/ google.com, pub-1197897201210220, DIRECT, f08c47fec0942fa0 "ईश्वर के साथ हमारा संबंध: सरल ज्ञान और अनुभव: सुंदरकांड का सरल अर्थ

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सोमवार, 28 जून 2021

सुंदरकांड का सरल अर्थ

                      सुंदरकांड भावार्थ शुद्ध हिंदी में



श्लोक– शांत सनातन अप्रमेय (प्रमाणों से परे) निष्पाप, मोक्षरूप परम शांति देने वाले, ब्रह्मा शंभू और शेष जी से निरंतर सेवित, वेदांत के द्वारा जानने योग्य, सर्वव्यापक देवताओं में सबसे बड़े, माया से मनुष्य रूप में दिखने वाले, समस्त पापों को हरने वाले, करूणा की खान, रघुकुल में श्रेष्ठ तथा राजाओं के शिरोमणि राम कहलाने वाले जगदीश्वर कि मैं वंदना करता हूं। –१

हे रघुनाथ जी! मैं सत्य कहता हूं और फिर आप सब की अंतरात्मा ही हैं सब जानते ही हैं कि मेरे हृदय में दूसरी कोई इच्छा नहीं है। हे रघु कुलश्रेष्ठ मुझे अपनी निर्भया पूर्ण भक्ति दीजिए और मेरे मन को काम आदि दोषों से रहित कीजिए–२

अतुल बल के धाम सोने के पर्वत सुमेरू के समान कांतियुक्त शरीर वाले,दैत्यरूपी वन (को द्वंश करने) के लिए अग्नि रूप, ज्ञानियों में अग्रगण्य, संपूर्ण गुणों के निधान, वानरों के स्वामी, श्री रघुनाथ जी के प्रिय भक्त पवन पुत्र श्री हनुमान जी को मैं प्रणाम करता हूं–३

जामवंत के बचन सुहाए---------

जामवंत जी के सुंदर वचन सुनकर हनुमानजी के हृदय को बहुत ही भाया (वे बोले,) हे भाई तुम लोग तो दुख सहकर ,कंदमूल फल खाकर तब तक मेरी राह देखना।।१।।

जब तक में सीता जी को देखकर लौट ना आऊं। काम अवश्य होगा क्योंकि मुझे बहुत ही हर्ष हो रहा है। यह कहकर और सबको मस्तक नवाकर तथा हृदय में श्री रघुनाथ जी को धारण करके हनुमान जी हर्षित होकर चले।।२।।

समुद्र के तीर पर एक सुंदर पर्वत था। हनुमान जी के से ही अनायास ही कूदकर उसके ऊपर जा चढ़े और बार-बार श्री रघुवीर का स्मरण करके अत्यंत बलवान हनुमान जी उस पर से बड़े वेग से उछले।।३।।

जिस पर्वत पर हनुमान जी पैर रखकर चले, जिस पर से उछले, वह तुरंत ही पाताल में धंस गया। जैसे श्री रघुनाथ जी का बाण चलता है, उसी तरह हनुमान जी चले।।४।।

समुंद्र ने उन्हें श्री रघुनाथ जी का दूत समझकर मैनाक पर्वत से कहा कि यह मैनाक! तू इनकी थकावट दूर करने वाला हो अथार्त अपने ऊपर इन्हें विश्राम दें।।५।।

 दोहा- हनुमान जी ने उसे हाथ से छू दिया, फिर प्रणाम करके कहा भाई! श्री रामचंद्र जी का काम किए बिना मुझे विश्राम कहाॅं?।।१।।

 देवताओं ने पवन पुत्र हनुमान जी को जाते हुए देखा। उनकी विशेष बल बुद्धि को जानने के लिए परीक्षा हेतु उन्होंने सुरसा नामक सर्पों की माता को भेजा, उसने आकर हनुमान जी से यह बात कही-।।१।।

 आज देवताओं ने मुझे भोजन दिया है। यह वचन सुनकर पवन कुमार हनुमान जी ने कहा श्री राम जी का कार्य करके मैं लौट आऊं और सीता जी की खबर प्रभु को सुना दूं।।२।।

 तब मैं आकर तुम्हारे मुंह में घुस जाऊंगा (तुम मुझे खा लेना)। हे माता मैं सत्य कहता हूं,अभी मुझे जाने दे। जब किसी भी उपाय से उसने जाने नहीं दिया, तब हनुमानजी ने कहा तो फिर मुझे खा ले।।३।।

 उसने योजन भर (4 कोस) मुंह फैलाया। तब हनुमानजी ने अपने शरीर को उनसे दूना बढा़ लिया। उसने 16 योजन का मुख किया। हनुमान जी तुरंत ही 32 योजन के हो गए।।४।।

 जैसे जैसे सुरसा मुख का विस्तार बढ़ाती, हनुमान जी उसका दुगना रूप दिखाते थे। उसने 100 योजन यानी 400 कोस का मुख किया। तब हनुमान जी ने बहुत ही छोटा रूप धारण कर लिया।।५।।

और वे उसके मुख में घुसकर तुरंत फिर बाहर निकल आए और उसे सिर नवाकर विदा मांगने लगे। सुरसा ने कहा मैंने तुम्हारे बुद्धि बल का भेद पा लिया, जिसके लिए देवताओं ने मुझे भेजा था।।६।।

 दोहा- तुम श्री रामचंद्र जी के सब कार्य करोगे, क्योंकि तुम बल बुद्धि के भंडार हो यह आशीर्वाद देकर चली गई। तब हनुमानजी हर्षित होकर चले।।१।।

 समुंद्र में एक राक्षसी रहती थी वह माया करके आकाश में उड़ते हुए पक्षियों को पकड़ लेती थी। आकाश में जो जीव जंतु उड़ा करते थे, वह जल में उनकी परछाई देखकर,।।१।।

 उस परछाई को पकड़ लेती थी। जिससे वह उड़ नहीं सकते थे और जल में गिर पड़ते थे इस प्रकार बाद आकाश में उड़ने वाले जीवो को खाया करती थी। उसने वही छल हनुमान जी से भी किया, हनुमान जी ने तुरंत ही उसका कपट पहचान लिया।।२।।

 पवन पुत्र धीर बुद्धि वीर श्री हनुमान जी ने उसको मार कर समुंद्र के पार गए, वहां जाकर उन्होंने वन की शोभा देखी। मधु (पुष्परस) के लोभ से भोरे गुंजार कर रहे थे।।३।।

अनेकों प्रकार के वृक्ष फल फूल सुशोभित हैं। पक्षी और पशुओं के समूह को भी देखकर वह मन में बहुत प्रसन्न हुए। सामने एक विशाल पर्वत देखकर हनुमान जी भय त्याग कर उस पर दौड़ कर जा चढ़े।।४।।

शिव जी कहते हैं- हे उमा ! इसमें वानर हनुमान की कुछ बड़ाई ही नहीं है। यह प्रभु का प्रताप है, जो काल को भी खा जाता है। पर्वत पर चढ़कर उन्होंने लंका देखी। बहुत ही बड़ा किला है, कुछ कहा नहीं जाता।।५।।

 वह अत्यंत ऊंचा है, उसके चारों ओर समुंद्र है। सोने के परकोटे चारदीवारी का परम प्रकाश हो रहा है।।६।।

विचित्र मणियों से जड़ा हुआ सोने का परकोटा है। उसके अंदर बहुत से सुंदर-सुंदर घर हैं। चौराहे, बाजार, सुंदर मार्ग और गलियां हैं। सुंदर नगर बहुत प्रकार से सजा हुआ है। हाथी, घोड़े, खच्चरों के समूह तथा पैदल और रथों के समूह को कौन गिन सकता है? अनेक रूपों के राक्षसों के दल हैं। उनकी अत्यंत बलवती सेना वर्णन करते नहीं बनती।।१।।

 वन बाग, उपवन ,फुलवाड़ी ,तालाब, कुएं और बावलिया सुशोभित हैं। मनुष्य,नाग,देवताओं और गंधर्व की कन्याए अपने सौंदर्य से मुनियों के भी मनो को मोंह लेती हैं। कहीं पर्वत के समान विशाल शरीर वाले बड़े ही बलवान पहलवान गरज रहे हैं। अनेकों अखाड़ों में बहुत प्रकार से भिड़ते और एक दूसरे को ललकारते हैं।।२।।

 भयंकर शरीर वाले करोड़ों योद्धा यतन करके बड़ी सावधानी से नगर की चारों दिशाओं में सब और से रखवाली करते हैं। कहीं दुष्ट राक्षस भैंसों,मनुष्य,गायों,गधों और बकरे को खा रहे हैं। तुलसीदासजी ने इनकी कथा इसलिए कुछ थोड़ी ही कही है कि यह निश्चय ही श्री रामचंद्र जी के बाण रूपी तीर्थ में शरीर को त्याग कर परम गति पाएंगे।।३।।

दोहा–३

नगर के बहुसंख्यक रखवालों को देखकर हनुमान जी ने मन में विचार किया कि अत्यंत छोटा रूप धरूं और रात के समय नगर में प्रवेश करूं।।३।।

हनुमान जी मच्छर के समान (छोटासा) स्वरूप धारण कर नर रूप से लीला करने वाले भगवान श्री रामचंद्र जी का स्मरण करके लंका को चले। लंका के द्वार पर लंकिनी नाम की एक राक्षसी रहती थी। वह बोली मेरा निरादर कर के बिना मुझसे पूछे कहां चला जा रहा है।।१।।

 हे मूर्ख! तूने मेरा भेद नहीं जाना? जहां तक जितने चोर हैं, वह सब मेरे आहार हैं।महाकपि हनुमान जी ने उसे एक घुसा मारा, जिससे खून की उल्टी करती हुई पृथ्वी पर लुढ़क पड़ी।।२।।

 वह लंकनी फिर अपने को संभाल कर उठी और डर के मारे हाथ जोड़कर विनती करने लगी। वह बोली रावण को जब ब्रह्मा जी ने वरदान दिया था तब चलते उन्होंने मुझे विनाश की पहचान बता दी थी कि।।३।।

 जब तू बंदर की मार से व्याकुल हो जाए, तब तू राक्षसों का संहार हुआ जान लेना। हे तात! मेरे बड़े पुण्य जो मैं श्री रामचंद्र जी के दूत (आपको) नेत्रों से देख पाई।।४।।

दोहा–४

 हे तात! स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को तराजू के एक पलड़े में रखा जाए, तो भी वह सब मिलकर दूसरे पलड़े पर रखे हुए उस सुख के बराबर नहीं हो सकते ,जो लव यानी कि क्षण मात्र के सत्संग से होता है।।४।।

 अयोध्यापुरी के राजा श्री रघुनाथ जी को हृदय में प्रवेश करके सब काम कीजिए। उसके लिए विष अमृत हो जाता है, शत्रु मित्रता करने लगते हैं,समुद्रू गाय के खुर के बराबर हो जाता है,अग्नि में शीतलता आ जाती है।।१।। 

और हे गरुड़ जी! सुमेरु पर्वत उसके लिए रज के समान हो जाता है। जिसे श्री रामचंद्र जी ने एक बार कृपा करके देख लिया। हनुमान जी ने बहुत ही छोटा रूप धारण किया और भगवान का स्मरण करके नगर में प्रवेश किया।।२।।

 उन्होंने हर एक महल की खोज की। जहां तहां असंख्य योद्धा देखें। फिर वह रावण के महल में गए, वह अत्यंत विचित्र था, जिसका वर्णन नहीं हो सकता।।३।।

 हनुमान जी ने उस रावण को शयन किए देखा; परंतु महल में जानकी जी नहीं दिखाई दी। फिर एक सुंदर महल दिखाई दिया। वहां उसमें भगवान का एक अलग मंदिर बना हुआ था।।४।।

शेष कल:–


 



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