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बुधवार, 16 अगस्त 2023

सामान्य धर्म और परम धर्म में अंतर (परमार्थ के पत्र पुष्प)

सामान्य धर्म और परम धर्म में अंतर (परमार्थ के पत्र पुष्प)



श्री दशरथ दशरथ जी के मरने के बाद जब उनकी अंत्येष्टि क्रिया हो रही थी उस समय तीनों लोकों के महान से महान ऋषि महर्षि उपस्थित थे। तीनों माताएं सती कालिक श्रृंगार करके आई और चिता  की ओर बढ़ रही थी। उपस्थित ऋषि समूह सती हो जाना ही ठीक समझ रहे थे। इसी बीच श्री भरत लाल जी ने उन माताओं के श्री चरणों में प्रणाम किया। श्री तुलसीदास जी ने लिखा है कि– 
गहि पद भरत मातु सब राखी। रही राम दर्शन अभिलाषी।। मानस अयोध्याकांड 239 /2
उक्त वाक्य में ध्वनि यह है कि श्री भरत जी ने माताओं को प्रणाम करके उन्हें समझाया कि पति के साथ सती होना सामान्य धर्म है। शरीर को रखकर श्री राम का दर्शन करना परम धर्म है। परम धर्म से भक्ति होती है। भक्ति करने से ,परमधर्म का आचरण करने से सामान्य धर्म के त्याग का दोष नहीं लगता है। सामान्य पालन हुआ माना जाता है, सो के नोट में 50, 20, 10, 5 आदि के नोट समाए रहते हैं। सो के नोट को प्राप्त करने में यदि पांच का नोट छूट जाए, तो हानि नहीं मानी जाएगी। पांच का नोट सामान्य धर्म है और 100 का नोट भक्ति का आचरण है। सती होने में साधारण लाभ है। राम दर्शन में परम लाभ है। अतः अब वन में चलकर राम दर्शन होगा आगे वन से वापस आने पर अधिक समय तक श्री राम के दर्शन का लाभ होगा। यह सोचकर माताएं वापस रनिवास को चली गई।
फोन कि मैं कोई स्त्री भी दुआ नहीं होती थी सती हो जाती थी विधवा स्त्री जीवित नहीं रहती थी परंतु राम दर्शनार्थ माताएं जीवित रहे इसका समर्थन उसी समूह ने किया माताओं में श्रीराम से प्रार्थना की थी कि 
जो दिन गए तुमहि बिन देखे,ते विरंचि जनि पारहिं लखे।।
हे श्रीराम जो दिन तुम्हारे दर्शनों के बिना बीते, उनकी गिनती जीवन में ना हो, दर्शन युक्त जीवन ही जीवन है। भक्ति बिना जीवन जीवन नहीं है। श्री राम के जन्म से पूर्व का समय आयु में नहीं गिना गया। जन्म के बाद से जितनी आयु उस युग में होनी चाहिए, उतनी आयु माताओं ने प्राप्त की, 10000 वर्ष की आयु उन दिनों हुआ करती थी। दर्शन हीन जीवन लेखे में नहीं आया। माताएं अधिक दिन जीवित रही ,श्री राम जी के साथ परमधाम गई।
दादा गुरु भक्ति माली जी महाराज के श्री मुख से

गुरुवार, 3 अगस्त 2023

महाराज दशरथ का जन्म एक बहुत ही अद्भुत घटना है पौराणिक धर्म ग्रंथों के आधार पर बताया जाता है

 महाराज दशरथ का जन्म एक बहुत ही अद्भुत घटना है पौराणिक धर्म ग्रंथों के आधार पर बताया जाता है कि

एक बार राजा अज दोपहर की वंदना कर रहे थे।

उस समय लंकापति रावण उनसे युद्ध करने के लिए आया और दूर से उनकी वंदना करना देख रहा था। राजा अज ने भगवान शिव की वंदना की और जल आगे अर्पित करने की जगह पीछे फेंक दिया।

यह देखकर रावण को बड़ा आश्चर्य हुआ। और वह युद्ध करने से पहले राजा अज के सामने पहुंचा तथा पूछने लगा कि हमेशा वंदना करने के पश्चात जल का अभिषेक आगे किया जाता है, न कि पीछे, इसके पीछे क्या कारण है। राजा अज ने कहा जब मैं आंखें बंद करके ध्यान मुद्रा में भगवान शिव की अर्चना कर रहा था, तभी मुझे यहां से एक योजन दूर जंगल में एक गाय घास चरती हुई दिखी और मैंने देखा कि एक सिंह उस पर आक्रमण करने वाला है तभी मैंने गाय की रक्षा के लिए जल का अभिषेक पीछे की तरफ किया।

रावण को यह बात सुनकर बड़ा ही आश्चर्य हुआ।

रावण ऐक योजन दूर वहाँ गया और उसने देखा कि एक गाय हरी घास चर रही है जबकि शेर के पेट में कई वाण लगे हैं अब रावण को विश्वास हो गया कि जिस महापुरुष के जल से ही बाण बन जाते हैं और बिना किसी लक्ष्य साधन के लक्ष्य बेधन हो जाता है ऐसे वीर पुरुष को जीतना बड़ा ही असंभव है और वह उनसे बिना युद्ध किए ही लंका लौट जाता है।

एक बार राजा अज जंगल में भ्रमण करने के लिए गए थे तो उन्हें एक बहुत ही सुंदर सरोवर दिखाई दिया उस सरोवर में एक कमल का फूल था जो अति सुंदर प्रतीत हो रहा था।

उस कमल को प्राप्त करने के लिए राजा अज सरोवर में चले गए किंतु यह क्या राजा अज जितना भी उस कमल के पास जाते वह कमल उनसे उतना ही दूर हो जाता और राजा अज उस कमल को नहीं पकड़ पाया।

अंततः आकाशवाणी हुई कि हे राजन आप नि:संतान हैं आप इस कमल के योग्य नहीं है इस भविष्यवाणी ने राजा अज के हृदय में एक भयंकर घात किया था।

राजा अज अपने महल में लौट आए और चिंता ग्रस्त रहने लगे क्योंकि उन्हें संतान नहीं थी जबकि वह भगवान शिव के परम भक्त थे।

भगवान शिव ने उनकी इस चिंता को ध्यान में लिया। और उन्होंने धर्मराज को बुलाया और कहा तुम किसी ब्राह्मण को अयोध्या नगरी पहुँचाओ जिससे राजा अज को संतान की प्राप्ति के आसार हो।

दूर पार एक गरीब ब्राह्मण और ब्राह्मणी सरयू नदी के किनारे कुटिया बनाकर रहते थे ।

एक दिन वे ब्राह्मण राजा अज के दरबार में गए और उनसे अपनी दुर्दशा का जिक्र कर भिक्षा मांगने लगे।

राजा अज ने अपने खजाने में से उन्हें सोने की अशर्फियां देनी चाही लेकिन ब्राह्मण नहीं कहते हुए मना कर दिया कि यह प्रजा का है आप अपने पास जो है, उसे दीजिए तब राजा अज ने अपने गले का हार उतारा और ब्राह्मण को देने लगे किंतु ब्राह्मण ने मना कर दिया कि यह भी प्रजा की ही संपत्ति है

इस प्रकार राजा अज को बड़ा दुख हुआ कि आज एक गरीब ब्राह्मण उनके दरबार से खाली हाथ जा रहा है तब राजा अज शाम को एक मजदूर का बेश बनाते हैं और नगर में किसी काम के लिए निकल जाते हैं।

चलते - चलते वह एक लौहार के यहाँ पहुंचते हैं और अपना परिचय बिना बताए ही वहां विनय कर काम करने लग जाते हैं पूरी रात को हथौड़े से लोहे का काम करते हैं जिसके बदले में उन्हें सुबह एक टका मिलता है।

राजा एक टका लेकर ब्राह्मण के घर पहुंचते हैं लेकिन वहां ब्राह्मण नहीं था उन्होंने वह एक टका ब्राह्मण की पत्नी को दे दिया और कहा कि इसे ब्राह्मण को दे देना ।

जब ब्राह्मण आया तो ब्राह्मण की पत्नी ने वह टका ब्राह्मण को दिया और ब्राह्मण ने उस टका को जमीन पर फेंक दिया तभी एक आश्चर्यजनक घटना हुई ब्राह्मण ने जहां टका फेंका था वहां गड्ढा हो गया ब्राह्मण ने उस गढ्ढे को और खोदा तो उसमें से सोने का एक रथ निकला तथा आसमान में चला गया इसके पश्चात ब्राह्मण ने और खोदा तो दूसरा सोने का रथ निकला और आसमान की तरफ चला गया इसी प्रकार से, नौ सोने के रथ निकले

और आसमान की तरफ चले गए और जब दसवाँ रथ निकला तो उस पर एक बालक था और वह रथ जमीन पर आकर ठहर गया।

ब्राह्मण उस बालक को लेकर राजा अज के दरबार में पहुंचे और कहा राजन - इस पुत्र को स्वीकार कीजिए यह आपका ही पुत्र है जो एक टका से उत्पन्न हुआ है

तथा इसके साथ में सोने के नौ रथ निकले जो आसमान में चले गए जबकि यह बालक दसवें रथ पर निकला इसलिए यह रथ तथा पुत्र आपका है। इस प्रकार से दशरथ जी का जन्म हुआ था।

महाराज दशरथ का असली नाम मनु था और ये दसों दिशाओं में अपना रथ लेकर जा सकते थे इसीलिए दशरथ नाम से प्रसिद्ध हुए।

                जय श्री राम

शुक्रवार, 14 जुलाई 2023

कृष्णं वंदे जगदगुरूम्

                कृष्णं वंदे जगदगुरूम्

जिस प्रकार ईशतत्व सर्व व्याप्त है। उसी प्रकार गुरुतत्व सर्व व्याप्त है। गुरु में और कृष्ण में भेद नहीं है। कृष्णम वंदे जगदगुरूम। कृष्ण ही गुरु रूप में मिलकर उपदेश देते हैं। गुरु सेवा से कृष्ण कृपा सुलभ होती है, तात्पर्य यह है कि संत, भगवंत, गुरु में एकता है। संत, भगवंत, गुरु कृपा निरंतर जीवों पर बरसती रहती हैं। जो साधक सात्विक है वे कृपा को पचा लेते हैं और पुष्ट हो जाते हैं। उनका ज्ञान बुद्धि भक्ति सब कुछ पुष्ट हो जाता है। जो कृपा को नहीं पचा पाते हैं, वह दुष्ट हो जाते हैं। जैसे पौष्टिक पदार्थ पचेगा ,तो शरीर पुष्ट होगा। अति मात्रा में सेवन किया गया पौष्टिक तत्व जब नहीं पचता है, तो उल्टे शरीर में रोग पैदा कर देता है। इसलिए कृपा का अनुभव प्रत्येक परिस्थिति में करना चाहिए। यदि प्रभु की कृपा ना हो तो हमारी जिव्हा पर प्रभु का नाम भी नहीं आ सकता है।

।।जय श्री कृष्ण।।

गंगा में गुरु भाव प्रगट होने से.....

                        गंगा में गुरु भाव प्रगट होने से.......

गुरुदेव प्रदेश जाने लगे तो शिष्य से कहा कि गंगा जी को गुरु मानो। मेरे स्थान पर उन्हें प्रणाम करो। शिष्य ने गंगा जी में स्नान, वस्त्र धोना बंद कर दिया। गुरु के आने पर भी गंगा में गुरु भाव बना रहा। लोगों के मन में गुरु भक्ति दृढ़ करने के लिए गुरु ने गंगा में प्रवेश कर के, शिष्य से वस्त्र मांगे। गुरु आज्ञा पालन करना है वस्त्र देना है, पर गंगा में पैर नहीं रखना। धर्म संकट के समय धर्म की निष्ठा की रक्षा स्वयं भगवान करते हैं। कमल पत्र प्रकट हो गए, उन पर चलकर वस्त्र दिए। गुरु वचनों में विश्वास का अद्भुत दृष्टांत है।

विश्वास से परधाम गए गुरु वापस आए

                 विश्वास से प्रधान गए गुरु वापस आए

संत सदगुरुदेव में श्रद्धा की आवश्यकता है। जहां पर श्रद्धा होगी वहीं पर प्रभु अपना रूप प्रकट करके अनुभव करा देते हैं और अश्रद्धा के द्वारा दिया गया दान, हवन तुच्छ ल देता है। श्रद्धा पूर्वक थोड़ा दान भी महान फल देता है। शिष्य प्रदेश जाने लगा तो गुरु ने कहा कि वापस आओगे तो रहस्य की बात बताऊंगा। वापस आते आते गुरु का शरीर छूट गया, पर अपनी श्रद्धा के कारण उसने गुरु के शरीर त्याग को स्वीकार नहीं किया।बिना मुझे उस बात को बताए गुरुदेव भगवान वैकुंठ नहीं जा सकते, गुरु की वाणी में शिष्य का विश्वास था अतः गुरुदेव वैकुंठ में से वापस आ गए और कहा संत में मुझसे अधिक श्रद्धा रखकर सेवा करो। गुरु वचन में विश्वास से रहस्यमय  उपदेश मिला। वैकुंठ जाकर कोई वापस नहीं आता पर शिष्य की श्रद्धा ने गुरु को वापस बुला लिया। पुनः जीवित कर लिया। 

जय गुरुदेव।।

गुरुवार, 13 जुलाई 2023

परमार्थ के पत्र पुष्प (गुरु महिमा)

                  परमार्थ के पत्र पुष्प( गुरु महिमा)


ईश्वर परम दयालु है। तभी हम लोग सुख पूर्वक रह रहे हैं। यदि हमारे दोषों को प्रभु देखें तो एक क्षण भी हमको सुख ना मिले। जैसे अबोध शिशु के दोषों को देखकर माता-पिता उन पर ध्यान नहीं देते हैं, उसी प्रकार संसारी माता-पिता से भी कई गुना दयालु ईश्वर हम जीवो के दोषों पर ध्यान नहीं देता है। हम पग-पग पर अनेक अपराध करते हैं। भगवत कृपा से सत्संग प्राप्त हो, जीव ईश्वर की शरण में पहुंच जाए तो यह निष्पाप व निर्भय हो जाता है। ईश्वर का नियम है कि वह किसी संत सद गुरु देव की सिफारिश के बिना किसी को नहीं अपनाता है। गुरुदेव के रूप धारण कर ईश्वर ही अपनी प्राप्ति का उपाय बताता है। प्रत्येक शिष्य का गुरु ईश्वर ही होता है। ईश्वर और गुरु एक ही है। फिर भी वह ईश्वर जब गुरु रूप धारण करता है तब ईश्वर की अपेक्षा अधिक दयामय और क्षमाशील होता है। गुरु भक्त पर ईश्वर प्रसन्न रहता है। इतिहास में जिन लोगों ने गुरुवाणी में विश्वास किया, उन्हें प्रत्यक्ष फल मिला। कल्याणकारी शिक्षा देने वाले को गुरु कहते हैं। सर्वप्रथम शिक्षा देने वाले माता-पिता हैं वह गुरु हैं उनमें श्रद्धा विश्वास रखकर उनकी सेवा करनी चाहिए। वर्णमाला तथा लौकिक व्यवहार की शिक्षा देने वाले गुरु हैं। ईश्वर को प्राप्त कराने वाली शिक्षा सद्गुरु होते हैं। लोक में कोई ज्ञान बिना गुरु के नहीं होता है तो फिर ईश्वरीय ज्ञान बिना गुरुदेव के कैसे हो सकता है। गुरुवाणी में विश्वास से परधाम गए गुरु वापस आए और गंगा में गुरु भाव होने से चरणों के नीचे कमल दल प्रकट हो गए ।

सदगुरुदेव भक्त माली श्री गणेश दास जी महाराज दादा गुरु

सोमवार, 26 जून 2023

चाहे मन लगे या न लगे, यदि भगवान्‌का नाम जीभसे निरन्तर लेने लग जाइयेगा

                                    ॥ श्री हरिः ॥

जीभ से निरन्तर भगवान्‌का नाम लीजिये —


भगवान्ने कहा है—‘सभी धर्मोका आश्रय छोड़कर केवल एकमात्र मेरी शरणमें चले आओ। फिर मैं तुम्हें सब पापोंसे मुक्त कर दूँगा, तुम चिन्ता मत करो।' 

सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज । अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा  शुचः ॥ 

(गीता १८ । ६६ )

जरूर पढ़े–

https://www.parmatmaaurjivan.co.in/2022/02/blog-post.html

मनकी कैसी भी अवस्था क्यों न हो, कोई परवाह नहीं । केवल जीभसे निरन्तर भगवान्‌का नाम लीजिये, फिर सारी जिम्मेवारी भगवान् सँभाल लेंगे। केवल जीभसे नाम - स्मरण, और कोई शर्त नहीं । 

चाहे मन लगे या न लगे, यदि भगवान्‌का नाम जीभसे निरन्तर लेने लग जाइयेगा तो फिर न तो कोई शंका उठेगी, न कोई चाह रहेगी । थोड़े ही दिनोंमें शान्तिका अनुभव करने लगियेगा। इससे सरल उपाय कोई नहीं है । पूर्वके पापोंके कारण नाम लेनेकी इच्छा नहीं होती । यदि एक बार हठसे निरन्तर नाम लेकर नियम लेकर ४-६ महीने बैठ जायँगे, तो फिर किसीसे कुछ भी पूछनेकी जरूरत नहीं रहेगी । स्वयं सत्य वस्तुका प्रकाश मिलने लगेगा, संदेह मिटने लगेंगे। इस प्रकार जिस दिन भजन करते-करते सर्वथा शुद्ध होकर भगवान्‌ को चाहियेगा, उसी क्षण भगवान् से मिलकर कृतार्थ हो जाइयेगा। 

पहले ऐसा कीजिये कि कम-से-कम बोलकर जरूरी - जरूरी काम निबटा लीजिये, बाकी का समय पूरा - का - पूरा जीभ से नाम लेते हुए बिताइये । यह खूब आसानी से हो सकता है । करना नहीं चाहियेगा तो उसकी कोई दवा होनी बड़ी कठिन है । यदि मनुष्य भजन करना चाहे तो जरूर कर सकता है। यदि कोई कहता है - ' हमसे भजन नहीं होता' तो समझ लीजिये कि सचमुच वह भजन करना चाहता नहीं । आपके चाहने पर भजन अवश्य हो सकता है। बिना परिश्रम ही सब हो जायगा । यह कलियुग है, मन लगना बड़ा ही कठिन है । बिरले ऐसे होते हैं, जिनका मन सचमुच भगवान्‌ में लग गया हो। पर यदि कोई जीभ से नाम लेने लगे तो फिर बिना मन लगे ही अन्त तक अवश्य कल्याण हो जायगा । 

 -परमपूज्य श्री राधाबाबा।

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