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शुक्रवार, 2 दिसंबर 2022

मनुष्य के कर्म का साक्षी कौन कौन है ?

              मनुष्य के कर्म का साक्षी कौन कौन है ? 


मृत्युलोक में प्राणी अकेला ही पैदा होता है, अकेला ही मरता है। प्राणी का धन-वैभव घर में ही छूट जाता है। मित्र और स्वजन श्मशान में छूट जाते हैं। शरीर को अग्नि ले लेती है। पाप-पुण्य ही उस जीव के साथ जाते हैं। अकेले ही वह पाप-पुण्य का भोग करता है परन्तु धर्म ही उसका अनुसरण करता है।

‘शरीर और गुण (पुण्यकर्म) इन दोनों में बहुत अंतर है, क्योंकि शरीर तो थोड़े ही दिनों तक रहता है किन्तु गुण प्रलयकाल तक बने रहते हैं। जिसके गुण और धर्म जीवित हैं, वह वास्तव में जी रहा है।’

पाप और पुण्य

वेदों में जिन कर्मों का विधान है, वे धर्म (पुण्य) हैं और उनके विपरीत कर्म अधर्म (पाप) कहलाते हैं। मनुष्य एक दिन या एक क्षण में ऐसे पुण्य या पाप कर सकता है कि उसका भोग सहस्त्रों वर्षों में भी पूर्ण न हो।

मनुष्य के कर्म के चौदह साक्षी

सूर्य, अग्नि, आकाश, वायु, इन्द्रियां, चन्द्रमा, संध्या, रात, दिन, दिशाएं, जल, पृथ्वी, काल और धर्म–ये सब मनुष्य के कर्मों के साक्षी हैं।

सूर्य रात्रि में नहीं रहता और चन्द्रमा दिन में नहीं रहता, जलती हुई अग्नि भी हरसमय नहीं रहती; किन्तु रात-दिन और संध्या में से कोई एक तो हर समय रहता ही है। दिशाएं, आकाश, वायु, पृथ्वी, जल सदैव रहते हैं, मनुष्य इन्हें छोड़कर कहीं भाग नहीं सकता, इनसे छुप नहीं सकता। मनुष्य की इन्द्रियां, काल और धर्म भी सदैव उसके साथ रहते हैं। कोई भी कर्म किसी-न किसी इन्द्रिय द्वारा किसी-न-किसी समय (काल) होगा ही। उस कर्म का प्रभाव मनुष्य के ग्रह-नक्षत्रों व पंचमहाभूतों पर पड़ता है। जब मनुष्य कोई गलत कार्य करता है तो धर्मदेव उस गलत कर्म की सूचना देते हैं और उसका दण्ड मनुष्य को अवश्य मिलता है।

कर्म से ही देह मिलता है

पृथ्वी पर जो मनुष्य-देह है उसमें एक सीमा तक ही सुख या दु:ख भोगने की क्षमता है। जो पुण्य या पाप पृथ्वी पर किसी मनुष्य-देह के द्वारा भोगने संभव नही, उनका फल जीव स्वर्ग या नरक में भोगता है। पाप या पुण्य जब इतने रह जाते हैं कि उनका भोग पृथ्वी पर संभव हो, तब वह जीव पृथ्वी पर किसी देह में जन्म लेता है।

कर्मों के अवशेष भाग को भोगने के लिए मनुष्य मृत्युलोक में स्थावर-जंगम अर्थात् वृक्ष, गुल्म (झाड़ी), लता, बेल, पर्वत और तृण–आदि योनि प्राप्त करता है। ये सब दु:खों के भोग की योनियां हैं। वृक्षयोनि में दीर्घकाल तक सर्दी-गर्मी सहना, काटे जाने व अग्नि में जलाये जाने सम्बधी दु:ख भोगना पड़ता है। यदि जीव कीटयोनि प्राप्त करता है तो अपने से बलवान प्राणियों द्वारा दी गयी, पीड़ा सहता है, शीत-वायु और भूख के क्लेश सहते हुए मल-मूत्र में विचरण करना आदि दारुण दु:ख उठाता है। इसी तरह से पशुयोनि में आने पर अपने से बलवान पशु द्वारा दी गयी पीड़ा का कष्ट पाता रहता है। पक्षी की योनि में आने पर कभी वायु पीकर रहना तो कभी अपवित्र वस्तुओं को खाने का कष्ट उठाना पड़ता है। यदि भार ढोने वाले पशुओं की योनि में जीव आता है तो रस्सी से बांधे जाने, डण्डों से पीटे जाने व हल जोतने का दारुण दु:ख जीव को सहना पड़ता है।

विभिन्न पापयोनियां

इस संसार-चक्र में मनुष्य घड़ी के पेण्डुलम की भांति विभिन्न पापयोनियों में जन्म लेता और मरता है–

–माता-पिता को कष्ट पहुंचाने वाले को कछुवे की योनि में जाना पड़ता है।

–मित्र का अपमान करने वाला गधे की योनि में जन्म लेता है।

–छल-कपट कर जीवनयापन करने वाला बंदर की योनि में जाता है।

–अपने पास रखी किसी की धरोहर को हड़पने वाला मनुष्य कीड़े की योनि में जन्म लेता है।

–विश्वासघात करने से मनुष्य को मछली की योनि मिलती है।

–विवाह, यज्ञ आदि शुभ कार्यों में विघ्न डालने वाले को कृमियोनि मिलती है।

–देवता, पितर व ब्राह्मणों को भोजन न कराकर स्वयं खा लेता है वह काकयोनि (कौए) में जाता है।

दुर्लभ है मनुष्य योनि

इस प्रकार बहुत-सी योनियों में भ्रमण करके जीव किसी महान पुण्य के कारण मनुष्य योनि प्राप्त करता है। मनुष्य योनि प्राप्त करके भी यदि दरिद्र, रोगी, काना या अपाहिज जीवन मिले तो बहुत अपमान व कष्ट भोगना पड़ता है।

इसलिए दुर्लभ मनुष्य जन्म पाकर संसार-बंधन से मुक्त होने के लिए प्राणी को भगवान विष्णु की सेवा-आराधना करनी चाहिए क्योंकि वे ही कर्मफल के दाता व संसार-बंधन से छुड़ाने वाले मोक्षदाता हैं। भगवान विष्णु के जो-जो स्वरूप हैं, उनकी भक्ति करने से मनुष्य संसार-सागर आसानी से पार कर परमधाम को प्राप्त करता है।

श्री विष्णु ने बताया संसार-सागर से पार होने का उपाय

भगवान विष्णु ने संसार-सागर से पार होने का उपाय भगवान रुद्र को बताते हुए कहा कि ‘विष्णुसहस्त्रनाम’ स्तोत्र से मेरी नित्य स्तुति करने से मनुष्य भवसागर को सहज ही पार कर लेता है।

‘जिनका मन भगवान विष्णु की भक्ति में अनुरक्त है, उनका अहोभाग्य है, अहोभाग्य है; क्योंकि योगियों के लिए भी दुर्लभ मुक्ति उन भक्तों के हाथ में ही रहती है।’ (नारदपुराण)

भक्तों की गति

भक्त अपने आराध्य के लोक में जाते हैं। भगवान के लोक में कुछ भी बनकर रहना सालोक्य-मुक्ति है। भगवान के समान ऐश्वर्य प्राप्त करना सार्ष्टि-मुक्ति है। भगवान के समान रूप पाकर वहां रहना सारुप्य-मुक्ति है। भगवान के आभूषणादि बनकर रहना सामीप्य-मुक्ति कहलाती है। भगवान के श्रीविग्रह में मिल जाना सायुज्य-मुक्ति है।

जिस जीव को भगवान का धाम प्राप्त हो जाता है, वह भगवान की इच्छा से उनके साथ या अलग से संसार में दिव्य जन्म ले सकता है। वह कर्मबन्धन में नहीं बंधा होता है। संसार में भगवत्कार्य समाप्त करके वह पुन: भगवद्धाम चला जाता है।

मुक्त पुरुष

मनुष्य बिना कर्म किए रह नहीं सकता। कर्म करेगा तो पाप-पुण्य दोनों होंगे। लेकिन जो मनुष्य सबमें भगवत्दृष्टि रखकर भगवान की सेवा के लिए, उनकी आज्ञा का पालन करने के लिए और भगवान की प्रसन्नता के लिए कर्म करता है तो उसके कर्म भी अकर्म बन जाते हैं और कर्म-बंधन में नहीं बांधते हैं। वह संसार में रहते हुए भी नित्यमुक्त है।

तत्त्वज्ञानी पुरुष संसार के आवागमन से मुक्त हो जाते हैं। उनके प्राण निकलकर कहीं जाते नहीं बल्कि परमात्मा में लीन हो जाते हैं। सती स्त्रियां, युद्ध में मारे गए वीर और उत्तरायण के शुक्ल-मार्ग से जाने वाले योगी मुक्त हो जाते हैं।

गीता में शुक्ल तथा कृष्ण मार्ग कहकर दो गतियों का वर्णन है–

जिनमें वासना शेष है, वे धुएं, रात्रि, कृष्णपक्ष, दक्षिणायन के देवताओं द्वारा ले जाए जाते हैं। ऊर्ध्वलोक में अपने पुण्य भोगकर वे फिर पृथ्वी पर जन्म लेते हैं।

जिनमें कोई वासना शेष नहीं है, वे अग्नि, दिन, शुक्लपक्ष, उत्तरायण के देवताओं द्वारा ले जाये जाते हैं। वे फिर पृथ्वी पर जन्म लेकर नहीं लौटते हैं।

पितृलोक

यह एक प्रकार का प्रतीक्षालोक है। एक जीव को पृथ्वी पर जिस माता-पिता से जन्म लेना है, जिस भाई-बहिन व पत्नी को पाना है, जिन लोगों के द्वारा उसे सुख-दु:ख मिलना है; वे सब लोग अलग-अलग कर्म करके स्वर्ग या नरक में हैं। जब तक वे सब भी इस जीव के अनुकूल योनि में जन्म लेने की स्थिति में न आ जाएं, इस जीव को प्रतीक्षा करनी पड़ती है। पितृलोक इसलिए एक प्रकार का प्रतीक्षालोक है।

प्रेतलोक

यह नियम है कि मनुष्य की अंतिम इच्छा या भावना के अनुसार ही उसे गति प्राप्त होती है। जब मनुष्य किसी प्रबल राग-द्वेष, लोभ या मोह के आकर्षण में फंसकर देह त्यागता है तो वह उस राग-द्वेष के बंधन में बंधा आस-पास ही भटकता रहता है। वह मृत पुरुष भायवीय देह पाकर बड़ी यातना भरी योनि प्राप्त करता है। 

इसीलिए कहा जाता है–

अंत मति सो गति।

गुरुवार, 1 दिसंबर 2022

11 मुखी हनुमान जी की पूजा से मिलते हैं कई लाभ, जानें किस मूर्ति से कौन सी मनोकामना होती है पूरी।

 11 मुखी हनुमान जी की पूजा से मिलते हैं कई लाभ, जानें किस मूर्ति से कौन सी मनोकामना होती है पूरी।

1. पूर्वमुखी हुनमान जी: पूर्व की ओर मुख वाले बजरंबली को वानर रूप में पूजा जाता है। इस रूप में भगवान को बेहद शक्तिशाली और करोड़ों सूर्य के तेज के समान बताया गया है। शत्रुओं के नाश के बजरंगबली जाने जाते हैं। दुश्मन अगर आप पर हावी हो रहे हैं तो पूर्वमुखी हनुमान की पूजा शुरू कर दें।

2. पश्चिममुखी हनुमान जी: पश्चिम की ओर मुख वाले हनुमानजी को गरूड़ का रूप माना जाता है। इसी रूप को संकटमोचन का स्वरूप माना गया है। मान्यता है कि भगवान विष्णु का वाहन गरुड़ अमर है उसी के समान बजरंगबली भी अमर हैं। यही कारण है कि कलयुग के जाग्रत देवताओं में बजरंगबली को माना जाता है।

3. उत्तरामुखी हनुमान जी: उत्तर दिशा की ओर मुख वाले हनुमान जी की पूजा शूकर के रूप में होती है। एक बात और वह यह कि उत्तर दिशा यानी ईशान कोण देवताओं की दिशा होती है। यानी शुभ और मंगलकारी। इस दिशा में स्थापित बजरंगबली की पूजा से इंसान की आर्थिक स्थिति बेहतर होती है। इस ओर मुख किए भगवान की पूजा आपको धन-दौलत, ऐश्वर्य, प्रतिष्ठा, लंबी आयु के साथ ही रोग मुक्त बनाती है।

4. दक्षिणामुखी हनुमान जी: दक्षिणमुखी हनुमान जी को भगवान नृसिंह का रूप माना जाता है। दक्षिण दिशा यमराज की होती है और इस दिशा में हनुमान जी की पूजा से इंसान के डर, चिंता और कठिनाईयों से मुक्ति मिलती है। दक्षिणमुखी हनुमान जी बुरी शक्तियों से बचाते हैं।

5. ऊर्ध्वमुख: इस ओर मुख किए हनुमान जी को ऊर्ध्वमुख रूप यानी घोड़े का रूप माना गया है। इस स्वरूप की पूजा करने वालों को दुश्मनों और संकटों से मुक्ति मिलती है। इस स्वरूप को भगवान ने ब्रह्माजी के कहने पर धारण कर हयग्रीव दैत्य का संहार किया था।

6. पंचमुखी हनुमान: पंचमुखी हनुमान के पांच रूपों की पूजा की जाती है। इसमें हर मुख अलग-अलग शक्तियों का परिचायक है। रावण ने जब छल से राम लक्ष्मण को बंधक बना लिया था तो हनुमान जी ने पंचमुखी हनुमान का रूप धारण कर अहिरावण से उन्हें मुक्त कराया था। पांच दीये एक साथ बुझाने पर ही श्रीराम- लक्षमण मुक्त हो सकते थे इसलिए भगवान ने पंचमुखी रूप धारण किया था। उत्तर दिशा में वराह मुख, दक्षिण दिशा में नरसिंह मुख, पश्चिम में गरुड़ मुख, आकाश की ओर हयग्रीव मुख एवं पूर्व दिशा में हनुमान मुख में वह विराजे हैं।

7. एकादशी हनुमान: ये रूप भगवान शिव का स्वरूप भी माना जाता है। एकादशी रूप रुद्र यानी शिव का 11वां अवतार है। ग्यारह मुख वाले कालकारमुख के राक्षस का वध करने के लिए भगवान ने एकादश मुख का रुप धारण किया था। चैत्र पूर्णिमा यानी हनुमान जयंती के दिन उस राक्षस का वध किया था। यही कारण है कि भक्तों को एकादशी और पंचमुखी हनुमान जी पूजा सारे ही भगवानों की उपासना समान माना जाता है।

8. वीर हनुमान: हनुमान जी के इस स्वरूप की पूजा भक्त साहस और आत्मविश्वास पाने के लिए करते हें। इस रूप के द्वारा भगवान के बल, साहस, पराक्रम को जाना जाता है अर्थात तो भगवान श्रीराम के काज को संवार सकता है वह अपने भक्तों के काज और कष्ट क्षण में दूर कर देते हैं।

9. भक्त हनुमान: भगवान का यह स्वरूप श्री रामभक्त का है। इनकी पूजा करने से आपको भगवान श्रीराम का भी आर्शीवाद मिलता है। बजरंगबली की पूजा अड़चनों को दूर करने वाली होती है। इस पूजा से भक्तों में एकाग्रता और भक्ति की भावना जागृत होती है।

10. दास हनुमान: बजरंबली का यह स्वरूप श्रीराम के प्रति उनकी अनन्य भक्ति को दिखाता है। इस स्वरूप की पूजा करने वाले भक्तों को धर्म कार्य और रिश्ते-नाते निभाने में निपुणता हासिल होती है। सेवा और समर्पण का भाव भक्त इस स्वरूप के द्वारा ही पाते हैं।

11. सूर्यमुखी हनुमान: यह स्वरूप भगवान सूर्य का माना गया है। सूर्य देव बजरंगबली के गुरु माने गए हैं। इस स्वरूप की पूजा से ज्ञान, प्रतिष्ठा, प्रसिद्धि और उन्नति का रास्ता खुलता है। क्योंकि श्री हनुमान के गुरु सूर्यदेव अपनी इन्हीं शक्तियों के लिए जाने जाते हैं।

ईश्वर का अस्तित्व तुम्हें साकार नजर आ जाएगा।

श्रद्धा से नतमस्तक हो आधार नजर आ जाएगा।।

।।जय जय श्री महावीर हनुमान।।


माता के शेष 5अवतारों का वर्णन

          माता के शेष 5अवतारों का वर्णन


               ये हैं सती_पार्वती के शेष 5 अवतार 

कैलाश पर्वत के ध्यानी की अर्धांगिनी मां सती पार्वती को ही शैलपुत्री‍, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री आदि नामों से जाना जाता है।

इसके अलावा भी मां के अनेक नाम हैं जैसे दुर्गा, जगदम्बा, अम्बे, शेरांवाली आदि। इनके दो पुत्र हैं गणेश और कार्तिकेय।


स्कंदमाता


उनके पुत्र कार्तिकेय का नाम स्कंद भी है इसीलिए वह स्कंद की माता कहलाती है।

नवदुर्गा का पांचवां स्वरूप स्कंदमाता

नवरात्रि में पांचवें दिन इस देवी की पूजा-अर्चना की जाती है। कहते हैं कि इनकी कृपा से मूढ़ भी ज्ञानी हो जाता है। स्कंद कुमार कार्तिकेय की माता के कारण इन्हें स्कंदमाता नाम से अभिहित किया गया है। 

इनके विग्रह में भगवान स्कंद बालरूप में इनकी गोद में विराजित हैं। इस देवी की चार भुजाएं हैं। ये दाईं तरफ की ऊपर वाली भुजा से स्कंद को गोद में पकड़े हुए हैं। नीचे वाली भुजा में कमल का पुष्प है। बाईं तरफ ऊपर वाली भुजा में वरदमुद्रा में हैं और नीचे वाली भुजा में कमल पुष्प है। 

इनका वर्ण एकदम शुभ्र है। ये कमल के आसन पर विराजमान रहती हैं। इसीलिए इन्हें पद्मासना भी कहा जाता है। सिंह इनका वाहन है। 


सिंहसनगता नित्यं पद्माश्रितकरद्वया। 

शुभदास्तु सदा देवी स्कंदमाता यशस्विनी॥


शास्त्रों में इसका पुष्कल महत्व बताया गया है। इनकी उपासना से भक्त की सारी इच्छाएं पूरी हो जाती हैं। भक्त को मोक्ष मिलता है। सूर्यमंडल की अधिष्ठात्री देवी होने के कारण इनका उपासक अलौकिक तेज और कांतिमय हो जाता है। 

अतः मन को एकाग्र रखकर और पवित्र रखकर इस देवी की आराधना करने वाले साधक या भक्त को भवसागर पार करने में कठिनाई नहीं आती है। उनकी पूजा से मोक्ष का मार्ग सुलभ होता है। यह देवी विद्वानों और सेवकों को पैदा करने वाली शक्ति है। यानी चेतना का निर्माण करने वालीं। 

कहते हैं कालिदास द्वारा रचित रघुवंशम महाकाव्य और मेघदूत रचनाएं स्कंदमाता की कृपा से ही संभव हुईं। पहाड़ों पर रहकर सांसारिक जीवों में नवचेतना का निर्माण करने वालीं स्कंदमाता।


छठवां स्वरूप देवी  कात्यायिनी


चंद्रहासोज्ज्वलकरा शार्दूलवरवाहना। 

कात्यायिनी शुभं दद्याद्देवी दानवघातिनी॥


नवरात्रि में छठे दिन मां कात्यायनी की पूजा की जाती है। इनकी उपासना और आराधना से भक्तों को बड़ी आसानी से अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष चारों फलों की प्राप्ति होती है। उसके रोग, शोक, संताप और भय नष्ट हो जाते हैं। जन्मों के समस्त पाप भी नष्ट हो जाते हैं। 

इस देवी को नवरात्रि में छठे दिन पूजा जाता है। कात्य गोत्र में विश्व प्रसिद्ध महर्षि कात्यायन ने भगवती पराम्बा की उपासना की। कठिन तपस्या की। उनकी इच्छा थी कि उन्हें पुत्री प्राप्त हो। 

मां भगवती ने उनके घर पुत्री के रूप में जन्म लिया। इसलिए यह देवी कात्यायिनी कहलाईं। इनका गुण शोध कार्य है। इसीलिए इस वैज्ञानिक युग में कात्यायिनी का महत्व सर्वाधिक हो जाता है। इनकी कृपा से ही सारे कार्य पूरे जो जाते हैं। 

ये वैद्यनाथ नामक स्थान पर प्रकट होकर पूजी गईं। मां कात्यायिनी अमोघ फलदायिनी हैं। भगवान कृष्ण को पति रूप में पाने के लिए ब्रज की गोपियों ने इन्हीं की पूजा की थी। यह पूजा कालिंदी यमुना के तट पर की गई थी। इसीलिए ये ब्रजमंडल की अधिष्ठात्री देवी के रूप में प्रतिष्ठित हैं। 

इनका स्वरूप अत्यंत भव्य और दिव्य है। ये स्वर्ण के समान चमकीली हैं और भास्वर हैं। इनकी चार भुजाएं हैं। दाईं तरफ का ऊपर वाला हाथ अभय मुद्रा में है तथा नीचे वाला हाथ वर मुद्रा में। मां के बाईं तरफ के ऊपर वाले हाथ में तलवार है व नीचे वाले हाथ में कमल का फूल सुशोभित है। इनका वाहन भी सिंह है। 

इनकी उपासना और आराधना से भक्तों को बड़ी आसानी से अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष चारों फलों की प्राप्ति होती है। उसके रोग, शोक, संताप और भय नष्ट हो जाते हैं। जन्मों के समस्त पाप भी नष्ट हो जाते हैं। 

इसलिए कहा जाता है कि इस देवी की उपासना करने से परम पद की प्राप्ति होती है।


मां दुर्गा की सातवीं शक्ति कालरात्रि


नाम से अभिव्यक्त होता है कि मां दुर्गा की यह सातवीं शक्ति कालरात्रि के नाम से जानी जाती है अर्थात जिनके शरीर का रंग घने अंधकार की तरह एकदम काला है। नाम से ही जाहिर है कि इनका रूप भयानक है। सिर के बाल बिखरे हुए हैं और गले में विद्युत की तरह चमकने वाली माला है। अंधकारमय स्थितियों का विनाश करने वाली शक्ति हैं कालरात्रि। 


एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता। 

लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्तशरीरिणी॥

वामपादोल्लसल्लोहलताकण्टकभूषणा। 

वर्धनमूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयंकरी॥


काल से भी रक्षा करने वाली यह शक्ति है। इस देवी के तीन नेत्र हैं। ये तीनों ही नेत्र ब्रह्मांड के समान गोल हैं। इनकी सांसों से अग्नि निकलती रहती है। ये गर्दभ की सवारी करती हैं। 

ऊपर उठे हुए दाहिने हाथ की वर मुद्रा भक्तों को वर देती है। दाहिनी ही तरफ का नीचे वाला हाथ अभय मुद्रा में है। यानी भक्तों हमेशा निडर, निर्भय रहो। बाईं तरफ के ऊपर वाले हाथ में लोहे का कांटा तथा नीचे वाले हाथ में खड्ग है। 

इनका रूप भले ही भयंकर हो लेकिन ये सदैव शुभ फल देने वाली मां हैं। इसीलिए ये शुभंकरी कहलाईं। अर्थात इनसे भक्तों को किसी भी प्रकार से भयभीत या आतंकित होने की कतई आवश्यकता नहीं। उनके साक्षात्कार से भक्त पुण्य का भागी बनता है। 

ये ग्रह बाधाओं को भी दूर करती हैं और अग्नि, जल, जंतु, शत्रु और रात्रि भय दूर हो जाते हैं। इनकी कृपा से भक्त हर तरह के भय से मुक्त हो जाता है।

कालरात्रि की उपासना करने से ब्रह्मांड की सारी सिद्धियों के दरवाजे खुलने लगते हैं और तमाम असुरी शक्तियां उनके नाम के उच्चारण से ही भयभीत होकर दूर भागने लगती हैं। इसलिए दानव, दैत्य, राक्षस और भूत-प्रेत उनके स्मरण से ही भाग जाते हैं।


महागौरी मां दुर्गा का आठवां स्वरूप

नवरात्रि में दुर्गा पूजा के अवसर पर बहुत ही विधि-विधान से माता दुर्गा के नौ रूपों की पूजा-उपासना की जाती है। यह अमोघ फलदायिनी हैं और भक्तों के तमाम कल्मष धुल जाते हैं। पूर्वसंचित पाप भी नष्ट हो जाते हैं। महागौरी का पूजन-अर्चन, उपासना-आराधना कल्याणकारी है। इनकी कृपा से अलौकिक सिद्धियां भी प्राप्त होती हैं।

नवरात्रि में आठवें दिन महागौरी शक्ति की पूजा की जाती है। नाम से प्रकट है कि इनका रूप पूर्णतः गौर वर्ण है। इनकी उपमा शंख, चंद्र और कुंद के फूल से दी गई है। अष्टवर्षा भवेद् गौरी यानी इनकी आयु आठ साल की मानी गई है। इनके सभी आभूषण और वस्त्र सफेद हैं। इसीलिए उन्हें श्वेताम्बरधरा कहा गया है। 4 भुजाएं हैं और वाहन वृषभ है इसीलिए वृषारूढ़ा भी कहा गया है इनको। 

इनके ऊपर वाला दाहिना हाथ अभय मुद्रा है तथा नीचे वाला हाथ त्रिशूल धारण किया हुआ है। ऊपर वाले बांए हाथ में डमरू धारण कर रखा है और नीचे वाले हाथ में वर मुद्रा है। इनकी पूरी मुद्रा बहुत शांत है। पति रूप में शिव को प्राप्त करने के लिए महागौरी ने कठोर तपस्या की थी। इसी वजह से इनका शरीर काला पड़ गया लेकिन तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने इनके शरीर को गंगा के पवित्र जल से धोकर कांतिमय बना दिया। उनका रूप गौर वर्ण का हो गया। इसीलिए यह महागौरी कहलाईं। 

यह अमोघ फलदायिनी हैं और इनकी पूजा से भक्तों के तमाम कल्मष धुल जाते हैं। पूर्वसंचित पाप भी नष्ट हो जाते हैं। महागौरी का पूजन-अर्चन, उपासना-आराधना कल्याणकारी है। इनकी कृपा से अलौकिक सिद्धियां भी प्राप्त होती हैं। 


श्वेते वृषे समारूढ़ा श्वेताम्बरधरा शुचिः। 

महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोदया॥


नवदुर्गा का नौवां स्वरूप मां सिद्धिदात्री


भगवान शिव ने भी इस देवी की कृपा से ये तमाम सिद्धियां प्राप्त की थीं। इस देवी की कृपा से ही शिवजी का आधा शरीर देवी का हुआ था। इसी कारण शिव अर्द्धनारीश्वर नाम से प्रसिद्ध हुए। 

इस देवी की पूजा नौंवे दिन की जाती है। ये देवी सर्व सिद्धियां प्रदान करने वाली देवी हैं। उपासक या भक्त पर इनकी कृपा से कठिन से कठिन कार्य भी चुटकी में संभव हो जाते हैं। हिमाचल के नंदापर्वत पर इनका प्रसिद्ध तीर्थ है। 

अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व आठ सिद्धियां होती हैं। इसलिए इस देवी की सच्चे मन से विधि विधान से उपासना-आराधना करने से ये सभी सिद्धियां प्राप्त की जा सकती हैं।

भगवान शिव ने भी इस देवी की कृपा से ये तमाम सिद्धियां प्राप्त की थीं। इस देवी की कृपा से ही शिवजी का आधा शरीर देवी का हुआ था। इसी कारण शिव अर्द्धनारीश्वर नाम से प्रसिद्ध हुए। इस देवी के दाहिनी तरफ नीचे वाले हाथ में चक्र, ऊपर वाले हाथ में गदा तथा बाईं तरफ के नीचे वाले हाथ में शंख और ऊपर वाले हाथ में कमल का पुष्प है। इसलिए इन्हें सिद्धिदात्री कहा जाता है। 

इनका वाहन सिंह है और ये कमल पुष्प पर भी आसीन होती हैं। विधि-विधान से नौंवे दिन इस देवी की उपासना करने से सिद्धियां प्राप्त होती हैं। ये अंतिम देवी हैं। इनकी साधना करने से लौकिक और परलौकिक सभी प्रकार की कामनाओं की पूर्ति हो जाती है। 

मां के चरणों में शरणागत होकर निरंतर उपासना करने से, इस देवी का स्मरण, ध्यान, पूजन करने से हम अमृत पद की ओर चले जाते हैं। 

भगवती सिद्धिदात्री का ध्यान, स्रोत कवच का पाठ करने से निर्वाण चक्र जागृत होता है, जिससे सिद्धि-ऋद्धि की प्राप्ति होती है। नवरात्रि के नौवें दिन सिद्धदात्री की पूजा-पाठ करने से आपके कार्यों में आ रहे सारे व्यवधान समाप्त हो जाते हैं तथा आपके सारे मनोकामना की पूर्ति अपने आप ही हो जाती है।

।।जय मां।।

बुधवार, 16 नवंबर 2022

राम तत्त्व की महिमा

                           राम तत्त्व की महिमा

अवधपुरी में राजा दशरथ के घर श्रीराम अवतरित हुए तब से ही लोग श्रीराम का भजन करते हैं, ऐसी बात नहीं  है  ।  राजा दिलीप, राजा रघु एवं राजा दशरथ के पिता राजा अज भी श्रीराम का ही भजन करते थे क्योंकि श्रीराम केवल दशरथ के पुत्र ही नहीं हैं, बल्कि रोम-रोम में जो चेतना  व्याप्त रही है, रोम-रोम में जो रम रहा है उसका ही नाम है 'राम'। राम जी के अवतरण से हजारों-लाखों वर्ष पहले राम नाम की महिमा वेदों में पायी जाती है।

रमन्ते योगिनः यस्मिन् स रामः।

'जिसमें योगी लोगों का मन रमण करता है उसी को कहते हैं 'राम'।'

एक राम घट-घट में बोले,

दूजो राम दशरथ घर डोले।

तीसर राम का सकल पसारा,

ब्रह्म राम है सबसे न्यारा।।

इस कथनानुसार तो चार राम हुए। ऐसा कैसे ?"

"थोड़ी साधना करो, जप-ध्यानादि करो, फिर समझ में आ जायेगा।" 

जीव राम घट-घट में बोले।

ईश राम दशरथ घर डोले।

बिंदु राम का सकल पसारा।

ब्रह्म राम है सबसे न्यारा।।

जीव, ईश, बिंदु व ब्रह्म इस प्रकार भी तो राम चार ही हुए न ?"

साधना आदि करके मति थोड़ी सूक्ष्म तो हुई है। किंतु अभी तक चार राम दिख रहे हैं। घड़े में आया हुआ आकाश, मठ में आया हुआ आकाश, मेघ में आया हुआ आकाश और उससे अलग व्यापक आकाश, ये चार दिखते हैं। अगर तीनों उपाधियों – घट, मठ, और मेघ को हटा दो तो चारों में आकाश तो एक-का-एक ही है। इसी प्रकारः

वही राम घट-घट में बोले।

वही राम दशरथ घर डोले।

उसी राम का सकल पसारा।

वही राम है सबसे न्यारा।।

रोम-रोम में रमने वाला

 चैतन्यतत्त्व वही का वही है और उसी का नाम है चैतन्य राम"

वे ही श्रीराम जिस दिन दशरथ-कौशल्या के घर साकार रूप में अवतरित हुए, 

कैसे हैं वे श्रीराम ? भगवान श्रीराम नित्य कैवल्य ज्ञान में विचरण करते थे। वे आदर्श पुत्र, आदर्श शिष्य, आदर्श मित्र एवं आदर्श शत्रु थे।

 आदर्श शत्रु ! हाँ, आदर्श शत्रु थे, तभी तो शत्रु भी उनकी प्रशंसा किये बिना न रह सके। कथा आती है कि लक्ष्मण जी के द्वारा मारे गये मेघनाद की दाहिनी भुजा सती सुलोचना के समीप जा गिरी। सुलोचना ने कहाः 'अगर यह मेरे पति की भुजा है तो हस्ताक्षर करके इस बात को प्रमाणित कर दे।' कटी भुजा ने हस्ताक्षर करके सच्चाई स्पष्ट कर दी।

 सुलोचना ने निश्चय किया कि 'मुझे अब सती हो जाना चाहिए।' किंतु पति का शव तो राम-दल में पड़ा हुआ था। फिर वह कैसे सती होती ! जब अपने ससुर रावण से उसने अपना अभिप्राय कहकर अपने पति का शव मँगवाने के लिए कहा, तब रावण ने उत्तर दियाः "देवी ! तुम स्वयं ही राम-दल में जाकर अपने पति का शव प्राप्त करो। जिस समाज में बालब्रह्मचारी श्रीहनुमान, परम जितेन्द्रिय श्री लक्ष्मण तथा एकपत्नीव्रती भगवान श्रीराम विद्यमान हैं, उस समाज में तुम्हें जाने से डरना नहीं चाहिए। मुझे विश्वास है कि इन स्तुत्य महापुरुषों के द्वारा तुम निराश नहीं लौटायी जाओगी।"

जब रावण सुलोचना से ये बातें कह रहा था, उस समय कुछ मंत्री भी उसके पास बैठे थे। उन लोगों ने कहाः "जिनकी पत्नी को आपने बंदिनी बनाकर अशोक वाटिका में रख छोड़ा है, उनके पास आपकी बहू का जाना कहाँ तक उचित है ? यदि यह गयी तो क्या सुरक्षित वापस लौट सकेगी ?"

यह सुनकर रावण बोलाः "मंत्रियो ! लगता है तुम्हारी बुद्धि विनष्ट हो गयी है। अरे ! यह तो रावण का काम है जो दूसरे की स्त्री को अपने घर में बंदिनी बनाकर रख सकता है, राम का नहीं।"

धन्य है श्रीराम का दिव्य चरित्र, जिसका विश्वास शत्रु भी करता है और प्रशंसा करते थकता नहीं ! प्रभु श्रीराम का पावन चरित्र दिव्य होते हुए भी इतना सहज सरल है कि मनुष्य चाहे तो अपने जीवन में भी उसका अनुसरण कर सकता है।

हे राम ! हे हरि ! हे अच्युत ! गोविंद ! दीनदयाल ! हम सभी को सदबुद्धि दे। हम संयमी, सदाचारी बनकर आत्मदेव को पा लें।

 हे अंतरात्मा ! हे परमात्मा ! हे दीनबंधु ! हे भक्तवत्सल ! ॐ प्रभु जी ॐ.....' ऐसा पुकारते, प्रार्थना करते डूब जायें। वे कृपालु अवश्य कृपा करते हैं l

क्या ऐसा हो सकता है कि 6 मिनट में किसी साधन से करोडों विकार दूर हो सकते हैं।

क्या ऐसा हो सकता है कि 6 मिनट में किसी साधन से करोडों विकार दूर हो सकते हैं।

"ऊँ" की ध्वनि का वैज्ञानिक महत्व

एक घड़ी, आधी घड़ी, आधी में पुनि आध..

 क्या ऐसा हो सकता है कि 6 मिनट में किसी साधन से करोडों विकार दूर हो सकते हैं।


तुलसी चरचा प्रेम की, हरै कोटि अपराध...

   1 घड़ी  = 24 मिनट

 1/2घडी़ = 12 मिनट

 1/4घडी़ =   6 मिनट

   क्या ऐसा हो सकता है कि 6 मिनट में किसी साधन से करोडों विकार दूर हो सकते हैं।

 उत्तर है हाँ हो सकते हैं..!

वैज्ञानिक शोध करके पता चला है कि...

     सिर्फ 6 मिनट ॐ का उच्चारण करने से सैकडौं रोग ठीक हो जाते हैं जो दवा से भी इतनी जल्दी ठीक नहीं होते....

      6 मिनट ऊँ का उच्चारण करने से मस्तिष्क में विशेष वाइब्रेशन (कम्पन) होता है.... और औक्सीजन का प्रवाह पर्याप्त होने लगता है।

कई मस्तिष्क रोग दूर होते हैं.. स्ट्रेस और टेन्शन दूर होती है, मैमोरी पावर बढती है..!

लगातार सुबह शाम 6 मिनट ॐ के तीन माह तक उच्चारण से रक्त संचार संतुलित होता है और रक्त में औक्सीजन लेबल बढता है।रक्त चाप, हृदय रोग, कोलस्ट्रोल जैसे रोग ठीक हो जाते हैं..!विशेष ऊर्जा का संचार होता है..!

मात्र 2 सप्ताह दोनों समय ॐ के उच्चारण सेघबराहट, बेचैनी, भय, एंग्जाइटी जैसे रोग दूर होते हैं।

  कंठ में विशेष कंपन होता है मांसपेशियों को शक्ति मिलती है..!

    थाइराइड, गले की सूजन दूर होती है और स्वर दोष दूर होने लगते हैं..!

     पेट में भी विशेष वाइब्रेशन और दबाव होता है..!

एक माह तक दिन में तीन बार 6 मिनट तक ॐ के उच्चारण से...

    पाचन तन्त्र, लीवर, आँतों को शक्ति प्राप्त होती है, और डाइजेशन सही होता है, सैकडौं उदर रोग दूर होते हैं..!

उच्च स्तर का प्राणायाम होता है, और फेफड़ों में विशेष कंपन होता है..!

फेफड़े मजबूत होते हैं, स्वसनतंत्र की शक्ति बढती है, 6 माह में  अस्थमा, राज्यक्ष्मा (T.B.) जैसे रोगों में लाभ होता है।

   आयु बढती है।

ये सारे रिसर्च (शोध) विश्व स्तर के वैज्ञानिक स्वीकार कर चुके हैं।जरूरत है 6 मिनट रोज करने की..!

नोट:- ॐ का उच्चारण लम्बे स्वर में करें।


शनिवार, 5 नवंबर 2022

गजराज को बचाने के लिए भगवान विष्णु नंगे पैर ही दौड़ पड़े थे, गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र से मिलती है कर्ज़ से मुक्ति

          गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र से मिलती है कर्ज़ से मुक्ति

 गजराज को बचाने के लिए भगवान विष्णु नंगे पैर ही दौड़ पड़े थे, गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र से मिलती है कर्ज़ से मुक्ति।

भगवान विष्णु अपने भक्तों को जरा भी कष्ट नहीं होने देते हैं. गजेंद्र मोक्ष की कथा हमें यही बताती है. आइए जानते हैं इस कथा और गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र के महत्व के बारे में.....

गजेंद्र मोक्ष की कथा का वर्णन श्रीमद भागवत पुराण में भी मिलता है. कथा के अनुसार क्षीरसागर में त्रिकुट नाम का पर्वत था. जिसके आसपास हाथियों का परिवार रहता था. गजेंद्र हाथी इस परिवार का मुखिया था. एक दिन घूमते-घूमते उसे प्यास लगी.परिवार के अन्य सदस्यों के साथ ही गजेंद्र पास के ही एक सरोवर से पाने पी कर अपनी प्यास बुझाने लगा. लेकिन तभी एक शक्तिशाली मगरमच्छ ने गजराज के पैर को दबोच लिया और पाने के अंदर खीचने लगा.

मगर से बचने के लिए गजराज ने पूरी शक्ति लगा दी लेकिन सफल नहीं हो सका. दर्द से गजेंद्र चीखने लगा. गजेंद्र की चीख सुनकर अन्य हाथी भी शोर करने लगे. इन्होंने भी गजेंद्र को बचाने का प्रयास किया लेकिन कोई सफलता नहीं मिली. गजेंंद्र जब सारे प्रयास करके थक गया और उसे अपना काल नजदीक आते दिखाई देने लगा तब उसने भगवान विष्णु का स्मरण किया और उन्हें पुकारने लगा. अपने भक्त की आवाज सुनकर भगवान विष्णु नंगे पैर ही गरुण पर सवार होकर गजेंद्र को बचाने के लिए आ गए और अपने सुर्दशन चक्र से मगर को मार दिया.

गजेंद्र मोक्ष का महत्व.....

ऐसी मान्यता है गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र का नियमित पाठ करने से कर्ज की समस्या से निजात मिलती है, वहीं गजेंद्र मोक्ष का चित्र घर में लगाने से आने वाली बाधा दूर होती है. इस स्तोत्र का सूर्योदय से पहले स्नान करने के बाद प्रतिदिन करना चाहिए. 

इसी ब्लॉग में गजेंद्र मोक्ष का पाठ भी दिया हुआ है, सुगम हिंदी भाषा में आप नियमित उसका लाभ भी ले सकते हैं।


।।ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।।

भगवान पर विश्वास

                           भगवान पर विश्वास 




एक पंडित जी थे। उन्होंने एक नदी के किनारे अपना आश्रम बनाया हुआ था।

पंडित जी बहुत विद्वान थे। उनके आश्रम में दूर-दूर से लोग ज्ञान प्राप्त करने आते थे।.

नदी के दूसरे किनारे पर लक्ष्मी नाम की एक ग्वालिन अपने बूढ़े पिताश्री के साथ रहती थी।.

लक्ष्मी सारा दिन अपनी गायों को देखभाल करती थी।

सुबह जल्दी उठकर अपनी गायों को नहला कर दूध दोहती,.फिर अपने पिताजी के लिए खाना बनाती,

तत्पश्चात् तैयार होकर दूध बेचने के लिए निकल जाया करती थी।.

पंडित जी के आश्रम में भी दूध लक्ष्मी के यहाँ से ही आता था।.

एक बार पंडित जी को किसी काम से शहर जाना था।

 उन्होंने लक्ष्मी से कहा कि उन्हें शहर जाना है, इसलिए अगले दिन दूध उन्हें जल्दी चाहिए।.

लक्ष्मी अगले दिन जल्दी आने का वादा करके चली गयी।.

अगले दिन लक्ष्मी ने सुबह जल्दी उठकर अपना सारा काम समाप्त किया और जल्दी से दूध उठाकर आश्रम की तरफ निकल पड़ी।.

नदी किनारे उसने आकर देखा कि कोई मल्लाह अभी तक आया नहीं था।

 लक्ष्मी बगैर नाव के नदी कैसे पार करती ?.

फिर क्या था,लक्ष्मी को आश्रम तक पहुँचने में देर हो गयी।.

आश्रम में पंडित जी जाने को तैयार खड़े थे।उन्हें सिर्फ लक्ष्मी का इन्तजार था।.

लक्ष्मी को देखते ही उन्होंने लक्ष्मी को डाँटा और देरी से आने का कारण पूछा।.

लक्ष्मी ने भी बड़ी मासूमियत से पंडित जी से कह दिया कि नदी पर कोई मल्लाह नहीं था,

वह नदी कैसे पार करती ?इसलिए देर हो गयी।.

पंडित जी गुस्से में तो थे ही, उन्हें लगा कि लक्ष्मी बहाने बना रही है।

उन्होंने भी गुस्से में लक्ष्मी से कहा,.क्यों बहाने बनाती है।

लोग तो जीवन सागर को भगवान का नाम लेकर पार कर जाते हैं,

तुम एक छोटी सी नदी पार नहीं कर सकती ?.

पंडित जी की बातों का लक्ष्मी पर बहुत गहरा असर हुआ।

 दूसरे दिन भी जब लक्ष्मी दूध लेकर आश्रम जाने निकली तो नदी के किनारे मल्लाह नहीं था।.

लक्ष्मी ने मल्लाह का इंतजार नहीं किया।उसने भगवान को याद किया और पानी की सतह पर चलकर आसानी से नदी पार कर ली।.

इतनी जल्दी लक्ष्मी को आश्रम में देख कर पंडित जी हैरान रह गये,

 उन्हें पता था कि कोई मल्लाह इतनी जल्दी नहीं आता है।.

उन्होंने लक्ष्मी से पूछा कि तुमने आज नदी कैसे पार की ?.

लक्ष्मी ने बड़ी सरलता से कहा—‘‘पंडित जी आपके बताये हुए तरीके से।

मैंने भगवान् का नाम लिया और पानी पर चलकर नदी पार कर ली।’’.

पंडित जी को लक्ष्मी की बातों पर विश्वास नहीं हुआ।

उसने लक्ष्मी से फिर पानी पर चलने के लिए कहा।.

लक्ष्मी नदी के किनारे गयी और उसने भगवान का नाम जपते-जपते बड़ी आसानी से नदी पार कर ली।.

पंडित जी हैरान रह गये।

उन्होंने भी लक्ष्मी की तरह नदी पार करनी चाही।.

पर नदी में उतरते वक्त उनका ध्यान अपनी धोती को गीली होने से बचाने में लगा था।.

वह पानी पर नहीं चल पाये और धड़ाम से पानी में गिर गये।.

पंडित जी को गिरते देख लक्ष्मी ने हँसते हुए कहा,‘‘आपने तो भगवान का नाम लिया ही नहीं,

आपका सारा ध्यान अपनी नयी धोती को बचाने में लगा हुआ था।’’.

पंडित जी को अपनी गलती का अहसास हो गया।उन्हें अपने ज्ञान पर बड़ा अभिमान था।.

पर अब उन्होंने जान लिया था कि भगवान को पाने के लिए किसी भी ज्ञान की जरूरत नहीं होती।

उसे तो पाने के लिए सिर्फ सच्चे मन से याद करने की जरूरत है।.

कहानी में हमें यह बताया गया है कि अगर सच्चे मन से भगवान को याद किया जाये,

तो भगवान तुरन्त अपने भक्तों की मदद करते है।

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