देवराहा बाबा के अमृत वचन सेवा,सहानुभूति और उदारता
(ब्रह्मलीन योगिराज श्रीदेवराहा बाबाजी के अमृत वचन )
प्रेम ही सृष्टि हैं , सबके प्रति प्रेम भाव रखो।
भूखो को रोटी देने में और दुखियों के आसूं पोछने में जितना पुण्य लाभ होता हैं और , उतना वर्षो के जप तप भी नहीं होता।
परमात्मा पृथक कुछ भी नहीं हैं। यह सर्व्यापक ईश्वर प्रकृति के कण -कण व्याप्त हैं। अतः चराचर को भगवत स्वरूप मानकर सबकी सेवा करो।
गीता का सार हैं , दुखी को सांत्वना तथा कष्ट में सहायता देना एवं उन्हें दुःख भय से मुक्त करना।
आत्मचिंतन , दैन्य -भाव और सदगुरु की सेवा इन तीनो बातों को कभी मत भूलो।
प्रतिदिन यथासाध्य कुछ- न -कुछ दान अवश्य करों ,इससे त्याग की प्रवृति जागेगी।
प्रेम एंव स्नेह से दुसरो की सेवा करना ही सर्वोच्च धर्म हैं , उससे ऊँचा कोई नहीं।
सम्पूर्ण जप और तप दरिद्रनारायण की सेवा और उनके प्रति करुणा के समान हैं।
अठारह पुराणो में व्यासदेव के दो ही वचन हैं -परोपकार पुण्य हैं और दुसरो को पीड़ा पहुँचाना पाप हैं।
अतिथि सत्कार श्रद्धा पूर्वक करो ;अतिथि का गुरु और देवता की तरह सम्मान करों।
जिस घर में गरीबों का आदर होता हैं और न्याय द्वारा अर्जित सम्पति हैं वैकुण्ठ के सदृश हैं।
जब चलो तो समझो कि मैं भगवान की परिक्रमा कर रहा हूँ , जब पियो तो समझो कि मैं भगवान का चरणामृत पान कर रहा हूँ। भोजन करो तो समझो कि मैं भगवान का प्रसाद पा रहा हूँ ,सोने लगो तो समझो मैं उन्ही की गोद में विश्राम कर रहा हूँ.
प्रत्येक कर्म को ईश्वर की सेवा और परिणाम को भगवत्प्रसाद समझना। सबके प्रति शिष्ट एंव समान भाव रखना , क्रोध -लोभ का परित्याग करना ही प्रभु की सेवा हैं।
सभी मनुष्यों से मित्रता करने से ईष्या की निवृति हो जाती हैं। दुखी मनुष्यों पर दया करने से दुसरो का बुरा करने की इच्छा समाप्त हो जाती हैं। पुण्यात्मा को देखकर प्रसन्नता होने से असूया की निवृति हो जाती हैं। पापियों की उपेक्षा करने से अमर्ष , घृणा आदि के भाव समाप्त हो जाते हैं। यह साधको के लिए आचार हैं।
(ब्रह्मलीन योगिराज श्रीदेवराहा बाबाजी के अमृत वचन )
प्रेम ही सृष्टि हैं , सबके प्रति प्रेम भाव रखो।
भूखो को रोटी देने में और दुखियों के आसूं पोछने में जितना पुण्य लाभ होता हैं और , उतना वर्षो के जप तप भी नहीं होता।
परमात्मा पृथक कुछ भी नहीं हैं। यह सर्व्यापक ईश्वर प्रकृति के कण -कण व्याप्त हैं। अतः चराचर को भगवत स्वरूप मानकर सबकी सेवा करो।
गीता का सार हैं , दुखी को सांत्वना तथा कष्ट में सहायता देना एवं उन्हें दुःख भय से मुक्त करना।
आत्मचिंतन , दैन्य -भाव और सदगुरु की सेवा इन तीनो बातों को कभी मत भूलो।
प्रतिदिन यथासाध्य कुछ- न -कुछ दान अवश्य करों ,इससे त्याग की प्रवृति जागेगी।
प्रेम एंव स्नेह से दुसरो की सेवा करना ही सर्वोच्च धर्म हैं , उससे ऊँचा कोई नहीं।
सम्पूर्ण जप और तप दरिद्रनारायण की सेवा और उनके प्रति करुणा के समान हैं।
अठारह पुराणो में व्यासदेव के दो ही वचन हैं -परोपकार पुण्य हैं और दुसरो को पीड़ा पहुँचाना पाप हैं।
अतिथि सत्कार श्रद्धा पूर्वक करो ;अतिथि का गुरु और देवता की तरह सम्मान करों।
जिस घर में गरीबों का आदर होता हैं और न्याय द्वारा अर्जित सम्पति हैं वैकुण्ठ के सदृश हैं।
जब चलो तो समझो कि मैं भगवान की परिक्रमा कर रहा हूँ , जब पियो तो समझो कि मैं भगवान का चरणामृत पान कर रहा हूँ। भोजन करो तो समझो कि मैं भगवान का प्रसाद पा रहा हूँ ,सोने लगो तो समझो मैं उन्ही की गोद में विश्राम कर रहा हूँ.
प्रत्येक कर्म को ईश्वर की सेवा और परिणाम को भगवत्प्रसाद समझना। सबके प्रति शिष्ट एंव समान भाव रखना , क्रोध -लोभ का परित्याग करना ही प्रभु की सेवा हैं।
सभी मनुष्यों से मित्रता करने से ईष्या की निवृति हो जाती हैं। दुखी मनुष्यों पर दया करने से दुसरो का बुरा करने की इच्छा समाप्त हो जाती हैं। पुण्यात्मा को देखकर प्रसन्नता होने से असूया की निवृति हो जाती हैं। पापियों की उपेक्षा करने से अमर्ष , घृणा आदि के भाव समाप्त हो जाते हैं। यह साधको के लिए आचार हैं।
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जय श्री राधे