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गुरुवार, 10 फ़रवरी 2022

श्रीमद भगवत गीता दूसरा श्लोक हिंदी में

           श्रीमद भगवत गीता दूसरा श्लोक हिंदी में

           कुरुक्षेत्र के युद्ध स्थल में सैन्य निरीक्षण


संजय ने कहा-

 दृष्ट्वा तु -----------वचनमब्रवीत्।।२।।

धृतराष्ट्र जन्म से अंधा था। दुर्भाग्यवश वह आध्यात्मिक दृष्टि से भी वंचित था। वह यह भी जानता था कि उसी के समान उसके पुत्र भी धर्म के मामले में अंधे हैं और उसे विश्वास था कि वह पांडवों के साथ कभी भी समझौता नहीं कर पाएंगे क्योंकि पांचो पांडव जन्म से ही पवित्र थे। फिर भी उसे तीर्थ स्थान के प्रभाव के विषय में संदेह था। इसलिए संजय युद्ध भूमि की स्थिति के विषय में उसके प्रश्न के मंतव्य को समझ गया। अत: वह राजा को प्रोत्साहित करना चाह रहा था। उसने उसे विश्वास दिलाया कि उसके पुत्र पवित्र स्थान के प्रभाव में आकर किसी प्रकार का समझौता करने नहीं जा रहे हैं।उसने राजा को बताया कि उसका पुत्र दुर्योधन पांडवों की सेना को देखकर तुरंत अपने सेनापति द्रोणाचार्य को वास्तविक स्थिति से अवगत कराने गया। यद्यपि दुर्योधन को राजा कहकर संबोधित किया गया है तो भी स्थिति की गंभीरता को देखते हुए उसे सनापति के पास जाना पड़ा। अतएव दुर्योधन राजनीतिज्ञ बनने के लिए सर्वथा उपयुक्त था। किंतु जब उसने पांडवों की व्यूह रचना देखी तो उसका यह कूटनीतिक व्यवहार उसके भय को छुपा ना पाया।


मंगलवार, 8 फ़रवरी 2022

श्रीमद् भगवत गीता यथारूप हिंदी में पहले अध्याय का पहला श्लोक

            श्रीमद्भागवत गीता यथारूप प्रथम अध्याय–



धर्मक्षेत्र------------------------संजय।।

महाभारत में धृतराष्ट्र तथा संजय की वार्ताएं इस महान दर्शन के मूल सिद्धांत का कार्य करते हैं। धर्म क्षेत्र शब्द सार्थक है, क्योंकि कुरुक्षेत्र के युद्ध स्थल में अर्जुन के पक्ष में श्री भगवान स्वयं उपस्थित थे। कौरवों का पिता धृतराष्ट्र अपने पुत्रों की विजय की संभावना के विषय में अत्यधिक संदिग्ध था। अतः इसी कारण उसने अपने सचिव से पूछा "उन्होंने क्या किया?" वह आश्वस्त था कि उसके पुत्र तथा उसके छोटे भाई पांडु के पुत्र कुरुक्षेत्र की युद्ध भमि में निर्णय आत्मक संग्राम के लिए एकत्र हुए हैं। फिर भी उसकी जिज्ञासा सार्थक है, वह नहीं चाहता था कि भाइयों में कोई समझौता हो, अत: वह युद्धभूमि में अपने पुत्रों की नियति के विषय में आश्वस्त होना चाह रहा था,क्योंकि इस युद्ध को कुरुक्षेत्र में लड़ा जाना था। जिसका उल्लेख वेदों में स्वर्ग के निवासियों के लिए भी तीर्थ स्थल के रूप में हुआ है। अत: धृतराष्ट्र अत्यंत भयभीत था कि इस पवित्र स्थल का युद्ध के परिणाम पर ना जाने कैसा प्रभाव पड़े। उसे भली-भांति पता था कि इसका प्रभाव अर्जुन तथा पांडु के पुत्रों पर अत्यंत अनुकूल पड़ेगा क्योंकि स्वभाव से ही वे सभी पुण्यात्मा थे।संजय श्री व्यास का शिष्य था, उनकी कृपा से संजय  धृतराष्ट्र के कक्ष में बैठे-बैठे कुरुक्षेत्र की युद्धस्थल का दर्शन कर सकता था। इसलिए धृतराष्ट्र ने उससे युद्ध की स्थिति के विषय में पूछा।

पांडु तथा धृतराष्ट्र के पुत्र दोनों ही एक वंश से संबंधित है, किंतु यहां पर  उसके मनोभाव प्रकट होते हैं। उसने जानबूझकर अपने पुत्रों को कुरु कहा और और पांडु के पुत्रों को वंश के उत्तराधिकार से अलग कर दिया। इस तरह पांडु के पुत्रों अर्थात अपने भतीजे के साथ धृतराष्ट्र के विशिष्ट मानस स्थिति समझी जा सकती है। जिस प्रकार धान के खेत से अवांछित पौधों को उखाड़ दिया जाता है। उसी प्रकार इस कथा के आरंभ से ही ऐसी आशा की जाती है कि जहां धर्म के पिता श्री कृष्ण उपस्थित हो, वहां कुरुक्षेत्र रूपी खेत में दुर्योधन आदि धृतराष्ट्र के पुत्र रूपी अवांछित पौधों को समूल नष्ट करके, युधिष्ठिर आदि नितांत धार्मिक पुरुषों की स्थापना की जाएगी। यहां धर्म क्षेत्र तथा कुरुक्षेत्र शब्दों की उनकी ऐतिहासिक तथा वैदिक महत्व के अतिरिक्त, यही सार्थकता है।


बुधवार, 2 फ़रवरी 2022

विष्णु कृपा की अनुभूति

      ’हरि: शरणम’ मंत्र के जप से अलौकिक कृपा अनुभूति



प्रार्थना का बड़ा चमत्कारी प्रभाव होता है। हमने अपने जीवन में इसका बहुत बार अनुभव किया है। प्रार्थना से भीषण से भीषण रोग ठीक हो सकते हैं। कोलकाता में श्री रुड़मलजी गोयन्दक  एक प्रसिद्ध व्यवसाई हुए हैं। एक बार उनको प्लेग हुआ 104- 5 डिग्री बुखार और दोनों जांघों में बड़ी-बड़ी गिल्टियां निकल आई थी, उस समय कोलकाता में सर कैलाश चंद्र बोस बड़े प्रसिद्ध डॉक्टर थे। उन्हें बुलाया गया उन्होंने देख कर कहा बचने की आशा बिल्कुल नहीं है रात निकालना कठिन है। सावधान रहना चाहिए। यह कहकर चले गए। श्री रूड़मल जी संस्कृत के पंडित थे, भागवत पढ़ा करते थे। भागवत के महात्मय में  नारद जी ने श्री सनकादिक जी से यह कहा कि आप सदा बालक रूप में इसलिए बने रहते हैं कि आप हरि: शरणम मंत्र का जप नृत्य करते हैं श्री रोडमल जी को यह प्रसंग याद हो आया उन्होंने अपने सेवक गोविंद को बुलाया और कहा गंगाजल लाओ शरीर पहुंचेंगे गंगाजल आ गया उन्होंने अंगूठे को गंगा जल में भिगोकर सारा शरीर पुष्ट पाया और कमरा बंद करके भगवान श्री कृष्ण की मूर्ति सामने रख ली और श्रीकृष्ण में मन लगाकर हरि: शरणम मंत्र का जप करने लगे, कई घंटे तक वह जप करते रहे, उन्हें याद नहीं रहा कि क्या हुआ। लगभग 4:00 बजे जब चेतना हुई तब उन्हें लगा शरीर हल्का है, बुखार नहीं है, उन्होंने टटोलकर देखा दोनों गिल्टियां भी गायब हैं। तब उन्होंने उठकर अब चल कर देखा,बिल्कुल स्वाभाविकता अनुभव हुई। उन्होंने कमरे का दरवाजा खोला और नौकर को आवाज दी। नौकर आया और सेठ जी  अपने दैनिक कार्य में लग गए।दूसरे दिन प्रातः काल डॉक्टर सर कैलाश, श्री रूड़मल जी के पड़ोस में एक रोगी को देखने आए ।डॉक्टर साहब रूड़मल जी का पता लगाने के लिए उनके घर आए आते ही, उन्होंने देखा कि श्री रूड़मल जी चांदी की चौकी पर ,चांदी के थाल में, पितांबर पहने प्रसाद पा रहे हैं। उन्हें इस प्रकार खाते देख, डॉक्टर साहब को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्हें लगा इन्होंने रात जैसे तैसे निकाल दी है और अब यह सन्निपात में खाने बैठ गए हैं। डॉक्टर साहब ने पूछा- सेठ जी किसके कहने से खा रहे हैं? सेठ जी बोले -जिसकी दवा से ठीक हुए हैं। इतना सुनने पर डॉक्टर साहब को लगा यह सन्निपात में ही बोल रहे हैं। डॉक्टर साहब घर वालों को सावधान कर के चले गए कि आप लोग ख्याल रखें, यह सन्निपात में खा रहे हैं ,पर श्री रूड़मल जी  तो पूर्ण स्वस्थ थे। उन्होंने छक्कर प्रसाद पाया और पूर्ण स्वस्थ हो गए। 

पीछे श्री रूड़मल जी हमें स्वयं ही बात बताई ,जब डॉक्टर साहब ने कह दिया कि रात्रि निकालनी कठिन है तब हमें मरने का सोच तो रहा नहीं। भागवत महात्मय के अंतर्गत श्रीनारद-सनकादिक प्रसंग स्मरण हो आया और हमने श्रीसनकादिक के प्रिय मंत्र हरि: शरणम का जप शुरू किया। ऐसा अनेकों प्रसंग देखें सुने और अनुभव किए हैं कि भगवान पर विश्वास हो तो, सच्चे हृदय से भगवान से प्रार्थना की जाए तो ,भगवान के यहां सब कुछ संभव है। (श्रीहनमान प्रसाद पोद्दार)

मंगलवार, 25 जनवरी 2022

रामायण के प्रमुख पात्र एवं उनका परिचय

                रामायण के प्रमुख पात्र एवं उनका परिचय



आप सभी से अनुरोध है कि रामायण के प्रमुख पात्रों की जानकारी अपने बच्चों को अवश्य दें, क्योंकि आज के समय में रामायण का पढ़ना पुराने समय की बात हो गई है। इसलिए बच्चे रामायण की बातें भूलते जा रहे हैं।

ये जानकारी हमने मात्र इसलिए साझा की है जिससे आप रामायण को आसानी से और अच्छे से समझ सकें।–

दशरथ– रघुवंशी राजा इन्द्र के मित्र कोशल प्रदेश के राजा तथा राजधानी एवं निवास अयोध्या।श्री राम, भरत,लक्ष्मण,और शत्रुघ्न जी के पिता।

कौशल्या – दशरथ की बङी रानी, राम की माता।

सुमित्रा - दशरथ की मझली रानी, लक्ष्मण तथा शत्रुधन की माता।

कैकयी- दशरथ की छोटी रानी, भरत की माता।

सीता– जनकपुत्री, राम की पत्नी।

उर्मिला– जनकपुत्री, लक्ष्मण की पत्नी।

मांडवी – जनक के भाई कुशध्वज की पुत्री, भरत की पत्नी।

श्रुतकीर्ति - जनक के भाई कुशध्वज की पुत्री, शत्रुध्न की पत्नी।

राम– दशरथ तथा कौशल्या के पुत्र, सीता के पति।

लक्ष्मण - दशरथ तथा सुमित्रा के पुत्र, उर्मिला के पति।

भरत – दशरथ तथा कैकयी के पुत्र, मांडवी के पति।

शत्रुध्न - दशरथ तथा सुमित्रा के पुत्र, श्रुतकीर्ति के पति, मथुरा के राजा लवणासुर के संहारक।

शान्ता– दशरथ की पुत्री, राम बहन।

बाली– किश्कंधा (पंपापुर) का राजा, रावण का मित्र तथा साढ़ू, साठ हजार हाथीयों का बल।

सुग्रीव – बाली का छोटा भाई, जिनकी हनुमान जी ने मित्रता करवाई।

तारा– बाली की पत्नी, अंगद की माता, पंचकन्याओं में स्थान।

रुमा– सुग्रीव की पत्नी, सुषेण वैध की बेटी।

अंगद– बाली तथा तारा का पुत्र।

रावण– ऋषि पुलस्त्य का पौत्र, विश्रवा तथा पुष्पोत्कटा (केकसी) का पुत्र।

कुंभकर्ण– रावण तथा कुंभिनसी का भाई, विश्रवा तथा पुष्पोत्कटा (केकसी) का पुत्र।

कुंभिनसी – रावण तथा कूंभकर्ण की बहन, विश्रवा तथा पुष्पोत्कटा (केकसी) की पुत्री।

विश्रवा - ऋषि पुलस्त्य का पुत्र, पुष्पोत्कटा-राका-मालिनी के पति।

विभीषण – विश्रवा तथा राका का पुत्र, राम का भक्त।

पुष्पोत्कटा (केकसी)– विश्रवा की पत्नी, रावण, कुंभकर्ण तथा कुंभिनसी की माता।

राका– विश्रवा की पत्नी, विभीषण की माता।

मालिनी - विश्रवा की तीसरी पत्नी, खर-दूषण त्रिसरा तथा शूर्पणखा की माता।

त्रिसरा– विश्रवा तथा मालिनी का पुत्र, खर-दूषण का भाई एवं सेनापति।

शूर्पणखा- विश्रवा तथा मालिनी की पुत्री, खर-दूसन एवं त्रिसरा की बहन, विंध्य क्षेत्र में निवास।

मंदोदरी– रावण की पत्नी, तारा की बहन, पंचकन्याओ मे स्थान।

मेघनाद– रावण का पुत्र इंद्रजीत, लक्ष्मण द्वारा वध।

दधिमुख– सुग्रीव के मामा।

ताड़का– राक्षसी, मिथिला के वनों में निवास, राम द्वारा वध।

मारीची – ताड़का का पुत्र, राम द्वारा वध (स्वर्ण मर्ग के रूप मे )।

सुबाहू– मारीची का साथी राक्षस, राम द्वारा वध।

सुरसा– सर्पो की माता।

त्रिजटा– अशोक वाटिका निवासिनी राक्षसी, रामभक्त, सीता से अनुराग। विभीषण की पुत्री।

प्रहस्त– रावण का सेनापति, राम-रावण युद्ध में मृत्यु।

विराध– दंडक वन मे निवास, राम लक्ष्मण द्वारा मिलकर वध।

शंभासुर– राक्षस, इन्द्र द्वारा वध, इसी से युद्ध करते समय कैकेई ने दशरथ को बचाया था तथा दशरथ ने वरदान देने को कहा।

सिंहिका– लंका के निकट रहने वाली राक्षसी, छाया को पकड़कर खाती थी।

कबंद– दण्डक वन का दैत्य, इन्द्र के प्रहार से इसका सर धड़ में घुस गया, बाहें बहुत लम्बी थी, राम-लक्ष्मण को पकड़ा, राम- लक्ष्मण ने गङ्ढा खोद कर उसमें गाड़ दिया।

जामबंत– रीछ थे, रीछ सेना के सेनापति।

नल– सुग्रीव की सेना का वानरवीर।

नील– सुग्रीव का सेनापति जिसके स्पर्श से पत्थर पानी पर तैरते थे, सेतुबंध की रचना की थी।

नल और नील– सुग्रीव सेना में इंजीनियर व राम सेतु निर्माण मे महान योगदान। (विश्व के प्रथम इंटरनेशनल हाईवे “रामसेतु” के आर्किटेक्ट इंजीनियर)

शबरी– अस्पृश्य जाती की रामभक्त, मतंग ऋषि के आश्रम में राम-लक्ष्मण-सीता का आतिथ्य सत्कार।

संपाती – जटायु का बड़ा भाई, वानरों को सीता का पता बताया।

जटायु – रामभक्त पक्षी, रावण द्वारा वध, राम द्वारा अंतिम संस्कार।

गुह– श्रंगवेरपुर के निषादों का राजा, राम का स्वागत किया था।

हनुमान – पवन के पुत्र, राम भक्त, सुग्रीव के मित्र।

सुषेण वैध– सुग्रीव के ससुर।

केवट– नाविक, राम-लक्ष्मण-सीता को गंगा पार करायी।

शुक्र-सारण– रावण के मंत्री जो बंदर बनकर राम की सेना का भेद जानने गये।

अगस्त्य – पहले आर्य ऋषि जिन्होंने विन्ध्याचल पर्वत पार किया था तथा दक्षिण भारत गये।

गौतम – तपस्वी ऋषि, अहल्या के पति, आश्रम मिथिला के निकट।

अहल्या - गौतम ऋषि की पत्नी, इन्द्र द्वारा छलित तथा पति द्वारा शापित, राम ने शाप मुक्त किया, पंचकन्याओं में स्थान।

ऋण्यश्रंग– ऋषि जिन्होंने दशरथ से पुत्र प्राप्ति के लिए यज्ञ कटाया था।

सुतीक्ष्ण– अगस्त्य ऋषि के शिष्य, एक ऋषि।

मतंग – ऋषि, पंपासुर के निकट आश्रम, यही शबरी भी रहती थी।

वसिष्ठ– अयोध्या के सूर्यवंशी राजाओं के गुरु।

विश्वमित्र– राजा गाधि के पुत्र, राम-लक्ष्मण को धनुर्विधा सिखायी थी।

शरभंग– एक ऋषि, चित्रकूट के पास आश्रम।

सिद्धाश्रम – विश्वमित्र के आश्रम का नाम।

भरद्वाज– बाल्मीकी के शिष्य, तमसा नदी पर क्रौच पक्षी के वध के समय वाल्मीकि के साथ थे, माँ-निषाद’ वाला श्लोक कंठाग्र कर तुरंत वाल्मीकि को सुनाया था।

सतानन्द– राम के स्वागत को जनक के साथ जाने वाले ऋषि।

युधाजित– भरत के मामा।

जनक – मिथिला के राजा।

सुमन्त्र – दशरथ के आठ मंत्रियों में से प्रधान।

मंथरा– कैकयी की मुंह लगी दासी, कुबड़ी।

देवराज– जनक के पूर्वज-जिनके पास परशुराम ने शंकर का धनुष सुनाभ (पिनाक) रख दिया था।

अयोध्या*– राजा दशरथ के कोशल प्रदेश की राजधानी, बारह योजना लंबी तथा तीन योजन चौड़ी, नगर के चारों ओर ऊँची व चौड़ी दीवारें व खाई थीं। राजमहल से आठ सड़के बराबर दूरी पर परकोटे तक जाती थी।   

सोमवार, 1 नवंबर 2021

मुझे निर्बल जानकार मेरा हाथ छुड़ाकर जाते हो कृष्णा

                         महान संत "सूरदास जी "



एक बार संत सूरदास जी को एक सज्जन ने भजन के लिए आमंत्रित किया.भजनोपरांत सज्जन को उन्हें घर तक पहुंचाने का ध्यान ही नहीं रहा.सूरदास जी ने भी उसे तकलीफ नहीं देनी चाही और खुद ही लाठी लेकर गोविंद-गोविंद करते हुए अंधेरी रात में पैदल ही अपने घर की ओर निकल पड़े.रास्ते में एक कुआं पड़ता था। वे लाठी से टटोलते-टटोलते, भगवान का नाम लेते हुए बढ़ रहे थे, कि उनके पांव और कुएं के बीच मात्र कुछ ही दूरी रह गई थी, और तभी उन्हें लगा कि किसी ने उनकी लाठी पकड़ ली है, उन्होंने पूछा- तुम कौन हो?उत्तर मिला- बाबा! मैं एक बालक हूं। मैं भी आपका भजन सुन कर लौट रहा हूं। देखा कि आप गलत रास्ते जा रहे हैं, इसलिए मैं इधर आ गया। चलिए, आपको घर तक छोड़ दूं।सूरदास जी ने पूछा- तुम्हारा नाम क्या है बेटा?उत्तर मिला- बाबा! अभी तक मां ने मेरा नाम नहीं रखा है।सूरदास जी ने पूछा- तब मैं तुम्हें किस नाम से पुकारूं?उत्तर मिला- कोई भी नाम चलेगा बाबा.सूरदास जी ने रास्ते में और भी कई सवाल पूछे और तब उन्हें लगा कि हो न हो, यह कन्हैया हैं। वे समझ गए कि आज गोपाल खुद मेरे पास आए हैं। क्यों नहीं मैं इनका हाथ पकड़ लूं। और यह सोचकर वे अपना हाथ उस लाठी पर भगवान श्री कृष्ण की ओर बढ़ाने लगे.भगवान श्री कृष्ण उनकी यह चाल समझ गए।

सूरदास जी का हाथ धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा था। जब केवल चार अंगुल अंतर रह गया, तब भगवान श्री कृष्ण लाठी को छोड़कर दूर चले गए। और जैसे ही उन्होंने लाठी छोड़ी, सूरदास जी विह्वल हो गए, उनकी आंखों से अश्रुधारा बह निकली, और वे बोले- मैं अंधा हूं, और ऐसे अंधे की लाठी छोड़कर चले जाना, कन्हैया तुम्हारी बहादुरी है क्या? और फिर उनके श्रीमुख से वेदना के यह स्वर निकल पड़े-*हाथ छुड़ाये जात हो,निर्बल जानि के मोय।हृदय से जब जाओ,तो सबल जानूँगा तोय।।

सार- मुझे निर्बल जानकार मेरा हाथ छुड़ाकर जाते हो, पर मेरे हृदय से जाओ तो मैं तुम्हें सबल कहूं।तब भगवान कृष्ण जी ने कहा- बाबा! अगर मैं ऐसे भक्तों के हृदय से चला जाऊं, तो फिर मैं कहां रहूं।जय ।।।श्री कृष्ण।।

रविवार, 10 अक्टूबर 2021

लक्ष्मीजी कई प्रकार की होती है,आप कौनसी लक्ष्मी की पूजा करते है?

 आठ प्रकार की हैं लक्ष्मी, आपको किस लक्ष्मी की आराधना करनी चाहिए?



आठ प्रकार के धन एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं. प्रत्येक व्यक्ति में अष्ट लक्ष्मी या आठ प्रकार के धन होते हैं, अधिक या कम मात्रा में लेकिन होते हैं. हम उनका कितना सम्मान करते हैं, उनका उपयोग करते हैं, हमारे ऊपर निर्भर है।

इन अष्ट लक्ष्मी की अनुपस्थिति को- अष्ट दरिद्रता कहा जाता है. लक्ष्मी से मिलाने वाले नारायण हैं. लक्ष्मी को प्राप्त करने के माध्मय हैं। किसी व्यक्ति के चाहे लक्ष्मी हों या न हों, पर नारायण को वह प्राप्त कर सकता है। नारायण दोनों के हैं- वे लक्ष्मी नारायण भी और दरिद्र नारायण भी!

दरिद्र नारायण को कोसा जाता है, लक्ष्मी नारायण को पूजा जाता है. पूरे जीवन का प्रवाह दरिद्र नारायण से लक्ष्मी नारायण तक यानी दुख से समृद्धि तक चलता है।

अष्ट लक्ष्मी को निम्न नामों से जाना जाता है:

आदि लक्ष्मी

धन लक्ष्मी

विद्या लक्ष्मी

धान्य लक्ष्मी

धैर्य लक्ष्मी

संतान लक्ष्मी

विजय लक्ष्मी

राज लक्ष्मी या भाग्य लक्ष्मी।

आदि लक्ष्मी 

अष्टलक्ष्मी, आदि लक्ष्मी या महालक्ष्मी का एक प्राचीन रूप हैं जो ऋषि भृगु की बेटी के रूप में भूलोक पर अवतार लेने वाली लक्ष्मी का स्वरूप हैं. आदि लक्ष्मी केवल ज्ञानियों के पास होती है. आदि लक्ष्मी देवी कभी न खत्म होने वाली प्रकृति का प्रतीक हैं जिसकी न कोई शुरुआत है और न ही कोई अंत. वह निरंतर है. इसलिए धन का प्रवाह भी निरंतर होना चाहिए. यह भी हमेशा रहा है और हमेशा रहेगा

श्री नारायण की सेवा करने वाली आदि लक्ष्मी या राम लक्ष्मी पूरी सृष्टि की सेवा करने का प्रतीक हैं. आदि लक्ष्मी और नारायण अलग-अलग नहीं हैं, बल्कि एक ही हैं. लक्ष्मी शक्ति हैं और नारायण की शक्ति हैं. नारायण की साथ ये पृथ्वी लोक के धर्म परायण जीवों के लिए लक्ष्मी नारायण हैं. आदि लक्ष्मी चार भुजाओं वाली हैं, कमल और श्वेत ध्वज धारण करती हैं, अन्य दो हाथ अभय मुद्रा और वरद. मुद्रा में हैं. जिस व्यक्ति को स्रोत का ज्ञान हो जाता है, वह सभी भय से मुक्त हो जाता है और संतोष और आनंद प्राप्त करता है. वह आदि लक्ष्मी की कृपा प्राप्त करता है. और जिनके पास आदिलक्ष्मी हुई समझ लो उनको भी ज्ञान हो गया।

धन लक्ष्मी 

धन लक्ष्मी धन और स्वर्ण की देवी हैं. इन्हें वैभव लक्ष्मी के नाम से भी जाना जाता है. धन लक्ष्मी लाल वस्त्रों में सजी अपनी भुजाओं में चक्र, शंख, अमृत कलश, धनुष-बाण, अभय मुद्रा और एक कमल से युक्त हैं।

सूर्य और चंद्रमा, अग्नि और तारे, बारिश और प्रकृति, महासागर और पहाड़, नदी और नाले, ये सभी हमारे धन हैं. इसलिए संतान, हमारी आंतरिक इच्छा शक्ति, हमारा चरित्र और हमारे गुण हैं. मां धन लक्ष्मी की कृपा से हमें ये सभी प्रचुर मात्रा में मिलते हैं।

विद्या लक्ष्मी 

यदि आप लक्ष्मी और सरस्वती के चित्र देखते हैं तो आप देखेंगे कि लक्ष्मी को ज्यादातर कमल में पानी के उपर रखा है. पानी अस्थिर है यानी लक्ष्मी भी पानी की तरह चंचल है. विद्या की देवी सरस्वती को एक पत्थर पर स्थिर स्थान पर रखा है. विद्या जब आती है तो जीवन में स्थिरता आती है. विद्या का भी हम दुरुपयोग कर सकते हैं और सिर्फ पढ़ना ही किसीका लक्ष्य हो जाए तब भी वह विद्या लक्ष्मी नहीं बनती. पढ़ना है, फिर जो पढ़ा है उसका उपयोग करना है तब वह विद्या लक्ष्मी है।

धान्य लक्ष्मी  

धान्य लक्ष्मी कृषि धन प्रदान करने वाली हैं. “धान्य” का अर्थ है अनाज. भोजन हमारा सबसे बुनियादी और सबसे महत्वपूर्ण धन है. हमें जीवन को बनाए रखने के लिए भोजन की आवश्यकता है. धनवान होने का मतलब है कि हमारे पास प्रचुर मात्रा में भोजन है जो हमें पोषित और स्वस्थ रखता है. वह फसल की देवी हैं जो फसल में बहुतायत और सफलता के साथ आशीर्वाद देती हैं. कहा जाता है कि हम वही बनते हैं जो हम खाते हैं. सही मात्रा और सही प्रकार का भोजन, सही समय और स्थान पर खाया हमारे शरीर और दिमाग को सकारात्मक रूप से प्रभावित करता है. माँ धान्य लक्ष्मी की कृपा से व्यक्ति को सभी आवश्यक पोषक तत्व अनाज, फल, सब्जियाँ और अन्य खाद्य पदार्थ मिलते हैं।


देवी धान्य लक्ष्मी हरे वस्त्र में सुशोभित, दो कमल, गदा, धान की फसल, गन्ना, केला, अन्य दो हाथ में अभय मुद्रा और वरमुद्रा धारण करती हैं।

धैर्य लक्ष्मी 

अष्ट लक्ष्मी की स्वरूप धैर्य लक्ष्मी हमें अपने धन के प्रबंध, उसके उपयोग की रणनीति, योजना बनाने की शक्ति देती है. यह धन हमें समान आसानी के साथ अच्छे और बुरे समय का सामना करने की आध्यात्मिक शक्ति देता है. यह हमारे सभी कार्यों में योजना और रणनीति के महत्व को दर्शाता है ताकि हम सावधानी से आगे बढ़ सकें और हर बार अपने लक्ष्य तक पहुंच सकें. माँ लक्ष्मी का यह रूप असीम साहस और शक्ति का वरदान देता है. वे, जो अनंत आंतरिक शक्ति के साथ हैं, उनकी हमेशा जीत होती है. जो लोग माँ धैर्य लक्ष्मी की पूजा करते हैं, वे बहुत धैर्य और आंतरिक स्थिरता के साथ जीवन जीते हैं।

धैर्य लक्ष्मी होने से ही जीवन में प्रगति हो सकती है नहीं तो नहीं हो सकती. जिस मात्रा में धैर्य लक्ष्मी होती है उस मात्रा में प्रगति होती है. चाहे बिजनेस में हो चाहे नौकरी में हो, धैर्य लक्ष्मी की आवश्यकता होती ही है।

संतान लक्ष्मी

संतान के रूप में जो लक्ष्मी मनुष्य को प्राप्त है वह संतान लक्ष्मी है. ऐसे बच्चे जो प्यार की पूंजी हों, प्यार का संबंध हों, भाव हों, तब वो संतान लक्ष्मी हुई. जिस संतान से तनाव कम होता है या नहीं होता है वह संतान लक्ष्मी है. जिस संतान से सुख, समृद्धि, शांति होती है वह है संतान लक्ष्मी. और जिस संतान से झगड़ा, तनाव, परेशानी, दुःख, दर्द, पीड़ा हुआ वह संतान संतान लक्ष्मी नहीं होती. देवी संतान लक्ष्मी छः-सशस्त्र हैं, दो कलशों, तलवार, ढाल, उनकी गोद में एक बच्चा, अभय मुद्रा में एक हाथ और दूसरा बच्चा पकड़े हुए हैं. बच्चा कमल धारण किये हुए है।

विजय लक्ष्मी 

विजय लक्ष्मी या जय लक्ष्मी सफलता के रास्ते में आने वाली बाधाओं को दूर करके विजय का मार्ग खोलती हैं. कुछ लोगों के पास सब साधन, सुविधाएं होती है फिर भी किसी भी काम में उनको सफलता नहीं मिलती. सब-कुछ होने के बाद भी किसी भी काम में वो हाथ लगाये वो चौपट हो जाता है, काम होगा ही नहीं, ये विजय लक्ष्मी की कमी है. यह देवी साहस, आत्मविश्वास, निडरता और जीत के धन का प्रतीक है। यह धन हमारे चरित्र को मजबूत करता है और हमें अपने जीवन पथ पर सफलतापूर्वक आगे बढ़ाता है।

राज लक्ष्मी 

पौराणिक कथाओं के अनुसार, इंद्र ने जब दुर्वासा के शाप से सारा राजपाट गंवा दिया. भाग्य विमुख हो गया तो राजलक्ष्मी की आराधना से उन्हें सबकुछ वापस मिला. राज लक्ष्मी कहे चाहे भाग्य लक्ष्मी कहे दोनों एक ही हैं. देवी राज लक्ष्मी चार भुजाओं वाली, लाल वस्त्रों में, दो कमल धारण करती हैं, अभय मुद्रा और वरदा मुद्रा में अन्य दो भुजाओं से घिरी हुई हैं, दो हाथी जल के कलश लिए हुए होते हैं।

सभी अष्ट लक्ष्मी से युक्त होना ही संसार में सुख का रास्ता खोलता है. अष्ट लक्ष्मी में से किसी न किसी स्वरूप का हमारे अंदर प्रवेश अधिक होता है, किसी का कम. उसी के अनुसार होता है हमारा जीवन।

अष्ट लक्ष्मी की कृपा हम सब पर बनी रहे.

शुक्रवार, 1 अक्टूबर 2021

महाभारत के श्री कृष्ण, पांडव, कौरव सब हमारे अंदर ही हैं

            क्या आप महाभारत का अर्थ जानते हैं? महाभारत में पांच पांडव कौरव श्री कृष्ण सब हमारे अंदर ही हैं।


शास्त्र कहते हैं कि अठारह दिनों के महाभारत युद्ध में उस समय की पुरुष जनसंख्या का 80% सफाया हो गया था। युद्ध के अंत में, संजय कुरुक्षेत्र के उस स्थान पर गए जहां संसार का सबसे महानतम युद्ध हुआ था।

उसने इधर-उधर देखा और सोचने लगा कि क्या वास्तव में यहीं युद्ध हुआ था? यदि यहां युद्ध हुआ था तो जहां वो खड़ा है, वहां की जमीन रक्त से सराबोर होनी चाहिए। क्या वो आज उसी जगह पर खड़ा है जहां महान पांडव और कृष्ण खड़े थे?

तभी एक वृद्ध व्यक्ति ने वहां आकर धीमे और शांत स्वर में कहा, "आप उस बारे में सच्चाई कभी नहीं जान पाएंगे!"

संजय ने धूल के बड़े से गुबार के बीच दिखाई देने वाले भगवा वस्त्रधारी एक वृद्ध व्यक्ति को देखने के लिए उस ओर सिर को घुमाया।

"मुझे पता है कि आप कुरुक्षेत्र युद्ध के बारे में पता लगाने के लिए यहां हैं, लेकिन आप उस युद्ध के बारे में तब तक नहीं जान सकते, जब तक आप ये नहीं जान लेते हैं कि असली युद्ध है क्या?" बूढ़े आदमी ने रहस्यमय ढंग से कहा।

"तुम महाभारत का क्या अर्थ जानते हो?" तब संजय ने उस रहस्यमय व्यक्ति से पूछा।

वह कहने लगा, "महाभारत एक महाकाव्य है, एक गाथा है, एक वास्तविकता भी है, लेकिन निश्चित रूप से एक दर्शन भी है।"

वृद्ध व्यक्ति संजय को और अधिक सवालों के चक्कर में फसा कर मुस्कुरा रहा था।"क्या आप मुझे बता सकते हैं कि दर्शन क्या है?" संजय ने निवेदन किया।

अवश्य जानता हूं, बूढ़े आदमी ने कहना शुरू किया। पांडव कुछ और नहीं, बल्कि आपकी पाँच इंद्रियाँ हैं - दृष्टि, गंध, स्वाद, स्पर्श और श्रवण - और क्या आप जानते हैं कि कौरव क्या हैं? उसने अपनी आँखें संकीर्ण करते हुए पूछा।

कौरव ऐसे सौ तरह के विकार हैं, जो आपकी इंद्रियों पर प्रतिदिन हमला करते हैं लेकिन आप उनसे लड़ सकते हैं और जीत भी सकते है।पर क्या आप जानते हैं कैसे?

संजय ने फिर से न में सर हिला दिया।

"जब कृष्ण आपके रथ की सवारी करते हैं!" यह कह वह वृद्ध व्यक्ति बड़े प्यार से मुस्कुराया और संजय अंतर्दृष्टि खुलने पर जो नवीन रत्न प्राप्त हुआ उस पर विचार करने लगा..

"कृष्ण आपकी आंतरिक आवाज, आपकी आत्मा, आपका मार्गदर्शक प्रकाश हैं और यदि आप अपने जीवन को उनके हाथों में सौप देते हैं तो आपको फिर चिंता करने की कोई आवश्कता नहीं है।" वृद्ध आदमी ने कहा।

संजय अब तक लगभग चेतन अवस्था में पहुंच गया था, लेकिन जल्दी से एक और सवाल लेकर आया।

फिर कौरवों के लिए द्रोणाचार्य और भीष्म क्यों लड़ रहे हैं?

भीष्म हमारे अहंकार का प्रतीक हैं, अश्वत्थामा हमारी वासनाएं, इच्छाएं हैं, जो कि जल्दी नहीं मरतीं। दुर्योधन हमारी सांसारिक वासनाओं, इच्छाओं का प्रतीक है। द्रोणाचार्य हमारे संस्कार हैं। जयद्रथ हमारे शरीर के प्रति राग का प्रतीक है कि 'मैं ये देह हूं' का भाव। द्रुपद वैराग्य का प्रतीक हैं। अर्जुन मेरी आत्मा हैं, मैं ही अर्जुन हूं और  स्वनियंत्रित भी हूं। कृष्ण हमारे परमात्मा हैं। पांच पांडव पांच नीचे वाले चक्र भी हैं, मूलाधार से विशुद्ध चक्र तक। द्रोपदी कुंडलिनी शक्ति है, वह जागृत शक्ति है, जिसके ५ पति ५ चक्र हैं। ओम शब्द ही कृष्ण का पांचजन्य शंखनाद है, जो मुझ और आप आत्मा को ढ़ाढ़स बंधाता है कि चिंता मत कर मैं तेरे साथ हूं, अपनी बुराइयों पर विजय पा, अपने निम्न विचारों, निम्न इच्छाओं, सांसारिक इच्छाओं, अपने आंतरिक शत्रुओं यानि कौरवों से लड़ाई कर अर्थात अपनी मेटेरियलिस्टिक वासनाओं को त्याग कर और चैतन्य  पाठ पर आरूढ़ हो जा, विकार रूपी कौरव अधर्मी एवं दुष्ट प्रकृति के हैं।

श्री कृष्ण का साथ होते ही ७२००० नाड़ियों में भगवान की चैतन्य शक्ति भर जाती है, और हमें पता चल जाता है कि मैं चैतन्यता, आत्मा, जागृति हूं, मैं अन्न से बना शरीर नहीं हूं, इसलिए उठो जागो और अपने आपको, अपनी आत्मा को, अपने स्वयं सच को जानो, भगवान को पाओ, यही भगवद प्राप्ति या आत्म साक्षात्कार है, यही इस मानव जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य है।

ये शरीर ही धर्म क्षेत्र, कुरुक्षेत्र है। धृतराष्ट्र अज्ञान से अंधा हुआ मन है। अर्जुन आप हो, संजय आपके आध्यात्मिक गुरु हैं।

वृद्ध आदमी ने दुःखी भाव के साथ सिर हिलाया और कहा, "जैसे-जैसे आप बड़े होते हैं, अपने बड़ों के प्रति आपकी धारणा बदल जाती है। जिन बुजुर्गों के बारे में आपने सोचा था कि आपके बढ़ते वर्षों में वे संपूर्ण थे, अब आपको लगता है वे सभी परिपूर्ण नहीं हैं। उनमें दोष हैं। और एक दिन आपको यह तय करना होगा कि उनका व्यवहार आपके लिए अच्छा या बुरा है। तब आपको यह भी अहसास हो सकता है कि आपको अपनी भलाई के लिए उनका विरोध करना या लड़ना भी पड़ सकता है। यह बड़ा होने का सबसे कठिन हिस्सा है और यही वजह है कि गीता महत्वपूर्ण है।"

संजय धरती पर बैठ गया, इसलिए नहीं कि वह थका हुआ था, तक गया था, बल्कि इसलिए कि वह जो समझ लेकर यहां आया था, वो एक-एक कर धराशाई हो रही थी। लेकिन फिर भी उसने लगभग फुसफुसाते हुए एक और प्रश्न पूछा, तब कर्ण के बारे में आपका क्या कहना है?

"आह!" वृद्ध ने कहा। आपने अंत के लिए सबसे अच्छा प्रश्न बचाकर रखा हुआ है।

"कर्ण आपकी इंद्रियों का भाई है। वह इच्छा है। वह सांसारिक सुख के प्रति आपके राग का प्रतीक है। वह आप का ही एक हिस्सा है, लेकिन वह अपने प्रति अन्याय महसूस करता है और आपके विरोधी विकारों के साथ खड़ा दिखता है। और हर समय विकारों के विचारों के साथ खड़े रहने के कोई न कोई कारण और बहाना बनाता रहता है।"

"क्या आपकी इच्छा; आपको विकारों के वशीभूत होकर उनमें बह जाने या अपनाने के लिए प्रेरित नहीं करती रहती है?" वृद्ध ने संजय से पूछा।

संजय ने स्वीकारोक्ति में सिर हिलाया और भूमि की तरफ सिर करके सारी विचार श्रंखलाओं को क्रमबद्ध कर मस्तिष्क में बैठाने का प्रयास करने लगा। और जब उसने अपने सिर को ऊपर उठाया, वह वृद्ध व्यक्ति धूल के गुबारों के मध्य कहीं विलीन हो चुका था। लेकिन जाने से पहले वह जीवन की वो दिशा एवं दर्शन दे गया था, जिसे आत्मसात करने के अतिरिक्त संजय के सामने अब कोई अन्य मार्ग नहीं बचा था।

।।ओम नमो भगवते वासुदेवाय।।

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