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रविवार, 7 मई 2023

देवों में सबसे सुंदरतम भगवान श्री कृष्ण के जीवन की कई बातें अनजानी और रहस्यमयी है आइए जानें 24 अनजाने तथ्य.

देवों में सबसे सुंदरतम भगवान श्री कृष्ण के जीवन की कई बातें अनजानी और रहस्यमयी है आइए जानें 24 अनजाने तथ्य.


1. भगवान् श्री कृष्ण के खड्ग का नाम नंदक, गदा का नाम कौमौदकी और शंख का नाम पांचजन्य था जो गुलाबी रंग का था।

 2. भगवान् श्री कृष्ण के परमधामगमन के समय ना तो उनका एक भी केश श्वेत था और ना ही उनके शरीर पर कोई झुर्री थीं।

3.भगवान् श्री कृष्ण के धनुष का नाम शारंग व मुख्य आयुध चक्र का नाम सुदर्शन था। वह लौकिक, दिव्यास्त्र व देवास्त्र तीनों रूपों में कार्य कर सकता था उसकी बराबरी के विध्वंसक केवल दो अस्त्र और थे पाशुपतास्त्र ( शिव, कॄष्ण और अर्जुन के पास थे) और प्रस्वपास्त्र ( शिव, वसुगण, भीष्म और कृष्ण के पास थे)।

4. भगवान् श्री कृष्ण की परदादी 'मारिषा' व सौतेली मां रोहिणी (बलराम की मां) 'नाग' जनजाति की थीं।

5. भगवान श्री कृष्ण से जेल में बदली गई यशोदापुत्री का नाम एकानंशा था, जो आज विंध्यवासिनी देवी के नाम से पूजी जातीं हैं।

6. भगवान् श्रीकृष्ण की प्रेमिका राधा का वर्णन महाभारत, हरिवंशपुराण, विष्णुपुराण व भागवतपुराण में नहीं है। उनका उल्लेख ब्रह्मवैवर्त पुराण, गीत गोविंद व प्रचलित जनश्रुतियों में रहा है।

7. जैन परंपरा के मुताबिक, भगवान श्री कॄष्ण के चचेरे भाई तीर्थंकर नेमिनाथ थे जो हिंदू परंपरा में घोर अंगिरस के नाम से प्रसिद्ध हैं।

8. भगवान् श्री कृष्ण अंतिम वर्षों को छोड़कर कभी भी द्वारिका में 6 महीने से अधिक नहीं रहे।

9. भगवान श्री कृष्ण ने अपनी औपचारिक शिक्षा उज्जैन के संदीपनी आश्रम में मात्र कुछ महीनों में पूरी कर ली थी।

10. ऐसा माना जाता है कि घोर अंगिरस अर्थात नेमिनाथ के यहां रहकर भी उन्होंने साधना की थी।

11. प्रचलित अनुश्रुतियों के अनुसार, भगवान श्री कृष्ण ने मार्शल आर्ट का विकास ब्रज क्षेत्र के वनों में किया था। डांडिया रास का आरंभ भी उन्हीं ने किया था।

12. कलारीपट्टु का प्रथम आचार्य कृष्ण को माना जाता है। इसी कारण नारायणी सेना भारत की सबसे भयंकर प्रहारक सेना बन गई थी।

13. भगवान श्रीकृष्ण के रथ का नाम जैत्र था और उनके सारथी का नाम दारुक/ बाहुक था। उनके घोड़ों (अश्वों) के नाम थे शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक।

14. भगवान श्री कृष्ण की त्वचा का रंग मेघश्यामल था और उनके शरीर से एक मादक गंध निकलती थी।

15. भगवान श्री कृष्ण की मांसपेशियां मृदु परंतु युद्ध के समय विस्तॄत हो जातीं थीं, इसलिए सामान्यतः लड़कियों के समान दिखने वाला उनका लावण्यमय शरीर युद्ध के समय अत्यंत कठोर दिखाई देने लगता था ठीक ऐसे ही लक्ष्ण कर्ण व द्रौपदी के शरीर में देखने को मिलते थे।

16. जनसामान्य में यह भ्रांति स्थापित है कि अर्जुन सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर थे, परंतु वास्तव में कृष्ण इस विधा में भी सर्वश्रेष्ठ थे और ऐसा सिद्ध हुआ मद्र राजकुमारी लक्ष्मणा के स्वयंवर में जिसकी प्रतियोगिता द्रौपदी स्वयंवर के ही समान परंतु और कठिन थी।

17. यहां कर्ण व अर्जुन दोंनों असफल हो गए और तब श्री कॄष्ण ने लक्ष्यवेध कर लक्ष्मणा की इच्छा पूरी की, जो पहले से ही उन्हें अपना पति मान चुकीं थीं।

18. भगवान् श्री युद्ध कृष्ण ने कई अभियान और युद्धों का संचालन किया था, परंतु इनमे तीन सर्वाधिक भयंकर थे। 1- महाभारत, 2- जरासंध और कालयवन के विरुद्ध 3- नरकासुर के विरुद्ध

19. भगवान् श्री कृष्ण ने केवल 16 वर्ष की आयु में विश्वप्रसिद्ध चाणूर और मुष्टिक जैसे मल्लों का वध किया। मथुरा में दुष्ट रजक के सिर को हथेली के प्रहार से काट दिया।

20. भगवान् श्री कृष्ण ने असम में बाणासुर से युद्ध के समय भगवान शिव से युद्ध के समय माहेश्वर ज्वर के विरुद्ध वैष्णव ज्वर का प्रयोग कर विश्व का प्रथम जीवाणु युद्ध किया था।

21. भगवान् श्री कृष्ण के जीवन का सबसे भयानक द्वंद्व युद्ध सुभुद्रा की प्रतिज्ञा के कारण अर्जुन के साथ हुआ था, जिसमें दोनों ने अपने अपने सबसे विनाशक शस्त्र क्रमशः सुदर्शन चक्र और पाशुपतास्त्र निकाल लिए थे। बाद में देवताओं के हस्तक्षेप से दोनों शांत हुए।

22. भगवान् श्री कृष्ण ने 2 नगरों की स्थापना की थी द्वारिका (पूर्व में कुशावती) और पांडव पुत्रों के द्वारा इंद्रप्रस्थ (पूर्व में खांडवप्रस्थ)।

23. भगवान् श्री कृष्ण ने कलारिपट्टू की नींव रखी जो बाद में बोधिधर्मन से होते हुए आधुनिक मार्शल आर्ट में विकसित हुई।

24. भगवान् श्री कृष्ण ने श्रीमद्भगवतगीता के रूप में आध्यात्मिकता की वैज्ञानिक व्याख्या दी, जो मानवता के लिए आशा का सबसे बड़ा संदेश थी, है और सदैव रहे।

बुधवार, 3 मई 2023

महादेव-पार्वती संग झूमे

                           महादेव-पार्वती संग झूमे


रावण के वध के बाद अयोध्या पति श्री राम ने राजपाट संभाल लिया था और प्रजा राम राज्य से प्रसन्न थी. एक दिन भगवान महादेव की इच्छा श्री राम से मिलने की हुई।

पार्वती जी को संग लेकर महादेव कैलाश पर्वत से अयोध्या नगरी के लिए चल पड़े. भगवान शिव और मां पार्वती को अयोध्या आया देखकर श्री सीता राम जी बहुत खुश हुए।

माता जानकी ने उनका उचित आदर सत्कार किया और स्वयं भोजन बनाने के लिए रसोई में चली गईं. भगवान शिव ने श्री राम से पूछा- हनुमान जी दिखाई नहीं पड़ रहे हैं, कहां हैं ?

श्री राम बोले- वह बगीचे में होंगे. शिव जी ने श्री राम जी से बगीचे में जाने की अनुमति मांगी और पार्वती जी के साथ बगीचे में आ गए. बगीचे की खूबसूरती देखकर उनका मन मोहित हो गया।

आम के एक घने वृक्ष के नीचे हनुमान जी दीन-दुनिया से बेखबर गहरी नींद में सोए थे और एक लय में खर्राटों से राम नाम की ध्वनि उठ रही थी. चकित होकर शिव जी और माता पार्वती एक दूसरे की ओर देखने लगे।

माता पार्वती मुस्करा उठी और वृक्ष की डालियों की ओर इशारा किया. राम नाम सुनकर पेड़ की डालियां भी झूम रही थीं. उनके बीच से भी राम नाम उच्चारित हो रहा था।

शिव जी इस राम नाम की धुन में मस्त मगन होकर खुद भी राम राम कहकर नाचने लगे. माता पार्वती जी ने भी अपने पति का अनुसरण किया. भक्ति में भरकर उनके पांव भी थिरकने लगे।

शिव जी और पार्वती जी के नृत्य से ऐसी झनकार उठी कि स्वर्गलोक के देवतागण भी आकर्षित होकर बगीचे में आ गए और राम नाम की धुन में सभी मस्त हो गए।

माता जानकी भोजन तैयार करके प्रतीक्षारत थीं परंतु संध्या घिरने तक भी अतिथि नहीं पधारे तब अपने देवर लक्ष्मण जी को बगीचे में भेजा।

लक्ष्मण जी ने तो अवतार ही लिया था श्री राम की सेवा के लिए. अतः बगीचे में आकर जब उन्होंने धरती पर स्वर्ग का नजारा देखा तो खुद भी राम नाम की धुन में झूम उठे।

महल में माता जानकी परेशान हो रही थीं कि अभी तक भोजन ग्रहण करने कोई भी क्यों नहीं आया. उन्होंने श्री राम से कहा भोजन ठंडा हो रहा है चलिए हम ही जाकर बगीचे में से सभी को बुला लाएं।

जब सीता राम जी बगीचे में गए तो वहां राम नाम की धूम मची हुई थी. हुनमान जी गहरी नींद में सोए हुए थे और उनके खर्राटों से अभी तक राम नाम निकल रहा था।

श्री सिया राम भाव विह्वल हो उठे. श्री राम जी ने हनुमान जी को नींद से जगाया और प्रेम से उनकी तरफ निहारने लगे. प्रभु को आया देख हनुमान जी शीघ्रता से उठ खड़े हुए. नृत्य का माहौल भंग हो गया।

शिव जी खुले कंठ से हनुमान जी की राम भक्ति की सराहना करने लगे. हनुमान जी सकुचाए लेकिन मन ही मन खुश हो रहे थे. श्री सीया राम जी ने भोजन करने का आग्रह भगवान शिव से किया।

सभी लोग महल में भोजन करने के लिए चल पड़े. माता जानकी भोजन परोसने लगीं. हुनमान जी को भी श्री राम जी ने पंक्ति में बैठने का आदेश दिया।

हनुमान जी बैठ तो गए परंतु आदत ऐसी थी की श्री राम के भोजन के उपरांत ही सभी भोजन करते थे।

आज श्री राम के आदेश से पहले भोजन करना पड़ रहा था. माता जानकी हनुमान जी को भोजन परोसती जा रही थी पर हनुमान का पेट ही नहीं भर रहा था. कुछ समय तक तो उन्हें भोजन परोसती रहीं फिर समझ गईं इस तरह से हनुमान जी का पेट नहीं भरने वाला।

उन्होंने तुलसी के एक पत्ते पर राम नाम लिखा और भोजन के साथ हनुमान जी को परोस दिया. तुलसी पत्र खाते ही हनुमान जी को संतुष्टि मिली और वह भोजन पूर्ण मानकर उठ खड़े हुए।

भगवान शिव शंकर ने प्रसन्न होकर हनुमान जी को आशीर्वाद दिया कि आप की राम भक्ति युगों-युगों तक याद की जाएगी और आप संकट मोचन कहलाएंगे।

( आध्यात्म रामायण की कथा )

आपको क्या नही पता!

                          आपको क्या नहीं पता!

एक जिज्ञासु किसी प्रसिद्ध संत के पास पहुंचा तथा विनती की, 'महात्मा जी ऐसा ज्ञान दीजिए जीवन सफल हो जाए। महात्मा ने पूछा ’अच्छा बताइए, क्या चोरी करना पुण्य है? जिज्ञासु बोला, कदापि नहीं महात्मा जी!

 माता पिता की सेवा करनी चाहिए?

’ जी बिल्कुल। जीव जगत के प्रति दया रखनी चाहिए?’

 जी हां । किसी से छल कपट नहीं करना चाहिए?

 ’कभी नहीं।’

 ’संकट में किसी की सहायता करनी चाहिए? जी, अवश्य करनी चाहिए। जिज्ञासु ने सभी प्रश्नों के सटीक उत्तर दिए।

 तो महात्मा जी बोले तू ही बता तुझे क्या पता नहीं! इस पृथ्वी पर निवास कर रहे सभी मनुष्य को यह सब कुछ पता है। हर कोई अच्छा बुरा समझता है। समस्या तो ज्ञान को व्यवहार में उतारने की है। जो मनुष्य ज्ञान के अनुरूप आचरण करने लगेगा, उसका जीवन सफल हो जाएगा।

।। जय जय श्री राधे।।

मंगलवार, 2 मई 2023

दान व पुण्य

 दान व पुण्य वही है जो एक हाथ से करें तो दुसरे हाथ को भी पता न हो कि दान किया है |

एक गांव मे एक बहुत गरीब सेठ रहता था जो कि किसी जमाने बहुत बड़ा धनवान था जब सेठ धनी था उस समय सेठ ने बहुत पुण्य किए,गउशाला बनवाई, गरीबों को खाना खिलाया,अनाथ आश्रम बनवाए और भी बहुत से पुण्य किए थे लेकिन जैसे जैसे समय गुजरा सेठ निर्धन हो गया 

एक समय ऐसा आया कि राजा ने ऐलान कर दिया कि यदि किसी व्यक्ति ने कोई पुण्य किए हैं तो वह अपने पुण्य बताएं और अपने पुण्य का जो भी उचित फल है ले जाए

यह बात जब सेठानी ने सुनी तो सेठानी सेठ को कहती है कि हमने तो बहुत पुण्य किए हैं तुम राजा के पास जाओ और अपने पुण्य बताकर उनका जो भी फल मिले ले आओ

सेठ इस बात के लिए सहमत हो गया और दुसरे दिन राजा के महल जाने के लिए तैयार हो गया

जब सेठ महल जाने लगा तो सेठानी ने सेठ के लिए चार रोटी बनाकर बांध दी कि रास्ते मे जब भूख लगी तो रोटी खा लेना 

सेठ राजा के महल को रवाना हो गया

गर्मी का समय दोपहर हो गई,सेठ ने सोचा सामने पानी की कुंड भी है वृक्ष की छाया भी है क्यों ना बैठकर थोड़ा आराम किया जाए व रोटी भी खा लूंगा 

सेठ वृक्ष के नीचे रोटी रखकर पानी से हाथ मुंह धोने लगा 

तभी वहां पर एक कुतिया अपने चार पांच छोटे छोटे बच्चों के साथ पहुंच गई और सेठ के सामने प्रेम से दुम हिलाने लगी क्योंकि कुतिया को सेठ के पास के अनाज की खुशबु आ रही थी 

कुतिया को देखकर सेठ को दया आई सेठ ने दो रोटी निकाल कुतिया को डाल दी अब कुतिया भूखी थी और बिना समय लगाए कुतिया दोनो रोटी खा गई और फिर से सेठ की तरफ देखने लगी 

सेठ ने सोचा कि कुतिया के चार पांच बच्चे इसका दूध भी पीते है दो रोटी से इसकी भूख नही मिट सकती और फिर सेठ ने बची हुई दोनो रोटी भी कुतिया को डाल कर पानी पीकर अपने रास्ते चल दिया

सेठ राजा के दरबार मे हाजिर हो गया और अपने किए गए पुण्य के कामों की गिनती करने लगा

और सेठ ने अपने द्वारा किए गए सभी पुण्य कर्म विस्तार पुर्वक राजा को बता दिए और अपने द्वारा किए गए पुण्य का फल देने बात कही 

तब राजा ने कहा कि आपके इन पुण्य का कोई फल नही है यदि आपने कोई और पुण्य किया है तो वह भी बताएं शायद उसका कोई फल मै आपको दे पाउं 

सेठ कुछ नही बोला और यह कहकर बापिस चल दिया कि यदि मेरे इतने पुण्य का कोई फल नही है तो और पुण्य गिनती करना बेकार है अब मुझे यहां से चलना चाहिए

जब सेठ बापिस जाने लगा तो राजा ने सेठ को आवाज लगाई कि सेठ जी आपने एक पुण्य कल भी किया था वह तो आपने बताया ही नही 

सेठ ने सोचा कि कल तो मैनें कोई पुण्य किया ही नही राजा किस पुण्य की बात कर रहा है क्योंकि सेठ भुल चुका था कि कल उसने कोई पुण्य किया था 

सेठ ने कहा कि राजा जी कल मैनें कोई पुण्य नहीं किया 

तो राजा ने सेठ को कहा कि कल तुमने एक कुतिया को चार रोटी खिलाई और तुम उस पुण्य कर्म को भूल गए

कल किए गए तेरे पुण्य के बदले तुम जो भी मांगना चाहते हो मांग लो वह तुझे मिल जाएगा

सेठ ने पुछा कि राजा जी ऐसा क्यों?

मेरे किए पिछले सभी कर्म का कोई मूल्य नही है और एक कुतिया को डाली गई चार रोटी का इनका मोल क्यों?

राजा के कहा–हे सेठ जो पुण्य करके तुमने याद रखे और गिनकर लोंगों को बता दिए वह सब बेकार है क्यों कि तेरे अन्दर मै बोल रही है कि यह मैनें किया 

तेरा सब कर्म व्यर्थ है जो तु करता है और लोगों को सुना रहा है।

जो सेवा कल तुमने रास्ते मे कुतिया को चार रोटी पुण्य करके की वह तेरी सबसे बड़ी सेवा है उसके बदले तुम मेरा सारा राज्य भी ले लो वह भी बहुत कम हैं।

इंद्रपुत्र जयंत को श्रीराम से पहले नृसिंह भगवान ने भी दिया था दंड

इंद्रपुत्र जयंत को श्रीराम से पहले नृसिंह भगवान ने भी दिया था दंड


आपने रामायण में पढ़ा होगा कि जब भगवान् श्रीराम सीता और लक्ष्मण के संग चित्रकूट में निवास कर रहे थे, तब एक दिन इंद्र का पुत्र जयंत भगवान श्रीराम के बल की परीक्षा लेने के लिए कौए का रूप धरकर आया और सीता जी के चरण में चोंच मारकर भागा। सीता जी के चरण से रक्त की धारा बहते देख भगवान् श्रीराम ने एक सींक को अभिमंत्रित कर जयंत की ओर छोड़ा। जयंत की रक्षा करने के लिए कोई भी आगे नहीं आया। अंततः नारद जी के कहने पर वह राम के पास आकर क्षमा माँगने लगा। सीताजी ने उस कौए का शीश श्रीराम के चरणों में रख करुणानिधान श्रीराम से उस दुष्ट जयंत को क्षमा करने की प्रार्थना की। अतः श्रीराम ने दया कर मात्र एक नेत्र से अँधा कर उसे छोड़ दिया।

किंतु क्या आप जानते हैं कि इंद्र का यह पुत्र अपने कुकर्मों के कारण इससे पूर्व भी नृसिंह भगवान् के हाथों दंड पा चुका था?

प्राचीन काल में अंतर्वेदी नामक नगरी में रवि नाम का एक माली रहता था। उसने अपने घर के अंदर 'वृंदावन' नाम का तुलसी का एक बगीचा लगा रखा था। उस बगीचे में उसने तुलसी के साथ-साथ मल्लिका, मालती, जाती, वकुल आदि के सुंदर वृक्ष लगाए थे, जिनके पुष्पों की सुगंध से चारों दिशाएँ सुवासित रहती थीं। रवि माली ने उस बगीचे की चारदीवारी बहुत ऊँची और चौड़ी बनवाई थी, जिससे कि कोई भी व्यक्ति, पशु-पक्षी उसके अंदर प्रवेश न कर सके।

रवि माली प्रतिदिन प्रातःकाल में अपनी पत्नी के संग पुष्प चुनकर मालाएँ बनाता था, जिनमें से कुछ मालाएँ वह सर्वप्रथम अपने इष्टदेव नृसिंह भगवान् को अर्पित करता था। इसके पश्चात कुछ मालाएँ ब्राह्मणों को दे देता था और शेष मालाएँ बेचकर वह अपने परिवार का पालन-पोषण करता था।

एक बार इंद्र का पुत्र जयंत रात्रि में स्वर्ग से पृथ्वीलोक पर घूमने आया। उसके रथ पर स्वर्ग की सुंदर अप्सराएँ भी उपस्थित थीं। रवि माली द्वारा लगाए गए बगीचे के पुष्पों की मधुर सुगंध जब जयंत और अप्सराओं की नासिका में गईं तो वे सब उस बगीचे की ओर खिंचे चले आए। उन पुष्पों की सुगंध इतनी मधुर और भीनी-भीनी थी कि जयंत ने उस बगीचे के सारे पुष्प तोड़ लिए और उन्हें लेकर चला गया। जब प्रातःकाल रवि माली अपनी पत्नी के संग बगीचे में आए तो वहाँ एक भी पुष्प न देखकर चकित और दुःखी हुए। वे सोचने लगे कि हाय! आज अपने नृसिंह भगवान् और ब्राह्मणों को पुष्प अर्पित करने के नियम को कैसे पूर्ण करूँगा।

इधर जयंत का लोभ और दुष्टता बढ़ती ही गई। अब वह प्रतिदिन रात्रि में अप्सराओं के संग उस बगीचे में आता और सारे पुष्प चोरी कर चला जाता। जब पुष्प प्रतिदिन चोरी होने लगे तो माली अत्यंत चिंतित हुआ और उसने इस रहस्य का पता लगाने के लिए रात्रि भर बगीचे में ही रखवाली करने का निश्चय किया।

रात्रि होने पर जयंत प्रतिदिन की भाँति आया और पुष्प लेकर रथ पर बैठकर अप्सराओं के संग हास्य-विनोद करता हुआ चला गया। यह देखकर रवि माली अत्यंत दुःखी हुआ और नृसिंह भगवान् से बगीचे की रक्षा करने की प्रार्थना करते हुए सो गया।

अपने भक्त की व्यथा देखकर नृसिंह भगवान् ने स्वप्न में उसे दर्शन देते हुआ कहा, "पुत्र! तुम बगीचे के समीप मेरा निर्माल्य लाकर छिड़क दो।"

रवि माली स्वप्न टूटते ही चकित और आनंदित होकर उठ बैठा। उसने अपने इष्टदेव की आज्ञा के अनुसार बगीचे में निर्माल्य छिड़क दिया। अगली रात्रि को जयंत आया और रथ से उतरकर पुष्प तोड़ने लगा। अचानक उसने नृसिंह भगवान् के निर्माल्य को लाँघ दिया। जब वह बगीचे के सारे पुष्प बटोरकर रथ की ओर बढ़ा, तो वह रथ पर चढ़ नहीं पाया। जयंत अत्यंत चकित हुआ। तब बुद्धिमान सारथि ने उसे बताया कि नृसिंह भगवान् के निर्माल्य को लाँघने के कारण उसकी रथ पर चढ़ने की शक्ति लुप्त हो गई है। ऐसा कहकर वह रथ चलाने लगा। जयंत ने गिड़गिड़ाते हुए सारथि से इस पाप के निवारण का उपाय पूछा। सारथि ने कहा कि यदि वह कुरुक्षेत्र में सरस्वती नदी के तट पर 12 वर्ष से चल रहे तथा कुछ दिन में समाप्त होने वाले परशुराम जी के यज्ञ में प्रतिदिन ब्राह्मणों की जूठन साफ करे तो उसे उसके पाप से मुक्ति मिल सकती है। ऐसा कहकर सारथि अप्सराओं के संग रथ लेकर चला गया।

जयंत को अपनी दुष्टता पर अत्यंत पश्चाताप हुआ। वह कुरुक्षेत्र में सरस्वती नदी के तट पर आया और वहाँ यज्ञभूमि में ब्राह्मणों की जूठन साफ करने लगा। 12वाँ वर्ष पूरा होने पर ब्राह्मणों ने संदेहयुक्त होकर जयंत से उनकी जूठन साफ करने किंतु यज्ञ में भोजन न करने का कारण पूछा। तब जयंत को अपनी दुष्टता की सारी घटना सत्य-सत्य उन्हें बतानी पड़ी। इस प्रकार ब्राह्मणों की जूठन साफ करने और उनके समक्ष अपने पाप का कथन करने से जयंत के पाप की निवृत्ति हो गई। वह रथ पर चढ़कर स्वर्गलोक चला गया। यह कथा नृसिंह पुराण के 28वें अध्याय से ली गई है।

।।जय सियाराम।।

प्रभु का स्मरण किसी भी तरह लिया जाए शुभ ही होता है।

प्रभु का स्मरण किसी भी तरह लिया जाए शुभ ही होता है।



एक बार गौ लोक धाम में कृष्णप्रिया श्री राधा रानी जी ने श्री गोविन्द से पुछा..

हे माधव !!! कंस आपका सगा मामा होते हुए भी आपके माता पिता को घोर पीड़ा देता था और  निरंतर आपका अपमान करता था l आपका संतों का उपहास करता था l 

आपको मार देने के कई बार प्रयास करता रहा l

कभी किसी को भेजता कभी किसी को, हत्या के प्रयत्न करता रहता था l

फिर भी उस महापापी के ऐसे कौन से पुण्य थे की उसे आपके हाथों मृत्यु यानि परम मोक्ष प्राप्त हुआ..... ??


य़ह सुनकर मोहन ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया कि राधे!!! कंस कुछ भी करता, कुछ सोचता तो मेरे ही बारे में चाहे द्वेष और क्रोध अथवा भय के कारण,,,,,, परन्तु मेरा स्मरण उसे हर पल रहता था, और जो व्यक्ति हर समय मेरा सुमिरण करेगा उसे में मोक्ष ही दूंगा चाहे वो मेरा विरोधी ही क्यों न हो।

इसलिए श्रीमद्भगवत के अंत में एक सबसे मत्वपूर्ण श्लोक आता है।,,,,,


नाम संकीर्तनं यस्य सर्व पाप प्रणाशनम् ।

प्रणामो दुःख शमनः तं नमामि हरिं परम्॥


(मैं उन 'हरि' को प्रणाम करता हूँ जिनका नाम संकीर्तन सभी पापों को समाप्त करता है और जिन्हें प्रणाम करने मात्र से सारे दुःखों का नाश हो जाता है। )


 श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारी 

  हे नाथ नारायण वासुदेवा  



सोमवार, 1 मई 2023

रुद्राष्टकम : हिंदी भावार्थ के साथ

                      रुद्राष्टकम : हिंदी भावार्थ के साथ



     नमामीशमीशान निर्वाणरूपं

      विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम

      निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं

      चिदाकाशमाकाशवासं भजेहम


हे भगवन ईशान को मेरा प्रणाम ऐसे भगवान जो कि निर्वाण रूप हैं जो कि महान ॐ के दाता हैं जो सम्पूर्ण ब्रह्मान्द में व्यापत हैं जो अपने आपको धारण किये हुए हैं जिनके सामने गुण अवगुण का कोई महत्व नहीं, जिनका कोई विकल्प नहीं, जो निष्पक्ष हैं जिनका आकार आकाश के सामान हैं जिसे मापा नहीं जा सकता, उनकी मैं उपासना करता हूँ |


      निराकारमोङ्करमूल* तुरीयं

      गिराज्ञानगोतीतमीशं* गिरीशम् ।

      करालं महाकालकालं कृपालं

     गुणागारसंसारपारं* नतोहम


जिनका कोई आकार नहीं, जो ॐ के मूल हैं, जिनका कोई राज्य नहीं, जो गिरी यानि पर्वत के वासी हैं, जो कि सभी ज्ञान, शब्द से परे हैं, जो कि कैलाश के स्वामी हैं, जिनका रूप भयावह हैं, जो कि काल के स्वामी हैं, जो उदार एवम् दयालु हैं, जो गुणों का खजाना हैं, जो पूरे संसार के परे हैं उनके सामने मैं नत्मस्तक हूँ।


      तुषाराद्रिसंकाशगौरं गभिरं

      मनोभूतकोटिप्रभाश्री शरीरम् ।

      स्फुरन्मौलिकल्लोलिनी चारुगङ्गा

      लसद्भालबालेन्दु कण्ठे भुजङ्गा


जो कि बर्फ के समान शील हैं, जिनका मुख सुंदर हैं, जो गौर रंग के हैं जो गहन चिंतन में हैं, जो सभी प्राणियों के मन में हैं, जिनका वैभव अपार हैं, जिनकी देह सुंदर हैं, जिनके मस्तक पर तेज हैं जिनकी जटाओ में लहलहाती गंगा हैं, जिनके चमकते हुए मस्तक पर चाँद हैं, और जिनके कंठ पर सर्प का वास हैं |


      चलत्कुण्डलं भ्रूसुनेत्रं विशालं

      प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम् ।

      मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं

     प्रियं शङ्करं सर्वनाथं भजामि


जिनके कानों में बालियाँ हैं, जिनकी सुन्दर भोहे और बड़ी-बड़ी आँखे हैं, जिनके चेहरे पर सुख का भाव हैं, जिनके कंठ में विष का वास हैं, जो दयालु हैं, जिनके वस्त्र शेर की खाल हैं, जिनके गले में मुंड की माला हैं, ऐसे प्रिय शंकर पूरे संसार के नाथ हैं उनको मैं पूजता हूँ |


      प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं

      अखण्डं अजं भानुकोटिप्रकाशं ।

      त्र्यःशूलनिर्मूलनं शूलपाणिं

      भजेहं भवानीपतिं भावगम्यम

जो भयंकर हैं, जो परिपक्व साहसी हैं, जो श्रेष्ठ हैं अखंड है जो अजन्मे हैं जो सहस्त्र सूर्य के सामान प्रकाशवान हैं जिनके पास त्रिशूल हैं जिनका कोई मूल नहीं हैं जिनमे किसी भी मूल का नाश करने की शक्ति हैं, ऐसे त्रिशूल धारी, माँ भगवती के पति जो प्रेम से जीते जा सकते हैं, उन्हें मैं वन्दन करता हूँ |

      कलातीतकल्याण कल्पान्तकारी

      सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी ।

      चिदानन्दसंदोह मोहापहारी

      प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी

जो काल के बंधे नहीं हैं, जो कल्याणकारी हैं, जो विनाशक भी हैं,जो हमेशा आशीर्वाद देते है और धर्म का साथ देते हैं , जो अधर्मी का नाश करते हैं, जो चित्त का आनंद हैं, जो जूनून हैं जो मुझसे खुश रहे ऐसे भगवान जो कामदेव नाशी हैं उन्हें मेरा प्रणाम |

      न यावद्उ मानाथपादारविन्दं

      भजन्तीह लोके परे वा नराणाम।

     न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं

      प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं

जो यथावत नहीं हैं, ऐसे उमा पति के चरणों में कमल वन्दन करता हूं ऐसे भगवान को पूरे लोक के नर नारी पूजते हैं, जो सुख हैं, शांति हैं, जो सारे दुखो का नाश करते हैं जो सभी जगह वास करते हैं |

      न जानामि योगं जपं नैव पूजां

      नतोहं सदा सर्वदा शम्भुतुभ्यम्।

      जराजन्मदुःखौघ तातप्यमानंॐ 

      प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो

मैं कुछ नहीं जानता, ना योग , ना ध्यान,  देव के सामने मेरा मस्तक झुकता हैं, सभी संसारिक कष्टों, दुःख दर्द से मेरी रक्षा करे. मेरी बुढ़ापे के कष्टों से से रक्षा करें | मैं सदा ऐसे शिव शम्भु को प्रणाम करता हूँ |

।।ॐ नमः शिवाय ।।

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