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सोमवार, 23 दिसंबर 2024

महिषासुर मर्दिनी का दूसरा एवं तीसरे हिंदी में अर्थ

 


महिषासुरमर्दिनी स्तोत्रम् का हर श्लोक देवी दुर्गा के अलग-अलग नामों को बताता है। इसकी गहराई से संकेत के लिए हर श्लोक का विश्लेषण किया जा सकता है। यहां "अयि गिरिनन्दिनी" के अगले कुछ श्लोकों का भावार्थ प्रस्तुत है

सुरवर वर्षिणि दुर्धर वर्षिणी दुर्मुखमर्षणि हर्षरते 

त्रिभुवनपोषिणि शंकरतोषिणि किल्बिषमोषिणि घोषरते।

दनुजनिरोषिणि दितिसुत रोषिणि दुर्मदशोषिणि सिन्धुसुते,

जय जय हे महिषासुरमर्दिनी रम्यकपर्दिनी शैलसुते।।

भावार्थ :

1. सुरवर वर्षिणि: हे देवी, आप देवताओं पर कृपा की वर्षा करने वाली हैं।

2. दुर्धरधर्षिणि: जो दुर्जेय शत्रुओं का दमन करता है।

3. दुर्मुखमर्षणि: दुष्टों और उनके आचरण को नष्ट करने वाली।

4. त्रिभुवनपोषिणि: त्रिलोकों की रक्षा और पोषण करने वाली।

5. शंकर तोषिणी: भगवान शिव को भी प्रसन्न करने वाली।

6. किल्बिष मोषिनि: पापों को हरने वाली।

7. दनुजनिरोषिणि: राक्षसों के प्रति क्रोध से दंड वाली।

8. दितिसुत रोषिणि: दैत्य माता दिति के पुत्रों को स्थापित करने वाली।

9. दुर्मदशोषिणि: दुष्टों का नाश करने वाली।

10. सिन्धुसुते: शुभ कार्य में आनंदित होने वाली।

इस श्लोक में बताया गया है कि देवी दुर्गा दुष्टों का नाश करके धर्म की रक्षा करती हैं और देवताओं और भक्तों पर कृपा करती हैं।

तीसरा श्लोक:


अयि जगदम्ब मदम्ब कदम्ब वनप्रिय वासिनी हासरते।

शिखिर शिरोमणि तुङमहिमालय शृङ्गनिजालय मध्यगते।

मधुमधुरे मधुकैटभ गंजिनी कैटभ भंजिनी रासरतें।

जय जय हे महिषासुरमर्दिनी रम्यकपर्दिनी शैलसुते॥

भावार्थ :


1. अयि जगदंब मदम्ब: हे जगत की माता और मेरी मां!

2.कदंबवनप्रियवासिनी: आप कदंब के वनों में रहने वाली हैं।

3. हासरते: आप आनंद और हंसी-खुशी में रमने वाली हैं।

4. शिखरशिरोमणि: हिमालय पर्वत के शिखर पर।

5. मधुमधुरे: मधुर आपकी वाणी और प्रिय है।

6. मधुकैटभ गंजिनी: मधु और कैटभ राक्षसों को मारने वाली।

7. रासरते: आप आनंदमयी लीलाओं में लीन रहती हैं।

यह देवी श्लोक के प्रेममयी, आनंदमयी दुष्ट और संहारक स्वरूप के उदाहरण हैं।

भावार्थ का सार:


महिषासुरमर्दिनी स्तोत्रम् में देवी दुर्गा के अद्भुत, अजेय और करुणामय स्वरूप के गान हैं। वे त्रिलोकी की माता, पापों का नाश करने वाली, दुष्टों का संहार करने वाली, और भक्तों की हर प्रकार से रक्षा करने वाली हैं। हर श्लोक में देवी के सौंदर्य, शक्ति और करुणा का एक नया दर्शन होता है।

देवी दुर्गा की इस स्तुति का उद्देश्य यह है कि भक्त अपने जीवन से भय, कष्ट और असुरता को समाप्त कर, शक्ति, शांति और संतोष को प्राप्त कर सके।


महिषासुर मर्दिनी का पहला अध्याय हिंदी में अर्थ


 महिषासुर मर्दिनी का हिंदी में अर्थ है "महिषासुर का वध करने वाली देवी"। यह देवी दुर्गा का एक प्रसिद्ध रूप है।

महिषासुर एक असुर (राक्षस) था, जो आधा भैंसा और आधा इंसान था। उन्हें अजेय माना जाता था, लेकिन उनके अत्याचारी भाषण में देवी दुर्गा की आराधना की बात कही गई थी। देवी दुर्गा ने महिषासुर से भीषण युद्ध करवाया और अंततः उसका वध कर दिया।

इसलिए, महिषासुर मर्दिनी देवी दुर्गा के उस रूप को कहा जाता है, जो अधर्म, अन्याय और अराजकता का अंत करता है और धर्म की स्थापना करता है।

महिषासुरमर्दिनी स्तोत्रम् (जिसकी शुरुआत "अयि गिरीनंदिनी" से होती है) में देवी दुर्गा की विभिन्न शक्तियों और गुणों का वर्णन है। इसमें देवी को महिषासुर का संहार करने वाली के रूप में पूजा जाता है। यह स्तोत्र उनके साहस, करुणा, मित्रता और उनकी सर्वव्यापकता की स्तुति है।


" अयि गिरिनन्दिनी" श्लोक का भावार्थ (मुख्य अर्थ):


अयि गिरिन्नन्दिनी नन्दितमेदिनी विश्वविनोदिनी नन्दिनुते।

गिरिवरविन्ध्यशिरोऽधिनिवासिनी विष्णुविलासिनी जिष्णुनुते।

भगवती हे शितिकण्ठकुटुम्बिनि भूरिकुटुम्बिनी भूरिकृते

जय जय हे महिषासुरमर्दिनी रम्यकपर्दिनी शैलसुते॥


भावार्थ :

1. अयी गिरिदिनी नंदितामेदिनी: हे पर्वतराज हिमालय की पुत्री, आप पूरी पृथ्वी को आनंदित करने वाली हैं।

2. विश्वविनोदिनी नन्दिनुते: आप संपूर्ण ब्रह्माण्ड का कष्ट बढ़ाने वाली हैं, और ऋषि नंदी भी आपकी स्तुति करते हैं।

3. गिरिवरविन्ध्यशिरोऽधिनिवासिनी: आप महान पर्वत विंध्य के शिखरों पर निवास करने वाली हैं।

4. विष्णुविलासिनी जिष्णुनुते: आप भगवान विष्णु के साथ लीला करने वाली और विजयी लोगों द्वारा पूजित हैं।

5. भगवती हे शितिकण्ठकुटुम्बिनि: हे भगवती, आप भगवान शिव के परिवार की शोभा बढ़ाने वाली हैं।

6. भूरिकुटुम्बिनी भूरिकृते: आप विशाल परिवार के नायक और महान कार्य की प्रेरणा देने वाली हैं।

7. जय जय हे महिषासुरमर्दिनी: हे महिषासुर का वध करने वाली, आपको बार-बार नमस्कार और वंदन है।

8. रम्यकपर्दिनी शैलसुते: हे सुंदर जटाओं वाले शिव की संगिनी और पर्वतराज की पुत्री, आप अद्भुत हैं।

संपूर्ण श्लोक का संदेश:

यह श्लोक देवी दुर्गा की शक्ति, करुणा और सौंदर्य का वर्णन करता है। यह समय भक्त अपनी भावना और श्रद्धा के साथ देवी से विश्व के दुखों को हरने, धर्म की स्थापना करने और अपने जीवन में शक्ति और शांति प्रदान करने की प्रार्थना करता है।

यह स्तोत्र देवी की महिमा, उनके संरक्षक स्वरूप और उनके सर्वव्यापक प्रभाव का गण है।

जय माँ 

मंगलवार, 10 दिसंबर 2024

वृंदावन में हर जगह राधाजी का नाम ही क्यों उच्चारण होता है?

वृंदावन में हर जगह राधाजी का नाम ही क्यों उच्चारण होता है?


वृंदावन में "राधे-राधे" का उच्चारण हर जगह सुनने का मुख्य कारण धार्मिक और आध्यात्मिक है। यह भगवान कृष्ण और राधारानी की लीलाओं से जुड़े प्रेम, भक्ति और श्रद्धा का प्रतीक है। इसके पीछे कई कारण हैं:


1. राधा-कृष्ण की दिव्य प्रेम लीला

वृंदावन को राधा और कृष्ण की दिव्य लीलाओं की भूमि माना जाता है। राधा को श्रीकृष्ण की अनन्य आराधिका और उनकी शक्ति स्वरूपा माना जाता है। इसलिए, "राधे-राधे" का जप भक्तों के लिए उनकी भक्ति को व्यक्त करने का सर्वोत्तम माध्यम है।


2. भक्ति का सर्वोच्च मार्ग

राधा को भक्ति का सर्वोच्च रूप माना जाता है। उनके नाम का उच्चारण भक्तों के लिए आध्यात्मिक शांति और भगवान कृष्ण की कृपा प्राप्त करने का साधन है।


3. सांस्कृतिक परंपरा

वृंदावन की संस्कृति और परंपराओं में "राधे-राधे" का अभिवादन गहरे रूप से समाहित है। यहाँ यह केवल धार्मिक उच्चारण नहीं, बल्कि सामाजिक संवाद का हिस्सा भी है। लोग इसे नमस्कार, स्वागत और शुभकामनाओं के रूप में उपयोग करते हैं।


4. आध्यात्मिक ऊर्जा का अनुभव

ऐसा माना जाता है कि राधा नाम का उच्चारण करने से सकारात्मक ऊर्जा और शांति का अनुभव होता है। वृंदावन की भूमि पर "राधे-राधे" का जप वातावरण को आध्यात्मिक बनाता है।


5. गुरुजनों और संतों की परंपरा

वृंदावन में संतों और भक्तों ने "राधे-राधे" जप को प्रमुखता दी है। इसे भगवान कृष्ण की भक्ति में सबसे सरल और प्रभावी साधना माना गया है।

6. वृंदावन का विशेष महत्व

वृंदावन को राधारानी का निवास स्थान और उनकी कृपा भूमि माना जाता है। यहाँ आने वाले प्रत्येक व्यक्ति को "राधे-राधे" कहने से एक विशेष आध्यात्मिक अनुभव होता है।

निष्कर्ष:

"राधे-राधे" सिर्फ एक नाम नहीं है, बल्कि यह वृंदावन के भक्तिपूर्ण वातावरण की आत्मा है। यह कृष्ण-भक्ति का सार है और इसे बोलने से व्यक्ति भगवान की ओर एक कदम और बढ़ता है।

।।जय श्री राधे।।


गोवर्धन परिक्रमा करने से क्या होता है?/Govardhan parikrama Se Kya hota Hai?

   गोवर्धन परिक्रमा करने से क्या होता है?


संसार के सुखों से मन को हटाने से परमात्मा सुख अपने आप मिलने लग जाता है। श्री कृष्ण ने गोवर्धन के रूप में प्रकट होकर अपने को सबके लिए सुलभ  कर दिया। गोवर्धन को समझने से श्री कृष्ण तत्व समझ में आ जाता है। बड़े  भारी और अति हल्के प्रभु हैं।सब गुरुओं के गुरु गोवर्धन नाथ है। इसी से गुरु पूर्णिमा को अपार जन, देव, दानव,मानव आकर दर्शन और प्रदक्षिणा करता है।

गोवर्धन परिक्रमा का हिन्दू धर्म में विशेष धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व है। इसे करने से व्यक्ति को निम्नलिखित लाभ और अनुभव हो सकते हैं:

1. आध्यात्मिक शांति और पुण्य

गोवर्धन परिक्रमा करने से व्यक्ति को मानसिक शांति और आध्यात्मिक उन्नति का अनुभव होता है। यह भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति का प्रतीक है, जिससे व्यक्ति को पुण्य फल प्राप्त होता है।

2. कर्मों का शुद्धिकरण

ऐसा माना जाता है कि परिक्रमा करने से व्यक्ति के पाप कर्मों का नाश होता है और उसे मोक्ष की ओर बढ़ने का मार्ग प्राप्त होता है।

3. शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य

गोवर्धन की परिक्रमा लगभग 21 किलोमीटर लंबी होती है। इसे करने से शारीरिक व्यायाम के साथ-साथ मानसिक शांति भी मिलती है।

4. भगवान कृष्ण की कृपा

गोवर्धन पर्वत को भगवान श्रीकृष्ण का रूप माना जाता है। परिक्रमा करने से उनकी विशेष कृपा प्राप्त होती है और भक्त के जीवन में समृद्धि और सुख-शांति आती है।

5. सकारात्मक ऊर्जा का अनुभव

परिक्रमा मार्ग में कई धार्मिक स्थल और प्राकृतिक सौंदर्य मौजूद हैं, जो भक्त को सकारात्मक ऊर्जा और आत्मिक संतोष का अनुभव कराते हैं।

6. सामूहिकता और समर्पण का भाव

यह एक सामूहिक धार्मिक क्रिया है, जिसमें व्यक्ति अपने परिवार और समाज के साथ भगवान के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करता है।

गोवर्धन परिक्रमा कार्तिक मास में विशेष रूप से शुभ मानी जाती है। यह परिक्रमा न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से, बल्कि मानसिक और आध्यात्मिक उत्थान के लिए भी महत्वपूर्ण है।

।।जय श्री राधे।।


गुरुवार, 26 सितंबर 2024

प्रवचन 3


               भाई जी के प्रवचन

भगवान की कृपा पर विश्वास है और उनके न्याय पर विश्वास है, दुनिया की कोई भी स्थिति नहीं बता सकती।

बुधवार, 25 सितंबर 2024

प्रवचन 2

             


              भाई जी के श्री मुख से 


स्नेह, प्रीति और तज्जनित त्याग जब भी भोगों के प्रतिपादन होता है, तब उसका नाम आशक्ति होता है और भगवान के प्रतिपादन होता है तो उसका नाम भक्ति होता है।


मंगलवार, 24 सितंबर 2024

भाई जी के प्रवचन

 भाई जी श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार जी के अंतिम प्रवचन मैं आपके साथ प्रतिदिन साझा करता हूं, अगर हम अपने जीवन में आग्रह करें तो निश्चित रूप से हमारे जीवन में अमूल्य परिवर्तन हो जाएगा।



                              श्री राधे 

भिक्षु भगवान में सच्चा विश्वास हो जाएगा, उसी के साथ उनका विवाह दुर्बलता दूर हो जाएगा, तुम्हारा भय भाग जाएगा और विपरीत विचारधारा वाले मन के आदर्श हो जाएंगे।


सोमवार, 2 सितंबर 2024

राम नाम की महिमा

                         राम नाम की महिमा 


‘रा=राक्षसानां मरणं यस्मात्। ’ ‘र’ का अर्थ है राक्षसगण ‘म’ का अर्थ है मकार का मरण। काम, क्रोध, मान, मद् आदि राक्षस जिससे मरते हैं वह है राम नाम। श्री कबीर के शिष्य श्री पद्मनाभ ने श्री राम नाम से कुष्ठी को निरोग किया। कबीर ने कहा कि गुरुदेव कृपा से नाम का इतना ही महत्व नहीं है, यह बंधन तो नाम के आभास से ही कट जाता है। रा का उच्चारण करने से पाप बाहर निकल जाते हैं। फिर मा का उच्चारण करने पर कपाट बंद हो जाता है। फिर मुख के बंद होने पर पाप प्रवेश नहीं कर पाते हैं अतः हरे राम महामंत्र विधि, अविधि जैसे भी जपा जाए कलयुग में विशेष फलप्रद है।

जैसे अनजाने में स्पर्श किया गया अग्नि भी जला देता है ऐसे ही हरि वह नाम है जो सभी के पाप तापों को करते हैं। 

एक व्यक्ति वृंदावनजा रहा था दूसरे ने पैसे देकर कहां मेरे लिए एक तुलसी की माला लेते आना। अभी माला आई नहीं नाम -जाप हुआ नहीं ,परंतु केवल नाम जप करने का विचार मात्र किया था इतने से ही यमराज ने कहा अरे चित्रगुप्त ! माला मंगाने वाले के खाते को खत्म कर दो। महाराज उसे तो बहुत कर्मों के फल भोगने हैं। यमराज ने कहा नहीं–नहीं, अब वह नाम जप करने के लिए उत्सुक है। उसके ऊपर कृपा हो गई है उसे जीव के कर्म बंधन समाप्त हो जाए यही नाम का आभास है।

।।जय श्री राधे।।


भगवान की प्राप्ति का उपाय

                  भगवान की प्राप्ति का उपाय





‘रामो विग्रहवान धर्मः।’श्री राम धर्म की मूर्ति हैं। 

‘श्री राम जय राम जय जय राम’ यह भगवन्न नाम हैं और वैदिक मंत्र भी है। कम से कम 22 बार जप करने वाला धन्य है। राम नाम से बढ़कर कोई नाम नहीं है।इसका जप करने वाला भक्ति मुक्ति आदि अभीष्ट पदार्थ पाता है। भगवत्त प्राप्ति का उपाय क्या है यह जीव नही जानता, भगवान अपने आप ही बताते हैं।सदा जप, तप ,अनुष्ठान में निमग्न रहकर विश्व कल्याण की मांग करनी चाहिए।

मन में नाम लेने से मुक्ति प्राप्त होती है और वाणी द्वारा उच्च स्वर से कीर्तन करने वाले को भक्ति प्राप्त होती है। उच्चस्वर से

किया गया कीर्तन अपने तथा दूसरों के भी कानों को पवित्र कर देता है। अतः भक्तजन गौरांग प्रभु आदि ने उच्च स्वर से कीर्तन करने को श्रेष्ठ बताया है।

इसलिए ऊंचे स्वर से कीर्तन करने से भगवत प्राप्ति होती है।

रविवार, 1 सितंबर 2024

कलयुग के कोप से कैसे बचें?

                    कलयुग के कोप से कैसे बचें ?


कलिकाल में भगवान के नाम की तरह गुरुदेव का नाम, भक्तों का नाम जपना भी मंगलकारी है। नाम की महिमा सदा थी और आगे भी रहेगी,पर कलयुग में विशेष महत्व हैं। भगवान का नाम, और भगवान आप सभी का मंगल करें। गुरुत्व का बोध हो।

जो लोग कलियुग की निंदा करते हैं और उन दोषों को अपने में रखकर दोष कलियुग को देते हैं ,वे कलियुग के दोषों से बच नहीं सकते।

भगवान के नाम, रूप, लीला, धाम सभी मंगलकारी हैं। जंहा- जहां जो-जो लोग भगवान के आश्रय स्थल हैं वहां मंगल कल्याण की प्राप्ति होती है।

अतः कलयुग के कोप से बचने का एकमात्र उपाय है जितना हो सके भगवान के नाम का जाप करो।मन में करो चाहे उच्च स्वर में करो।

दादा गुरु भक्तमाली के श्री मुख से परमार्थ के पत्र पुष्प में से 

।।जय श्री राधे।।

बुधवार, 14 अगस्त 2024

इंसान को चिंता से मुक्ति कैसे मिले?

                  इंसान को चिंता से मुक्ति कैसे मिले? 

मन का कार्य मनन करना, चिंतन करना वह बिना मनन चिंतन के एक पल भी नहीं रह सकता और इसको चिंतन मनन करने का अभ्यास है। तो इसको चिंतन मनन कराओ लेकिन असत नहीं सत् । जो आनंद की उत्पत्ति होती है वह भगवान के नाम में, भगवान के लीला गायन में मन को लगाओ। इसीलिए हम कहते हैं कि हर समय राधा राधा राधा नाम जपो,अगर इसको खाली छोड़ दिया अगर इसको काम में नहीं लगाया तो यह पटक देगा, यह एक भूत जैसा है। एक आदमी ने भूत सिद्ध किया अपने गुर के द्वारा दिए गए मंत्र से, भूत सिद्ध हो गया अब वह पीछे पड़ गया कि मुझे काम दो, अगर खाली छोड़ दिया तो मैं आपको मार दूंगा। अब आदमी परेशान हो गया कि मैं उसको जो भी काम देता हूं वह झट से पूरा कर देता है।अब आदमी अपने गुरु के पास गया की गुरुदेव मैं इसे कोई काम नहीं दूंगा तो यह मुझे मार देगा। तो गुरु ने एक डंडा दिया और कहां इस जमीन में गाढ़ दो,और उसको बोलो जब तक मैं कोई काम नहीं देता तुम इसके ऊपर नीचे चक्कर लगाओ, जब कोई कार्य होगा तो हम बता देंगे। नहीं तो तब तक तुम इस डंडे पर चढ़ उतर, जब कोई काम होगा तो बता देंगे। ऐसे ही मन को भूत समझो यह पटक देगा अगर इसे खाली छोड़ दिया, इसलिए इसे हर समय नाम सिमरन में लगाकर रखो जो भी नाम आपको पसंद हो। देखो पटक दिया कितनी जेले भरी पड़ी है। समस्त शोकों का धाम कामना है। इनका जब तक त्याग नहीं होगा तब तक मन को विश्राम नहीं और इनका त्याग होता है नाम जप से। जो भी नाम प्रिय हो राधा नाम, राम नाम, शिव नाम जो भी प्रिय हो उसका जप करो, मन आनंदित हो जाएगा। बचपन से लेकर जितनी आयु आपकी है तब तक आपने जो भी चाहा वह अपने भोग पर आपको कभी तृप्ति नहीं मिली और वैसे ही सभी कामनाएं सभी वैसे की वैसी ही और इसी तरीके से पूरा जीवन चला जाए, तो सोचो कितने घाटे की बात है की इतना बढ़िया जीवन और हमारी कमाई कुछ भी नहीं है। जीवन की असली कमाई ईश्वर की प्राप्ति में है। इसलिए अभी भी समय है असली आनंद उठाओ और जो भी नाम प्रिय हो, उसका हर समय जप करो।

प्रेमानंद जी महाराज जी के श्री मुख से🙂

शुक्रवार, 2 अगस्त 2024

क्या आप धाम में वास चाहते हैं पर-----

  जिनका धाम के प्रति प्रेम है जिन्हें धाम की आशा है वह बाहर-------



जिनका धाम के प्रति प्रेम है जिन्हें धाम की आशा है वह बाहर रहकर भी धाम के प्रेमी,धाम के वासी हैं। मंदिरों के ध्यान स्मरण से धमवास का फल मिलता हैं। श्रीधाम का स्मरण करके श्री बिहारी जी को, श्री राधाबल्लभ को, श्री गोपेश्वर जी को, यमुना जी को नमस्कार करने से वृंदावन वास का लाभ मिलेगा। भगवान का धाम सबको अपनी और नित्य आकर्षित करता है। जो भी दर्शनार्थ आते हैं उनके मन में यही होता है कि मुझे यहां निवास मिल जाए तो उत्तम है। श्री धाम का दर्शन करके यहां के मंदिरों का श्री विग्रह का, तीर्थ का, धाम के संतों का यथा समय सांय प्रातः स्मरण ध्यान करने से तीर्थवास का फल प्राप्त होता है। सब प्रकार से धाम में आनंद है जो सन्मार्ग में है वह श्री धाम में है। जो कृष्ण सेवा चिंतन में निमग्न है वह धाम में है। नाम जापी सदा धाम में है। श्री कृष्ण शरणम ममः इस शरणागति मंत्र का सदा स्मरण करने वाला धाम में है। जो कुमार्ग में है वह धाम से बाहर है। विषयाक्त माया मोहित मनुष्य संसार में है। धाम में बुद्धि नहीं रमी है तो धाम में रहकर भी धाम में नहीं है। कृष्ण विमुख धाम से बाहर है। 

दादा गुरु भक्त माली श्री गणेशदास जी महाराज के श्री मुख से, परमार्थ के पत्र पुष्प में से लिया गया

गुरुवार, 1 अगस्त 2024

हम सभी का कल्याण इस बात में हैं कि ----

             हम सभी का कल्याण इस बात में हैं कि ----


हम लोगों का कल्याण इस बात में है कि हम संत भगवान की कृपा से हम निरंतर भगवान का स्मरण करें, उन्हें कभी ना भूले। गीता अध्याय 8 शलोक 14 में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन जो अनन्य भाव से लगातार मेरा स्मरण करता है मैं ऐसे योगी के लिए सुलभ हूं, भगवान के इस वाक्य पर जिसे विश्वास है वह सर्वत्र अपने प्रभु को मानता है। जागृत अवस्था में स्मरण संभव है, परंतु सोते समय स्मरण असंभव है, जागते हुए जो कार्य किया जाता है। प्राय: वही स्वप्न में दिखाई देता है। सोने के पहले स्मरण करते-करते सोना और जाकर स्मरण करना, इसके बीच का सोने का समय भी स्मरण में माना जाएगा। जीव के सच्चे सगे संबंधी भगवान ही हैं ईश्वर दयालू है कभी भी जीवो पर कुपित नहीं होते हैं।  जैसे गर्भ के समय बालक माता के पेट में हाथ पैर चलाता है माता को कष्ट होता है परंतु माता उस बालक पर कुपित नहीं होती है, इसी प्रकार प्रभु भी आस्तिक नास्तिक सभी जीवो के साथ रहते हैं। नरक में भी साथ नहीं छोड़ते हैं अंतर्यामी रूप से प्रभु सर्वत्र जीव के साथ रहते हैं अगर बालक कुएं में गिर पड़े तो उसकी माता जोर-जोर से रोकर पुकार करेगी लोगों से कहेगी कि बालक को कुएं से निकालो पर स्वय नहीं कूदेगी।भगवान ऐसे दयालु हैं कि अघासुर अजगर के मुख में जब सब ग्वाल बाल घुस गए तो भगवान उनकी रक्षा के लिए स्वयं भी अघासुर के मुंह में प्रविष्ट हो गए, ऐसे दयालु प्रभु आप सबों का सर्वदा मंगल करें।

 जय श्री राम जय घनश्याम 

दादा गुरु श्री गणेश दास जी भक्तमाली जी महाराज जी के श्री मुख से।

रविवार, 21 जुलाई 2024

भक्ति की इच्छा कैसे बढ़े?

                      भक्ति की इच्छा कैसे बढ़े?


सद्गुरु शरणागत को तिलक, कंठी, मंत्र आदि देकर उपासना मार्ग पर चलना सीखाते हैं फिर चलकर प्रभु के निकट पहुंचा देते हैं। गुरुदेव की प्राप्ति श्री कृष्ण की प्राप्ति है। गुरु वही है जो भक्त को भक्ति का उपदेश दे। लोक धर्म में कपट छोड़कर सत्य, दया, क्षमा, उदारता का जनता के साथ व्यवहार करना सिखावे। सभी देवों को श्री कृष्ण का अंग अर्थात भक्ति मान उनका भी आदर करना सिखाए। वही सदगुरु देव है। बिना भक्तमाल भक्ति रूप अती दूर है। हमारे सदगुरु का मुख्य उद्देश्य है भक्तमाल में लोक शिक्षा का भी वर्णन है। सदगुरु देव में श्रद्धा बढ़ाना, किसी भी कारण से श्रद्धा कम ना हो।जब प्रेम में कपट या स्वार्थ का लेश होता है। तब प्रेम घटने लगता है। निस्वार्थ सच्चा प्रेम दिन दिन बढ़ता रहता है। गुरुदेव में श्रद्धा बढ़ेगी तो साथ ही साथ श्री कृष्णा में भक्ति बढ़ेगी। भक्त,भक्ति, भगवान और गुरुदेव यह चारों एक हैं। एक का हृदय में निवास हो जाए तो चारों की प्राप्ति हो जाएगी। बार-बार सत्संग में उपदेशों का श्रवण करने से भक्ति करने की इच्छा बढ़ती ही जाएगी।

स्वामी विवेकानंद जी पर उनके गुरु की कृपा हुई तो वह नरेंद्र से स्वामी विवेकानंद हो गए।

        स्वामी विवेकानंद जी पर उनके गुरु की कृपा हुई तो वह नरेंद्र से स्वामी विवेकानंद हो गए।


विवेकानंद जी का नाम नरेंद्र था पूरे नास्तिक थे। वह कहते थे कि पत्थर की जड़ मूर्तियों में चैतन्य आत्मा को लगाने से क्या लाभ। श्री रामकृष्ण देव परमहंस को पागल समझते थे। किसी दिन मन में आया कि देखे उसे पागल को। जब परमहंस जी के पास आए तो उन्होंने कहा– क्यों नरेंद्र! तुम इतनी देर से आए? नरेंद्र के मन में आया इन्हें मेरा नाम कैसे पता चला। इन्होंने कहा कि पत्थर की मूर्ति के सामने मां मां करने से क्या लाभ? परमहंस जी ने कहा बेटा! यह साक्षात माता है, प्यार करती हैं, बातचीत करती हैं। कृपा करके परमहंस ने कहा तुम माता जी के सामने बैठ ध्यान लगाकर मां पुकारो। नरेंद्र ने ऐसा ही किया। इस बालक पर दया करो। परमहंस की प्रार्थना पर माता ने ध्यान में दर्शन दिया सर पर हाथ रखा। उसी पल नरेंद्र के मन में विवेक की जागृति हो गई और गुरु चरण रज के सिर पर लगाते ही विवेकानंद हो गए। हाय-हाय! कर पछताने लगे कि गुरु चरणों से अलग रहकर कितना समय व्यर्थ गया।

शरणागति का क्या स्वरूप होता है।

              शरणागति का क्या स्वरूप होता है।

भूल जान यह जीव का स्वभाव है। कन्या अपने पति का वरण कर लेती है तो उसे दृढ़ विश्वास होता है कि यह मेरे पति हैं। बार-बार वह ना कहे तो कोई आपत्ति नहीं है। पर जीव शरणागत होकर भी दृढ़ विश्वास नहीं कर पाता है संसार के संबंध अपनी और खींचते हैं अतः उसे बार-बार शरणागति का स्मरण करना चाहिए। मन को नाम, रूप, लीला में अनन्य भाव से लगा लिया जाए तो उस भक्त का स्मरण भगवान अपने आप करते हैं। भक्त बार-बार ना भी कहे कि मैं शरण में हूं तो कोई आपत्ति नहीं है। पर नए साधक को बार-बार स्मरण करना ही है। जब तक जीव भगवान की शरण में नहीं जाएगा, तब तक उसे शांति नहीं मिलेगी। आज नहीं तो आगे घूम फिर कर भगवान के पास अवश्य पहुंचेंगे। इस प्रकार पहुंचने में विलंब होगा अनेक बार 84 लाख योनियों में भटकना पड़ेगा अतः प्रयत्न करके साधन को भजन करके शीघ्र से शीघ्र अपने प्रभु के पास पहुंच जाना चाहिए। इससे वह प्रभु अति प्रसन्न होंगे। जीव के विमुख होने पर ईश्वर को कष्ट होता है।

 आवत निकट हंसहि प्रभु भाजत रुदन कराही 

जब  भक्त निकट आता है तो भगवान प्रसन्न होकर हंसने लगते हैं भगवान से दूर भागता है तो बाल गोविंद भगवान रोने लगते हैं। इसलिए इष्ट को प्रसन्न रखने के लिए प्रभु की ओर जाना चाहिए भगवान की ओर पीठ करके उनसे अलग नहीं जाना चाहिए।

दादा गुरु भक्त माली जी महाराज के श्री मुख से परमार्थ के पत्र पुष्प पुस्तक में से

बुधवार, 17 जुलाई 2024

भगवान की प्राप्ति का उपाय

                   भगवान की प्राप्ति का उपाय

                  परमार्थ के पत्र पुष्प में से


रामो विग्रहवान धर्मः।’ श्री राम धर्म की मूर्ति है। 

             श्री राम जय राम जय जय राम 

यह भगवन्न नाम है और वैदिक मंत्र भी है। कम से कम 22 बार जप करने वाला धन्य है।राम नाम से बढ़कर दूसरा कोई नाम नहीं है। इसका जापक भक्ति मुक्ति आदि अभीष्ट पदार्थ पता है। भगवत प्राप्ति का उपाय क्या है इसे जीव नहीं जानता, स्वयं ही भगवान आकर बताते है।

सदा जप ,तप ,अनुष्ठान में निमग्न रहकर विश्व कल्याण की मांग करनी चाहिए 

मन में नाम लेने से मुक्ति प्राप्त होती हैं। और वाणी द्वारा उच्च स्वर से  कीर्तन करने वाले को भक्ति प्राप्त होती है। उच्च स्वर से किया गया कीर्तन अपने साथ दूसरों के भी कानों को पवित्र कर देता हैं। अतः भक्तजन गौरांग प्रभु आदि ने उच्च स्वर से कीर्तन करने को ही श्रेष्ठ बताया।

दादा गुरु भक्त माली जी  के श्री मुख से, परमार्थ के पत्र पुष्प में से

पापों का नाश कैसे हो?

                       पापों का नाश कैसे हो?
                     परमार्थ के पत्र पुष्प से



दुष्ट चित्त से भी स्मरण किया गया भगवान का नाम पापों का नाश करता है। जैसे अग्नि अनजाने में भी स्पर्श करने पर जला देती है। अतः हरि यह नाम हैं।सभी के पाप तापों को हरते है।अपने श्रवण कीर्तन द्वारा भक्तों के मन को हरते हैं। अतः उसका नाम हरा हैं जो कृष्ण के मन को भी हरता है।इसलिए ’हरे राम हरे राम’ मंत्र में  प्रयुक्त हरे का अर्थ है हे राधे । ’कृष’ आकर्षण करने वाला ’ण’ आनंददायक हैं।
रा का उच्चारण करने से पाप बाहर निकल जाते हैं।फिर का उच्चारण करने से कपाट बंद हो जाते हैं,फिर मुख के बंद हो जाने पर पाप प्रवेश नहीं कर पाते हैं। अतः  हरे राम यह महामंत्र विधि ,अवधि जैसे भी जपा जाए कलियुग में विशेष फलप्रद है।

(दादा गुरु भक्तमाली जी महाराज के श्री मुख से परमार्थ के पत्र पुष्प से)

रविवार, 30 जून 2024

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मंगलवार, 28 मई 2024

तुलसीदास जी को वृन्दावन में राम दर्शन

                   तुलसीदास जी को वृन्दावन में राम दर्शन 


तुलसीदास जी जब वृन्दावन आये। तुलसीदास जी जानते थे राम ही कृष्ण है,और कृष्ण ही राम है। वृन्दावन में सभी भक्त जन राधे-राधे बोलते है। तुलसीदास जी सोच रहे है कोई तो राम राम कहेगा। लेकिन कोई नही बोलता। जहाँ से देखो सिर्फ एक आवाज राधे राधे। श्री राधे-श्री राधे।

क्या यहाँ राम जी से बैर है लोगो का। देखिये तब कितना सुन्दर उनके मुख से निकला-

वृन्दावन ब्रजभूमि में कहाँ राम सो बेर

राधा राधा रटत हैं आक ढ़ाक अरू खैर।

जब तुलसीदास ज्ञानगुदड़ी में विराजमान श्रीमदनमोहन जी का दर्शन कर रहे थे। श्रीनाभाजी एवं अनेक वैष्णव इनके साथ में थे।

इन्होंने जब श्रीमदनमोहन जी को दण्डवत प्रणाम किया तो परशुरामदास नाम के पुजारी ने व्यंग किया-

अपने अपने इष्टको, नमन करे सब कोय।

बिना इष्ट के परशुराम नवै सो मूरख होय।।

श्रीगोस्वामीजी के मन में श्रीराम—कृष्ण में कोई भेदभाव नहीं था, परन्तु पुजारी के कटाक्ष के कारण आपने हाथ जोड़कर श्रीठाकुरजी से कहा। हे ठाकुर जी! हे राम जी! मैं जनता हूँ की आप ही राम हो आप ही कृष्ण हो लेकिन आज आपके भक्त में मन में भेद आ गया है।

आपको राम बनने में कितनी देर लगेगी आप राम बन जाइये ना!

कहा कहों छवि आज की, भले बने हो नाथ।

तुलसी मस्तक नवत है, धनुष बाण लो हाथ।।

ये मन की बात बिहारी जी जान गए और फिर देखिये क्या हुआ-

कित मुरली कित चन्द्रिका, कित गोपिन के साथ।

अपने जन के कारणे, कृष्ण भये रघुनाथ।।

देखिये कहाँ तो कृष्ण जी बांसुरी लेके खड़े होते है गोपियों और श्री राधा रानी के साथ लेकिन आज भक्त की पुकार पर कृष्ण जी साक्षात् रघुनाथ बन गए है। और हाथ में धनुष बाण ले लिए है।

।।जय श्री राधे।।

तुलसीदास जब वृन्दावन गए,और खीर के प्रसाद के लिए उनके पास कोई भी पात्र नहीं था तो उन्होंने किसमें खीर खानी चाही?

                         तुलसीदास जब वृन्दावन गए,और खीर के प्रसाद के लिए उनके पास कोई भी पात्र नहीं था तो उन्होंने किसमें खीर खानी चाही?


तुलसीदास उस समय वृन्दावन में ही ठहरे थे। वे भंडारों में विशेष रुचि नहीं रखते थे लेकिन भगवान शंकर ने गोस्वामीजी को नाभा जी के भंडारे में जाने की आंतरिक प्रेरणा दी।

तुलसीदास जी ने भगवान शंकर की आज्ञा का पालन किया और नाभा जी के भंडारे में जाने के लिए चल दिए। लेकिन थोड़ी देर हो गई। जब गोस्वामी जी वह पहुंचे तो वह संतो की बहुत भीड़ थी उनको कही बैठने की जगह नहीं मिली तो जहा संतो के जूते-चप्पल(पनहियाँ) पड़े थे वो वही ही बैठ गए। अब सभी संत जान भंडारे का आनंद ले रहे थे और अपने अपने पात्र साथ लए थे जिसमे प्रशाद डलवा रहे थे। आज भी वृन्दावन की रसिक संत भंडारे में अपने-अपने पात्र लेकर जाते है। तुलसीदास जी कोई पात्र(बर्तन) नही लाये।

अब भंडारा भी था तो खीर का था क्योकि हमारे बांकेबिहारी को खीर बहुत पसंद है आज भी राजभोग में 12 महीने खीर का ही भोग लगता है, अब जो प्रसाद बाँट रहा था वो गोस्वामी जी के पास आये और कहा बाबा -तेरो पात्र कहा है तेरो बर्तन कहा है। बर्तन हो तो कुछ जवाब दे। उसने कहा की बाबा जाओ कोई बर्तन लेकर आओ, मै किसमें तोहे खीर दूँ। इतना कह कर वह चला गया थोड़ी देर बाद फिर आया तो देखा बाबा जी वैसे ही बैठे है ,फिर उसने कह बाबा मैंने तुमसे कहा था की बर्तन ले आओ मै तोहे किसमें खीर दूँ ?


इतना सुनते ही तुलसी दास मुस्कराने लगे और वही पास में एक संत का जूता पड़ा था वो जूता परोसने वाले के सामने कर दिया और कहा इसमें खीर डाल दो।

तो वो परोसने वाला तो क्रोधित को उठा बोला – बाबा! पागल होए गयो है का-इसमें खीर लोगे? उलटी सीधी सुनाने लगा संतो में हल चल मच गई श्री नाभा जी वहाँ दौड़े आये।

तो गोस्वामी जी के आँखों में आशू भर आये और कहा की ये जूता संत का है और वो भी वृन्दावन के रसिक संत का , और इस जूते में ब्रजरज पड़ी हुई है और ब्रजरज जब खीर के साथ अंदर जाएगी तो मेरा अंतःकरण पवित्र हो जायेगा।

जैसे ही सबने गोस्वामी जी की ये बात सुनी तो उनके चरणों पर गिर पड़े। सर्व वन्ध महान संत के ऐसे दैन्य को देखकर सब संत मंडली अवाक् रह गई सबने उठकर प्रणाम किया। उस परोसने वाले ने तो शतवार क्षमा प्रार्थना की।

ऐसे है तुलसीदास जी महाराज।(तुलसीदास और श्री राम मिलन कथा)

धन्य है वृन्दावन , धन्य है वह रज जहा पर हमारे प्यारे और प्यारी जू के चरण पड़े है, ये भूमि राधारानी की भूमि है यदि हम वृन्दावन में प्रवेश करते है तो समझ लेना की ये राधारानी की कृपा है जो हमें वृन्दावन आने का न्यौता मिला।


पूज्य डोंगरे जी महाराज जी की एक दिव्यांग बालक पर कृपा

पूज्य डोंगरे जी महाराज जी की एक दिव्यांग बालक पर कृपा 

पूज्य डोंगरे जी महाराज भागलपुर मध्यप्रदेश में भागवत कथा कर रहे थे सन् १९७१ में , वहाँ माता रुक्मणी बाई जी की संस्था थी जो गरीब असहाय, विधवा और पीड़ित महिलाओं को आश्रय देकर भजन कीर्तन प्रभु स्मरण में लगाती थी। पूज्य डोंगरे जी महाराज या तो स्वयं बनाकर पाते थे या कभी किसी गरीब वात्सल्यमयी माँ रूपी जन से।  वही जब एक दिवस कथा का विश्राम हुआ तो एक गरीब माँ ने आग्रह किया कि आज इस माँ के हाथ से बनाया हुआ पा लीजिए।  पूज्य डोंगरे जी महाराज किसी भी स्त्री को दृष्टि ऊपर कर के नहीं देखते थे ; हमेशा चरणों में दृष्टि रखते थे और कथा भी नीचे दृष्टि रख कर ही करते थे ।
माता का अधिक आग्रह और वात्सल्य देखकर दया कृपा भाव से पूज्य महाराज जी ने मंच से ही कहा कि अपने बालक के हाथों भेज दो यहाँ । माता का बालक दिव्यांग था । उसकी बाईं टांग  बचपन से ही पोलियो ग्रस्त थी और बालक की उम्र ११-१२ वर्ष थी और इसी लाइलाज रोग और ग़रीबी के कारण ही उसके पति ने उसे छोड़ दिया था और वे पूज्य रुक्मणी बाई जी के आश्रम में ही रह रही थी । माता ने रोते हुए कहा कि महाराज जी इसकी टाँग ख़राब है ; ये घिसट घिसट कर आयेगा तो भोजन प्रशाद गिरा देगा। पूज्य महाराज जी ने बालक को अपनी और आने का संकेत किया और उसको घिसटता देखकर पूज्य महाराज जी को दया आ गई और जैसे पूज्य डोंगरे जी महाराज एक बालकृष्ण का विग्रह सामने रखकर ही कथा करते थे उसकी और देखकर ही तो उस बालक को वही रोक कर कहा कि तेरी माता तेरी सारी सेवा करती है गोद में ले कर । अगर तू मुझे वचन दे कि तू भी अंतिम समय तक ऐसे ही सेवा करेगा तो इस बालकृष्ण के विग्रह की और देखकर शपथ कर। उस बालक ने रोते हुए कहा कि मैं अपनी माँ की हमेशा सेवा करूँगा और और जैसे ही पूज्य महाराज जी ने कहा कि अब खड़ा हो कर ये भोजन प्रशाद देने आ तो तभी उसमें चलने का सामर्थ्य आ गया और रोग हमेशा के लिए दूर हो गया और सुना ये भी जाता है कि बाद में उस आश्रम की उसी बालक ने ईमानदारी से देखभाल  की ।
ये आश्रम वही है जिसके लिये पूज्य राधा बाबा ने माता रुक्मिणी को आश्रम के निर्माण में आर्थिक सहयोग के लिय पूज्य डोंगरे जी महाराज जी की कथा कराने को कहा था और प्रथम दिवस ही दानपेटी में 24 लाख 90 या 91 हज़ार रुपये गुप्त दान के रूप  में प्राप्त हुए थे ।

सोमवार, 27 मई 2024

भगवान को भेंट (भगवान को चढ़ावे की जरूरत नहीं होती वे तो केवल––)

  भगवान को भेंट (भगवान को चढ़ावे की जरूरत नहीं होती वे तो केवल––)


पुरानी बात है एक सेठ के पास एक व्यक्ति काम करता था। सेठ उस व्यक्ति पर बहुत विश्वास करता था। जो भी जरुरी काम हो सेठ हमेशा उसी व्यक्ति से कहता था। वो व्यक्ति भगवान का बहुत बड़ा भक्त था l वह सदा भगवान के चिंतन भजन कीर्तन स्मरण सत्संग आदि का लाभ लेता रहता था।

          एक दिन उस ने सेठ से श्री जगन्नाथ धाम यात्रा करने के लिए कुछ दिन की छुट्टी मांगी सेठ ने उसे छुट्टी देते हुए कहा- भाई ! "मैं तो हूं संसारी आदमी हमेशा व्यापार के काम में व्यस्त रहता हूं जिसके कारण कभी तीर्थ गमन का लाभ नहीं ले पाता। तुम जा ही रहे हो तो यह लो 100 रुपए मेरी ओर से श्री जगन्नाथ प्रभु के चरणों में समर्पित कर देना।" भक्त सेठ से सौ रुपए लेकर श्री जगन्नाथ धाम यात्रा पर निकल गया।

         कई दिन की पैदल यात्रा करने के बाद वह श्री जगन्नाथ पुरी पहुंचा। मंदिर की ओर प्रस्थान करते समय उसने रास्ते में देखा कि बहुत सारे संत, भक्त जन, वैष्णव जन, हरि नाम संकीर्तन बड़ी मस्ती में कर रहे हैं। सभी की आंखों से अश्रु धारा बह रही है। जोर-जोर से हरि बोल, हरि बोल गूंज रहा है। संकीर्तन में बहुत आनंद आ रहा था। भक्त भी वहीं रुक कर हरिनाम संकीर्तन का आनंद लेने लगा। 

             फिर उसने देखा कि संकीर्तन करने वाले भक्तजन इतनी देर से संकीर्तन करने के कारण उनके होंठ सूखे हुए हैं वह दिखने में कुछ भूखे भी प्रतीत हो रहे हैं। उसने सोचा क्यों ना सेठ के सौ रुपए से इन भक्तों को भोजन करा दूँ। 

              उसने उन सभी को उन सौ रुपए में से भोजन की व्यवस्था कर दी। सबको भोजन कराने में उसे कुल 98 रुपए खर्च करने पड़े। उसके पास दो रुपए बच गए उसने सोचा चलो अच्छा हुआ दो रुपए जगन्नाथ जी के चरणों में सेठ के नाम से चढ़ा दूंगा l

           जब सेठ पूछेगा तो मैं कहूंगा पैसे चढ़ा दिए। सेठ यह तो नहीं कहेगा 100 रुपए चढ़ाए। सेठ पूछेगा पैसे चढ़ा दिए मैं बोल दूंगा कि, पैसे चढ़ा दिए। झूठ भी नहीं होगा और काम भी हो जाएगा।

         भक्त ने श्री जगन्नाथ जी के दर्शनों के लिए मंदिर में प्रवेश किया श्री जगन्नाथ जी की छवि को निहारते हुए अपने हृदय में उनको विराजमान कराया। अंत में उसने सेठ के दो रुपए श्री जगन्नाथ जी के चरणो में चढ़ा दिए। और बोला यह दो रुपए सेठ ने भेजे हैं।

        उसी रात सेठ के पास स्वप्न में श्री जगन्नाथ जी आए आशीर्वाद दिया और बोले सेठ तुम्हारे 98 रुपए मुझे मिल गए हैं यह कहकर श्री जगन्नाथ जी अंतर्ध्यान हो गए। सेठ जाग गया सोचने लगा मेरा नौकर तौ बड़ा ईमानदार है,

         पर अचानक उसे क्या जरुरत पड़ गई थी उसने दो रुपए भगवान को कम चढ़ाए ? उसने दो रुपए का क्या खा लिया ? उसे ऐसी क्या जरूरत पड़ी ? ऐसा विचार सेठ करता रहा।

         काफी दिन बीतने के बाद भक्त वापस आया और सेठ के पास पहुंचा। सेठ ने कहा कि मेरे पैसे जगन्नाथ जी को चढ़ा दिए थे  ? भक्त बोला हां मैंने पैसे चढ़ा दिए। सेठ ने कहा पर तुमने 98 रुपए क्यों चढ़ाए दो रुपए किस काम में प्रयोग किए। 

        तब भक्त ने सारी बात बताई की उसने 98 रुपए से संतो को भोजन करा दिया था। और ठाकुरजी को सिर्फ दो रुपए चढ़ाये थे। सेठ सारी बात समझ गया व बड़ा खुश हुआ तथा भक्त के चरणों में गिर पड़ा और बोला- "आप धन्य हो आपकी वजह से मुझे श्री जगन्नाथ जी के दर्शन यहीं बैठे-बैठे हो गए l

     भगवान को आपके धन की कोई आवश्यकता नहीं है। भगवान को वह 98 रुपए स्वीकार है जो जीव मात्र की सेवा में खर्च किए गए और उस दो रुपए का कोई महत्व नहीं जो उनके चरणों में नगद चढ़ाए गए।

मेरी निजी सोच है कि भगवान को चढ़ावे की जरूरत नही होती। सच्चे मन से किसी जरूरतमंद की जरूरत को पूरा कर देना भी भगवान को भेंट चढ़ाने से भी कहीं ज्यादा अच्छा होता है ! मैं मानता हूं कि हम उस परमात्मा को क्या दे सकते हैं जिसके दर पर हम ही भिखारी हैं।

।।जय श्री राधे।।


शनिवार, 11 मई 2024

कलयुग के दोषों से बचा जा सकता है।

                कलयुग के दोषों से बचा जा सकता है।


कलयुग– के– दोषों– से –बचा– जा– सकता– है।


राम नाम का आश्रय लेने वाले ही कलयुग के दोषों से बचते हैं अन्यथा बड़े से बडा भी कोई बच नहीं सकता है। एक संत सुदामा कुटी में रहते हैं उन्होंने बताया कि मेरे सामने कलयुग आया और उसने यह बात कही। इस दिन से अब मैं समय से राम मंत्र जपता हूं भगवान का नाम, रूप, लीला, धाम यह चारों समान है। इनमें एकता रहती है। इनमें से एक का भी आश्रय यदि कोई लेता है तो उसका कल्याण हो जाता है। इन चारों में से नाम सबसे ज्यादा सुलभ है। नाम लेने में कोई विधि विधान नहीं, अपवित्रता पवित्रता की भी आवश्यकता नहीं। यदि छल,कपट, ईर्ष्या, द्वेष आदि को छोड़कर नाम लेता है तो उसका अवश्य कल्याण हो जाता है। प्रभु के नाम में विश्वास रखकर उसके अभ्यास को बढ़ाना चाहिए। उसके बदले में दूसरी कामना नहीं करनी चाहिए। हमारे भीतर बाहर की सारी बातों को परमात्मा जानता है। हमारे ऊपर प्रभु कृपा है स्वयं अनुभव करना चाहिए।

।।जय श्री राधे।।

दादा गुरु भक्तमाली श्री गणेशदास जी महाराज के श्री मुख से, परमार्थ के पुत्र पुष्प से लिया गया।

जन्म जन्मांतर के अशुभ संस्कारों को मिटाने के लिए

      जन्म जन्मांतर के अशुभ संस्कारों को मिटाने के लिए


जन्म जन्मांतर- के- अशुभ- संस्कारों- को- मिटाने- के- लिए

जन्म जन्मांतर के अशुभ संस्कारों को मिटाने के लिए निरंतर नाम जप आदि साधन आवश्यक है। श्रेष्ठ नाम स्मरण ही है। दूसरे साधनों की योग्य हम नहीं हैं। आवश्यक कामकाज करने के बाद या करते-करते भी नाम जप का अभ्यास बढ़ाना चाहिए। नाम में प्रेम होना और भगवान में प्रेम होना एक ही बात है। नाम जप के साथ ही यह नहीं सोचना चाहिए कि हमें सिद्धि नही मिली, कोई अनुभव नहीं हो रहे हैं   नाम जप में एकाग्रता के बढ़ जाने पर विषयों से वैराग्य हो जाएगा, अंत:करण यानी मन, बुद्धि, चित् अहंकार की शुद्ध हो जाएगी। तब स्वयं दिव्य अनुभव होने लग जाएंगे। नाम जप को ध्यानपूर्वक करना चाहिए या बिना ध्यान के? ऐसा कोई प्रश्न करें तो उसका उत्तर यह है कि ध्यान सहित नाम का जप अतिश्रेष्ठ है, परंतु आरंभ में यदि ध्यान सहित नाम जप नहीं बने तो बिना ध्यान के भी नाम जप करना चाहिए पर जप करते समय मन को इधर-उधर अनिष्ट विषयों में नहीं जाना चाहिए। जाए तो रोकना चाहिए। लीला चिंतन या रूप चिंतन, शोभा चिंतन, धाम चिंतन जो भी संभव हो करना चाहिए। उसे नाम जप के साथ करना चाहिए। कीर्तन करते समय गाने में मन को एकाग्र करना चाहिए। नाम के अर्थ अथवा लिखे हुए नाम में भी मन लगाना चाहिए। कृपा करके जीव के ऊपर भगवान ही नाम के रुप में प्रकट होते हैं। अपने नाम जप का प्रचार ना करके उसे गुप्त रखना चाहिए।किसी साधक को नाम जप में लगाने के लिए अपना नाम जप भजन कहा, बताया जा सकता है। अहंकार ना हो, बड़प्पन ना आवे, इसका ध्यान रखना चाहिए।

।। जय श्री राधे।।

दादा गुरु भक्त माली श्री गणेश दास जी महाराज के श्री मुख से परमार्थ के पत्र पुष्प में से लिया गया।

गुरुवार, 9 मई 2024

रवि पंचक जाके नहीं , ताहि चतुर्थी नाहिं। का अर्थ

 गोस्वामी तुलसीदासजी ने एक बड़े मजे की बात कही है -

रवि- पंचक- जाके- नहीं , ताहि- चतुर्थी- नाहिं। का अर्थ


कृपया बहुत ध्यान से पढ़े एवं इन लाइनों का भावार्थ समझने की कोशिश करे-


" रवि पंचक जाके नहीं , ताहि चतुर्थी नाहिं।

तेहि सप्तक घेरे रहे , कबहुँ तृतीया नाहिं।।"


गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं कि जिसको रवि पंचक नहीं है , उसको चतुर्थी नहीं आयेगी। उसको सप्तक घेरकर रखेगा और उसके जीवन में तृतीया नहीं आयेगी। मतलब क्या हुआ ? 

रवि -पंचक का अर्थ होता है - रवि से पाँचवाँ यानि गुरुवार ( रवि , सोम , मंगल , बुद्ध , गुरु ) अर्थात् जिनको गुरु नहीं है , तो सन्त सद्गुरु के अभाव में उसको चतुर्थी नहीं होगी।चतुर्थी यानी बुध ( रवि , सोम , मंगल, बुध ) अर्थात् सुबुद्धि नहीं आयेगी। सुबुद्धि नहीं होने के कारण वह सन्मार्ग पर चल नहीं सकता है। सन्मार्ग पर नहीं चलनेवाले का परिणाम क्या होगा ? ' तेहि सप्तक घेरे रहे ' सप्तक क्या होता है ? शनि ( रवि , सोम मंगल , बुध , बृहस्पति , शुक्र , शनि ) अर्थात् उसको शनि घेरकर रखेगा और ' कबहुँ तृतीया नाहिं।' तृतीया यानी मंगल ( रवि , सोम , मंगल )। उसके जीवन में मंगल नहीं आवेगा । इसलिए अपने जीवन में मंगल चाहते हो , तो संत सद्गुरु की शरण में जाओ ।

।।जय श्री राधे।।

श्रीकृष्ण को "दामोदर" क्यों कहते हैं?

                श्रीकृष्ण को "दामोदर" क्यों कहते हैं?   


श्रीकृष्ण की लीलाओं की भांति उनके नाम भी अनंत हैं। उनमें से ही एक नाम "दामोदर" है जो उन्हें बचपन में दिखाई गयी एक लीला के कारण मिला था। 

ये नाम इसीलिए भी विशिष्ट है क्यूंकि इस बार उन्होंने अपनी माया का प्रयोग असुर पर नहीं अपितु अपनी माता पर ही किया था।

एक बार गोकुल में माता यशोदा दूध को मथ कर माखन निकाल रही थी। उसी समय श्रीकृष्ण वहां आये और दूध पीने की जिद करने लगे। 

उनका मनोहर मुख देखकर वैसे ही माता यशोदा सब कुछ भूल जाती थी। उन्होंने सारा काम छोड़ा और श्रीकृष्ण को स्तनपान करने लगी। वो ये भूल गयी कि उन्होंने अंगीठी पर दूध गर्म करने रखा है।

दूध पिलाते हुए अचानक उन्हें याद आया कि अंगीठी पर रखा दूध तो उबल गया होगा। ये सोच कर उन्होंने श्रीकृष्ण को वही छोड़ा और दौड़ कर रसोई में गयी। 

उधर श्रीकृष्ण बड़े क्रोधित हुए। माता और पुत्र के मध्य किसी का भी आना उनसे सहन नहीं हुआ। उसी क्रोध में उन्होंने वहां पड़े माखन के सारे घड़ों को फोड़ दिया और प्रेमपूर्वक माखन खाने लगे।

उधर जब यशोदा मैया वापस आयी तो देखा कि सारा घर माखन से भरा हुआ है। जहाँ देखो वही माखन गिरा हुआ दिखाई देता था। 

अब क्रोधित होने की बारी यशोदा मैया की थी। उन्होंने सारा दिन श्रम कर उस माखन को निकला था और श्रीकृष्ण ने उनकी सारी मेहनत पर पानी फेर दिया, ये सोच कर उन्हें भी बड़ा क्रोध आया।

फिर क्या था। उन्होंने एक छड़ी उठाई और श्रीकृष्ण को मारने दौड़ी। तीनों लोकों के स्वामी श्रीकृष्ण उनसे बचने के लिए भागे। 

सभी देवता स्वर्ग में उनकी इस लीला के दर्शन कर रहे थे। माता बड़ी थी और श्रीकृष्ण छोटे, फिर भी वे उन्हें पकड़ नहीं पायी। 

भला प्रभु की इच्छा के बिना उन्हें कौन पकड़ सका है? अंत में वे थक कर वही भूमि पर बैठ गयी।

जब श्रीकृष्ण ने देखा कि लीला कुछ अधिक ही हो गयी है और माता थक चुकी है तो वे स्वयं उनके पास पहुंचे। उन्होंने प्रेम पूर्वक मैया का पसीना पोंछा। 

किन्तु इतना श्रम करने के कारण यशोदा का क्रोध और बढ़ गया था। उन्होंने झट से कन्हैया को पकड़ लिया। 

इसे प्रभु की ही लीला कहेंगे कि उन्होंने समझा कि मैंने कान्हा को पकड़ लिया। वे क्या जानती थी कि उनकी इच्छा के बिना उन्हें कोई पकड़ नहीं सका है।

अब उन्हें दंड क्या दें? उन्होंने सोचा कि कृष्ण को इस ओखली से बांध कर घर का सारा काम निपटा लें। पर श्रीकृष्ण को भला कोई बांध सका है? 

उनकी एक और लीला आरम्भ हुई। यशोदा ने एक रस्सी उठाई और जब उससे श्रीकृष्ण को बांधना चाहा तो वो रस्सी उनके पेट से दो अंगुल छोटी पड़ गयी।

उन्होंने दूसरी रस्सी पहली रस्सी के साथ जोड़ी लेकिन रस्सी फिर दो अंगुल छोटी पड़ गयी। 

अब तो यशोदा ने एक के बाद एक रस्सी जोड़ना आरम्भ किया किन्तु हर बार रस्सी दो अंगुल कम ही पड़ती रही। 

मैया खीजती रही और श्रीकृष्ण हँसते रहे। उनकी ये लीला इसी प्रकार बहुत देर तक चलती रही।

श्रीकृष्ण को ना बंधना था, ना वे बंधे। अंत में यशोदा पुनः थक कर चूर हो गयी किन्तु श्रीकृष्ण के लिए रस्सी दो अंगुल छोटी ही रही। 

अब तो कान्हा ने देखा कि मैया थक गयी हैं। उनका वात्सल्य जागा और उन्होंने अंततः स्वयं ही स्वयं को बांध लिया। यशोदा ने चैन की साँस ली और घर के काम में लग गयी।

श्रीकृष्ण ने सोचा कि माता अपने कर्तव्यपालन में व्यस्त है तो मैं स्वयं के कर्तव्य का वहन कर लूँ। 

वे ओखली को घसीटते हुए आंगन में पहुंचे। वहां अर्जुन के दो विशाल पेड़ लगे हुए थे जो वास्तव में नलकुबेर एवं मणिग्रीव नामक दो गन्धर्व थे जो नारद जी के श्राप के कारण वृक्ष बन गए थे। 

नारद जी ने कहा था कि जब श्रीकृष्ण अवतार होगा तो वे ही उनका उद्धार करेंगे।

आज अंततः उनके उद्धार की बारी आयी। श्रीकृष्ण घुटने के बल चलते हुए दोनों वृक्ष के बीच से निकल गए पर ओखली फंस गयी। 

कन्हैया ने आगे बढ़ने के लिए थोड़ा जोर लगाया और दोनों वृक्ष जड़ सहित उखड कर नीचे आ गिरे। इससे नलकुबेर और मणिग्रीव श्रापमुक्त हो उनके समक्ष करवद्ध खड़े हो गए। 

श्रीकृष्ण ने उन्हें आशीर्वाद दिया और वे अपने धाम पधारे।

उधर वृक्षों के गिरने से धरती डोल उठी थी। माता यशोदा किसी अनिष्ट की आशंका से दौड़ती हुई आंगन में तो देखती है कि दोनो वृक्ष गिरे पड़े हैं और कन्हैया उनके बीच खेल रहे हैं। 

उनकी जान में जान आई। वे दौड़ती हुई गयी और तत्काल कन्हैया की रस्सी को खोल कर उन्हें मुक्त किया। श्रीकृष्ण की एक और लीला का अंत हुआ।

संस्कृत में रस्सी को "दाम" और पेट को "उदर" कहते हैं। इसी कारण रस्सी से पेट द्वारा बंधे होने के कारण श्रीकृष्ण का एक नाम "दामोदर" पड़ गया।

इसी विषय में एक और कथा हमें भविष्य पुराण में मिलती है। एक बार राधा जी उद्यान में बैठी श्रीकृष्ण की प्रतीक्षा कर रही थी। 

श्रीकृष्ण को आने में बड़ा विलम्ब हो गया जिससे राधा की व्यग्रता बहुत बढ़ गयी। खैर बहुत देर के बाद श्रीकृष्ण आये। 

राधा क्रोध में बैठी ही थी। कही श्रीकृष्ण शीघ्र ना चले जाएँ, ये सोच कर उन्होंने उन्हें लताओं की रस्सी से बांध दिया।

उन बांधने के बाद उन्होंने उनसे विलम्ब का कारण पूछा। तब श्रीकृष्ण ने बताया कि आज कार्तिक पर्व के कारण यशोदा मैया ने उन्हें बिना पूजा के आने नहीं दिया, इसी कारण उन्हें विलम्ब हो गया। 

ये सुनकर राधा जी को बड़ा पश्चाताप हुआ। उन्होंने तत्काल उनकी रस्सी खोली और उनसे क्षमा याचना की।

तब श्रीकृष्ण ने हँसते हुए कहा कि "क्षमा याचना कैसी? मैं तो पहले ही तुम्हारे प्रेम से बंधा हुआ हूँ।" 

उनकी ये बात सुनकर राधा जी बड़ी प्रसन्न हुई और रस्सी (दाम) द्वारा पेट (उदर) से बांधने के कारण उन्होंने श्रीकृष्ण को "दामोदर" नाम से सम्बोधित किया। 

तभी से श्रीकृष्ण का एक नाम दामोदर पड़ा। 

जय श्री दामोदर।

सोमवार, 6 मई 2024

भक्ति का क्या प्रभाव होता है?

                       भक्ति का क्या प्रभाव होता है?


एक गृहस्थ कुमार भक्त थे। एक संत ने उन्हें नाम दिया वे भजन करने लगे, सीधे सरल चित् में भक्ति प्रकट हो गई अपने घर का काम करते हुए भजन करते हुए वह सिद्ध हो गए पर उन्हें पता नहीं कि मुझ में कुछ प्रभाव है। उनके समीप जो भी कोई जिस कामना से आता उसकी कामना पूर्ण हो जाती उसका कष्ट मिट जाता। धीरे-धीरे उसकी प्रसिद्ध हो गई, गांव के राजा ने सुना, तो वह फल फूल लेकर आया दर्शन कर भेट देकर उनके समीप बैठा। राजा ने पूछा की भक्ति की क्या महिमा है? भक्त कुम्हार ने कहां  राजन मैं पढ़ा लिखा नहीं हूं, अतः शास्त्रों का मुझे ज्ञान नहीं है। पर अपनी प्रत्यक्ष अनुभव की बात बतलाता हूं। मैं मिट्टी के बर्तन बनाता हूं मेरी स्त्री और बच्चे भी इसी काम में लगे रहते हैं, मिट्टी में मिलाने के लिए घोड़े की लीद की जरूरत पड़ती है। घोड़े की लीद से खाद भी नहीं बनती है, सुखाकर उसे जलाने के काम भी नहीं लिया जाता। आपके यहां बहुत से घोड़े हैं ढेरों लीद पड़ी रहती है। मेरी स्त्री बच्चे उसे उठाने जाते हैं तो आपका नौकर उनको गाली देते हैं, कभी-कभी बच्चों को मारते हैं। इतने पर भी हमारी स्त्री बच्चे लीद लेने जाते हैं, मार गाली सहकर लाते हैं क्योंकि उसके बिना काम नहीं चलता है।अब आप ही देखें कि तुच्छ वस्तु के लिए तिरस्कार सहना पड़ता है और आप स्वयं राजा होकर मेरे घर आए, मुझको प्रणाम करते हैं, भेट दे रहे हैं ,ऐसा क्यों? विचार कर देखें तो यह भक्ति का प्रभाव है।उसके प्रभाव से नीच ऊंचा हो जाता है वंदनीय हो जाता है। मेरे स्त्री पुत्र भक्त नहीं है तो उन्हें तुच्छ लीद के लिए नित्य तिरस्कार सहना पड़ता है। भक्त और अभक्त का अंतर, आदर अनादर इसी में समझ लीजिए की भक्ति की कितनी महिमा है। राजा बहुत प्रभावित हुआ वस्तुत: शास्त्रों के ज्ञाता भी तर्क और अविश्वास में फंस जाते हैं। उन्हें सरल हृदय और भावुकता प्राप्त नहीं होती है इसी से उनमें सच्ची भक्ति का प्रकट नहीं होता है।

जय श्री राधे 

परमार्थ के पत्र पुष्प पुस्तक में से दादा गुरु भक्तमाली जी महाराज के श्री वचन में से एक प्रवचन।

शनिवार, 4 मई 2024

एक श्लोकी रामायण - एक श्लोकी रामायण

 


एक श्लोकी रामायण - एक श्लोकी रामायण

आदौ राम तपोवनादि गमनं, हत्वा मृगं कांचनम् ||

वैधिहरणं जटायुमरणं, सुग्रीवसंभाषणम् || ||

बालिनिर्दलानं समुद्रतरणं, लंकापुरीदाहनम् ||

पश्चाद रावण कुंभकर्ण हननम्, एतद्धि रामायणम् || ||

भावार्थ: -श्रीराम वनवास गये, वहां पर स्वर्ण मृग का वध किया गया || रावण ने सीताजी का हरण किया, जटायु ने रावण के हाथ मारे || श्रीराम और सुग्रीव की मित्रता हुई || श्रीराम ने बालि का वध किया || समुद्र पार किया || लंका का दहन || इसके बाद रावण और कुंभकर्ण का वध हुआ ||


श्री राम वन्दना श्लोक - श्री राम वन्दना श्लोक

लोकाभिरामं रंगरंगधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम् ||

करुण्यरूपं करुणाकरं तं श्रीरामचंद्रं शरणं प्रपद्ये || ||

भावार्थ:- मैं संपूर्ण लोकों में सुंदर तथा रंकक्रीड़ा में धीर, कमलनेत्र, रघुवंश नायक, करुणा के भक्त और करुणा के भंडार रूपी श्रीराम के शरण में हूं ||


श्रीराम गायत्री मंत्र - श्री राम गायत्री मंत्र

ॐ दाशरथये विद्महे जानकी वल्लभाय धी माही || तन्नो रामः प्रचोदयात् ||

भावार्थ:- ॐ, दिसंबर के पुत्र का ध्यान करें, माता सीता की आज्ञा, आज्ञा से मुझे उच्च बुद्धि और शक्ति प्रदान करें, भगवान श्री राम मेरे मस्तिस्क को बुद्धि और शीघ्र से प्रकाशित करें, बुद्धि और तेज प्रदान करें ||

श्रीराम ध्यान मंत्र - श्री राम ध्यान मंत्र

ॐ आपदामप हरतरं दातारं सर्व सम्पदाम, लोकाभिरामं श्री रामं भूयो भूयो नामाम्यहम् ||

श्री रामाय रामभद्राय रामचन्द्राय वेधसे, रघुनाथाय नाथाय पतये नमः || ||


श्रीरामाष्टक - संस्कृत में श्री राम मंत्र

हे रामा पुरूषोत्तम नरहरे नारायणा केशवा ||

गोविंदा गरुड़ध्वजा गुणनिधि दामोदरा माधवा || ||

हे कृष्ण कमलापते यदुपते सीतापते श्रीपते ||

बैकुण्ठाधिपते चराचरपते लक्ष्मीपते पाहिमाम् || ||


श्रीराम मंत्र, राम मंत्र

श्री राम का पाठ करने वाले हर साधक को जीवन में आने वाले कष्टों से मुक्ति मिलती है || भगवान राम के आशीर्वाद के साथ हनुमान जी की भी कृपा बनी रहती है || हमने यहां हर रेनडौल के लिए राम श्लोक दिया है || जो रोज़ पढ़ने से आपके जीवन के सारे कष्ट दूर होंगे ||


सौभाग्य और सुखप्राप्ति मंत्र (श्री राम मंत्र)

श्री राम जय राम जय जय राम || श्री रामचन्द्राय नमः ||

राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे ||

सहस्त्र नाम तत्तुन्यं राम नाम वरानने || ||

गरीबी/दरिद्रता निवारण मंत्र (श्री राम मंत्र)

अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के ||

कामद धन दारिद दवारि के || ||


सफलता के लिए मंत्र (श्री राम मंत्र)

ॐ राम ॐ राम ॐ राम ह्रीं राम ह्रीं राम श्रीं राम श्रीं राम - क्लीं राम क्लीं राम || फट् राम फट् रामाय नमः ||

विजयी मंत्र

श्री राम जय राम, जय जय राम

दिन में कम से कम 24 बार बोलना चाहिए।

।।जय सिया राम।।

शुक्रवार, 3 मई 2024

संसार में सबसे बड़ा कौन

                            संसार में सबसे बड़ा कौन 


        एक बार नारद जी के मन में एक विचित्र सा कौतूहल पैदा हुआ।उन्हें यह जानने की धुन सवार हुई कि ब्रह्मांड में सबसे बड़ा और महान कौन है?

        नारद जी ने अपनी जिज्ञासा भगवान विष्णु के सामने ही रख दी। भगवान विष्णु मुस्कुराने लगे।फिर बोले, नारद जी सब पृथ्वी पर टिका है। इसलिए पृथ्वी को बड़ा कह सकते हैं। और बोले परंतु नारद जी यहां भी एक शंका है।

       नारद जी का कौतूहल शांत होने की बजाय और बढ़ गया। नारद जी ने पूछा स्वयं आप सशंकित हैं फिर तो विषय गंभीर है। कैसी शंका है प्रभु ? विष्णु जी बोले, समुद्र ने पृथ्वी को घेर रखा है। इसलिए समुद्र उससे भी बड़ा है।

        अब नारद जी बोले, प्रभु आप कहते हैं तो मान लेता हूं कि समुद्र सबसे बड़ा है।यह सुनकर विष्णु जी ने एक बात और छेड़ दी, परंतु नारद जी समुद्र को अगस्त्य मुनि ने पी लिया था। इसलिए समुद्र कैसे बड़ा हो सकता है ? बड़े तो फिर अगस्त्य मुनि ही हुए।

        नारद जी के माथे पर बल पड़ गया। फिर भी उन्होंने कहा, प्रभु आप कहते हैं तो अब अगस्त्य मुनि को ही बड़ा मान लेता हूं।नारद जी अभी इस बात को स्वीकारने के लिए तैयार हुए ही थे कि विष्णु ने नई बात कहकर उनके मन को चंचल कर दिया।

          श्री विष्णु जी बोले, नारद जी पर ये भी तो सोचिए वह रहते कहां हैं।आकाशमंडल में एक सूई की नोक बराबर स्थान पर जुगनू की तरह दिखते हैं। फिर वह कैसे बड़े, बड़ा तो आकाश को होना चाहिए।

        नारद जी बोले, हां प्रभु आप यह बात तो सही कर रहे हैं। आकाश के सामने अगस्त्य ऋषि का तो अस्तित्व ही विलीन हो जाता है।आकाश ने ही तो सारी सृष्टि को घेर आच्छादित कर रखा है। आकाश ही श्रेष्ठ और सबसे बड़ा है।

        भगवान विष्णु जी ने नारद जी को थोड़ा और भ्रमित करने की सोची।श्रीहरि बोल पड़े, पर नारदजी आप एक बात भूल रहे हैं। वामन अवतार ने इस आकाश को एक ही पग में नाप लिया था  फिर आकाश से विराट तो वामन हुए।

        नारदजी ने श्रीहरि के चरण पकड़ लिए और बोले भगवन आप ही तो वामन अवतार में थे।फिर अपने सोलह कलाएं भी धारण कीं और वामन से बड़े स्वरूप में भी आए। इसलिए यह तो निश्चय हो गया कि सबसे बड़े आप ही हैं।

         भगवान विष्णु ने कहा, नारद, मैं विराट स्वरूप धारण करने के उपरांत भी, अपने भक्तों के छोटे हृदय में विराजमान हूं।*वहीं निवास करता हूं। जहां मुझे स्थान मिल जाए वह स्थान सबसे बड़ा हुआ न।*

         इसलिए सर्वोपरि और सबसे महान तो मेरे वे भक्त हैं जो शुद्ध हृदय से मेरी उपासना करके मुझे अपने हृदय में धारण कर लेते हैं।उनसे विस्तृत और कौन हो सकता है। तुम भी मेरे सच्चे भक्त हो इसलिए वास्तव में तुम सबसे बड़े और महान हो।

         श्रीहरि की बात सुनकर नारद जी के नेत्र भर आए। उन्हें संसार को नचाने वाले भगवान के हृदय की विशालता को देखकर आनंद भी हुआ और अपनी बुद्धि के लिए खेद भी।


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