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बुधवार, 31 अगस्त 2022

हनुमान जी के पाठ से करें अपनी सभी समस्याओं का हल

 हनुमान जी के पाठ से करें अपनी सभी समस्याओं का हल 



हनुमानजी की प्रार्थना में तुलसीदासजी ने हनुमान चालीसा, बजरंग बाण, हनुमान बहुक आदि अनेक स्तोत्र लिखे, लेकिन हनुमानजी की पहली स्तुति किसने की थी? तुलसीदासजी के पहले भी कई संतों और साधुओं ने हनुमानजी की श्रद्धा में स्तुति लिखी है। लेकिन क्या आप जानते हैं सबसे पहले हनुमानजी की स्तुति किसने की थी?

जब हनुमानजी लंका का दहन कर रहे थे तब उन्होंने अशोक वाटिका को इसलिए नहीं जलाया, क्योंकि वहां सीताजी को रखा गया था। दूसरी ओर उन्होंने विभीषण का भवन इसलिए नहीं जलाया, क्योंकि विभीषण के भवन के द्वार पर तुलसी का पौधा लगा था। भगवान विष्णु का पावन चिह्न शंख, चक्र और गदा भी बना हुआ था। सबसे सुखद तो यह कि उनके घर के ऊपर 'राम' नाम अंकित था। यह देखकर हनुमानजी ने उनके भवन को नहीं जलाया।

विभीषण के शरण याचना करने पर सुग्रीव ने श्रीराम से उसे शत्रु का भाई व दुष्ट बताकर उनके प्रति आशंका प्रकट की और उसे पकड़कर दंड देने का सुझाव दिया। हनुमानजी ने उन्हें दुष्ट की बजाय शिष्ट बताकर शरणागति देने की वकालत की। इस पर श्रीरामजी ने विभीषण को शरणागति न देने के सुग्रीव के प्रस्ताव को अनुचित बताया और हनुमानजी से कहा कि आपका विभीषण को शरण देना तो ठीक है किंतु उसे शिष्ट समझना ठीक नहीं है।

इस पर श्री हनुमानजी ने कहा कि तुम लोग विभीषण को ही देखकर अपना विचार प्रकट कर रहे हो मेरी ओर से भी तो देखो, मैं क्यों और क्या चाहता हूं...। फिर कुछ देर हनुमानजी ने रुककर कहा- जो एक बार विनीत भाव से मेरी शरण की याचना करता है और कहता है- 'मैं तेरा हूं, उसे मैं अभयदान प्रदान कर देता हूं। यह मेरा व्रत है इसलिए विभीषण को अवश्य शरण दी जानी चाहिए।'

इंद्रा‍दि देवताओं के बाद धरती पर सर्वप्रथम विभीषण ने ही हनुमानजी की शरण लेकर उनकी स्तुति की थी। विभीषण को भी हनुमानजी की तरह चिरंजीवी होने का वरदान मिला है। वे भी आज सशरीर जीवित हैं। विभीषण ने हनुमानजी की स्तुति में एक बहुत ही अद्भुत और अचूक स्तोत्र की रचना की है। विभीषण द्वारा रचित इस स्तोत्र को 'हनुमान वडवानल स्तोत्र' कहते हैं।

श्री हनुमान् वडवानल-स्तोत्र

 यह स्तोत्र सभी रोगों के निवारण में, शत्रुनाश, दूसरों के द्वारा किये गये पीड़ा कारक कृत्या अभिचार के निवारण, राज-बंधन विमोचन आदि कई प्रयोगों में काम आता है ।

रावण के भाई श्री विभीषण जो की भगवान राम व हनुमान जी के अनन्य भक्त थे, अपनी पूजा में वो निरंतर दोनों की पूजा किया करते थे।

विधि:- सरसों के तेल का दीपक जलाकर 108 पाठ नित्य 41 दिन तक करने पर सभी बाधाओं का शमन होकर अभीष्ट कार्य की सिद्धि होती है।

विनियोग:-

ॐ अस्य श्री हनुमान् वडवानल-स्तोत्र मन्त्रस्य श्रीरामचन्द्र ऋषि:, श्रीहनुमान् वडवानल देवता, ह्रां बीजम्, ह्रीं शक्तिं, सौं कीलकं, मम समस्त विघ्न-दोष निवारणार्थे, सर्व-शत्रुक्षयार्थे सकल- राज- कुल- संमोहनार्थे, मम समस्त- रोग प्रशमनार्थम् आयुरारोग्यैश्वर्याऽभिवृद्धयर्थं समस्त- पाप-क्षयार्थं श्रीसीतारामचन्द्र-प्रीत्यर्थं च हनुमद् वडवानल-स्तोत्र जपमहं करिष्ये।

ध्यान:-

मनोजवं मारुत-तुल्य-वेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठं।

वातात्मजं वानर-यूथ-मुख्यं श्रीरामदूतम् शरणं प्रपद्ये ।।

वडवानल स्तोत्र :-

ॐ ह्रां ह्रीं ॐ नमो भगवते श्रीमहा-हनुमते प्रकट-पराक्रम सकल- दिङ्मण्डल- यशोवितान- धवलीकृत- जगत-त्रितय वज्र-देह रुद्रावतार लंकापुरीदहय उमा-अर्गल-मंत्र उदधि-बंधन दशशिर: कृतान्तक सीताश्वसन वायु-पुत्र अञ्जनी-गर्भ-सम्भूत श्रीराम-लक्ष्मणानन्दकर कपि-सैन्य-प्राकार सुग्रीव-साह्यकरण पर्वतोत्पाटन कुमार- ब्रह्मचारिन् गंभीरनाद सर्व- पाप- ग्रह- वारण- सर्व- ज्वरोच्चाटन डाकिनी- शाकिनी- विध्वंसन ॐ ह्रां ह्रीं ॐ नमो भगवते महावीर-वीराय सर्व-दु:ख निवारणाय ग्रह-मण्डल सर्व-भूत-मण्डल सर्व-पिशाच-मण्डलोच्चाटन भूत-ज्वर-एकाहिक-ज्वर, द्वयाहिक-ज्वर, त्र्याहिक-ज्वर चातुर्थिक-ज्वर, संताप-ज्वर, विषम-ज्वर, ताप-ज्वर, माहेश्वर-वैष्णव-ज्वरान् छिन्दि-छिन्दि यक्ष ब्रह्म-राक्षस भूत-प्रेत-पिशाचान् उच्चाटय-उच्चाटय स्वाहा ।

ॐ ह्रां ह्रीं ॐ नमो भगवते श्रीमहा-हनुमते ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्र: आं हां हां हां हां ॐ सौं एहि एहि ॐ हं ॐ हं ॐ हं ॐ हं ॐ नमो भगवते श्रीमहा-

हनुमते श्रवण-चक्षुर्भूतानां शाकिनी डाकिनीनां विषम-दुष्टानां सर्व-विषं हर हर आकाश-भुवनं भेदय भेदय छेदय छेदय मारय मारय शोषय शोषय मोहय मोहय ज्वालय ज्वालय प्रहारय प्रहारय शकल-मायां भेदय भेदय स्वाहा ।

ॐ ह्रां ह्रीं ॐ नमो भगवते महा-हनुमते सर्व-ग्रहोच्चाटन परबलं क्षोभय क्षोभय सकल-बंधन मोक्षणं कुर-कुरु शिर:-शूल गुल्म-शूल सर्व-शूलान्निर्मूलय निर्मूलय नागपाशानन्त- वासुकि- तक्षक- कर्कोटकालियान् यक्ष-कुल-जगत-रात्रिञ्चर-दिवाचर-सर्पान्निर्विषं कुरु-कुरु स्वाहा ।

ॐ ह्रां ह्रीं ॐ नमो भगवते महा-हनुमते राजभय चोरभय पर-मन्त्र-पर-यन्त्र-पर-तन्त्र पर-विद्याश्छेदय छेदय सर्व-शत्रून्नासय नाशय असाध्यं साधय साधय हुं फट् स्वाहा ।


उपरोक्त हनुमद वडवानल स्तोत्र का निरंतर एक से ग्यारह पाठ करने से सभी समस्याओ का हल निश्चित मिलता है।

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रविवार, 31 जुलाई 2022

कालिका माता के छठा रहस्य

                       कालिका माता के छठा और सातवां रहस्य 


 छठा रहस्य,रक्तबीज का वध : - ब्रह्माजी के शरीर से ब्राह्मी, विष्णु से वैष्णवी, महेश से महेश्वरी और अम्बिका से चंडिका प्रकट हुईं। पलभर में सारा आकाश असंख्य देवियों से आच्छादित हो उठा। ब्राह्मणी ने अपने कमंडल से जल छिड़का जिससे राक्षस तेजहीन होने लगे, वैष्णवी अपने चक्र, महेश्वरी अपने त्रिशूल से, इन्द्राणी वज्र से और सभी देवियां अपने अपने आयुधों से आक्रमण कर रही थीं। राक्षस सेना भागने लगीं।

तब रक्तबीज ने राक्षसों को धिक्कारा कि वे स्त्रियों से डरकर भाग रहे हैं? रक्तबीज हमला करने आया, तो इन्द्राणी ने उस पर शक्ति चलाई जिससे उसका सर कट गया और रक्त भूमि पर गिरा। किंतु पूर्व वरदान के प्रभाव से उस रक्त से फिर एक रक्तबीज उठ खड़ा हुआ और अट्टहास करने लगा। जैसे ही शक्तियां उसे मारतीं, उसके रक्त से और असुर उठ खड़े होते। जल्द ही असंख्य रक्तबीज सब और दिखने लगे।

मां चंडिका ने श्रीकाली से कहा कि इसका रक्त भूमि पर गिरने से रोकना होगा जिससे और रक्तबीज न जन्में। देवी काली ने कहा कि आप सब इन्हें मारें, मैं एक बूंद रक्त भी भूमि पर न पड़ने दूंगी। और ऐसा ही हुआ भी, जल्द ही सारे नए रक्तबीज युद्ध में मारे गए। तब रक्तबीज समझ गया कि काली उसे पुनर्जीवित नहीं होने दे रही हैं, तो वह चंडिका को मारने दौड़ा। तब चंडिका ने उसे मार दिया और काली ने रक्त को भूमि पर न गिरने दिया। देवता चंडिका की जय-जयकार करने लगे।

 सातवां रहस्य,महाकाली की उत्पत्ति कथा : -  श्रीमार्कण्डेय पुराण एवं श्रीदुर्गा सप्तशती के अनुसार काली मां की उत्पत्ति जगत जननी मां अम्बा के ललाट से हुई थी।

कथा के अनुसार शुम्भ-निशुम्भ दैत्यों के आतंक का प्रकोप इस कदर बढ़ चुका था कि उन्होंने अपने बल, छल एवं महाबली असुरों द्वारा देवराज इन्द्र सहित अन्य समस्त देवतागणों को निष्कासित कर स्वयं उनके स्थान पर आकर उन्हें प्राणरक्षा हेतु भटकने के लिए छोड़ दिया। दैत्यों द्वारा आतंकित देवों को ध्यान आया कि महिषासुर के इन्द्रपुरी पर अधिकार कर लिया है, तब दुर्गा ने ही उनकी मदद की थी। तब वे सभी दुर्गा का आह्वान करने लगे।

उनके इस प्रकार आह्वान से देवी प्रकट हुईं एवं शुम्भ-निशुम्भ के अति शक्तिशाली असुर चंड तथा मुंड दोनों का एक घमासान युद्ध में नाश कर दिया। चंड-मुंड के इस प्रकार मारे जाने एवं अपनी बहुत सारी सेना का संहार हो जाने पर दैत्यराज शुम्भ ने अत्यधिक क्रोधित होकर अपनी संपूर्ण सेना को युद्ध में जाने की आज्ञा दी तथा कहा कि आज छियासी उदायुद्ध नामक दैत्य सेनापति एवं कम्बु दैत्य के चौरासी सेनानायक अपनी वाहिनी से घिरे युद्ध के लिए प्रस्थान करें। 

कोटिवीर्य कुल के पचास, धौम्र कुल के सौ असुर सेनापति मेरे आदेश पर सेना एवं कालक, दौर्हृद, मौर्य व कालकेय असुरों सहित युद्ध के लिए कूच करें। अत्यंत क्रूर दुष्टाचारी असुर राज शुंभ अपने साथ सहस्र असुरों वाली महासेना लेकर चल पड़ा।

उसकी भयानक दैत्यसेना को युद्धस्थल में आता देखकर देवी ने अपने धनुष से ऐसी टंकार दी कि उसकी आवाज से आकाश व समस्त पृथ्वी गूंज उठी। पहाड़ों में दरारें पड़ गईं। देवी के सिंह ने भी दहाड़ना प्रारंभ किया, फिर जगदम्बिका ने घंटे के स्वर से उस आवाज को दुगना बढ़ा दिया। धनुष, सिंह एवं घंटे की ध्वनि से समस्त दिशाएं गूंज उठीं।

 भयंकर नाद को सुनकर असुर सेना ने देवी के सिंह को और मां काली को चारों ओर से घेर लिया। तदनंतर असुरों के संहार एवं देवगणों के कष्ट निवारण हेतु परमपिता ब्रह्माजी, विष्णु, महेश, कार्तिकेय, इन्द्रादि देवों की शक्तियों ने रूप धारण कर लिए एवं समस्त देवों के शरीर से अनंत शक्तियां निकलकर अपने पराक्रम एवं बल के साथ मां दुर्गा के पास पहुंचीं।

तत्पश्चात समस्त शक्तियों से घिरे शिवजी ने देवी जगदम्बा से कहा- ‘मेरी प्रसन्नता हेतु तुम इस समस्त दानव दलों का सर्वनाश करो।’ तब देवी जगदम्बा के शरीर से भयानक उग्र रूप धारण किए चंडिका देवी शक्ति रूप में प्रकट हुईं। उनके स्वर में सैकड़ों गीदड़ों की भांति आवाज आती थी।

असुरराज शुम्भ-निशुम्भ क्रोध से भर उठे। वे देवी कात्यायनी की ओर युद्ध हेतु बढ़े। अत्यंत क्रोध में चूर उन्होंने देवी पर बाण, शक्ति, शूल, फरसा, ऋषि आदि अस्त्रों-शस्त्रों द्वारा प्रहार प्रारंभ किया। देवी ने अपने धनुष से टंकार की एवं अपने बाणों द्वारा उनके समस्त अस्त्रों-शस्त्रों को काट डाला, जो उनकी ओर बढ़ रहे थे। मां काली फिर उनके आगे-आगे शत्रुओं को अपने शूलादि के प्रहार द्वारा विदीर्ण करती हुई व खट्वांग से कुचलती हुईं समस्त युद्धभूमि में विचरने लगीं। सभी राक्षसों चंड मुंडादि को मारने के बाद उसने रक्तबीज को भी मार दिया।

शक्ति का यह अवतार एक रक्तबीज नामक राक्षस को मारने के लिए हुआ था। फिर शुम्भ-निशुंभ का वध करने के बाद बाद भी जब काली मां का गुस्सा शांत नहीं हुआ, तब उनके गुस्से को शांत करने के लिए भगवान शिव उनके रास्ते में लेट गए और काली मां का पैर उनके सीने पर पड़ गया। शिव पर पैर रखते ही माता का क्रोध शांत होने लगा।

।।जय मां।।

कालिका माता के अन्य रहस्य

                       कालिका माता के अन्य रहस्य   

दूसरा रहस्य, दुखों को तुरंत दूर करतीं काली : -10 महाविद्याओं में से साधक महाकाली की साधना को सबसे शक्तिशाली और प्रभावशाली मानते हैं, जो किसी भी कार्य का तुरंत परिणाम देती हैं। साधना को सही तरीके से करने से साधकों को अष्टसिद्धि प्राप्त होती है। काली की पूजा या साधना के लिए किसी गुरु या जानकार व्यक्ति की मदद लेना जरूरी है।

महाकाली को खुश करने के लिए उनकी फोटो या प्रतिमा के साथ महाकाली के मंत्रों का जाप भी किया जाता है। इस पूजा में महाकाली यंत्र का प्रयोग भी किया जाता है। इसी के साथ चढ़ावे आदि की मदद से भी मां को खुश करने की कोशिश की जाती है। अगर पूरी श्रद्धा से मां की उपासना की जाए तो आपकी सारी मनोकामनाएं पूर्ण हो सकती हैं। अगर मां प्रसन्न हो जाती हैं तो मां के आशीर्वाद से आपका जीवन बहुत ही सुखद हो जाता है।


तीसरा रहस्य,कालरात्रि और काली : - दुर्गा के 9 रूपों में 7वां रूप हैं देवी कालरात्रि का इसलिए नवरात्र के 7वें दिन मां कालरात्रि की पूजा होती है। कालरात्रि माता गले में विद्युत की माला धारण करती हैं। इनके बाल खुले हुए हैं और गर्दभ की सवारी करती हैं, जबकि काली नरमुंड की माला पहनती हैं और हाथ में खप्पर और तलवार लेकर चलती हैं।

काली माता के हाथ में कटा हुआ सिर है जिससे रक्त टपकता रहता है। भयंकर रूप होते हुए भी माता भक्तों के लिए कल्याणकारी हैं। कालरात्रि माता को काली और शुभंकरी भी कहा जाता है।

कालरात्रि माता के विषय में कहा जाता है कि यह दुष्टों के बाल पकड़कर खड्ग से उसका सिर काट देती हैं। रक्तबीज से युद्घ करते समय मां काली ने भी इसी प्रकार से रक्तबीज का वध किया था।


चौथा रहस्य,जीवनरक्षक मां काली : -  माता काली की पूजा या भक्ति करने वालों को माता सभी तरह से निर्भीक और सुखी बना देती हैं। वे अपने भक्तों को सभी तरह की परेशानियों से बचाती हैं।

 लंबे समय से चली आ रही बीमारी दूर हो जाती हैं।

ऐसी बीमारियां जिनका इलाज संभव नहीं है, वह भी काली की पूजा से समाप्त हो जाती हैं।

 काली के पूजक पर काले जादू, टोने-टोटकों का प्रभाव नहीं पड़ता।

हर तरह की बुरी आत्माओं से माता काली रक्षा करती हैं।

 कर्ज से छुटकारा दिलाती हैं।

बिजनेस आदि में आ रही परेशानियों को दूर करती हैं।

जीवनसाथी या किसी खास मित्र से संबंधों में आ रहे तनाव को दूर करती हैं।

बेरोजगारी, करियर या शिक्षा में असफलता को दूर करती हैं।

कारोबार में लाभ और नौकरी में प्रमोशन दिलाती हैं।

हर रोज कोई न कोई नई मुसीबत खड़ी होती हो तो काली इस तरह की घटनाएं भी रोक देती हैं।

शनि-राहु की महादशा या अंतरदशा, शनि की साढ़े साती, शनि का ढइया आदि सभी से काली रक्षा करती हैं।

पितृदोष और कालसर्प दोष जैसे दोषों को दूर करती हैं।

 पांचवां रहस्य... कालिका का यह अचूक मंत्र है। इससे माता जल्द से सुन लेती हैं, लेकिन आपको इसके लिए सावधान रहने की जरूरत है। आजमाने के लिए मंत्र का इस्तेमाल न करें। यदि आप काली के भक्त हैं तो ही करें।


ॐ नमो काली कंकाली महाकाली मुख सुन्दर जिह्वा वाली,

चार वीर भैरों चौरासी, चार बत्ती पूजूं पान ए मिठाई,

अब बोलो काली की दुहाई।

इस मंत्र का प्रतिदिन 108 बार जाप करने से आर्थिक लाभ मिलता है। इससे धन संबंधित परेशानी दूर हो जाती है। माता काली की कृपा से सब काम संभव हो जाते हैं। 15 दिन में एक बार किसी भी मंगलवार या शुक्रवार के दिन काली माता को मीठा पान व मिठाई का भोग लगाते रहें।

कालिका माता के सात रहस्य

              कालिका माता के सात रहस्य 



महाकाल की काली। 'काली' का अर्थ है समय और काल। काल, जो सभी को अपने में निगल जाता है। भयानक अंधकार और श्मशान की देवी। वेद अनुसार 'समय ही आत्मा है, आत्मा ही समय है'। मां कालिका की उत्पत्ति धर्म की रक्षा और पापियों-राक्षसों का विनाश करने के लिए हुई है।

काली को माता जगदम्बा की महामाया कहा गया है। मां ने सती और पार्वती के रूप में जन्म लिया था। सती रूप में ही उन्होंने 10 महाविद्याओं के माध्यम से अपने 10 जन्मों की शिव को झांकी दिखा दी थी।

मंत्र : ॐ ह्रीं श्रीं क्रीं परमेश्वरि कालिके स्वाहा

दुर्गा का एक रूप : माता कालिका 10 महाविद्याओं में से एक मां काली के 4 रूप हैं- दक्षिणा काली, शमशान काली, मातृ काली और महाकाली।

राक्षस वध : - माता ने महिषासुर, चंड, मुंड, धूम्राक्ष, रक्तबीज, शुम्भ, निशुम्भ आदि राक्षसों के वध किए थे।

कलियुग में 3 देवता जाग्रत कहे गए हैं- हनुमान, कालिका और भैरव। कालिका की उपासना जीवन में सुख, शांति, शक्ति, विद्या देने वाली बताई गई है। मां कालिका की भक्ति का प्रभाव व्यावहारिक जीवन में मानसिक, शारीरिक और सांसारिक बुराइयों के अंत के रूप में दिखाई देता है जिससे किसी भी इंसान के तनाव, भय और कलह का नाश हो जाता है।

हिन्दू धर्म में सबसे जागृत देवी हैं मां कालिका। मां कालिका को खासतौर पर बंगाल और असम में पूजा जाता है। 'काली' शब्द का अर्थ काल और काले रंग से है। 'काल' का अर्थ समय। मां काली को देवी दुर्गा की 10 महाविद्याओं में से एक माना जाता है।

विशेष : कालिका के दरबार में जो एक बार चला जाता है उसका नाम-पता दर्ज हो जाता है। यहां यदि दान मिलता है तो दंड भी। आशीर्वाद मिलता है तो शाप भी। यदि आप कालिका के दरबार में जो भी वादा करने आएं, उसे पूरा जरूर करें। जो भी मन्नत के बदले को करने का वचन दें, उसे पूरा जरूर करें अन्यथा कालिका माता रुष्ट हो सकती हैं। जो एकनिष्ठ, सत्यवादी और वचन का पक्का है समझो उसका काम भी तुरंत होगा।

 पहला रहस्य,मां दुर्गा ने कई जन्म लिए थे। उनमें से दो जन्मों की कथाएं ज्यादा प्रसिद्ध हैं। पहला, जब उन्होंने राजा दक्ष के यहां सती के रूप में जन्म लिया था और फिर वे यज्ञ की आग में कूदकर भस्म हो गई थीं। दूसरा, जब उन्होंने पर्वतराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया, तब वे पार्वती कहलाईं।

दक्ष प्रजापति ब्रह्मा के पुत्र थे। उनकी दत्तक पुत्री थीं सती, जिन्होंने तपस्या करके शिव को अपना पति बनाया, लेकिन शिव की जीवनशैली दक्ष को बिलकुल ही नापसंद थी। शिव और सती का अत्यंत सुखी दांपत्य जीवन था, पर शिव को बेइज्जत करने का खयाल दक्ष के दिल से नहीं गया था। इसी मंशा से उन्होंने एक यज्ञ का आयोजन किया जिसमें शिव और सती को छोड़कर सभी देवी-देवताओं को निमंत्रित किया।

जब सती को इसकी सूचना मिली तो उन्होंने उस यज्ञ में जाने की ठान ली। शिव से अनुमति मांगी, तो उन्होंने साफ मना कर दिया। उन्होंने कहा कि जब हमें बुलाया ही नहीं है, तो हम क्यों जाएं? सती ने कहा कि मेरे पिता हैं तो मैं तो बिन बुलाए भी जा सकती हूं। लेकिन शिव ने उन्हें वहां जाने से मना किया तो माता सती को क्रोध आ गया और क्रोधित होकर वे कहने लगीं- 'मैं दक्ष यज्ञ में जाऊंगी और उसमें अपना हिस्सा लूंगी, नहीं तो उसका विध्वंस कर दूंगी।'

वे पिता और पति के इस व्यवहार से इतनी आहत हुईं कि क्रोध से उनकी आंखें लाल हो गईं। वे उग्र-दृष्टि से शिव को देखने लगीं। उनके होंठ फड़फड़ाने लगे। फिर उन्होंने भयानक अट्टहास किया। शिव भयभीत हो गए। वे इधर-उधर भागने लगे। उधर क्रोध से सती का शरीर जलकर काला पड़ गया।

उनके इस विकराल रूप को देखकर शिव तो भाग चले लेकिन जिस दिशा में भी वे जाते वहां एक-न-एक भयानक देवी उनका रास्ता रोक देतीं। वे दसों दिशाओं में भागे और 10 देवियों ने उनका रास्ता रोका और अंत में सभी काली में मिल गईं। हारकर शिव सती के सामने आ खड़े हुए। उन्होंने सती से पूछा- 'कौन हैं ये?'

सती ने बताया- 'ये मेरे 10 रूप हैं। आपके सामने खड़ी कृष्ण रंग की काली हैं, आपके ऊपर नीले रंग की तारा हैं, पश्चिम में छिन्नमस्ता, बाएं भुवनेश्वरी, पीठ के पीछे बगलामुखी, पूर्व-दक्षिण में द्यूमावती, दक्षिण-पश्चिम में त्रिपुर सुंदरी, पश्चिम-उत्तर में मातंगी तथा उत्तर-पूर्व में षोडशी हैं और मैं खुद भैरवी रूप में अभयदान देने के लिए आपके सामने खड़ी हूं।’ माता का यह विकराल रूप देख शिव कुछ भी नहीं कह पाए और वे दक्ष यज्ञ में चली गईं।

मंगलवार, 26 अप्रैल 2022

शिव ने क्यों माना बिल्ववृक्ष को शिवस्वरूप?

                     माँ लक्ष्मी का बिल्व स्वरूप

            शिव ने क्यों माना बिल्ववृक्ष को शिवस्वरूप? 



नारदजी ने एक बार भोलेनाथ की स्तुति कर पूछा प्रभु आपको प्रसन्न करने के लिए सबसे उत्तम और सुलभ साधन क्या है?

 हे त्रिलोकीनाथ आप तो निर्विकार और निष्काम हैं, आप सहज ही प्रसन्न हो जाते हैं. फिर भी मेरी जानने की इच्छा है कि आपको क्या प्रिय है?

शिवजी बोले- नारदजी वैसे तो मुझे भक्त के भाव सबसे प्रिय हैं, फिर भी आपने पूछा है तो बताता हूं।

मुझे जल के साथ-साथ बिल्वपत्र बहुत प्रिय है. जो अखंड बिल्वपत्र मुझे श्रद्धा से अर्पित करते हैं मैं उन्हें अपने लोक में स्थान देता हूं।

नारदजी भगवान शंकर औऱ माता पार्वती की वंदना कर अपने लोक को चले गए. उनके जाने के पश्चात पार्वतीजी ने शिवजी से पूछा- हे प्रभु मेरी यह जानने की बड़ी उत्कट इच्छा हो रही है।

 कि आपको बेलपत्र इतने प्रिय क्यों है? कृपा करके मेरी जिज्ञासा शांत करें।

शिवजी बोले- हे शिवे! बिल्व के पत्ते मेरी जटा के समान हैं. उसका त्रिपत्र यानी तीन पत्ते, ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद हैं. शाखाएं समस्त शास्त्र का स्वरूप हैं।

 बिल्ववृक्ष को आप पृथ्वी का कल्पवृक्ष समझें जो ब्रह्मा-विष्णु- शिवस्वरूप है. हे पार्वती! स्वयं महालक्ष्मी ने शैल पर्वत पर बिल्ववृक्ष रूप में जन्म लिया था  इस कारण भी बेल का वृक्ष मेरे लिए अतिप्रिय है. महालक्ष्मी ने बिल्व का रूप धरा, यह सुनकर पार्वतीजी कौतूहल में पड़ गईं।

पार्वतीजी कौतूहल से उपजी जिज्ञासा को रोक न पाई. उन्होंने पूछा- देवी लक्ष्मी ने आखिर बिल्ववृक्ष का रूप क्यों लिया? आप यह कथा विस्तार से कहें।

भोलेनाथ ने देवी पार्वती को कथा सुनानी शुरू की. हे देवी, सत्ययुग में ज्योतिरूप में मेरे अंश का रामेश्वर लिंग था. ब्रह्मा आदि देवों ने उसका विधिवत पूजन-अर्चन किया था।

इसका परिणाम यह हुआ कि मेरे अनुग्रह से वाणी देवी सबकी प्रिया हो गईं. वह भगवान विष्णु को सतत प्रिय हो गईं।

मेरे प्रभाव से भगवान केशव के मन में वाग्देवी के लिए जितनी प्रीति उपजी हुई वह स्वयं लक्ष्मी को नहीं भाई।

लक्ष्मी देवी का श्रीहरि के प्रति मन में कुछ दुराव पैदा हो गया. वह चिंतित और रूष्ट होकर चुपचाप परम उत्तम श्रीशैल पर्वत पर चली गईं।

वहां उन्होंने तप करने का निर्णय किया और उत्तम स्थान का चयन करने लगीं. महालक्ष्मी ने उत्तम स्थान का निश्चय करके मेरे लिंग विग्रह की उग्र तपस्या प्रारम्भ कर दी. उनकी तपस्या कठोरतम होती जा रही थी।

हे परमेश्वरी कुछ समय बाद महालक्ष्मी जी ने मेरे लिंग विग्रह से थोड़ा उर्ध्व में एक वृक्ष का रूप धारण कर लिया।

अपने पत्तों और पुष्प द्वारा निरंतर मेरा पूजन करने लगीं. इस तरह महालक्ष्मी ने कोटि वर्ष ( एक करोड़ वर्ष) तक घोर आराधना की. अंततः उन्हें मेरा अनुग्रह प्राप्त हुआ।

मैं वहां प्रकट हुआ और देवी से इस घोर तप की आकांक्षा पूछकर वरदान देने को तैयार हुआ।

महालक्ष्मी ने मांगा कि श्रीहरि के हृदय में मेरे प्रभाव से वाग्देवी के लिए जो स्नेह हुआ है वह समाप्त हो जाए।

शिवजी बोले- मैंने महालक्ष्मी को समझाया कि श्रीहरि के हृदय में आपके अतिरिक्त किसी और के लिए कोई प्रेम नहीं है. वाग्देवी के प्रति उनका प्रेम नहीं अपितु श्रद्धा है।

यह सुनकर लक्ष्मीजी प्रसन्न हो गईं और पुनः श्रीविष्णु के ह्रदय में स्थित होकर निरंतर उनके साथ विहार करने लगी।

हे पार्वती! महालक्ष्मी के हृदय का एक बड़ा विकार इस प्रकार दूर हुआ था. इस कारण हरिप्रिया उसी वृक्षरूपं में सर्वदा अतिशय भक्ति से भरकर यत्नपूर्वक मेरी पूजा करने लगी।

हे पार्वती इसी कारण बिल्व का वृक्ष, उसके पत्ते, फलफूल आदि मुझे बहुत प्रिय है. मैं निर्जन स्थान में बिल्ववृक्ष का आश्रय लेकर रहता हूं।

बिल्ववृक्ष को सदा सर्वतीर्थमय एवं सर्वदेवमय मानना चाहिए. इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।

 बिल्वपत्र, बिल्वफूल, बिल्ववृक्ष अथवा बिल्वकाष्ठ के चन्दन से जो मेरा पूजन करता है वह भक्त मेरा प्रिय है. बिल्ववृक्ष को शिव के समान ही समझो. वह मेरा शरीर है. जो विल्व पर चंदन से मेरा नाम अंकित करके मुझे अर्पण करता है मैं उसे सभी पापों से मुक्त करके अपने लोक में स्थान देता हूं।

हे देवी उस व्यक्ति को स्वयं लक्ष्मीजी भी नमस्कार करती हैं जो विल्व से मेरा पूजन करते हैं. जो बीलवमुल में प्राण छोड़ता है उसको रूद्र देह प्राप्त होता है।

मेरी पूजा के लिए बेल के उत्तम पत्तों का ही प्रयोग करना चाहिये।


किसी भी वस्तु या व्यक्ति को छोटा और महत्त्वहीन मान कर उसका तिरस्कार कर सकते हैं?

                🌹सूखी पत्तियाँ🌹(प्रेरणादायक कहानी)


एक बार की बात है कि किसी गुरुकुल में तीन शिष्यों नें अपना अध्ययन सम्पूर्ण करने पर अपने गुरु जी से यह बताने के लिए विनती की कि उन्हें गुरुदाक्षिणा में, उनसे क्या चाहिए |गुरु जी पहले तो मंद-मंद मुस्कराये और फिर बड़े स्नेहपूर्वक कहने लगे-‘मुझे तुमसे गुरुदक्षिणा में एक थैला भर के सूखी पत्तियां चाहिए, ला सकोगे?’ वे तीनों मन ही मन बहुत प्रसन्न हुए क्योंकि उन्हें लगा कि वे बड़ी आसानी से अपने गुरु जी की इच्छा पूरी कर सकेंगे |सूखी पत्तियाँ तो जंगल में सर्वत्र बिखरी ही रहती हैं| वे उत्साहपूर्वक एक ही स्वर में बोले-‘जी गुरु जी, जैसी आपकी आज्ञा |’

अब वे तीनों शिष्य चलते-चलते एक समीपस्थ जंगल में पहुँच चुके थे |लेकिन यह देखकर कि वहाँ पर तो सूखी पत्तियाँ केवल एक मुट्ठी भर ही थीं ,उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा | वे सोच में पड़ गये कि आखिर जंगल से कौन सूखी पत्तियां उठा कर ले गया होगा? इतने में ही उन्हें दूर से आता हुआ कोई किसान दिखाई दिया |वे उसके पास पहुँच कर, उससे विनम्रतापूर्वक याचना करने लगे कि वह उन्हें केवल एक थैला भर सूखी पत्तियां दे दे |

अब उस किसान ने उनसे क्षमायाचना करते हुए, उन्हें यह बताया कि वह उनकी मदद नहीं कर सकता क्योंकि उसने सूखी पत्तियों का ईंधन के रूप में पहले ही उपयोग कर लिया था | अब, वे तीनों, पास में ही बसे एक गाँव की ओर इस आशा से बढ़ने लगे थे कि हो सकता है वहाँ उस गाँव में उनकी कोई सहायता कर सके |

वहाँ पहुँच कर उन्होंने जब एक व्यापारी को देखा तो बड़ी उम्मीद से उससे एक थैला भर सूखी पत्तियां देने के लिए प्रार्थना करने लगे लेकिन उन्हें फिर से एकबार निराशा ही हाथ आई क्योंकि उस व्यापारी ने तो, पहले ही, कुछ पैसे कमाने के लिए सूखी पत्तियों के दोने बनाकर बेच दिए थे लेकिन उस व्यापारी ने उदारता दिखाते हुए उन्हें एक बूढी माँ का पता बताया जो सूखी पत्तियां एकत्रित किया करती थी|

पर भाग्य ने यहाँ पर भी उनका साथ नहीं दिया क्योंकि वह बूढी माँ तो उन पत्तियों को अलग-अलग करके कई प्रकार की ओषधियाँ बनाया करती थी |अब निराश होकर वे तीनों खाली हाथ ही गुरुकुल लौट गये |गुरु जी ने उन्हें देखते ही स्नेहपूर्वक पूछा- ‘पुत्रो,ले आये गुरुदक्षिणा ?’तीनों ने सर झुका लिया |गुरू जी द्वारा दोबारा पूछे जाने पर उनमें से एक शिष्य कहने लगा- ‘गुरुदेव,हम आपकी इच्छा पूरी नहीं कर पाये |हमने सोचा था कि सूखी पत्तियां तो जंगल में सर्वत्र बिखरी ही रहती होंगी लेकिन बड़े ही आश्चर्य की बात है कि लोग उनका भी कितनी तरह से उपयोग करते हैं

’गुरु जी फिर पहले ही की तरह मुस्कराते हुए प्रेमपूर्वक बोले- ‘निराश क्यों होते हो ?प्रसन्न हो जाओ और यही ज्ञान कि सूखी पत्तियां भी व्यर्थ नहीं हुआ करतीं बल्कि उनके भी अनेक उपयोग हुआ करते हैं; मुझे गुरुदक्षिणा के रूप में दे दो |’तीनों शिष्य गुरु जी को प्रणाम करके खुशी-खुशी अपने-अपने घर की ओर चले गये |

वह शिष्य जो गुरु जी की कहानी एकाग्रचित्त हो कर सुन रहा था,अचानक बड़े उत्साह से बोला-‘गुरु जी,अब मुझे अच्छी तरह से ज्ञात हो गया है कि आप क्या कहना चाहते हैं |आप का संकेत, वस्तुतः इसी ओर है न कि जब सर्वत्र सुलभ सूखी पत्तियां भी निरर्थक या बेकार नहीं होती हैं तो फिर हम कैसे, किसी भी वस्तु या व्यक्ति को छोटा और महत्त्वहीन मान कर उसका तिरस्कार कर सकते हैं? चींटी से लेकर हाथी तक और सुई से लेकर तलवार तक-सभी का अपना-अपना महत्त्व होता है |

गुरु जी भी तुरंत ही बोले-‘हाँ, पुत्र,मेरे कहने का भी यही तात्पर्य है कि हम जब भी किसी से मिलें तो उसे यथायोग्य मान देने का भरसक प्रयास करें ताकि आपस में स्नेह, सद्भावना,सहानुभूति एवं सहिष्णुता का विस्तार होता रहे और हमारा जीवन संघर्ष के बजाय उत्सव बन सके |

दूसरे,यदि जीवन को एक खेल ही माना जाए तो बेहतर यही होगा कि हम निर्विक्षेप,स्वस्थ एवं शांत प्रतियोगिता में ही भाग लें और अपने निष्पादन तथा निर्माण को ऊंचाई के शिखर पर ले जाने का अथक प्रयास करें |’अब शिष्य पूरी तरह से संतुष्ट था |

।।जय श्री राधे।।

मंगलवार, 5 अप्रैल 2022

हनुमान चालीसा की कुछ चौपाइयां जो बहुत जल्दी असर दिखाती हैं

हनुमान चालीसा की कुछ चौपाइयां जो बहुत जल्दी असर दिखाती हैं

वैसे तो हनुमान चालीसा की हर चौपाई और दोहे चमत्कारी हैं लेकिन कुछ ऐसी चौपाइयां हैं जो बहुत जल्द असर दिखाती हैं। ये चौपाइयां सर्वाधिक प्रचलित भी हैं समय-समय में काफी लोग इनका जप करते हैं। यहां जानिए कुछ खास चौपाइयां और उनके अर्थ। साथ ही जानिए हनुमान चालीसा की किस चौपाई से क्या चमत्कार होते हैं…

रामदूत अतुलित बलधामा। अंजनिपुत्र पवनसुत नामा।।

यदि कोई व्यक्ति इस चौपाई का जप करता है तो उसे शारीरिक कमजोरियों से मुक्ति मिलती है। इस पंक्ति का अर्थ यह है कि हनुमानजी श्रीराम के दूत हैं और अतुलित बल के धाम हैं। यानि हनुमानजी परम शक्तिशाली हैं। इनकी माता का नाम अंजनी है इसी वजह से इन्हें अंजनी पुत्र कहा जाता है। शास्त्रों के अनुसार हनुमानजी को पवन देव का पुत्र माना जाता है इसी वजह से इन्हें पवनसुत भी कहते हैं।

महाबीर बिक्रम बजरंगी। कुमति निवार सुमति के संगी।।

यदि कोई व्यक्ति हनुमान चालीसा की केवल इस पंक्ति का जप करता है तो उसे सुबुद्धि की प्राप्ति होती है। इस पंक्ति का जप करने वाले लोगों के कुविचार नष्ट होते हैं और सुविचार बनने लगते हैं। बुराई से ध्यान हटता है और अच्छाई की ओर मन लगता है। इस पंक्ति का अर्थ यही है कि बजरंगबली महावीर हैं और हनुमानजी कुमति को निवारते हैं यानि कुमति को दूर करते हैं और सुमति यानि अच्छे विचारों को बढ़ाते हैं।

बिद्यबान गुनी अति चातुर। रामकाज करीबे को आतुर।।

यदि किसी व्यक्ति को विद्या धन चाहिए तो उसे इस पंक्ति का जप करना चाहिए। इस पंक्ति के जप से हमें विद्या और चतुराई प्राप्त होती है। इसके साथ ही हमारे हृदय में श्रीराम की भक्ति भी बढ़ती है। इस चौपाई का अर्थ है कि हनुमानजी विद्यावान हैं और गुणवान हैं। हनुमानजी चतुर भी हैं। वे सदैव ही श्रीराम के काम को करने के लिए तत्पर रहते हैं। जो भी व्यक्ति इस चौपाई का जप करता है उसे हनुमानजी की ही तरह विद्या, गुण, चतुराई के साथ ही श्रीराम की भक्ति प्राप्त होती है।

भीम रूप धरि असुर संहारे। रामचंद्रजी के काज संवारे।।

जब आप शत्रुओं से परेशान हो जाएं और कोई रास्ता दिखाई न दे तो हनुमान चालीसा का जप करें। यदि एकाग्रता और भक्ति के साथ हनुमान चालीसा की सिर्फ इस पंक्ति का भी जप किया जाए तो शत्रुओं पर विजय प्राप्ति होती है। श्रीराम की कृपा प्राप्त होती है। इस पंक्ति का अर्थ यह है कि श्रीराम और रावण के बीच हुए युद्ध में हनुमानजी ने भीम रूप यानि विशाल रूप धारण करके असुरों-राक्षसों का संहार किया। श्रीराम के काम पूर्ण करने में हनुमानजी ने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। जिससे श्रीराम के सभी काम संवर गए।

लाय संजीवन लखन जियाये। श्रीरघुबीर हरषि उर लाये।।

इस पंक्ति का जप करने से भयंकर बीमारियों से भी मुक्ति मिल सकती है। यदि कोई व्यक्ति किसी गंभीर बीमारी से पीडि़त है और दवाओं का भी असर नहीं हो रहा है तो उसे भक्ति के साथ हनुमान चालीसा या इस पंक्ति का जप करना चाहिए। दवाओं का असर होना शुरू हो जाएगा, बीमारी धीरे-धीरे ठीक होने लगेगी। इस चौपाई का अर्थ यह है कि रावण के पुत्र मेघनाद ने लक्ष्मण को मुर्छित कर दिया था। तब सभी औषधियों के प्रभाव से भी लक्ष्मण की चेतना लौट नहीं रही थी। तब हनुमानजी संजीवनी औषधि लेकर आए और लक्ष्मण के प्राण बचाए। हनुमानजी के इस चमत्कार से श्रीराम अतिप्रसन्न हुए।

श्रीराम के परम भक्त हनुमानजी सबसे जल्दी प्रसन्न होने वाले देवताओं में से एक हैं। शास्त्रों के अनुसार माता सीता के वरदान के प्रभाव से बजरंग बली को अमर बताया गया है। ऐसा माना जाता है आज भी जहां रामचरित मानस या रामायण या सुंदरकांड का पाठ पूरी श्रद्धा एवं भक्ति से किया जाता है वहां हनुमानजी अवश्य प्रकट होते हैं। इन्हें प्रसन्न करने के लिए बड़ी संख्या में श्रद्धालु हनुमान चालीसा का पाठ भी करते हैं। यदि कोई व्यक्ति पूरी हनुमान चालीसा का पाठ करने में असमर्थ रहता है तो वह अपनी मनोकामना के अनुसार केवल कुछ पंक्तियों का भी जप कर सकता है।

केवल हनुमान चालीसा ही नहीं सभी देवी-देवताओं की प्रमुख स्तुतियों में चालिस ही दोहे होते हैं? विद्वानों के अनुसार चालीसा यानि चालीस, संख्या चालीस, हमारे देवी-देवीताओं की स्तुतियों में चालीस स्तुतियां ही सम्मिलित की जाती हैं। जैसे श्री हनुमान चालीसा, दुर्गा चालीसा, शिव चालीसा आदि। इन स्तुतियों में चालीस दोहे ही क्यों होते हैं ? इसका धार्मिक दृष्टिकोण है। इन चालीस स्तुतियों में संबंधित देवता के चरित्र, शक्ति, कार्य एवं महिमा का वर्णन होता है।

चालीस चौपाइयां हमारे जीवन की संपूर्णता का प्रतीक हैं, इनकी संख्या चालीस इसलिए निर्धारित की गई है क्योंकि मनुष्य जीवन 24 तत्वों से निर्मित है और संपूर्ण जीवनकाल में इसके लिए कुल 16 संस्कार निर्धारित किए गए हैं। इन दोनों का योग 40 होता है। इन 24 तत्वों में 5 ज्ञानेंद्रिय, 5 कर्मेंद्रिय, 5 महाभूत, 5 तन्मात्रा, 4 अन्त:करण शामिल हैं।

सोलह संस्कार इस प्रकार हैं :- 1. गर्भाधान संस्कार 2. पुंसवन संस्कार 3. सीमन्तोन्नयन संस्कार 4. जातकर्म संस्कार 5. नामकरण संस्कार 6. निष्क्रमण संस्कार 7. अन्नप्राशन संस्कार 8. चूड़ाकर्म संस्कार 9. विद्यारम्भ संस्कार 10. कर्णवेध संस्कार 11. यज्ञोपवीत संस्कार 12. वेदारम्भ संस्कार 13. केशान्त संस्कार 14. समावर्तन संस्कार 15. पाणिग्रहण संस्कार 16. अन्त्येष्टि संस्कार

भगवान की इन स्तुतियों में हम उनसे इन तत्वों और संस्कारों का बखान तो करते ही हैं, साथ ही चालीसा स्तुति से जीवन में हुए दोषों की क्षमायाचना भी करते हैं। इन चालीस चौपाइयों में सोलह संस्कार एवं 24 तत्वों का भी समावेश होता है। जिसकी वजह से जीवन की उत्पत्ति है।
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