर इसमें कोई सुंदरता को नष्ट करने वाली कोई चीज़ उग जाती हैं तो उसे उखाड़ फेंको। अपनी व्यर्थ की इच्छाओं  को पूरा करने की होड़ में हम इतने व्यस्त हो जाते हैं कि  हमे मालूम ही नहीं चलता कि जीवन के कितने अनमोल पल हमने अपनी  व्यर्थ के भविष्य के सुख प्राप्ति के कारण नष्ट कर दिए। इसलिए  दुःख की अवस्था में होश में रहकर अवसर को हाथ से न जाने दो , जितनी जल्दी हो सके अपने दुःख को दूर कर देना चाहिए। मनुष्य को यह हमेशा याद रखना चाहिए कि इच्छा कभी पूरी नहीं होती और उम्र पूरी हो जाती हैं। इसलिए आपके  पास जितना भी  हैं उसी में संतुष्ट रहने की आदत डालो।  शेष कल : 
जय श्री राधे !

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जय श्री राधे

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