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बुधवार, 3 मई 2023

आपको क्या नही पता!

                          आपको क्या नहीं पता!

एक जिज्ञासु किसी प्रसिद्ध संत के पास पहुंचा तथा विनती की, 'महात्मा जी ऐसा ज्ञान दीजिए जीवन सफल हो जाए। महात्मा ने पूछा ’अच्छा बताइए, क्या चोरी करना पुण्य है? जिज्ञासु बोला, कदापि नहीं महात्मा जी!

 माता पिता की सेवा करनी चाहिए?

’ जी बिल्कुल। जीव जगत के प्रति दया रखनी चाहिए?’

 जी हां । किसी से छल कपट नहीं करना चाहिए?

 ’कभी नहीं।’

 ’संकट में किसी की सहायता करनी चाहिए? जी, अवश्य करनी चाहिए। जिज्ञासु ने सभी प्रश्नों के सटीक उत्तर दिए।

 तो महात्मा जी बोले तू ही बता तुझे क्या पता नहीं! इस पृथ्वी पर निवास कर रहे सभी मनुष्य को यह सब कुछ पता है। हर कोई अच्छा बुरा समझता है। समस्या तो ज्ञान को व्यवहार में उतारने की है। जो मनुष्य ज्ञान के अनुरूप आचरण करने लगेगा, उसका जीवन सफल हो जाएगा।

।। जय जय श्री राधे।।

मंगलवार, 2 मई 2023

दान व पुण्य

 दान व पुण्य वही है जो एक हाथ से करें तो दुसरे हाथ को भी पता न हो कि दान किया है |

एक गांव मे एक बहुत गरीब सेठ रहता था जो कि किसी जमाने बहुत बड़ा धनवान था जब सेठ धनी था उस समय सेठ ने बहुत पुण्य किए,गउशाला बनवाई, गरीबों को खाना खिलाया,अनाथ आश्रम बनवाए और भी बहुत से पुण्य किए थे लेकिन जैसे जैसे समय गुजरा सेठ निर्धन हो गया 

एक समय ऐसा आया कि राजा ने ऐलान कर दिया कि यदि किसी व्यक्ति ने कोई पुण्य किए हैं तो वह अपने पुण्य बताएं और अपने पुण्य का जो भी उचित फल है ले जाए

यह बात जब सेठानी ने सुनी तो सेठानी सेठ को कहती है कि हमने तो बहुत पुण्य किए हैं तुम राजा के पास जाओ और अपने पुण्य बताकर उनका जो भी फल मिले ले आओ

सेठ इस बात के लिए सहमत हो गया और दुसरे दिन राजा के महल जाने के लिए तैयार हो गया

जब सेठ महल जाने लगा तो सेठानी ने सेठ के लिए चार रोटी बनाकर बांध दी कि रास्ते मे जब भूख लगी तो रोटी खा लेना 

सेठ राजा के महल को रवाना हो गया

गर्मी का समय दोपहर हो गई,सेठ ने सोचा सामने पानी की कुंड भी है वृक्ष की छाया भी है क्यों ना बैठकर थोड़ा आराम किया जाए व रोटी भी खा लूंगा 

सेठ वृक्ष के नीचे रोटी रखकर पानी से हाथ मुंह धोने लगा 

तभी वहां पर एक कुतिया अपने चार पांच छोटे छोटे बच्चों के साथ पहुंच गई और सेठ के सामने प्रेम से दुम हिलाने लगी क्योंकि कुतिया को सेठ के पास के अनाज की खुशबु आ रही थी 

कुतिया को देखकर सेठ को दया आई सेठ ने दो रोटी निकाल कुतिया को डाल दी अब कुतिया भूखी थी और बिना समय लगाए कुतिया दोनो रोटी खा गई और फिर से सेठ की तरफ देखने लगी 

सेठ ने सोचा कि कुतिया के चार पांच बच्चे इसका दूध भी पीते है दो रोटी से इसकी भूख नही मिट सकती और फिर सेठ ने बची हुई दोनो रोटी भी कुतिया को डाल कर पानी पीकर अपने रास्ते चल दिया

सेठ राजा के दरबार मे हाजिर हो गया और अपने किए गए पुण्य के कामों की गिनती करने लगा

और सेठ ने अपने द्वारा किए गए सभी पुण्य कर्म विस्तार पुर्वक राजा को बता दिए और अपने द्वारा किए गए पुण्य का फल देने बात कही 

तब राजा ने कहा कि आपके इन पुण्य का कोई फल नही है यदि आपने कोई और पुण्य किया है तो वह भी बताएं शायद उसका कोई फल मै आपको दे पाउं 

सेठ कुछ नही बोला और यह कहकर बापिस चल दिया कि यदि मेरे इतने पुण्य का कोई फल नही है तो और पुण्य गिनती करना बेकार है अब मुझे यहां से चलना चाहिए

जब सेठ बापिस जाने लगा तो राजा ने सेठ को आवाज लगाई कि सेठ जी आपने एक पुण्य कल भी किया था वह तो आपने बताया ही नही 

सेठ ने सोचा कि कल तो मैनें कोई पुण्य किया ही नही राजा किस पुण्य की बात कर रहा है क्योंकि सेठ भुल चुका था कि कल उसने कोई पुण्य किया था 

सेठ ने कहा कि राजा जी कल मैनें कोई पुण्य नहीं किया 

तो राजा ने सेठ को कहा कि कल तुमने एक कुतिया को चार रोटी खिलाई और तुम उस पुण्य कर्म को भूल गए

कल किए गए तेरे पुण्य के बदले तुम जो भी मांगना चाहते हो मांग लो वह तुझे मिल जाएगा

सेठ ने पुछा कि राजा जी ऐसा क्यों?

मेरे किए पिछले सभी कर्म का कोई मूल्य नही है और एक कुतिया को डाली गई चार रोटी का इनका मोल क्यों?

राजा के कहा–हे सेठ जो पुण्य करके तुमने याद रखे और गिनकर लोंगों को बता दिए वह सब बेकार है क्यों कि तेरे अन्दर मै बोल रही है कि यह मैनें किया 

तेरा सब कर्म व्यर्थ है जो तु करता है और लोगों को सुना रहा है।

जो सेवा कल तुमने रास्ते मे कुतिया को चार रोटी पुण्य करके की वह तेरी सबसे बड़ी सेवा है उसके बदले तुम मेरा सारा राज्य भी ले लो वह भी बहुत कम हैं।

इंद्रपुत्र जयंत को श्रीराम से पहले नृसिंह भगवान ने भी दिया था दंड

इंद्रपुत्र जयंत को श्रीराम से पहले नृसिंह भगवान ने भी दिया था दंड


आपने रामायण में पढ़ा होगा कि जब भगवान् श्रीराम सीता और लक्ष्मण के संग चित्रकूट में निवास कर रहे थे, तब एक दिन इंद्र का पुत्र जयंत भगवान श्रीराम के बल की परीक्षा लेने के लिए कौए का रूप धरकर आया और सीता जी के चरण में चोंच मारकर भागा। सीता जी के चरण से रक्त की धारा बहते देख भगवान् श्रीराम ने एक सींक को अभिमंत्रित कर जयंत की ओर छोड़ा। जयंत की रक्षा करने के लिए कोई भी आगे नहीं आया। अंततः नारद जी के कहने पर वह राम के पास आकर क्षमा माँगने लगा। सीताजी ने उस कौए का शीश श्रीराम के चरणों में रख करुणानिधान श्रीराम से उस दुष्ट जयंत को क्षमा करने की प्रार्थना की। अतः श्रीराम ने दया कर मात्र एक नेत्र से अँधा कर उसे छोड़ दिया।

किंतु क्या आप जानते हैं कि इंद्र का यह पुत्र अपने कुकर्मों के कारण इससे पूर्व भी नृसिंह भगवान् के हाथों दंड पा चुका था?

प्राचीन काल में अंतर्वेदी नामक नगरी में रवि नाम का एक माली रहता था। उसने अपने घर के अंदर 'वृंदावन' नाम का तुलसी का एक बगीचा लगा रखा था। उस बगीचे में उसने तुलसी के साथ-साथ मल्लिका, मालती, जाती, वकुल आदि के सुंदर वृक्ष लगाए थे, जिनके पुष्पों की सुगंध से चारों दिशाएँ सुवासित रहती थीं। रवि माली ने उस बगीचे की चारदीवारी बहुत ऊँची और चौड़ी बनवाई थी, जिससे कि कोई भी व्यक्ति, पशु-पक्षी उसके अंदर प्रवेश न कर सके।

रवि माली प्रतिदिन प्रातःकाल में अपनी पत्नी के संग पुष्प चुनकर मालाएँ बनाता था, जिनमें से कुछ मालाएँ वह सर्वप्रथम अपने इष्टदेव नृसिंह भगवान् को अर्पित करता था। इसके पश्चात कुछ मालाएँ ब्राह्मणों को दे देता था और शेष मालाएँ बेचकर वह अपने परिवार का पालन-पोषण करता था।

एक बार इंद्र का पुत्र जयंत रात्रि में स्वर्ग से पृथ्वीलोक पर घूमने आया। उसके रथ पर स्वर्ग की सुंदर अप्सराएँ भी उपस्थित थीं। रवि माली द्वारा लगाए गए बगीचे के पुष्पों की मधुर सुगंध जब जयंत और अप्सराओं की नासिका में गईं तो वे सब उस बगीचे की ओर खिंचे चले आए। उन पुष्पों की सुगंध इतनी मधुर और भीनी-भीनी थी कि जयंत ने उस बगीचे के सारे पुष्प तोड़ लिए और उन्हें लेकर चला गया। जब प्रातःकाल रवि माली अपनी पत्नी के संग बगीचे में आए तो वहाँ एक भी पुष्प न देखकर चकित और दुःखी हुए। वे सोचने लगे कि हाय! आज अपने नृसिंह भगवान् और ब्राह्मणों को पुष्प अर्पित करने के नियम को कैसे पूर्ण करूँगा।

इधर जयंत का लोभ और दुष्टता बढ़ती ही गई। अब वह प्रतिदिन रात्रि में अप्सराओं के संग उस बगीचे में आता और सारे पुष्प चोरी कर चला जाता। जब पुष्प प्रतिदिन चोरी होने लगे तो माली अत्यंत चिंतित हुआ और उसने इस रहस्य का पता लगाने के लिए रात्रि भर बगीचे में ही रखवाली करने का निश्चय किया।

रात्रि होने पर जयंत प्रतिदिन की भाँति आया और पुष्प लेकर रथ पर बैठकर अप्सराओं के संग हास्य-विनोद करता हुआ चला गया। यह देखकर रवि माली अत्यंत दुःखी हुआ और नृसिंह भगवान् से बगीचे की रक्षा करने की प्रार्थना करते हुए सो गया।

अपने भक्त की व्यथा देखकर नृसिंह भगवान् ने स्वप्न में उसे दर्शन देते हुआ कहा, "पुत्र! तुम बगीचे के समीप मेरा निर्माल्य लाकर छिड़क दो।"

रवि माली स्वप्न टूटते ही चकित और आनंदित होकर उठ बैठा। उसने अपने इष्टदेव की आज्ञा के अनुसार बगीचे में निर्माल्य छिड़क दिया। अगली रात्रि को जयंत आया और रथ से उतरकर पुष्प तोड़ने लगा। अचानक उसने नृसिंह भगवान् के निर्माल्य को लाँघ दिया। जब वह बगीचे के सारे पुष्प बटोरकर रथ की ओर बढ़ा, तो वह रथ पर चढ़ नहीं पाया। जयंत अत्यंत चकित हुआ। तब बुद्धिमान सारथि ने उसे बताया कि नृसिंह भगवान् के निर्माल्य को लाँघने के कारण उसकी रथ पर चढ़ने की शक्ति लुप्त हो गई है। ऐसा कहकर वह रथ चलाने लगा। जयंत ने गिड़गिड़ाते हुए सारथि से इस पाप के निवारण का उपाय पूछा। सारथि ने कहा कि यदि वह कुरुक्षेत्र में सरस्वती नदी के तट पर 12 वर्ष से चल रहे तथा कुछ दिन में समाप्त होने वाले परशुराम जी के यज्ञ में प्रतिदिन ब्राह्मणों की जूठन साफ करे तो उसे उसके पाप से मुक्ति मिल सकती है। ऐसा कहकर सारथि अप्सराओं के संग रथ लेकर चला गया।

जयंत को अपनी दुष्टता पर अत्यंत पश्चाताप हुआ। वह कुरुक्षेत्र में सरस्वती नदी के तट पर आया और वहाँ यज्ञभूमि में ब्राह्मणों की जूठन साफ करने लगा। 12वाँ वर्ष पूरा होने पर ब्राह्मणों ने संदेहयुक्त होकर जयंत से उनकी जूठन साफ करने किंतु यज्ञ में भोजन न करने का कारण पूछा। तब जयंत को अपनी दुष्टता की सारी घटना सत्य-सत्य उन्हें बतानी पड़ी। इस प्रकार ब्राह्मणों की जूठन साफ करने और उनके समक्ष अपने पाप का कथन करने से जयंत के पाप की निवृत्ति हो गई। वह रथ पर चढ़कर स्वर्गलोक चला गया। यह कथा नृसिंह पुराण के 28वें अध्याय से ली गई है।

।।जय सियाराम।।

प्रभु का स्मरण किसी भी तरह लिया जाए शुभ ही होता है।

प्रभु का स्मरण किसी भी तरह लिया जाए शुभ ही होता है।



एक बार गौ लोक धाम में कृष्णप्रिया श्री राधा रानी जी ने श्री गोविन्द से पुछा..

हे माधव !!! कंस आपका सगा मामा होते हुए भी आपके माता पिता को घोर पीड़ा देता था और  निरंतर आपका अपमान करता था l आपका संतों का उपहास करता था l 

आपको मार देने के कई बार प्रयास करता रहा l

कभी किसी को भेजता कभी किसी को, हत्या के प्रयत्न करता रहता था l

फिर भी उस महापापी के ऐसे कौन से पुण्य थे की उसे आपके हाथों मृत्यु यानि परम मोक्ष प्राप्त हुआ..... ??


य़ह सुनकर मोहन ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया कि राधे!!! कंस कुछ भी करता, कुछ सोचता तो मेरे ही बारे में चाहे द्वेष और क्रोध अथवा भय के कारण,,,,,, परन्तु मेरा स्मरण उसे हर पल रहता था, और जो व्यक्ति हर समय मेरा सुमिरण करेगा उसे में मोक्ष ही दूंगा चाहे वो मेरा विरोधी ही क्यों न हो।

इसलिए श्रीमद्भगवत के अंत में एक सबसे मत्वपूर्ण श्लोक आता है।,,,,,


नाम संकीर्तनं यस्य सर्व पाप प्रणाशनम् ।

प्रणामो दुःख शमनः तं नमामि हरिं परम्॥


(मैं उन 'हरि' को प्रणाम करता हूँ जिनका नाम संकीर्तन सभी पापों को समाप्त करता है और जिन्हें प्रणाम करने मात्र से सारे दुःखों का नाश हो जाता है। )


 श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारी 

  हे नाथ नारायण वासुदेवा  



सोमवार, 1 मई 2023

रुद्राष्टकम : हिंदी भावार्थ के साथ

                      रुद्राष्टकम : हिंदी भावार्थ के साथ



     नमामीशमीशान निर्वाणरूपं

      विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम

      निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं

      चिदाकाशमाकाशवासं भजेहम


हे भगवन ईशान को मेरा प्रणाम ऐसे भगवान जो कि निर्वाण रूप हैं जो कि महान ॐ के दाता हैं जो सम्पूर्ण ब्रह्मान्द में व्यापत हैं जो अपने आपको धारण किये हुए हैं जिनके सामने गुण अवगुण का कोई महत्व नहीं, जिनका कोई विकल्प नहीं, जो निष्पक्ष हैं जिनका आकार आकाश के सामान हैं जिसे मापा नहीं जा सकता, उनकी मैं उपासना करता हूँ |


      निराकारमोङ्करमूल* तुरीयं

      गिराज्ञानगोतीतमीशं* गिरीशम् ।

      करालं महाकालकालं कृपालं

     गुणागारसंसारपारं* नतोहम


जिनका कोई आकार नहीं, जो ॐ के मूल हैं, जिनका कोई राज्य नहीं, जो गिरी यानि पर्वत के वासी हैं, जो कि सभी ज्ञान, शब्द से परे हैं, जो कि कैलाश के स्वामी हैं, जिनका रूप भयावह हैं, जो कि काल के स्वामी हैं, जो उदार एवम् दयालु हैं, जो गुणों का खजाना हैं, जो पूरे संसार के परे हैं उनके सामने मैं नत्मस्तक हूँ।


      तुषाराद्रिसंकाशगौरं गभिरं

      मनोभूतकोटिप्रभाश्री शरीरम् ।

      स्फुरन्मौलिकल्लोलिनी चारुगङ्गा

      लसद्भालबालेन्दु कण्ठे भुजङ्गा


जो कि बर्फ के समान शील हैं, जिनका मुख सुंदर हैं, जो गौर रंग के हैं जो गहन चिंतन में हैं, जो सभी प्राणियों के मन में हैं, जिनका वैभव अपार हैं, जिनकी देह सुंदर हैं, जिनके मस्तक पर तेज हैं जिनकी जटाओ में लहलहाती गंगा हैं, जिनके चमकते हुए मस्तक पर चाँद हैं, और जिनके कंठ पर सर्प का वास हैं |


      चलत्कुण्डलं भ्रूसुनेत्रं विशालं

      प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम् ।

      मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं

     प्रियं शङ्करं सर्वनाथं भजामि


जिनके कानों में बालियाँ हैं, जिनकी सुन्दर भोहे और बड़ी-बड़ी आँखे हैं, जिनके चेहरे पर सुख का भाव हैं, जिनके कंठ में विष का वास हैं, जो दयालु हैं, जिनके वस्त्र शेर की खाल हैं, जिनके गले में मुंड की माला हैं, ऐसे प्रिय शंकर पूरे संसार के नाथ हैं उनको मैं पूजता हूँ |


      प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं

      अखण्डं अजं भानुकोटिप्रकाशं ।

      त्र्यःशूलनिर्मूलनं शूलपाणिं

      भजेहं भवानीपतिं भावगम्यम

जो भयंकर हैं, जो परिपक्व साहसी हैं, जो श्रेष्ठ हैं अखंड है जो अजन्मे हैं जो सहस्त्र सूर्य के सामान प्रकाशवान हैं जिनके पास त्रिशूल हैं जिनका कोई मूल नहीं हैं जिनमे किसी भी मूल का नाश करने की शक्ति हैं, ऐसे त्रिशूल धारी, माँ भगवती के पति जो प्रेम से जीते जा सकते हैं, उन्हें मैं वन्दन करता हूँ |

      कलातीतकल्याण कल्पान्तकारी

      सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी ।

      चिदानन्दसंदोह मोहापहारी

      प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी

जो काल के बंधे नहीं हैं, जो कल्याणकारी हैं, जो विनाशक भी हैं,जो हमेशा आशीर्वाद देते है और धर्म का साथ देते हैं , जो अधर्मी का नाश करते हैं, जो चित्त का आनंद हैं, जो जूनून हैं जो मुझसे खुश रहे ऐसे भगवान जो कामदेव नाशी हैं उन्हें मेरा प्रणाम |

      न यावद्उ मानाथपादारविन्दं

      भजन्तीह लोके परे वा नराणाम।

     न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं

      प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं

जो यथावत नहीं हैं, ऐसे उमा पति के चरणों में कमल वन्दन करता हूं ऐसे भगवान को पूरे लोक के नर नारी पूजते हैं, जो सुख हैं, शांति हैं, जो सारे दुखो का नाश करते हैं जो सभी जगह वास करते हैं |

      न जानामि योगं जपं नैव पूजां

      नतोहं सदा सर्वदा शम्भुतुभ्यम्।

      जराजन्मदुःखौघ तातप्यमानंॐ 

      प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो

मैं कुछ नहीं जानता, ना योग , ना ध्यान,  देव के सामने मेरा मस्तक झुकता हैं, सभी संसारिक कष्टों, दुःख दर्द से मेरी रक्षा करे. मेरी बुढ़ापे के कष्टों से से रक्षा करें | मैं सदा ऐसे शिव शम्भु को प्रणाम करता हूँ |

।।ॐ नमः शिवाय ।।

दादा गुरु भक्तमाली जी को जब लड्डू गोपाल जी

                दादा गुरु भक्तमालीजी को जब लड्डू गोपाल जी ने दर्शन दिए



         पण्ड़ित श्री जगन्नाथ प्रसाद जी 'भक्तमाली' के भक्तिभाव के कारण वृंदावन के सभी संत उनसे बहुत प्रभावित थे और उनके ऊपर कृपा रखते थे। सन्तों की कौन कहे स्वयं 'श्रीकृष्ण' उनसे आकृष्ट होकर जब तब किसी न किसी छल से उनके ऊपर कृपा कर जाया करते थे।

        एक बार श्री जगन्नाथ प्रसाद जी 'भक्तमाली' अपने घर में बैठे हारमोनियम पर भजन गा रहे थे। उसी समय एक बहुत ही सुन्दर बालक आकर उनके सामने बैठ गया, और तन्मय होकर भजन सुनने लगा।

 'भक्तमाली' जी ने बालक का श्रृंगार देखकर समझा कि वह किसी रासमण्डली का बालक है जो उनके भजन से आकृष्ट होकर चला आया है। भक्तमाली जी ने भजन समाप्त करने के बाद बालक से पूछा -"बेटा तुम कहाँ रहते हो ?" 

बालक ने कहा - "अक्रूर घाट पर भतरोड़ मन्दिर में रहता हूँ।" 

भक्तमाली जी - "तुम्हारा नाम क्या है ?" 

बालक - "लड्डू गोपाल।"

 'भक्तमाली' जी - "तो तुम लड्डू खाओगे या पेड़ा खाओगे ?" 

उस समय 'भक्तमाली' जी के पास लड्डू नहीं पेड़े ही थे। इसलिए उन्होंने प्रकार पूछा। 

बालक ने भी हँसकर कहा - "बाबा मैं तो पेड़ा खाऊँगा।" 

भक्तमाली जी ने बालक को पेडे लाकर दिये। वह बालक पेडे खाता हुआ और भक्तमाली जी की ओर हँसकर देखता हुआ चला गया। 

पर 'ठाकुर' जी बालक के रूप मे जाते-जाते अपनी जादू भरी मुस्कान और चितवन की अपूर्व छवि 'भक्तमाली' जी के ह्रदय पर अंकित कर गये।

अब उस बालक की वह छवि 'भक्तमाली' जी को सारा दिन और सारी रात व्यग्र किये रही। भक्तमाली जी के मन मे तरह तरह के विचार उठते रहे। "ऐसा सुंदर बालक तो मैंने आज तक कभी नहीं देखा। वह रासमण्डली का बालक ही था या कोई और ? 

घर मे ऐसे आकर बैठ गया जैसे यह घर उसी का हो कोई भय नहीं संकोच नहीं। छोटा सा बालक भजन तो ऐसे तन्मय होकर सुन रहा था जैसे उसे भजन मे न जाने कितना रस मिल रहा हो। नहीं-नहीं वह कोई साधारण बालक नहीं हो सकता। कहीं वह स्वयं 'भक्तवत्सल भगवान' ही तो नहीं थे जो नारद जी के प्रति कहे गये अपने इन वचनों को चरितार्थ करने आये थे :-

                                    

               नाहं तिष्ठामि  वैकुंठे  योगिनां  हृदयेषु वा। 

               तत्र तिष्ठामी नारद यत्र गायन्ति मद्भक्ताः।।

                                                       (पद्मपुराण)

         "हे नारद ! न तो मैं अपने निवास वैकुंठ में रहता हूँ, न योगियों के ह्रदय में रहता हूँ। मैं तो उस स्थान में वास करता हूँ जहाँ मेरे भक्त मेरे पवित्र नाम का कीर्तन करते हैं और मेरे रूप, लीलाओं और गुणों की चर्चा चलाते हैं।"                                   

जो भी हो वह बालक अपना नाम और पता तो बता ही गया है कल उसकी खोज करनी होगी।"

 'भक्तमाली' जी बालक के विषय मे तरह-तरह के विचार करते हुए सो गये।

        श्री जगन्नाथ प्रसाद जी 'भक्तमाली' दूसरे दिन प्रातः होते ही भतरोड़ में अक्रुर मन्दिर पहुँचे। 'भक्तमाली' जी ने वहाँ सेवारत पुजारी जी से पूछा - "क्या यहाँ लड्डू गोपाल नाम का कोई बालक रहता हैं ?" 

पुजारी जी ने कहा - 'लड्डू गोपाल तो हमारे मन्दिर के ठाकुर जी का नाम है। और यहाँ कोई बालक नहीं रहता।' 

यह सुनते ही भक्तमाल जी सिहर उठे, उनके नेत्र डबडबा आये। 

अपने आँसू पोंछते हुए उन्होंने पुजारी जी से कहा - "कल एक बहुत खूबसूरत बालक मेरे पास आया था। उस बालक ने अपना नाम लड्डू गोपाल बताया था और निवास-स्थान अक्रुर मन्दिर। मैंने उसे पेड़े खाने को दिये थे, पेड़े खाकर वह बहुत प्रसन्न हुआ था। पुजारी जी कहीं आपके ठाकुर जी ने ही तो यह लीला नहीं की थी ?"

 पुजारी जी ने कहा - "भक्तमाली जी ! आप धन्य हैं। हमारे ठाकुर ने ही आप पर कृपा की, इसमें कोई सन्देह नहीं है। हमारे ठाकुर जी को पेड़े बहुत प्रिय हैं। कई दिन से मैं बाजार नहीं जा पाया था, इसलिए पेड़ों का भोग नहीं लगा सका था।"

 भक्तमाली जी ने मन्दिर के भीतर जाकर लड्डू गोपाल जी के दिव्य श्री विगृह के दर्शन किये।

 दण्डवत् प्रणाम् कर प्रार्थना की - "हे ठाकुर जी इसी प्रकार अपनी कृपा बनाये रखना, बार-बार इसी आकर दर्शन देते रहना।" 

         पता नहीं भक्तमाली जी को फिर कभी लड्डू गोपाल ने उसी रूप में उन पर कृपा की या नहीं, लेकिन एक बार भक्तमाली जी अयोध्या गये थे। देर रात्रि में अयोध्या पहुँचे थे, इसलिए स्टेशन के बाहर खुले मे सो गये। प्रातः उठते ही किसी आवश्यक कार्य के लिए कहीं जाना था, पर सबेरा हो आया था उनकी नींद नहीं खुल रहीं थी। लड्डू गोपाल जैसा ही एक सुन्दर बालक आया और उनके तलुओं में गुलगुली मचाते हुए बोला - "बाबा उठो सबेरा हो गया जाना नहीं है क्या ?" भक्तमाली जी हड़बड़ा कर उठे, उस बालक की एक ही झलक देख पाये थे कि वह बालक अदृश्य हो गया।

।।श्री राधे।।

रसखान जी कन्हैया के भक्त

                      रसखान जी कन्हैया के भक्त



एक मुसलमान था जो रोज पान की दुकान पर पान खाने जाता था। एक दिन उसकी नजर वहां लगी हुई कन्हैया की तस्वीर पर पड़ी तो उसने पान वाले से पूछा भाई ये बालक किसका है और इसका क्या नाम है। पान वाला बोला ये श्याम है । खान साहब बोले ये बालक बहुत सुंदर है घुंघराले बाल हैं हाथ में मुरली भी मनोहर लगती है मगर ये जिस जमीन पर खड़ा है वो खुरदरी है इसके पैरों में छाले पड़ जायेंगे, इसको चप्पल क्यों नहीं पहनाते हो। पान वाला बोला तुझे दया आ रही है तो तू ही पहनादे। अब ये बात खान भाई के दिल में उतर गई और दूसरे दिन कन्हैया के लिए चप्पल खरीदकर ले आया और बोला लो भाई में चप्पल ले आया बुलाओ बालक को। पान वाला बोला कि ये बालक यहां नहीं रहता है ये वृंदावन रहता है वृंदावन ही जाओ। खान साहब ने पूछा की इसका पता तो बताओ कि वृंदावन में कहां रहता है पान वाला बोला इसका नाम श्याम है और वृंदावन के बांके बिहारी मंदिर में रहता है। खान साहब वृंदावन के लिए चल दिए वृंदावन में बांके बिहारी मंदिर में जैसे ही प्रवेश करने लगा तो मंदिर के पुजारी ने बाहर ही रोक दिया और कहा कि तुम दूसरे समाज के हो इसलिए मंदिर में तुम्हारा प्रवेश करना वर्जित है। खान भाई यह सोचकर कि मेरा श्याम कभी तो घर से बाहर आयेगा मंदिर के गेट पर ही बैठकर इंतजार करने लग गया। उसे इंतजार करते-करते पूरा दिन निकल गया रात भी निकल गई भोर का समय था तो उसके कानों में घुंघरू ओं की आवाज आई उसने खड़ा होकर चारों तरफ देखा कुछ दिखाई नहीं दिया फिर उसने अपने चरणों की तरफ देखा तो श्याम उसके चरणों में बैठा हुआ दिखता है श्याम को देखकर खान भाई की खुशी का ठिकाना नहीं रहा मगर उसे बहुत दुःख हुआ जब कन्हैया के चरणों से खून निकलता हुआ देखा। खान भाई नें कन्हैया को गोद में उठाकर प्यार से उसके चरणों से खून पूंछते हुए पूछा बेटे तेरा क्या नाम है कन्हैया बोला श्याम, खान भाई बोला तुम तो मंदिर से आये हो फिर ये खून क्यों निकल रहे हैं। कन्हैया बोला नहीं मैं मंदिर से नहीं गोकुल से पैदल चलकर आया हूं क्योंकि तुमने मेरी जैसी मूरत दिल में बसाई में उसी मूरत में तुम्हारे पास आया हूं इसलिए मुझे गोकुल से पैदल आना पड़ा है और पैरों में कांटे लग गये है। खान भाई भगवान को पहचान गया और वादा किया कि हे कन्हैया हे मेरे मालिक में तेरा हूं और तेरे गुण गाया करुंगा और तेरे ही पद लिखा करुंगा इस तरह एक मुसलमान खान भाई से रसखान बनकर भगवान का पक्का भक्त बना। 

।।जय श्री राधे कृष्णा।।

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