> परमात्मा और जीवन"ईश्वर के साथ हमारा संबंध: सरल ज्ञान और अनुभव

यह ब्लॉग खोजें

मंगलवार, 13 जुलाई 2021

तू ही तू

                            ॥ सन्तवाणी ॥

          –श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज        

                                    


                                 तू-ही-तू

जैसे बालक मिट्टीका खिलौना चाहता है तो पिताजी रुपये खर्च करके भी उसके लिये मिट्टीका खिलौना लाकर देते हैं । ऐसे ही हम संसार को चाहते हैं तो भगवान्‌ संसार रूपमें हमारे सामने आ जाते हैं । हम शरीर बनते हैं तो भगवान्‌ विश्व बन जाते हैं । शरीर बननेके बाद फिर विश्वसे भिन्न कुछ भी जाननेमें नहीं आता‒यह नियम है ।

सब कुछ भगवान्‌ हैं‒इसका चिन्तन नहीं करना है, प्रत्युत इसको स्वयंसे स्वीकार करना है । स्वीकार करते ही हमारी दृष्टि बदल जायगी । दृष्टिमें ही सृष्टि है । हमारी दृष्टि बदलेगी तो सारी सृष्टि बदल जायगी ! इसलिये अपनी दृष्टि ऐसी बनाओ कि सब रूपोंमें भगवान्‌ ही दीखने लग जायँ । यही सच्ची आस्तिकता है ।

भक्तराज ध्रुव कहते हैं‒

भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो  बुद्धिरेव च ।

भूतादिरादिप्रकृतिर्यस्य रूपं नतोऽस्मि तम् ॥

(विष्णुपुराण १/१२/५१)

‘पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि, अहंकार और मूल प्रकृति‒ये सब जिनके रूप हैं, उन भगवान्‌को मैं नमस्कार करता हूँ ।’

अगर हमारे भीतर राग-द्वेष होते हैं तो हमने ‘सब कुछ भगवान्‌ हैं’‒यह बुद्धिसे सीखा है, स्वयंसे स्वीकार नहीं किया है । बुद्धिसे सीखनेपर कल्याण नहीं होता, प्रत्युत स्वयंसे स्वीकार करनेपर कल्याण होता है । जब सब कुछ भगवान्‌ ही हैं तो फिर राग-द्वेष कौन करे और किससे करे ?

निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध ॥

(मानस, उत्तर॰ ११२ ख)

(५) शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिसे जो भी सात्त्विक, राजस और तामस भाव, क्रिया, पदार्थ आदि ग्रहण किये जाते हैं, वे सब भगवान्‌ ही हैं । मनकी स्फुरणामात्र भगवान्‌ ही हैं । संसारमें अच्छा-बुरा, शुद्ध-अशुद्ध, शत्रु-मित्र, दुष्ट-सज्जन, पापात्मा-पुण्यात्मा आदि जो कुछ भी देखने, सुनने, कहने, सोचने, समझने आदिमें आता है, वह सब-का-सब केवल भगवान्‌ ही हैं । शरीर-शरीरी, क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ, अपरा-परा, क्षर-अक्षर आदि सब केवल भगवान्‌ ही हैं तो फिर उसमें ‘मैं’ कहाँसे आये ? ‘मैं’ है ही नहीं, केवल तू-ही-तू है।

(संत श्री रामसुखदास जी के श्री मुख से)

तू तू करता तू भया,   मुझमें  रही न हूँ ।

वारी फेरी बलि गई, जित देखूँ तित तू ॥

अब भगवान्‌की प्राप्ति में देरी किस बातकी है ? भगवत्प्राप्ति तत्काल होनेवाली वस्तु है । मान लो कि हम एक नदीको देख रहे हैं । किसी जानकार व्यक्तिने हमारेसे कहा कि यह नदी गंगाजी हैं । यह सुनते ही हमारी भावना बदल गयी, दृष्टि बदल गयी । इसमें देरी क्या लगी ? परिश्रम (अभ्यास) क्या करना पड़ा ? किस क्रिया और पदार्थकी आवश्यकता पडी़।


.  Santavani


 Revered Swamiji Shri Ramsukhdasji Maharaj


                           you and only you


 Just as a child wants a clay toy, the father brings a clay toy for him even after spending Rs.  Similarly, if we want the world, then God appears before us in the form of the world.  When we become bodies, God becomes the world.  After the formation of the body, nothing comes in the way of knowing anything other than the world, this is the rule.


 Everything is God, don't think about it, but accept it yourself.  Our vision will change as soon as we accept it.  There is creation in sight.  If our vision changes, then the whole world will change.  Therefore, make your vision such that only God can be seen in all forms.  This is true theism.


 Bhaktaraj Dhruva says:

 भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो  बुद्धिरेव च ।

भूतादिरादिप्रकृतिर्यस्य रूपं नतोऽस्मि तम् ॥

 (Vishnupuran 1/12/51)


 'Earth, water, fire, air, sky, mind, intellect, ego and original nature, all these forms, I bow to the Lord.'


 If we have attachment and aversion within us, then we have learned from the intellect that 'everything is God', not accepted from ourselves.  Learning from the intellect does not bring welfare, but accepting it from oneself leads to well-being.  When everything is God, then who should do it and with whom?

 Seeing my Lord, I do not oppose the world.

 (Manas, Answer: 112 b)

 (5) Whatever sattvik, rajas and tamas feelings, actions, substances etc. are accepted by the body-senses-mind-intellect, they are all God.  Only God is the spark of the mind.  Whatever comes in the world, good and bad, pure and impure, enemy-friend, wicked-gentleman, sinful-virtuous soul, etc., in seeing, hearing, saying, thinking, understanding, etc., all of that is only the Supreme Personality of Godhead.  Body-Body, Kshetra-Kshetrajna, Apara-para, Kshar-Akshar etc. are all Gods only, then from where did 'I' come in that?  There is no 'I', there is only you-you.

 (from the mouth of Sant Shri Ramsukhdas ji)

 You do you fear, I have not lived in me.

 War pheri was sacrificed, I see everything you see.

 Now what is the delay in attaining God?  Realization of God is an immediate thing.  Suppose we are looking at a river.  Some knowledgeable person told us that this river is Gangaji.  On hearing this, our feeling changed, our vision changed.  What was the delay?  What did the hard work (practice) have to do?  What action and substance was needed?

सोमवार, 12 जुलाई 2021

बेलपत्र की उत्पत्ति कैसे हुई?

       बेलपत्र की उत्पत्ति कैसे हुई, इसके प्रकार , और उसकी पूजा करने से लाभ


स्कंद पुराण के अनुसार, एक बार माता पार्वती के पसीने की बूंद मंदराचल पर्वत पर गिर गई और उससे बेल का पेड़ निकल आया। चुंकि माता पार्वती के पसीने से बेल के पेड़ का उद्भव हुआ। अत: इसमें माता पार्वती के सभी रूप बसते हैं। वे पेड़ की जड़ में गिरिजा के स्वरूप में, इसके तनों में माहेश्वरी के स्वरूप में और शाखाओं में दक्षिणायनी व पत्तियों में पार्वती के रूप में रहती हैं।


फलों में कात्यायनी स्वरूप व फूलों में गौरी स्वरूप निवास करता है। इस सभी रूपों के अलावा, मां लक्ष्मी का रूप समस्त वृक्ष में निवास करता है। बेलपत्र में माता पार्वती का प्रतिबिंब होने के कारण इसे भगवान शिव पर चढ़ाया जाता है। भगवान शिव पर बेल पत्र चढ़ाने से वे प्रसन्न होते हैं और भक्त की मनोकामना पूर्ण करते हैं। जो व्यक्ति किसी तीर्थस्थान पर नहीं जा सकता है अगर वह श्रावण मास में बिल्व के पेड़ के मूल भाग की पूजा करके उसमें जल अर्पित करे तो उसे सभी तीर्थों के दर्शन का पुण्य मिलता है।


बेल वृक्ष का महत्व- 

1. बिल्व वृक्ष के आसपास सांप नहीं आते।

2. अगर किसी की शवयात्रा बिल्व वृक्ष की छाया से होकर गुजरे तो उसका मोक्ष हो जाता है।

3. वायुमंडल में व्याप्त अशुद्धियों को सोखने की क्षमता सबसे ज्यादा बिल्व वृक्ष में होती है।

4. 4, 5, 6 या 7 पत्तों वाले बिल्व पत्रक पाने वाला परम भाग्यशाली और शिव को अर्पण करने से अनंत गुना फल मिलता है।

5. बेल वृक्ष को काटने से वंश का नाश होता है और बेल वृक्ष लगाने से वंश की वृद्धि होती है।

6. सुबह-शाम बेल वृक्ष के दर्शन मात्र से पापों का नाश होता है।

7. बेल वृक्ष को सींचने से पितर तृप्त होते हैं।

8. बेल वृक्ष और सफेद आक को जोड़े से लगाने पर अटूट लक्ष्मी की प्राप्ति होती है।

9. बेलपत्र और ताम्र धातु के एक विशेष प्रयोग से ऋषि मुनि स्वर्ण धातु का उत्पादन करते थे।

10. जीवन में सिर्फ 1 बार और वह भी यदि भूल से भी शिवलिंग पर बेलपत्र चढ़ा दिया हो तो भी उसके सारे पाप मुक्त हो जाते हैं।

11. बेल वृक्ष का रोपण, पोषण और संवर्द्धन करने से महादेव से साक्षात्कार करने का अवश्य लाभ मिलता है।

कृपया बिल्व पत्र का पेड़ जरूर लगाएं। बिल्व पत्र के लिए पेड़ को क्षति न पहुचाएं।

शुक्रवार, 9 जुलाई 2021

कर्माबाई का खिचड़ी भोग (सत्य घटना)

                            कर्मा बाई का खिचड़ी भोग




भगवान श्रीकृष्ण की परम उपासक कर्मा बाई जी जगन्नाथ पुरी में रहती थी और भगवान को बचपन से ही पुत्र रुप में भजती थीं । ठाकुर जी के बाल रुप से वह रोज ऐसे बातें करतीं जैसे ठाकुर जी उनके पुत्र हों और उनके घर में ही वास करते हों। 

एक दिन कर्मा बाई की इच्छा हुई कि ठाकुर जी को फल-मेवे की जगह अपने हाथ से कुछ बनाकर खिलाऊँ । उन्होंने जगन्नाथ प्रभु को अपनी इच्छा बतलायी । भगवान तो भक्तों के लिए सर्वथा प्रस्तुत हैं । प्रभु जी बोले - "माँ ! जो भी बनाया हो वही खिला दो, बहुत भूख लगी है ।"

कर्मा बाई ने खिचड़ी बनाई थी । ठाकुर जी को खिचड़ी खाने को दे दी । प्रभु बड़े चाव से खिचड़ी खाने लगे और कर्मा बाई ये सोचकर भगवान को पंखा झलने लगीं कि कहीं गर्म खिचड़ी से मेरे ठाकुर जी का मुँह ना जल जाये । संसार को अपने मुख में समाने वाले भगवान को कर्मा बाई एक माता की तरह पंखा कर रही हैं और भगवान भक्त की भावना में भाव विभोर हो रहे हैं ।

भक्त वत्सल भगवान ने कहा - "माँ ! मुझे तो खिचड़ी बहुत अच्छी लगी । मेरे लिए आप रोज खिचड़ी ही पकाया करें । मैं तो यही आकर खाऊँगा ।"

अब तो कर्मा बाई जी रोज सुबह उठतीं और सबसे पहले खिचड़ी बनातीं, बाकि सब कुछ बाद में करती थी । भगवान भी सुबह-सवेरे दौड़े आते । आते ही कहते - माँ ! जल्दी से मेरी प्रिय खिचड़ी लाओ ।" प्रतिदिन का यही क्रम बन गया । भगवान सुबह-सुबह आते, भोग लगाते और फिर चले जाते ।

एक बार एक महात्मा कर्मा बाई के पास आया । महात्मा ने उन्हें सुबह-सुबह खिचड़ी बनाते देखा तो नाराज होकर कहा - "माता जी, आप यह क्या कर रही हो ? सबसे पहले नहा धोकर पूजा-पाठ करनी चाहिए । लेकिन आपको तो पेट की चिन्ता सताने लगती है ।"

कर्मा बाई बोलीं - "क्या करुँ ? महाराज जी ! संसार जिस भगवान की पूजा-अर्चना कर रहा होता है, वही सुबह-सुबह भूखे आ जाते हैं । उनके लिए ही तो सब काम छोड़कर पहले खिचड़ी बनाती हूँ ।"

महात्मा ने सोचा कि शायद कर्मा बाई की बुद्धि फिर गई है । यह तो ऐसे बोल रही है जैसे भगवान इसकी बनाई खिचड़ी के ही भूखे बैठे हुए हों ।

 महात्मा कर्मा बाई को समझाने लगे - "माता जी, तुम भगवान को अशुद्ध कर रही हो। सुबह स्नान के बाद पहले रसोई की सफाई करो। फिर भगवान के लिए भोग बनाओ "। 

 अगले दिन कर्मा बाई ने ऐसा ही किया । जैसे ही सुबह हुई भगवान आये और बोले - "माँ ! मैं आ गया हूँ, खिचड़ी लाओ ।"

कर्मा बाई ने कहा - "प्रभु ! अभी में स्नान कर रही हूँ, थोड़ा रुको । थोड़ी देर बाद भगवान ने फिर आवाज लगाई । जल्दी करो, माँ ! मेरे मन्दिर के पट खुल जायेंगे, मुझे जाना है ।"

वह फिर बोलीं - "अभी मैं रसोई की सफाई कर रही हूँ, प्रभु !" भगवान सोचने लगे कि आज माँ को क्या हो गया है ? ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ । फिर जब कर्मा बाई ने खिचड़ी परोसी तब भगवान ने झटपट करके जल्दी-जल्दी खिचड़ी खायी ।

 परंतु आज खिचड़ी में भी रोज वाले भाव का स्वाद भगवान को नहीं लगा था । फिर जल्दी-जल्दी में भगवान बिना पानी पिये ही मंदिर में भागे ।

भगवान ने बाहर महात्मा को देखा तो समझ गये - "अच्छा, तो यह बात है । मेरी माँ को यह पट्टी इसी ने पढ़ायी है ।"

अब यहां ठाकुर जी के मन्दिर के पुजारी ने जैसे ही मंदिर के पट खोले तो देखा भगवान के मुख पर खिचड़ी लगी हुई है । पुजारी बोले - "प्रभु जी ! ये खिचड़ी आप के मुख पर कैसे लग गयी है ?"

भगवान ने कहा - "पुजारी जी, मैं रोज मेरी कर्मा बाई के घर पर खिचड़ी खाकर आता हूँ। आप माँ कर्मा बाई जी के घर जाओ और जो महात्मा उनके यहाँ ठहरे हुए हैं, उनको समझाओ । उसने मेरी माँ को गलत कैसी पट्टी पढाई है ?"

पुजारी ने महात्मा जी से जाकर सारी बात कही कि भगवान भाव के भुखे है । यह सुनकर महात्मा जी घबराए और तुरन्त कर्मा बाई के पास जाकर कहा - "माता जी ! माफ़ करो, ये नियम धर्म तो हम सन्तों के लिये हैं । आप तो जैसे पहले खिचड़ी बनाती हो, वैसे ही बनायें । आपके भाव से ही ठाकुर जी खिचड़ी खाते रहेंगे ।"

 फिर एक दिन आया , जब कर्मा बाई के प्राण छूट गए । उस दिन पुजारी ने मंदिर के पट खोले तो देखा - भगवान की आँखों में आँसूं हैं ।और प्रभु रो रहे हैं ।

 पुजारी ने रोने का कारण पूछा तो भगवान बोले - "पुजारी जी, आज मेरी माँ कर्मा बाई इस लोक को छोड़कर मेरे निज लोक को विदा हो गई है । अब मुझे कौन खिचड़ी बनाकर खिलाएगा ?"

 पुजारी ने कहा - "प्रभु जी ! आपको माँ की कमी महसूस नहीं होने देंगे । आज के बाद आपको सबसे पहले खिचड़ी का भोग ही लगेगा ।" इस तरह आज भी जगन्नाथ भगवान को खिचड़ी का भोग लगाया जाता है ।

*भगवान और उनके भक्तों की ये अमर कथायें अटूट आस्था और विश्वास का प्रतीक हैं । ये कथायें प्रभु प्रेम के स्नेह को दरसाने के लिए अस्तित्व में आयीं हैं कि प्रभु सिर्फ सच्चे और पवित्र भाव के भुखे है । आप भी इन कथाओं के माध्यम से भक्ति के रस को चखते हुए आनन्द के सरोवर में डुबकी लगाएं । ईश्वर की शक्ति के आगे तर्कशीलता भी नतमस्तक हो जाती है । तभी तो चिकित्सा विज्ञान के लोग भी कहते हैं - "दवा से ज्यादा, दुआ काम आएगी ।"


प्रेम से बोलिये जय जगन्नाथ जी

मंगलवार, 6 जुलाई 2021

भक्ति के 9 प्रकार हैं,आप की कौन सी भक्ति हैं?

               भक्ति के 9 प्रकार हैं,आप की कौन सी भक्ति हैं?



प्राचीन शास्त्रों में भक्ति के 9 प्रकार के बताए गए हैं जिसे नवधा भक्ति कहते हैं।

श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।

अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्॥

इन्हें ही नवधा भक्ति के नाम से जाना जाता है ।

( १ ) -- श्रवण

           ईश्वर की लीला, कथा,स्त्रोत इत्यादि को परम श्रद्धा सहित मन से निरंतर सुनना।

( २ ) --कीर्तन

            ईश्वर के गुण,चरित्र,नाम,पराक्रम आदि का आनंद एवं उत्साह के साथ कीर्तन करना।

( ३ ) --स्मरण:

              निरंतर अनन्य भाव से परमेश्वर का स्मरण करना, उनके

महात्म्य और शक्ति का स्मरण कर उस पर मुग्ध होना।

( ४ ) -पाद सेवन:

                ईश्वर के चरणों का आश्रय लेना और उन्हीं को अपना सर्वस्य समझना।

( ५ ) -अर्चन:

                 मन, वचन और कर्म द्वारा पवित्र सामग्री से ईश्वर के चरणों का पूजन करना।

( ६ ) -- वंदन

                 भगवान की मूर्ति को अथवा भगवान के अंश रूपमें व्याप्त भक्तजन,आचार्य,ब्राह्मण,गुरूजन,माता-पिता आदि को परम आदर सत्कार के साथ पवित्र भाव से नमस्कार करना या उनकी सेवा करना।

( ७ ) --दास्य

                ईश्वर को स्वामी और अपने को दास समझकर परम श्रद्धा के साथ सेवा करना।

( ८ ) -- सख्य:

              ईश्वर को ही अपना परममित्र समझकर अपना सर्वस्व उसे

समर्पण कर देना तथा सच्चे भाव से अपने पाप पुण्य का निवेदन

करना।

( ९ ) -- आत्म निवेदन: 

                अपने आपको भगवान के चरणों में सदा के लिए

समर्पण कर देना और कुछ भी अपनी स्वतंत्र सत्ता न रखना।

           यह भक्ति की सबसे उत्तम अवस्था मानी गई हैं।

।।श्री राधे।।

बुधवार, 30 जून 2021

भक्त के मन में अगर सचमुच समर्पण का भाव हो तो भगवान स्वयं ही उपस्थित हो जाते हैं।

 भक्त के मन में अगर सचमुच समर्पण का भाव हो तो भगवान स्वयं ही उपस्थित हो जाते हैं।

                       नरसीजी की कहानी



 एक बार नरसी जी का बड़ा भाई वंशीधर नरसी जी के घर आया। पिता जी का वार्षिक श्राद्ध करना था। वंशीधर ने नरसी जी से कहा- "कल पिता जी का वार्षिक श्राद्ध करना है। कहीं अड्डेबाजी मत करना। बहु को लेकर मेरे यहाँ आ जाना। काम-काज में हाथ बटाओगे तो तुम्हारी भाभी को आराम मिलेगा।"

नरसी जी ने कहा- "पूजा पाठ करके ही आ सकूँगा।"

इतना सुनना था कि वंशीधर उखड गए और बोले - "जिन्दगी भर यही सब करते रहना। जिसकी गृहस्थी भिक्षा से चलती है, उसकी सहायता की मुझे जरूरत नहीं है। तुम पिताजी का श्राद्ध अपने घर पर अपने हिसाब से कर लेना।"

नरसी जी ने कहा- "नाराज क्यों होते हो भैया ? मेरे पास जो कुछ भी है, मैं उसी से श्राद्ध कर लूँगा।" नगर-मंडली को मालूम हो गया कि दोनों भाईयों के बीच श्राद्ध को लेकर झगडा हो गया है। नरसी अलग से श्राद्ध करेगा, ये सुनकर नगर मंडली ने बदला लेने की सोची।

पुरोहित प्रसन्न राय ने सात सौ ब्राह्मणों को नरसी के यहाँ आयोजित श्राद्ध में आने के लिए आमंत्रित कर दिया। प्रसन्न राय ये जानते थे कि नरसी का परिवार मांगकर भोजन करता है। वह क्या सात सौ ब्राह्मणों को भोजन कराएगा ? आमंत्रित ब्राह्मण नाराज होकर जायेंगे और तब उसे समाज से बाहर कर दिया जाएगा।

अब कहीं से इस षड्यंत्र का पता नरसी मेहता जी की पत्नी मानिकबाई जी को लग गया वह चिंतित हो उठी। अब दुसरे दिन नरसी जी स्नान के बाद श्राद्ध के लिए घी लेने बाज़ार गए। नरसी जी घी उधार में चाहते थे परंतु किसी ने उनको घी नहीं दिया।

अंत में एक दुकानदार इस शर्त पर राजी हो गया नरसी को भजन सुनाना पड़ेगा। बस फिर क्या था, मन पसंद काम और उसके बदले घी मिलेगा, ये तो आनंद हो गया। अब हुआ ये कि नरसी जी भगवान का भजन सुनाने में इतने तल्लीन हो गए कि ध्यान ही नहीं रहा कि घर में श्राद्ध है। अब नरसी मेहता जी भजन गाते गए और भगवान कृष्ण श्राद्ध कराते रहे। यानी की दुकानदार के यहाँ नरसी जी भजन गा रहे हैं और वहां श्री कृष्ण भगवान नरसी जी के भेस में श्राद्ध करवा रहे हैं।

 जय हो प्रभु, वाह क्या माया है, अद्भुत! भक्त के सम्मान की रक्षा को स्वयं वेश धर लिए। वो कहते हैं ना कि-

"अपना मान भले टल जाए, भक्त का मान न टलते देखा ।

प्रबल प्रेम के पाले पड़ कर, प्रभु को नियम बदलते देखा ।।" 

तो सात सौ ब्राह्मणों ने छककर भोजन किया। दक्षिणा में एक-एक अशर्फी भी प्राप्त की। सात सौ ब्राह्मण आये तो थे नरसी जी का अपमान करने और कहाँ बदले में स्वादिष्ट भोजन और अशर्फी दक्षिणा के रूप में। वाह प्रभु धन्य है आप और आपके भक्त।

दुश्त्मति ब्राह्मण सोचते रहे कि ये नरसी जरूर जादू-टोना जानता है। इधर दिन ढले घी लेकर नरसी जी जब घर आये तो देखा कि मानिकबाई जी भोजन कर रही है। नरसी जी को इस बात का क्षोभ हुआ कि श्राद्ध क्रिया आरम्भ नहीं हुई और पत्नी भोजन करने बैठ गयी।

नरसी जी बोले - "वो आने में ज़रा देर हो गयी। क्या करता, कोई उधार का घी भी नहीं दे रहा था, मगर तुम श्राद्ध के पहले ही भोजन क्यों कर रही हो ?"मानिकबाई जी ने कहा- "आपका दिमाग तो ठीक है? स्वयं खड़े होकर आपने श्राद्ध का सारा कार्य किया। ब्राह्मणों को भोजन करवाया, दक्षिणा दी। सब विदा हो गए, अब आप भी खाना खा लो।"

 ये बात सुनते ही नरसी जी समझ गए कि उनके इष्ट देव स्वयं उनका मान रख गए। गरीब के मान को, भक्त की लाज को परम प्रेमी करूणामय भगवान् ने बचा लिया। नरसी जी मन ही मन में गाते रहे -

कृष्णजी, कृष्णजी, कृष्णजी कहें तो उठो रे प्राणी।

कृष्णजी ना नाम बिना जे बोलो तो मिथ्या रे वाणी।। 

भक्त के मन में अगर सचमुच समर्पण का भाव हो तो भगवान स्वयं ही उपस्थित हो जाते हैं।

श्री कृष्ण भक्त शिरोमणी संत श्री नरसी मेहता की जय 

नामदेव जी की भागवत भक्ति

                              नामदेव जी की सच्ची सरकार



कन्धे पर कपड़े का थान लादे और हाट-बाजार जाने की तैयारी करते हुए नामदेव जी से पत्नि ने कहा- भगत जी! आज घर में खाने को कुछ भी नहीं है।आटा, नमक, दाल, चावल, गुड़ और शक्कर सब खत्म हो गए हैं।

शाम को बाजार से आते हुए घर के लिए राशन का सामान लेते आइएगा।भक्त नामदेव जी ने उत्तर दिया- देखता हूँ जैसी विठ्ठल जीकी कृपा।अगर कोई अच्छा मूल्य मिला,तो निश्चय ही घर में आज धन-धान्य आ जायेगा।

पत्नि बोली संत जी! अगर अच्छी कीमत ना भी मिले,तब भी इस बुने हुए थान को बेचकर कुछ राशन तो ले आना।

घर के बड़े-बूढ़े तो भूख बर्दाश्त कर लेंगे।पर बच्चे अभी छोटे हैं,उनके लिए तो कुछ ले ही आना।जैसी मेरे विठ्ठल की इच्छा।ऐसा कहकर भक्त नामदेव जी हाट-बाजार को चले गए।

बाजार में उन्हें किसी ने पुकारा- वाह सांई! कपड़ा तो बड़ा अच्छा बुना है और ठोक भी अच्छी लगाई है।

तेरा परिवार बसता रहे।ये फकीर ठंड में कांप-कांप कर मर जाएगा।दया करके रब के नाम पर दो चादरे का कपड़ा इस फकीर की झोली में डाल दे।

भक्त नामदेव जी- दो चादरे में कितना कपड़ा लगेगा फकीर जी?

फकीर ने जितना कपड़ा मांगा,इतेफाक से भक्त नामदेव जी के थान में कुल कपड़ा उतना ही था।

और भक्त नामदेव जी ने पूरा थान उस फकीर को दान कर दिया।

दान करने के बाद जब भक्त नामदेव जी घर लौटने लगे तो उनके सामने परिजनो के भूखे चेहरे नजर आने लगे।

फिर पत्नि की कही बात,कि घर में खाने की सब सामग्री खत्म है।दाम कम भी मिले तो भी बच्चो के लिए तो कुछ ले ही आना।

अब दाम तो क्या,थान भी दान जा चुका था।भक्त नामदेव जी एकांत मे पीपल की छाँव मे बैठ गए।

जैसी मेरे विठ्ठल की इच्छा।जब सारी सृष्टि की सार पूर्ती वो खुद करता है,तो अब मेरे परिवार की सार भी वो ही करेगा।

और फिर भक्त नामदेव जी अपने हरिविठ्ठल के भजन में लीन गए।

अब भगवान कहां रुकने वाले थे।भक्त नामदेव जी ने सारे परिवार की जिम्मेवारी अब उनके सुपुर्द जो कर दी थी।

अब भगवान जी ने भक्त जी की झोंपड़ी का दरवाजा खटखटाया।

नामदेव जी की पत्नी ने पूछा- कौन है?नामदेव का घर यही है ना?

भगवान जी ने पूछा।अंदर से आवाज हां जी यही आपको कुछ चाहिये? 

भगवान सोचने लगे कि धन्य है नामदेव जी का परिवार घर मे कुछ भी नही है फिर ह्र्दय मे देने की सहायता की जिज्ञयासा हैl

भगवान बोले दरवाजा खोलिये,लेकिन आप कौन?

भगवान जी ने कहा- सेवक की क्या पहचान होती है भगतानी?

जैसे नामदेव जी विठ्ठल के सेवक,वैसे ही मैं नामदेव जी का सेवक हूं।ये राशन का सामान रखवा लो।

पत्नि ने दरवाजा पूरा खोल दिया।फिर इतना राशन घर में उतरना शुरू हुआ,कि घर के जीवों की घर में रहने की जगह ही कम पड़ गई।

इतना सामान! नामदेव जी ने भेजा है?मुझे नहीं लगता,पत्नी ने पूछा?

भगवान जी ने कहा- हाँ भगतानी! आज नामदेव का थान सच्ची सरकार ने खरीदा है।जो नामदेव का सामर्थ्य था उसने भुगता दिया।और अब जो मेरी सरकार का सामर्थ्य है वो चुकता कर रही है।

जगह और बताओ।सब कुछ आने वाला है भगत जी के घर में।

शाम ढलने लगी थी और रात का अंधेरा अपने पांव पसारने लगा था।समान रखवाते-रखवाते पत्नि थक चुकी थीं।

बच्चे घर में अमीरी आते देख खुश थे।वो कभी बोरे से शक्कर निकाल कर खाते और कभी गुड़।

कभी मेवे देख कर मन ललचाते और झोली भर-भर कर मेवे लेकर बैठ जाते।उनके बालमन अभी तक तृप्त नहीं हुए थे।भक्त नामदेव जी अभी तक घर नहीं आये थे,पर सामान आना लगातार जारी था।

आखिर पत्नी ने हाथ जोड़ कर कहा- सेवक जी! अब बाकी का सामान संत जी के आने के बाद ही आप ले आना।

हमें उन्हें ढूंढ़ने जाना है क्योंकी वो अभी तक घर नहीं आए हैं।

भगवान जी बोले- वो तो गाँव के बाहर पीपल के नीचे बैठकर विठ्ठल सरकार का भजन-सिमरन कर रहे हैं।

अब परिजन नामदेव जी को देखने गये।सब परिवार वालों को सामने देखकर नामदेव जी सोचने लगे,जरूर ये भूख से बेहाल होकर मुझे ढूंढ़ रहे हैं।

इससे पहले की संत नामदेव जी कुछ कहतेउनकी पत्नी बोल पड़ीं- कुछ पैसे बचा लेने थे।अगर थान अच्छे भाव बिक गया था,तो सारा सामान संत जी आज ही खरीद कर घर भेजना था क्या?

भक्त नामदेव जी कुछ पल के लिए विस्मित हुए।

फिर बच्चों के खिलते चेहरे देखकर उन्हें एहसास हो गया,कि जरूर मेरे प्रभु ने कोई खेल कर दिया है।

पत्नि ने कहा अच्छी सरकार को आपने थान बेचा और वो तो समान घर मे भैजने से रुकता ही नहीं था।

पता नही कितने वर्षों तक का राशन दे गया।उससे मिन्नत कर के रुकवाया- बस कर! बाकी संत जी के आने के बाद उनसे पूछ कर कहीं रखवाएँगे।

भक्त नामदेव जी हँसने लगे और बोले- ! वो सरकार है ही ऐसी।

जब देना शुरू करती है तो सब लेने वाले थक जाते हैं।उसकी बख्शीश कभी भी खत्म नहीं होती।

वह सच्ची सरकार की तरह सदा कायम रहती है।

मंगलवार, 29 जून 2021

भगवान विष्णु का नाम नारायण क्यों हैं:--

                      भगवान विष्णु का नाम नारायण क्यों हैं:--


भगवान विष्णु के परम भक्त हर समय नारायण-नारायण का ही नाम जपते रहते हैं।

लेकिन बहुत ही कमलोग विष्णु को नारायण कहने के पीछे का कारण जानते हैं।

पुराणों के अनुसार भगवान विष्णु के पैरों से बहने वाली गंगा नदी को ‘विष्णुपदोदकी’ भी कहा जाता हैऔर इसी में छिपी है विष्णु को नारायण कहने के पीछे की कहानी।

पानी को नर या नीर भी कहा जाता है,और भगवान विष्णु भी पानी के भीतर ही रहते हैं,

इसलिए विष्णु को नारायण अर्थात पानी के भीतर रहने वाले ईश्वर का दर्जा दिया गया।

।।ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः।।

हरी का अर्थ:-- हरी का अर्थ होता है चुराने या लेने वाला, भगवान विष्णुदुखियों के दुख और पापियों के पाप हर लेते हैं।

इसलिए उन्हें हरी के नाम से भी संसार जानता है.

।।जय श्री हरि।।

Featured Post

लघु गीता

                                      लघु गीता                          अध्याय 3 कर्मों को प्रारंभ न करने से कोई निष्काम नहीं हो सकता और कर्...